दादा भगवान प्ररुपित

निजदोष दर्शन से... निर्दोष!

मूल गुजराती संकलन : डॉ. नीरू बहन अमीन

अनुवाद : महात्मागण

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Table of Contents
समर्पण
संपादकीय
उपोद्घात
निजदोष दर्शन से... निर्दोष
आत्मदृष्टि होने के बाद...
जगत् निर्दोष
निजदोष दर्शन से... निर्दोष!
आत्मदृष्टि होने के बाद...
जगत् निर्दोष

समर्पण

निजदोष दर्शन बिन, बंधन भवोभव का;

खुले दृष्टि स्वदोष दर्शन की, तरे भवसागर कितना।

मैं ‘चंदू’ माना तब से, मूल भूल की हुई शुरूआत;

‘मैं शुद्धात्मा’ का भान होते, होने लगे भूलों का अंत।

भगवान ऊपरी, कर्ता जग का, फिर लिपटीं अनंत भ्रांतियाँ;

बजे रिकॉर्ड पर माने बोला, उससे चोट देतीं, वाणियाँ।

भूलें लिपटी रही हैं किससे? किया उनका रक्षण सदा;

भूलों को मिल जाती खुराक, कषायों का पेट भरा।

जब तक रहेंगी निज भूलें, तब तक ही है भुगतना;

दिखें स्वदोष जब खुद के, तब पूर्ण निष्पक्षपाती हुआ।

देह-आत्मा के भेदांकन बिन, पक्ष रहे सदा खुद का;

ज्ञानी के भेदांकन द्वारा, रेखांकन आंके स्व-पर का।

फिर दोषों को देखते ही ठाँय, ‘सेट’ हुआ भीतर मशीनगन;

दोष धोने की मास्टर की, दिखे तब से कर प्रतिक्रमण।

भूल मिटाए वह भगवान, न रहा किसी का ऊपरीपन;

ज्ञानी का अद्भुत ज्ञान, प्रकटे निज परमात्मपन।

शुद्धात्मा होकर देखे, अंत:करण का हरएक अणु;

‘बावा’ के दोष धुलें, सूक्ष्मत्व तक का शुद्धिकरण।

निजदोष दर्शन दृष्टि का, ‘दादावाणी’ आज प्रमाण;

निजदोष छेदन के लिए अर्पण, ग्रंथ जगत् के चरण।

संपादकीय

इस जगत् में खुद बँधा है किससे? दु:ख क्यों भोगने पड़ते हैं? शांति किस तरह मिल सकती है? मुक्ति किस तरह प्राप्त हो सकती है? तो इस जगत् में बंधन खुद को खुद की भूलों से ही है। खुद को जगत् में किसी चीज़ ने बाँधा नहीं है। न तो घर बाँधता है, न ही बीवी-बच्चे बाँधते हैं। न ही धंधे-लक्ष्मी बाँधते हैं और न ही देह बाँध सकता है। खुद के ब्लंडर्स और मिस्टेक से बंधे हैं। अर्थात् निज स्वरूप की अज्ञानता, वह सर्व भूलों का मूल है और फिर परिणामस्वरूप अनंत भूलें, सूक्ष्मतम से लेकर स्थूलतम रूप में भूलों का सर्जन होता ही रहता है।

अज्ञानता से दृष्टि दोषित हुई है और राग-द्वेष होते हैं और नये कर्म बँधते रहते हैं। स्वरूप ‘ज्ञान’ की प्राप्ति होने से निर्दोष दृष्टि प्राप्त होती है। परिणामस्वरूप राग-द्वेष का क्षय होने से, कर्म बंधन से मुक्त होकर वीतराग हो सकते हैं। भूलों का स्वरूप क्या है? खुद अपने आपको समझने में मूल भूल हुई है, फिर खुद निर्दोष है, करेक्ट ही है ऐसा मानने में आता है और सामनेवाले को दोषित मानने में आता है। निमित्त को काटने तक के गुनाह हुआ करते हैं।

यहाँ प्रस्तुत संकलन में ज्ञानी पुरुष ऐसी ही समझ देते हैं कि जिससे खुद की भूलभरी दृष्टि छूटती है और निर्दोष दृष्टि प्रकट होती है। परम पूज्य दादाश्री बार-बार कहते थे कि, ‘यह जगत् किस प्रकार निर्दोष है, उसके हमें हज़ारों प्रमाण हाज़िर रहकर, जागृति रहती है।’ पर जो प्रमाण आपश्री के ज्ञान में अवलोकित हुए, वे कौन-से होंगे? वे यहाँ सुज्ञ पाठकों को एक के बाद एक प्राप्त होते रहते हैं। प्रस्तुत संकलन यदि बारीकी से ‘स्टडी’ किया जाए तो पाठक को निर्दोष दृष्टि के अनेक दृष्टिकोण संप्राप्त हों ऐसा है। जो परिणाम स्वरूप निर्दोष दृष्टि के पथ पर खुद को भी ले जाएगा। क्योंकि जिनकी संपूर्ण दृष्टि निर्दोष हो चुकी है, उनकी यह वाणी पाठक को अवश्य उस दृष्टि की समझ प्राप्त करवाएगी ही!

दूसरों के दोष देखने से, दोषित दृष्टि से, संसार खड़ा है और निर्दोष दृष्टि से संसार विराम पाता है। वह खुद संपूर्ण निर्दोष होता है। निर्दोष स्थिति पाएँ किस तरह? दूसरों के नहीं पर खुद के ही दोष देखने से। खुद के दोष कैसे-कैसे होते हैं, उसकी सूक्ष्म समझ यहाँ अगोपित होती है। बहुत ही बारीक से बारीक दोष दृष्टि को खुला करके निर्दोष दृष्टि बनाने की परम पूज्य दादाश्री की कला यहाँ सुज्ञ पाठक को जीवन में बहुत ही उपयोगी हो सके, वैसा है।

निमित्त के अधीन, संयोग, क्षेत्र, काल के अधीन निकली हुई वाणी के प्रस्तुत संकलन में भासित क्षति रूपी दोष को क्षम्य मानकर, उसके प्रति भी निर्दोष दृष्टि रखकर मुक्तिमार्ग के पुरुषार्थ का प्रारंभ करके संपूर्ण निर्दोष दृष्टि प्राप्त हो सके वही अभ्यर्थना।

डॉ. नीरू बहन अमीन के जय सच्चिदानंद

उपोद्घात

निजदोष दर्शन से... निर्दोष

‘दूसरों के दोष देखने से कर्म बँधते हैं, खुद के दोष देखने से कर्म में से छूटते हैं।’ यह है कर्म का सिद्धांत।

‘हुं तो दोष अनंत नुं भाजन छुं करुणाळ।’

(‘मैं तो दोष अनंत का भाजन हूँ करुणामय।’)

- श्रीमद् राजचंद्र।

अनंत जन्मों से अनंत दोषों का इस जीव ने सेवन किया है। इन अनंत दोषों का मूल एक ही दोष, एक ही भूल है, जिसके आधार पर अनंत दोषों की जकड़न अनुभव में आती है। वह कौन-सी भूल होगी?

सबसे बड़ा मूल दोष ‘खुद के स्वरूप का अज्ञान’ वही है! ‘मैं कौन हूँ?’ इतना ही नहीं समझने से तरह-तरह की रोंग बिलीफ़ खड़ी हो गई हैं और उनमें ही रचे-बसे हुए हैं अनंत जन्मों से। कभी किसी जन्म में ज्ञानी पुरुष से भेंट हो जाए, तब ‘वह’ भूल खतम होती है, फिर सारी भूलें खतम होने लगती हैं। क्योंकि ‘देखने वाला’ जाग्रत हो जाता है। इसलिए सभी भूलें दिखने लगती हैं और जो भूल दिखाई दी वह अवश्य जाती है। इसीलिए तो कृपालुदेव ने आगे कहा,

‘दीठा नहीं निज दोष तो तरीये कोण उपाय?’

(‘दिखे नहीं निज दोष तो तरें कौन उपाय?’)

खुद के दोष दिखें नहीं तो पार किस तरह उतरेंगे? वह तो ‘देखने वाला’ जाग्रत हो जाए तब हो पाता है।

जगत् की वास्तविकता का पता नहीं होने से भ्रांत मान्यताओं में, कि जो पग-पग पर विरोधाभासी होती हैं, उनमें मनुष्य उलझा करता है। जिसे इस संसार में निरंतर बोझ लगता रहता है, बंधन पसंद नहीं है, मुक्ति के जो चाहक हैं, उन्हें तो जगत् की वास्तविकताएँ, जैसे कि यह जगत् कौन चलाता है? किस तरह चलाता है? बंधन क्या है? मोक्ष क्या है? कर्म क्या है? इत्यादि जानना अत्यावश्यक है!

अपना ऊपरी वर्ल्ड में कोई है ही नहीं! खुद ही परमात्मा है या फिर उसका ऊपरी अन्य कौन हो सकता है? और यह भोगवटा वाला व्यवहार आ पड़ा है, उसके मूल में खुद के ही ‘ब्लंडर्स’ और ‘मिस्टेक्स’ हैं! ‘खुद कौन है’ वह नहीं जाना और लोगों ने कहा कि ‘तू चंदूभाई है।’ वैसा खुद ने मान लिया कि ‘मैं चंदूभाई हूँ’, वह उल्टी मान्यता ही मूल भूल और उसमें से आगे भूलों की परंपरा का सर्जन होता है।

इस जगत् में कोई स्वतंत्र कर्ता ही नहीं है, नैमित्तिक कर्ता है। अनेक निमित्त इकट्ठे हों, तब एक कार्य होता है। जबकि लोग एकाध दिखाई देने वाले निमित्त को अपने ही राग-द्वेष के नंबर वाले चश्मे में से देखकर, पकड़कर, उसे ही काटते हैं, उसे ही दोषित देखते हैं। परिणामस्वरूप खुद के ही चश्मे का काँच मोटा होता जाता है। (नंबर बढ़ते जाते हैं।)

इस जगत् में कोई किसी का बिगाड़ नहीं सकता, कोई किसी को परेशान नहीं कर सकता। जो कुछ परेशानी हमें होती है, उसमें मूलत: हमारी ही दी हुई परेशानी के परिणाम हैं। जहाँ मूल में ‘खुद’ की ही भूल है, वहाँ सारा जगत् निर्दोष नहीं ठहरता है? खुद की भूल मिटे, तो फिर वर्ल्ड में कौन हमारा नाम लेने वाला है?

यह तो हमने ही निमंत्रित्त किए, वे ही सामने आए हैं! जितने आग्रह से निमंत्रित किया उतने ही लगाव के साथ हम से चिपके हैं!

जो भूल रहित हैं, उनका तो लुटेरों के गाँव मे भी कोई नाम लेने वाला नहीं है! उतना अधिक प्रताप है शील का ।

खुद से किसी को दु:ख पहुँचे, उसका कारण खुद ही है! ज्ञानियों से किसी को किंचित् मात्र दु:ख नहीं होता है। उलटे अनेकों को परमसुखी बना देते हैं। ज्ञानी सभी भूलों को मिटाकर बैठे हैं, इसलिए! खुद की एक भूल मिटाए, वह परमात्मा हो सकता है!

ये भूलें किस आधार पर टिकी हुई हैं? भूलों का बचाव किया इसलिए। उनका रक्षण किया, इसलिए! क्रोध हो गया, फिर खुद उसका ऐसे बचाव करता है, ‘यदि उस पर ऐसे क्रोध नहीं किया होता तो वह सीधा होता ही नहीं!’ यह बीस साल के आयुष्य का एक्सटेन्शन कर दिया क्रोध का! भूलों का पक्ष लेना बंद हो, तब वे भूलें जाती हैं। भूलों को खुराक देते हैं, इसलिए वे हटती नहीं हैं! घर कर जाती हैं।

ये भूलें किस तरह मिटाएँ? प्रतिक्रमण से-पश्चाताप से!

कषायों का अंधापन दोष देखने नहीं देता है।

जगत् सारा भावनिद्रा में सो रहा है, इसलिए ही तो खुद, खुद का ही अहित कर रहा है! ‘मैं शुद्धात्मा हूँ’ ऐसा भान होने पर भावनिद्रा उड़ती है और जाग्रत होता है।

भूलों का रक्षण कौन करता है? बुद्धि! वकील की तरह भूल के फेवर की वकालत करके बुद्धि चढ़ बैठती है, ‘अपने’ ऊपर! इसलिए चलन चलता है फिर बुद्धि का। खुद की भूलों का इकरार कर ले, वहाँ भूलों का रक्षण उड़ जाता है और फिर उन्हें बिदाई लेनी ही पड़ती है!

हमें जो भूलें दिखाएँ वे तो महान उपकारी! जिन भूलों को देखने के लिए स्वयं को पुरुषार्थ करना पड़ता है, वे सामने से कोई हमें दिखा दे, उससे सरल और क्या है?

ज्ञानी पुरुष ओपन टु स्काय होते हैं। बच्चों जैसे होते हैं। छोटा बच्चा भी उन्हें बिना संकोच भूल बता सकता है! खुद भूल का स्वीकार भी करते हैं।

कोई भी बुरी आदत पड़ गई हो तो उससे छूटें किस तरह? हमेशा के लिए ‘यह आदत गलत ही है’ ऐसा अंदर और बाहर सब के सामने रहना चाहिए। उसका खूब पछतावा हर समय रखना चाहिए और उसका पक्ष एक बार भी नहीं लें, तब वह भूल जाती है। बुरी आदतें निकालने की यह परम पूज्य दादाजी की मौलिक खोज है!

वीतराग के पास खुद के सारे दोषों की आलोचना करने पर वे दोष तत्क्षण चले जाते हैं।

‘(जैसे-जैसे) भूल मिटती है, (वैसे-वैसे) सूझ खुलती जाती है’ परम पूज्य दादाश्री का यह सिद्धांत सीख लेने जैसा है।

‘जो फरियाद करता है, वही गुनहगार है!’ तुझे सामने वाला गुनहगार क्यों दिखा? फरियाद किसलिए करनी पड़ी?

टीका करनी यानी दस का करना एक! शक्तियाँ व्यर्थ होती हैं और नुकसान होता है! सामने वाले की भूल दिखे उतनी नालायकी अंदर रही है। बुरे आशय ही भूलें दिखाते हैं। हमें किसने न्यायाधीश के रूप में नियुक्त किया? खुद की प्रकृति के अनुसार काम करते हैं सभी। परम पूज्य दादाश्री कहते हैं, ‘मैं भी मेरी प्रकृति के अनुसार कार्य करता हूँ। प्रकृति तो होती ही है न! पर हम मुँह पर कह देते हैं कि मुझे तेरी यह भूल दिखती है। तुझे ज़रूरत हो तो स्वीकार लेना, नहीं तो एक तरफ रख देना!’ प्रथम घर में और फिर बाहर वाले सभी निर्दोष दिखेंगे तब समझना कि मुक्ति के सोपान चढ़े हैं।

दूसरों के नहीं, पर खुद के ही दोष दिखने लगें तब समझना कि अब हुआ समकित! और जितने भी दोष दिखते हैं वे हुए विदा, हमेशा के लिए!

सामने वाले के अवगुण या गुण दोनों ही देखने नहीं चाहिए। अंत में तो दोनों ही प्राकृत गुण ही हैं न! विनाशी ही हैं न! उसके शुद्धात्मा ही देखने चाहिए।

परम पूज्य दादाश्री कहते हैं, ‘जेबकतरा हो या चरित्रहीन हो, उसे भी हम निर्दोष ही देखते हैं! हम सत् वस्तु को ही देखते हैं। वह तात्त्विक दृष्टि है। हम पैकिंग को नहीं देखते!’ जगत् निर्दोष देखने की यह एक मात्र ‘मास्टर की’ है।

खुद की भूलों का पता कब चलता है? ज्ञानी पुरुष दिखाएँ तब। सिर पर ज्ञानी पुरुष नहीं हों, तो सब स्वच्छंद ही माना जाएगा।

उजाले की भूलों का तो कभी हल निकलता है, पर अंधेरे की भूलें जाती ही नहीं हैं। अंधेरे की भूलें यानी ‘मैं जानता हूँ!!!’

अक्रम ज्ञान की प्राप्ति के बाद मात्र अंदर का ही देखने में आए तो आप ‘केवलज्ञान’ सत्ता में होंगे। अंश केवलज्ञान होता है, सर्वांश नहीं। भीतर मन-बुद्धि-चित्त-अहंकार को देखते रहना है। परसत्ता के पर्यायों को देखते रहना है।

‘वस्तु, वस्तु का स्वभाव चूके वह प्रमत्त कहलाता है। वस्तु उसके मूल धर्म में रहे, वह अप्रमत्त भाव।’

मोक्ष कब होता है? ‘तेरा ज्ञान और तेरी समझ भूल रहित होंगे तब।’ भूल से ही अटका हुआ है। जप-तप की ज़रूरत नहीं है, भूल रहित होने की ज़रूरत है। मूल भूल कौन-सी? ‘मैं कौन हूँ?’ का अज्ञान। वह भूल कौन मिटाए? ज्ञानी पुरुष ही।

दोष निकलें किस तरह? दोष घुसे किस तरह, वह पता चले तो निकालने का रास्ता मिले। दोष श्रद्धा से, प्रतीति से घुसते हैं और श्रद्धा से, प्रतीति से वे निकलेंगे। सौ प्रतिशत मेरी ही भूल है ऐसी प्रतीति हो, फिर उस भूल का एक प्रतिशत भी रक्षण नहीं हो तब वह भूल जाती है!

जो-जो भगवान हुए, वे अपनी-अपनी भूलें मिटाकर भगवान हुए थे! परम पूज्य दादाश्री कहते हैं, ‘भूल किसे दिखती है? भूल रहित चारित्र संपूर्ण दर्शन में हो और भूल वाला वर्तन उसके वर्तन में हो तो उसे ‘हम’ मुक्त हुआ कहते हैं।’ हमें हमारी सूक्ष्म से सूक्ष्म, वैसे ही सूक्ष्मतर और सूक्ष्मतम सभी भूलें दिखती हैं।’

दोष हो जाता है, उसका दंड नहीं है पर दोष दिखाई दे, उसका इनाम है। इनाम में दोष जाता है। वह आत्मज्ञान के बाद खुद, खुद के लिए निष्पक्षपाती होता है, इसलिए खुद की सभी भूलें देख सकता है!

शुद्ध उपयोगी को कोई कर्म छूता नहीं है।

बुद्धि हमेशा समाधान खोजती है, स्थिरता खोजती है। बुद्धि स्थिर कब होती है? दूसरों के दोष देखे, तब बुद्धि स्थिर होती है, या फिर खुद के दोष देखे, तब भी बुद्धि स्थिर होती है।

अज्ञानता में दूसरों के ही दोष देखती है, खुद के दिखते ही नहीं। बुद्धि स्थिर नहीं होती इसलिए डाँवाँडोल (चंचल, अधीर) होती रहती है। फिर सारा अंत:करण हिला देती है, हुल्लड़ मचा देती है।

फिर बुद्धि, दूसरों के दोष दिखाए, तब खुद सच्ची सिद्ध होकर स्थिर होती है! फिर हुल्लड़ शांत हो जाता है! नहीं तो विचारों का घमासान चलता ही रहता है और इस प्रकार संसार में दखल हो रही है।

ऐसी बारीक बात कौन-से शास्त्र में मिलेगी?! जगत् का लेखा-जोखा किसी शास्त्र में मिले ऐसा नहीं है, वह तो ज्ञानी के पास ही मिलता है।

सामने वाले के दोष दिखें, वही संसार की अधिकरण क्रिया है! मोक्ष में जाने वाला खुद की भूलें देखता रहता है और संसार में भटकने वाले दूसरों की भूलें देखते रहते हैं!

अभिप्राय रखने से दृष्टि दोषित हो जाती है। प्रतिक्रमण से अभिप्राय टूटते हैं और नया मन बनता नहीं है।

आत्मदृष्टि होने के बाद...

देहाध्यास छूटे और आत्मा का अध्यास बैठे, उसके बाद निजदोष ही दिखते हैं।

कुछ दोष बर्फ के रूप में जमे हुए होते हैं, वे जल्दी किस तरह जाएँगे? अनेक परतों वाले होते हैं, इसलिए धीरे-धीरे जाते हैं। जैसे-जैसे दोष दिखाई दें, वैसे-वैसे परतें उखड़ती जाती हैं। जैसे प्याज़ की परतें होती हैं, वैसे बहुत चिकने दोषों के बहुत प्रतिक्रमण करने पड़ते हैं।

‘चंदूभाई’ से दोष होते हैं और खुद को अच्छे नहीं लगते तो वह ‘दोष दिखा’ कहलाता है और दिखा वह चला जाता है।

जीवन खुद के ही पाप-पुण्य की गुनहगारी का परिणाम है। फूल बरसे वह पुण्य का और पत्थर पड़े, वह पाप का परिणाम है! क़ीमत है समता भाव से भुगत लेने की।

अधिकतर उलझनें वाणी से पड़ती हैं। वहाँ जागृति रखकर या मौन रखकर हल ला सकते हैं। सम्यक् दृष्टि वाले को नये दोष भरते नहीं हैं और पुराने खाली होते हैं। ज्ञान प्राप्ति के बाद भी कषाय हो जाते हैं, पर उसका तुरंत पता चलता है और खुद उससे अलग रहता है।

अक्रमविज्ञानी ने तो ज्ञान देकर पच्चीसों प्रकार के मोह का नाश कर दिया है। अच्छी आदतें-बुरी आदतें, दोनों को भ्रांति कहकर छुड़वाया है सभी से।

सामने वाले की कौन-सी भूल निकाल सकते हैं? जो भूल उसे दिखती नहीं हो, वह। और किस प्रकार निकालनी चाहिए? सामने वाले को भूल निकालने वाला उपकारी दिखे तब निकालनी चाहिए। ‘कढ़ी खारी बनी है’ कहकर क्लेश नहीं करना चाहिए।

घर वाले सभी निर्दोष दिखें और खुद के ही दोष दिखें तब सच्चे प्रतिक्रमण होते हैं।

प्रतिक्रमण कब तक करने चाहिए? जिसके प्रति मन बिगड़ता रहता हो, याद आती रहती हो, तब तक। जब तक हमारा अटेकिंग नेचर (आक्रामक व्यवहार) होगा, तब तक मार पड़ेगी।

हम से चाहे कैसा भी व्यक्ति टकराने आए, तब भी हमें टकराव टालना चाहिए, हमें खिसक जाना चाहिए।

खुद कर्ता नहीं है पर सामने वाले को कर्ता देखता है, वह खुद ही कर्ता होने के बराबर है! सामने वाले को किंचित् मात्र कर्ता देखा कि खुद कर्ता हो ही गया। प्रकृति भले ही लड़ाई-झगड़े करे, पर उसे कर्ता नहीं देखना चाहिए। क्योंकि वह नहीं करता है। ‘व्यवस्थित’ करता है!

दोष करने वाला अहंकार और दोष देखने वाला भी अहंकार। दोष देखने वाला एकांतिक रूप से अहंकारी होता ही है।

सारा दिन माफी माँगते रहना चाहिए। सारा दिन माफी माँगने की आदत ही बना देना। ज्ञानी की कृपा से ही काम होता है, कोई दौड़-धूप करनी नहीं है। कृपा कब मिलती है? ज्ञानी की आज्ञा में रहने से। आज्ञा में रहने से समाधि होती है।

आत्मा भी वीतराग है और प्रकृति भी वीतराग है। लेकिन प्रकृति के दोष निकालने पर उसका ‘रिएक्शन’ आता है। किसी का दोष दिखाई दे वह अपना ही दोष है।

दादाजी का यह सत्संग, वहाँ मार पड़े तब भी छोड़ना नहीं। सत्संग में मर जाना, पर बाहर कहीं जाने जैसा नहीं है, सत्संग में किसी के दोष देखने नहीं। नहीं तो ‘वज्रलेपो भविष्यति!’ इसलिए यहाँ तुरंत ही प्रतिक्रमण करके धो डालना, नहीं तो निकाचित कर्म हो जाता है! ज्ञानी पुरुष के कभी भी दोष देखने ही नहीं चाहिए। ज्ञानी पुरुष के सामने बुद्धि का उपयोग करे, तो वह गिर जाता है, नर्क में जाता है। कोई विरला ही ज्ञानी के नज़दीक रहकर उनका एक भी दोष नहीं देखता। वही ज्ञानी की सेवा में नज़दीक रह सकता है!

दूसरों के दोष देखने से खुद के दोष देखने की शक्ति रुँध (अवरुद्ध हो) गई है। किसी की भूल होती ही नहीं है, भूल माननी ही हो तो ‘व्यवस्थित’ की मानना और ‘व्यवस्थित’ यानी खुद का ही हिसाब खुद के हिस्से में आता है। खुद ने भूल की है उसका दंड कुदरती निमित्तों द्वारा खुद को मिलता है।

ज्ञानी के प्रत्येक कर्म दिव्य कर्म होते हैं। बाह्य कर्म तो सभी के जैसे ही होते हैं पर उस समय उन्हें बरतती वीतरागता ही निहारने जैसी है! प्रत्यक्ष की वीतरागता देखने से वीतराग हो सकते हैं!

मोक्षार्थी की लाक्षणिकताएँ कौन-सी? सरलता! ओपन टु स्काइ! खुद के सारे ही दोष खुले कर देता है वह!

दोष में एकाग्रता होने से दोष दिखा नहीं। अंधापन आया, इसलिए दोष चिपट गया। वह दोष देखने से जाता है। हम खुद शुद्धात्मा हो गए, अब पुद्गल को शुद्ध करना बाकी रहा। वह देखने से ही शुद्ध हो जाता है।

अतिक्रमण जो करे, उसे प्रतिक्रमण करना है। शुद्धात्मा अतिक्रमण करता नहीं है, इसलिए प्रतिक्रमण करने का उसे रहता नहीं है। यह सिद्धांत लक्ष्य में रखना।

दादाश्री कहते कि, ‘हमारे प्रतिक्रमण, दोष होने से पहले ही शुरू हो जाते हैं, अपने आप! वह जागृति का फल है!

आगे की जागृति तो, दोषों को दोष की तरह भी देखता नहीं। वह ‘ज्ञेय’ और ‘खुद’ ‘ज्ञाता’। ज्ञेय है तो ज्ञातापन है!

किसी को न तो दोषित मानो और न ही निर्दोष मानो, निर्दोष जानो!

खुद की प्रकृति को देखना, चंदूभाई क्या कर रहे हैं, उसे देखना, वह शुद्ध उपयोग है। प्रकृति को क्यों देख नहीं पाते हैं? आवरण के कारण। वे आवरण किस तरह टूटें? ज्ञानी पुरुष ‘विधियाँ’ (चरणविधि) करवाते हैं, उससे आवरण टूटते हैं।

ज्ञानी के भी सूक्ष्मतर और सूक्ष्मतम दोष होते हैं, जो प्रतिक्रमण से शुद्ध करते हैं।

प्रकृति के गुण-दोषों को देखने वाला कौन? प्रकृति को प्रकृति देखती है, वह देखने वाला है प्रकृति का, बुद्धि और अहंकार वाला भाग! इसमें आत्मा निर्लेप होता है। आत्मा को अच्छा-बुरा होता ही नहीं है! प्रकृति के दोष दिखाने वाली ऊँची प्रकृति कहलाती है कि जो आत्मा प्राप्त करवाने वाली है।

प्रकृति को जो निर्दोष देखता है वह परमात्मा! देखने में मुक्तानंद! पर आत्मा को आनंद की भी पड़ी नहीं है। उसे तो केवल जैसा है वैसा देखने में सर्वस्व है!

दोष से अंतराय और अंतराय से संपूर्ण आनंद का अनुभव रुकता है!

परम पूज्य दादाश्री, अपनी अनुभव दशा का वर्णन करते हुए कहते हैं कि हमें तो बाल जितनी भी भूल हो तो तुरंत पता चल जाता है!’ वह अंदर कैसी कोर्ट होगी?! कैसा जजमैन्ट होगा? किसी के साथ मतभेद ही नहीं। गुनहगार दिखे, फिर भी उसके साथ कोई मतभेद नहीं! बाह्य रूप से गुनहगार, अंदर तो कोई भी गुनाह नहीं है।

इसीलिए दादाश्री संपूर्ण निर्दोष हुए और सारे जगत् को निर्दोष देखा!

ज्ञानी पुरुष की एक भी स्थूल या सूक्ष्म भूल नहीं होती! सूक्ष्मतर और सूक्ष्मतम भूलें ही होती हैं, जिनके खुद संपूर्ण ज्ञाता-दृष्टा होते हैं और वे भूलें किसी को नुकसानदायक नहीं होती हैं। सिर्फ खुद के ‘केवलज्ञान’ को ही वे रोकती हैं!

अंतिम प्रकार की जागृति कौन-सी? इस जगत् में कोई दोषित ही नहीं दिखे!

जिसने सारी भूलें खतम की, उसका इस जगत् में कोई ऊपरी ही नहीं रहा! इसीलिए ज्ञानी पुरुष देहधारी परमात्मा ही कहलाते हैं।

दादाश्री कहते हैं, ‘हम’ दोनों अलग हैं। भीतर प्रकट हुए हैं वे ‘दादा भगवान’ हैं। वे संपूर्ण प्रकट हो गए हैं, परम ज्योति स्वरूप! जो हमें हमारी भी अंदर वाली भूलें दिखाते हैं और वे ही चौदह लोक के नाथ हैं। वही दादा भगवान हैं! 360 डिग्री के पूर्ण भगवान!’

जगत् निर्दोष

जगत् निर्दोष किस तरह देखा जा सकता है?! आत्म दृष्टि से ही, पुद्गल दृष्टि से नहीं! तत्त्व दृष्टि से, अवस्था दृष्टि से नहीं!

सामने वाले को दोषित देखता है, वह अहंकार है देखने वाले का!

दुश्मन के प्रति भी भाव नहीं बिगड़े, बिगड़े, तो तुरंत ही प्रतिक्रमण से सुधार लिया जाए, तभी आगे प्रगति होती है और अंत में शीलवान हो पाते हैं।

शुरूआत में बुद्धि सामने वाले को निर्दोष नहीं देखने देगी पर निर्दोष देखने की शुरूआत करनी है। फिर जैसे-जैसे अनुभव होता जाएगा वैसे-वैसे बुद्धि शांत होती जाएगी।

जैसे गणित का सवाल करते समय जवाब पाने के लिए एक संख्या माननी पड़ती है, ‘माना कि 100 (सपोज़ हंड्रेड) फिर जवाब सही मिलता है न?! वैसे दादाश्री भी एक संख्या ‘मानने’ को कहते हैं कि, ‘इस जगत् में कोई दोषित ही नहीं है। समस्त जगत् निर्दोष है!’ सच्चा जवाब अंत में मिल जाएगा।

दृष्टि अनुसार सृष्टि। दोषित दृष्टि से सामने वाला दोषित दिखता है और निर्दोष दृष्टि से सामने वाला निर्दोष दिखता है।

ज्ञान मिलने के बाद भी जगत् निर्दोष है, वह अनुभव में नहीं आता। वहाँ तो दादाश्री ने कहा है इसलिए, ऐसा हमें निश्चित कर देना चाहिए कि जिससे कोई दोषित दिखे ही नहीं। जहाँ ऐसा निश्चित नहीं हुआ होगा, उस हिस्से में फिर मान ही लेना कि जगत् निर्दोष ही है! जवाब जानते हैं, इसलिए सवाल हल करना आसान हो जाएगा न! प्रतीति में तो सौ प्रतिशत रखना कि जगत् निर्दोष ही है। दोषित दिखता है, वह भ्रांति है और उससे संसार खड़ा है!

जान लिया उसका नाम कि ठोकर नहीं लगे। कषाय, (क्रोध-मान-माया-लोभ) ठोकरें ही हैं! और तब तक भटकना ही है! कषायों का पर्दा दूसरों के दोष दिखाता है! कषाय प्रतिक्रमण से जाते हैं।

मोक्ष के लिए कर्मकांड या क्रियाएँ करने की ज़रूरत नहीं है, आत्मा जानने की ज़रूरत है, जगत् निर्दोष देखने की ज़रूरत है!

फिर भी जिसे जो अनुकूल हो, वह करे। किसी की टीका करने की ज़रूरत नहीं है, नहीं तो उसके साथ नये करार बँधेंगे।

स्वकर्म के अधीन ही भोगवटा खुद को आता है, फिर दूसरे किसका गुनाह?

महावीर का सच्चा शिष्य कौन? जिसे लोगों के दोष दिखने कम होने लगे हैं! संपूर्ण दशा में नहीं, तो भी शुरूआत तो हुई!

धर्म में एक-दूसरे के दोष दिखते हैं, वह मेरा-तेरा की भेदबुद्धि से और उसके लिए श्रीमद् राजचंद्रजी ने कहा है,

‘गच्छ-मतनी जे कल्पना, ते नहीं सद्व्यवहार।’

(गच्छ-मत की जो कल्पना, वह नहीं सद्व्यवहार!’)

दादाश्री कहते हैं कि, ‘आज हम से जो कुछ बोला जाता है वह गतभव में रिकॉर्ड हुआ था, वही बोला जाता है। पिछले भव की भूल वाली रिकॉर्ड बनी थी। इसलिए किसी धर्म में ‘यह भूल है’ ऐसा बोला जाता है। पर आज का ज्ञान-दर्शन उसे संपूर्ण निर्दोष देखता है और जो बोला गया, उसका तुरंत ही प्रतिक्रमण होकर शुद्ध हो जाता है!’

अक्रम मार्ग का दादाश्री का गज़ब का ज्ञानीपद प्रकट हुआ है इस काल में! किसी की कल्पना में नहीं आए ऐसी यह आश्चर्यजनक कुदरत की भेंट है जगत् को। निर्दोष दृष्टि हुई, तब से खुद प्रेम स्वरूप हुए और उनके शुद्ध प्रेम ने कितनों को संसारमार्ग में से मोक्षमार्ग की ओर मोड़ा! उस बढ़े नहीं और घटे नहीं ऐसे परमात्म प्रेम को कोटि-कोटि नमस्कार!! निर्दोष जगत् दिखे, तब मुक्त हास्य प्रकट होता है। मुक्त हास्य देखते ही कितने रोग चले जाते हैं। ज्ञानी पुरुष का चारित्रबल सारे ब्रह्मांड को एक उँगली पर उठा ले ऐसा होता है! और वह चारित्रबल कहाँ से प्रकट होता है? निर्दोष दृष्टि से!

डॉ. नीरू बहन अमीन

(पृ.१)

निजदोष दर्शन से... निर्दोष!

विश्व की वास्तविकताएँ!

प्रश्नकर्ता : जगत् की वास्तविकता के विषय में कुछ कहिए।

दादाश्री : जगत् के लोग व्यवहार में दो तरह से रहते हैं, एक लौकिक भाव से और एक अलौकिक भाव से। इसमें जगत् का काफी कुछ भाग लौकिक भाव से ही रहता है, कि भगवान ऊपर हैं और भगवान सब करते हैं। और वापस खुद भी करता जाता है, भगवान भी करते जाते हैं। उन्हें किसी विरोधाभास का ख्याल नहीं है और उन्हें भगवान सिर पर रहें तो डर रहा करता है कि खुदा ये करेगा और वह करेगा। ऐसा करके गाड़ी चलती रहती है।

पर जो अत्यंत विचारशील हुआ है, जिसे सिर पर भाररूप बोझ किसी का चाहिए ही नहीं, तो उसके लिए असल हकीकत अलौकिक होनी ही चाहिए न? अलौकिक में कोई ऊपरी (बॉस, वरिष्ठ मालिक) है ही नहीं। जगत् में आपकी भूलें ही ऊपरी हैं, आपके ब्लंडर्स (मूलभूत भूलें) और मिस्टेक्स (सामान्य भूलें) वे दो ही ऊपरी हैं। दूसरा कोई ऊपरी है ही नहीं।

हमारा ऊपरी कौन ?

(पृ.२)

ऐसा कौन कह सकता है? तब ओहोहो! ये कितने निडर होंगे? और डर किसका रखना है? मेरी खोज है कि आपका ऊपरी ही कोई नहीं है, इस वर्ल्ड में। और जिसे आप ऊपरी मानते हो, भगवान को, वह तो आपका स्वरूप है। भगवान का स्वरूप ऊपरी हो नहीं सकता, कभी भी। उससे अनजान हैं इसलिए वे ऊपरी हो नहीं सकते। तब ऊपरी कौन? आपके ब्लंडर्स और मिस्टेक्स। ये दो ही यदि नहीं हों, तो आपका कोई ऊपरी है ही नहीं। मेरे ब्लंडर्स और मिस्टेक्स निकल गए हैं, इसलिए मेरा ऊपरी कोई भी नहीं है। आप जब ब्लंडर्स और मिस्टेक्स निकाल दोगे, तब आपका ऊपरी कोई नहीं रहेगा। अभी पुलिस वाले के साथ वहाँ टकराव करके आओ, यहाँ जल्दी आने के लिए, निबटाए बिना आओ, पुलिस वाला कहे, ‘गाड़ी खड़ी रखो’, और आपने खड़ी नहीं रखी तो फिर यहाँ पुलिस वाला आएगा। तब आप तुरंत समझ जाओगे कि यह मेरे लिए आया है। क्योंकि भूल की, वह हमें तुरंत पता चल जाता है कि यह भूल की है। वह भूल मिटाओ। मेरा क्या कहना है? निरी भूलें ही हुई हैं। उन्हें मिटाओ। अब तक दूसरों की ही भूलें दिखी हैं, खुद की भूलें दिखीं नहीं हैं। खुद की भूलें देखें, उन्हें मिटाएँ, वह भगवान हो जाता है!

मूल भूल कौन-सी?

और इस तरफ साधु-सन्यासी इच्छाओं को धकेलते रहते हैं। वे इच्छाएँ तो कुछ हटें ऐसी नहीं हैं। डबल होकर आएँ ऐसी हैं। मूल भूल कहाँ हुई है, वह खबर नहीं है लोगों को। वे इच्छाएँ होती हैं, वह भूल नहीं है। उसकी मूल भूल दबाएँ न हम, बटन दबाएँ न हम, तब पंखा बंद हो जाता है। यों ही पंखा पकड़ने जाएँ तो कुछ होता नहीं है। उसकी मूल भूल दबानी है।

‘मैं चंदूभाई हूँ’ वही मूल भूल है। मूल भूल ही यह है। वह आरोपित भाव है। सच्चा भाव नहीं है वह। जैसे यहाँ कोई इन्दिरा गांधी जैसे कपड़े पहनकर सबसे कहे, ‘मैं इन्दिरा गांधी हूँ’ और ऐसा कहकर उसका लाभ उठाए, तो उसका गुनाह लागू होता है या नहीं

(पृ.३)

होता है? उसी तरह ‘मैं चंदूभाई हूँ’, उसका निरंतर लाभ उठाता है। वह आरोपित भाव कहलाता है, उसी के गुनाह!

इसलिए, आपकी भूलें और आपके ब्लंडर्स, ये दो ही आपके ऊपरी हैं। आपके ब्लंडर्स क्या होंगे? ‘मैं चंदूभाई हूँ’ वह पहला ब्लंडर। ‘मैं इनका बेटा हूँ’, वह दूसरा ब्लंडर। ‘मैं इसका पति हूँ’, वह तीसरा ब्लंडर। ‘मैं इस लड़के का बाप हूँ’, वह चौथा ब्लंडर। ऐसे कितने ब्लंडर्स किए हैं?

प्रश्नकर्ता : अनेक हुए होंगे।

दादाश्री : हाँ, ये जो ब्लंडर्स हैं वे आपसे टूटेंगे नहीं। हम ब्लंडर्स तोड़ देते हैं और फिर मिस्टेक्स हों वे आपको निकालनी हैं। यानी कोई ऊपरी है नहीं। बिना काम की बेचैनी!! आपको समझ में आता है न, ऊपरी नहीं है ऐसा? पक्का विश्वास हो गया?

भूलें कब पता चलती हैं?

लोग मानते हैं कि भगवान ऊपरी हैं, इसलिए उनकी भक्ति करेंगे तो छूट जाएँगे। पर नहीं, कोई बाप भी ऊपरी नहीं है। तू ही तेरा ऊपरी, तेरा रक्षक भी तू और तेरा भक्षक भी तू ही। यू आर होल एन्ड सोल रिस्पोन्सिबल फॉर योर सेल्फ (आप ही अपने खुद के लिए संपूर्ण जिम्मेदार हो।) खुद ही खुद का ऊपरी है। इसमें दूसरा कोई बाप भी हस्तक्षेप नहीं करता है। हमारा बॉस है, वह भी हमारी भूल से है और अन्डरहैन्ड (मातहत) है, वह भी हमारी भूल से ही है। इसलिए भूल तो मिटानी ही पड़ेगी न!

खुद की संपूर्ण स्वतंत्रता-आज़ादी चाहिए तो खुद की सभी भूलें मिट जाएँ तब मिलेगी। भूल तो कब पता चलती है कि ‘खुद कौन है?’ उसका भान हो, परमात्मा का साक्षात्कार हो, तब!

कौन जगत् का मालिक?

(पृ.४)

इस ब्रह्मांड का हर एक जीव ब्रह्मांड का मालिक है। केवल खुद का भान नहीं है इसलिए ही जीव की तरह रहता है। खुद के देह की मालिकी का जिसे दावा नहीं है, वह पूरे ब्रह्मांड का मालिक हो गया! यह जगत् अपनी मालिकी का है, ऐसा समझ में आए, वही मोक्ष! अभी ऐसा क्यों समझ में नहीं आया है? क्योंकि हमारी ही भूलों ने बाँधा है, इसलिए। सारा जगत् अपनी ही मालिकी का है।

हमारा ऊपरी कोई बाप भी नहीं है। यह ऊपर बॉस है या बाप ऊपर बैठा है, ऐसा नहीं है। जो हो, वह आप ही हो, और आपको दंड देने वाला भी कोई नहीं है और आपको जन्म देने वाला भी कोई नहीं है। आप खुद जन्म लेते हो और देह धारण करते हो और फिर वापस जाते हो और आते हो। जाते हो और आते हो। आपकी मर्ज़ी मुताबिक के सौदे हैं। हिन्दुस्तान में आने तक तो माना कि कुदरती, साहजिक रूप से है, पर हिन्दुस्तान में आने के बाद थोड़ा-बहुत समझ में आता है कि हमारी कुछ भूल हो रही है।

समझदार आदमी यदि इतना ही समझे कि क्या मुझे कोई भी मनुष्य परेशान कर सके ऐसा नहीं है? तो हम कहेंगे कि नहीं है, नहीं है, नहीं है!!! और कहे कि, मेरा कोई ऊपरी नहीं है? तब कहेंगे, नहीं है, नहीं है, नहीं है!!! तेरे ऊपरी तेरे ब्लंडर्स और मिस्टेक्स हैं। ब्लंडर्स कैसे तोड़ने हैं? तो हम कहेंगे कि, यहाँ पर आ जाना भाई, और मिस्टेक्स कैसे मिटानी हैं? वह हमें तुझको समझाना पड़ेगा। फिर तुझे मिटानी हैं। हम रास्ता दिखाएँगे। मिस्टेक्स तुझे मिटानी हैं और ब्लंडर्स हमें तोड़ देने हैं।

नासमझी ने सर्जित किए दु:ख

दु:ख सब नासमझी का ही है इस जगत् में। दूसरा कोई भी दु:ख है, वह सब नासमझी का ही है। खुद ने खड़ा किया हुआ है सब, नहीं दिखने के कारण! जले तब पूछें न, कि भाई! कैसे आप जल गए? तब कहता है, ‘भूल से जल गया, कोई जान-बूझकर जलूँगा?’ ऐसे ये सारे दु:ख भूल से हैं। सब दु:ख अपनी भूल का

(पृ.५)

परिणाम है। भूल चली जाएगी तो हो गया।

प्रश्नकर्ता : कर्म चिकने होते हैं, उसके कारण हमें दु:ख भुगतना पड़ता है?

दादाश्री : अपने ही कर्म किए हुए हैं, इसलिए अपनी ही भूल है। किसी अन्य का दोष इस जगत् में है ही नहीं। दूसरे तो निमित्त मात्र हैं। दु:ख आपका है और सामने वाले निमित्त के हाथों दिया जाता है। ससुर की मृत्यु का पत्र पोस्टमेन दे जाए, उसमें पोस्टमेन का क्या दोष?

सामने वाला तो है मात्र निमित्त

हमें मकान की अड़चन हो और कोई व्यक्ति हमें मदद करे और मकान हमें रहने के लिए दे, तो जगत् के मनुष्यों को उस पर राग होता है, और जब वह मकान वापस लेना चाहे तो उसके प्रति द्वेष होता है। ये राग-द्वेष हैं। अब सचमुच में तो राग-द्वेष करने की ज़रूरत नहीं है, वह निमित्त ही है। वह देने वाला और लेने वाला, दोनों निमित्त हैं। आपके पुण्य का उदय हो, तब वह देने के लिए आ मिलता है, पाप का उदय हो तब वापस लेने के लिए आ मिलता है। उसमें उसका कोई दोष नहीं है। आपके उदय का आधार है। सामने वाले का किंचित् मात्र दोष नहीं है। वह निमित्त मात्र है, ऐसा अपना ज्ञान कहता है। कैसी सुंदर बात करता है!!

अज्ञानी को तो कोई मीठा-मीठा बोले, वहाँ पर राग होता है और कड़वा बोले वहाँ द्वेष होता है। सामने वाला मीठा बोलता है, वह खुद का पुण्य प्रकाशित है और सामने वाला कड़वा बोलता है, वह खुद का पाप प्रकाशित है। इसलिए मूल बात में, दोनों सामने वाले मनुष्यों को कुछ लेना-देना नहीं है। बोलने वाले को कुछ लेना-देना नहीं है। सामने वाला मनुष्य तो निमित्त ही बनता है। जो यश का निमित्त होता है, उससे यश मिलता रहता है और अपयश का निमित्त हो, उससे अपयश मिलता रहता है। वह निमित्त ही है खाली। उसमें किसी का दोष नहीं है!

(पृ.६)

प्रश्नकर्ता : सभी निमित्त ही माने जाते हैं न?

दादाश्री : निमित्त के अलावा इस जगत् में दूसरी कोई चीज़ है ही नहीं। वह भी निमित्त ही है।

प्रश्नकर्ता : बाज़ार में से यहाँ सत्संग में आया वह कौन-सा निमित्त?

दादाश्री : वह तो कर्म का उदय। निमित्त का कोई सवाल ही नहीं है। उदयकर्म, बाज़ार के कर्म का उदय पूरा हुआ, इसलिए इस कर्म का उदय यहाँ शुरू हुआ। इसलिए अपने आप विचार आता है कि चलो वहाँ जाते हैं। निमित्त कब कहलाता है? यहाँ आने के लिए निकले, दादर स्टेशन पर उतरे, थोड़ी दूर पहुँचे और कोई आकर मिला कि, ‘भई, वापस चलो, मुझे ऐसा है और मुझे खास काम है।’ तब हम जानें कि यह निमित्त आया। नहीं तो चलती हुई गाड़ी, वह तो कर्म के उदय के अनुसार चलती रहती है।

नहीं चुभते बोल, बगैर दोष के

प्रश्नकर्ता : कोई हमें कुछ कह जाए वह भी नैमित्तिक ही न? अपना दोष नहीं हो, फिर भी बोले तो?

दादाश्री : अपना दोष नहीं हो और वह बोले, तो किसी को ऐसा अधिकार नहीं है बोलने का। जगत् में किसी मनुष्य को, यदि आपका दोष नहीं हो, तो बोलने का अधिकार नहीं है। इसलिए, ये जो बोलता है वह आपकी भूल है, उसका बदला देता है यह। हाँ, वह आपकी पिछले जन्म की जो भूल है, उस भूल का बदला यह मनुष्य आपको दे रहा है। वह निमित्त है और भूल आपकी है। इसलिए ही वह बोल रहा है।

अब वह अपनी भूल है, इसलिए यह बोल रहा है। तो वह मनुष्य हमें उस भूल में से मुक्त करवाता है। उसके प्रति भाव नहीं बिगाड़ना चाहिए। और हमें क्या कहना चाहिए कि प्रभु उसे सद्बुद्धि

(पृ.७)

देना। इतना ही कहना चाहिए, क्योंकि वह निमित्त है।

काटना निमित्त को?

हमें तो किसी मनुष्य के लिए खराब विचार ज़रा सा भी नहीं आता है। उल्टा-सीधा कर जाए, तब भी खराब विचार नहीं! क्योंकि उसकी दृष्टि, बेचारे को जैसा दिखता है वैसा करता है। उसमें उसका क्या दोष है? और वास्तव में, एक्ज़ेक्टली क्या है यह जगत् कि इस जगत् में कोई दोषित है ही नहीं। आपको दोष दिखता है, वह आपकी देखने की दृष्टि में अंतर है। मुझे कोई दोषित दिखा नहीं आज तक। इसलिए कोई दोषित है नहीं, ऐसा मानकर आप चलना न? अपना अंतिम स्टेशन है, वह सेन्ट्रल है, ऐसा मानकर हम चलें तो फायदा होता है या नहीं होता? आपको क्या लगता है?

प्रश्नकर्ता : हाँ, होता है फायदा।

दादाश्री : कोई दोषित है नहीं, ऐसा जानोगे, तभी अन्य सब निर्दोष लगेंगे हमें! क्योंकि आप निमित्त हैं और वे बेचारे भी निमित्त हैं। और लोग निमित्त को काटते (लड़ना-झगड़ना, आरोप लगाना) हैं। निमित्त को काटना, ऐसा करते हैं क्या कभी? नहीं काटते, नहीं? निमित्त को काटते हैं?

प्रश्नकर्ता : हम निमित्त को काटते हैं, पर काटना नहीं चाहिए न?

दादाश्री : पराये दोष देखना, उसे हम निमित्त को काटने की स्थिति कहते हैं। अरे! निमित्त को काटा तूने? वह तुझे गालियाँ देता है, वह तेरे कर्म का उदय है। यह उदय तुझे भुगतना है। बीच में वह निमित्त है। निमित्त तो उपकारी है कि भई, तुझे कर्मों में से छुड़वाने आया है। उपकारी है, उसके बदले तू गालियाँ देता है? तू उसे काट खाता है, इसलिए वह, निमित्त को काटा, ऐसा कहलाता है। इसलिए, ये महात्मा डर गए हैं कि नहीं, अब हम काटेंगे नहीं कभी भी!!

‘यह मुझे ठग गया’ ऐसा बोला वह भयंकर कर्म बाँधता है।

(पृ.८)

उसके बजाय दो थप्पड़ मार ले तो कम कर्म बँधते हैं। वह तो जब ठगे जाने का काल उत्पन्न होता है, हमारे कर्म का उदय होता है, तभी हम ठगे जाते हैं। उसमें सामने वाले का क्या दोष? उसने तो उल्टे हमारा कर्म खपा दिया, वह तो निमित्त है।

अनुमोदन का फल

प्रश्नकर्ता : दूसरों के दोष का खुद को दंड मिलता है?

दादाश्री : नहीं, उसमें किसी का भी दोष नहीं है। खुद के दोष से ही सामने वाले निमित्त बनते हैं। यह तो भुगते उसकी भूल। करना, करवाना और अनुमोदन करना। उस अनुमोदन का भी फल आता है। किए बिना फल नहीं आता।

प्रश्नकर्ता : अनुमोदन किसे कहते हैं?

दादाश्री : यदि कोई कुछ करते हुए हिचकिचाता हो तो आप कहो कि, ‘तू तेरे कर, मैं हूँ ना।’ वह अनुमोदन कहलाता है। और अनुमोदन करने वाले की अधिक जिम्मेदारी कहलाती है। किए हुए का फल किसे ज़्यादा मिलता है? तब कहे, जिसने अधिक बुद्धि इस्तेमाल की, उसके आधार पर वह बँट जाता है।

चुनौती नहीं, तो पूर्णता की प्राप्ति

इस जगत् में कोई भी मनुष्य आपका कुछ भी नुकसान करता है, उसमें वह निमित्त है। नुकसान आपका है, इसलिए ‘रिस्पोन्सिबल’ (जिम्मेवार) आप हो। कोई मनुष्य किसी का कुछ कर सकता ही नहीं है, ऐसा यह स्वतंत्र जगत् है। और यदि कोई कुछ भी कर सका होता तो ‘फीयर’ (डर) का कोई पार ही नहीं रहता! तब तो फिर कोई किसी को मोक्ष में ही जाने नहीं देता। तब तो फिर भगवान महावीर को भी मोक्ष में जाने नहीं देते। भगवान महावीर तो कहते हैं कि आपको जो अनुकूल हो, वैसा भाव मुझ पर करना, आपको मुझ

(पृ.९)

पर विषय के भाव आएँ, तो विषय के करो, निर्विषयी के भाव आते हैं तो निर्विषयी के करो, धर्म के भाव आते हैं तो धर्म के करो, पूज्यपद के आते हैं तो पूज्यपद दो, गालियाँ देनी हों तो गालियाँ दो। मेरी उसके सामने कोई चुनौती नहीं है। जिनकी चुनौती नहीं है, वे मोक्ष में जाते हैं और चुनौती देने वाले का यहीं मुकाम रहता है!

नहीं तो यह जगत् तो ऐसा है न कि आपके ऊपर उल्टा या सुल्टा भाव करता ही रहता है। जेब में आप रुपये रख रहे हों और वह किसी जेबकतरे ने देख लिया तो वह जेब काटने का भाव करता है या नहीं करता? कि रुपये हैं, काट लेने जैसा है। पर उतने में गाड़ी आई और आप बैठ गए और आप चले गए और वह रह गया। पर ऐसा भाव तो करता ही है जगत्! पर उसमें आपकी चुनौती नहीं है तो कोई आपका नाम देने वाला नहीं है। किसी के भी भाव में आपका भाव नहीं है तो कोई आपको बाँधने वाला नहीं है। ऐसे बाँधे तो पार ही नहीं आएगा न! आप स्वतंत्र हो, कोई आपको बाँध सके ऐसा नहीं है।

एक में से अनंत, अज्ञानता से

यह आँख हाथ से दब जाए तो चीज़ एक हो, तो दो दिखाई देती हैं। आँख, वह आत्मा का रियल स्वरूप नहीं है। वह तो रिलेटीव स्वरूप है। फिर भी, एक भूल होने से एक के बदले दो दिखती हैं न? ये काँच के टुकड़े ज़मीन पर पड़े हों तो कितनी सारी आँखें दिखती हैं? इस ज़रा-सी भूल से कितनी सारी आँखें दिखती हैं? वैसे ही यह आत्मा खुद दबता नहीं है, पर संयोगों के प्रेशर (दबाव) से एक के अनंत रूप दिखते हैं। यह जगत् सारा भगवत् स्वरूप है। इस पेड़ को काटने का केवल भाव ही करें तो भी कर्म चिपके ऐसा है। सामने वाले का ज़रा-भी खराब सोचा तो पाप लगता है और अच्छा भाव करे, तो पुण्य बँधता है।

आप यहाँ सत्संग में आएँ और यहाँ लोग खड़े हों, तो होता है कि ये सब क्यों खड़े हैं? तब मन में भाव बिगड़ता है। उस भूल

(पृ.१०)

के लिए, उसका तुरंत ही प्रतिक्रमण करना पड़ता है।

दो ही वस्तुएँ विश्व में

संयोग और शुद्धात्मा दो ही हैं। संयोग खड़े क्यों हुए? संयोग सभी को अलग-अलग आते हैं। हाँ, किसी को सारी ज़िंदगी कोई मारने वाला नहीं मिलता और किसी को सारी ज़िंदगी में कितनी ही बार मार खानी पड़ती है। उसे ऐसा संयोग क्यों आता है और इसे ऐसा क्यों? क्योंकि उसने किसी को मारने का भाव ही नहीं किया था, इसलिए उसे ऐसा संयोग और इसने मारने के ही भाव किए थे, इसलिए इसे ऐसा संयोग। मतलब ऐसे संयोग किसलिए आए, उसके भी कारण मिलें ऐसा है। ऐसा संयोग किस कारण से मिला, वह भी पता चले ऐसा है।

रास्ते में कोई गरीब मनुष्य मिला और बहुत रो रहा हो तो आप उसे ग्यारह रुपये दे रहे हों, तो यह भाई कहेगा कि रहने दो न! उसे एक ही रुपया दो न! ग्यारह रुपये उसे किसलिए देते हैं?’ अब वह लेने वाला, देने वाले आप और इसने मना किया यानी अंतराय पड़ा। उसको मिल रहा था उसमें अंतराय पड़ा। उस अंतराय कर्म से रुपये उसके पास जमा नहीं होंगे।

अब यह जो भी सब किया, ये उसके ही सारे संयोग इकट्ठे हुए हैं। कोई नये संयोग नहीं है। आपका कोई ऊपरी है नहीं, वैसे ही आपका कोई अंडरहैन्ड भी नहीं है। जगत् सारा स्वतंत्र है। आपकी भूलें ही आपकी ऊपरी हैं बस, हमारी भूलें होती हैं वे ही! भूलें और ब्लंडर्स!!!

यानी आपकी भूल नहीं हो तो कोई आपका नाम लेने वाला भी नहीं है वर्ल्ड में। देखो, रास्ते में कोई नाम देता है? पुलिस वाले, चेकिंग वाले कोई कुछ परेशान करता है? तंग करता है? क्योंकि यदि आपकी भूल नहीं होगी तो कोई नाम ही नहीं लेगा।

(पृ.११)

निमंत्रण थप्पड़ को, मुआवज़े के साथ

कोई हमें गालियाँ दे, हमें बुरा सुनने को मिला, वह तो बहुत पुण्यवान कहलाता है, नहीं तो वह मिलता ही नहीं न! मैं पहले ऐसा कहता था, आज से दस-पंद्रह साल पहले, कि भाई, कोई भी मनुष्य पैसों की अड़चन वाला हो, तो मैं कहता हूँ कि मुझे एक थप्पड़ मारना, मैं पाँच सौ रुपये दूँगा। एक आदमी मिला था, मैंने उससे कहा कि ‘तुझे पैसों की कमी है न? सौ-दो सौ की? तो तेरी कमी तो आज से ही पूरी हो जाएगी। मैं तुझे पाँच सौ रुपये दूँगा, तू मुझे एक थप्पड़ मार।’ तब बोला, ‘नहीं दादा, ऐसा नहीं हो सकता।’ मतलब थप्पड़ मारने वाले भी कहाँ से लाएँ? मोल लाएँ तो भी ठिकाना पड़े, ऐसा नहीं है और गालियाँ देने वाले का भी ठिकाना पड़े ऐसा नहीं है। तब जिसे घर बैठे ऐसा फ्री ऑफ कॉस्ट (मुफ्त में) मिलता हो तो वह भाग्यशाली ही कहलाएगा न! क्योंकि मुझे तो पाँच सौ रुपये देकर भी कोई मिलता नहीं था।

ज्ञान होने से पहले तो मैं खुद अपने को गालियाँ देता था, क्योंकि मुझे कोई गालियाँ नहीं देता था न! तब (गाली) मोल कहाँ से लाएँ हम? और मोल कौन दे? हम कहें कि तू मुझे गाली दे, तो भी कहेगा कि नहीं, आपको गाली नहीं दे सकता। यानी, पैसे दें फिर भी कोई गाली नहीं देता। इसलिए फिर मुझे खुद को गालियाँ देनी पड़ती थीं, ‘आप में अक़्ल नहीं है, आप मूरख हो, गधे हो, ऐसे हो, किस तरह के मनुष्य हो? मोक्षधर्म कोई कठिन है कि आपने इतना सब उधम मचाया है?’ खुद ऐसी गालियाँ देता था। कोई गालियाँ देने वाला नहीं हो, तब फिर क्या करें? आपको तो घर बैठे कोई गालियाँ देने वाला मिलता है, फ्री ऑफ कॉस्ट मिलता है, तब क्या उसका लाभ नहीं उठाना चाहिए?

लुटेरा भी दूर रहे शीलवान से

शील का प्रभाव ऐसा है, जगत् में कोई नाम नहीं ले उसका।

(पृ.१२)

लुटेरों के बीच रहता हो, सभी उँगलियों में सोने की अँगूठियाँ पहनी हों। यहाँ पूरे शरीर पर सोने के आभूषण पहने हों और लुटेरे मिल जाएँ। लुटेरे देखते ज़रूर हैं, पर छू नहीं पाते, छू ही नहीं सकते। बिलकुल घबराने जैसा जगत् ही नहीं है। जो कुछ घबराहट है वह आपकी ही भूल का फल है, ऐसा हम कहने आए हैं। लोग तो ऐसा ही समझते हैं कि जगत् अंदाजित है।

प्रश्नकर्ता : समझदारी की इतनी कमी!

दादाश्री : इस समझ की कमी की वज़ह से ही जगत् खड़ा रहा है। हम ऐसा कहना चाहते हैं कि जगत् में भय रखने जैसा है ही नहीं। जो भय आता है, वह आपका हिसाब है। चुकता हो जाने दो। यहाँ से फिर नये सिरे से उधार मत देना।

आपको कोई उल्टा कहे, तब आपको मन में ऐसा होता है कि यह मुझे क्यों उल्टा बोलता है? इसलिए आप उसे फिर पाँच गालियाँ दे देते हो। इसका मतलब, जो आपका हिसाब था, उसे चुकाते समय आपने फिर नया हिसाब का बहीखाता शुरू किया। अर्थात् एक गाली उधार दी थी, वह लौटाने आया था, वह हमें जमा कर लेनी थी, उसके बजाय पाँच आपने उधार दीं। और फिर एक तो सहन होती नहीं, तब फिर दूसरी पाँच उधार दीं। अब इसमें मनुष्यों की किस तरह बुद्धि पहुँचे! इसलिए उधार दे-देकर और गुत्थियाँ उलझाते रहते हैं। उलझनें सब खड़ी करते हैं।

हम पंद्रह बरस से उधार देते नहीं है, इसलिए कितने हिसाब साफ हो गए हैं सभी! उधार देना ही बंद कर दिया है और जमा ही करते रहे। ‘इनसे’ (ए.एम.पटेल से) कह दिया है कि, जमा कर देना। आसान है न! रास्ता आसान है न? अब यह शास्त्रों में लिखा हुआ नहीं होताहै!

कोई कुछ नहीं कर सकता है। आप स्वतंत्र हो। आपका ऊपरी ही कोई नहीं है। भगवान भी ऊपरी नहीं है वहाँ पर, फिर! भगवान की ओट में आप आश्वासन लेते हो कि भगवान हैं हम पर दया करेंगे!

(पृ.१३)

‘देखा जाएगा’ ऐसा करके उल्टा करते हो, जिम्मेदारी मोल लेते हो!

नहीं रहा भुगतना ज्ञानी को

किसी को हम से किंचित् मात्र दु:ख हो तो समझना कि अपनी भूल है। अपने भीतर परिणाम ऊपर-नीचे हों तो भूल अपनी है ऐसा समझ में आता है। सामने वाला व्यक्ति भुगत रहा है, इसलिए उसकी भूल तो प्रत्यक्ष है, पर निमित्त हम बने, हमने उसे डाँटा, इसलिए हमारी भी भूल। क्यों दादा को भुगतना नहीं आता? क्योंकि उनकी एक भी भूल रही नहीं है। अपनी भूल से सामने वाले को कोई भी असर हो और जो कुछ उधार हो जाए तो तुरंत ही मन से माफी माँगकर जमा कर लेना चाहिए। अपने में क्रोध-मान-माया-लोभ के कषाय हैं, वे उधार हुए बगैर रहते ही नहीं हैं। इसलिए उनके सामने जमा कर लेना चाहिए। अपनी भूल हुई हो, तब उधार होता है, पर तुरंत ही केश-नक़द प्रतिक्रमण कर डालना चाहिए। हमारे कारण किसी को अतिक्रमण हो जाए, तो हमें जमा कर लेना चाहिए, और आगे के लिए उधार नहीं रखना चाहिए। और यदि किसी से हमें अतिक्रमण हो तो हमें आलोचना-प्रतिक्रमण-प्रत्याख्यान कर लेना चाहिए।

भूल मिटाए वह परमात्मा

जिसने एक बार नक्की किया हो कि मुझ में जो भूलें रही हों उसे मिटा देनी है, वह परमात्मा हो सकता है! हम अपनी भूल से बँधे हैं। भूल मिटे तब तो परमात्मा ही हैं! जिसकी एक भी भूल नहीं, वह खुद ही परमात्मा है। यह भूल क्या कहती है? ‘तू मुझे जान, मुझे पहचान।’ यह तो ऐसा है कि भूल को खुद का अच्छा गुण मानते थे। भूल का स्वभाव कैसा है कि वह हमारे ऊपर शासन चलाती है। पर भूल को समझ लिया तो वह भाग जाती है। फिर खड़ी नहीं रहती। जाने लगती है। पर यह तो क्या करते हैं कि एक तो भूल को भूल जानते नहीं हैं और ऊपर से उसका पक्ष लेता है। मतलब भूल को घर में ही भोजन कराते हैं।

(पृ.१४)

दिए आधार भूलों को, पक्ष लेकर

प्रश्नकर्ता : दादा, भूल का पक्ष किस तरह लिया जाता है?

दादाश्री : आप किसी को डाँटने के बाद कहें कि, ‘मैंने उसे नहीं डाँटा होता तो वह समझता ही नहीं। इसलिए उसे डाँटना ही चाहिए।’ इससे तो वह ‘भूल’ समझती है कि इस भाई को मेरा अभी तक पता ही नहीं चला है और उल्टे मेरा पक्ष लेता है। इसलिए यहीं खाओ, पीओ और रहो। एक ही बार यदि अपनी भूल का पक्ष लें तो उस भूल का बीस साल का आयुष्य बढ़ जाता है। किसी भी भूल का पक्ष नहीं लेना चाहिए।

चाबी भूलें मिटाने की

मन-वचन-काया से प्रत्यक्ष दादा भगवान की साक्षी में क्षमा माँगते रहना। हर कदम पर जागृति रहनी चाहिए। अपने में क्रोध-मान-माया-लोभ के कषाय तो भूलें करवाकर उधारी करवाएँ, ऐसा माल है। वे भूलें करवाते ही हैं और उधारी खड़ी करते हैं, पर उसके सामने हमें तुरंत ही, तत्क्षण माफी माँगकर जमा करके साफ कर लेना चाहिए। यह व्यापार पैन्डिग नहीं रखना चाहिए। यह तो दरअसल नक़द व्यापार कहलाता है।

प्रश्नकर्ता : अभी जो भूलें होती हैं, वे पिछले जन्म की हैं न?

दादाश्री : पिछले जन्म के पापों को लेकर ही ये भूलें हैं। पर इस जन्म में वापस भूलें मिटाते ही नहीं हैं और बढ़ाते जाते हैं। भूल को मिटाने के लिए भूल को भूल कहना पड़ता है। उसका पक्ष नहीं लेना चाहिए। यह ज्ञानी पुरुषों की चाबी कहलाती है। इससे चाहे जैसा ताला खुल जाता है।

ज्ञानी पुरुष आपकी भूल के लिए क्या कर सकते हैं? वे तो मात्र आपकी भूल बताते हैं, प्रकाश डालते हैं, रास्ता दिखाते हैं कि भूलों का पक्ष मत लेना। पर यदि भूलों का पक्ष लें कि, ‘हमें तो इस

(पृ.१५)

दुनिया में रहना है, तो ऐसा कैसे कर सकते हैं?’ अरे! यह तो भूल को पोषण देकर उसका पक्ष मत लेना। एक तो मुआ, भूल करता है और ऊपर से कल्पांत करता है, तो कल्प (कालचक्र) के अंत तक रहना पड़ेगा!

भूल को पहचानने लगा, तो भूल मिटती है। कुछ लोग कपड़े खींच- खींचकर नापते हैं और ऊपर से कहते हैं कि आज तो पाव गज कपड़ा कम दिया। यह तो इतना बड़ा रौद्रध्यान और फिर उसका पक्ष? भूल का पक्ष नहीं लेना होता है। घी वाला घी में किसी को पता नहीं चले ऐसे मिलावट करके पाँच सौ रुपये कमाता है। वह तो मूल के साथ वृक्ष बो देता है। खुद ही खुद के अनंत जन्म बिगाड़ देता है।

बंद करो कषायों का पोषण

किसी मनुष्य को भूल रहित होना हो तो उसे हम कहते हैं कि केवल तीन ही साल क्रोध-मान-माया-लोभ को खुराक मत देना। तो सभी निष्प्राण हो जाएँगे। भूलों को यदि तीन ही वर्ष खुराक नहीं मिले तो वे घर बदल देती हैं। दोष, वही क्रोध-मान-माया-लोभ का पक्ष। यदि तीन ही वर्ष के लिए पक्ष कभी भी नहीं लिया तो वे भाग जाएँगे।

ज्ञानी पुरुष के बताए बिना मनुष्य को अपनी भूल का भान नहीं होता है। ऐसी अनंत भूलें हैं। यह एक ही भूल नहीं है। अनंत भूलों ने घेर लिया है।

प्रश्नकर्ता : पर ज़्यादा दोष दिखते नहीं हैं। थोड़े ही दिखते हैं।

दादाश्री : यहाँ सत्संग में बैठने से आवरण टूटते जाते हैं, वैसे-वैसे दोष दिखते जाते हैं।

प्रश्नकर्ता : दोष अधिक दिखें, उसके लिए जागृति कैसे आती है?

दादाश्री : भीतर जागृति तो बहुत है, पर दोषों को ढूँढने की भावना हुई नहीं है। पुलिस वाले को जब चोर खोजने की इच्छा हो

(पृ.१६)

तब चोर मिल जाता है। पर यदि पुलिस वाला कहे कि, ‘चोर को पकड़ने जैसा नहीं है। वह तो आएगा तब पकड़ेंगे।’ तब फिर चोर मज़े करेगा ही न? ये भूलें तो छुपकर बैठी हैं। उन्हें ढूँढो तो तुरंत ही पकड़ में आ जाती हैं।

सारी कमाई का फल क्या है? आपके दोष एक के बाद एक आपको दिखें तब ही ‘कमाई की’, कहलाती है। यह सारा ही सत्संग खुद, खुद के सभी दोष देखे उसके लिए है। और खुद के दोष दिखें, तभी वे दोष जाएँगे। दोष कब दिखेंगे? जब खुद ‘स्वयं’ होंगे, ‘स्वस्वरूप’ होंगे तब। जिसे खुद के दोष ज़्यादा दिखें, वह ऊँचा। जब इस देह के लिए, वाणी के लिए, वर्तन के लिए संपूर्ण निष्पक्षता उत्पन्न होती है तभी खुद, खुद के सभी दोष देख सकता है।

अंधापन नहीं देखने देता दोष को

तुझे तेरे दोष कितने दिखते हैं? और तू कितने दोष धो डालता है?

प्रश्नकर्ता : दोष तो बहुत दिखते हैं। जैसे कि क्रोध है, लोभ रहा हुआ है।

दादाश्री : वे तो चार-पाँच दोष, वे दिखें तो नहीं दिखे जैसे कहलाते हैं और किसी के दोष देखने हों तो कितने देख लेते हो?

प्रश्नकर्ता : बहुत सारे दिखते हैं।

दादाश्री : बहुत सारे देख लेता है तू?

प्रश्नकर्ता : हाँ।

दादाश्री : किसी दूसरे के तो, रास्ते चलते भी, तुझे चलना नहीं आता, तू ऐसे चलता है, तू ऐसा है, सब बहुत तरह के दोष दिखते हैं, और खुद के मिलते नहीं। क्योंकि क्रोध-मान-माया-लोभ से अंध है। लोभ से अंध, क्रोध से अंध, माया से अंध, मान से अंध, सब

(पृ.१७)

अंध स्वरूप है। खुली आँखों से अंधे होकर घूम रहे हैं, भटकते रहते हैं। कितनी उपाधि कहलाती है!

खुली आँखों से सारा जगत् सो रहा है और सभी नींद में ही (कर्म) कर रहे हैं, ऐसा भगवान महावीर कहते हैं। क्योंकि खुद का अहित कर रहे हैं। खुली आँखों से अहित कर रहे हैं, और भगवान ने उसे भावनिद्रा कहा है। सारा जगत् भावनिद्रा में पड़ा हुआ है। ‘मैं शुद्धात्मा हूँ,’ ऐसा भान होने के बाद भावनिद्रा सर्वांश रूप से गई कहलाती है, जागृत हुए कहलाते हैं।

बुद्धि की वकालत से, जीतते हैं दोष

जागृत हुए, इसलिए सब पता चलता है कि यहाँ भूल होती है, ऐसे भूल होती है। नहीं तो खुद को खुद की एक भी भूल मिले नहीं। दो-चार बड़ी भूलें होती हैं न, वे दिखती हैं। उसे खुद को दिखती है उतनी ही। कभी बोलते भी हैं कि ज़रा-सा क्रोध है और थोड़ा-सा लोभ भी है, ऐसा बोलते भी हैं, पर हम कहें कि, ‘आप क्रोधी हैं’, तब तुरंत क्रोध का रक्षण करते हैं, बचाव करते हैं, वकालत करते हैं। हमारा क्रोध, वह क्रोध नहीं माना जाता, ऐसी वकालत करते हैं, और जिसकी वकालत करो वह हमेशा आप पर चढ़ बैठता है।

जगत् के सारे लोगों को क्रोध-मान-माया-लोभ निकालने हैं, किसे निकालने की इच्छा नहीं होगी? वे तो बैरी ही हैं, ऐसा सब जानते हैं, फिर भी रोज़ भोजन कराते हैं और बड़ा करते हैं। खुद की भूल ही दिखे नहीं, फिर मनुष्य भूलों को खुराक ही देगा न!

करें ज्ञानी इकरार, निजदोषों के

भूल हुई हो, पर उसका आयुष्य किस तरह बढ़ता है, वह मैं जानता था। इसलिए क्या करता था? सभी बैठे हों और कोई एक व्यक्ति आकर कहे, ‘बड़े ज्ञानी बनकर बैठे हो, हुक्का तो छूटता नहीं।’ ऐसा सब बोले न, तब मैं कहता हूँ कि, ‘महाराज, यह इतनी हमारी

(पृ.१८)

खुली निर्बलता है, वह मैं जानता हूँ। आपने तो आज जाना, मैं तो पहले से ही जानता हूँ।’ यदि मैं ऐसा कहूँ कि हम ज्ञानियों को कुछ नहीं छूता, तो वह हुक्का अंदर समझ जाएगा कि यहाँ बीस वर्ष का आयुष्य अपना बढ़ गया! क्योंकि मालिक अच्छे हैं, कुछ भी करके रक्षण करते हैं। वैसा मैं कच्चा नहीं हूँ। रक्षण कभी भी नहीं किया। लोग रक्षण करते हैं या नहीं करते?

प्रश्नकर्ता : हाँ करते हैं, बहुत ज़ोरदार करते हैं।

दादाश्री : एक साहब नसवार सूँघते थे, ऐसे करके! मैंने कहा, ‘साहब, यह नसवार ज़रूरी है आपके लिए?’ तब उन्होंने कहा, ‘नसवार में कोई हर्ज नहीं है।’ मुझे हुआ, इन साहब को मालूम ही नहीं है कि इस नसवार का अंदर से आयुष्य बढ़ा रहे हैं! क्योंकि आयुष्य यानी क्या? कोई भी संयोग जो है, वह वियोग का नक्की होने के बाद ही संयोग मिलता है। यह तो नक्की हो चुका है, उसका फिर आयुष्य बढ़ाते हैं ऐसे! क्योंकि जीवित मनुष्य, चाहे उतना कम-ज़्यादा करवाए इसलिए क्या होगा फिर?! ये सभी आयुष्य बढ़ा रहे हैं, हर एक बात में उसका रक्षण करते हैं कि, ‘कोई हर्ज नहीं, हमें तो छूता ही नहीं।’ गलत चीज़ का रक्षण करना तो भयंकर गुनाह है।

प्रश्नकर्ता : और शुष्क अध्यात्म में उतर गए हों, तो वे ऐसा कहते हैं कि आत्मा को कुछ छूता नहीं है, यह तो पुद्गल को है सब।

दादाश्री : ऐसे तो सब बहुत हैं यहाँ। गोल-गोल, गोल-गोल घुमाते हैं वे। ऐसा ही माल, वह शुष्क कहलाता है।

फिर सब सुनने के बाद मैं कहता हूँ कि भगवान ने कहा है कि इतने लक्षण चाहिए, मृदुता, ऋजुता, क्षमा! यह तो मृदुता दिखती नहीं, ऋजुता दिखती नहीं, ऐसी तो अकड़ है!

अकड़ और आत्मा के बीच बहुत दूरी हैं।

यह तो पोल चलती जाती है। ये लोग जवाब दे नहीं सकते हैं

(पृ.१९)

इसलिए फिर ये सब पोल मारने जाते हैं। पर मेरे जैसे तो जवाब देते हैं न? तुरंत जवाब देते हैं। बीरबल जैसा तुरंत हाज़िर जवाब।

दोष स्वीकारो, उपकार मानकर

हम में आड़ाई ज़रा भी नहीं होती। कोई हमें हमारी भूल बताए तो हम तुरंत ही एक्सेप्ट (स्वीकार) कर लेते हैं। कोई कहे कि यह आपकी भूल है, तो हम कहते हैं कि हाँ भाई, यह तूने हमें भूल बताई तो तेरा उपकार। हम तो जानें कि जो भूल उसने बता दी, उसके लिए उसका उपकार। बाकी दोष है या नहीं है, वह पता लगाने जाना नहीं है। उन्हें दिखता है, इसलिए दोष है ही। मेरे कोट के पीछे लिखा हो कि, ‘दादा चोर हैं।’ लोग फिर पीछे बोलेंगे या नहीं बोलेंगे? किसलिए ‘दादा चोर हैं’ ऐसा बोलते है? क्योंकि मेरे पीछे लिखा है, बोर्ड लगाया है न? फिर जब हम देखें, तब पता चले कि हाँ, पीछे बोर्ड लगाया है। भले ही दूसरा कोई लिख गया होगा, पर इन सभी को पढऩा तो आता है न?

प्रश्नकर्ता : दादा ने आप्तवाणी में ऐसा लिखा है कि, ‘दादा चोर हैं,’ ऐसा कोई लिख दे तो महान उपकार मानना चाहिए। ऐसा लिखा है?

दादाश्री : हाँ, लिखा है।

प्रश्नकर्ता : मतलब, वह किस तरह?

दादाश्री : हाँ, उपकार नहीं मानो, तो उसमें आपका पूरा अहंकार खड़ा होकर द्वेष में परिणमित होगा। उसे क्या नुकसान होने वाला है? उसके बाप का क्या जाने वाला है? वह तो दिवालिया होकर खड़ा रहेगा और आपने दिवाला निकलवाया। इसलिए आपको कहना चाहिए, ‘भाई, तेरा उपकार है!’ हमारा दिवाला नहीं निकले इसलिए। वह तो दिवालिया होकर खड़ा ही रहेगा, उसे क्या? उसे दुनिया की पड़ी नहीं है। वह तो बोलेगा। गैरजिम्मेदारी वाला वाक्य कौन बोलता है? जिसे

(पृ.२०)

खुद की जिम्मेदारी का भान नहीं है, वह बोलता है। तो उसके साथ हम भौंकने जाएँ तो हम भी कुत्ता कहलाएँगे। इसलिए हमें कहना हैं, ‘तेरा उपकार हैं, भाई।’

प्रश्नकर्ता : अपने दोष के भाव उदय में आएँ, वे हम देखें और समझें, इसलिए उसका उपकार मानना चाहिए?

दादाश्री : हाँ, जहाँ-जहाँ दोष होता हो, वहाँ उपकार मानना भीतर में, तो वह दोष बंद हो जाएगा। पुलिस वाले के ऊपर भी अभाव होता हो, तो उसका उपकार मानना। तो अभाव बंद हो जाएगा। आज कोई भी मनुष्य खटकता हो, तो कहना, ‘वह बहुत अच्छा मनुष्य है, वह तो हमारा उपकारी है’, तो खटकना बंद हो जाएगा। मतलब ये जो शब्द हम देते हैं न, एक-एक शब्द दवाईयाँ हैं। ये सब मेडिसिन हैं, दरअसल!! नहीं तो ‘चोर कहे उसका उपकार मानना,’ यह वाक्य किस तरह समझ में आए उसे? तब फिर आप मुझे पूछने नहीं आओ और आपके परिणाम सारे बदल जाएँ, उसके बजाय तुम उपकार मानना। दादा का इतना कहा मानना कि उसका उपकार है भाई, इन दादा ने कहा है इसलिए।

प्रश्नकर्ता : दादा खुद उपकार मानते हों, फिर हम उपकार मानें, उसमें क्या हर्ज है फिर?

दादाश्री : हाँ, हमें ऐसा हिसाब लगाना चाहिए कि, ‘अच्छा है सिर्फ चोर ही कहा है।’ लुच्चा है, बदमाश है, नालायक है, ऐसा सब तो नहीं कहता, उतना अच्छा है न? नहीं तो उसका मुँह है, इसलिए ठीक लगे उतना बोले। उसे कुछ नहीं कहा जा सकता हम से? हमें उपकार मानना है। उपकार मानने से अपना मन नहीं बिगड़ता।

यह बात सैद्धांतिक है। किस तरह, कि आप मुझसे कहो कि ‘‘दादा, वह आपको ‘चोर’ कहता है तो आप क्या करोगे?’’ तब मैं कहूँ कि, ‘भाई, उपकार मानना।’ क्यों कहते हैं कि उपकार

(पृ.२१)

मानो आप? ‘किसके बदले?’ तब कहते हैं, ‘ऐसा कोई कहेगा नहीं। यह प्रतिध्वनि है किसी की, वह मेरी खुद की ही प्रतिध्वनि है। इसलिए उपकार मानता हूँ।’ यह जगत् प्रतिध्वनि स्वरूप है। उसकी हन्ड्रेड परसेन्ट गारन्टी लिखकर देता हूँ मैं। यानी हम भी उपकार मानते हैं, तो आपको भी उपकार ही मानना चाहिए न! और आपका मन बहुत अच्छा रहेगा। ‘चोर कहते है’, उसका उपकार मानते हैं! नहीं तो फिर आपको सहज ही भाव हो जाएगा कि दादा के लिए ऐसा बोलता है? महावीर के लिए इतने बड़े-बड़े शब्द बोलते थे, फिर भी लोगों ने पचा लिए। उनके भक्तों ने, सभी ने पचाए उनके शब्द। जो-जो बोलते, वह सब पचा लेते थे। भगवान ने सिखाया था ऐसा।

‘यह’ प्रपंच करने वाला ‘तू’ ही

प्रश्नकर्ता : इसलिए जगत् निर्दोष है, यह समझने की दृष्टि अब विकसित करनी पड़ेगी न?

दादाश्री : इसलिए, इस बावड़ी में यदि हम नहीं बोले होते तो यह बखेड़ा ही नहीं होता। तब फिर हम सामने वाले का दोष निकालते हैं कि तू मुझे ऐसा क्यों बोलता है? प्रपंच हमने खड़ा किया और फिर बावड़ी को कहते हैं कि तू मुझे ऐसी गाली क्यों देती है? इस पर कोई कहेगा, ‘‘उसने गाली दी, पर तू ऐसा कह न, ‘तू राजा है।’’ तब बावड़ी भी ऐसा कहेगी, ‘तू राजा है’ बस यह तो सब प्रोजेक्शन हमारा ही है।

अरे, ले बोधपाठ इस से

लोग मुझे कहते हैं कि आपको अपने दोष कहने की क्या ज़रूरत है? फायदा क्या? मैंने कहा, ‘आपको सीख देने के लिए कि आपको ऐसी हिम्मत आए।’ मैं बोलता हूँ तो आपको हिम्मत क्यों नहीं आनी चाहिए? हमेशा जो दोष हुआ हो, वह खुला करें तो मन

(पृ.२२)

पकड़ में आ जाता है। फिर मन डरता रहता है कि यह तो खुला कर देगा, खुला कर देगा।’ उलटे हम से डरता रहेगा। ये तो बहुत भले मनुष्य हैं। सब खुला कर देंगे। हमने तो कह दिया है कि हम सब खुला कर देंगे। ओपन टु स्काइ (पूर्ण अनावृत) कर देंगे। तब सारे दोष चले गए। तब विलय हो जाते हैं।

भूल मिटाने की रीति....

आपकी कितनी भूलें होती होंगी?

प्रश्नकर्ता : दो-चार-पाँच हो जाती हैं।

दादाश्री : कौन न्याय करने वाला? यह भूल है, ऐसा न्याय करने वाला कौन?

प्रश्नकर्ता : नुकसान होता है तब पता चलता है कि भूल की है।

दादाश्री : तब पता चलता है, नहीं? पर न्याय करने वाला कौन इसमें? भूल करने वाला मनुष्य भूल कबूल नहीं करता एकदम। न्याय करने वाला मनुष्य कहे कि यह तुम्हारी भूल है, तब फिर समझ में आता है। तब कबूल करता है, नहीं तो कबूल नहीं करता है। अपनी भूल कोई कबूल नहीं करता इस दुनिया में और यदि समझ में आए तो कबूल करता है। उसे शूट ऑन साइट (देखते ही ठाँय) करना चाहिए। नहीं तो भूल घटती ही नहीं। आपके गाँव में कोई भूल कबूल करते हैं क्या?

प्रश्नकर्ता : कबूल नहीं करते।

दादाश्री : हाँ, कोई कबूल नहीं करते। अगर अक्कल के बोरे बेचने जाएँ तो चार आने भी नहीं आएँगे। अक्कल के बोरों को बेचने जाएँ तो आएँगे पैसे? सभी अक़्लमंद, हिन्दुस्तान देश में सभी अक़्लमंद, फिर कौन पैसे देगा? कोई भूल कबूल नहीं करता न आपके यहाँ? और तू भूल कबूल कर लेता है तुरंत?

(पृ.२३)

प्रश्नकर्ता : हाँ, तुरंत। मेरी एक भूल बताऊँ?

दादाश्री : हाँ।

प्रश्नकर्ता : मैं पत्ते खेलने का बहुत शौकीन हूँ।

दादाश्री : ऐसा! पत्ते खेलना तो हिसाब है। भीतर हिसाब किया था खुद ने, जो डिसाइड किया हुआ है, वही हम खुद भुगतते हैं।

प्रश्नकर्ता : अब यह पत्ते खेलता है और खुश होता है, पर उसकी वाइफ को अच्छा नहीं लगता है।

दादाश्री : अच्छा नहीं लगे तो वही भुगते। जो भुगते, उसकी भूल। यदि नहीं भुगतते हों तो कोई उनकी भूल नहीं है। यदि वे भुगतती हों, तो उनकी ही भूल है।

प्रश्नकर्ता : वाइफ कहती है, ‘मैं भुगतती ही नहीं हूँ।’ जबकि पति को ऐसा लगता है कि वह भुगतती है।

दादाश्री : पर वह खुद कहती है कि मैं नहीं भुगतती हूँ, इसलिए फिर हो गया, छूट गया! इस ज्ञान से पहले भुगतती होंगी! बाद में तो समझ जाती है न! क्योंकि कोई न कोई आदत तो होती है। तो उसे और हमें कोई लेना-देना नहीं है। वह तो माल भरकर आए हैं। खुद को छोड़ना हो, तब भी नहीं छूटता। वह आदत उसे नहीं छोड़ती फिर! अब उसे आप डाँटें तो वह आपकी भूल है। उसका बुरा मानें, वह भी भूल है। क्योंकि वह आदत उसे छोड़ती नहीं है।

प्रश्नकर्ता : पर दादा, उसका कोई रास्ता तो होगा या नहीं? उस आदत को छोड़ने का कोई रास्ता तो होना चाहिए न?

दादाश्री : रास्ता उसका एक ही है कि ये भाई पत्ते खेलते हों, तब उन्हें निरंतर अंदर रहना चाहिए कि यह गलत चीज़ है, यह गलत चीज़ है, यह गलत चीज़ है। निरंतर ऐसा रहना चाहिए। और रोज़ गलत चीज़ है ऐसा बोलें और एक दिन कोई आकर उकसाए कि,

(पृ.२४)

‘यह ताश खेलना बहुत बुरी आदत है।’ वहाँ आप कहो कि, ‘नहीं, अच्छी चीज़ है’ कि फिर बिगड़ा। उस घड़ी आपको ऐसा कह देना चाहिए कि गलत चीज़ ही है। पर कोई उकसाए तब जीवित रखते हैं लोग! इसलिए लोग कहते हैं, ‘हमारी आदतें क्यों छूटतीं नहीं?’ पर जीवित किसलिए रखते हो? फिर से पानी मत पिलाना उस दिन। लोग तो उल्टा बोलते हैं। आपको समझ में आया न? ऐसा होता है कि नहीं होता?

प्रश्नकर्ता : होता है।

दादाश्री : इसलिए उससे जीवित रहा है।

मुझे भी ऐसा हुआ था, इसलिए फिर मैंने खोज की थी। यानी ये सभी चीज़ें होती हैं, फिर भी अंदर उसके लिए अलग। हुक्का पीता था, फिर भी अंदर अलग,चाय पीता था फिर भी अंदर अलग। परवश करने वाली वस्तुएँ हमें नहीं होनी चाहिए। फिर भी परवश हो गए तो अब कैसे छूटना, उसका उपाय हमें जानना चाहिए। उपाय जान लिया, तब से हम अलग ही हैं। इसलिए थोड़े समय में छोड़ देना ही है, यह छूट ही जाने वाला है। अपने आप छूट जाए उसका नाम छूटा कहलाता है। अहंकार करके छोड़ें, वह कच्चा रहता है, तो अगले भव में फिर आता है। उसके बजाय समझ से छोड़ने जैसा है।

यानी जिसको जो आदत हो, तो यों पत्ते खेलना, अच्छी तरह फर्स्ट क्लास, पर मन में अंदर ऐसा होना चाहिए कि यह नहीं होना चाहिए, यह नहीं होना चाहिए। फिर हज़ार लोगों के सामने, हम उपदेश दे रहे हों, उस घड़ी कोई आकर कहे, ‘अब क्या, पत्ते तो छूटते नहीं हैं और वैसे ही ये करते रहते हो?’ तब कहें, ‘पत्ते खेलने में हर्ज नहीं है।’ ऐसा नहीं बोलते। वहाँ बोल देना कि, ‘भाई, हमारी कमज़ोरी है, ये पत्ते खेलता हूँ वह!’

प्रश्नकर्ता : हज़ार लोगों के बीच भूल का इक़रार करना चाहिए?

दादाश्री : बस, इक़रार करना चाहिए, तो पत्ते सवार नहीं हो।

(पृ.२५)

नहीं तो आप ऐसा कहो कि उसमें कोई हर्ज नहीं है, तो पत्ते जान लेंगे कि यह बेवकूफ मनुष्य है, यहीं रहने जैसा है।’ पत्ते खुद ही समझ जाते हैं। यह पोला घर है। इसलिए, हमें इक़रार किसी भी समय! आबरू जाए वहाँ भी, आबरू नहीं, नाक कटती हो तो भी इक़रार कर लेना चाहिए। इक़रार करने में पक्का रहना चाहिए।

मन वश करना हो, तो इक़रार से होता है। इक़रार करो न, हर एक बात में खुद की कमज़ोरी खुली कर दें, तो मन वश में हो जाता है। नहीं तो मन वश नहीं होता है। फिर मन निरंकुश हो जाता है। मन कहेगा, ‘रास आए ऐसा घर है यह!’

आलोचना ज्ञानी के पास

और दोष हमें कहो न, उसके साथ ही छूट जाता है और हमें कोई उसकी ज़रूरत नहीं है। आपके लिए छूटने का एक रास्ता है यह। क्योंकि वीतरागों के अलावा, दोष और किसी जगह कह ही नहीं सकते। क्योंकि सारा जगत् दोषित ही है। हमें तो उसमें नवीनता भी नहीं लगती कि यह दोष भारी है या यह हल्का है। ऐसा बोले भी नहीं हमारे पास, फिर भी हमें तो एक जैसा ही लगता है। भूल तो होती है मनुष्य मात्र की, उसमें घबराना क्या? भूल मिटाने वाले हैं वहाँ कहें, मेरी ऐसी भूल होती है। तो वे रास्ता बताते हैं।

वैसे-वैसे खिलती जाती है सूझ!

भूल मिटेगी, तो काम होगा। भूल मिटेगी किससे? तब कहे भीतर सूझ नाम की शक्ति है। बहुत उलझें, तब सूझ पड़ती है या नहीं पड़ती? फिर ऐसे आराम से बैठ जाएँ, फिर भीतर सूझ पड़ती है या नहीं पड़ती?

प्रश्नकर्ता : हाँ।

दादाश्री : तो कौन देने आता है? सूझ तो अकेली ही ऐसी शक्ति है जो मोक्ष में ले जाए। जीव मात्र में सूझ नाम की शक्ति होती

(पृ.२६)

है। गायें उलझन में पड़ें तब थोड़ी देर खड़ी रहती हैं, चारों तरफ निकलने का रास्ता नहीं होता, तब थोड़ी देर खड़ी रहती हैं, तब अंदर सूझ समझ में आती है और उसके बाद निकल जाती हैं। वह सूझ नाम की शक्ति है, वह विकसित किससे होती है? तब कहें, जितनी भूलें मिटती हैं, उतनी सूझ विकसित होती जाती है। और भूल कबूल की कि भाई, यह मेरी भूल हो गई है, तब से शक्ति बहुत बढ़ती जाती है।

थी ही नहीं तो जाए कहाँ से!

यह क्रोध किया है, वह गलत किया है, ऐसा समझ में आता है या नहीं आता? अब समझ में आया हो कि अरे! यह ज़रा ज़्यादा है। मतलब, खुद की भूल समझ में आ गई है। उसके बाद सेठ आए बाहर से, और उन्होंने कहा कि, ‘महाराज, इस शिष्य के साथ इतना क्रोध?’ वापस वहाँ पर नयी तरह की बात कहता है, ‘क्रोध करने जैसा है, वह बहुत टेढ़ा है।’ अरे! तुझे खुद को समझ में आ गया है कि यह भूल हो गई है और फिर पक्ष लेता है? किस तरह का घनचक्कर है? आपको सेठ को वहाँ पर क्या कहना चाहिए कि ‘मुझे भूल समझ में आ गई है। मैं अब फिर से ऐसा नहीं करूँगा।’ तब वह भूल मिटेगी।

नहीं तो आप भूल का पक्ष लेते हैं, सेठ आए तब! वह किसलिए? सेठ के आगे आबरू रखने के लिए? अरे! यह सेठ खुद बगैर आबरू का है। इन कपड़ों के कारण लोगों की आबरू है। बाकी, लोगों की आबरू ही कहाँ है? इन सब जगहों पर दिखती है?

दस के किए एक!

यह जगत् ‘रिलटिव’ है, व्यवहारिक है। हम से सामने वाले को एक अक्षर भी नहीं बोला जा सकता और यदि ‘परम विनय’ में हों तो कमी भी नहीं निकाल सकते। इस जगत् में किसी की कमी निकालने जैसा नहीं है। कमी निकालने से क्या दोष बैठता है, उसकी

(पृ.२७)

कमी निकालने वाले को खबर नहीं है।

किसी की भी टीका करनी मतलब अपना दस रुपये का नोट भुनाकर एक रुपया लाना वह। टीका करने वाला हमेशा खुद का ही खोता है। जिसमें कुछ भी मिलता नहीं है। ऐसी मेहनत हमें नहीं करनी है। टीका से आपकी ही शक्तियाँ व्यर्थ होती हैं। हमें यदि दिखा कि यह तिल नहीं है रेती ही है, तो फिर उसे पीलने की मेहनत किसलिए करनी चाहिए? टाइम और एनर्जी (समय और शक्ति) दोनों ‘वेस्ट’ (बेकार) जाते हैं। यह तो टीका करके सामने वाले का मैल धो दिया और तेरा खुद का कपड़ा मैला किया! वह अब कब धोएगा!

किसी के भी अवगुण नहीं देखने चाहिए। देखने ही हों, तो खुद के देखो न! यह तो दूसरों की भूलें देखें, तो दिमाग कैसा हो जाता है। उसके बजाय दूसरों के गुण देखें, तो दिमाग कैसा खुश हो जाता है!

सारे दु:खों का मूल ‘खुद’ ही!

सामने वाले का दोष किसी जगह है ही नहीं, सामने वाले का क्या दोष! वे तो यही मानकर बैठे हैं, कि यह संसार, यही सुख है और यही बात सच्ची है। हम ऐसा मनवाने जाएँ कि आपकी मान्यता गलत है, तो वह अपनी ही भूल है। लोगों को दूसरों के दोष ही देखने की आदत पड़ी है। किसी के दोष होते ही नहीं हैं। बाहर तो आपको दाल-चावल, सब्ज़ी-रोटी सब बनाकर, रस-रोटी बनाकर देते हैं सभी, परोसते हैं, ऊपर से घी भी रख जाते हैं, गेहूँ बीनते हैं, आपको पता भी नहीं चलता, गेहूँ बीनकर पिसवाते हैं। यदि कभी बाहर वाले कोई दु:ख देते हों तो गेहूँ किसलिए बीनेंगे? इसलिए बाहर कोई दु:ख देते नहीं हैं। दु:ख आपका, अंदर से ही आता है।

सामने वाले का दोष ही नहीं देखें, दोष देखने से तो संसार बिगड़ जाता है। खुद के ही दोष देखते रहना है। अपने ही कर्मों के उदय का फल है यह। इसलिए कुछ कहने को ही नहीं रहा न! ये

(पृ.२८)

तो सभी अन्योन्य दोष देते हैं कि आप ऐसे हो, आप वैसे हो, और साथ में टेबल पर बैठकर खाते हैं। ऐसे अंदर बैर बँधता है। इस बैर से दुनिया खड़ी रही है। इसलिए तो हमने कहा कि ‘समभाव से निकाल करना।’ उससे बैर बंद होते हैं।

नहीं कोई दोषित जगत् में!

एक-एक कर्म से मुक्ति होनी चाहिए। सास परेशान करे, तब हर एक समय कर्म से मुक्ति मिलनी चाहिए। तो उसके लिए हमें क्या करना चाहिए? सास को निर्दोष देखना चाहिए कि सास का तो क्या दोष? मेरे कर्म का उदय, इसलिए वे मिली हैं। वे तो बेचारी निमित्त हैं। तो उस कर्म से मुक्ति हुई और यदि सास का दोष देखा, तो कर्म बढ़े। फिर उसका तो कोई क्या करे? भगवान क्या करें?

हमें, हमारा कर्म बँधे नहीं उस तरह रहना चाहिए, इस दुनिया से दूर रहना चाहिए। ये कर्म बाँधे थे, इसलिए तो ये मिले हैं। ये हमारे घर में कौन इकट्ठे हुए हैं? कर्म के हिसाब बँधे थे, वे ही सब इकट्ठे हुए हैं और फिर हमें बाँधकर मारते भी हैं। हमने नक्की किया हो कि मुझे उसके साथ बोलना नहीं है, तो भी सामने वाला मुँह में उँगलियाँ डालकर बार-बार बुलवाता है। अरे! उँगलियाँ डालकर क्यों बुलवाता है? इसका नाम बैर! सारे पूर्व के बैर! किसी जगह देखा हुआ है क्या?

प्रश्नकर्ता : सब जगह वही दिखता है न!

दादाश्री : इसलिए कहता हूँ न कि खिसक जाओ और मेरे पास आओ। यह मैंने जो पाया है, मैं वह आपको दे दूँ, आपका काम हो जाएगा और छुटकारा हो जाएगा। बाकी, छुटकारा होने वाला नहीं है।

हम किसी का दोष नहीं निकालते, पर नोंध (नोट) करते हैं कि देखो यह दुनिया क्या है? हर तरह से यह दुनिया मैंने देखी हुई है, बहुत तरह से देखी हुई है। कोई दोषित दिखता है, वह अभी भी

(पृ.२९)

अपनी भूल है। कभी न कभी तो, निर्दोष देखना पड़ेगा न? संक्षेप में इतना समझ जाओ न कि, अपने हिसाब की वजह से ही है यह सब, तो भी सब बहुत काम आएगा।

मुझे जगत् निर्दोष दिखता है। आपको ऐसी दृष्टि आएगी, तब यह पज़ल सॉल्व हो जाएगा। मैं आपको ऐसा उजाला दूँगा और इतने पाप धो डालूँगा कि जिससे आपका उजाला रहे और आपको निर्दोष दिखता जाए। और साथ-साथ पाँच आज्ञा दूँगा। उन पाँच आज्ञा में रहोगे तो वह जो दिया हुआ ज्ञान है, उसे ज़रा भी फ्रेक्चर नहीं होने देंगी।

तब से हुआ समकित!

खुद का दोष दिखे, तब से समकित हुआ कहलाता है। खुद का दोष दिखे, तब से समझना कि खुद जागृत हुआ है। नहीं तो सब नींद में ही चल रहा है। दोष खतम हुए या नहीं हुए, उसकी बहुत चिंता करने जैसी नहीं है, पर जागृति की मुख्य ज़रूरत है। जागृति होने के बाद फिर नये दोष खड़े नहीं होते हैं और पुराने दोष होते हैं, वे निकलते रहते हैं। हमें उन दोषों को देखना है कि किस तरह से दोष होते हैं।

जितने दोष दिखें, उतने विदाई लेने लगते हैं। जो कुछ चिकने होते हैं, वे दो दिन, तीन दिन, पाँच दिन, महीने या साल में भी वे दिखें तो फिर जाने ही लगते हैं, अरे! भागने ही लगते हैं। घर में यदि चोर घुसा हो तो वह कब तक बैठा रहता है? मालिक जानता नहीं हो, तब तक। मालिक यदि जाने तो तुरंत ही चोर भागने लगेगा।

अंत में तो वे प्राकृत गुण

प्रश्नकर्ता : दादा, हमें दोष नहीं देखने, पर गुण देखने हैं?

दादाश्री : नहीं। दोष भी नहीं देखने हैं और गुण भी नहीं देखने हैं। ये दिखते हैं, वे गुण तो सारे प्राकृत गुण हैं। उनमें से एक

(पृ.३०)

भी टिकाऊ नहीं है। दानवीर हो, वह पाँच साल से लेकर पचास साल तक, उसी गुण में रहा हो, लेकिन सन्निपात हो, तब वह गुण बदल जाता है। ये गुण तो वात, पित्त और कफ से रहे हैं और उन तीनों में बिगाड़ हो तो सन्निपात होता है! ऐसे गुण तो अनंत जन्मों से इकट्ठे करते आएँ हैं। फिर भी, ऐसे प्राकृत दोष इकट्ठे नहीं करने चाहिए। प्राकृत सद्गुण प्राप्त करे, तो कभी आत्मा प्राप्त कर सकेगा। दया, शांति, ये सब गुण हों, वे भी यदि वात, पित्त और कफ बिगड़े तो वह सब को मारता रहता है। ये तो प्रकृति के लक्षण कहलाते हैं। ऐसे गुणों से पुण्यानुबंधी पुण्य बँधते हैं। उनसे किसी जन्म में ‘ज्ञानी पुरुष’ मिल जाएँ, तो काम हो जाए। पर ऐसे गुणों में बैठे रहना नहीं है। क्योंकि कब उनमें परिवर्तन हो जाए, वह कह नहीं सकते। वे खुद के शुद्धात्मा के गुण नहीं हैं। ये तो प्राकृत गुण हैं। उन्हें तो हम लट्टू कहते हैं।

सारा जगत् प्राकृत गुणों में ही है। सारा जगत् लट्टू छाप है। यह तो सामयिक-प्रतिक्रमण प्रकृति करवाती है और खुद के सिर पर लेता है और कहता है कि, ‘मैंने किया!’ तो भगवान से पूछें तो भगवान कहेंगे कि, ‘यह तो तू कुछ भी करता नहीं हैं।’ किसी दिन पैर दु:खता हो तो कहेगा, ‘मैं क्या करूँ?’ प्रकृति जबरदस्ती करवाती है और कहता है कि ‘मैंने किया!’ और इसीलिए तो वह अगले जन्म के बीज डालता है। यह तो उदयकर्म से होता है और उसका खुद गर्व लेता है। यह उदयकर्म का गर्व ले, उसे साधु किस तरह कहें? साधु महाराजों की एक भूल कि वे उदयकर्म का गर्व लेते हैं। यदि यह भूल होती हो और वह एक भूल ही यदि मिटा दें, तब तो काम ही हो जाएगा। उदयकर्म का गर्व महाराज को है या नहीं उतना ही देखना होता है, दूसरा बाहर का कुछ भी देखना नहीं होता। उनमें दूसरे कषाय होंगे तो चलेगा, पर उदयकर्म का गर्व नहीं होना चाहिए। बस, उतना ही देखना होता है।

हर एक जीव अनंत दोष का भाजन है। कृपालुदेव ने कहा, ‘मैं

(पृ.३१)

तो दोष अनंत का, भाजन हूँ करुणाल’, ऐसा बोलना।

सबसे बड़ा दोष

भगवान ने संसारी दोष को दोष नहीं माना है। ‘तेरे स्वरूप का अज्ञान’ वही सबसे बड़ा दोष है। यह तो ‘मैं चंदूभाई हूँ’, तब तक दूसरे दोष भी खड़े हैं और एक बार ‘खुद के स्वरूप का भान’ हो तो फिर अन्य दोष चलते बनेंगे!

यह तो खुद की एक भूल भी दिखती नहीं है। हम कहें, ‘सेठ आप में कोई दोष तो होगा न?’ तब कहेगा ‘हाँ, थोड़ा, ज़रा-सा क्रोध है और थोड़ा सा लोभ है। दूसरा कोई दोष नहीं हैं।’ तू वहाँ अनंत बोलता है और यहाँ फिर... ‘दो’ ही हैं, ऐसा मुँह से बोलता है! हम पूछें, तब वह समझता है कि आबरू चली जाएगी। अरे! आबरू थी ही कहाँ पर? आबरूदार तो किसका नाम कि मनुष्य में से फिर चार पैर वाला न बने, उसका नाम आबरूदार।

अरे! इतना ज़्यादा पक्का मनुष्य तू! भगवान के पास ‘मैं अनंत दोष का भाजन हूँ’ ऐसा बोलता है और यहाँ बाहर दो ही भूलें हैं, ऐसा बोलता है! हम कहें, ‘भगवान के पास बोल रहा था न?’ तब कहेगा, ‘वह तो वहाँ बोलना होता है, यहाँ नहीं।’ इससे तो तरबूज अच्छे। उनमें इतने दोष नहीं होते। अरे! भगवान के पास अलग बोलता है और यहाँ अलग बोलता है? अभी तो कितने चक्कर काटेगा तू?

ज़रा क्रोध है और थोड़ा लोभ है, दो भूलों का मालिक! भगवान यहाँ विचरते थे न, तब उनके पास पाँच लाख भूलें थीं और यह दो भूलों का मालिक! भगवान देहधारी थे न, तब तक दो-पाँच लाख भूलें पड़ी हुई थीं और यह बिना भूल वाला!

यदि खुद के दोष दिखें नहीं, तो कभी भी तरने की बात करनी नहीं, ऐसी आशा भी नहीं रखनी है। मनुष्य मात्र अनंत भूल का भाजन है और यदि उसे अपनी भूल नहीं दिखती तो इतना ही है कि उसे

(पृ.३२)

भयंकर आवरण बरतता है। यह तो भूल दिखती ही नहीं है।

अब भूलें दिखती हैं थोड़ी बहुत? भूलें दिखती हैं या नहीं दिखतीं?

प्रश्नकर्ता : अब दिखती हैं।

दादाश्री : भूल का स्वभाव कैसा है कि दिखें, वे चली जाती हैं और दूसरे दिन फिर उतनी ही आती हैं। केवल, भूलों का ही भंडार है। यह तो भंडार ही भूलों का है! फिर डाँट देता है और डाँटने के बाद निकाल करना भी नहीं आता। अरे! डाँट देता है? अब डाँटने के बाद उसका निकाल तो कर! जैसे थाली हमने बिगाड़ी हो तो धोना नहीं आता फिर? लेकिन यह तो डाँट दिया, फिर उसका निकाल भी करना नहीं आता। फिर मुँह चढ़ाकर घूमता रहता है! अरे घनचक्कर! मुँह किसलिए चढ़ाता है फिर?

केवल भूलों का भंडार, इसलिए जीव हो जाता है न फिर? नहीं तो खुद शिव है। जीव-शिव का भेद क्यों लगता है? यह तो भूल के कारण है। यह भूल मिटे तो हल आए।

दीठा नहीं निजदोष तो...

पहला वाक्य कहता है कि ‘मैं तो दोष अनंत का भाजन हूँ करुणाल।’ और अंतिम एक पंक्ति कहती है कि, ‘दीठा नहीं निजदोष तो तरिये कौन उपाय!’

‘अनंत दोष का भाजन हूँ’ ऐसा मुझे भी समझ में आता है, पर दिखता एक भी नहीं है। इसलिए तरने का उपाय है कोई? क्यों दिखता नहीं है? खुद के दोष कब दिखते हैं? कि जगत् को जैसे-जैसे निर्दोष देखता जाता है, वैसे-वैसे खुद के दोष दिखते जाते हैं। जगत् के दोष निकालता है, तब तक खुद का एक अक्षर भी दोष मिलता नहीं है।

जगत् के दोष निकालता है कोई? दूसरों के दोष निकालने में होशियार होते हैं बहुत? एक्सपर्ट होते हैं, नहीं?

(पृ.३३)

नहीं देखना दोष किसी के

प्रश्नकर्ता : मुझे सामने वाले मनुष्य के गुण के बजाय दोष अधिक दिखते हैं, उसका क्या कारण है?

दादाश्री : सारे जगत् के लोगों को अभी ऐसा हो गया है। दृष्टि ही बिगड़ गई है। उनके गुण नहीं देखते, दोष खोज निकालते हैं तुरंत! और दोष मिल भी जाते हैं, और खुद के दोष मिलते नहीं न!

प्रश्नकर्ता : सामने वाले के दोष दिखते हैं, वे दोष खुद में होते हैं?

दादाश्री : ऐसा कोई नियम नहीं है, फिर भी ऐसे दोष होते हैं। यह बुद्धि क्या करती है? खुद के दोष ढँकती रहती है और दूसरों के देखती है। यह तो उलटे मनुष्य का काम है। जिसकी भूलें मिट गई हों, वह दूसरों की भूलें नहीं देखता है। ऐसी खराब आदत ही नहीं होती। सहज ही निर्दोष ही देखता है। ज्ञान ऐसा होता है कि ज़रा सी भी भूल नहीं देखता।

प्रश्नकर्ता : दूसरों की भूल ही मनुष्य खोजता है न?

दादाश्री : भूल किसी की नहीं देखनी चाहिए। किसी की भूल देखोगे, वह भयंकर गुनाह है। तू क्या न्यायाधीश है? तुझे क्या समझ में आता है कि तू भूल देखता है। बड़े भूल देखने वाले आए? भूल देखता है, तो फिर तू भान रहित है। मूच्र्छित है। भूल होती होगी? दूसरों की भूल तो देखी जाती होगी? भूल देखना, वह गुनाह है, भयंकर गुनाह है। भूल तो अपनी ही दिखती नहीं। दूसरों की किसलिए खोजते हो? भूल तुम्हारी खुद की देखनी है, दूसरे किसी की भूल नहीं देखनी है।

और ऐसे यदि भूलें देखने में आएँ तो, यह उसकी भूल देखे, वह उसकी भूल देखे, तो क्या होगा? किसी की भूल ही नहीं देखनी चाहिए। है ही नहीं भूल। जो भूल निकालता है, वह बिलकुल नालायक होता है। सामने वाले की थोड़ी भी भूल होती है, ऐसा मैंने ज़रा भी

(पृ.३४)

देखा तो वह मुझ में रही नालायकी है। उसके पीछे खराब आशय होते हैं। हाँ, भूल कहाँ से लाए? अपनी-अपनी प्रकृति के अनुसार कार्य करते हैं। उसमें भूल कहाँ से आई? यह न्यायाधीश का डिपार्टमेन्ट है? सब-सब की प्रकृति के अनुसार काम करते हैं। मैं भी मेरी प्रकृति के अनुसार काम करता रहता हूँ, प्रकृति तो होती ही है न!

प्रश्नकर्ता : यही भूल जाते हैं कि यह सामने वाला मनुष्य कर्ता नहीं है।

दादाश्री : हाँ, ऐसी उसकी जागृति रहे तो कोई हर्ज नहीं। सामने वाले की भूल देखी, वहाँ से ही नया संसार खड़ा हुआ। इसलिए जब तक वह भूल मिटे नहीं, तब तक उसका निबेड़ा आता नहीं है। मनुष्य उलझा हुआ रहता है।

हमें तो क्षणभर के लिए भी किसी की भूल दिखी नहीं है और दिखाई दे, तो हम उसके मुँह पर कह देते हैं। ढँकते नहीं है, कि भाई, ऐसी भूल हमें दिखती है। तुझे ज़रूरत हो, तो स्वीकार लेना, नहीं तो एक ओर रख देना।

प्रश्नकर्ता : वह तो उसके कल्याण के लिए ऐसा कहते हो।

दादाश्री : वैसा सावधान करने के लिए कहते हैं, तो हल आएगा न! और फिर वह न माने तब भी हमें बिलकुल हर्ज नहीं है। हम कहें, यह करना, और नहीं माने तो कुछ नहीं।

प्रश्नकर्ता : आपको कुछ भी नहीं?

दादाश्री : मैं जानता हूँ कि वह किस आधार पर बोलता है! उदयकर्म के आधार पर बोलता है। कोई थोड़े ही मेरी आज्ञा रोकने की इच्छा है? इच्छा ही नहीं होती न? इसलिए उसे गुनाह नहीं लगता है। यह उदयकर्म के आधार पर बोलता है तो उसे मोड़ना पड़ता है हमें। यदि प्रकृति बिफर जाए, वहाँ हमें परहेज कर देना पड़ता है। खुद का अहित तो संपूर्ण करता है, अन्य सभी का भी कर डालता

(पृ.३५)

है। बाकी, सरल प्रकृति भूलें करती है, करती ही रहती है। वह तो दुनिया में सब प्रकृतियाँ ही हैं!!

तुझे तेरी सभी भूलें दिखती हैं?

प्रश्नकर्ता : हाँ, भूलें तो दिखती हैं।

दादाश्री : एक भी भूल दिखती नहीं तुझे और जितने बाल हैं, उनसे भी ज़्यादा भूलें हैं। वह कैसे समझ में आए तुझे?!

प्रश्नकर्ता : वह भूल करनी या नहीं करनी, वह कर्माधीन है न?

दादाश्री : ओहोहो! यह अच्छी खोज की। देखो न, बच्चे ही हैं न? सभी इतने-इतने बच्चे! भान रहित स्थिति! देखो न, अभी भी भूल करनी या नहीं करनी, वह कर्माधीन है या क्या, अभी तो ऐसा बोलता है!! कुँए में तो गिरता नहीं। वहाँ सँभलकर चलता है। समय आए तो दौैड़ता है, वहाँ कर्माधीन दशा क्यों नहीं बोलता है? ट्रेन आए उस घड़ी पटरियाँ लाँघ जाता है या नहीं? वहाँ कर्माधीन क्यों नहीं कहता है?

खुद के दोष खुद को किस तरह दिखें? दिखेंगे ही नहीं न! क्योंकि जहाँ मोह का साम्राज्य हो, मोह से भरे हुए! मैं फलाना हूँ, मैं ऐसा हूँ, फिर उसका मोह! खुद के पद का मोह होता है न? नहीं होता?

प्रश्नकर्ता : बहुत होता है।

दादाश्री : यही है। दूसरा कुछ नहीं है। निंदा करने जैसा नहीं है, पर सब जगह ऐसा ही है।

तब आया महावीर के मार्ग में

दोष जब से दिखने लगें न, तब से कृपालुदेव का धर्म समझा कहलाता है। खुद के दोष आज जो दिखते हैं, वे कल नहीं दिखते, कल नयी तरह के दिखें, परसों उनसे भी नयी तरह के दिखें, तब हम

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समझें कि इसे कृपालुदेव का धर्म समझ में आया हैं और कृपालुदेव के धर्म का यह पालन करता है। खुद के दोष दिखे नहीं, तब तक कुछ भी समझा नहीं है।

क्रमिक मार्ग में तो कभी भी खुद के दोष खुद को दिखते ही नहीं। ‘दोष तो अनेक हैं, पर हमें दिखते नहीं हैं।’ ऐसा यदि कहे तो मैं मानूँ कि तू मोक्ष का अधिकारी है, पर जो कहे कि मुझ में दो-चार ही दिखते हैं, वह अनंत दोषों से भरा हुआ है और कहता है कि दो-चार ही हैं। मतलब, तुझे दो-चार दोष ही दिखते हैं, इसलिए तुझ में इतने ही दोष हैं, ऐसा तू मानता है?

महावीर भगवान के मार्ग को प्राप्त किया कब कहलाता है? जब रोज़ खुद के सौ-सौ दोष दिखें, रोज़ सौ-सौ प्रतिक्रमण होते हों, उसके बाद महावीर भगवान के मार्ग में आया कहलाता है। ‘स्वरूप का ज्ञान’ तो अभी उसके बाद कितना ही दूर है। पर यह तो चार पुस्तकें पढ़कर ‘स्वरूप’ पाने का कैफ लिए घूमता है। यह तो ‘स्वरूप’ का एक छींटा भी पाया नहीं कहलाता है। जहाँ ‘ज्ञान’ रुका हुआ है, वहाँ कैफ ही बढ़ता है। कैफ के कारण ज्ञानावरण और दर्शनावरण खिसकना रुक गया है। मोक्ष में जाने के लिए दूसरी एक भी वस्तु बाधक नहीं है। सबसे बड़े भयस्थान, वे स्वच्छंद और कैफ हैं।

नहीं दिखे खुद के ही दोष

खुद के दोष दिखते हैं आपको?

प्रश्नकर्ता : वही, खुद के दोष खोजने की ही ज़रूरत है हमें।

दादाश्री : हाँ, तो किस कारण से दिखते नहीं हैं वे?

प्रश्नकर्ता : हम संसार में उलझे पड़े हैं, यानी रोजमर्रा के कार्यों में रत हो गए हैं, इसलिए नहीं दिखते हैं।

दादाश्री : नहीं, दिखने में कोई भूल हो रही है। खुद जज है, आरोपी भी खुद है। गुनाह करने वाला भी खुद है, पर साथ में वकील

(पृ.३७)

खड़ा किया है। खुद ही वकील बनता है फिर।

प्रश्नकर्ता : यानी खुद का गलत ढंग से बचाव ही करता है।

दादाश्री : हाँ, सारा बचाव ही किया है। हाँ, बस दूसरा कुछ किया ही नहीं। गलत ढंग से सारे बचाव किए हैं।

जगत् खुली आँखों सो रहा है, इसलिए फिर दोष कैसे मालूम होंगे? तेरे दोष तुझे दिखते नहीं हैं। किस तरह मनुष्य दोष देख सकता है खुद के?

प्रश्नकर्ता : स्थूल थोड़े दिखते हैं, सूक्ष्म नहीं दिखते।

दादाश्री : दोष क्यों नहीं दिखते? तब कहते हैं ‘भीतर आत्मा नहीं है?’ तब कहते हैं, ‘आत्मा है, यानी कि जज है, जज।’ अहंकार आरोपी है। अहंकार और जज (आत्मा) दो ही होते न, तो सारे दोष दिखते, काफी कुछ दोष दिखते, पर यह तो भीतर वकील (बुद्धि) रखा है इसलिए वकील कहता है कि, ‘ये सब भी तो ऐसा ही करते हैं न!’ सारा दोष उड़ गया। आप जानते हो, वकील रखते हैं ऐसा? सभी वकील रखते हैं। खुद जज, खुद आरोपी और खुद ही वकील, बोलो, कल्याण होगा क्या?

प्रश्नकर्ता : नहीं होगा।

दादाश्री : ऐसा-वैसा करके वकील फिर सुलटा देता है। होता है या नहीं होता ऐसा?

प्रश्नकर्ता : होता है।

दादाश्री : सारा दिन यही का यही तूफ़ान और उसके दु:ख हैं ये सारे। बोलो, अब कितनी खुद की भूलें बाहर निकलेंगी? खुद की कितनी भूलों का स्टेटमेन्ट (विवरण) दे देगा?

प्रश्नकर्ता : फिर वह स्टेटमेन्ट क्या देगा?

दादाश्री : ये सिर के बाल हैं न, उतनी भूलें हैं। पर खुद जज

(पृ.३८)

और खुद वकील और खुद आरोपी, किस तरह भूलें मिलें? निष्पक्षपाती वातावरण उत्पन्न नहीं होता है न! निष्पक्षपाती वातावरण उत्पन्न हो, तो मोक्ष सरल हैं। मोक्ष कोई दूर नहीं है। यह तो पक्षपात बहुत है।

यदि दूसरों की भूलें निकालनी हों तो निकाल देगा, उनके लिए न्यायाधीश है वह, थोड़ा-बहुत, अल्पांश में, पर खुद की भूलें निकालने के लिए ज़रा-सा भी न्यायाधीश नहीं है। यानी खुद जज, खुद ही वकील और आरोपी खुद, फिर कैसा जजमेन्ट आएगा? खुद के लाभ में ही होगा।

प्रश्नकर्ता : सहूलियत वाला, बस! खुद को जैसी सहूलियत होती है न, वैसा लाकर रख देता है!

दादाश्री : इसलिए फिर संसार छूटता नहीं न कभी भी! ऐसे आप सहूलियत वाला करते रहो और निर्दोष होना है, होगा नहीं न! वकील नहीं हो, तब ही खुद की भूलें पता चलती हैं। पर आज के लोग वकील रखे बगैर रहते नहीं न! वकील रखते हैं या नहीं रखते लोग?

यह ज्ञान प्राप्त होने के बाद तुरंत ही पता चलता है कि यह भूल हुई। क्योंकि बीच में वकील नहीं है अब। वकील अपने घर गए, रिटायर हो गए। गुनहगार अभी रहे हैं पर वकील नहीं रहे।

ये भूलें जाएँ न तो खुद का भगवान पद प्राप्त हो ऐसा है। इन भूलों को लेकर ही जीवपद है और भूलें जाएँ तो शिवपद प्राप्त होता है।

इस जगत् के लोगों ने खुद केदोष देखे नहीं हैं, इसलिए ही वे दोष रहते हैं, मुकाम करते हैं आराम से! यों तो कहेगा कि मुझे दोष निकालने हैं, पर तब दोष तो एक ओर नींव डालकर अंदर रहने के लिए मकान बनवा रहे होते हैं। सीमेन्ट डालकर नींव भर रहे होते हैं। वे दोष जानते हैं कि यह मुआ कुछ भी करने वाला नहीं है। मुँह से बोलता है उतना ही, किस तरह दोष निकालेगा?

(पृ.३९)

जो एक दोष निकाल सके, वह भगवान हो जाए!!! एक ही दोष! एक दोष का निवारण करे वह भगवान हो जाए। यह तो दोष का निवारण होता है, पर दूसरों का दोष साबित करके। दूसरा दोष खड़ा करके पहले वाले का निवारण करता है। बाकी, खुद की एक भूल मिटाए, तो भगवान हो जाए।

प्रश्नकर्ता : दूसरा दोष खड़ा न करे, वह किस तरह होता है?

दादाश्री : ये तो सब भूलें ही हैं, पर एक भूल मिटे, वह कब? समकित होने के बाद मिटती है, नहीं तो मिटती नहीं। तब तक एक भी भूल मिटती नहीं। तब तक तो पहले खोदता है और फिर भरता है। खोदता है और भरता है, खोदता है और भरता है। कोई क्रिया उसकी काम आती नहीं। सारी क्रियाएँ निष्फल जाती हैं।

उसे कहा जाता है जैन

आप में दो-चार दोष होंगे या नहीं होंगे?

प्रश्नकर्ता : ज़्यादा।

दादाश्री : दस-पंद्रह दोष होंगे?

प्रश्नकर्ता : वे गिनने से तो गिने नहीं जाएँगे।

दादाश्री : हाँ। उसका नाम जैन कहलाता है। जैन किसका नाम कहलाए कि खुद में अहंकार है, दोष हैं, ऐसा खुद को विश्वास है। भले ही दोष दिखें नहीं, पर वे हैं ऐसी जिसे श्रद्धा है, उसे जैन कहते हैं। खुद अनंत दोष का भाजन है। पर अब कब उन्हें खाली कर पाओगे?

प्रश्नकर्ता : वह तो आपकी कृपा होगी तब।

दादाश्री : बहुत बड़ी बात की!

दोष, उतने ही चाहिए प्रतिक्रमण

‘अनंत दोष का भाजन है, तब उतने ही प्रतिक्रमण करने पड़ेंगे।

(पृ.४०)

जितने दोष भरकर लाए हैं, वे आपको दिखेंगे। ज्ञानी पुरुष के ज्ञान देने के बाद दोष दिखने लगते हैं, नहीं तो खुद के दोष खुद को दिखते नहीं हैं, उसका नाम ही अज्ञानता। खुद का दोष एक भी दिखता नहीं है और किसी के देखने हों तो बहुत सारे देख ले, उसका नाम मिथ्यात्व।’

और ज्ञानी पुरुष के ज्ञान देने के बाद, दिव्यचक्षु देने के बाद खुद को खुद के सर्व दोष दिखते हैं। ज़रा-सा मन बदलाव हुआ हो, तो भी पता चल जाता है कि यह दोष हुआ। यह तो वीतराग मार्ग, एक अवतारी मार्ग है। यह तो बहुत जिम्मेदारी वाला मार्ग है। एक अवतार में सब शुद्ध ही हो जाना चाहिए। यहाँ पहले शुद्ध हो जाना चाहिए।

मतलब निरे दोषों का भंडार हो। यहाँ ज्ञानविधि में आओगे तो मैं सारे पाप धो दूँगा। वह धोने का मेरे हिस्से में आया है। फिर खुद के दोष दिखेंगे। और खुद के दोष दिखने लगें, तब से समझना कि अब मोक्ष में जाने की तैयारी हुई। बाकी किसी को भी खुद के दोष दिखे नहीं हैं।

आत्मा खुद ही थर्मामीटर जैसा

जो खुद करता है न, उसमें खुद को, भूल है ऐसा कभी पता नहीं चलता। खुद जो करता हो, सहज स्वभाव से जो कार्य क्रिया करता हो न, उसमें खुद की भूल है, ऐसा कभी भी दिखता नहीं, उल्टे कोई भूल दिखाए, तब भी उसे उल्टा दिखता है। वह जप करता हो या तप करता हो, त्याग करता हो, उसमें उसे खुद की भूल नहीं दिखती। भूल तो, खुद आत्मस्वरूप हो जाए, ज्ञानी पुरुष का दिया हुआ आत्मा प्राप्त हो जाए तो आत्मा अकेला ही थरमामीटर समान है कि जो भूल दिखलाता है, बाकी कोई भूल नहीं दिखलाता। खुद की भूल नहीं दिखाई देती किसी को। भूल दिखे, तब तो काम हो ही गया न!

और भूल मिटे, तब तो परमात्मा हो जाता है। परमात्मा तो है

(पृ.४१)

ही, पर परमात्मा की सत्ता कब प्राप्त होती है? भूल मिटे, तब! वह भूल मिटती नहीं है और सत्ता प्राप्त होती नहीं है और लोगों के ससुर और सास बनकर मज़े करते हैं। भूल मिटे तो सत्ता प्राप्त होती है, परमात्मा की सत्ता प्राप्त होती है। और यह ज्ञान प्राप्त होने के बाद ‘खुद परमात्मा है’ ऐसा लक्ष्य बैठा है, इसलिए अब धीरे-धीरे वह श्रेणी चढ़ता जाता है और वो सत्ता प्राप्त होती रहती है।

बाकी भूल दिखलाए वह सच्चा। कितनी सारी भूलें? एक भूल हमारी जो मिटाए, हमारी सबसे बड़ी भूल मिटाए, वह भगवान कहलाता है।

यह तो पहले का अभ्यास होता है कि मैं सब में भगवान देखता हूँ, पर झगड़ते समय तो भगवान सब भूल जाता है और झगड़ा कर बैठता है कि दूध क्यों ढोला! घर का बच्चा खुद दूध ढोलेगा क्या?

यह तो आदि-अनादि से चली आई है, बाप को बेटे को डाँटना चाहिए ऐसी रीति है। यह तो कोई मानवता कहलाती है? मानवता तो कैसी सुगंध देती है? पच्चीस-पच्चीस मील के एरिया में सुगंध आती रहती है। खुद की सारी भूलें दिखें तो जानना कि सुधार होगा। एक भूल लोगों को अपनी दिखती नहीं है।

वह है भूलों का स्वरूप

अहंकार विलय हो जाए तब तो भूल खतम हो जाए। अहंकार यों ही विलय नहीं होगा। वह चटनी की तरह पीसने जैसा नहीं है। अहंकार तो भूलें दिखें, उतना विलय होता है। अहंकार यानी भूल का स्वरूप। इगोइज़म, वह स्ट्रक्चर ही भूल का है। कहलाता क्या है कि स्वरूप का भान नहीं है, मतलब भान भूले हुए हैं। भान भूले हुओं में सारा इगोइज़म भान भूला हुआ है। तब भीतर क्या सामान है उसके पास, कि भीतर छोटी-मोटी भूलें हैं! वे भूलें मिटेंगी, तो काम होगा। निष्पक्षपाती हो जाए, तब खुद की भूलें दिखेंगी।

वाणी तो, भीतर सारे शास्त्रों की वाणी पड़ी हुई है। भूल मिटेगी,

(पृ.४२)

उसके बाद वाणी निकलेगी और वह वाणी फिर निष्पक्षपाती होनी चाहिए। मुसलमान बैठा हो, उसे भी सुनने का मन हो। जैन बैठा हो, उसे भी सुनने का मन हो। सभी स्टेन्डर्ड को सुनने का मन हो, वह निष्पक्षपाती वाणी कहलाती है।

खुद के दोष देखने में निष्पक्षपाती ऐसा कौन होता है? वे तो कृपालुदेव हों और उनके दो-तीन फॉलोअर्स (अनुयायी) हों न, वे होते हैं। बाकी खुद के दोष देखने में पक्षपात का सवाल ही कहाँ है? खुद के दोष देखने का पता ही नहीं चलता।

ज्ञानी की तत्त्वदृष्टि

हमें इस जगत् में कोई दोषित दिखता ही नहीं है। जेबकतरा हो या चरित्रहीन हो, उन्हें भी हम निर्दोष ही देखते हैं। हम ‘सत् वस्तु’ को ही देखते हैं। वह तात्विक दृष्टि है। पैकिंग को हम देखते नहीं हैं। वेरायटीज़ ऑफ पैकिंग हैं, उनमें हम तत्त्वदृष्टि से देखते हैं। ‘हमने’ संपूर्ण निर्दोष दृष्टि की और सारे जगत् को निर्दोष देखा। इसलिए ही ‘ज्ञानी पुरुष’ आपकी ‘भूल’ मिटा सकते हैं! औरों के बस की बात नहीं है।

तर गया वही तारे

ये सब भूलें तो हैं न? उसकी खोज भी नहीं की है न?

प्रश्नकर्ता : हमारी कोई भूल होती है, इतना समझ में आता है, पर उसमें से निकल नहीं पाते। और निकलने की कोशिश करते हैं वैसे-वैसे गहरे, और गहरे ही उतरते जाते हैं।

दादाश्री : कोशिश ही मत करना। वह कोशिश करना, यानी यहाँ गड्ढा खोदना है और वहाँ गड्ढा भरना है। उसके बजाय, वहाँ गड्ढा खोदकर यहाँ भरें, उस काम के कौन पैसे देगा?

प्रश्नकर्ता : नहीं देगा।

दादाश्री : और ऊपर से दंड मिलता है कि यहाँ जमीन क्यों

(पृ.४३)

खोद डाली? ऊपर से केस बनता है कि आपने यहाँ क्यों खोद डाला? इसलिए फिर से भर दो और फिर इसके ऊपर पानी डालकर और समतल करवा दो।

मतलब ये सब लोग जो करते हैं न, वे उल्टी जगह पर खोदते हैं। उसके बजाय नहीं खोदते हों और किसी को कहते हों कि भाई, मेरा कुछ हल निकाल दो तो कोई हल निकाल दे। जो छूट गया है, वह छुड़वा देगा। वह बँधा हुआ मनुष्य, वही डुबकी खा रहा हो, ‘बचाओ’ कहता हो, ‘तो मुए, तू बचाओ-बचाओ कहता है, तू क्या मुझे बचाने वाला है फिर?’

प्रश्नकर्ता : इतना समय जिसकी शरण में गए हल निकालने के लिए, वहाँ वापस डूब गए, जिस डॉक्टर की दवाई ली उसने दर्द बढ़ाया, कम नहीं किया।

दादाश्री : वे डॉक्टर ठीक से पढ़े हुए नहीं थे। वे डुबकी खा रहे थे और जो डॉक्टर ऐसा कहे, ‘नहीं, हम तर गए हैं, तू आ’ तो हम समझें कि वे खुद कह रहे हैं न!

बाकी, कोई कहता नहीं कि तर गए हैं। नहीं तो समझता है कि किसी दिन कोई बखेड़ा होगा और लोग जान जाएँगे कि ये डुबकियाँ खाते समय चिल्ला रहे थे। यानी नाप लेते हैं न लोग? क्यों, तर गए थे और अब डुबकी खाते समय चिल्ला रहे हो? कहेंगे कि नहीं कहेंगे? यानी संयोग अच्छे नहीं मिले थे। इस बार संयोग अच्छा मिला है, काम हो जाएगा।

मतलब यह सब किस तरह इसमें प्राप्ति होगी? ओहोहो! सिर के बाल तो गिने जा सकते हैं, पर ये इनकी भूलें नहीं गिनी जा सकतीं।

यदि रोज़ पच्चीस जितनी भूलें समझ में आएँ, तब तो गज़ब शक्ति उत्पन्न होगी। संसार बाधक नहीं है, खाना-पीना बाधक नहीं है। नहीं तप ने बाँधा, या नहीं त्याग ने बाँधा है। खुद की भूलों ने

(पृ.४४)

ही लोगों को बाँधा है। अंदर तो अपार भूलें हैं। पर मात्र बड़ी-बड़ी पच्चीसेक जितनी भूलें मिटाए न तो छब्बीसवीं अपने आप जाने लगेगी। कुछ लोग तो भूल को जानते हैं, फिर भी खुद के अहंकार को लेकर उसे भूल नहीं कहते। यह कैसा है? एक ही भूल अनंत जन्म बिगाड़ डालती है, यह तो पुसाए ही नहीं। क्योंकि नियाणां (अपना सारा पुण्य लगाकर किसी एक वस्तु की कामना करना) मोक्ष का किया था, वह भी नियाणां पूरी तरह से नहीं किया था। इसलिए तो ऐसा हुआ न! दादा के पास आना पड़ा न?

तब भूल मिटाई कहलाती है

एक-एक जन्म में एक भूल मिटाई होती तो भी मोक्ष स्वरूप हो जाते। पर यह तो एक भूल मिटाने जाते नहीं, पाँच भूले बढ़ाकर आते हैं। यह बाहर सब सुंदर और भीतर सब क्लेश का पार नहीं है! इसे भूल मिटाई कैसे कहें? आपका तो कोई ऊपरी ही नहीं है। पर भूल बताने वाला चाहिए। भूलों को मिटाओ, पर खुद की भूल खुद को किस तरह मिले? और वह भी एक या दो ही हैं कोई? अनंत भूलें हैं! काया की अनंत भूलें तो बहुत बड़ी दिखती हैं। किसी को भोजन के लिए बुलाने गए हों, पर ऐसा कठोर बोलते हैं कि बत्तीस भोग का न्योता हो, तो भी अच्छा न लगे। इसके बजाय तो नहीं बुलाएँ तो अच्छा, ऐसा अंदर होता है। अरे, ये बोलें तो कर्कश वाणी निकलती है, और मन के तो अपार दूषण होते हैं!

भूल निकाले, अंदर कौन?

हमारी भूलें तो कौन मिटा सकता है? ‘ज्ञानी पुरुष’, कि जो खुद की सारी भूलें मिटाकर बैठे हैं। जो शरीर होने पर भी अशरीर भाव से, वीतराग भाव से रहते हैं। अशरीर भाव यानी ज्ञानबीज। सारी भूलें मिटाने के बाद, खुद के अज्ञान बीज का नाश होता है और ज्ञानबीज पूर्णरूप से उगता है, वह अशरीर भाव। जिसे किंचित् मात्र-ज़रा भी देह पर ममता है, तो वह अशरीर भाव नहीं कहलाता है,

(पृ.४५)

और इस देह पर से ममता जाए किस तरह? जब तक अज्ञान है, तब तक ममता जाती नहीं।

इस जगत् में सबकुछ पता चलता है, पर खुद की भूल पता नहीं चलती। इसलिए ही खुद की भूल दिखाने के लिए ज्ञानी की ज़रूरत है। ज्ञानी पुरुष ही ऐसे सर्व सत्ताधारी हैं कि जो खुद को खुद की भूल दिखाकर उसका भान करवा देते हैं और तब भूल मिटती है। वह कब होता है? जब ज्ञानी पुरुष से भेंट हो और खुद को निष्पक्षपाती बनाए। अपने खुद के लिए भी निष्पक्षता उत्पन्न हो, तब ही काम होता है। स्वरूप का भान जब तक ज्ञानी पुरुष नहीं करवा देते, तब तक निष्पक्षता उत्पन्न नहीं होती। ‘ज्ञान’ किसी की भी भूल नहीं निकालता। बुद्धि सब की भूल निकालती है, सगे भाई की भूल निकालती है।

यह तो ‘ज्ञानी पुरुष’ हैं इसलिए खुद को दोष का पता चलता है। नहीं तो उसे खुद को पता ही क्या चले? चला स्टीमर कोचीन की तरफ। कुतुबनुमा(दिशासूचक यंत्र) बिगड़ गया है, इसलिए कोचीन चला! दक्षिण को ही वह कुतुबनुमा उत्तर दिखलाए! नहीं तो कुतुबनुमा हमेशा उत्तर में ही ले जाता है, उसका स्वभाव है। कुतुबनुमा बिगड़ जाए, फिर ‘क्या करे?’ और खुद को ध्रुवतारा देखना आता नहीं है।

सबसे बड़ी भूल, वह स्वच्छंद है। स्वच्छंद से तो सारा लश्कर खड़ा है। स्वच्छंद, वही बड़ी भूल है। यानी ज़रा-सा ऐसा कहा कि, ‘उसमें क्या हुआ?’ तो हो गया। वह फिर अनंत जन्म बिगाड़ देता है।

सबकुछ अपने दोष से ही बँधा हुआ है। केवल खुद के दोष देखते रहने से छूट सकें ऐसा है। ‘हम’ हमारे दोष देखते रहे, इसलिए हम छूट गए। निजदोष समझ में आएँ, तो मुक्त होता जाता है। इसलिए ‘ज्ञानी पुरुष’ आपकी भूलें मिटा सकते हैं, औरों के बस की बात नहीं है।

हम तुरंत ही भूल एक्सेप्ट करके, निकाल कर डालते हैं। यह कैसा है कि पहले भूलें की थीं, उनका निकाल नहीं किया इसलिए

(पृ.४६)

वही की वही भूलें फिर से आती हैं। भूलों का निकाल करना नहीं आया इसलिए एक भूल निकालने के बदले दूसरी पाँच भूलें कीं।

नहीं उसका कोई ऊपरी

प्रश्नकर्ता : पर दादा, प्रत्यक्ष पुरुष के अलावा यह भूल समझ में नहीं आती?

दादाश्री : किस तरह समझ में आए?! उनकी ही भूल समझ में नहीं आती, फिर वह दूसरों की भूल किस तरह निकाले? जिसे ऊपरी की ज़रूरत नहीं है, जिसे कोई भूल दिखाने वाले की ज़रूरत नहीं है, वह अकेला ही भूल निकाल सकता है। बाकी दूसरा कोई भूल निकाल नहीं सकता है। जो खुद की तमाम प्रकार की सभी भूलें जानता हो, उसे ऊपरी की ज़रूरत नहीं है। ऊपरी की कब तक ज़रूरत होती है कि जब तक आप भूलें नहीं देख सकते और कुछ प्रकार की भूलें आप में रहती हों तो तब तक आपके ऊपरी होते ही हैं। और ऊपरीपन कब छूटता है? आपकी एक भी भूल जो आपको दिखती नहीं हो, वे सभी दिखती रहें। यह तो नियमपूर्वक की बात है न! आप सब को कम दिखती हैं, इसलिए तो मैं ऊपरी हूँ अभी। आपको दिखने लगें, तो फिर मैं किसलिए ऊपरी होऊँ? इस झमेले में मैं कहाँ पडूँ? मतलब कानून ही दुनिया का यह है। जिसे खुद की पूर्ण भूलें दिखेंगी, फिर उसका कोई ऊपरी नहीं रहा। इसलिए हम कहते हैं न कि हमारा कोई बाप भी ऊपरी नहीं है। उलटे भगवान हमारे वश में हो गए हैं। ‘हमें’ तो हर एक भूल, खुद की किंचित् मात्र भूल, केवलज्ञान में दिखने वाली भूलें भी हमें दिखती हैं। बोलो, अब केवलज्ञान बरतता नहीं है, फिर भी केवलज्ञान में दिखाई देने वाली भूलें दिखती हैं!

दृष्टि निजदोषों के प्रति...

यह ज्ञान लेने के बाद बाहर का तो आप देखोगे वह अलग बात है, पर आपके ही अंदर का आप सब देखा करोगे, उस समय आप केवलज्ञान सत्ता में होंगे। पर अंश केवलज्ञान होता है, सर्वांश

(पृ.४७)

नहीं। अंदर खराब विचार आएँ, उन्हें देखना, अच्छे विचार आएँ उन्हें देखना। अच्छे पर राग नहीं और खराब पर द्वेष नहीं। अच्छा-बुरा देखने की हमें ज़रूरत नहीं है। क्योंकि मूलत: सत्ता ही अपने काबू में नहीं है। इसलिए ज्ञानी क्या देखते हैं? सारे जगत् को निर्दोष देखते हैं। क्योंकि यह सब ‘डिस्चार्ज’ में है, उसमें उन बेचारों का क्या दोष? आपको कोई गाली दे, वह ‘डिस्चार्ज’। ‘बॉस’ आपको उलझन में डाले वह भी ‘डिस्चार्ज’ ही है। बॉस तो निमित्त है। जगत् में किसी का दोष नहीं है। जो दोष दिखते हैं, वह खुद की ही भूल है और वही ‘ब्लंडर्स’ हैं और उससे ही यह जगत् खड़ा है। दोष देखने से, उल्टा देखने से ही बैर बंधता है।

प्रमत्त भाव से दिखें परदोष...

इस जगत् में कोई गुनहगार नहीं है। जो गुनहगार दिखता है, वह हमारी खुद की कमी है। कोई गुनहगार दिखता है, वही आपका प्रमत्तभाव है। वास्तव में अप्रमत्तता होनी चाहिए, तब फिर कोई गुनहगार दिखेगा ही नहीं।

प्रश्नकर्ता : प्रमत्तभाव यानी क्या?

दादाश्री : वस्तु, वस्तु का स्वभाव चूके वह प्रमत्त कहलाता है। वस्तु अपने मूल धर्म में रहे वह अप्रमत्त भाव।

वीतरागों ने कहा मुक्ति हेतु

आप अपनी नासमझी के कारण इतना सारा उलझते हो। इन उलझनों के लिए आपको मुझसे पूछना चाहिए कि मुझे यहाँ उलझन है, तो इसमें क्या करना चाहिए? इसलिए पूछना। उसके लिए हम सत्संग रखते हैं।

एक कर्म कम हो जाए, तो उलझनें दिन-प्रतिदिन कम होती जाती हैं। एक दिन में एक ही कर्म यदि कम करे तो दूसरे दिन दो कम कर सकेगा। पर यह तो रोज़ उलझनें डालता ही रहता है और

(पृ.४८)

बढ़ाता ही रहता है! ये सभी लोग क्या अरंडी का तेल पीकर घूमते होंगे? उनके मुँह पर मानो ‘अरंडी का तेल नहीं पीया हो!’ ऐसे बनकर घूमते हैं। सभी अरंडी का तेल मोल लाते होंगे कोई? महँगे भाव का अरंडी का तेल रोज़ कहाँ से लाएँ? भीतर परिणति बदली कि अरंडी का तेल पीया हो वैसा मुँह हो जाता है। दोष खुद का और भूल निकालता है दूसरों की। इससे भीतरी परिणति बदल जाती है। ‘खुद का दोष ढूँढो’ ऐसा ‘वीतराग’ कह गए हैं, दूसरा कुछ भी कहकर नहीं गए हैं। ‘तू अपने दोष को पहचान और मुक्त हो जा। बस, इतना ही मुक्तिधाम देगा तुझे।’ इतना ही कार्य करने को कहा है भगवान ने।

ज़रूरत है भूल रहित ज्ञान और समझ की

एक आचार्य महाराज ने कहा, ‘मेरा मोक्ष कब होगा?’ तब भगवान ने कहा, ‘आपका ज्ञान और आपकी समझ भूल रहित होगी तब।’ यह भूल है, उसी भूल से अटके हैं। आपका ज्ञान और आपकी समझ भूल रहित होगी तब आपका मोक्ष होगा। तब क्या गलत कहते हैं?

प्रश्नकर्ता : ठीक है।

दादाश्री : तब कोई कहे कि, ‘साहब जप-तप करने चाहिए क्या?’ वह तो तुझे जिस दिन पेट में अजीर्ण हुआ हो, तो उस दिन उपवास करना। जप-तप की हमारी शर्त नहीं है। तेरी समझ और ज्ञान भूल रहित कर, किसी भी रास्ते। क्या गलत कहते हैं भगवान? भूल है तब तक तो कोई कबूल ही नहीं करेगा न! अभी तो कितनी सारी भूलें हैं?! मैं चंदूलाल हूँ, इस औरत का पति हूँ, ऐसा कहता है वापस और इस बच्चे का बाप हूँ, कहता है। कितनी सारी भूलें! यह तो परंपरा है भूलों की। मूल में ही भूल। मूल जो रकमें है, उनमें एक अविनाशी है और एक विनाशी है। और अविनाशी के साथ विनाशी को गुणा करने जाता है, तब तक तो वह रकम उड़ जाती है। वह विनाशी, पति नहीं तो बाप तो है, वह रखें तब तक तो वह

(पृ.४९)

उड़ जाती है यानी गुणा कभी होता नहीं, जवाब आता नहीं और दिन बदलता नहीं। शुक्रवार ही हमेशा रहता है। शुक्रवार जाता नहीं और शनिवार होता नहीं, एवरी डे फ्राइडे (सदा शुक्रवार)।

भगवान ने कोई ऐसा कहा है कि तप करना, जप करना, भूखों मरना, उपवास करना, त्याग करना, ऐसा कहा है? तेरा ज्ञान और तेरी समझ भूल रहित कर, उस दिन तू खुद ही मोक्ष स्वरूप है। जीवित देहधारी का मोक्ष!!

भगवान की बात तो आसान ही है न पर हमने पता लगाया कभी कि भूल रहित ज्ञान और भूल रहित समझ किस तरह हो सकती है? हमने तो ऐसा ढूँढा, कि आज कौन-सा उपवास करना है या आज किसका त्याग करूँ? अरे! भगवान ने त्याग की शर्त कहाँ रखी है? यह तो उलटे रास्ते चल पड़े। आड़ी गलियों में घुस गए। भगवान ने क्या कहा था, ‘ज्ञान और समझ भूल रहित कर डाल तू।’

प्रश्नकर्ता : समझ भूल रहित, यह बात फिर से समझाइए!

दादाश्री : हाँ, आपकी समझ भूल रहित होगी, तब आपका मोक्ष होगा। समझ में ही भूल है आपकी, वह जब भूल रहित होगी, मेरे साथ बैठ-बैठकर, तब निबटारा होगा। जब तक भूल है, तब तक निबटारा कैसे होगा? किसी की भूलें होंगी?

फिर क्या कहते हैं, तू खुद मोक्ष स्वरूप है। तू खुद ही परमात्मा है। केवल भूल रहित ज्ञान और भूल रहित समझ का भान होना चाहिए।

ज्ञान कैसा होना चाहिए? भूल रहित। और समझ कैसी होनी चाहिए? भूल रहित। यदि ज्ञान अकेला होगा तो पपीते नहीं लगेंगे। है पेड़ पपीते का, पर एक भी पपीता नहीं लगता, ऐसा होता है क्या? आपने देखे नहीं होंगे पपीते?

प्रश्नकर्ता : देखे हैं।

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दादाश्री : देखे हैं न? अरे मुए! पाल-पोसकर बड़ा किया तो ऐसा निकला? पानी पिलाकर, पाल-पोसकर बड़ा किया तो अंदर से ऐसा निकला? उसमें पपीता ही नहीं लगता।

इसलिए ज्ञान भूल रहित होना चाहिए और भूल रहित समझ। अब सिर्फ ज्ञान भूल रहित हुआ तो भी कुछ होता नहीं। समझ भूल रहित हो जाए तो चलेगा। समझ, वह हार्ट को पहुँचती है और ज्ञान, वह बुद्धि को पहुँचता है।

आज चलता है वह ज्ञान, लोगों का व्यवहारिक ज्ञान, वह बुद्धि को पहुँचता है और समझ हार्ट को पहुँचती है, हार्ट वाला (हृदय वाला) ठेठ तक पहुँचाता है, मोक्ष तक पहुँचाता है। उसे हमारे लोग सूझ कहते हैं। यह समझ जो है, उससे सूझ उत्पन्न होती है और सूझ से समझ उत्पन्न होती है, ठेठ तक पहुँचाने वाली सर्वोत्तम वस्तु यह है।

भूल से तो यह संसार भी ठीक से नहीं चलता है, तो भूल से तो मोक्ष होता होगा कभी? ज्ञान और समझ भूल रहित होंगे, आप जानो कि ज्ञान तो ऐसा है और यह तो सब अज्ञान है, भूल वाला है, तबसे ज्ञान हुआ करता है।

यह तो इतनी उम्र में भी उसे ऐसे शर्म नहीं आती कि ‘मैं इनका पति हूूँ,’ कहते हुए शर्म आती है? ऐसा कहता है। ये मेरे पति हैं, ऐसा पत्नी भी कहती है। इतनी उम्र में उन्हें शर्म भी नहीं आती। क्योंकि अस्सी साल के हो गए, उसे भी शर्म नहीं आती। क्योंकि जैसा जानते हैं वैसा बोलते हैं न। और लोग भी समझें, वैसा बोलते हैं न? नहीं तो कहाँ जाएँ? पर वह ज्ञान गलत नहीं है। यह जो जानते हैं, वह भी व्यवहार का ज्ञान है, सच्चा ज्ञान नहीं है।

इस सच्चे ज्ञान में तो आप शुद्धात्मा हो और वह भी शुद्धात्मा है। पर उस शुद्धात्मा का भान होना चाहिए न? अभी तो ‘मैं चंदूलाल हूँ’ यह भान है, ‘मैं जैन हूँ’ यह दूसरा भान है। उम्र चौहत्तर साल की है, वह भी भान है। सब भान है। बचपन में कहाँ-कहाँ खेलने गए थे, वह भी भान है। नौकरी कहाँ-कहाँ की थी, व्यापार कहाँ-कहाँ किया, वह भी सब भान है पर ‘खुद कौन है?’ वह भान नहीं है।

प्रश्नकर्ता : अब वह दीजिए आप। वह भान करने की इच्छा जागृत हुई है और उसके लिए आए हैं।

दादाश्री : उस ज्ञान के लिए भवोभव इच्छा होती है, पर सच्चा नियाणां नहीं किया। यदि नियाणां किया होता न तो सभी पुण्य उसी में खर्च हो जाता है। नियाणां का स्वभाव क्या है? तब कहे कि जितना आपका पुण्य हो, वह नियाणे के लिए ही खर्च हो जाता है।

यह तो घर में पुण्य खर्च हो गया, देह में पुण्य खर्च हो गया, सभी में पुण्य खर्च हो गया, मोक्ष का नियाणां नहीं किया था न! मोक्ष का नियाणां किया होता तो सारा पुण्य उसमें खर्च हो जाता। देखो न हम मोक्ष का नियाणां करके आए थे, इसलिए सब सीधा चल रहा है न? कुछ अड़चनें होंगी तो मिलमालिकों को अड़चनें होंगी, प्रधानमंत्री को होंगी, पर हमें कोई अड़चन नहीं है।

भूल रहित ज्ञान और समझ

प्रश्नकर्ता : भूल रहित ज्ञान और भूल रहित समझ होगी तो तू खुद ही मोक्ष स्वरूप है। कितनी अधिक ऊँची बात कह दी। आरोपित भाव, वही मूलत: भूल है, बंधन है!

दादाश्री : हाँ, और यह विज्ञान प्रकट नहीं हो, तब तक ऐसा स्पष्टीकरण ही नहीं मिलता न! शास्त्रों में ऐसा स्पष्टीकरण ही नहीं

(पृ.५१)

होता है न! केवल शुभ करो, कुछ शुभ करो कहेंगे, पर आरोपित भाव है ऐसा तो कोई समझाता नहीं है क्योंकि ज्ञानी पुरुष के बिना ऐसा स्पष्टीकरण मिलता नहीं है।

लोगों को बुद्धि में समझ में आ गया होता है कि यह कुछ भूल है, बहुत बड़ी भूल हो रही है, ऐसा समझ में आता है, पर फिर भी ज्ञानी पुरुष नहीं मिलें तो करें क्या फिर? यों ही आम उबलता रहता है। लोग समझदार बहुत हैं, इसलिए बुद्धि में सब समझकर सार निकालते हैं कि यह क्या है? पर फिर भी उबलते रहते हैं। और ज्ञानी पुरुष मिल जाएँ तो सारे स्पष्टीकरण दे देते हैं। हर एक शब्द का स्पष्टीकरण नहीं हो तो वह ज्ञानी पुरुष नहीं। स्पष्टीकरण होने ही चाहिए। अज्ञान से स्पष्टीकरण मिलता हो तो अज्ञान क्या कम था? अज्ञान भी कहाँ नहीं था हमारे घर? स्टोक भरकर था ही न!

काफी है बैठनी, प्रतीति भूल की

ये लोग कहते हैं कि, ‘अब हमने हमारे दोष हैं, वे हमने जान लिए।’ पर अब निकाल दीजिए। आप हमें मारिए-करिए, जो करना हो वह कीजिए, पर दोष निकाल दीजिए। अब इसके लिए क्या रास्ता है?

दोष किस तरह पैठा, वह आप खोजो। उसके बाद पता चलेगा, दोष निकलेंगे किस तरह? पैठा उस घड़ी उसे घुसाना नहीं पड़ता। इसलिए, निकालते समय निकालना नहीं पड़ता। जो चीज़ डाली हुई हो वह निकालनी पड़ती है। ये तो मुझे कहते हैं, ‘दोष निकाल दीजिए!’ अरे लेकिन वे किससे पैठ गए? तब कहे, ‘एक मनुष्य ऐसे कुसंग में गया, उससे उसे विश्वास हो गया कि ये मज़े कर रहे हैं और यह रास्ता बहुत अच्छा है। बहुत अच्छा सुखदाई है।’ उसे उस ज्ञान पर श्रद्धा बैठ गई, प्रतीति बैठ गई।

उसी तरह मैं इन्हें क्या करता हूँ? जो उनकी भूलें हैं, वे नकारते हैं कि ‘हममें बिलकुल ही भूल नहीं हैं वैसी, लोगों में भूल हैं।’ वह उनकी भूल उन्हें दिखाता हूँ। फिर उन्हें प्रतीति बैठती है हंड्रेड परसेन्ट

(पृ.५२)

(सौ प्रतिशत), कि ये सब भूलें ही हैं। वह हम एक्सेप्ट (स्वीकार) करते हैं। ‘यह हमारी भूल निकाल दीजिए’, कहते हैं। मैंने कहा, ‘अब निकालना नहीं होता। प्रतीति बैठ गई, उसका मतलब यह कि भूल निकलनी शुरू हो गईं। तुझे केवल मन खुला रखना है कि भाई, आप चले जाओ। बस, इतना ही बोलने की ज़रूरत है।’ प्रतीति बैठने से ही भूल चली जाती है और प्रतीति बैठने से भूल पैठ जाती है। डालना-निकालना नहीं होता वह तो। यह क्या कोई कारखाना है? यानी एक भूल निकालनी हो तो कितना समय लगता है फिर? कितने ही जन्म निकल जाते हैं। समझ में आए ऐसी बात है न यह सब?

प्रतीति, उसमें दाग़ नहीं लगाना चाहिए।

प्रश्नकर्ता : आप सिम्पटम्स (लक्षण) नहीं देखते हैं और मूल कॉज़ (कारण) का इलाज करते हैं, ऐसे डॉक्टर कहाँ मिलेंगे?

दादाश्री : डॉक्टर नहीं है, उसी का तो यह झमेला है न? ऐसे डॉक्टर मिले नहीं और ऐसी दवाई भी मिली नहीं, इसलिए फिर यह चला तूफ़ान! इसलिए फिर परिणाम को मारने लगे, इफेक्ट को!

श्रद्धा से पैठा। वह प्रतीति संपूर्ण बैठी, इसलिए वह पैठा और प्रतीति से उतरेगा। संपूर्ण प्रतीति होनी चाहिए कि यह दोष ही है। इसलिए निकल जाएगा। यही नियम है। फिर उसका रक्षण नहीं करे, प्रोटेक्शन (तरफ़दारी) नहीं दे तो चला जाता है। पर फिर प्रोटेक्शन देता ही है। हम कहें, ‘साहब यह नसवार सूँघते हो अभी भी?’ तब कहे, ‘उसमें हर्ज नहीं।’ यह प्रोटेक्शन दिया कहलाता है। मन में समझता है कि यह गलत है। प्रतीति बैठी होती है, पर फिर प्रोटेक्शन देता है। प्रोटेक्शन नहीं देना चाहिए। देते हैं न प्रोटेक्शन?

प्रश्नकर्ता : हाँ जी, प्रोटेक्शन देते ही हैं न!

दादाश्री : आबरू चली गई है, है ही कहाँ आबरू? आबरू वाला तो कपड़े पहनकर घूमता होगा? ये तो ढँकते रहते हैं आबरू!

(पृ.५३)

ढँक-ढँककर आबरू बचाते रहते हैं। फटे तब सिल देते हैं, अरे कोई देख लेगा, सिल दे।

भूल मिटाकर दे, वह भगवान

खुद की एक भूल मिटाए, वह भगवान कहलाता है। खुद की भूल बताने वाले बहुत होते हैं, पर कोई मिटा नहीं सकता। भूल दिखाना भी आना चाहिए। यदि भूल दिखाना नहीं आए तो अपनी भूल है, ऐसा कबूल कर लेना चाहिए। यह किसी की भूल दिखाना, वह तो भारी काम है और वह भूल मिटा दे, वह तो भगवान ही कहलाता है। वह तो ‘ज्ञानी पुरुष’ का ही काम। हमें इस जगत् में कोई दोषित दिखता ही नहीं है।

‘हमने’ संपूर्ण निर्दोष दृष्टि की और सारे जगत् को निर्दोष देखा! इसलिए ही ‘ज्ञानी पुरुष’ आपकी ‘भूल’ मिटा सकते हैं! औरों के बस का नहीं है। भगवान ने संसारी दोष को दोष माना नहीं है। ‘तेरे स्वरूप का अज्ञान’ वही सबसे बड़ा दोष है। यह तो ‘मैं चंदूलाल हूँ’, तब तक अन्य दोष भी खड़े हैं और एक बार ‘खुद के स्वरूप’ का भान हो, तब फिर अन्य दोष भी जाने लगते हैं!

भूल रहित दर्शन और भूल वाला वर्तन

खुद की भूल खुद को पता चले वह भगवान हो जाए।

प्रश्नकर्ता : इस तरह कोई भगवान हुआ था?

दादाश्री : जितने भी भगवान हुए, उन सभी को खुद की भूल खुद को पता चली थी और भूल को मिटाया था, इसलिए वे भगवान ही हो गए। भूल रहे नहीं उस तरह से वे भूल को मिटा देते हैं। सारी भूलें दिखती हैं, एक भी ऐसी भूल नहीं थी कि उन्हें नहीं दिखी हो। सूक्ष्म से सूक्ष्म, ऐसी सभी भूलें दिखती थीं। हमें भी हमारी पाँच-पचास भूलें तो हररोज़ दिखती हैं और वे भी सूक्ष्मतर और सूक्ष्मतम भूलें दिखती हैं, जो लोगों को नुकसानदायक बिलकुल भी नहीं होतीं। ये

(पृ.५४)

बोलते-बोलते किसी का अवर्णवाद बोला जाए, वह भी भूल कहलाती है। वह तो बल्कि स्थूल भूल कहलाती है।

अब भूल किसे दिखती है? तब कहे, भूल रहित उसका चारित्र, श्रद्धा में है खुद को! हाँ, और भूल वाला वर्तन, वर्तन में है, उसे भूल दिखती है। भूल रहित चारित्र उसकी श्रद्धा में हो, भूल रहित चारित्र संपूर्ण दर्शन में हो और भूल वाला वर्तन उसके वर्तन में हो, तो उसे हम मुक्त हुआ कहते हैं। भूल वाला वर्तन भले ही रहा, पर उसके दर्शन में क्या है?

एक सूक्ष्म से सूक्ष्म भूल रहित वाला चारित्र कैसा होना चाहिए? वह भीतर दर्शन में होना चाहिए। दर्शन में सूक्ष्म से सूक्ष्म भूल नहीं रहे, ऐसा दर्शन होना चाहिए। तभी भूल दिख जाती है न? देखने वाला क्लियर हो, तब ही देख सकता है। इसलिए हम कहते हैं न कि 360 डिग्री वाले जो भगवान हैं न, वे संपूर्ण क्लियर (शुद्ध) हैं और हमारा ‘अन्क्लिअरन्स’ दिखाते हैं। यह ज्ञान मिलने के बाद, सभी को ‘दो’ तो होते ही हैं। उन लोगों में भी ‘दो’ होते हैं। जिन्हें ज्ञान नहीं मिला उन्हें भी ‘दो’ होते है और इन्हें भी ‘दो’ होते हैं।

इस ज्ञान के बाद अंदर और बाहर देख सकते हैं। अंदर भूल रहित चारित्र यह है, ऐसा वे दर्शन में देख सकते हैं। और भूल रहित चारित्र जितना उसके दर्शन में ऊँचा गया, उतनी ही, वे भूलें उसे दिखती हैं। भीतर जितना ट्रान्सपेरेन्ट (पारदर्शक) और क्लियर हुआ, दर्पण शुद्ध हुआ कि तुरंत अंदर दिखता है। उसमें झलकती हैं भूलें! आपको भूलें झलकती हैं क्या, अंदर?

प्रश्नकर्ता : दिखती हैं। भूल रहित चारित्र जिसके दर्शन में हो और भूल वाला चारित्र जिसके वर्तन में हो, उससे दिखती हैं?

दादाश्री : उससे तुरंत पता चलता है कि चारित्र भूल रहित है। इसलिए, भूल रहित चारित्र जिसे दर्शन में होता है, वह कह देता है कि यह भूल हुई।

(पृ.५५)

अलौकिक सामायिक वह पुरुषार्थ!

यानी भूलें दिखाई देने लगीं न, वे जितनी दिखती हैं, उतनी जाती हैं।

आपको थोड़ी भूलें दिखती हैं? प्रतिदिन पाँच-दस दिखती जाती हैं न? वे दिखीं, उतना दिखने का बढ़ता जाएगा। अभी तो बहुत दिखेंगी। जैसे-जैसे दिखती जाएँगी, वैसे-वैसे आवरण खुलते जाएँगे और वैसे ज़्यादा दिखती जाएँगी।

कुछ दोष बंद हों, ऐसा नहीं है। वह तो मार खाएगा, तब अनुभव होगा, तब दोष बंद होंगे। मैं जानता हूँ कि ये बिना अनुभव के बंद नहीं होंगे। बंद करवाएँ, वह गलत है।

जितना करना हो, उतना हो सके, ऐसा है और वह करते हैं कुछ महात्मा। पुरुषार्थ है, पर वह सभी लोगों को आता नहीं है। हमारे यहाँ जो वह सामायिक करवाते हैं न, वह बड़ा पुरुषार्थ है। भूल का स्वभाव कैसा है कि भूल दिखी कि भूल जाने की तैयारी कर लेती है। भूल खड़ी नहीं रहती। दोष हो उसमें हर्ज नहीं है, पर दोष दिखाई देना चाहिए। दोष होता है, उसका दंड नहीं है, पर भूलें दिखती हैं उसका इनाम मिलता है। किसी को खुद की भूलें दिखती नहीं हैं। आत्मा प्राप्त होने के बाद निष्पक्षपाती होता है, इसलिए भूलें दिखने की शुरूआत होती है।

यह ज्ञान देने के बाद आप निष्पक्षपाती हुए, इसलिए देह का पक्षपात आपको पड़ौसी जितना रहा है। इसलिए जो भूल होती है, वह दिखती रहती है। दिखी इसलिए जाने लगती है।

नहीं छूता कुछ शुद्ध उपयोगी को

अब यह ज्ञान ही आपकी जो भूलें हैं, वह दिखलाता है। ‘चंदूभाई’ किसी केसाथ उग्र हो गए तो ‘आपको’ पता चल जाता है कि ओहोहो! भूलें कितनी सारी थीं। मतलब भूलें दिखें उसका नाम

(पृ.५६)

आत्मा। निष्पक्षपाती हुए, उसका नाम आत्मा। जब तक आप आत्मा हो तब तक दोष छूता नहीं है। यदि आप शुद्ध उपयोग में हो, तो आपके हाथों कोई काम गलत हो जाए तो भी आपको छूता नहीं है। शुद्ध उपयोगी को कोई कर्म छूता नहीं है। इसलिए हमें आचार्य महाराज पूछते हैं कि, ‘हम नंगे पैरों घूमते हैं जीवों की अहिंसा पालने के लिए और आप तो मोटर में फिरते हो। आपका ज्ञान सच्चा है, वह हम कबूल करते हैं, पर आपको दोष नहीं लगता होगा?’ मैंने कहा कि, ‘हम शुद्ध उपयोगी हैं।’

आरोप लगाने से, अटके आगे का विज्ञान

सामने वाला निर्दोष दिखाई दे तो दोषित कौन दिखेगा?

प्रश्नकर्ता : जिसके पास अज्ञान अधिक है, उसे ज़्यादा दोषित लगता है।

दादाश्री : हाँ, सामने वाला मनुष्य दोषित लगता है। और जिसके पास ज्ञान ही होता है, उसे सामने वाला मनुष्य बिलकुल दोषित नहीं लगता है।

अब दोषित लगता नहीं है, फिर भी दोष किसका? किसी का दोष तो होना चाहिए न? ये जितने दोष होते हैं, वे सभी आपके खुद के ही दोष हैं। खुद के ही दोष हैं, ऐसा जिसने देखा नहीं है, सोचा नहीं है और उन दोषों का खुद निकाल करता नहीं है और दूसरे लोगों पर आरोप लगाता रहता है, उससे आगे का विज्ञान सारा बंद हो गया है, अटक गया है। आपके दोष जब समझ में आएँगे, तब आपको आगे का विज्ञान शुरू होगा।

बुद्धि एक्सपर्ट, दोष देखने में

इस जगत् में कोई दोषित ही नहीं है। ये दोष दिखते हैं, वही अपनी भ्रांति है। आपको समझ में आई यह बात थोड़ी-बहुत?

प्रश्नकर्ता : थोड़ी आई।

(पृ.५७)

दादाश्री : कोई दोषित ही नहीं है। दोषित तो आपको यह बुद्धि अंदर उल्टा दिखाती रहती है और इसीलिए यह सारा संसार खड़ा रहा है। बुद्धि को दोष देखना बहुत आता है। ‘उसने ऐसा किया है न!’ हम कहें कि ‘अपने दोष का वर्णन करो।’ तब कहेगी, ‘ऐसा कुछ खास नहीं है। एक-दो दोष हैं, बाकी खास नहीं है।’

दोष देखना, खुद के ही सदा!

प्रश्नकर्ता : कोई दोषित नहीं है, यानी खुद भी दोषित नहीं है ऐसा हुआ न?

दादाश्री : नहीं, मुझे यह दुखता है कि क्या? ऊपर से किसी ने पत्थर फेंका और मुझे लगा, इसमें दोष किसका कहें?

प्रश्नकर्ता : वह तो किसी का दोष नहीं है।

दादाश्री : इसलिए वहाँ पर, यह मेरा दोष होगा, इसलिए यह हुआ। वह अपने खुद का दोष तो देखना ही पड़ेगा न? और खुद की भूलें जब तक नहीं दिखेंगी, तब तक मनुष्य और आगे बढ़ेगा किस तरह?

बाकी कोई गाली दे और खुद को असर नहीं हो, खुद अपनी ही भूल है, ऐसा खुद को लगता रहे और सामने वाला निर्दोष है ऐसा समझ में आए, खुद प्रतिक्रमण करता रहे, तो वह भगवान का सबसे बड़ा ज्ञान है। यही मोक्ष में ले जाता है। इतना शब्द, हमारा एक ही वाक्य यदि पाले न, तो मोक्ष में चला जाए।

दोष देखे, वहाँ बुद्धि स्थिर

प्रश्नकर्ता : मतलब दूसरों का दोष नहीं, हमारा ही दोष है?

दादाश्री : हाँ, ऐसा है न, बुद्धि को एक जगह स्थिर किए बिना काम नहीं होगा। इसलिए यदि उसका दोष देखोगे तो भी बुद्धि स्थिर होगी। और उसे निर्दोष देखो और खुद का दोष देखो, तो भी बुद्धि स्थिर होगी। नहीं तो यों ही बुद्धि स्थिर होती नहीं है न फिर!

(पृ.५८)

प्रश्नकर्ता : यानी कहीं पर तो दोष है। उसका अर्थ यह हुआ कि वहाँ दोष नहीं है तो यहाँ पर दोष है।

दादाश्री : हाँ, उतना ही फर्क।

प्रश्नकर्ता : अब समझ में आया कि यह निर्दोष किस तरह है!

दादाश्री : क्योंकि बुद्धि क्या कहती है? बुद्धि समाधान खोजती है, स्थिरता खोजती है। इसलिए आप किसी का दोष निकालो तो बुद्धि स्थिर होती है। फिर उसकी ज़िम्मेदारी चाहे जो भी हो। पर किसी का दोष निकाला न, फिर बुद्धि स्थिर होती है। दोष किसी का नहीं, मेरा ही है, तब भी बुद्धि स्थिर होती है। पर ऐसे बुद्धि स्थिर होने का मार्ग वह मोक्षमार्ग!

अब बुद्धि ऐसे भी स्थिर होती है और वैसे भी स्थिर होती है, लेकिन जो बुद्धि किसी पर आरोपण हुए बिना की हो, ऐसी बुद्धि की स्थिरता होनी चाहिए। इसलिए हम खुद पर ही डालें तो इसका हल निकले ऐसा है। तब बुद्धि भी स्थिर होगी न!

इस प्रकार इस जगत् में दखल हो रही है और खुद की भूल पकड़ में नहीं आती है। और सामने वाले की भूल तुरंत पता चल जाती है। क्योंकि बुद्धि का उपयोग किया है न! और जिसको बुद्धि का उपयोग नहीं हुआ उसे तो कोई भूल होने का सवाल ही नहीं रहता है न, कोई शिकायत ही नहीं है न! गायें-भैंसें हैं, सब ऐसे अनंत जीव हैं। उन लोगों को कोई शिकायत नहीं है, बिलकुल शिकायत नहीं है।

प्रश्नकर्ता : यह बहुत बड़ी बात निकली कि बुद्धि को स्थिर करनी है। पहले बुद्धि को वहाँ संसार में स्थिर करते थे, वहाँ दोष दिखता था।

दादाश्री : हाँ, बुद्धि को स्थिर करने के लिए साधन चाहिए। तब अंत में खुद गुनहगार नहीं है, ऐसा मनवाते हैं लोग। तो आप

(पृ.५९)

कहते हैं, ‘वह तो गुनहगार है ही न!’ यानी किसी पर थोप देते हैं, पर बुद्धि स्थिर करते हैं किसी जगह पर। इसलिए, बुद्धि यदि स्थिर नहीं हो पाए तो दूसरा क्या करोगे? तब फिर आपको ऐसा कहना चाहिए कि मेरा ही दोष है, ताकि बुद्धि यहाँ स्थिर हो जाए। नहीं तो बुद्धि हिली तो भीतर अंत:करण सारा डाँवाँडोल, डाँवाँडोल, यहाँ जैसे हुल्लड़ हुआ हो न, वैसा ही। इसलिए बुद्धि स्थिर करनी पड़ती है न? स्थिर न करें, तब तक हुल्लड़ मचने जैसा हो जाता है। अज्ञानी खुद की जिम्मेदारी पर बुद्धि स्थिर करता है और आप लोग खुद की भूल देखने में स्थिर करते हो। और फिर स्थिर करे, तब हुल्लड़ बंद हो गया न! नहीं तो विचारों की परंपरा चलती रहती है भीतर।

यदि ऐसा कहा कि यह उसकी भूल है, तब हमारी बुद्धि स्थिर होती है। फिर आराम से खाना भाता है। पर उसमें से फिर संसार आगे बढ़ता जाता है। हमें संसार निकाल देना है, इसलिए हम कहें कि, ‘भूल मेरी है,’ तभी बुद्धि स्थिर होगी और फिर खाना भाएगा। बुद्धि स्थिर होनी चाहिए। समझ में आए ऐसी बात है न?

प्रश्नकर्ता : बुद्धि स्थिर होती है, वह बिलकुल समझ में आए ऐसी बात है।

दादाश्री : हाँ, और जब तक बुद्धि अस्थिर है, तब तक खाने नहीं देगी, पीने नहीं देगी, सोने नहीं देगी, कुछ नहीं करने देगी। तब वह मन की चंचलता नहीं है, बुद्धि की चंचलता है। बुद्धि स्थिर हुई कि हल आ गया।

प्रश्नकर्ता : आपने कहा न कि बुद्धि स्थिर होती है, संसार की तरफ या फिर आत्मा की तरफ...

दादाश्री : आप सामने वाले को दोष दो तो आपकी बुद्धि स्थिर हुई, तब आपको खाने देगी, पीने देगी, सोने देगी सब करने देगी पर सामने वाले को दोष देने से संसार खड़ा रहेगा। और मैं क्या कहता हूँ कि संसार यदि अस्त कर देना हो तो मूल दोष आपका है,

(पृ.६०)

वास्तविकता में ऐसा है। अब खुद को दोष दिया तो यहाँ भी बुद्धि स्थिर हो जाएगी। बुद्धि को ऐसा नहीं है कि अपना खुद का दोष निकाले। पर बुद्धि स्थिर होनी चाहिए, बुद्धि को स्थिर किए बगैर चारा नहीं है। ऐसा कहीं शास्त्रों में थोड़ा लिखा जाता है?

ऐसा है न, इस जगत् का पूरा लेखा-जोखा शास्त्र में नहीं रहा है। पर हम उसे खुला करते हैं कि इस जगत् में कोई दोषित है ही नहीं। ऐसा सब जो दिखता है, मार-काट, खून-खराबा बहुत होता है, चोरियाँ, लुच्चाई जो सब हो रहा है, उसमें कोई दोषित ही नहीं है। वह वास्तविक दृष्टि है। वास्तविक दृष्टि पर से यदि कभी मेल बैठाओ तो आपकी दोष दृष्टि निकल गई कि आप खुदा हो गए, बस! दूसरा कुछ है नहीं!

पाने को मुक्ति, देखे निजदोष

जगत् निर्दोष ही है सदा के लिए, साँप भी निर्दोष है और बाघ भी निर्दोष है। साँप और बाघ सब निर्दोष हैं। ये इंदिराजी भी निर्दोष हैं और मोरारजी भी निर्दोष हैं और जसलोक वाले भी निर्दोष हैं, सभी निर्दोष हैं। पर दोष दिखते हैं न? जितने दूसरों के दोष दिखने बंद हो गए, वही मोक्ष की क्रिया। दोष दिखते हैं, वह संसार की अधिकरण क्रिया है। इसलिए, अपना ही दोष, दूसरे किसी का दोष नहीं है। दूसरों के दोष दिखने बंद हो गए, वह मोक्ष की टिकट वाला हो गया। नहीं तो जगत् पूरा, परायों के ही दोष देखता है। यानी खुद के दोष देखने के लिए जगत् है। दूसरों के दोष देखने से ही यह जगत् खड़ा हो गया है और दूसरों के दोष देखता है कौन? जिसे गुरुत्तम बनना हो वह!

मोक्ष में जाने वाला खुद की भूल देखा करता है और दूसरों की भूल देखने वाला संसार में भटका करता है। कोई परायों की भूल देखते होंगे, उसमें परेशान मत होना। मुआ, वह यहाँ भटकने वाला है, इसलिए वह देखता ही रहेगा न! वह भटकने वाला है। वह ऐसा नहीं करेगा, तो फिर वह भटकेगा किस तरह?

(पृ.६१)

आ जाओ, एक बात पर

यहाँ पर यदि आपको पसंद हो तो दोषित देखते रहना। संसार पसंद हो तो जगत् को दोषित देखते रहना और संसार पसंद नहीं तो एक किनारे पर आ जाओ। एक बात पर आ जाओ। यदि संसार पसंद नहीं हो, तो संसार दोषित नहीं है ऐसा आप देखते रहना। मेरे दोष के कारण ही यह खड़ा हुआ है। एक किनारे तो लाना पड़ेगा न? विरोधाभास कब तक चलेगा? महावीर भगवान को कोई दोषित लगा नहीं। ऊपर से देव आकर परेशान कर गए, तब भी उन्हें देव दोषित नहीं लगे।

पड़ा ही होता है भीतर वह दोष

जगत् में दोषित नहीं दिखे। निर्दोष दिखाई देने चाहिए।

प्रश्नकर्ता : ऐसा तो है न कि हम जिन्हें दोषित देखते हैं, जिस दृष्टि से दोष देखते हैं, वे दोष हम में भरे पड़े हैं।

दादाश्री : इसलिए ही दिखते हैं।

प्रश्नकर्ता : और जितने अंश तक दोष का कम होना हुआ, उतने अंश तक दृष्टि स्वच्छ होती है क्या?

दादाश्री : हाँ, उतना स्वच्छ होता है।

खुद का गटर दुर्गंध दे और दूसरों का गटर धोने जाए

दोष तो सभी के गटर हैं। ये बाहर के गटर हम खोलते नहीं हैं। इस छोटे बच्चे को भी वह अनुभव होता है। यह रसोईघर रखा तो गटर तो होना ही चाहिए न! पर उस गटर को खोलना नहीं। किसी में कुछ दोष होते हैं, कोई चिढ़ता है, कोई हड़बड़ाता हुआ घूम रहा होता है, उसे देखना, वह गटर खोला कहा जाता है। उसके बदले तो गुण देखना अच्छा है। गटर तो अपना खुद का ही देखने जैसा है। पानी भर गया हो तो खुद का गटर साफ़ करना चाहिए। यह तो गटर भर जाता है, पर समझ में नहीं आता! और समझ में आए, फिर भी करे क्या? अंत में आदत हो जाती है उसकी। उसके कारण तो ये

(पृ.६२)

रोग खड़े हुए हैं, शास्त्र पढ़कर गाते रहते हैं कि किसी की निंदा मत करना, पर निंदा तो चलती ही रहती है। किसी का ज़रा-सा भी उल्टा बोले कि उतना नुकसान हुआ ही! ये बाहर के गटरों के ढक्कन कोई खोलता नहीं है। पर लोगों के गटरों के ढक्कन खोलते रहते हैं।

एक आदमी संडास के दरवाज़े को लातें मार रहा था। मैंने कहा, ‘क्यों लात मारते हो?’ तब कहे कि, खूब साफ करता हूँ फिर भी दुर्गंध मारता है।’ बोलो, अब यह कितनी अधिक मूर्खता कहलाएगी? संडास के दरवाज़े को लातें मारें फिर भी दुर्गंध मारे, तो उसमें भूल किसकी?

प्रश्नकर्ता : लातें मारने वाले की।

दादाश्री : कितनी बड़ी भूल कहलाए न? कोई दरवाज़े का दोष है बेचारे का? ये लातें मार-मारकर जगत् सारा, दुर्गंध को साफ करने जाता है। पर वह संडास के दरवाज़े को लातें मारकर खुद को उपाधि होती है और दरवाज़े भी टूट जाते हैं।

आपको तो हम क्या कहते हैं कि इस शरीर के जो भी दोष हों, मन के दोष हों, उतने आपको दिखें तब आप छूटे। दूसरा, आपको दोषों को निकालने के लिए माथापच्ची नहीं करनी है, या संडास का दरवाज़ा पीटते रहने की ज़रूरत नहीं है। संडास के दरवाज़े को लातें मारें तो उसकी दुर्गंध मिट जाएगी? क्यों नहीं मिटेगी? उसने लात मारी फिर भी नहीं मिटेगी? शोर मचाएँ तो?

प्रश्नकर्ता : नहीं मिटती।

दादाश्री : संडास को कोई असर नहीं होता न? वैसे ही ये लोग माथापच्ची करते हैं, बिना काम की माथापच्ची! उसी प्रकार ये नवटांक (छटाँक भर) भी पीसा नहीं और जो पहले पुराना पीसा हुआ था, वह भी उड़ा दिया, बार-बार पीसकर! ऐसे तो सारा पीसा हुआ उड़ जाएगा न सब! नया पीसा हुआ तो कहाँ गया, पर पुराना पीसा हुआ था, उसे फिर पीसने लगे और उड़ा दिया! कुछ भी हाथ में नहीं

(पृ.६३)

रहा। यह मनुष्यपन दिखता है न, वह दो पैरों के बजाय चार पैर हो जाए ऐसा है। बोलो कितना नफा हुआ?

दृष्टि, अभिप्राय रहित

दोष देखना बंद कर दो न!

प्रश्नकर्ता : यदि दोष नहीं देखें तो दुनिया की दृष्टि से हम एक्सेस फूल (अधिक मूर्ख) नहीं लगेंगे?

दादाश्री : मतलब दोष देखने से सफल होते हैं हम?

प्रश्नकर्ता : दोष देखने से नहीं, पर डिस्टिंक्शन करना कि यह मनुष्य ऐसा है, यह मनुष्य ऐसा है।

दादाश्री : नहीं, उसी से तो जोखिम है न सारा। वह प्रिज्युडिस (पूर्वग्रह) कहलाता है। प्रिज्युडिस किसी के प्रति रखना नहीं चाहिए। कल कोट में से चुरा ले गया हो, फिर भी आज चुरा जाएगा, ऐसा हमें नहीं रखना चाहिए। पर हमें सिर्फ कोट सुरक्षित जगह पर रखना चाहिए। सावधानी रखनी चाहिए हमें। पिछले दिन कोट यदि बाहर रखा था तो आज ठिकाने पर रख देना चाहिए। लेकिन प्रिज्युडिस नहीं रखना चाहिए। इसी से तो ये दु:ख हैं न, नहीं तो वर्ल्ड में दु:ख क्यों होते? और भगवान दु:ख देते नहीं, सब आपके ही खड़े किए हुए दु:ख हैं, और वे आपको परेशान करते हैं। उसमें भगवान क्या करें? किसी पर प्रिज्युडिस रखना मत। किसी का दोष देखना मत। यह यदि समझ जाओगे तो हल आ जाएगा।

आप प्रतिक्रमण नहीं करोगे तो आपका अभिप्राय बाकी रहा, इसलिए आप बंधन में आए। जो दोष हुआ उसमें आपका अभिप्राय रहा और अभिप्रायों से मन खड़ा हुआ है। मुझे किसी भी मनुष्य के लिए ज़रा-सा भी अभिप्राय नहीं है। क्योंकि एक ही बार देख लेने के बाद मैं उसके लिए दूसरा अभिप्राय बदलता नहीं हूँ।

संयोगवश कोई मनुष्य चोरी करता हो, वह मैं खुद देखूँ, तब

(पृ.६४)

भी उसे मैं चोर नहीं कहता हूँ, क्योंकि वह संयोगवश है। जगत् के लोग तो जो पकड़ा गया उसे चोर कहते हैं। यह संयोगवश चोर था या हमेशा से चोर था, ऐसी कुछ जगत् को पड़ी नहीं है। मैं तो हमेशा के चोर को चोर कहता हूँ। अभी तक मैंने किसी भी मनुष्य के बारे में अभिप्राय नहीं बदला है। ‘व्यवहार आत्मा’ संयोगाधीन है और ‘निश्चय आत्मा’ से एकता है। हमें पूरे वर्ल्ड के साथ मतभेद नहीं है।

प्रश्नकर्ता : वह तो होगा ही नहीं, क्योंकि आपको तो कोई मनुष्य दोषित लगता ही नहीं न, निश्चय से।

दादाश्री : दोषित नहीं लगता, क्योंकि वास्तव में ऐसा होता नहीं है। यह जो दोषित लगता है न वह दोषित दृष्टि के कारण दोषित लगता है! यदि आपकी दृष्टि निर्दोष हो जाए तो दोषित लगेगा ही नहीं कोई!

ऐसे अंत आए उलझनों का

उलझनों का ‘एन्ड’ कब आता है? रिलेटिव और रियल, ये दो ही चीज़ें जगत् में हैं। ऑल दीज़ रिलेटिव आर टेम्परेरी एडजस्टमेन्ट्स और रियल इज़ द परमानेन्ट। अब परमानेन्ट भाग कितना और टेम्परेरी भाग कितना? उनके बीच लाइन ऑफ डिमार्केशन डाल दें तो उलझनें बंद हो जाती हैं। नहीं तो उलझनें बंद होती नहीं हैं। चौबीस तीर्थंकरों ने वह डिमार्केशन लाइन डाली थी। कुंदकुंदाचार्यजी ने यह लाइन डाली थी और आज हम यह डिमार्केशन लाइन डाल देते हैं कि तुरंत उसका सब ठीक हो जाता है। रिलटिव और रियल इन दोनों की उलझनों के बीच लाइन ऑफ डिमार्केशन डाल देते हैं कि यह भाग आपका और यह पराया भाग है। अब पराये भाग को ‘मेरा’ नहीं मानना, ऐसा उसे समझा दिया कि उसका हल आ गया।

यह तो पराया माल हड़प लिया है। उसकी लड़ाई चलती है, झगड़े ही चलते रहते हैं। उलझन यानी झगड़े चलते ही रहते हैं और खुद की एक भी भूल दिखती नहीं है, यों तो सारा भूलों वाला ही

(पृ.६५)

बहीखाता है! अर्र्थात् रिलेटिव और रियल का ज्ञान होने के बाद खुद की ही भूलें दिखती हैं। जहाँ देखो, वहाँ खुद की ही भूलें दिखती हैं और है ही खुद की भूल। खुद की भूल से यह जगत् खड़ा रहा है, यह किसी और की भूल के कारण जगत् खड़ा नहीं रहा है। खुद की भूल निकल जाए कि फिर वह सिद्धगति में ही चला जाता है!

जहाँ छूटा मालिकीपन सर्वस्व प्रकार से...

जितने हमें खुद के दोष दिखें, उतने दोष अंदर से कम होते हैं। ऐसे कम होते-होते जब दोषों का थैला पूरा खाली हो जाए, तब आप निर्दोष हो जाएँगे। तब खुद के स्वरूप में आ गए कहलाएँगे।

अब इसका कब अंत आए? अनंत जन्मों से भटक रहे हैं, दोष तो बढ़ते ही चले हैं। पर ज्ञानी पुरुष की कृपा से ही सारा काम हो जाता है। क्योंकि वे खुद मोक्षदाता हैं। मोक्ष का दान देने आए हुए हैं। उन्हें कुछ भी नहीं चाहिए।

संपूर्ण जागृति बरते, तब खुद की एक भी भूल नहीं होती! एक भी भूल हो, वह अजागृति है। दोष खाली किए बिना निर्दोष नहीं हो सकते! और निर्दोष हुए बिना मुक्ति नहीं है।

जब दोष रहित हो जाओगे, तब निर्दोष हो जाओगे। नहीं तो फिर यदि थोड़े-बहुत बाकी रहेंगे तो यह स्वामित्व छोड़ दोगे तब निर्दोष हो जाओगे। यह शरीर मेरा नहीं, यह मन मेरा नहीं, यह वाणी मेरी नहीं, तो आप निर्दोष हो सकोगे। पर अभी तो आप मालिक हो न? टाइटल भी (मालिकी) है न?! मैंने तो टाइटल कितने ही समय से फाड़ दिया है! छब्बीस सालों से एक सेकन्ड भी, मैं इस शरीर का मालिक हुआ नहीं हूँ, इस वाणी का मालिक हुआ नहीं हूँ, मन का मालिक हुआ नहीं हूँ।

*****

(पृ.६६)

आत्मदृष्टि होने के बाद...

गरुड़ आते ही, भागें साँप

शास्त्रकारों ने एक उदाहरण दिया है कि भाई, इस चंदन के जंगल में केवल साँप ही साँप होते हैं। उस पेड़ से लिपटकर सब बैठे ही होते हैं ठंडक में। चंदन के पेड़ों से लिपटकर, उसके जंगल में। पर एक गरुड़ आए कि सब जगह भागम्भाग-भागम्भाग होती है, उसी प्रकार यह मैंने गरुड़ रख दिया है, सारे दोष भाग जाएँगे। शुद्धात्मा रूपी गरुड़ बैठा है। इसलिए सारे दोष भाग जाने वाले हैं। और ‘दादा भगवान’ का आशीर्वाद है, फिर उसे क्या भय! मेरे साथ ‘दादा भगवान’ हैं, तो ‘मुझे’ इतनी सारी हिम्मत है, तो आपको हिम्मत नहीं आएगी?

प्रश्नकर्ता : हिम्मत तो पूरी तरह से आती है!

निष्पक्षपाती दृष्टि

दादाश्री : ‘स्वरूपज्ञान’ बिना तो भूल दिखती नहीं है। क्योंकि ‘मैं ही चंदूभाई हूँ और मुझ में कोई दोष नहीं है, मैं तो सयाना-समझदार हूँ,’ ऐसा रहता है और ‘स्वरूपज्ञान’ की प्राप्ति के बाद आप निष्पक्षपाती हुए। मन-वचन-काया पर आपको पक्षपात नहीं रहा इसलिए खुद की भूलें, आपको खुद को दिखती हैं। जिसे खुद की भूल पता चलेगी, जिसे प्रतिक्षण अपनी भूल दिखेगी, जहाँ-जहाँ हो वहाँ दिखे, नहीं हो वहाँ नहीं दिखे, वह खुद ‘परमात्मा स्वरूप’ हो गया! ‘वीर

(पृ.६७)

भगवान’ हो गया!!! ‘यह’ ज्ञान प्राप्त करने के बाद खुद निष्पक्षपाती हो गया, क्योंकि ‘मैं चंदूभाई नहीं, मैं शुद्धात्मा हूँ’ यह समझने के बाद ही निष्पक्षपाती हो पाते हैं। किसी का ज़रा-सा भी दोष दिखे नहीं और खुद के सभी दोष दिखें, तभी खुद का कार्य पूरा हुआ कहलाता है। पहले तो ‘मैं ही हूँ’ ऐसा रहता था, इसलिए निष्पक्षपाती नहीं हुए थे। अब निष्पक्षपाती हुए इसलिए खुद के सभी दोष दिखने शुरू हुए और उपयोग अंदर की तरफ ही होता है, इसलिए दूसरों के दोष नहीं दिखते हैं! खुद के दोष दिखने लगे, इसलिए ‘यह ज्ञान’ परिणमित होना शुरू हो जाता है। खुद के दोष दिखाई देने लगे इसलिए दूसरों के दोष नहीं दिखते हैं। इस निर्दोष जगत् में कोई दोषित है ही नहीं, वहाँ किसे दोष दें? दोष है, तब तक दोष, वह अहंकार भाग है, और वह भाग धुलेगा नहीं, तब तक सारे दोष निकलेंगे नहीं, तब तक अहंकार निर्मूल नहीं होगा। अहंकार निर्मूल हो जाए, तब तक दोष धोने हैं।

वैसे-वैसे प्रकटे आतम उजियारा

प्रश्नकर्ता : आत्मा का अध्यास होने के बाद भूलें अपने-आप कम होती जाती हैं?

दादाश्री : अवश्य, भूलें कम हों, उसका नाम ही आत्मा का अध्यास। देहाध्यास यदि जाए, वैसे-वैसे यह उत्पन्न होता है।

पहले तो समकित होता है, फिर भी सारे दोष नहीं दिखें ऐसा समकित होता है। फिर जागृति बढ़ती जाए, वैसे दोष खुद के दिखते जाते हैं! खुद के दोष दिखें, वह तो क्षायक समकित कहलाता है। वह क्षायक समकित, लोगों को यहाँ पर मुफ्त में लुटाते हैं। केवल मुफ्त में नहीं, उलटे हम कहते हैं कि आना, चाय पिलाएँ तब भी नहीं आते, देखो न, आश्चर्य है न!

ये भूलें दिखने लगीं न, इसलिए हमें कहना है, ‘हे चंदूभाई! आपने अतिक्रमण किया इसलिए प्रतिक्रमण करो’। इस जगत् में खुद की भूलें दिखती नहीं हैं। जिसे खुद की भूल खुद को दिखे, उसका

(पृ.६८)

नाम समकित। आत्मा हो जाएँ, तो दोष ही दिखेंगे न। दोष दिखा इसलिए हम आत्मा हैं, शुद्धात्मा हैं, नहीं तो दोष दिखते नहीं हैं। जितने दोष दिखे उतना आत्मा प्रकट हो गया।

यह तो जागृति ही नहीं है। एक भी मनुष्य ऐसा नहीं है कि जिसे जागृति हो। इन भाई को जब तक ‘ज्ञान’ दिया नहीं, तब तक उनमें किसी भी प्रकार की जागृति नहीं होती। ज्ञान देने के बाद उनमें जागृति उत्पन्न होगी। फिर भूल हुई, तो जागृति के कारण भूलें दिखेंगी। वर्ल्ड में किसी को जागृति ही नहीं होती और खुद की एक-दो भूलें दिखती हैं, और दूसरी भूलें दिखती नहीं हैं। यह तो ज्ञान के बाद आपको अपनी सारी ही भूलें दिखती हैं, वह इस जागृति का परिणाम है!

गुह्यतम विज्ञान

प्रश्नकर्ता : दादा, सामने वाले के दोष क्यों दिखते हैं?

दादाश्री : खुद की भूल के कारण ही सामने वाला दोषित दिखता है। इन दादा को सब निर्दोष ही दिखते हैं। क्योंकि अपनी सारी भूलों को उन्होंने मिटा डाला है। खुद का ही अहंकार सामने वाले की भूल दिखाता है। जिसे खुद की ही भूल देखनी है, उसे सभी निर्दोष ही दिखेंगे।

जिसकी भूल हो, वह भूल का निकाल करे। सामने वाले की भूल से हमें क्या लेना-देना?

प्रश्नकर्ता : दादा, सामने वाले के दोष नहीं देखने हों, फिर भी दिख जाएँ और भूलें घेर लें तो क्या करें?

दादाश्री : जो उलझाती है वह बुद्धि है, वह विपरीत भाव को प्राप्त बुद्धि है और बहुत काल से है, और फिर आधार दिया है। इससे वह जाती नहीं है। यदि उससे कहा कि मेरे लिए हितकारी नहीं है तो उससे छूट जाएँगे। यह तो नौकर होता है, उसे कहा कि तेरा काम नहीं है, फिर उसके पास से काम करवाएँ तो चलेगा? उसी प्रकार बुद्धि को एक बार भी काम न बताएँ। इस बुद्धि को तो संपूर्ण असहयोग

(पृ.६९)

देना है। विपरीत बुद्धि संसार के हिताहित का भान बताने वाली है, जबकि सम्यक् बुद्धि संसार से हटाकर मोक्ष की ओर ले जाती है।

प्रश्नकर्ता : दोष छूटते नहीं, तो क्या करना चाहिए?

दादाश्री : दोष छूटते नहीं। पर उन्हें ‘हमारी चीज़ नहीं है,’ ऐसा कहें, तो छूट जाएँगे।

प्रश्नकर्ता : लेकिन ऐसा कहें, फिर भी नहीं छूटें तो क्या करना चाहिए?

दादाश्री : यह तो जो दोष बर्फ जैसे हो गए हैं, वे एकदम से कैसे छूटेंगे? फिर भी वे ज्ञेय हैं और हम ज्ञाता, ऐसा संबंध रखें, तो उससे वे दोष छूट जाएँगे। हमारा आधार नहीं होना चाहिए। आधार न मिले तो वह गिर ही जाएगा। यह तो आधार से चीज़ खड़ी रहती है। निराधार हो जाए, तो गिर जाती है। यह जगत् आधार से खड़ा हुआ है, पर निराधार हो जाए तब तो खड़ा ही नहीं रहेगा। लेकिन निराधार करना आता नहीं है न। वह तो ज्ञानियों का ही खेल है! यह जगत् तो अनंत ‘गुह्य वाला’, उसमें ‘गुह्य से गुह्य’ भाग को कोई किस तरह समझे?

दोष होते हैं परतों वाले

वे भूलें फिर ज्ञेय स्वरूप में दिखती हैं। जितने ज्ञेय दिखते हैं उतनों से मुक्त हुआ जाता है। यह प्याज़ की परतें होती हैं न, वैसे दोष भी परतों वाले होते हैं। इसलिए जैसे-जैसे दोष दिखते हैं, वैसे-वैसे उनकी परतें उखड़ती जाती हैं और जब उनकी सारी परतें उखड़ जाएँ, तब वह दोष जड़-मूल से सदा के लिए बिदा ले लेता है। कुछ दोष एक परत वाले होते हैं। दूसरी परत ही उनकी होती नहीं है, इसलिए उन्हें एक ही बार देखने से चले जाते हैं। अधिक परतों वाले दोषों को बार-बार देखना पड़ता है और प्रतिक्रमण करें तो जाते हैं और कुछ दोष तो इतने चिकने होते हैं कि उनका बार-बार प्रतिक्रमण करते रहना पड़ता है और लोग कहेंगे कि वही का वही दोष होता है? तब कहे कि भाई! हाँ, पर उसका कारण उन्हें यह समझ में नहीं

(पृ.७०)

आता है! दोष तो परत के समान हैं, अनंत हैं। इसलिए जो सब दिखें और उनके प्रतिक्रमण करे, तो साफ होते जाते हैं।

प्रश्नकर्ता : एक तरफ हम कहते हैं कि ज्ञान क्रियाकारी है और एक तरफ कोई भूल हो जाती है तो उसे निकाली भाव कहते हैं, यह एडजस्टमेन्ट कहलाएगा न?

दादाश्री : वे निकाली बाबतें ही हैं सभी। ये सब बाबतें ही निकाली हैं। वे न तो ग्रहणीय हैं, न ही त्याग करनी हैं। त्याग में तिरस्कार होता है, द्वेष होता है और ग्रहण में राग होता है और ये तो निकाली बाबतें हैं सारी!

और आपका दोष है, ऐसा आपको क्यों दिखता है! उसका प्रमाण क्या है? तब कहते हैं, चंदूभाई गुस्सा हुए वह आपको पसंद नहीं आता। वह आपको पसंद नहीं आया, वह आपको चंदूभाई का दोष दिखा। ऐसे सारे दिन जो पसंद नहीं आते हों, वैसे सारे दोष आपको दिखाई देने लगे।

गुनहगारी पाप-पुण्य की

यह जगत् ‘व्यवस्थित’ है। ‘व्यवस्थित शक्ति’ हमारी जो गुनहगारी थी, उसे वापस हमारे पास भेजती है। उसे आने देना है और हमें अपने समभाव में रहकर उसका निकाल कर देना है। पिछले जन्म में जो जो भूलें की थीं, वे इस जन्म में सामने आती हैं। इसलिए इस जन्म में हम सीधे चलें, फिर भी वे भूलें बाधा डालती हैं, उसका नाम गुनहगारी!

यह गुनहगारी दो प्रकार की है। हमें फूल चढ़ाएँ, वह भी गुनहगारी और पत्थर मारें, वह भी गुनहगारी! फूल चढ़े, वह पुण्य की गुनहगारी और पत्थर पड़े, वह पाप की गुनहगारी है। यह कैसा है? पहले जो भूलें की थीं, उनका कोर्ट में केस चलता है और फिर न्याय होता है। जो-जो भूलें की थीं, वो-वो गुनाह भोगने पड़ते हैं। वे भूलें भुगतनी ही पड़ती हैं। उन भूलों का हमें समताभाव से निकाल करना है, उसमें कुछ भी बोलना नहीं है। बोलें नहीं तो क्या होगा? काल आए, तब भूल आएगी और वह भुगते जाने पर निकल जाएगी। उच्च

(पृ.७१)

जातियों में यह बोलने से ही तो सारी गुत्थियाँ पड़ी हुई हैं न! इसलिए उन गुत्थियों को सुलझाने के लिए मौन रखें तो समाधान आए ऐसा है।

‘ज्ञानी पुरुष’ ने गुत्थियाँ नहीं डाली हुई थीं। इसलिए उन्हें अभी सब आगे से आगे वैभव मिलता रहता है। और आप सब को अभी इस जन्म में ‘ज्ञानी पुरुष’ मिल गए हैं। इसलिए पिछली उलझनों का समभाव से निकाल करके नयी उलझनें फिर से नहीं डालोगे तो फिर वे उलझनें नहीं आएँगी और समाधान हो जाएगा।

इसलिए, हमें भूल तो मिटानी पड़ेगी न!

प्रश्नकर्ता : पर भूलें क्या-क्या हैं, वे सब दिखाई देनी चाहिए न!

दादाश्री : वह तो धीरे-धीरे दिखती जाएँगी। आपको ये बातें करता हूँ वैसे-वैसे दिखेंगी। आपकी भूल देखने की दृष्टि उत्पन्न होगी। आपको इच्छा होगी कि मुझे अब भूलें खोज निकालनी हैं, तो मिले बगैर रहेंगी नहीं!

अब जो आपके उदय हैं न, उन उदयों में जो दोष हैं, वे रिज़र्वोयर (सरोवर) का माल है। यानी नई आवक नहीं है उसमें, और जावक चालू है। इसलिए पहले जोरों से निकलेंगे, दो-पाँच सालों के बाद खाली हो जाएँगे। फिर आवाज लगाओ, तब भी नहीं निकलेंगे, और कुछ सालों के बाद तो इसकी कुछ और ही दशा आएगी।

और वह हमने सेफसाइड कर दी है। आपको इतना लक्ष्य में रहना चाहिए कि सेफसाइड किया हुआ याद नहीं आना चाहिए। अच्छी आदतें और बुरी आदतें, दोनों से सेफसाइड नहीं की है हमने?

प्रश्नकर्ता : हाँ।

दादाश्री : फिर कहता है, ‘दादा, मुझे ऐसा क्यों होता है? आज गुस्सा हो गया था।’ अरे, गुस्सा हो गया, उसे देख न! तूने जाना है न? पहले जानते नहीं थे, पहले तो ‘मैंने ही किया’ ऐसा कहते थे। वह अब अलग पड़ा न?

प्रश्नकर्ता : हाँ।

(पृ.७२)

स्वरूप प्राप्ति के बाद...

दादाश्री : यह साइंस है। साइंस यानी साइंस। पच्चीस प्रकार के मोह, चार्जमोह मैंने पूर्णतया बंद कर दिए हैं। और डिस्चार्ज मोह तो रहेगा ही, डिस्चार्ज मोह तो भगवान महावीर को भी था। उनके सामथ्र्य के अनुसार, क्योंकि वे खपाकर गए होते हैं और हम खपाए बगैर हैं। वे दस के कर्ज़दार थे और हम लाख के कर्ज़दार हैं। उन्होंने कर्ज़ का निकाल कर दिया था और आप भी निकाल कर दोगे। बस कर्ज़ का निकाल ही करने बैठे हैं, वहाँ हम समभाव से निकाल करते हैं न? हाँ, निकाल ही कर देना है।

अचछी आदतें और बुरी आदतें दोनों ही भ्राँति हैं। हम भ्राँति से बाहर निकले हैं अब। जो माल अपना नहीं है, उसे संग्रह क्यों करें?

हमें दोषों को देखना है। दोष कितने दिखते हैं, वह जानना है हमें। दोष को दोष देखो और गुण को गुण देखो। यानी शुभ को गुण कहा और अशुभ को दोष कहा। और वह आत्मभाषा में नहीं है। आत्मभाषा में दोष या गुण कुछ है ही नहीं। यह लोकभाषा की बात है, भ्रांतभाषा की बात है। आत्मभाषा में तो दोष नाम ही नहीं है कोई।

महावीर भगवान को कोई दोषित दिखता ही नहीं था। जेबकतरा भी दोषित नहीं दिखता था। कीलें ठोकी, उसका भी दोष नहीं दिखा था। उलटे उस पर करुणा आई कि इसका क्या होगा बेचारे का? जोखिमदारी तो आई और खुद का स्वरूप जानता नहीं। यदि स्वरूप जानता होता और मारा होता तो भगवान को उस पर करुणा नहीं आती कि वह तो ज्ञानी है। पर स्वरूप जानता नहीं है, इसलिए खुद कर्ता हुआ और स्वरूप यदि जानता होता तो वह अकर्ता था, इसलिए हर्ज नहीं था। इसलिए बात संक्षिप्त में समझ लेनी है।

लोंगकट (लंबा रास्ता) है ही नहीं, यह शॉर्टकट (छोटा रास्ता) वस्तु है। आपको आत्मजागृति आ गई, शुरूआत हो गई, यह बहुत बड़े से बड़ा काम हो गया। एक क्षणभर ‘आत्मा हूँ’ ऐसा लक्ष्य नहीं बैठता किसी को, तो लक्ष्य बैठे वह तो सबसे बड़ी बात हुई। उस

(पृ.७३)

दिन पाप भी धुल जाते हैं इसलिए आपको वह लक्ष्य में रहा करता है निरंतर, चूकते नहीं।

अब कर्म का उदय ज़रा भारी हो तो वह आपको बेचैन करता है ज़रा, सफोकेशन करता है। उस घड़ी आपको बाधक नहीं होता है। आपका आत्मा चला नहीं जाता है। पर उस घड़ी आत्मा का सुख आना बंद हो जाता है और हमें सुख आना बंद नहीं होता, हमें तो निरंतर रहा करता है। छलकता रहता है उल्टे, साथ वाले को भी सुख लगता है। हमारे साथ बैठे हों न, उन्हें भी सुख लगता है। सुख छलकता ही रहे, उतना आत्मा का सुख है, यह शरीर होने के बावजूद, यह कलियुग होने के बावजूद!

अब भूल होती है, वह दिखती है, पता चलता है सब?

और जागृति से सारे खुद के दोष, सबकुछ दिखता है। सामने वाले का दोष निकालना उसका नाम जागृति नहीं है, वह तो अज्ञानी को बहुत होता है। सामने वाले के दोष बिलकुल दिखे नहीं, खुद केदोष देखने से बिलकुल फुरसत मिले ही नहीं, उसका नाम जागृति।

इसलिए हो गए ज्ञानी

प्रश्नकर्ता : जितने विभाव हों वे सारे दोष माने जाते हैं?

दादाश्री : अब विभाव होते ही नहीं। अब जो दोष दिखते हैं न, वे मानसिक दोष दिखते हैं। मन:पर्यव के कारण, मानसिक दोष, बुद्धि के दोष, अहंकार के दोष अर्थात् अंत:करण के सारे दोष आपको दिखते हैं। चंदूभाई के दोष आपको दिखते हैं या नहीं?

प्रश्नकर्ता : हाँ।

दादाश्री : चंदूभाई के दोष आपको दिखे कि आप हो गए ज्ञानी। यह तो आप मुझसे अभी दसेक घंटे मिले होंगे।

यह तो मैंने आपकेहाथों में, जिस हीरे की क़ीमत न आंकी जा सके, ऐसा आपके हाथ में रखा है। पर वह हीरा बालक के हाथ में आने से उसकी वेल्यु ही नहीं है!

(पृ.७४)

दिखें प्रपात दोष के...

प्रतिक्षण दोष दिखते हैं न?

प्रश्नकर्ता : प्रतिक्षण तो नहीं, थोड़े-थोड़े दिखते है।

दादाश्री : अभी तो प्रतिक्षण दिखेंगे। अभी तो बहुत दोष हैं। अपार हैं, पर अभी दिखते नहीं हैं। ये किसी को दस दोष खुद के नहीं दिखते हैं, दो-तीन होंगे ऐसा बोलते हैं, क्योंकि दोष दिखें तब से मोक्ष में जाने की तैयारी हो गई।

दोषों का प्रपात दिखता है न, सारा। अब जितने दिखे उतने गए। फिर दूसरे दिन उतने उत्पन्न होते रहेंगे। निरंतर बहते ही रहेंगे। जब तक निर्दोष नहीं बना देते, तब तक बहते रहेंगे। अब हल्के हो जाओगे!

निरंतर दोष दिखे ऐसा कुछ करो, मेहनत कड़ी है! आपको, जो आपका स्वरूप है, वह स्वरूप और चंदूभाई अलग। चंदूभाई का कंधा थपथपाओ। चंदूभाई कुछ अच्छा करके आए हों, उस दिन कहो कि ‘आपने तो इतनी उम्र में अच्छा लाभ उठाया, आप छूटोगे तो हमें छोड़ोगे। आप जब तक लिपटे रहोगे, तब तक हमारा निपटारा नहीं होगा।’ इसलिए आपको कहना है कि ‘जल्दी काम पूरा करके सत्संग में जाओ।’ ‘चंदूभाई ऐसा करो, वैसा करो,’ बल्कि इस तरह कहना है। आप तो ऊपरी (बॉस) हो गए हो और ‘बच्चों के साथ इतनी हाय-हाय क्यों करते हो?’ ऐसा आपको कहना चाहिए। कौन से जन्म में बच्चे नहीं थे। कुत्ते-बिल्ली में भी, बिना बच्चों के तो एक भी जन्म गया नहीं है न। अरे, नहीं हैं ये सचमुच में बच्चे! ये तो लौकिक चीज़ें हैं। क्या यह सचमुच का है?

यह तो रिलेटिव है। यह लौकी शोर मचाती है, मेरे बच्चे कितने? सौ लौकी लगी हों तो सौ के सौ तेरे बच्चे! पत्ते-पत्ते पर लौकी लगती है, वैसे इन लोगों को डेढ़ वर्ष में, दो वर्ष में एक-एक लौकी उगती रहती है!!! इस लौकी में भी जीव रहा हुआ है और इसमें भी जीव रहा हुआ है। उसमें एकेन्द्रिय जीव रहा हुआ है, और इसमें पंचेन्द्रिय जीव है। पर जीव तो दोनों जगहों पर रहा हुआ है न! जीव तो वैसा का वैसा ही है न!

(पृ.७५)

मतलब खुद के दोष दिखते हैं न? चंदूभाई को कहना भी चाहिए कि, ‘चंदूभाई ऐसा क्यों करते हो? हम आपका छुटकारा करना चाहते हैं। आपका होगा तो हमारा होगा।’ अर्थात् चंदूभाई शुद्ध होंगे तब हमारा छुटकारा होगा!

इसलिए हमें भीतर खुद को ही कहना है कि ‘चंदूभाई दोष आपका ही है, इसलिए ही यह झमेला खड़ा हुआ और ऐसे आपको मिले, नहीं तो ऐसे मिलते होंगे?’ नहीं तो यों फूल चढ़ाएँ ऐसे लोग मिलते हैं। देखो न, मुझे फूल चढ़ाएँ, ऐसे लोग नहीं मिलते हैं? हाँ? आपको समझ में आया न?

घर में टोका जाए, कौन-सी भूलों को?

जीवन सारा बिगड़ गया है, ऐसा जीवन नहीं होना चाहिए। जीवन तो प्रेममय होना चाहिए। जहाँ प्रेम हो वहाँ भूल ही नहीं निकालते। भूल निकालनी हो तो ठीक से समझाना चाहिए। उसे हम कहें, ‘ऐसा करने जैसा है।’ तो वह कहेगी, ‘अच्छा किया मुझे कहा।’ उपकार मानेगी।

‘चाय में शक्कर नहीं है,’ कहेगा। अरे, पी जा न चुपचाप। बाद में उसे भी पता चलेगा न? वह हमें कहे उलटे कि आपने शक्कर नहीं माँगी?!’ तब कहें, ‘आपको पता चले तब भेजना।’

जीवन जीना नहीं आता। घर में भूल नहीं निकालते। निकालते हैं या नहीं निकालते अपने लोग?

प्रश्नकर्ता : हर रोज़ निकालते हैं।

दादाश्री : बाप की, माँ की, बच्चों की सब की गलतियाँ निकालता है, मुआ। अपनी खुद की ही नहीं निकालता! कितना समझदार! अक्लमंद! मतलब कि ऐसी टेढ़ी जात है यह। अब समझदार हो जाना यानी कि अतिक्रमण मत करना!

कभी यों छींटा पड़ा, तो हमें तुरंत समझ लेना चाहिए कि यह

(पृ.७६)

दाग़ लगा, इसलिए तुरंत धो डालना। भूल तो होती है, नहीं होती ऐसा नहीं है, पर भूल धो डालना वह अपना काम।

प्रश्नकर्ता : पर दाग़ दिखें, ऐसी दृष्टि मिलनी चाहिए।

दादाश्री : वह दृष्टि हमें मिली है। दूसरे लोगों को तो मिली ही नहीं होती और हमें तो मिली है न कि यह भूल हुई। अपनी भूल पता चलती है। अपनी जागृति ऐसी है कि भूलें सब दिखलाती है। थोड़ी-थोड़ी दिखती हैं, जैसे-जैसे परतें हटती जाएँगी, वैसे-वैसे दिखती जाती हैं।

जब घर के लोग निर्दोष दिखें और खुद के ही दोष दिखेंगे, तब सच्चे प्रतिक्रमण होंगे।

ऐसे होते हैं कर्म स्वच्छ!

प्रश्नकर्ता : महात्माओं की ऐसी स्टेज कब आएगी कि प्रतिक्रमण पूर्ण हो जाएँगे?

दादाश्री : यदि अटेक करना भूल जाएगा तो फिर प्रतिक्रमण करना भूल जाएगा।

प्रश्नकर्ता : पुराने दोषों के प्रतिक्रमण कब तक करने हैं?

दादाश्री : जब तक दोष बाकी हैं तब तक। और यदि अपने दोषों की वजह से सामने वाले को दु:ख हो जाए, ऐसा हो, तब ही कहना है कि, ‘चंदूलाल, इनके प्रतिक्रमण करो’। वर्ना करने की ज़रूरत नहीं है।

प्रश्नकर्ता : इस जन्म में ऐसे दोष नहीं किए हों, परंतु भूतकाल में, पिछले जन्म में ऐसे दोष किए हों कि जिनके प्रतिक्रमण करके उनमें से छूट जाना हो तो किस तरह करना चाहिए? कब तक करना चाहिए?

दादाश्री : पिछले जन्म में दोष हुए हैं, उसका पता किस तरह चलेगा आपको? जो क्लेम करता हुआ आए, उसका निवारण हो सकता है। क्लेम ही नहीं करे तो? इसलिए क्लेम करता हुआ आए, उसका प्रतिक्रमण करना चाहिए। दूसरे किसी को लेना-देना नहीं है।

(पृ.७७)

कोई मन में याद आता रहता हो, जिसकी तरफ मन बिगड़ता रहता हो, उसके प्रतिक्रमण करना। जगत् सारा निर्दोष है ही, लेकिन निर्दोष दिखता नहीं है, उसका क्या कारण है? वह हमारे अटेक वाले स्वभाव के कारण है। हमें गालियाँ दे वह भी निर्दोष है, मार मारे वह भी निर्दोष है। नुकसान करे वह भी निर्दोष है। क्योंकि हमारा हिसाब ही है यह सब। हमारा हिसाब हमें वह वापस दे रहा है। वह हम वापस फिर उसे दें तो फिर नया हिसाब बाँधते हैं। हम ‘व्यवस्थित’ मानें, तो फिर बस! कह देना कि, ‘लो, हिसाब साफ, चुक गया।’ निर्दोष देखोगे, तो मोक्ष होगा। दोषित देखा, तब तो फिर आपने आत्मा देखा ही नहीं। सामने वाले में यदि आप आत्मा देखो तो वह दोषित नहीं है।

देखो सामने वाले को भी अकर्ता

आपने कुछ कहा, तब उसको दोष दिखाई दे, तो उससे क्या फायदा होगा?

प्रश्नकर्ता : फायदा कैसा? नुकसान ही होगा न!

दादाश्री : किस ज्ञान के आधार पर वह दोष देख रहा है?

प्रश्नकर्ता : उसमें ज्ञान कहाँ आया? वह तो अज्ञानता के कारण ही दोष देखता है न?

दादाश्री : हाँ, लेकिन उसने ज्ञान लिया हो, फिर भी अगर दोष देखे तो? वह अपने ज्ञान को ही कमज़ोर बना रहा है। खुद कर्ता नहीं और सामने वाले को कर्ता देखता है, वह खुद ही कर्ता होने के बराबर है। सामने वाले को कुछ अंश में कर्ता देखे, तो खुद कच्चा पड़ गया, ऐसा हमारा ज्ञान कहता है। फिर प्रकृति भले ही लड़े-झगड़े लेकिन कर्ता नहीं देखना है। प्रकृति तो झगड़ भी पड़े!

प्रश्नकर्ता : कई बार बेहद झगड़ पड़ती है, वह क्या है?

दादाश्री : बेहद? अरे, वह तो अच्छा है! मारामारी नहीं करता, इतना अच्छा है। नहीं तो उससे आगे जाए, बंदूकें लेकर पीछे पड़ जाए, प्रकृति तो!

(पृ.७८)

हाँ, वह सब भी हो सकता है। भीतर जैसा माल भरा है वैसा निकलेगा! लेकिन कर्ता देखा तो वह अपना ज्ञान कच्चा पड़ जाता है। क्योंकि यह सब परसत्ता ही करती है। आप में इस तरह ज्ञान कच्चा पड़ जाता है क्या?

प्रश्नकर्ता : हाँ, कई बार पड़ जाता है।

दादाश्री : प्रकृति झगड़े उसमें हर्ज नहीं, लेकिन ‘उसे’ कर्ता न देखे। प्रकृति तो, जिस अनुसार खुद ने ड्रॉइंग की हो न, पिछले जन्म में फिल्म उतारी, उस अनुसार लड़ती भी है, मारामारी भी करती है। लेकिन हमें उसे कर्ता नहीं देखना है।

पूरे दिन में किसी का भी कोई गुनाह नहीं होता है। जितने किसी के दोष दिखते हैं, उतनी अभी कमी है! सारा आपका ही हिसाब है।

वह है एकांतिक रूप से अहंकारी

खुद के दोष दिखते हैं अब?

प्रश्नकर्ता : हाँ, वे दिखाई देते हैं।

दादाश्री : नहीं तो खुद को खुद का एक भी दोष नहीं दिखे। अहंकारी मनुष्य खुद का दोष नहीं देख सकता है। केवल बड़े-बड़े दोष समझता ज़रूर है कि ये दो-चार दोष हैं मुझ में, पर सारे देख नहीं सकता है!

किसी का दोष हो जाए, तो उसमें तीर्थंकर हाथ नहीं डालते थे। ये हाथ डालते हैं, वह उतना अहंकार है। दोषित देखने वाला अहंकार है और दोष भी अहंकार है। दोनों अहंकार हैं!

प्रश्नकर्ता : और दोष करने वाला भी?

दादाश्री : वह भी अहंकार है और दोषित देखने वाला भी अहंकार है।

प्रश्नकर्ता : दोष भी अहंकार है, ऐसा क्यों कहते हैं आप?

(पृ.७९)

दादाश्री : मतलब कि दोष को करने वाला ही, बस। फिर भी दोष करने वाला अहंकारी नहीं भी हो। अपना ज्ञान लिया हुआ हो और पाँच आज्ञा का ठीक से पालन करता हो, उसके दोष को, दोष नहीं माना जाता क्योंकि सामने ‘खुद’, खुद के दोषों को देखने वाला होता है। पर उसमें जो दोष है, वह भरा हुआ माल है, ‘आपका’ दोष नहीं है। ऐसी सापेक्षता है उसमें, एकांतिक नहीं है। परंतु दोष देखने वाला तो अहंकारी ही होता है।

प्रश्नकर्ता : यानी दादा, दोष करने वाला अहंकारी नहीं भी होता?

दादाश्री : नहीं भी होता।

प्रश्नकर्ता : दोष देखने वाला अहंकारी होता ही है।

दादाश्री : होता ही है एकांतिक रूप से। एकांतिक रूप से होता ही है। इस दुनिया में दोष देखने वाला एकांतिक रूप से अहंकारी होता ही है।

महत्व है, भूल के भान का!

भूल का तुरंत पता चले तो कोई भूल करे ही नहीं न! पर बाद में चौबीस घंटे हो जाएँ, फिर भी पता नहीं चलता।

प्रश्नकर्ता : वह तो उसके परिणाम में भुगतना आता है न, तब पता चलता है।

दादाश्री : वह तो छह महीनों बाद आता है परिणाम, खुद अपने को कुछ पता नहीं चलता।

प्रश्नकर्ता : इसमें तो दादा तुरंत ख्याल आ गया था कि ऐसा होगा। इन भाईसाब ने कहा तो तुरंत पता चल गया कि गड़बड़ की।

दादाश्री : नहीं, लेकिन अपने आप कुछ पता नहीं चलता।

प्रश्नकर्ता : यह अपने आप पता चल गया।

(पृ.८०)

दादाश्री : उसने कहा, उसने सावधान किया इसलिए पीछे देखा। बाकी कोई ‘अपने आप’ कहता नहीं है। निमित्त बनता नहीं है।

प्रश्नकर्ता : इन भाईसाब ने कहा, और तुरंत ही मुझे स्ट्राइक हुआ, कि भूल हुई।

दादाश्री : भूल हुई, पता चलता है न? भूल हुई तो सुधारे न लेकिन! पता चल जाए तो, वह तो तुरंत ही मिटा दे न?

प्रश्नकर्ता : हाँ।

दादाश्री : तब ठीक है। भूल तो बाहर होती ही रहने वाली है। तुझे पता चलेगा, तो भान होता जाएगा। अपने आप ही भूल का भान हो, तब मैं कहूँ कि यह ज्ञानी है! भूल में ही चलता रहता है मनुष्य। भूल को ही सत्य मानकर चलता रहता है। फिर खुद को ज़रा वेदन आए तब फिर सोचता है कि अरे, ऐसा क्यों होता है? उसके बाद पता चलता है। बिना वेदन के पता चले तब समझना कि अब ज्ञान प्रकट हुआ है। यह ज्ञान और यह अज्ञान ऐसा भेद पड़ जाना चाहिए।

प्रश्नकर्ता : खुद की भूल पता चले, फिर भूल होनी बंद हो जाती है?

दादाश्री : बंद नहीं होती, उसका हर्ज नहीं है। पता चला यानी बहुत हो गया। भूल बंद हो या नहीं हो, उसकी तो माफी ही है। भूल का पता नहीं चलता, उसे माफी नहीं है। बंद नहीं हो, उसका हर्ज नहीं है। मूच्र्छित दशा को माफी नहीं है। मूच्र्छित दशा के कारण भूल होती है।

प्रश्नकर्ता : ऐसी मूच्र्छित दशा कितनी ही बार उत्पन्न हुई होगी। बाकी कितनी ही तरफ मूच्र्छित दशा रहती होगी, तो वहाँ पर भूलें हुआ ही करती होंगी न?

दादाश्री : होती ही रहती हैं न पर, हुआ करती होंगी नहीं, होती ही रहती हैं!

प्रश्नकर्ता : वह मूच्र्छित दशा छूटे और भूल दिखाई दे, ऐसा किस तरह हो सकता है?

(पृ.८१)

दादाश्री : वह तो जागृति आनी चाहिए।

पूरा दिन माफी माँगते रहना चाहिए। पूरा दिन माफी माँगने की आदत ही डाल देनी चाहिए। पाप ही बंधते रहते हैं। उल्टा देखने की दृष्टि ही हो गई है।

वहाँ पुरुषार्थ या कृपा?

प्रश्नकर्ता : भूल दिखे, उसके लिए तो भारी पुरुषार्थ करना पड़ता है?

दादाश्री : पुरुषार्थ नहीं, कृपा चाहिए। पुरुषार्थ से तो यहाँ पर बहुत दौड़धूप करें तब भी कुछ होता नहीं है। पुरुषार्थ की तो इसमें ज़रूरत ही नहीं है। इसलिए यहाँ तो कृपा प्राप्त कर लेनी है! यानी क्या कि दादा को खुश रखना और वे खुश कब होंगे? उनकी आज्ञा में रहें तब! वे इतना ही देखते हैं कि यह आज्ञा में कितना रहता है? फूलों का हार लाया या कुछ दूसरा किया वह नहीं देखते, हार का तो थोड़ा लाभ मिलता है। उसमें सांसारिक लाभ मिलता है और इसमें भी थोड़ा लाभ मिलता है!

सारी भूलें मिटाने के लिए या तो यज्ञ (ज्ञानी और महात्माओं की सेवा करनी, ऐसा यज्ञ) करना पड़ेगा अथवा स्व-पुरुषार्थ करना पड़ेगा। नहीं तो ऐसे-वैसे दर्शन कर जाओ तो भक्ति का फल मिलेगा लेकिन ज्ञान का फल नहीं मिलेगा। अपनी दृढ़ इच्छा है कि ज्ञानी की आज्ञा में ही रहना है, तो उनकी कृपा से आज्ञा में रहा जाएगा। आज्ञा पाले, तब आज्ञा की मस्ती रहती है। ज्ञान की मस्ती किसे रहती है कि जो दूसरों को उपदेश देता हो।

यह विज्ञान तो नक़द है, तुरंत फल देने वाला है। आप एक घंटा मेरी आज्ञा में रहो तो क्या होगा? समाधि हो जाए!

वीतरागभाव से विनम्रता और सख्ती...

प्रश्नकर्ता : सत्संग में ‘फाइलों का समभाव से निकाल’ की बात निकली थी, यद्यपि विनम्रता दिखाएँ और चिकनी फाइल अधिक

(पृ.८२)

उछलती हो तो वहाँ विनम्रता दिखाने की ज़रूरत नहीं है। उल्टा वह अधिक टेढ़ा चलेगा।

दादाश्री : ऐसी कोई ज़रूरत नहीं होती, पर उसका जवाब निकालना नहीं आता, वह लेवल निकालना मुश्किल है।

प्रश्नकर्ता : इसे किस तरह लेवल में रखें?

दादाश्री : वह तो हर एक मनुष्य ऐसा ही कहता है, सामने वाले की ही भूल निकालता है न! भूल खुद की ही है, पर मैंने उनसे कहा न, कि विनम्रता नहीं रखनी है। वीतराग भाव से उनके साथ रहना। सख्ती भी वीतराग भाव से होनी चाहिए।

प्रश्नकर्ता : पर वह रहना मुश्किल है न? ऐसे किस तरह रह सकते हैं?

दादाश्री : अच्छी तरह रह सकते हैं। अपना दोष नहीं हो, तो सबकुछ रह सकता है। अपने दोष हैं, वहाँ पर कुछ भी रहा नहीं जाता। मूल में दोष ही अपना होता है। जो दूसरे पर दोष थोपने फिरता है, उसका ही दोष होता है। यह तो खुद की सेफसाइड खोजते हैं।

ये दूसरे तो अपना ही प्रतिबिंब हैं। कोई हमें कुछ कहता नहीं। अपने ही गुनाह की वजह से कहता है। हर बार आपका ही गुनाह होता है और वह आपका गुनाह समझ में नहीं आता, इसलिए दूसरों का गुनाह देखते हो। और दूसरों का गुनाह देखना, वह सबसे बड़ी अज्ञानता है। हम इतने समय से कह रहे हैं कि सारा जगत् निर्दोष है, और फिर दोष निकालें तो मूर्ख नहीं कहलाएँगे? तुझे नहीं लगता कि यह थियरी वीतराग की है?

प्रश्नकर्ता : एक्ज़ेक्ट वीतराग की थियरी!

दादाश्री : खुद के दोष देखने वाले मनुष्य जीतकर चले गए, मोक्ष में चले गए। खुद के दोष के बिना तो कोई कुछ भी कहेगा ही नहीं हमें। इसलिए जागृत रहना।

प्रश्नकर्ता : आपके शब्द तुरंत ही क्रियाकारी होकर रहेंगे।

(पृ.८३)

दादाश्री : ये शब्द सारे क्रियाकारी ही होते हैं, हम यदि भीतर घुसने दें तब, घुसने ही नहीं दें, तब क्या हो?

‘ज्ञान’ प्राप्ति के बाद की परिस्थिति

साँप, बिच्छू, सिंह, बाघ, दुश्मन कोई भी तुम्हें दोषित नहीं दिखे, उनका दोष नहीं है ऐसा दिखे, वह दृष्टि हो गई यानी हो गया। वैसी यह दृष्टि आपको मिल गई है। आपको इस दुनिया में कोई दोषित दिखेगा नहीं।

प्रश्नकर्ता : वह दृष्टि मिल गई है।

दादाश्री : फिर यहाँ पर ही मोक्ष सुख भोगता है। यहाँ पर आनंद ही रहता है। किसी का दोष दिखाई दे तब तक दु:ख रहता है। दूसरों के दोष दिखने बंद हुए यानी छुटकारा।

प्रश्नकर्ता : कभी गुस्सा हो जाएँ वाइफ पर, वह दोष दिखा कहलाता है?

दादाश्री : पर ‘आपको’ गुस्सा नहीं आता न?

प्रश्नकर्ता : मुझे, शुद्धात्मा को नहीं आता।

दादाश्री : हाँ, पर वह तो आपको अपना दोष दिखता है। पर आपको दिखता है न यह दोष?

प्रश्नकर्ता : हाँ, दिखता है।

दादाश्री : मतलब आपका दोष दिखता है पर उसका (वाइफ का) दोष नहीं दिखता न?

प्रश्नकर्ता : ना।

दादाश्री : बस, हमें तो किसी का दोष नहीं दिखना चाहिए। आपका दोष, चंदूभाई का दोष दिखे, पर अन्य किसी का दोष नहीं दिखना चाहिए।

(पृ.८४)

प्रश्नकर्ता : जब गुस्सा आया, तब उसका (वाइफ का) दोष दिखा, इसलिए गुस्सा आया न?

दादाश्री : नहीं, वह तो उसका दोष दिखा, इसलिए आप कहते हो कि चंदूभाई दोषित हैं, पर आपको वाइफ दोषित नहीं दिखती। आपको उसका दोष नहीं दिखता है, चंदूभाई का दोष दिखता है। अर्थात् आपका खुद का दोष निकालते हो कि ‘भाई, यह तो चंदूभाई का ही दोष है। खुद का ही दोष है यह तो!’ समझ में आया न?

प्रश्नकर्ता : गुस्सा हो जाने के बाद ऐसा लगता है।

दादाश्री : वह हो जाने के बाद भी चंदूभाई दोषित लगते हैं न आपको?

प्रश्नकर्ता : हाँ।

दादाश्री : तभी गुनाह कहलाता है न! ऐसा होने के बाद ही गुनाह कहलाता है। सामने वाले का दोष नहीं दिखा, खुद का दोष दिखा यानी चंदूभाई का दोष आपको दिखता है। चंदूभाई गुनहगार है, ऐसा आपको लगता है।

प्रश्नकर्ता : हाँ, दादा। ऐसा ही होता है।

दादाश्री : चंदूभाई को वह (वाइफ) गुनहगार है ऐसा लगता है, पर आपको चंदूभाई गुनहगार है ऐसा लगता है। चंदूभाई ने इनका दोष देखा और इनके साथ गुस्सा किया, इसलिए चंदूभाई गुनहगार है, ऐसा लगता है आपको।

प्रश्नकर्ता : मेरे नौकर को दो-तीन आवाज़ें देकर जगाया, लेकिन उसने जवाब नहीं दिया। वह जाग रहा था। उसके ऊपर खूब क्रोध आया तो उसका क्या करना चाहिए?

दादाश्री : क्रोध आया, फिर आपको दोष दिखा क्या?

प्रश्नकर्ता : दोष तो दादा पहले दिखा, बाद में ही क्रोध आएगा न?

(पृ.८५)

दादाश्री : हाँ, यानी क्रोध आया, पर फिर बाद में तो ऐसा लगा कि इसका दोष नहीं है। इसलिए, आपको अपनी भूल दिखी।

प्रश्नकर्ता : तुरंत नहीं लगा।

दादाश्री : बाद में भी, वह उसने भूल नहीं की, यानी यह भूल खुद ने की थी, ऐसा लगा। उसने भूल की होती तो खुद का दोष दिखता ही नहीं!

प्रश्नकर्ता : ऐसा तो हमारे यहाँ रोज़ होता है! गुस्सा आ ही जाता है।

दादाश्री : तब तो आपको प्रतिक्रमण करना पड़ेगा। पर किसलिए प्रतिक्रमण? पछतावा करने का कारण? उसने ऐसा किया किसलिए? तब कहें, उसने जो किया वह आपके कर्म का उदय है। इसलिए उसने यह भूल की। कोई भी मनुष्य भूल करता है, वह आपके निमित्त से ही करता है। इसलिए आपके ही कर्म का उदय है और उसने भूल की। इसलिए आपको फिर पछतावा कर लेना चाहिए। आपको गुस्सा होने की ज़रूरत नहीं थी, यहाँ इस जगह पर। ऐसे ही पछतावा नहीं किया जाता। गुनाह दिखता हो पर साबित नहीं हो, तब तक उसका पछतावा किस तरह होगा? वह तो साबित होना चाहिए कि भाई, खुद के ही कर्म का उदय है। ऐसी समझ होनी चाहिए उसे।

अभी कोई मुझे थप्पड़ मारे तो मैं तो तुरंत उसे आशीर्वाद दूँ। उसका क्या कारण? वह थप्पड़ मारता है? इस दुनिया में कोई थप्पड़ मार नहीं सकता। पहले तो मैंने इनाम रखा था, आज से तीस साल पहले, इन्डिया में इनाम रखा था कि मुझे कोई भी आदमी एक थप्पड़ मारेगा उसे पाँच सौ रुपये नकद दूँगा। पर कोई थप्पड़ मारने वाला निकला ही नहीं। कोई दु:खी हो कि ‘भई, दु:ख का मारा तू यहाँ उधार ढूँढे, उसके बजाय यह ले जा न!’ तब वह कहे, ‘ना बाबा, उधार ढूँढना अच्छा, पर आपको थप्पड़ मारकर मेरी क्या दशा होगी?’

यह दुनिया बिलकुल नियम से चलती है। भगवान नहीं चलाते

(पृ.८६)

फिर भी स्ट्रोंग नियम अनुसार है। भगवान की हाज़िरी से चलती है यह। इसलिए कोई भी आपके साथ दोष करे तो वह आपका ही प्रतिघोष है। दुनिया में किसी का दोष होता ही नहीं है। मुझे सारे जगत् के जीव मात्र निर्दोष ही दिखते हैं। ये जो दोषित दिखते हैं, वही भ्रांति हैं। अपना विज्ञान ऐसा कहता है कि किसी भी मनुष्य का दोष दिखे, तो वह आपका दोष है। आपके दोष का वह रिएक्शन (प्रत्याघात) आया है। आत्मा भी वीतराग है और प्रकृति भी वीतराग है। पर आप जैसा दोष निकालोगे उतना उसका रिएक्शन आएगा।

तब दोष बनते हैं, डिस्चार्ज रूप...

सभी निर्दोष ही हैं। दोषित दिखता है, वही अपना दोष है। किसी जीव का दोष है ही नहीं। ऐसा दिखा तो ज्ञान कहलाता है, पर ऐसा दिखता नहीं न?

प्रश्नकर्ता : दोषित देखना नहीं है, फिर भी दोषित दिखे, वह डिस्चार्ज कहलाता है न?

दादाश्री : डिस्जार्च। डिस्चार्ज टु बी हैबिच्युएटेड। खुद की सत्ता नहीं वह हैबिच्युएटेड कहलाता है।

प्रश्नकर्ता : दोषित दिखे, तो वह डिस्चार्ज किस तरह कहलाएगा?

दादाश्री : दोषित देखने का भाव छूट गया, इसलिए डिस्चार्ज कहलाएगा न! पर वह उसने पूरी तरह से आज्ञा पाली नहीं। वह धीरे-धीरे आज्ञा पालता जाएगा, वैसे-वैसे शुद्ध हो जाएगा। तब तक उसका प्रतिक्रमण करना पड़ेगा।

प्रश्नकर्ता : पर बेसिकली ऐसा फिट हो गया है कि निर्दोष ही है। पर कभी कभार दोषित दिख जाता है।

दादाश्री : इसलिए ही ‘वह हैबिच्युएटेड है’, कहा है न! नहीं करना हो फिर भी हो जाता है।

प्रश्नकर्ता : हम लोगों की दृष्टि अभी भी निर्दोष क्यों नहीं होती?

(पृ.८७)

दादाश्री : दृष्टि निर्दोष ही है।

प्रश्नकर्ता : निर्दोष ही दिखना चाहिए, ऐसा भाव है, पर फिर भी दूसरों के दोष दिखते हैं।

दादाश्री : दोष दिखते हैं, वे जिसे दिखते हैं न, उसे हम ‘देखते’ हैं, बस। बाकी, जो माल भरा हुआ है, वैसा ही निकलेगा न?

प्रश्नकर्ता : पर उसका प्रतिक्रमण करना पड़ेगा न?

दादाश्री : प्रतिक्रमण करना ही पड़ेगा न! किसलिए ऐसा माल भरा था?

श्रद्धा से शुरू, वर्तन से पूर्ण...

यानी यह अपना ज्ञान शुद्ध ज्ञान है। समझ भी शुद्ध है। जगत् सारा निर्दोष दिखना चाहिए। पहले निर्दोष श्रद्धा में आया, अब धीरे-धीरे समझ में आएगा, ज्ञान में आएगा। खुद शुद्धात्मा ही है न! जेब काटे तब भी निर्दोष दिखना चाहिए।

जो जान लिया, वह फिर अपनी श्रद्धा में पूर्ण रूप से आएगा, उसके बाद वर्तन में आएगा। मतलब कि पूर्ण रूप से श्रद्धा में अभी आया नहीं है। जैसे-जैसे श्रद्धा में आता जाएगा, वैसे-वैसे वर्तन में आता जाएगा। वह सारा प्रयोग धीरे-धीरे होगा। ऐसे एकदम से तो नहीं हो सकता कुछ! पर जान लें उसके बाद वह प्रयोग में आएगा न?

प्रश्नकर्ता : यह जाना तो बहुत समय से है ही न?

दादाश्री : ना! वह जाना नहीं कहलाता। जान लिया उसे कहते हैं कि प्रवर्तन में आए ही। अर्थात् पूर्ण रूप से जाना नहीं है। यह तो स्थूल जाना। जानने का फल क्या? तुरंत ही प्रवर्तन में आए। मतलब कि यह स्थूल जाना है, अभी तो उसका सूक्ष्म, सूक्ष्मतर, सूक्ष्मतम होगा, तब प्रवर्तन में आएगा।

(पृ.८८)

नहीं छोड़ना कभी सत्संग ‘यह’

इस सत्संग में तो अगर मार पड़ रही हो फिर भी, मार खाकर भी यह सत्संग मत छोड़ना। मरना हो तब भी इस सत्संग में मर जाना, लेकिन बाहर नहीं मरना। क्योंकि जिस हेतु के लिए मरा, उसका वह हेतु जोइन्ट हो जाता है। यहाँ पर कोई मारता नहीं है न? यदि कोई मारे तो चला जाएगा? यह जगत् नियमानुसार आयोजित है। अब इसमें किसी के दोष देखें तो क्या हो? क्या किसी का दोष होगा?

प्रश्नकर्ता : किसी का दोष तो नहीं होता, पर मुझे ऐसा दिखता है।

दादाश्री : जो दिखता है, वह दर्शन गलत होता है। हम एक चीज़ यहाँ से देखें, वह हो घोड़ा और बैल जैसा दिखे, तो हम, ‘बैल है’, ऐसा बोलते हैं। पर वहाँ जाकर पता लगाएँ तो पता चले कि घोड़ा है, तब हम नहीं समझ जाएँगे कि हमारी आँखें वीक (कमज़ोर) हो गई हैं! इसलिए दुबारा, जो दिखे, वैसा पक्का ही, नहीं मानेंगे।

प्रश्नकर्ता : आपके विज़न(दृष्टि) से किसी का दोष नहीं है, फिर भी मुझे ऐसा क्यों दिखता है?

दादाश्री : तुझे दिखता है, उसमें तू ज्ञान का उपयोग नहीं करता है न! अज्ञान को चलते रहने देता है। ये दादा के चश्मे पहने तो दोष नहीं दिखेंगे। पर अपने चश्मे से ही देखता रहता है। नहीं तो इस जगत् में कोई दोषित है ही नहीं! यह मेरी सबसे गहरी खोज है।

मोड़नी, दोष देखने की शक्ति को

किसी का दोष ही देखना नहीं है। तब से ही सयाना हो जाता है। दोष वास्तव में किसी का है ही नहीं। यह तो बिना काम के मजिस्ट्रेट बन जाता है। खुद के दोष पूरे दिखते नहीं हैं और दूसरों के देखने को तैयार हुए। दोष देखने की मनुष्य में शक्ति है, वह खुद के दोष देखने के लिए ही है। दूसरों के दोष देखने के लिए नहीं है। उसका दुरुपयोग होने से खुद के दोष देखने की शक्ति बंद हो गई है।

(पृ.८९)

दूसरों के दोष निकालने के लिए नहीं है यह। वह अपने खुद के दोष नहीं निकालेगा न? हम दूसरों के दोष निकालें तो उन्हें अच्छा लगता है?

प्रश्नकर्ता : अच्छा नहीं लगता।

दादाश्री : नापसंद व्यापार बंद नहीं करने चाहिए हमें?

‘व्यवस्थित’ कर्ता, वहाँ भूल किसकी?

जागृति रखनी है, ऐसा निश्चय होना चाहिए। भूल का प्रश्न नहीं है। अपने यहाँ भूल होती ही नहीं। भूल तो, ‘जिसकी’ होती है, उसे फिर खुद को समझ में आता है कि यह भूल हुई, व्यवस्थित करता है, पर खुद निमित्त बना, इसलिए उसके आलोचना-प्रतिक्रमण-प्रत्याख्यान करने चाहिए कि ‘ऐसा नहीं होना चाहिए।’ नहीं तो फिर चलेगा ही नहीं न! चीज़ ही पूरी अलग है। कर रहा है व्यवस्थित। इसलिए अपने यहाँ किसी का दोष देखना ही नहीं होता न!

इस सत्संग में किसी की भूल देखने की दृष्टि छोड़ देना। भूल होती ही नहीं किसी की। वह सब ‘व्यवस्थित’ करता है। इसलिए दोष वाली दृष्टि ही निकाल देनी चाहिए, नहीं तो अपना आत्मा बिगड़ जाएगा।

प्रश्नकर्ता : भूल की दृष्टि रहे, तो सीढ़ी उतर जाते हैं न?

दादाश्री : खत्म हो जाता है इंसान! सब ‘व्यवस्थित’ करता है। यह ज्ञान मिलने के बाद सब व्यवस्थित के अधीन होता है।

वज्रलेपो भविष्यति...

अन्य क्षेत्रे कृतम् पापम् धर्म क्षेत्रे विनश्यति,

धर्म क्षेत्रे कृतम् पापम् वज्र लेपो भविष्यति।

बाहर कोई दोष हुआ हो तो यहाँ पर नाश हो जाएगा, पर यहाँ पर पाप किया वह ‘वज्रलेपो भविष्यति।’ इसलिए मैंने कहा, ‘धो डालना।’ तब कहे, ‘हाँ। भूल गया। अब कभी ऐसा नहीं होगा।’ मैंने

(पृ.९०)

कहा, ‘किसी का भी दोष देखना मत, यहाँ मत देखना, बाहर जाकर देखना। बाहर जाकर देखोगे तो यहाँ पर धुल जाएगा, पर यहाँ देखोगे तो वज्रलेप हो जाएगा। ज़रा-सा भी किसी का दोष नहीं देखना चाहिए। चाहे जैसा उल्टा करता हो, फिर भी दोष नहीं देखना चाहिए और दिख जाए तो हमें धो डालना चाहिए और नहीं तो वह वज्रलेप हो जाएगा।’

इसलिए यहाँ तो धो डालना तुरंत ही। उल्टा विचार आया कि तुरंत धो डालना। कोई उल्टा करे या सीधा करे, वह हमें देखने की ज़रूरत नहीं है।

यह धर्मस्थान कहलाता है। घर पर भूल की हो, तो यहाँ पर सत्संग में वह भूल मिट जाएगी। पर धर्मस्थान में भूल हुई तो निकाचित हो जाती है।

प्रश्नकर्ता : दादा के पास बैठे हों तो भी निकाचित होगी?

दादाश्री : नहीं होगी। पर उसका जो लाभ मिलता हो वह नहीं मिलेगा न! उससे लाभ मिलता हो, वह नहीं मिलता। ऐसी भूलें हो जाती हैं, इसलिए सावधान करते हैं आपको। भूल हो, उससे ज्ञान चला नहीं जाता है। सावधान करने से स्वच्छ होता है न?

देखे दोष ज्ञानी के, उसे...

तुझे हमारा दोष दिखता है कभी?

प्रश्नकर्ता : ना।

दादाश्री : कभी भी नहीं? और यह पहली बार इस बेचारे को हमारा दोष दिखता है। इसलिए हम अपरिचित व्यक्तियों को हमारे टच में अधिक नहीं रखते। बुद्धि का उपयोग करे तो दोष ही दिखेंगे लोगों को, गिर जाता है फिर। वे तो नरक में जाते हैं, नासमझ। अरे, ज्ञानी पुरुष के, जो सारे संसार को तारें, उनमें भी दोष ढूँढ निकाले?! पर ये अपरिचित लोग, इनमें उतनी समझ नहीं है। इसलिए हम बहुत टच में नहीं रखते। एक दो घंटे रखते हैं। सिर्फ नीरू बहन को ही,

(पृ.९१)

उन्हें दोष नहीं दिखे, कितने ही वर्षों से साथ रहती हैं, पर एक अक्षर भर दोष नहीं दिखा! एक सेकन्ड भी दोष नहीं दिखा, वे ये नीरू बहन! वह आश्चर्य कहलाएगा न! तुझे कभी दिखता होगा, नहीं? कभी भी नहीं?

प्रश्नकर्ता : दादा, आपका तो यह विज्ञान, इन बातों की तो अद्भुतता ही है! यहाँ दोष देखने का तो कोई कारण ही नहीं है। संपूर्ण ज्ञानदशा बरतती हो जिन्हें!!

दादाश्री : ऐसा है न कि इतना-सा बच्चा हो, वह भी कहेगा कि, ‘दादा कहते हैं, वह सच है, और कुछ नहीं!’ ऐसा मानते हैं सभी।

प्रश्नकर्ता : आप निरंतर एकदम सूक्ष्मतम में उपयोग में बरतते हैं, वहाँ दोष रहता ही नहीं न कोई? फिर आपके दोष कैसे देखे जाएँ?

दादाश्री : ऐसी समझ नहीं है न? कुछ भी समझ नहीं है।

प्रश्नकर्ता : केवलज्ञान स्वरूप बरतते हों, फिर बाहर का चाहे कैसा भी हो, श्रीमद् राजचंद्रजी ने तो यहाँ तक कहा है कि ज्ञानी को सन्निपात हो, तब भी उनके दोष नहीं देखने चाहिए।

दादाश्री : पर वह समझ होनी चाहिए न! समझ कोई आसान चीज़ है!

प्रश्नकर्ता : उल्टे यह पूछने में, वह बातचीत करने में विनय चूक जाते हैं, वे सब भूलें हमारी हमें धोनी होती हैं।

दादाश्री : जहाँ नहीं देखना है वहाँ वह, देख लेता है, यह अजूबा ही है न! दूसरी जगह पर दोष देखे न, तो मैं वह मिटा दूँ। और यहाँ दोष देखे तो कौन मिटा दे उसके? कोई मिटाने वाला ही रहा नहीं न! इसलिए मैं सावधान कर दूँ कि अरे, देख, यहाँ सावधान रहना। भीतर समझ नहीं है न बेचारे को! किसी भी तरह की समझ नहीं है न! यह थोड़ा-बहुत ज्ञान दिया हो न, तो जागृति रहती है इन लोगों को। स्वच्छ हो तो। दूसरी कुछ समझ नहीं है कि मैं क्या कर

(पृ.९२)

रहा हूँ! बुद्धि फँसाती है। उसका खुद को पता नहीं चलता न! बुद्धि सब को फँसाती है। नहीं देखने का हो, वह भी दिखाती है।

इस बारे में नीरू बहन को देखा मैंने। एक दिन भी उल्टा विचार ही नहीं आता। हमारे हाथों से किसी को मार रहे हों न, तब भी विचार नहीं। उसका कोई हित का कारण देखा होगा, इसलिए मारते होंगे!

प्रश्नकर्ता : और ऐसा ही होता है।

दादाश्री : अब वहाँ इनकी बुद्धि कैसे पहुँचे?

प्रश्नकर्ता : सारा, केवल करुणा और कल्याण के अलावा दूसरा कुछ यहाँ है ही नहीं।

दादाश्री : धीरे-धीरे उसका भी ठिकाने पर आ जाएगा।

प्रश्नकर्ता : इस ज्ञान में तो जगत् में भी किसी को दोषित नहीं देखना है, तो ज्ञानी पुरुष के तो दोष देखे जाते होंगे? जगत् निर्दोष देखना है। खुद की ही भूल से दोष दिखते हैं।

दादाश्री : हाँ, लेकिन ऐसा भान रहता नहीं न मनुष्य को! भान रहे, तो ऐसा करे ही नहीं न बेचारा? तो यह जोखिम उठाए ही नहीं न? बहुत बड़ा जोखिम कहलाता है न! इसलिए तो उस आदमी को बोला था कि आठ बजे से पहले आपको आना नहीं है। हम चाय पी रहे हों, डेढ़ कप पीते हों या दो कप पीते हों! तब उसकी बुद्धि बताएगी कि इतनी सारी, दो कप पीने की क्या ज़रूरत है? एक पी होती तो क्या बुरा था?

प्रश्नकर्ता : देखने जैसा तो अंदर का ही है कि चाय पीते समय आप अंदर कैसी वीतरागता में रहते हैं!

दादाश्री : ऐसी देखने की शक्ति कहाँ से लाएँ? वह तो अपने ज्ञान से भीतर ठंडक रहती है, इतना ही अच्छा है न!

प्रश्नकर्ता : आप तो कहते हैं न कि एक क्षण भर के लिए भी हमारा मोक्ष का ध्येय हम चूकते नहीं हैं।

(पृ.९३)

दादाश्री : एक मिनट भी, एक क्षण भी नहीं चूका जाता।

प्रश्नकर्ता : अब पूरा मोक्षमार्ग में रहना और यह व्यवहार वापस। एक-एक व्यक्ति को दु:खदायी नहीं हो, उसका रोग निकले, उतना कड़क बोलना पड़ता है, वह सब करना होता है।

दादाश्री : फिर दो लुटेरों की कहानी भी पढ़ते हैं हम।

प्रश्नकर्ता : वह भी करना और मोक्ष नहीं चूकना है।

दादाश्री : दो लुटेरों की कहानी भी पढ़ते हैं हम। वह किताब हाथ में आई हो तो उसे पूरी करते हैं। पेपर पढऩे की फाइल का भी निकाल करते हैं और यह कहता है, ‘हमें काम ज़्यादा है!’ लो, ये काम वाले आए! यहाँ पानी रखा हो न तो, यहाँ धरते (रखते) हैं मुझे, मुझे नहीं पीना हो फिर भी! वे समझते हैं कि यह हो गया काम! मुझे नहीं पीना हो फिर भी धरते हैं। मैं कहूँ कि ‘ना, अभी नहीं।’ उसे वे काम मानते हैं।

हम जो ‘कर्म नहीं बंधते’ ऐसा कहते हैं न, तो पाँच आज्ञा पालता हो अस्सी प्रतिशत तब। नहीं तो कर्म बंधेंगे ही। आज्ञा नहीं पालें, तब कर्म बंधेंगे ही। मेरे पास सारा दिन बैठे रहें, फिर भी कुछ नहीं होगा। और मुझसे छह महीनों तक नहीं मिला, पर आज्ञा पालता हो, तो उसका कल्याण हो जाएगा। बाकी, यहाँ तो सभी को ठंडक लगती है न, इसलिए सभी बैठे ही रहते हैं न! कुत्ता भी यहाँ से खिसकता नहीं है, मुआ! मारें तो भी वापस आकर बैठता है। हम औरंगाबाद गए थे, वहाँ एक कुत्ता मेरे पास से खिसकता ही नहीं था।

सरल को ज्ञानी कृपा अपार

मोक्षमार्ग हाथ में आने के बाद जैसा आपसे दौड़ा जाता है, वैसा इनसे नहीं दौड़ा जाता। यह तो सारा फिर प्रमादी खाता। हमें उठाने पड़ते हैं। इसलिए ये तो, बिल्ली के बच्चों जैसे हैं। बिल्ली को अपने बच्चे खुद उठाकर घूमना पड़ता है, और आप बन्दर के बच्चे जैसे हो। आप पकड़कर रखते हो, छोड़ते नहीं हो, चौकस! डिज़ाइन

(पृ.९४)

यानी डिज़ाइन! और इनको तो हमें उठाना पड़़ता है! क्योंकि इनकी सरलता देखकर हम खुश होते हैं। और खुश होते हैं इसलिए उठाकर फिरते हैं।

सरलता तो सबकुछ खुला कर देती है। अलमारियाँ खोल डालते हैं। लो साहब, देख लो। कहेंगे कि, ‘हमारे पास यह माल है।’ और असरलता यानी एक ही अलमारी खोलते हैं। दूसरा तो, कहोगे तो उघाड़ेंगे, वर्ना नहीं उघाड़ेंगे। और ये तो कहने से पहले ही सब उघाड़ देते हैं। सरलता आप समझे?

गुण देखने से गुण प्रकटें

और सामने वाले का गुण देखा कि गुण उत्पन्न होगा। बस! आप गाली दें और कोई न बोले, इसलिए आप समझें कि इसमें कितने अच्छे गुण हैं! तब आप में वे गुण उत्पन्न होंगे। और किसी का दोष है ही नहीं इस दुनिया में। खुद के दोष से ही है यह सब!

निजकर्म यानी निजदोष

यह करम-करम गाते हैं, लेकिन करम क्या है, उसका उनको भान नहीं है। खुद के कर्म यानी निजदोष। आत्मा निर्दोष है, पर निजदोष को लेकर बंधा हुआ है। जितने दोष दिखते जाएँ, उतनी मुक्ति अनुभव में आती है। किसी-किसी दोष की तो लाख-लाख परतें होती हैं, इसलिए लाख-लाख बार देखें, तब वे निकलते जाते हैं। दोष तो मन-वचन-काया में भरे हुए ही हैं। हमने खुद ज्ञान में देखा है कि जगत् किससे बंधा है। मात्र निजदोष से बंधा है। निरा भूलों का भंडार अंदर भरा पड़ा है। प्रतिक्षण दोष दिखें तब काम हुआ कहलाता है। यह सब माल आप भरकर लाए हो, वह पूछे बिना का ही है न? शुद्धात्मा का लक्ष्य बैठा, इसलिए भूलें दिखती हैं। फिर भी भूलें नहीं दिखें, वह तो निरा प्रमाद कहलाएगा।

शुद्ध उपयोग, आत्मा का

आत्मा का शुद्ध उपयोग यानी क्या? उसकी तरफ से बेध्यान

(पृ.९५)

नहीं होना चाहिए। पाव घंटा झोंका आया हो तो पतंग की डोर अंगूठे से लपेटकर झोंका खाना। उसी तरह आत्मा की बाबत में ज़रा भी अजागृति नहीं रख सकते। इस मन-वचन-काया के दोष तो प्रतिक्षण दिखने चाहिए। इस दूषमकाल में दोष के बिना काया ही नहीं होती। जितने दोष दिखे उतनी (ज्ञान की) किरणें बढ़ी कहलाएँगी। इस काल में यह अक्रम ज्ञान तो गज़ब का प्राप्त हुआ है। आपको केवल जागृति रखकर भरे हुए माल को खाली करना है, धोते रहना है।

अनंत भूलें हैं। भूलों के कारण नींद आ जाती है। नहीं तो नींद कैसी? नींद आए, उसे तो बैरी माना जाता है। प्रमादचर्या कहलाता है! शुभ उपयोग में भी प्रमाद को अशुभ उपयोग कहते हैं। ज्ञानी पुरुष तो एक ही घंटा सोते हैं। निरंतर जागृत रहते हैं। खुराक कम हो गया हो, नींद कम हो गई हो, तब जागृति बढ़ती है। नहीं तो प्रमादचर्या रहती है। नींद खूब आए तो वह प्रमाद कहलाता है। प्रमाद तो आत्मा को गठरी में बांधने के बराबर है। जब नींद घटे, खुराक घटे, तब समझना कि प्रमाद घटा। भूल खत्म हो, तब उसके चेहरे पर लाइट आती है। सुंदर वाणी निकलती है, लोग उसके पीछे फिरते हैं। भूल नहीं ही है, ऐसा यदि मानकर बैठे रहें, तो फिर भूल दिखेगी ही कहाँ से? फिर आराम से सोते रहते हैं। हमारे ऋषि-मुनि सोते नहीं थे। बहुत जागृत रहते थे।

भूलें, उजाले की...

स्थूल भूलें तो आमने-सामने टकराव होते हैं, तब बंद हो जाती हैं। पर सूक्ष्म, सूक्ष्मतर, सूक्ष्मतम भूलें इतनी सारी होती हैं कि वे जैसे-जैसे निकलती जाती हैं, वैसे-वैसे मनुष्य की सुगंध आती जाती है। ये भूलें तो अँधेरे की भूलें हैं। इसलिए खुद को दिखती नहीं हैं। वह तो ज्ञानी पुरुष प्रकाश फेंके, तब दिखती हैं। इससे तो उजाले की भूलें अच्छी। इलैक्ट्रिसिटी वाली होती हैं, वे खुद को तुरंत दिखती हैं।

प्रश्नकर्ता : इलैक्ट्रिसीटी वाली भूलें क्या हैं?

(पृ.९६)

दादाश्री : वे सारी खुली भूलें अकुलाहट होकर चली जाती हैं। उनसे जागृत ही रहा जाता है। वह अच्छा कहलाता है। जबकि अँधेरे की भूलें तो किसी को दिखती ही नहीं। उसमें खुद ही प्रमादी होता है, अपराधी होता है और दिखाने वाला भी नहीं मिलता। जबकि इलैक्ट्रिसीटी वाली भूलें तो कोई बताने वाला भी मिल जाता है। खुद की भूलें खुद को चुभें, उसे हम इलैक्ट्रिसीटी वाली भूलें कहते हैं और अँधेरे की भूलें यानी खुद की भूलें, खुद को नहीं चुभतीं। जो भूलें चुभें, वे तो तुरंत ही दिख जाती हैं, पर जो नहीं चुभतीं वे तो नज़र से निकल जाती हैं। अँधेरे की भूलें और अँधेरे की बात, उससे तो कठोर मनुष्य की उजाले की भूलें अच्छी, फिर भले ही थोकबंद हों। जब अप्रिय अवस्थाएँ आई हों, कोई मारे पत्थर से, तब भूलें दिखती हैं। स्ट्रोंग परमाणु वाली भूलें हों, वे तुरंत ही दिखाई देती हैं, ऐसा व्यक्ति बहुत सख्त होता है। जिस तरफ घुसे, उस तरफ वह डूब जाता है। संसार में घुसे तो उसमें डूब जाता है और ज्ञान में घुसे तो उसमें डूब जाता है।

प्रकटे केवलज्ञान, अंतिम दोष जाने पर

‘मुझ में भूल ही नहीं है’ ऐसा तो कभी भी नहीं बोल सकते, बोल ही नहीं सकते। ‘केवल’ होने के बाद ही भूलें नहीं रहतीं। भगवान महावीर को केवलज्ञान उपजा, तब तक दोष दिखते थे। भगवान को केवलज्ञान उपजा, वह काल और खुद के दोष दिखाई देने बंद होने का काल, एक ही था! वे दोनों ही समकालीन थे। अंतिम दोष का दिखाई देना और इस तरफ केवलज्ञान प्रकट हो जाना, ऐसा नियम है। जागृति तो निरंतर बनी रहनी चाहिए। यह तो दिन में भी बोरे में आत्मा बंद रखे तो कैसे चलेगा। दोषों को देखकर धोने से आगे बढ़ सकते हैं, प्रगति होती है, नहीं तो फिर भी आज्ञा में रहने से लाभ तो है, उससे आत्मा की सँभाल रहती है। जागृति के लिए सत्संग और पुरुषार्थ चाहिए। सत्संग में रहने के लिए पहले आज्ञा में रहना चाहिए।

अँधेरे की भूलें...

अरे, मन में दी गई गाली या अँधेरे में किए गए कृत्य भयंकर

(पृ.९७)

हैं! वह समझता है कि, ‘मुझे कौन देखने वाला है और कौन इसे जानने वाला है?’ अरे, यह नहीं है अंधेरनगरी। यह तो भयंकर गुनाह है! इन सभी को अँधेरे की भूलें ही परेशान करती है।

‘मैं जानता हूँ’, वह अँधेरे की भूल तो बड़ी भारी भूल और फिर ‘अब कोई हर्ज नहीं है’, वह तो मार ही डालता है। यह तो ज्ञानी पुरुष के अलावा कोई बोल ही नहीं सकता कि ‘मुझ में एक भी भूल नहीं रही।’ हर एक भूल को देखकर मिटाना है। हम ‘शुद्धात्मा’ और बाहर के बारे में ‘मैं कुछ जानता नहीं’ ऐसा रखना, इससे कोई परेशानी नहीं आएगी। पर, ‘मैं जानता हूँ’ ऐसा रोग तो पैठना ही नहीं चाहिए। हम तो ‘शुद्धात्मा’। शुद्धात्मा में एक भी दोष नहीं होता, पर चंदूभाई में जो-जो दोष दिखें, वैसे-वैसे उनका निकाल करना। अँधेरे की भूलें और अँधेरे में दबी हुई भूलें नहीं दिखतीं। जैसे-जैसे जागृति बढ़ती है वैसे-वैसे अधिक और अधिक भूलें दिखती हैं। स्थूल भूलें भी मिट जाएँ तो आँखों की लाइट बदल जाती है! अँधेरे में भरी गई भूलें, अँधेरे में कहाँ से दिखेंगी? भूलें जैसे-जैसे निकलती जाती हैं, वैसे-वैसे वाणी भी ऐसी निकलती जाती है कि कोई दो घड़ी सुनता रहे!

दादा ‘डॉक्टर’ दोषों के

भूलें तो बहुत ही हैं, वह यदि जानें तो भूलें दिखने लगेंगी और फिर भूलें कम होती जाएँगी। हम सब के दोष थोड़े ही देखते रहते हैं? ऐसी हमें फुरसत भी नहीं होती। वह तो बहुत पुण्य इकट्ठा हो, तब आपके दोष दिखलाते हैं। इन दोषों से भीतर भारी रोग पैदा होता है। पुण्य जागे, तब हम सिद्धिबल से उसका ऑपरेशन करके निकाल देते हैं। ये डॉक्टर करते हैं, उस ऑपरेशन से तो लाख गुना मेहनत हमारे ऑपरेशन में होती है!

दोष निकालने का कॉलेज

हँसते-खेलते दोष निकालने का कॉलेज ही यह है! नहीं तो

(पृ.९८)

दोष तो बिना राग-द्वेष के जाते नहीं। हँसते-खेलते चलता है यह कॉलेज, वह भी एक आश्चर्य ही है न! अक्रम का आश्चर्य है न!

प्रश्नकर्ता : आपके शब्द ऐसे निकलते हैं कि दोष निकलता जाता है वहाँ से। यहाँ से शब्द ऐसे निकलते हैं कि दोष वहाँ झड़ जाता है।

दादाश्री : झड़ जाता है न? ठीक है।

अब आपको दोष दिखता है यह आपको कैसे पता चले? तब कहें, चंदूभाई गुस्सा करे, वह आपको पसंद नहीं आता। वह समझ में आया कि इस चंदूभाई में यह दोष था। पकड़ा गया दोष। वे दोष आपने देखे। चंदूभाई में जो दोष थे वे आपने देखे। ‘देखा नहीं निजदोष तो तरिये कौन उपाय?’ निजदोष देखने की दृष्टि उत्पन्न हो गई यानी परमात्मा होनी की तैयारी हुई, कहते हैं। और निजदोष तो किसी को भी नहीं दिखते। अहंकार है तब तक एक-एक अणु में दोष है। भ्रांति जाए तब पता चलता है कि ओहोहो! चंदूभाई क्रोध करते हैं। वह हमें पसंद नहीं आता। चंदूभाई ऐसा करते हैं, वह चंदूभाई का दोष पकड़ में आया। पकड़ में आते हैं या नहीं पकड़ में आते दोष सारे?

प्रश्नकर्ता : पकड़ में आते हैं। पर दादा, आपका वाक्य अच्छा लगा था। दोष दिखा और गया। दिख गया इसलिए गया।

दादाश्री : दोष दिखा इसलिए गया। इसीलिए तो शास्त्रकारों ने कहा, महावीर भगवान ने कहा था कि तू दोष को देख ले। दोष में एकाग्रता होने से, अर्थात् देखा नहीं और अँधा बना रहा, इसलिए दोष तुझसे चिपटा। अब उस दोष को तू देखेगा तो चला जाएगा। अब वह दावा क्या करता है? वह पुद्गल हम से कहता है कि आप तो शुद्धात्मा हो गए, मेरा क्या? तब हम कहें, ‘अब मेरा और तेरा क्या लेना-देना?’ तब कहे, ‘नहीं, ऐसा नहीं चलेगा। ‘आपने मुझे बिगाड़ा था, यह तो जैसा था, वैसा कर दो। वर्ना आपका छुटकारा नहीं होगा।’ तब कहें, ‘छुटकारा किस तरह होगा?’ तब कहें ‘जिस अज्ञानता से आपने देखा था, उससे हम आपके साथ बँध गए और अब ज्ञान से देखो, तो हम

(पृ.९९)

छूट जाएँगे।’ अर्थात् ज्ञान से खत्म किए बिना वे दोष जाएँगे नहीं। अज्ञान से बाँधे हुए, ज्ञानपूर्वक छूटेंगे। इसलिए हमने देखे। ज्ञान अर्थात् ‘देखना’। ‘देखा’ उतना छूट गया, फिर भले ही वह कैसा भी हो। और फिर भी अक्रम विज्ञान है... क्रमिक में सारा मार्ग समझदारी वाला होता है। छोड़ते-छोड़ते आया होता है और यहाँ तो छोड़ते-छोड़ते नहीं आया है। इसलिए किसी को दु:ख हो, ऐसा बोल गए हों चंदूभाई, तो चंदूभाई से कहना कि, ‘प्रतिक्रमण करो, क्यों ऐसा करते हो?’

प्रश्नकर्ता : शूट एट साईट, तुरंत ही?

दादाश्री : हाँ, पूरा दिन नहीं, पर वह तो हमें लगे, ‘यह दोष, यह सामने वाले को दु:ख हो ऐसा बोला है’ उसका प्रतिक्रमण करना और वह करते हैं हमारे महात्मा। शुद्धात्मा को प्रतिक्रमण क्या करना? जो अतिक्रमण करता ही नहीं है, उसे प्रतिक्रमण क्या करना? यह तो जिसने किया उसे कहना कि आप करो। पूरा सिद्धांत याद रखना पड़ेगा यह तो। और रहता भी है, लिखे तो भूल जाए। पूरा सिद्धांत याद रहता है न? हाँ... उनसे उम्र के कारण थोड़ा कम आया जाता है फिर भी सब याद, लक्ष्य में रहने वाला है सबकुछ। हमें तो काम से काम है न? छूटने से काम है न हमें?

प्रश्नकर्ता : मुझे तो आपकी एक बात बहुत अच्छी लगी थी, वहाँ औरंगाबाद में बोले थे।

दादाश्री : हाँ।

प्रश्नकर्ता : कि मेरे प्रतिक्रमण तो दोष होने से पहले हो जाते हैं। दोष होने से पहले आपके प्रतिक्रमण पहुँचते हैं।

दादाश्री : हाँ, ये प्रतिक्रमण शूट ओन साइट। दोष होने से पहले शुरू ही हो जाते हैं अपने आप। हमें भी पता ही नहीं चलता कि कहाँ से खड़ा हो गया! क्योंकि जागृति का फल है।

आवरण टूटने से दोष दिखें

भूलें नहीं दिखती थीं। आत्मा प्रकट नहीं हुआ था, इसलिए भूलें

(पृ.१००)

नहीं दिखती थीं। यह तो अब इतनी सारी भूलें दिखती हैं, उसका क्या कारण है? आत्मा प्रकट हुआ है।

प्रश्नकर्ता : शुरूआत में हमें जब भूलें नहीं दिखती थीं, तब क्या हमें आत्मा प्रकट नहीं हुआ था?

दादाश्री : हुआ था। पर धीरे-धीरे ये भूलें दिखें ऐसा मैं करता था, आवरण तोड़ता था।

जितने दोष उत्पन्न होते हैं, उतने दोष दिखे बिना जाते नहीं, यदि दिखे बिना गए तो यह अक्रमविज्ञान नहीं है। ऐसा यह विज्ञान है। विज्ञान है यह तो!

दोष प्रतिक्रमण से धुलते हैं। किसी के साथ टकराव में आए, इसलिए फिर से दोष दिखने लगते हैं और टकराव नहीं होता तो दोष ढँका हुआ रहता है। पाँच सौ-पाँच सौ दोष रोज़ के दिखाई देने लगें, तो समझना कि अब पूर्णाहुति पास में आ रही है।

प्रश्नकर्ता : पर दादा, यह ज्ञान लेने के बाद, अपनी जागृति ऐसी आती है, अपने खुद के दोष दिखते हैं, खूब सारे पाप दिखते हैं और उसकी घबराहट होती है।

दादाश्री : उसकी घबराहट रखने से क्या फ़ायदा? देखने वाला, होली देखने वाला मनुष्य जलता है क्या!

प्रश्नकर्ता : ना।

दादाश्री : होली जलती है लेकिन होली देखने वाला जलता है क्या? वह तो चंदूभाई को होता है तब कंधा थपथपाना कि ‘भाई, होता है ऐसा। किया है इसलिए हो रहा है,’ कहना।

प्रश्नकर्ता : पर वह गर्मी लगती है न दूर से भी, दादा!

दादाश्री : हाँ, लगती है, लगती है।

प्रश्नकर्ता : इतने सारे पाप किए हैं दादा, कब छुटकारा मिलेगा, ऐसा होता है!

(पृ.१०१)

दादाश्री : हाँ, वे बेहिसाब, अपार दोष किए हुए हैं!

प्रश्नकर्ता : और वे जब दिखते हैं, तब ऐसा होता है कि ये दादा नहीं मिले होते तो हमारा क्या होता?

दादाश्री : पाप खुद का दिखा, तब से ही समझो कि अपनी कोई डिग्री हुई है! इस जगत् में कोई खुद का पाप देख नहीं सकता है। कभी भी दोष देख नहीं सकता है। दोष देखे तो भगवान हो जाए।

प्रश्नकर्ता : पत्नी के, किसी के दोष नहीं दिखे, ऐसा करो।

दादाश्री : नहीं, दोष तो दिखेंगे, वे दिखते हैं इसलिए तो आत्मा ज्ञाता है और वे ज्ञेय हैं।

प्रश्नकर्ता : पर दोष दिखें नहीं, ऐसा नहीं हो सकता?

दादाश्री : नहीं! नहीं दिखें तब तो आत्मा चला जाएगा, आत्मा है तो दोष दिखते हैं। पर दोष नहीं हैं, ज्ञेय हैं वे।

वीतरागों की निर्दोष दृष्टि

वीतरागों की कैसी दृष्टि! किस दृष्टि से उन्होंने देखा कि जगत् निर्दोष दिखा! हें साहब! हम वीतरागों से पूछें कि साहब, ‘आपने तो कैसी, किन आँखों से ऐसा देखा कि यह जगत् आपको निर्दोष दिखा?’ तब वे कहेंगे, ‘वह ज्ञानी को पूछना, हम आपको जवाब देने नहीं आएँगे।’ डिटेल में, ब्यौरेवार ज्ञानी से पूछना। मैंने देखा, वह उन्होंने तो देखा, पर मैंने भी देखा वह!

प्रश्नकर्ता : अर्थात् दादा, निर्दोष जानना, निर्दोष मानना नहीं ऐसा? और दोषित जानना ऐसा?

दादाश्री : अपने ज्ञान में दोषित नहीं, निर्दोष ही जानना है। दोषित कोई होता ही नहीं। दोषित भ्राँत दृष्टि से है। भ्राँत दृष्टि दो भाग करती है। यह दोषित है और यह निर्दोष है। यह पापी है और यह पुण्यवान है। और इस दृष्टि से एक ही है कि निर्दोष ही है। और

(पृ.१०२)

वहाँ ताला लगा दिया। बुद्धि को, वह बोलने का स्कोप ही नहीं रहा। बुद्धि को दखल देने का स्कोप ही नहीं रहा। बुद्धि बहन वहाँ से वापस लौट जाती हैं कि ‘अपना अब चलता नहीं। घर चलो।’ वह कोई थोड़े ही कुँवारी है? विवाहित थी इसलिए उसके वहाँ जाती है वापस। ससुराल चली जाती है बहन!

दोषित दृष्टि को भी तू ‘जान’

प्रश्नकर्ता : यानी दादा, दोषित भी नहीं मानना, निर्दोष भी नहीं मानना, पर निर्दोष जानना।

दादाश्री : जानना सबकुछ है। दोषित नहीं जानना है। दोषित जानें, वह तो हमारी दृष्टि बिगड़ी है और दोषित के साथ ‘चंदूभाई’ जो करते हैं, वह ‘हमें’ देखते रहना है। ‘चंदूभाई’ को ‘हमें’ रोकना नहीं है।

प्रश्नकर्ता : वह क्या करता है उसे देखते रहना है?

दादाश्री : बस, देखते रहो। क्योंकि वह दोषित के साथ दोषित अपने आप माथापच्ची कर रहा है, पर यह ‘चंदूभाई’ भी निर्दोष है और वह भी निर्दोष है। दोनों लड़ते हैं, पर दोनों ही निर्दोष हैं।

प्रश्नकर्ता : मतलब, चंदूभाई दोषित हो, तब भी उसे दोषित नहीं मानना है। उसे दोषित की तरह जानना है?

दादाश्री : जानना है। वह तो जानना ही चाहिए न?

प्रश्नकर्ता : और सूक्ष्म दृष्टि से वह निर्दोष ही है।

दादाश्री : सूक्ष्म दृष्टि से वह निर्दोष ही है, पर चंदूभाई का आपको जो कुछ करना हो वह करना। बाकी जगत् के संबंध में निर्दोष मानने का मैं कहता हूँ। चंदूभाई को आपको टोकना पड़ेगा कि ‘ऐसे चलोगे तो नहीं चलेगा।’ उसे शुद्ध फूड देना है। अशुद्ध फूड से यह दशा हुई है, इसलिए शुद्ध फूड से इसका निबटारा लाने की ज़रूरत है।

प्रश्नकर्ता : वह कुछ आड़ा-टेढ़ा करे, तो प्रतिक्रमण करने को कहना पड़ेगा?

(पृ.१०३)

दादाश्री : हाँ, वह सब कहना पड़ेगा। ‘आप नालायक हो’ कहना। ऐसा भी कह सकते हैं। अकेले चंदूभाई के लिए, अन्य के लिए नहीं। क्योंकि आप की फाइल नंबर वन, आप की खुद की, दूसरों के लिए नहीं।

प्रश्नकर्ता : यानी फाइल नंबर वन दोषित हो तो उसे दोषित मानें, उसे डाँटें?

दादाश्री : सभी तरह से डाँटना। प्रिज्युडिस भी रखना उसके प्रति कि, ‘तू ऐसा ही है, मैं जानता हूँ।’ उसे डाँटना भी, क्योंकि हमें उसका निबेड़ा लाना है अब!

करना नहीं है, मात्र देखना है

प्रश्नकर्ता : पर ये दूसरे कोई व्यक्ति हों, फाइल नंबर दसवीं, उसे दोषित नहीं देखना है। वह निर्दोष है ऐसा?

दादाश्री : निर्र्दोष! अरे, अपनी फाइल नंबर टू भी निर्दोष है! क्योंकि गुनाह क्या थे? कि सभी को दोषित देखा और इस चंदूभाई का दोष देखा नहीं। उस गुनाह का रिएक्शन आया यह। यानी गुनहगार पकड़ा गया। दूसरे गुनहगार हैं ही नहीं।

प्रश्नकर्ता : वह उल्टा देखा है।

दादाश्री : उल्टा ही देखा है। अब सीधा देखा। बात ही समझनी है। कुछ करना नहीं है। वीतरागों की बात समझनी ही होती है, करना नहीं होता कुछ। वीतराग ऐसे समझदार थे! यदि करने का हो तो मनुष्य थक जाए बेचारा!

प्रश्नकर्ता : और करे, तो वापस बंधन आए न?

दादाश्री : हाँ, करना वही बंधन! कुछ भी करना, वह बंधन है। माला फिराई, ‘मैंने किया’ इसलिए बंधन। पर वह सभी के लिए नहीं है। बाहर वालों के लिए मैं कहूँगा कि माला फिराना। क्योंकि उनके वहाँ वह व्यापार है उनका। दोनों के व्यापार अलग हैं।

(पृ.१०४)

प्रश्नकर्ता : खुद की प्रकृति दिखाई देने लगी है, सबकुछ दिखता है, मन-बुद्धि-चित्त-अहंकार सब दिखता है पर उसकी स्टडी किस तरह करनी? उसके सामने ज्ञान कैसे काम करना चाहिए? कैसी जागृति रहनी चाहिए?

दादाश्री : प्रकृति तो हमें पता ही चल जाती है। उसका हमें पता ही चल जाता है कि प्रकृति ऐसी ही है और कम पता चला हो तो दिनोंदिन समझ बढ़ती जाएगी! पर अंत में ‘फुल’ समझ में आएगी। इसलिए हमें सिर्फ करना क्या है कि ये चंदूभाई क्या कर रहे हैं, वह हमें देखते रहने की ज़रूरत है, वही शुद्ध उपयोग है।

प्रश्नकर्ता : खुद की प्रकृति को देखना होता है, उसमें देख नहीं पाएँ और चूक जाएँ तो वहाँ कौन सी चीज़ काम कर रही होती है?

दादाश्री : आवरण। उस आवरण को तोड़ना पड़ेगा वह तो।

प्रश्नकर्ता : वह किस तरह टूटे?

दादाश्री : अपने यहाँ विधियों से टूटता जाता है दिनोंदिन, वैसे-वैसे दिखता जाता है। यह तो सब आवरणमय ही था, कुछ दिखता नहीं था, वह धीरे-धीरे दिखने लगा है। वह आवरण देखने नहीं देते हैं सबकुछ। अभी सारे दोष नहीं दिखेंगे। कितने दिखाई देते हैं? दस-पंद्रह दिखाई देते हैं?

प्रश्नकर्ता : बहुत दिखते हैं।

दादाश्री : सौ-सौ?

प्रश्नकर्ता : चेन चलती रहती है।

दादाश्री : फिर भी पूरे नहीं दिखते। आवरण रहते हैं न फिर! बहुत दोष होते हैं। हमें, विधि करते समय भी हम से सूक्ष्मतर और सूक्ष्मतम दोष होते रहते हैं न, जो सामने वाले को नुकसान नहीं करे ऐसा, पर वह दोष हम से होता है, वह पता चलता है। तुरंत हमें उसे साफ करना पड़ता है, चलेगा ही नहीं न? दिखें उतने तो साफ करने ही पड़ते हैं।

(पृ.१०५)

गेहूँ खुद के ही बीनो न!

प्रश्नकर्ता : दूसरों की प्रकृति देखने की जो आदत नहीं होती, उसे क्या कहते हैं?

दादाश्री : दूसरों की प्रकृति देखो तो दोष नहीं निकालना चाहिए। समझना ज़रूर है कि ‘यह दोष है’ पर हमें निकालना नहीं चाहिए। वे अपने खुद के दोष देखना सीखे हैं, तब फिर हमें निकालने की ज़रूरत है?

प्रश्नकर्ता : नहीं, वे अपने दोष निकालें तो हमें क्या करना चाहिए?

दादाश्री : वे आपके दोष निकालें और फिर आप यदि उनके निकालने जाएँ तो बढ़ता जाएगा दिनोंदिन। उसके बजाय आप बंद कर दें तो किसी दिन उसे विचार आएगा कि ‘ये कुछ थकते नहीं हैं, मुझे अकेले को थकाते रहते हैं।’ इससे वे थककर बंद हो जाएँगे। दूसरों का दोष निकालना, वह तो टाइम यूज़लेस(बेकार) बिताने जैसा है। खुद के अपार दोषों का ठिकाना नहीं और दूसरों के दोष देखता है। अरे भाई! तू तेरे गेहूँ बीन न। दूसरों के गेहूँ बीनता है और यहाँ घर पर तेरे बगैर बीने हुए ही पीसा करता है! क्या?

प्रश्नकर्ता : पर ऐसा होता है दादा, कि हमारे गेहूँ तो बीने हुए होते हैं, पर हम बीन रहे हों और व्यवहार जिनके साथ हो, तो वे आकर अपने वाले में फिर बगैर बीने डाल जाते हों और हम कहें कि भाई, ऐसा नहीं करते।

दादाश्री : बगैर बीने हुए कब डालता है, कि जब हमारे बीने बगैर के हों न, तभी डालता है। वे बीने हुए हों, तो नहीं डालते। वे तो कानून हैं सारे।

यह तो इन्द्रियगम्य ज्ञान...

प्रश्नकर्ता : नहीं, पर दादा, हम समभाव से निकाल कर रहे

(पृ.१०६)

होते हैं किसी वस्तु का कि, ‘भाई! यह वस्तु अच्छी नहीं है, कि इससे इसमें क्लेश होता है, कि इसमें इसके कारण कुछ व्यवहार बिगड़ता है।’ पर सामने वाला समभाव से निकाल करने के बजाय ऐसा कहे कि, ‘मैं तो ऐसा ही करूँगा। तुझसे हो सके वह कर ले।’ तो फिर वहाँ किस तरह व्यवहार करना चाहिए?

दादाश्री : ऐसा है न, यह सब बुद्धि की शरारत है। जहाँ परिणाम ही, जो परिणाम बदले नहीं, वहाँ देखते रहना कि परिणाम क्या आता है वह! सामने वाले की प्रकृति देखते रहना है। अब यह शरारत कौन करता है?

प्रश्नकर्ता : पुद्गल?

दादाश्री : बुद्धि। नहीं तो परिणाम तो सब जो हैं उन्हें देखते रहना है हमें। देखा तो हम आत्मा हो गए और यदि दोषों को देखोगे तो प्रकृति हो जाओगे।

प्रश्नकर्ता : दादा, लोग ऐसा कहते हैं कि, ‘हम तो आपकी प्रकृति की भूल निकालते हैं और हम ‘उसे’ देखते हैं कि यह आपकी भूल निकालता है।’

दादाश्री : नहीं, भूल निकालने वाला देख नहीं सकता और देखने वाला भूल निकालता नहीं। ये तो कानून होते हैं न?

प्रश्नकर्ता : मतलब आप कहते हैं कि, भूल निकालकर कहें कि ‘हम देखतें हैं, हम भूल निकालते हैं, देट मीन्स(उसका मतलब)...

दादाश्री : कोई भूल निकालने वाला देख नहीं सकता है और देखने वाला हो तो भूल निकाल नहीं सकता। उस देखने में और इस देखने में फर्क है। वह इन्द्रियगम्य देखने वाला और यह अतिन्द्रिय है, यह ज्ञानगम्य देखने वाला है। इसलिए उसे ‘देखा’ नहीं कहा जा सकता।

प्रश्नकर्ता : यदि किसी की भी भूल निकाली, देट मीन्स...

(पृ.१०७)

दादाश्री : किसी की भी भूल निकालनी वह तो सबसे बड़ा गुनाह है क्योंकि यह जगत् निर्दोष है।

और यह ज्ञानगम्य कहलाता है

प्रश्नकर्ता : पर दादा, हम इसे डिस्चार्ज की तरह देखते हैं कि यह देखो चंदूभाई गलत भूल निकाल रहे हैं किसी की, उसे देखता है, वह क्या है तब?

दादाश्री : वह चंदूभाई भूल निकालते समय, जो देखते हैं, वह बुद्धिगम्य है।

प्रश्नकर्ता : यानी यह चंदूभाई, चंदूभाई को देखते हैं, वह बुद्धिगम्य है?

दादाश्री : हाँ, वह बुद्धिगम्य है। और वह दूसरा ज्ञानगम्य कब कहलाता है कि किसी की भूल निकाले नहीं और देखे तब ज्ञानगम्य कहलाता है।

प्रश्नकर्ता : हाँ, पर दादा, दैनिक व्यवहार में कभी कहना तो पड़ता है कि ‘यह चीज़ ठीक नहीं है।’

दादाश्री : पर ‘कहना पड़ता है’ वह नियम नहीं है। कह दिया जाता है, ऐसी निर्बलता होती ही है। हम भी किसी को, मेरे साथ रहते हों न, उसे कहते हैं कि ‘यह किसलिए भूल की फिर से?’ ऐसा कहते हैं। पर कह दिया जाता है, क्या समझे? ऐसी थोड़ी निर्बलता भरी पड़ी होती है सभी में। मगर ऐसा हमें समझना चाहिए कि ‘यह भूल हो गई, ऐसा नहीं होना चाहिए।’

उसे खुद ऐसा मानना चाहिए कि यह गलत है, तो भूलें निकालने की आदत, वह धीरे-धीरे डिस्चार्ज होती-होती खतम हो जाएगी। वह डिस्चार्ज हो रहा है सब।

खुद की भूलों को खुद ही डाँटे

हर एक अड़चन जो आती है न, पहले सहन करने की ताकत

(पृ.१०८)

आती है, बाद में अड़चनें आती हैं। नहीं तो मनुष्य वहीं का वहीं खतम हो जाए। मतलब कानून ऐसे हैं सब।

प्रश्नकर्ता : दादा, वह ‘व्यवस्थित शक्ति’ करती है?

दादाश्री : उसका नाम ही ‘व्यवस्थित’। इसलिए ऐसे संयोग खड़े होकर फिर है तो, शक्ति भी उत्पन्न होगी, नहीं तो वह मनुष्य क्या से क्या हो जाए! इसलिए किसी भी प्रकार से घबराने का कोई कारण नहीं है। अपने तो दादा हैं और मैं हूँ, बस, दूसरा कुछ नहीं है इस दुनिया में। दादा हैं और मैं हूँ, दो ही। दादा जैसी दरअसल खुमारी रहनी चाहिए। कोई बाप भी ऊपरी नहीं है ऐसी। ऊपरी के भी ऊपरी कहा, दादा को!

प्रश्नकर्ता : दादा, हमें तो हमारी भूलें अभी भी डराती हैं न?

दादाश्री : हाँ, डराएँगी।

प्रश्नकर्ता : हाँ, आपकी स्थिति तक पहुँचते-पहुँचते तो...

दादाश्री : भूलें डराती हैं न! फिर भी हम समझते हैं न, कि यह कौन डराता है? ऐसा हम जानते हैं। पर मूल तो हैं, दादा ही हैं न हम? उसमें अंतर नहीं है न? एक के एक ही हैं न? हमारे भागीदार, वे एक बार मुझसे कहते हैं, ‘दो-तीन अड़चनें अभी आई हैं, वे बड़ी भारी अड़चनें आई हैं।’ मैंने कहा, ‘जाओ, छत पर जाकर बोलो कि भाई, दो-तीन अड़चनें आई हैं और दादा बैंक खोला है हमने, इसलिए दूसरे जो हों वो आ जाओ ताकि पेमेन्ट कर दूँ, कहना। क्या कहा? पहले बैंक नहीं था, इसलिए मुझे परेशानी थी। अब बैंक है मेरे पास, दादा बैंक। जितनी भी हों, वे सब मिलकर आओ, कहना।’ वे भी छत पर जाकर बोले सही, मेरे शब्द। ऊँची आवाज़ में बोले कि, ‘जो हों, वो सब आ जाओ। मुझे पेमेन्ट करना है।’ हाँ, भीतर हाय-हाय... जूँ पड़ें तो ऐसे कोई धोती निकालने से चलता होगा क्या? इसलिए ऐसा कहना चाहिए कभी। अपनी छत है ही न? तो ‘आ जाओ, पेमेन्ट कर दें’, कहना।

(पृ.१०९)

तब संपूर्ण हुआ निकाल

आप ढीले हो जाएँ तो सभी चीज़ें अधिक चिपट जाती हैं। और सभी फाइलों का निकाल हो गया, तब फिर परमात्मा ही हो। आपको फाइलें हैं न?

प्रश्नकर्ता : हाँ, हाँ।

दादाश्री : ऐसा? तब ठीक है। फाइलें हैं, तभी झंझट है न!

प्रश्नकर्ता : फाइलों का निकाल कम्पलीट हो गया, ऐसा कब कहलाता है? फाइल पूर्णतया निपट गई, उसका निकाल हो गया ऐसा कब पता चलता है? ऐसा कब कहलाता है?

दादाश्री : हमारे मन में उसके प्रति नहीं रहे और उसके मन में हमारे प्रति कुछ नहीं रहे, मतलब कम्पलीट निकाल हो गया।

प्रश्नकर्ता : उसके मन में नहीं रहना चाहिए।

दादाश्री : रहे तो हमें हर्ज नहीं। हमारे मन में बिलकुल क्लियर हो जाए, तो हो गया।

प्रश्नकर्ता : यानी हमें उसके लिए विचार भी नहीं आए, ऐसा?

दादाश्री : हाँ।

प्रश्नकर्ता : विचार आने भी बंद हो जाएँ, उसके लिए?

दादाश्री : हाँ।

कहाँँ तक मन स्वच्छ हुआ

एकाध महात्मा के लिए हमारे विचार उलट-फेर हो गए। भीतर विचार हमें आते नहीं, फिर भी आने लगे उस व्यक्ति के बारे में, इसलिए मैंने जाना कि अंदर यह फिर से नया क्या हुआ? किस कारण से उसके बारे में ये विचार आते हैं? अच्छा आदमी है और वह बिगड़ गया है कि क्या है यह? और फिर भीतर से जवाब मिला कि उसके उदय टेढ़े हैं। उसके उदय उसके फेवरेबल नहीं हैं। इसलिए ऐसा

(पृ.११०)

दिखता है। इसलिए फिर हम कोमल मनोभाव रखते हैं। क्योंकि मनुष्य के उदय फेवरेबल होते हैं और किसी के फेवरेबल नहीं भी होते हैं। ऐसा होता है न?

प्रश्नकर्ता : होता है।

दादाश्री : वह तो जगत् में होता ही है। पर यह तो हमें टच होता हो ऐसी बात आए, तो हम एकतरफ मनोभाव कोमल कर देते हैं।

प्रश्नकर्ता : मतलब उस तरह की कोमल? वह किस तरह से कर देते हैं, कोमल मनोभाव?

दादाश्री : यानी जैसे दिखते हैं वैसे हम नहीं मानते फिर। वे तो अच्छे ही हैं। ऐसा समझते हैं।

प्रश्नकर्ता : तब व्यवहार में आप फिर क्या करते हैं?

दादाश्री : निर्दोष है न! मैंने तो व्यवहार निर्दोष ही देखा हुआ है। दोषित क्यों दिखता है? इसलिए देयर आर कॉज़ेज़ (वहाँ कोई कारण हैं)। निर्दोष ही देखा है सब। बुद्धि से दोषित है जगत् और ज्ञान से जगत् निर्दोष है। तुम्हें हसबेन्ड निर्दोष नहीं दिखते?

प्रश्नकर्ता : दिखते हैं न!

दादाश्री : उसके बाद अब फिर गलतियाँ निकालें, उसका क्या अर्थ है? यह भूल तो सिर्फ यह पुतला, उस पुतले की भूलें निकाल रहा हो, वह हमें देखते रहना है। तब यह प्रकृति देखनी है।

तब तक ऊपरी भीतर वाले भगवान

इसमें अन्य किसी का है ही नहीं, वहाँ अपनी ही भूलों का फल हमें भुगतना है। मालिकी अपनी, ऊपरी भी कोई नहीं है, भीतर बैठे हैं वे भगवान ही हमारे ऊपरी। शुद्धात्मा वही भगवान। बिना फाइल के शुद्धात्मा, वे भगवान कहलाते हैं। और फाइल वाले शुद्धात्मा, वे शुद्धात्मा कहलाते हैं। देखो न, आपके फाइलें हैं न? आराम से समझ गए न तुरंत कि फाइल वाले शुद्धात्मा, वे शुद्धात्मा कहलाते हैं।

(पृ.१११)

प्रश्नकर्ता : आप जैसी स्थिति प्राप्त करनी है, दादा। सारी फाइलें हों फिर भी छूएँ नहीं।

दादाश्री : मतलब अब फाइल तक आए हैं। अब फाइल का निबटारा कर देना है बस, फिर पूरा हो गया। सारा काम समाप्त हो जाता है। न तो हिमालय में तप करने पड़े और न ही उपवास करने पड़े। हिमालय में तो तप अनंत जन्मों तक करें तब भी कुछ मिलता नहीं। उल्टे रास्ते, ज़रा सा भी उल्टा रास्ता हो, पर उस रास्ते गए तो मूल जगह नहीं आएगी। करोड़ों वर्ष तक घूमते रहें तब भी नहीं आएगी!

भिन्नता उन दोनों के जानने में

प्रश्नकर्ता : प्रकृति के गुण-दोष जो देखता है, वह देखने वाला कौन है?

दादाश्री : वही प्रकृति है।

प्रश्नकर्ता : प्रकृति का कौन-सा भाग देखता है?

दादाश्री : वह बुद्धि का भाग है, अहंकार का भाग है।

प्रश्नकर्ता : तो फिर इसमें मूल आत्मा का क्या काम है?

दादाश्री : मूल आत्मा को क्या? उसे लेना-देना ही नहीं है न!

प्रश्नकर्ता : मूल आत्मा का देखना-जानना किस तरह होता है?

दादाश्री : वह निर्लेप होता है और यह तो लेपित है।

प्रश्नकर्ता : यानी अच्छा-बुरा देखता है, वह लेपित भाग है?

दादाश्री : हाँ, वह सब लेपित भाग!

प्रश्नकर्ता : इस बुद्धि ने प्रकृति का अच्छा-बुरा देखा, वह जो देखता है, जानता है, वह खुद है?

(पृ.११२)

दादाश्री : प्रकृति का दोष देखे, तो वह प्रकृति हो गई। आत्मा नहीं है वहाँ पर। आत्मा ऐसा नहीं है। उसे किसी का दोष नहीं दिखता है।

प्रश्नकर्ता : एक-दूसरे के दोषों की बात नहीं करते, खुद खुद के दोषों की बात करते हैं।

दादाश्री : उस समय प्रकृति ही होती है। पर वह ऊँची प्रकृति है, आत्मा को प्राप्त कराने वाली है।

प्रश्नकर्ता : और प्रकृति को निर्दोष देखता है, वह कौन देखता है?

दादाश्री : जो प्रकृति को निर्दोष देखता है, वही परमात्मा है, वही शुद्धात्मा है। दूसरे किसी में हाथ ही नहीं डालता न!

प्रश्नकर्ता : निर्दोष देखने में उसे कैसा आनंद मिलता है?

दादाश्री : वह आनंद, वह मुक्तानंद कहलाता है न!

प्रश्नकर्ता : यानी परिणाम के बारे में कुछ बोलता ही नहीं।

दादाश्री : परिणाम को, प्रकृति के परिणाम को देखता ही नहीं।

दो प्रकार के परिणामिक ज्ञान हैं। एक है, वह प्रकृति का परिणामिक ज्ञान है और एक आत्मा का परिणामिक ज्ञान है। प्रकृति को आप निर्दोष देखो तो वह परिणामिक ज्ञान आप पास हो गए। दोषित देखा अर्थात् आपने उलझन खड़ी करी।

प्रश्नकर्ता : पर वह जैसा है वैसा देखने में कौन-सा स्वाद चख रहा है?

दादाश्री : वह तो उसने आंनद चख लिया होता है न, पर वह क्या कहता है, मुझे आनंद की कुछ पड़ी नहीं है, मुझे तो यह जैसा है वैसा देखने की पड़ी है। इसलिए हम क्या कहते हैं कि ‘जैसा है वैसा’ देखो न! वह सबसे अंतिम बात है!

(पृ.११३)

प्रश्नकर्ता : किस ज्ञानप्रकाश के आधार पर वह दोषित नहीं देखता?

दादाश्री : वह केवलज्ञान के अंशो से दोषित नहीं देखता।

प्रश्नकर्ता : वह कैसा ज्ञान?

दादाश्री : वह केवलज्ञान।

उससे अंतराय...

प्रश्नकर्ता : संपूर्ण आनंद कब बरतता है? सभी दोष जाने के बाद ही न?

दादाश्री : आनंद तो बरतता ही है। पर दोष हैं, वे अंतराय करते हैं। इसीलिए उसे लाभ नहीं लेने देते। आनंद तो अभी भी है, पर गोठवणी (प्रबंध) करते नहीं है न हम।

संपूर्ण दोष रहित दशा दादा की

खुद के दोष देखने में सुप्रीम कोर्ट वाला भी नहीं पहुँच पाए, वहाँ तो पहुँचता ही नहीं है जजमेन्ट। वहाँ तो खुद का इतना भी दोष नहीं देख सकता है। यह तो गाड़ियाँ भर-भर के दोष जाते रहते हैं। यह तो स्थूल, मोटे आवरण ज़्यादा हैं इसलिए दोष दिखते नहीं हैं। और इतना, ज़रा-सा बाल जितना दोष होता है न, तुरंत पता चल जाता है कि यह दोष हुआ। यानी वह कैसी कोर्ट होगी अंदर? वह जजमेन्ट कैसा? फिर भी किसी के साथ मतभेद नहीं है। गुनहगार के साथ भी मतभेद नहीं है। दिखता ज़रूर है गुनहगार, फिर भी मतभेद नहीं है। क्योंकि वास्तव में वह गुनहगार है ही नहीं। वह तो ‘फ़ॉरेन’ में गुनहगार है, और हमें तो ‘होम’ के साथ लेना-देना है। इसलिए हमें मतभेद होता नहीं है न!

दादा के स्थूल-सूक्ष्म दोनों दोष चले गए हैं। दूसरे जो सूक्ष्मतर और सूक्ष्मतम दोष रहे हैं, वे जगत् को बिलकुल हानिकारक या लाभदायक नहीं होते हैं। जगत् को स्पर्श नहीं करें, ऐसे दोष होते हैं।

(पृ.११४)

स्थूल दोष यानी आप मेरे साथ चार महीने रहो न, तब भी आपको एक भी दोष नहीं दिखेगा, चौबीस घंटे रहो तो भी।

ये नीरू बहन हैं, वे निरंतर सेवा में रहते हैं, पर एक दोष उन्हें नहीं दिखता है। उन्हें निरंतर साथ ही रहना होता है। यदि ज्ञानी पुरुष में दोष है, तो जगत् निर्दोष किस तरह से हो सकता है?

जागृति भूलों के सामने, ज्ञानी की

हमारी जागृति ‘टोप’ पर की होती है। आपको पता भी न चले, पर आपके साथ बोलते समय जहाँ हमारी भूल होती है, वहाँ हमें तुरंत पता चल जाता है और तुरंत उसे धो डालते हैं। उसके लिए यंत्र रखा हुआ होता है, जिससे तुरंत ही धुल जाता है। हम खुद निर्दोष हुए हैं और पूरे जगत् को निर्दोष ही देखते हैं। अंतिम प्रकार की जागृति कौन-सी कि जगत् में कोई दोषित ही नहीं दिखे, वह। हमें ज्ञान के बाद हज़ारों दोष रोज़ के दिखने लगे थे। जैसे-जैसे दोष दिखते जाते हैं, वैसे-वैसे दोष घटते जाते हैं और जैसे-जैसे दोष घटते हैं, वैसे-वैसे जागृति बढ़ती जाती है। अब हमारे केवल सूक्ष्मतर और सूक्ष्मतम दोष बचे हैं, जिन्हें हम ‘देखते’ हैं और ‘जानते’ हैं। वे दोष किसी को बाधारूप नहीं होते, पर काल के कारण वे रुके हुए हैं। और उससे ही 360 डिग्री का ‘केवलज्ञान’ रुका हुआ है। और 356 डिग्री पर आकर रुक गया है! पर हम आपको पूरा 360 डिग्री का ‘केवलज्ञान’ एक घंटे में ही देते हैं, पर आपको भी वह पचेगा नहीं। अरे, हमें ही नहीं पचा न! काल के कारण चार डिग्री कम रह गया है! अंदर पूर्ण रूप से 360 डिग्री रियल है और रिलेटिव में 356 डिग्री है। इस काल में रिलेटिव पूर्णता तक जाया जा सके, वैसा नहीं है। पर हमें उसमें हर्ज नहीं है। क्योंकि अंदर अपार सुख बरतता रहता है।

इसलिए ‘हमारा’ न ऊपरी कोई

जिसे जितनी भूलें नहीं दिखतीं, उसको उतनी वे भूलें ऊपरी

(पृ.११५)

हैं। जिसकी सभी भूलें खतम हो जाएँ, उसका कोई ऊपरी ही नहीं। मेरा कोई ऊपरी है ही नहीं, इसीलिए मैं सब का ऊपरी हूँ, ऊपरी का भी ऊपरी! क्योंकि हम में स्थूल दोष तो होते ही नहीं हैं। सूक्ष्म दोष भी चले गए हैं। सूक्ष्मतर और सूक्ष्मतम दोष होते हैं, उनके हम संपूर्ण ज्ञाता-दृष्टा होते हैं। भगवान महावीर भी यही करते थे।

इसलिए ‘ज्ञानी’ देहधारी परमात्मा

ज्ञानी पुरुष में देखी जा सकें, वैसी स्थूल भूलें नहीं होती हैं। इन दोषों की आपको परिभाषा दूँ। स्थूल भूल यानी क्या? मेरी कोई भूल होती हो, तो जो जागृत मनुष्य हो, वह समझ जाएगा कि इनसे कोई भूल हो गई। सूक्ष्म भूल यानी कि यहाँ पच्चीस हज़ार लोग बैठे हों, तो मैं समझ जाऊँगा कि दोष हुआ। पर उन पच्चीस हज़ार में से मुश्किल से पाँचेक ही सूक्ष्म भूल को समझ सकेंगे। सूक्ष्म दोष तो बुद्धि से भी दिख सकते हैं, जबकि सूक्ष्मतर और सूक्ष्मतम भूलें, वे ज्ञान से ही दिखती हैं। सूक्ष्मतर और सूक्ष्मतम दोष मनुष्य को नहीं दिखते हैं। देवी-देवताओं को भी, अवधिज्ञान से देखें तभी दिखते हैं। फिर भी वे दोष किसी को नुकसान नहीं करते हैं, वैसे सूक्ष्मतर और सूक्ष्मतम दोष हम में रहे हुए हैं। और वे भी इस कलिकाल की विचित्रता के कारण!

‘ज्ञानी पुरुष’ खुद देहधारी रूप में परमात्मा ही कहलाते हैं। जिनमें एक भी स्थूल भूल नहीं है और एक भी सूक्ष्म भूल नहीं है।

भीतर से भगवान दिखाएँ दोष...

जगत् दो तरह की भूलें देख सकता है, एक स्थूल और एक सूक्ष्म। स्थूल भूलें बाहर की पब्लिक भी देख सकती है और सूक्ष्म भूलें बुद्धिजीवी देख सकते हैं। ये दो भूलें ‘ज्ञानी पुरुष’ में नहीं होती है! फिर सूक्ष्मतर दोष वे ज्ञानियों को ही दिखते हैं। और हम सूक्ष्मतम में बैठे हुए हैं।

(पृ.११६)

मेरी जो सूक्ष्मतर और सूक्ष्मतम भूलें होती हैं, जो केवलज्ञान को रोकती हैं, केवलज्ञान को रोकें, ऐसी भूलें होती हैं, वे भूल ‘भगवान’ ‘मुझे’ दिखाते हैं। तब ‘मैं’ जानता हूँ न, कि ‘मेरा ऊपरी है यह।’ ऐसा पता नहीं चलता? अपनी भूलें दिखाए, वह भगवान ऊपरी है या नहीं?

प्रश्नकर्ता : हाँ, ठीक है।

दादाश्री : इसलिए हम कहते हैं न कि, यह भूल जो हमें दिखाते हैं, वह चौदह लोक का नाथ है। उन चौदह लोक के नाथ के दर्शन करो। भूल दिखाने वाला कौन है? चौदह लोक का नाथ!

और वे ‘दादा भगवान’ तो मैंने देखे हैं, संपूर्ण दशा में है अंदर! उसकी गारन्टी देता हूँ। मैं ही उन्हें भजता हूँ न! और आपको भी कहता हूँ कि, ‘भाई, आप दर्शन कर जाओ। ‘दादा भगवान’ 360 डिग्री और मुझे 356 डिग्री हैं। इसीलिए हम दोनों अलग हैं, वह प्रमाणित हो गया या नहीं?

प्रश्नकर्ता : हाँ, वैसा ही है न!

दादाश्री : हम दोनों अलग हैं। भीतर प्रकट हुए हैं, वे दादा भगवान हैं। वे संपूर्ण प्रकट हो गए हैं, परम ज्योति स्वरूप!

*****

(पृ.११७)

जगत् निर्दोष

भगवान ने देखा जग निर्दोष

प्रश्नकर्ता : भगवान महावीर ने पूरे जगत् को निर्दोष देखा।

दादाश्री : भगवान ने निर्दोष देखा और खुद की निर्दोष दृष्टि से निर्दोष देखा। उन्हें कोई दोषित नहीं लगा। वैसा मैंने भी निर्दोष देखा है और मुझे भी कोई दोषित दिखता नहीं है। फूलमाला चढ़ाए तो भी कोई दोषित नहीं और गालियाँ दें तो भी कोई दोषित नहीं। यह तो मायावी दृष्टि के कारण सब दोषित दिखते हैं। इसमें सिर्फ दृष्टि का ही दोष है।

प्रश्नकर्ता : निर्दोषता किस तरह प्राप्त होती है?

दादाश्री : पूरे जगत् को निर्दोष देखोगे तब! मैंने पूरे जगत् को निर्दोष देखा है, तब मैं निर्दोष हुआ हूँ। हित करने वाले को और अहित करने वाले को भी हम निर्दोष देखते हैं।

कोई दोषित नहीं है। दोष उसने किया हो, तब भी असल में उसके पिछले जन्म में किया होगा। पर फिर तो उसकी इच्छा नहीं होती, फिर भी अभी हो जाता है। अभी उसकी इच्छा के बिना हो जाता है न? भरा हुआ माल है, इसलिए उसमें उसका दोष नहीं है न, इसीलिए निर्दोष माना है।

कौन-सी दृष्टि से जग दिखे निर्दोष

पुद्गल को देखना मत, पुद्गल की तरफ दृष्टि मत करना। आत्मा

(पृ.११८)

की तरफ ही दृष्टि करना। कान में कीलें मारने वाले, वे भी भगवान महावीर को निर्दोष दिखे। दोषित दिखता है, वही अपनी भूल है। वह एक प्रकार का अपना अहंकार है। यह तो हम बिना तनख्वाह के काज़ी बनते हैं और फिर मार खाते हैं। मोक्ष जाते हुए ये लोग हमें उलझाते हैं, ऐसा जो बोलते हैं, वह तो व्यवहार से हम बोलते हैं। इस इन्द्रियज्ञान से जो दिखता है वैसा बोलते हैं। पर असल हकीकत में तो लोग उलझा ही नहीं सकते हैं न! क्योंकि कोई जीव किसी जीव में किंचित् मात्र दखल कर ही नहीं सके ऐसा यह जगत् है। ये लोग तो बेचारे प्रकृति जो नाच करवाती है, उस अनुसार नाचते हैं, इसलिए उसमें किसी का दोष है ही नहीं। जगत् पूरा ही निर्दोष है। मुझे खुद को निर्दोष अनुभव में आता है। आपको वह निर्दोष अनुभव में आएगा, तब आप भी इस जगत् से छूट गए। नहीं तो कोई एक भी जीव दोषित लगेगा, तब तक आप छूटे नहीं हैं।

प्रश्नकर्ता : इसमें सभी जीव आ जाते हैं? मनुष्य ही नहीं, परंतु चींटी-मकोड़े सभी आ जाते हैं?

दादाश्री : हाँ, जीव मात्र निर्दोष स्वभाव के दिखने चाहिए।

प्रश्नकर्ता : दादा, आपने जीव मात्र निर्दोष है ऐसा कहा है। अब नौकरी में मैंने कहीं भूल की और मेरा ऊपरी अमलदार ऐसा कहे कि तूने यह भूल की। फिर वह मुझे डाँटेगा, ठपकारेगा। अब यदि मैं निर्दोष होऊँ तो असल में मुझे नहीं डाँटना चाहिए न?

दादाश्री : किसी का डाँटना हमें देखना नहीं है। आपको डाँटने वाला भी निर्दोष है, ऐसा आपकी समझ में होना चाहिए। इसीलिए किसी पर दोष नहीं डाल सकते हैं। जितने निर्दोष आपको दिखेंगे, उतने आप ‘समझ में आए’ कहलाओगे।

मुझे जगत् निर्दोष दिखता है। आपको ऐसी दृष्टि आएगी तब यह पज़ल सॉल्व हो जाएगा। मैं आपको ऐसा प्रकाश दूँगा और इतने पाप धो डालूँगा कि जिससे आपका प्रकाश बना रहेगा। और आपको

(पृ.११९)

निर्दोष दिखता जाएगा। और साथ में पाँच आज्ञा में रहोगे, तो वह जो दिया हुआ ज्ञान है, उसे थोड़ा भी फ्रेक्चर नहीं होने देंगी।

तत्त्व दृष्टि से जगत् निर्दोष

हम पूरे जगत् को निर्दोष देखते हैं।

प्रश्नकर्ता : ऐसा पूरे जगत् को निर्दोष कब देख सकेंगे?

दादाश्री : आपको उदाहरण देकर समझाता हूँ। आप समझ जाओगे। एक गाँव में एक सुनार रहता है। पाँच हज़ार लोगों का वह गाँव है। आपके पास सोना है, वह सारा सोना लेकर वहाँ बेचने गए। तब वह सुनार सोना ऐसे घिसता है, देखता है। अब हमारा सोना वैसे तो चाँदी जैसा दिख रहा होता है, मिलावट वाला सोना होता है, फिर भी वह डाँटता नहीं है। वह क्यों डाँटता नहीं है कि ऐसा क्यों बिगाड़कर लाए हो? क्योंकि उसकी सोने में ही दृष्टि है। और दूसरे के पास जाओ, तो वह डाँटता है कि ऐसा क्यों लाए हो? इसलिए जो पारखी है, वह डाँटता नहीं है। इसलिए आप यदि सोना ही माँगते हो, तो इसमें सोना ही देखो न! उसमें दूसरा किसलिए देखते हो? इतना मिलावट वाला सोना क्यों लाए हो? ऐसे डाँटे-करे, उसका कब पार आएगा? हमें अपनी तरह से देख लेना है कि इसमें कितना सोना है और उसके इतने रुपये मिलेंगे। आपको समझ में आया न? उस दृष्टि से मैं सारे जगत् को निर्दोष देखता हूँ। सुनार इस दृष्टि से चाहे जैसा सोना हो, फिर भी सोना ही देखता है न? दूसरा कुछ देखता ही नहीं है न? और डाँटता भी नहीं है। हम उसे बताने गए हों, तब अपने मन में होता है कि वह डाँटेगा तो? अपना सोना तो सारा खराब हो गया है! पर नहीं, वह तो डाँटता-करता नहीं है। वह क्या कहेगा, ‘मुझे दूसरा क्या लेना-देना?’ वे बिना अक्ल वाले हैं या अक्ल वाले हैं?

प्रश्नकर्ता : अक्ल वाला ही कहलाएगा न?

दादाश्री : यह सिमिली ठीक नहीं है?

(पृ.१२०)

प्रश्नकर्ता : ठीक है। ऐसा उदाहरण दें, तो फिट जल्दीहो जाता है।

दादाश्री : अब यह उदाहरण कोई जानता नहीं क्या?

प्रश्नकर्ता : जानते होंगे।

दादाश्री : ना, किस तरह ख्याल में आए? सारा दिन ध्यान लक्ष्मीजी में और लक्ष्मीजी का विषय पूरा हो कि वापस घर पर मेमसाहब याद आती रहती हैं और मेमसाहब का विषय पूरा हुआ कि वापस लक्ष्मीजी का विषय याद आता है! इसीलिए दूसरा कुछ खयाल में ही नहीं रहता है न! फिर दूसरे हिसाब निकालने के ही रह जाते हैं न?

हमने पारखी को देखा था, तब मुझे ऐसा होता था कि यह डाँटता क्यों नहीं कि आप सोना क्यों बिगाड़कर लाए हो? उसकी दृष्टि कितनी सुंदर है! कुछ डाँटता भी नहीं है। इसका अच्छा है वैसा भी बोलता नहीं है। पर ऐसा कहेगा, ‘बेठो, चाय-पानी पीओगे न?’ अरे, मिलावटी सोना है, तब भी चाय पिलाता है? ऐसा ही इसमें भी। क्या अंदर ‘शुद्ध’ सोना ही है न? तात्त्विक दृष्टि से देखें तो दोष किसी का भी नहीं है।

जगत् निर्दोष, प्रमाण सहित

हम जगत् पूरा निर्दोष देखते हैं। हमने जगत् निर्दोष माना है। वह माना हुआ कोई थोड़े ही बदल जाने वाला है? पल में बदल जाएगा क्या? हमने निर्दोष माना हुआ है, जाना हुआ है, वह कोई थोड़े ही दोषित लगने वाला है?

क्योंकि जगत् में कोई दोषित है ही नहीं। मैं एक्ज़ेक्टली (जैसा है वैसा) कह देता हूँ। बुद्धि से प्रूफ (प्रमाण) देने को तैयार हूँ। इस बुद्धिशाली जगत् को, यह जो बुद्धि का फैलाव हुआ है, उन्हें प्रूफ चाहिए तो मैं देना चाहता हूँ।

शीलवान के दो गुण

अभी हंड्रेड परसेन्ट (सौ प्रतिशत) शीलवान होते नहीं हैं। वैसे

(पृ.१२१)

शीलवान इन पिछले पच्चीससौ वर्षों में नहीं हुए हैं। पिछले पच्चीससौ वर्षों के जो कर्म हैं, उनमें ऐसा शीलवान हो ही नहीं सकता मनुष्य। शील आता ज़रूर है, पर पूर्णता नहीं आती।

प्रश्नकर्ता : पर शील की दिशा में तो जा सकते हैं न?

दादाश्री : हाँ, जा सकते हैं।

प्रश्नकर्ता : तो वहाँ तक पहुँचने के लिए क्या करना चाहिए? मेरा एक सबसे बड़ा उलझन वाला प्रश्न है। उसके लिए क्या करना चाहिए, वह पता नहीं चलता है।

दादाश्री : छोटे वाक्य से काम लेना चाहिए कि किसी दुश्मन की तरफ भाव भी नहीं बिगड़े, और बिगड़ा हो तो प्रतिक्रमण से सुधार लो। बिगड़ जाना, वह निर्बलता के कारण बिगड़ जाता है, तो प्रतिक्रमण से सुधार लो उसे! ऐसे करते-करते वह चीज़ सिद्ध होगी।

और दूसरा, इस जगत् में कोई दोषित है ही नहीं। असल में हर एक जीव निर्दोष ही है, जगत् में। दोषित दिखता है, वही भ्रांति है। कोई दोषित नहीं है, वह ‘उसके’ लक्ष्य में रहना चाहिए।

प्रश्नकर्ता : पर उसे बुद्धि से समझना बहुत कठिन है।

दादाश्री : बुद्धि समझने देती ही नहीं है यह। कोई दोषित नहीं, वह बुद्धि समझने देती ही नहीं है।

प्रश्नकर्ता : तो उसके लिए क्या करना चाहिए?

दादाश्री : यह वाक्य तो आपके अनुभव में आए तो अनुभव ही आपको कह देगा। पहले इस वाक्य से शुरूआत करो। तो फिर उसका अनुभव आपको कह देगा। इसलिए फिर बुद्धि शांत हो जाएगी।

यह है ज्ञान का थर्मामीटर

इस जगत् के सार के रूप में आप पूछो कि, इस जगत् का सार क्या है? तब कहें, ‘कोई भी व्यक्ति दोषित है ही नहीं जगत् में।

(पृ.१२२)

मनुष्य भी दोषित नहीं है, बाघ भी दोषित नहीं है।’ इसीलिए इस जवाब पर से पूरी रक़म ढूँढ निकालनी है।

यह जवाब क्या है कि यह जगत् पूरा निर्दोष स्वरूप है। जीव मात्र निर्दोष है। दोषित दिखता है, वह खुद की उस अज्ञानता से। बोलो, अब कितनी भूल में होंगे आप?

प्रश्नकर्ता : बहुत ही भूल में।

दादाश्री : जब जगत् निर्दोष दिखेगा, आपकी जेब काट रहा हो वही व्यक्ति आपको निर्दोष दिखे, तब जानना कि करेक्टनेस (यथार्थता) पर पहुँचे।

एक रकम आप मानोगे?

स्कूल में पढ़ते समय एरिथमेटिक (अंक गणित) में सिखलाते हैं न मास्टरजी कि कुछ नहीं हो तो सपोज़ (मानो कि) 100 ऐसा कहते हैं न? नहीं कहते, 100 मानो तो जवाब आएगा। तब अपने मन में ऐसा होता है कि मास्टरजी ने 100 पर कोई जादू किया लगता है। तब हम कहें कि नहीं, मैं तो सवा सौ मानूँगा। तब कहे, फिर तुझे मानना हो वह मान न! ऐसी धारणा से जवाब आए, ऐसा है।

वैसी एक रकम मैं मानने का कहूँ आपको? ‘इस जगत् में कोई दोषित ही नहीं है। जगत् पूरा ही निर्दोष है।’ आपको दोष दिखते हैं?

प्रश्नकर्ता : देखें तो दिखते हैं।

दादाश्री : वास्तव में दोष हैं नहीं, फिर भी दोष दिखते हैं, वही अपनी नासमझी है। लोगों का किचिंत् मात्र दोष दिखता है वह अपनी नासमझी है।

यह रकम माने और वह रकम मानकर जवाब लाए तो जवाब आ जाए ऐसा है। कोई दोषित है ही नहीं जगत् में। आपके दोषों से ही आपको बंधन है। दूसरे किसी के दोष हैं ही नहीं। कोई आपका

(पृ.१२३)

नुकसान करे, कोई गालियाँ दे, इन्सल्ट (अपमान) करे तो उसका दोष नहीं है, दोष आपका ही है।

दृष्टि के अनुसार सृष्टि

प्रश्नकर्ता : कभी ऐसा भी होता है कि एक ही व्यक्ति आज हमें अच्छा लगता है। दूसरे दिन तिरस्कारयुक्त लगता है। तीसरे दिन वह व्यक्ति हमें मदद करने वाला भी लगता है। तो ऐसा किसलिए होता है?

दादाश्री : उस व्यक्ति में बदलाव दिखता है, वह अपना रोग है। व्यक्ति में बदलाव होता ही नहीं है। इसलिए बदलाव दिखता है, वह अपना ही रोग है। और अध्यात्म वही कहता है न! अध्यात्म क्या कहता है? तुझे देखना ही नहीं आता है। बेकार ही, बिना काम के पत्नी का पति किसलिए बन बैठा है? इसीलिए हमें देखना नहीं आने से ऐसा सब होता है। बाकी यह फेक्ट चीज़ नहीं है।

खुद के लिए सामने वाला व्यक्ति क्या मानता होगा, वह क्या पता चले? आपकी तरफ कोई व्यक्ति अभाव दिखाए तो आपको उसकी तरफ कैसा लगेगा?

प्रश्नकर्ता : अभाव दिखाए तो अच्छा नहीं लगता।

दादाश्री : तब वैसे ही आप दूसरे को अभाव दिखाओ तो क्या होगा?

प्रश्नकर्ता : वह एक पहेली है कि इनमें मुझे अच्छा भाव दिखता है और दूसरों में मुझे खराब भाव दिखता है।

दादाश्री : नहीं, वह पहेली नहीं है। हम समझते हैं कि क्या है यह, इसीलिए हमें पहेली नहीं लगती। एक व्यक्ति मुझे रोज़ पूछते कि मुझे इस आदमी में उलटे भाव क्यों दिखते हैं? मैने कहा, ‘उस आदमी का दोष नहीं है, आपका दोष है।’

प्रश्नकर्ता : पर हम यदि खराब हों, तो सभी खराब दिखने चाहिए।

(पृ.१२४)

दादाश्री : हम ही खराब हैं, इसलिए ही यह खराब दिखता है। खराब कोई है ही नहीं। जो खराब दिखता है, वह आपकी खराबी के कारण खराब दिखता है। भगवान ने यही खोज की और आप जो अच्छा कहते हो, वह भी आपकी मूर्खता है अंदर, फूलिशनेस है। अच्छा-अच्छा कहते हो फिर हम पूछें तब कहेगा, ‘मुझसे विश्वासघात किया।’ तो तू अच्छा-अच्छा कह रहा था, वह किसलिए?! अच्छा कहता है और दस वर्ष बाद कहता है कि मुझसे विश्वासघात किया। ऐसा होता है कि नहीं होता?

प्रश्नकर्ता : होता ही है न!

दादाश्री : और ऐसा जो गलत दिखता है, वह अच्छा है, ऐसा भी मत मानना।

जग निर्दोष अनुभव में...

प्रश्नकर्ता : सामने वाला निर्दोष दिखे, वैसी जागृति सतत रहनी चाहिए न?

दादाश्री : निर्दोष दिखने में आपको बहुत समय लगेगा। पर आपको दादा ने कहा है, इसलिए आपको निर्दोष दिखेगा कभी, तो वह कहने मात्र से। पर आपको एक्जेक्ट (यथार्थ) नहीं दिखेगा।

प्रश्नकर्ता : वैसा अनुभव नहीं होगा हमें?

दादाश्री : अनुभव नहीं होगा, अभी आपको।

प्रश्नकर्ता : हम मन में मान लें कि हाँ, वह निर्दोष ही है, तो?

दादाश्री : यह ज्ञान हुआ पर वह अनुभव कभी न कभी होगा, पर अभी तो ऐसा पहले नक्की कर दिया है इसीलिए हमें परेशानी नहीं न! निर्दोष है ऐसा कहते हैं, इसीलिए अपना मन बिगड़ता नहीं है फिर। किसी को दोषित ठहराया कि आपका मन पहले बिगड़ता है और आपको दु:ख देता ही है। क्योंकि दोषित वास्तव में है ही नहीं।

(पृ.१२५)

आपकी अक़्ल से ही आपको दोषित दिखता है और वही भ्रांति की जगह है। हाँ, अब आप मुझे कहते रहो पर मैं किसकी शिकायत सुनु?

प्रश्नकर्ता : अभी आपने क्या कहा कि आप मुझे कहते रहते हो?

दादाश्री : हाँ, पर ऐसी सब बातें करते हो, फलाना ऐसे कर रहा था, फलाना ऐसे कर रहा था, ऐसा आपको समझ में आया कि यह सब गलत है?

प्रश्नकर्ता : हाँ।

दादाश्री : यह टाइम सब बेकार गया। सब निर्दोष हैं, ऐसा समझे कि हल आ गया।

प्रश्नकर्ता : हमारी कोई जेब काटे तो तुरंत हम ऐसा कहते हैं कि यह मेरे कर्म का उदय हुआ, तो तुरंत वह व्यक्ति निर्दोष दिखता है।

दादाश्री : इतना यदि ज्ञान में आ गया, यह मेरे ही कर्म का उदय है, तब वह निर्दोष दिखे वह ठीक है। वह अनुभवपूर्वक का कहलाता है।

प्रश्नकर्ता : वह अनुभवपूर्वक का कहलाता है?

दादाश्री : हाँ।

प्रश्नकर्ता : अपने कर्म का दोष है, ऐसा दिखे तो?

दादाश्री : हाँ, वही कि यह मेरे ही कर्म का उदय है, उसका दोष नहीं है यह। यह जो है, वह जागृति कहलाती है।

और वैसे ही आप बोलो कि जगत् पूरा निर्दोष है, वह अभी आपको पूरा अनुभव में नहीं आया है।

इसीलिए ये कुछ बाबत में आपका ऐसा डिसाइड (निश्चित) हो जाता है और कुछ बाबतें ऐसी रहेंगी कि जिनमें डिसीज़न (निर्णय) नहीं होगा। इसलिए आपको मान ही लेना है। फिर है, तो टाइम आएगा तब वह डिसाइड हो जाएगा। हम जवाब जानते हों, तो फिर हिसाब

(पृ.१२६)

लिखते-लिखते आ गए, तब पता चल जाता है। जवाब जानते हों तो अच्छा है न?

प्रश्नकर्ता : हाँ, अब कोई भी हमें फल मिले या कोई भी कार्य हो, प्लस या माइनस (अधिक या कम) पर वह अपने कर्म के अधीन ही है, ऐसा मान लिया जाता है...

दादाश्री : हाँ, दूसरा कुछ है ही नहीं। अपना ही है सब। माइनस कहो तो भी अपना और प्लस कहो तो भी अपना। पर व्यवहार में हमें उसे कहना चाहिए कि भाई, आपने अच्छा काम कर दिखाया, ऐसा बोलना चाहिए और खराब किया हो तो उसे ऐसा नहीं कहना चाहिए कि आपने खराब किया।

प्रश्नकर्ता : तो उसे क्या कहना चाहिए?

दादाश्री : उसे कुछ भी नहीं कहना चाहिए। उसके प्रति मौन रहना चाहिए। क्योंकि अच्छा न कहे तो उसे एन्करेजमेन्ट (प्रोत्साहन) नहीं मिलता। उसके मन में ऐसा होता है कि यह सेठ तो कुछ बोलते ही नहीं। वह तो ऐसा ही समझता है न कि ‘मैंने किया यह!’ अपने कर्म के उदय से वह करता है, ऐसा वह जानता नहीं है। वह तो कहेगा, ‘मैंने मेहनत करके किया है यह।’ तो हमें ‘हाँ’ कहना पड़ता है।

अंतिम दृष्टि से जग निर्दोष

प्रश्नकर्ता : अब कोई मनुष्य वैसा नालायक दिखता नहीं है और पहले मुझे नालायक के सिवाय कुछ दिखता नहीं था।

दादाश्री : है ही नहीं। वह जाँच-पड़ताल करने के बाद ही तो मैंने कहा कि, पूरा जगत् मुझे निर्दोष दिखता है।

प्रश्नकर्ता : शुद्धात्मा न देखें तब ही दोषित दिखता है न?

दादाश्री : दोषित कब दिखता है कि शुद्धात्मा न देखें तब दोषित दिखता है और दूसरा उसका हिसाब नहीं निकाला उसने। एक्ज़ेक्टली (वास्तव में) यदि हिसाब निकाले तो वह खुद ही कहेगा, दोष देखने

(पृ.१२७)

वाला ही कहेगा, भाई मेरी ही भूल है यह तो। इसीलिए यों अकेला शुद्धात्मा देखने से ही कुछ खतम नहीं होता है। वह तो आगे ही आगे चलता रहता है। यानी पद्धति के अनुसार निकाल होना चाहिए। इसलिए सार के परिणाम स्वरूप निकाल होना चाहिए कि किस तरह दोष नहीं है उसका। हाँ, उसका दोष है नहीं और यह दिखता क्यों है?

भगवान महावीर ने कहा है कि, ‘पूरा जगत् निर्दोष है, जो कोई भूल थी वह मेरी ही थी और वह पकड़ में आ गई।’ और वह मुझे भी पकड़ में आ गई, मेरी भूल। और अब आपको क्या कहता हूँ? आपकी भूल पकड़ो। मैं दूसरा कुछ कहता ही नहीं हूँ। जो पतंग की डोर मेरे पास है, वैसी पतंग की डोर आपके पास है। शुद्धात्मा का ज्ञान खुद प्राप्त किया, इसलिए पतंग की डोर हाथ में रही। पतंग की डोर हाथ में नहीं हो और गोता खाए और चीखें-चिल्लाएँ, कूद-फाँद करें, उससे कुछ मिलता नहीं है। पर हाथ में डोर हो और खींचें तो गोते खाना बंद हो जाता है या नहीं हो जाता? वह डोर मैंने आपके हाथ में दे दी है।

इसलिए आपको यह निर्दोष देखना है। निर्दोष दृष्टि से ऐसे शुद्धात्मा देखकर ‘उसे’ निर्दोष बनाना है। वह थोड़ी देर बाद फिर अंदर से चीखेगा-चिल्लाएगा। ‘यह ऐसा-ऐसा करता है, उसे क्या निर्दोष देखते हो?’ उस समय एक्ज़ेक्टली निर्दोष देखना है और जैसा है वैसा एक्ज़ेक्टली निर्दोष ही है।

क्योंकि यह जगत् जो है न, वह आपको दिखता है वह सब आपका परिणाम दिखता है, कॉज़ेज़ नहीं दिखते। अब परिणाम में किसका दोष?

प्रश्नकर्ता : कॉज़ेज़ का दोष।

दादाश्री : कॉज़ेज़ करने वाले का दोष। यानी परिणाम में दोष किसी का नहीं होता है। जगत् परिणाम स्वरूप है। यह तो एक मैंने आपको बहुत ही छोटा हिसाब (सार) निकालना सिखाया है। और

(पृ.१२८)

भी बहुत सारे हिसाब (सार) हैं। कितने ही हिसाब (सार) इकट्ठे हुए, तब मैंने एक्सेप्ट किया, जगत् निर्दोष है ऐसा। नहीं तो यों ही एक्सेप्ट होता है क्या? यह कोई गप्प है?

आप अपनी प्रतीति में ले जाना कि यह जगत् निर्दोष है, ऐसा सौ प्रतिशत है, निर्दोष ही है। दोषित दिखता है, वही भ्रांति है। और इसीलिए यह जगत् खड़ा हुआ है बस, खड़ा होने के कारण में दूसरा कोई कारण नहीं है। ज्ञानदृष्टि से देखने जाएँ तो जगत् निर्दोष है और अज्ञानता से जगत् दोषित दिखता है। जगत् जब तक दोषित दिखता है, तब तक भटकते रहना है। और जब जगत् निर्दोष दिखेगा, तब अपना छुटकारा होगा।

जान लिया तो उसे कहा जाएगा...

जान लिया तो वह कहलाता है कि कभी भी ठोकर न लगे। जेब कट जाए तब भी ठोकर नहीं लगे। और तमाचा मारे तब भी ठोकर नहीं लगे, उसका नाम जान लिया कहलाता है। यह तो ‘मैं जानता हूँ, मैं जानता हूँ’, गाता रहेगा। इसलिए हल्दी की गाँठ लेकर गांधी बन बैठे हैं। बाकी, जान लिया तो उसका नाम कहलाता है कि अहंकार नाम मात्र भी न रहे। जेब काट ले, तमाचा मारे, तो भी असर न हो, तब उसका नाम जान लिया कहलाता है। यह तो कोई जेब काट ले न तो ‘मेरी जेब काट ली, पुलिस वाले को बुलाओ!’ ऐसे शोर मचा देता है। अरे, किस आधार पर कटी, उसका तुझे क्या पता है? ज्ञानी पुरुष जानते हैं कि किस आधार पर कटी है। जेब काटने वाला उन्हें गुनहगार नहीं दिखता और इसे तो जेब काटने वाला गुनहगार दिखता है। जो जेब काटने वाला निर्दोष है, फिर भी आपको गुनहगार दिखता है, इसलिए आप अभी तो कितने ही जन्म भटकोगे। जो देखना था वह नहीं देखा और उल्टा ही देखा! जो गुनहगार नहीं है उसे गुनहगार देखा। देखो ये उल्टा ज्ञान सीखकर लाए हैं!

फिर भी वे जो धरम करते हैं, क्रियाकांड करते हैं वह गलत नहीं है। पर खरी बात, खरी हकीकत तो जाननी पड़ेगी न? वह जेब

(पृ.१२९)

काटने वाला आपको गुनहगार दिखता है न? वह तो सभी पुलिस वालों को भी जेब काटने वाला गुनहगार दिखता है और मज़दूरों को भी वैसा ही दिखता है, तो इसमें आप कौन-सा नया ज्ञान लाए? वह तो छोटे बच्चे भी जानते हैं कि यह जेब काटी है! इसलिए ‘यह गुनहगार है’, ऐसा छोटे बच्चे भी कहते हैं, स्त्रियाँ भी कहती हैं और आप भी कहते हैं। तो आप में और इन सब में फर्क क्या है? ‘मैं जानता हूँ, मैं जानता हूँ’ कहते हो, पर लोग कहते हैं वैसा ही ज्ञान आपके पास है न? उसे ज्ञान कहें ही कैसे? दूसरा नया ज्ञान आपके पास है ही कहाँ? ‘ज्ञान’ ऐसा नहीं होता न?

दोष दिखाएँ, कषाय भाव

एक क्षणभर कोई जीव दोषित हुआ नहीं है। यह जो दोषित दिखते हैं, वह अपने दोष के कारण दिखते हैं। और दोषित दिखते हैं इसीलिए कषाय करते हैं। नहीं तो कषाय ही न करे न? दोषित दिखते हैं, इसलिए गलत ही दिखता है। अंधा अंधे से टकराता है, उसके जैसी बात है यह। अंधे आदमी आमने-सामने टकराते हैं वह हम जानें और दूर रहकर कहें कि यह अंधा लगता है! इतना अधिक टकराते हैं उसका क्या कारण है? दिखता नहीं है। बाकी जगत् में कोई जीव दोषित है ही नहीं। यह तो सब जो दोष दिखता है, वह आपका है। इसलिए कषाय खड़े रहे हैं।

दूसरों के दोष दिखाए वह कषाय भाव का पर्दा है। इसलिए दूसरों के दोष दिखते हैं। सींग जैसे कषाय भाव होते हैं, वे मोड़ने से मुड़ते नहीं।

अब क्रोध-मान-माया-लोभ ‘कम करो, कम करो’ कहते हैं। वे कम कब होंगे? वे कम होते होंगे? वास्तविकता का ज्ञान हो कि कोई दोषित है ही नहीं, तब उन क्रोध-मान-माया-लोभ को कम करने का ही नहीं रहा न! दोषित दिखता है इसलिए फिर प्रतिक्रमण करना पड़ेगा न?

प्रश्नकर्ता : हाँ।

(पृ.१३०)

दादाश्री : कभी पिछले क्रोध-मान-माया-लोभ के कारण दोषित दिखें तो प्रतिक्रमण करना पड़ेगा। ताकि वे फिर क्रोध-मान-माया-लोभ चले जाते हैं।

वहाँ किसे डाँटोगे?

अभी पहाड़ पर से एक ढेला लुढकता लुढ़कता आया और सिर में लगा और खून निकला, उस घड़ी आप किसे गाली देते हो? गुस्सा किस पर होते हो?

पहाड़ पर से इतना बड़ा पत्थर गिरा हो पर पहले देख लेता है कि किसी ने लुढ़काया या क्या? कोई न दिखे या फिर बन्दर ने लुढ़काया हो, फिर भी कुछ नहीं। बहुत हुआ तो उसे भगा देता है। उसे क्या गालियाँ देता है? उसका नाम नहीं, निशान नहीं, कहाँ दावा करे? नाम वाले पर दावा कर सकते हैं, पर बन्दरभाई का तो नाम ही नहीं, कुछ नहीं, कैसे दावा करेगा? गालियाँ किस तरह देगा?

ऐसे तो मूढ़ मार खाता है, पर घर में एक ज़रा-सा, इतना ऊँचा-नीचा हो गया हो तो उछल-कूद कर देता है! फिर भी भगवान की भाषा में सब निर्दोष हैं। क्योंकि नींद में करते हैं, उसमें उनका क्या दोष? नींद में कोई कहे, ‘आपने मेरा यह पूरा घर जला दिया और सब मेरा नुकसान कर डाला?’ अब नींद में बोले, उस पर हम किस तरह दोष मढ़ें?

नहीं कोई दुश्मन अब...

प्रश्नकर्ता : जगत् निर्दोष किस अर्थ में है?

दादाश्री : खुले अर्थ में! इस जगत् के लोग नहीं कहते कि, ‘यह हमारा दुश्मन है, मुझे इसके साथ अच्छा नहीं लगता, मेरी सास खराब है।’ लेकिन मुझे तो सब निर्दोष ही दिखते हैं।

प्रश्नकर्ता : लेकिन आप तो कहते हैं कि आपको कोई खराब दिखता ही नहीं है।

(पृ.१३१)

दादाश्री : कोई खराब है ही कहाँ? तो फिर खराब क्या देखना? हमें सामने वाले का सामान देखना है! डिब्बी का क्या करना है! डिब्बी तो पीतल की हो या तांबे की हो या लोहे की भी हो सकती है! दुश्मन दिखे तब दु:ख होता है न, लेकिन दुश्मन ही नहीं देखें न? अभी तो आपकी दृष्टि ऐसी है, चमड़े की आँख है, इसलिए ‘यह दुश्मन, यह अच्छा नहीं है और यह अच्छा है,’ ऐसा कहते हो। ‘यह अच्छा है’, लेकिन दो-चार सालों बाद वापस उसी को ‘खराब’ कहते हो। कहते हैं या नहीं कहते?

प्रश्नकर्ता : ज़रूर कहते हैं।

दादाश्री : और मुझे इस वर्ल्ड में कोई भी दुश्मन नहीं दिखता। मुझे निर्दोष ही दिखते हैं सब, क्योंकि दृष्टि निर्मल हो गई है। इन चमड़े की आँख से नहीं चलेगा, दिव्यचक्षु चाहिए।

साँप, बिच्छू भी हैं निर्दोष...

इस दुनिया में कोई दोषित है ही नहीं।

प्रश्नकर्ता : उदयकर्म से ही है, जो है वह, उसी कारण से न?

दादाश्री : हाँ, जगत् पूरा निर्दोष है ही। किस दृष्टि से निर्दोष है? तब कहे, यदि शुद्धात्मा देखें तो निर्दोष ही है न! दोषित कौन है? बाहर का पुद्गल न! यह जिसे जगत् मानता है। वह पुद्गल... हमें क्या जानना है कि वह पुद्गल उदयकर्म के अधीन है आज। उसके खुद के अधीन नहीं है, खुद की इच्छा नहीं हो फिर भी करना पड़ता है यह। इसलिए वह निर्दोष ही है बेचारा। इसलिए हमें पूरा जगत् निर्दोष ही... जीव मात्र निर्दोष ही दिखता है। जगत् निर्दोष स्वभाव का है। पूरा ही जगत् निर्दोष है। आपको दूसरों के जो दोष दिखते हैं, वे आप में दोष होने से ही दोष दिखते हैं। जगत् दोषित नहीं है, वह आपको यदि दृष्टि में आए तब ही आप मोक्ष जाओगे। जगत् दोषित है, वैसी दृष्टि आए तो आपको यहाँ आराम से पड़े रहना है।

कोई जप करता हो, तप करता हो, उसमें हमें उसका दोष क्या

(पृ.१३२)

देखना? ऐसा है, उसके ‘व्यवस्थित’ के ताबे में हो, वैसा ही बेचारा करता है। उसमें हमें क्या लेना-देना? हमारे पास टीका करने का कोई कारण है? हम उसके साथ नये क़रार क्यों बाँधे? उसे जो अनुकूल आए, वैसा वह करे। हमें तो मोक्ष के साथ ही काम है। हमें दूसरे के साथ काम नहीं है। और जगत् में हमें कोई दोषित दिखता नहीं है। जेब काटे वह भी दोषित नहीं दिखता है। यानी कि जगत् में कोई भी जीव दोषित नहीं दिखता है। साँप हो या बिच्छू हो या चाहे जो हो, जो आपको दोषित दिखता है न, उसका भय आप में घुस जाता है। और हमें दोषित दिखता ही नहीं है। किस आधार पर दोषित नहीं है, वह सब आधार हम ज्ञान से जानते हैं। यह दोषित दिखता है, वह तो भ्रांत दृष्टि है, भ्रांति की दृष्टि! यह चोर है और यह साहूकार है, यह फलाना है, वह भ्रांति की दृष्टि है। हमारा लक्ष्य क्या होना चाहिए कि सभी जीव मात्र निर्दोष हैं। आपको दोषदृष्टि से दोषित दिखते हैं। वह अभी अपनी देखने में भूल होती है, इतना समझना चाहिए। वास्तव में कोई दोषित है ही नहीं। भ्रांति से दोषित लगते हैं।

महावीर ने भी देखे स्वदोष!

चोर आपकी जेब काटे फिर भी वह आपको दोषित न दिखे, ऐसे कितने सारे कारण होंगे, तब मोक्ष होगा। आत्मज्ञान होने के बाद ऐसी दृष्टि होगी न, तभी मोक्ष होगा, नहीं तो मोक्ष होगा नहीं।

देखने जाएँ तो, यह तो जो दोषित दिखता है वह आपकी बुद्धि आपको फँसाती है। बाकी दोषित कोई है ही नहीं इस जगत् में! सभी को बुद्धि से ऐसा लगता है कि इसने तो सारी ज़िंदगी में कोई ऐसा पाप किया नहीं है और इसके साथ ऐसा? तब कहे, ना, वह कितने ही जन्मों के पाप, अब गाढ़ पाप होते हैं न, वे पकते देर से हैं। आपने एक अभी ऐसा गाढ़ कर्म बाँधा, वह पाँच हज़ार वर्षों में पाप पकेगा। विपाक होने में तो बहुत टाइम जाता है। और कितने ही हल्के कर्म होते हैं, वे सौ वर्ष में पक जाते हैं, इसलिए अपने लोग कहते हैं न सरल व्यक्ति है, अच्छा व्यक्ति है। सरल के कर्म सब गाढ़ नहीं होते हैं।

(पृ.१३३)

और कर्म उसका विपाक हुए बिना फल देते नहीं हैं। आम के पेड़ पर आम इतने बड़े और रस न निकले? विपाक होना चाहिए। यह ज्ञान होने के बाद दोषित हमें भी कोई मनुष्य, कोई जीव दिखा नहीं है। जब यह दृष्टि मिलेगी, तब महावीर दृष्टि हो गई है ऐसा नक्की होगा। जिनकी दृष्टि में कोई दोषित दिखता नहीं था। भगवान को यहाँ कान में कीलें ठोकीं, तो कौन दोषित दिखा था?

प्रश्नकर्ता : स्वकर्म।

दादाश्री : स्वकर्म दिखे। देवों ने खटमल डाले, दूसरा किया, तीसरा किया, तब भी दोषित कौन दिखा? स्वकर्म।

महावीर भगवान को भी उन लोगों ने कीलें ठोकीं थीं, तब तुरंत ही ज्ञान में देखा कि किसका परिणाम आया है! यानी कान में कीलें ठोकीं, उसे भी निर्दोष देखा था!

किसी का दोष तो निकालने जैसा जगत् में है ही नहीं। हम कभी भी किसी का दोष निकालते नहीं है। किसी का दोष होता भी नहीं है। भगवान ने भी निर्दोष देखे हैं। तब फिर हम दोष निकालने वाले कौन? उनसे भी अधिक समझदार हैं क्या? भगवान से भी ज़्यादा समझदार? भगवान ने भी निर्दोष देखे हैं।

जगत् में किसी को दोषित देखा नहीं, उसका नाम महावीर और महावीर का सच्चा शिष्य कौन कि जिसे लोगों के दोष दिखने कम होने लगे हैं। संपूर्ण दशा तक नहीं हुआ है, पर दोष दिखने कम होने लगे हैं।

अभेद दृष्टि होने से बने वीतराग

ये आपको दोषित दिखते हैं उसका कारण क्या है कि आपकी दृष्टि विकारी हो गई है। मेरा-तेरा की बुद्धि वाली है। यह मेरा और यह तेरा, ऐसी मेरा-तेरा के भेद वाली है! जब तक दोषित दिखता है, तब तक कुछ भी प्राप्त नहीं किया है। हमें किसी के साथ जुदाई नहीं है। अभेद दृष्टि हुई, वह भगवान कहलाता है। यह हमारा और यह

(पृ.१३४)

आपका, वे सामाजिक धर्म होते हैं सारे। इन सामाजिक धर्मों ने तो उलझनें खड़ी की हैं, और धर्म पालते जाते हैं और चिंता बढ़ती जाती है।

गच्छ-मत की जो कल्पना...

बाकी यह कृपालुदेव ने कहा है कि ‘गच्छ-मत की जो कल्पना, वह नहीं सद्व्यवहार।’

कल्पना वह कल्पना ही नहीं है, पर वही है जो आवरण स्वरूप बन गया है। फिर भी भगवान ने उसे धर्म कहा है। वह उसकी जगह पर धर्म में ही है। आप अक़्लमंदी मत करना, वह जो कर रहा है वह उसकी जगह पर धर्म में ही है। इसलिए आप अक़्लमंद मत बनना। तेरा गलत है, ऐसा किसी को कभी भी नहीं कहना चाहिए। उसका नाम -निष्पक्षपाती।

‘तेरा गलत है’ ऐसा तो किसलिए हम कहते हैं कि आपको समझाने के लिए, यह दूसरे लोगों की बात करते हैं। दूसरे लोगों की टीका करने के लिए बात नहीं करनी है। टीका होती ही नहीं है किसी जगह पर और यदि टीका है तो वीतराग का विज्ञान नहीं है। वहाँ धर्म है ही नहीं, अभेदता है ही नहीं।

यह फलाने संप्रदाय का हो या यह फलाने संप्रदाय का हो, पर किसी की टीका नहीं। भगवान क्या कहते हैं? निष्पक्षपाती को हम पूछें कि साहब, आपका क्या कहना है? ये लोग हमें अंधे लगते हैं। तब कहे, वह आपकी दृष्टि में चाहे जो हों, पर वे अपनी जगह पर सच्चे हैं। तब कहे, चोर चोरी करता है वह? तो वे अपनी जगह पर सच्चे हैं। आप किसलिए होशियारी करते हो? आप केवल उसे निर्दोष दृष्टि से देखो। आपके पास यदि निर्दोष दृष्टि हो, तो उससे आप देखो। नहीं तो दूसरा कुछ देखना मत! और दूसरा देखोगे तो मारे जाओगे। जैसा देखोगे वैसा हो जाएगा। जैसा देखोगे वैसे आप बन जाओगे। क्या गलत कहते हैं? ये वीतराग सयाने हैं न, ऐसा आपको लगता है न?

यहाँ तो ये वैष्णव धर्म के लोग वीतराग का धर्म प्राप्त करने

(पृ.१३५)

आए हैं, तब उन्हें लगा कि वीतराग ऐसे थे! तब मैंने कहा, ऐसे थे वीतराग। तब कहे, ऐसा तो सुना ही नहीं था मैंने! इसीलिए इस मंदिर में आते हैं न, सीमंधर स्वामी के दर्शन करते हैं न, उल्लासपूर्वक!

प्रश्नकर्ता : यह तो आपने बहुत बड़ी बात कही, ‘जैसा देखोगे वैसा बन जाओगे।’

दादाश्री : हाँ, वैसा देखोगे तो आप उस रूप हो जाओगे। इसीलिए मैंने दूसरा कुछ कभी भी देखा नहीं है। दोषित देख ही नहीं सकते। स्वरूप जो उल्टा दिखता है, हमें उसे पलट देना चाहिए कि ऐसा क्यों दिखा?

आज का दर्शन और गत भव का रिकॉर्ड

हमें जगत् पूरा निर्दोष दिखता है। पर वह श्रद्धा में है। श्रद्धा में यानी दर्शन में, और अनुभव में आया है कि निर्दोष ही है। फिर भी वर्तन जो है, वह छूटता नहीं है अभी भी!!

अभी कोई फलाने संत की उल्टी बात आई। वे चाहे जैसे हों, फिर भी आपको तो वे निर्दोष ही दिखने चाहिए। फिर भी हम वैसा बोलते हैं कि यह ऐसे हैं, ऐसे हैं, वैसा नहीं बोलना चाहिए। हमारी श्रद्धा में वे निर्दोष हैं, ज्ञान में आ गया है कि निर्दोष हैं, फिर भी बोल निकल जाता है। वर्तन में बोल निकल जाता है। इसलिए टेपरिकॉर्ड कहते हैं उसे!! टेप रिकॉर्ड हो गया, उसका क्या हो? पर टेपरिकॉर्ड इफेक्टिव है न सारी, इसलिए उसे तो ऐसा ही होता है कि अभी ये दादा ही बोले।

प्रश्नकर्ता : और वह बोलते समय, यह भूल है, ऐसा अंदर होता है क्या?

दादाश्री : हाँ, बोलते समय, ऑन द मॉमेन्ट (तत्क्षण) पता होता है। यह गलत हो रहा है, यह गलत बोला जा रहा है।

प्रश्नकर्ता : वह ठीक है पर उस संत की यह भूल है, ऐसा

(पृ.१३६)

जो बोला जा रहा है, उस समय ऐसा पता होता है न कि उनकी इस अपेक्षा से ऐसी भूल कहलाती है?

दादाश्री : हाँ, किस अपेक्षा से उनकी भूल कहलाती है वह जानते हैं, पर वह मान्यता तो पहले की थी न! यह सब, वह पहले का ज्ञान था। इसलिए आज का टेपरिकॉर्ड नहीं है यह।

प्रश्नकर्ता : इसीलिए पहले का ज्ञान इस टेप में, बोलने में हेल्प करता है?

दादाश्री : हाँ, और अभी तो वह इस समय बोल ही रहा है। पर लोग तो ऐसा ही समझते हैं न कि आज दादा बोले, अभी दादा बोले पर मैं जानता हूँ कि यह पहले का है। इसलिए फिर भी हमें खेद तो हुआ करता है न! ऐसा नहीं निकलना चाहिए। एक अक्षर भी निकलना नहीं चाहिए।

प्रश्नकर्ता : अब ऐसा यदि जैसा है वैसा न बोलो, तो सुनने वाले सब गलत रास्ते पर जाएँगे, ऐसा हो सकता है न?

दादाश्री : सुनने वाले? पर वह बुद्धि की दखल ही है न! वीतरागता को दखल नहीं है न कोई भी!

प्रश्नकर्ता : पर सुनने वाले तो बुद्धि के अधीन ही होते हैं न?

दादाश्री : हाँ। पर मेरी बुद्धि में, ये सुनने वाले को नुकसान होगा इसलिए नुकसान और फ़ायदा, प्रॉफिट और लॉस देखा न? प्रॉफिट एन्ड लॉस तो बुद्धि दिखाती है कि सामने वाले को नुकसान होगा! फिर भी अभी हम इन संत का बोले पर आज यह काम का नहीं है। पर उस समय हम ऐसा नहीं मानते थे कि यह जगत् पूरा निर्दोष है।

प्रश्नकर्ता : उस समय बुद्धि की दखल थी ऐसा हुआ न?

दादाश्री : हाँ, उस समय बुद्धि की दखल थी। इसीलिए यह दखल जाती नहीं है न जल्दी?

(पृ.१३७)

प्रश्नकर्ता : इसीलिए पूरा वर्तन पहले के ही ज्ञान को लेकर है न?

दादाश्री : पहले बुद्धि जब तक थी न, तब तक ये कोंचा (चुभाया) था। पर बुद्धि के जाने के बाद कोंचते नहीं हैं न! नहीं तो बुद्धि हर एक को कोंचती ही रहती है। बुद्धि हमेशा ही जब तक है, तब तक कम्पेयर और कोन्ट्रास्ट चलता ही रहता है।

प्रश्नकर्ता : और सिद्धांत रखा है न कि यह निर्दोष है।

दादाश्री : इसीलिए है निर्दोष और किसलिए ऐसा होता है? हम यह खुला कह देते हैं कि जगत् पूरा निर्दोष है। और एक तरफ ये शब्द ऐसे निकलते हैं।

आश्चर्यकारी, अद्भुत, अक्रम ज्ञानी का पद

यह तो सब साइन्स है। यह धर्म नहीं है। धर्म तो, सब बाहर चलते हैं न, वे सब धर्म कहलाते हैं। वे रिलेटिव धर्म हैं। रिलेटिव यानी नाशवंत धर्म, और यह तो ‘रियल’, तुरंत मोक्षफल देने वाला। तुरंत ही मोक्ष का स्वाद चखा देता है।

ऐसा मोक्षमार्ग चखा है, स्वाद में आ गया है, अनुभव में आ गया है। ‘जगत् पूरा निर्दोष है’ ऐसा आपको समझ में आया है, जबकि भगवान महावीर को वह अनुभव में था। किसी समय आपको समझ नहीं आए और किसी समय झंझट हो जाए, फिर भी तुरंत वापस ज्ञान हाज़िर हो जाता है कि उसका क्या दोष? ‘व्यवस्थित’ है वह समझ में आता है। निमित्त है, समझ में आता है। सब समझ में आ जाता है।

भगवान को अनुभव में था। हमें यह समझ में है। समझ हमारे जैसी रहे न! एक्ज़ेक्ट हाज़िर, शूट ऑन साइट समझ रहती है इसलिए हमारा यह ‘केवलदर्शन’ कहलाता है। आपका ‘केवलदर्शन’ अभी हो रहा है। ‘केवलज्ञान’ हो सके ऐसा नहीं है तो हम उसे किसलिए बुलाएँ? जो हो सके ऐसा नहीं हो उसे कहें ‘पधारो-पधारो’ तो क्या

(पृ.१३८)

होगा? ‘केवलदर्शन’ कोई छोटा पद है? वर्ल्ड का अद्भुत पद है!!! इस दूषमकाल में ‘केवलदर्शन’ तो गज़ब का पद है। सुषमकाल में तीर्थंकरों के समय के पद से भी यह पद ऊँचा कहलाता है। क्योंकि अभी तो तीन प्रतिशत पर पास किए थे, महावीर भगवान के समय में तैंतीस प्रतिशत पर पास करते थे।

‘जगत् पूरा निर्दोष है’ ऐसा समझ में आ गया!

नहीं देखते दादा दोष किसी के

आपके दोष भी हमें दिखते हैं, पर हमारी दृष्टि शुद्धात्मा की तरफ होती है, उदयकर्म की तरफ दृष्टि नहीं होती। हमें सब के दोषों का पता चल जाता है, पर उसका हम पर असर नहीं होता है, इसलिए तो कवि ने लिखा है कि,

‘मा कदी खोड़ काढे नहीं, दादाने य दोष कोईना देखाय नहीं।’

(‘माँ किसी के दोष नहीं निकालती है, दादा को भी किसी के दोष नहीं दिखते हैं।’)

मुझे अभी कोई गालियाँ दे, फिर कहेगा, ‘साहब मुझे माफ़ करो।’ अरे भाई! हमें माफ़ करना नहीं होता है। माफी तो हमारे सहज गुण में ही होती है। सहज स्वभाव ही हमारा हो गया है कि माफी ही बक्शते हैं। तू चाहे जो करे, फिर भी माफी ही बक्शते हैं। ज्ञानी का वह स्वभाविक गुण बन जाता है। और वह आत्मा का गुण नहीं है, न ही देह का गुण है, वे व्यतिरेक गुण हैं सारे।

इन गुणों पर से हम नाप सकते हैं कि आत्मा उतने तक पहुँचा। फिर भी ये आत्मा के गुण नहीं है। आत्मा के खुद के गुण तो वहाँ अंत तक साथ में जाते हैं, वे सब गुण आत्मा के। और व्यवहार में यह हम कहते हैं, वे लक्षण हैं उसके। यदि किसी को थप्पड़ मारें और वह अपने सामने हँसे, तब हम जान जाते हैं कि इन्हें सहज क्षमा है। तब हमें समझ में आता है कि बात ठीक है।

(पृ.१३९)

आपकी निर्बलता हम जानते हैं। और निर्बलता होती ही है। इसीलिए हमारी सहज क्षमा होती है। क्षमा देनी पड़ती नहीं है, मिल जाती है, सहज भाव से। सहज क्षमा गुण तो अंतिम दशा का गुण कहलाता है। हमें सहज क्षमा होती है। इतना ही नहीं पर आपके लिए हमें एक समान प्रेम रहता है। जो बढ़े-घटे वह प्रेम नहीं होता है, वह आसक्ति है। हमारा प्रेम बढ़ता-घटता नहीं है, वही शुद्ध प्रेम, परमात्म प्रेम है।

तब प्रकट हो, मुक्त हास्य

प्रश्नकर्ता : एक अक्षर भी आपका पहुँचे तो निर्दोषता आ जाए।

दादाश्री : और हमारा अक्षर भी पहुँचते देर नहीं लगती। यह ज्ञान जो दिया हुआ है न, इसलिए एक अक्षर भी पहुँचने में देर नहीं लगती।

जगत् पूरा निर्दोष दिखेगा, तब मुक्त हास्य उत्पन्न होगा। भार बिना का मुक्त हास्य उत्पन्न होता ही नहीं, ऐसा नियम है। एक भी मनुष्य दोषित दिखे न, तब तक हास्य उत्पन्न नहीं होता है। और मुक्त हास्य से मनुष्य कल्याण कर देता है। मुक्त हास्य के एक बार दर्शन करे न, तब भी कल्याण हो जाए। वह तो अब खुद उस रूप होना पड़ेगा। खुद हो जाए तो सारा ठीक हो जाए। हमेशा सिर्फ पर्सनालिटी ही कोई काम नहीं करती। खुद का जो चारित्र है वह बहुत बड़ा काम करता है। इसलिए ही तो शास्त्रकारों ने कहा है कि ज्ञानी पुरुष एक उँगली पर पूरा ब्रह्मांड उठा सकते हैं। क्योंकि चारित्रबल है। चारित्रबल मतलब क्या? निर्दोष दृष्टि। निर्दोष दृष्टि दादा के पास सुनी और अभी तो प्रतीति में आई है। हमें अनुभव में होती है। प्रतीति आपको बैठी है ज़रूर, पर अभी वर्तन में आते हुए देर लगेगी न? बाकी मार्ग यह है। मार्ग आसान है और कोई परेशानी आए ऐसा नहीं है।

जय सच्चिदानंद

मूल गुजराती शब्दों के समानार्थी शब्द

ऊपरी : बॉस, वरिष्ठ मालिक

कल्प : कालचक्र

गोठवणी : सेटिंग, प्रबंध, व्यवस्था

नोंध : अत्यंत राग अथवा द्वेष सहित लंबे समय तक याद रखना, नोट करना

नियाणां : अपना सारा पुण्य लगाकर किसी एक वस्तु की कामना करना

पुद्गल : अहंकार

निकाल : निपटारा

भोगवटा : सुख या दु:ख का असर, भुगतना

आगवी : मौलिक

डखा : घोटाला, बखेड़ा, गड़बड़

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