दादा भगवान प्ररुपित

पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार(संक्षिप्त)

मूल गुजराती संकलन : डॉ. नीरू बहन अमीन

अनुवाद : महात्मागण

www.dadabhagwan.org
Table of Contents
‘दादा भगवान’ कौन?
आत्मज्ञान प्राप्ति की प्रत्यक्ष लिंक
निवेदन
प्रस्तावना
संपादकीय
पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार(संक्षिप्त)

‘दादा भगवान’ कौन?

जून 1958 की एक संध्या का करीब छ: बजे का समय, भीड़ से भरा सूरत शहर का रेल्वे स्टेशन पर बैठे श्री ए.एम.पटेल रूपी देहमंदिर ‘दादा भगवान’ पूर्ण रूप से प्रकट हुए और कुदरत ने सर्जित किया अध्यात्म का अद्भुत आश्चर्य। एक घंटे में उन्हें विश्वदर्शन हुआ। ‘मैं कौन? भगवान कौन? जगत् कौन चलाता है? कर्म क्या? मुक्ति क्या?’ इत्यादि जगत् के सारे आध्यात्मिक प्रश्नों के संपूर्ण रहस्य प्रकट हुए।

उन्हें प्राप्ति हुई, उसी प्रकार केवल दो ही घंटों में अन्य को भी प्राप्ति करवाते थे, उनके अद्भुत सिद्ध हुए ज्ञानप्रयोग से। उसे ‘अक्रम मार्ग’ कहा। क्रम अर्थात् सीढ़ी दर सीढ़ी, क्रमानुसार ऊपर चढऩा! अक्रम अर्थात् बिना क्रम के, लिफ्ट मार्ग, शॉर्ट कट!

वे स्वयं प्रत्येक को ‘दादा भगवान कौन?’ का रहस्य बताते हुए कहते थे कि ‘‘यह जो आपको दिखते हैं वे दादा भगवान नहीं हैं, हम ज्ञानी पुरुष हैं और भीतर प्रकट हुए हैं, वे ‘दादा भगवान’ हैं। जो चौदह लोक के नाथ हैं। वे आप में भी हैं, सभी में हैं। आप में अव्यक्त रूप में रहे हुए हैं और ‘यहाँ’ हमारे भीतर संपूर्ण रूप से व्यक्त हुए हैं। मैं खुद भगवान नहीं हूँ। मेरे भीतर प्रकट हुए दादा भगवान को मैं भी नमस्कार करता हूँ।’’

आत्मज्ञान प्राप्ति की प्रत्यक्ष लिंक

परम पूज्य दादा भगवान (दादाश्री) को 1958 में आत्मज्ञान प्रकट हुआ था। उसके बाद 1962 से 1988 तक देश-विदेश परिभ्रमण करके मुमुक्षुजनों को सत्संग और आत्मज्ञान की प्राप्ति करवाते थे।

दादाश्री ने अपने जीवनकाल में ही पूज्य डॉ. नीरू बहन अमीन (नीरू माँ) को आत्मज्ञान प्राप्त करवाने की ज्ञानसिद्धि प्रदान की थी। दादाश्री के देहविलय पश्चात् नीरू माँ उसी प्रकार मुमुक्षुजनों को सत्संग और आत्मज्ञान की प्राप्ति, निमित्त भाव से करवा रही थी।

आत्मज्ञानी पूज्य दीपक भाई देसाई को दादाश्री ने सत्संग करने की सिद्धि प्रदान की थी। वर्तमान में पूज्य नीरू माँ के आशीर्वाद से पूज्य दीपक भाई देश-विदेश में निमित्त भाव से आत्मज्ञान करवा है।

इस आत्मज्ञान प्राप्ति के बाद हज़ारों मुमुक्षु संसार में रहते हुए, सभी ज़िम्मेदारियाँ निभाते हुए भी मुक्त रहकर आत्मरमणता का अनुभव करते हैं।

निवेदन

ज्ञानी पुरुष संपूज्य दादा भगवान के श्रीमुख से अध्यात्म तथा व्यवहारज्ञान से संबंधित जो वाणी निकली, उसको रिकॉर्ड करके, संकलन तथा संपादन करके पुस्तकों के रूप में प्रकाशित किया जाता है। विभिन्न विषयों पर निकली सरस्वती का अद्भुत संकलन इस पुस्तक में हुआ है, जो नए पाठकों के लिए वरदान रूप साबित होगा।

प्रस्तुत अनुवाद में यह विशेष ध्यान रखा गया है कि वाचक को दादाजी की ही वाणी सुनी जा रही है, ऐसा अनुभव हो, जिसके कारण शायद कुछ जगहों पर अनुवाद की वाक्य रचना हिन्दी व्याकरण के अनुसार त्रुटिपूर्ण लग सकती है, लेकिन यहाँ पर आशय को समझकर पढ़ा जाए तो अधिक लाभकारी होगा।

प्रस्तुत पुस्तक में कई जगहों पर कोष्ठक में दर्शाए गए शब्द या वाक्य परम पूज्य दादाश्री द्वारा बोले गए वाक्यों को अधिक स्पष्टतापूर्वक समझाने के लिए लिखे गए हैं। जबकि कुछ जगहों पर अंग्रेजी शब्दों के हिन्दी अर्थ के रूप में रखे गए हैं। दादाश्री के श्रीमुख से निकले कुछ गुजराती शब्द ज्यों के त्यों इटालिक्स में रखे गए हैं, क्योंकि उन शब्दों के लिए हिन्दी में ऐसा कोई शब्द नहीं है, जो उसका पूर्ण अर्थ दे सके। हालांकि उन शब्दों के समानार्थी शब्द अर्थ के रूप में, कोष्ठक में और पुस्तक के अंत में भी दिए गए हैं।

ज्ञानी की वाणी को हिन्दी भाषा में यथार्थ रूप से अनुवादित करने का प्रयत्न किया गया है किन्तु दादाश्री के आत्मज्ञान का सही आशय, ज्यों का त्यों तो, आपको गुजराती भाषा में ही अवगत होगा। जिन्हें ज्ञान की गहराई में जाना हो, ज्ञान का सही मर्म समझना हो, वह इस हेतु गुजराती भाषा सीखें, ऐसा हमारा अनुरोध है।

अनुवाद से संबंधित कमियों के लिए आपसे क्षमाप्रार्थी हैं।

*****

प्रस्तावना

निगोद में से एकेन्द्रिय और एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक के उत्क्रमण और उसमें से मनुष्य का परिणमन हुआ तब से युगलिक स्त्री और पुरुष साथ में जन्मे, ब्याहे और निवृत्त हुए... ऐसे उदय में आया मनुष्य का पति-पत्नी का व्यवहार! सत्युग, द्वापर और त्रेतायुग में प्राकृतिक सरलता के कारण पति-पत्नी के बीच जीवन में समस्याएँ कभी-कभार ही आती थी। आज, इस कलिकाल में बहुधा हर जगह प्रतिदिन पति-पत्नी के बीच क्लेश, झगड़े, और मतभेद देखने में आते हैं। इसमें से बाहर निकल कर पति-पत्नी का आदर्श जीवन कैसे जी सकें, इसका मार्गदर्शन इस काल के अनुरूप किस शास्त्र में मिलेगा? अब क्या किया जाए? आज के लोगों की वर्तमान समस्याएँ और उनकी भाषा में ही उन समस्याओं के हल, इस काल के प्रकट ज्ञानी पुरुष ही दे सकते हैं। ऐसे प्रकट ज्ञानी पुरुष, परम पूज्य दादाश्री को उनकी ज्ञानावस्था के तीस वर्षों में पति-पत्नी के बीच हुए घर्षण के समाधान के लिए पूछे गए हज़ारों प्रश्नों में से कुछ संकलित कर यहाँ प्रस्तुत पुस्तक में प्रकाशित किए जा रहे हैं।

पति-पत्नी के बीच की अनेक जटिल समस्याओं के समाधान रूपी हृदयस्पर्शी और स्थायी समाधान करनेवाली वाणी यहाँ सुज्ञ पाठकों को उनके वैवाहिक जीवन में एक दूसरे के प्रति देवी-देवता जैसी दृष्टि निशंक ही उत्पन्न कर देगी, मात्र हृदयपूर्वक पढ़कर समझने से ही।

शास्त्रों में गहन तत्वज्ञान मिलता है, पर वह शब्दों में ही मिलता है। शास्त्र उससे आगे नहीं ले जा सकते। व्यवहारिक जीवन के पंक्चर को जोड़ना तो उसके एक्सपर्ट अनुभवी ही सिखा सकते हैं! संपूर्ण आत्मज्ञानी दादाश्री, पत्नी के साथ आदर्श व्यवहार को संपूर्ण अनुभव कर अनुभववाणी से समाधान करते हैं, जो प्रभावपूर्ण रीति से काम करता है। इस काल के अक्रम ज्ञानी की विश्व के लिए यह बेजोड़ भेंट है, व्यवहार ज्ञान की बोधकला की!

संपूज्य दादाश्री के पास कईं पति, पत्नी और युगल ने अपने दु:खमय जीवन की समस्याएँ प्रस्तुत की थीं; कभी अकेले में, तो कभी सार्वजनिक सत्संग में। ज़्यादातर बातें अमरीका में हुई थीं, जहाँ फ्रीली, ओपनली (खुले आम, मुक्तता से) सभी निजी जीवन के बारे में बोल सकते हैं। निमित्ताधीन परम पूज्य दादाश्री की अनुभव वाणी निकली, जिसका संकलन पढऩेवाले प्रत्येक पति-पत्नी का मार्गदर्शन कर सकता है। कभी पति को उलाहना देते, तो कभी पत्नी को झाड़ते, जिस निमित्त को जो कहने की ज़रूरत हो, उसे आरपार देखकर दादाश्री सार निकाल कर वचन बल से रोग निर्मूल करते थे।

सुज्ञ पाठकों से निवेदन है कि वे गैरसमझ से दुरुपयोग न कर बैठें कि दादा ने तो स्त्रियों का ही दोष देखा है अथवा पतिपने को ही दोषित ठहराया है! पति को पतिपने का दोष दिखाती वाणी और पत्नी को उसके प्राकृतिक दोषों को प्रकट करती वाणी दादाश्री के मुख से प्रवाहित हुई है। उसे सही अर्थ में ग्रहण कर स्वयं के शुद्धिकरण हेतु मनन, चिंतन करने की पाठकों से नम्र विनती है।

- डॉ. नीरु बहन अमीन

संपादकीय

ब्याहते ही मिली, रसोईन फ्री ऑफ कोस्ट में,

झाडू वाली, पोंछे वाली और धोबिन मुफ्त में !

चौबीस घंटे नर्सरी, और पति को सिन्सियर,

अपनाया ससुराल, छोड़ माँ-बाप, स्वजन पीहर!

माँगे कभी न तनखाह-बोनस-कमिशन या बख्शीश!

कभी माँगे अगर साड़ी, तब क्यों पति को आए रीस?

आधा हिस्सा बच्चों में, पर डिलीवरी कौन करे?

उस पर पीछे नाम पति का, फिर क्यों देते हो ताने?

देखो केवल दो भूलें स्त्री की, चरित्र या घर का नुकसान,

कढ़ी खारी या फोड़े काँच, छोटी भूलों को दो क्षमादान!

पत्नी टेढ़ी चले तब, देखो गुण, गिनो बलिदान,

घर-बहू को सँभाल, उसी में पुरुष तेरा बड़प्पन!

पति को समझेगी कब तक, भोला-कमअक़्ल?

देख-भाल कर लाई है तू, अपना ही मनपसंद!

पसंद किया, माँगा पति, उम्र में खुद से बड़ा,

उठक-बैठक करता, लाती जो गोदी में छोटा!

रूप, पढ़ाई, ऊँचाई में, माँगा सुपीरियर,

नहीं चलेगा सनकी, बावरची, चाहिए सुपर!

शादी के बाद, तू ऐसा, तू वैसा क्यों करे?

समझ सुपीरियर अंत तक, तो संसार सोहे!

पति सूरमा घर में, खूँटी बँधी गाय को मारे,

अंत में बिफरे गाय तो बाघिन का वेश धरे !

पचास साल तक, बात-बात में टोका दिनरात!

वसूली में फिर बच्चे करें माँ का पक्षपात!

‘अपक्ष’ होकर रहा मुआ, घर वालों की खाए मार,

सीधा होजा, सीधा होजा, पा ले ‘मुक्ति’ का अधिकार!

मोटा पति खोजे फिगर, सुंदरी का जो रखे रौब,

सराहेंगे जो पत्नी को, मन से लेंगे वे भोग!

प्रथम गुरु स्कूल में, फिर बनाया पत्नी को गुरु,

पहले पसंद नहीं थे चश्मे, फिर बनाई ‘ऐनक बहू’!

मनपसंद की ढूँढने में, हो गई भारी भूल,

शादी करके पछताए, ठगे गए भरपूर!

क्लेश बहुत हो पत्नी संग, तो कर दो विषय बंद,

बरस बाद परिणाम देख, दृष्टि खुले विषय अंध!

ब्रह्मचर्य के नियम रख, शादी-शुदा ये तेरा लक्ष्य,

दवाई पी तभी जब चढ़े, बुखार दोनों पक्ष!

मीठी है इसलिए दवाई, बार-बार पीना नहीं,

पीयो नियम से जब, चढ़े बुखार दोनों को ही।

एक पत्नीव्रत जहाँ, दृष्टि भी बाहर न बिगड़े,

कलियुग में है यही ब्रह्मचर्य, ज्ञानी पुरुष दादा कहें!

टेढ़ी बीवी, मैं सीधा, दोनों में कौन पुण्यवान?

टेढ़ी तेरे पाप से, पुण्य से पाया सीधा कंथ!

किसका गुनाह? कौन है जज? भुगते उसी की भूल,

कुदरत का न्याय समझ लो, भूल होगी निर्मूल!

सँभाले मित्र और गाँव को, करे घर में लठ्ठबाज़ी,

सँभाले जो जीवन भर, वहीं चूक गया वह पाजी!

बाहर बचाए आबरू, बेआबरू घर में मगर!

देखो उल्टा न्याय, बासमती में डाले कंकड़!

‘मेरी बीबी मेरी बीबी’ कह, डाले ममता के पेच,

‘नहीं मेरी, नहीं मेरी’ कह, खोलो अंतर के पेच!

शादी करके कहे पति, तेरे बिन कैसे जीएँ?

मरने पर न हुआ ‘सता’, न ही कोई अब सती दिखे!

यह तो आसक्ति पुद्गल की, नहीं है सच्चा प्रेम!

न देखे दोष, न अपेक्षा, न रखे द्वेष वहीं शुद्ध प्रेम!

तू ऐसा, तू वैसी, अभेदता में आया भेद,

हुआ शांति का अंत जो, हुआ ज़रा-सा भेद!

एक आँख में प्रेम, और दूसरी में है सख्ती जहाँ,

देखे इस प्रकार पत्नी को, जीते संसारी वहाँ!

वन फैमिली होकर जीओ, करो नहीं मेरी-तेरी,

सुधारने पत्नी को चला, क्या अपनी जात सुधारी?

आर्य नारी के माथे पर बिंदी, एक पति का ध्यान,

रंगना पड़े पूरा मुँह और भाल, जो हो परदेशन!

एक दूजे की भूलें निभा लो, वही प्रेममय जीवन,

घटे-बढ़े नहीं कभी जो, वही सच्चा प्रेम दर्शन!

- डॉ. नीरु बहन अमीन

पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार(संक्षिप्त)

[1] वन फैमिली

जीवन जीना अच्छा कब लगता है कि जब सारा दिन उपाधि (बाहर से आने वाले दु:ख) नहीं हो। जीवन शांति से व्यतीत हो, तब जीवन जीना अच्छा लगता है। यह तो घर में क्लेश होता रहता है, तब जीवन जीना कैसे अच्छा लगे? यह तो पुसाएगा ही नहीं न! घर में क्लेश नहीं होना चाहिए। शायद कभी पड़ोसी के साथ हो या बाहर के लोगों के साथ हो, मगर घर में भी? घर में फैमिली की तरह लाइफ जीनी चाहिए। फैमिली लाइफ कैसी होती है? घर में प्रेम, प्रेम और प्रेम ही छलकता रहे। अब तो फैमिली लाइफ ही कहाँ है? दाल में नमक ज़्यादा हो तो सारा घर सिर पर उठा लेता है। ‘दाल खारी है’ कहता है! अन्डर डेवेलप्ड (अर्ध विकसित) लोग। डेवेलप्ड (विकसित) किसे कहते हैं कि जो दाल में नमक ज़्यादा हो, तो उसे एक ओर रखकर बाकी भोजन खा ले। क्या यह नहीं हो सकता ? दाल एक ओर रखकर दूसरा सब नहीं खा सकते? ‘दिस इज़ फैमिली लाइफ।’ बाहर तकरार करो न! माई फैमिली का अर्थ क्या? कि हमारे बीच तकरार नहीं है किसी भी तरह की। एडजस्टमेन्ट लेना चाहिए। खुद की फैमिली में एडजस्ट होना आना चाहिए। एडजस्ट एवरीव्हेर।

आपको ‘फैमिली ऑर्गनाइज़ेशन’ का ज्ञान है? अपने हिन्दुस्तान में ‘हाउ टु ऑर्गनाइज़ फैमिली’, उस ज्ञान की ही कमी है। ‘फ़ॉरेन’ वाले तो ‘फैमिली’ जैसा कुछ समझते ही नहीं। वे तो, जेम्स बीस साल का हो गया तो, उसके माता-पिता, विलियम और मेरी, जेम्स

(पृ.२)

से कहेंगे कि, ‘तू अलग और हम तोता-मैना अलग!’ उन्हें फैमिली ऑर्गनाइज़ करने की आदत ही नहीं है न! और उनकी फैमिली तो स्पष्ट ही कहती है। मेरी के साथ विलियम को अच्छा न लगे तो ‘डायवोर्स’ की ही बात! और हमारे यहाँ ‘डायवोर्स’ की बात कहाँ? हमें तो साथ-साथ ही रहना है। तकरार करनी है और फिर साथ में वहीं एक ही कमरे में सोना भी है। यह जीने का तरीका नहीं है। इसे फैमिली लाइफ नहीं कहते!

और अपने देश में तो लोग फैमिली डॉक्टर भी रखते हैं। अरे, अभी फैमिली तो बनी नहीं, वहाँ फैमिली डॉक्टर कहाँ रखता है!

ये लोग फैमिली डॉक्टर रखते हैं, लेकिन यहाँ पत्नी फैमिली नहीं! कहते हैं, ‘हमारे फैमिली डॉक्टर आए हैं!’ तो उनके साथ कोई किच-किच नहीं करते। डॉक्टर ने बिल ज़्यादा बनाया हो तब भी किच-किच नहीं करते। तब कहते है, ‘हमारे फैमिली डॉक्टर हैं न!’ वे मन में ऐसा समझते हैं कि हमारा रौब जम गया, फैमिली डॉक्टर रखे हैं, इसलिए!

फैमिली के सदस्य का ऐसे हाथ लग जाए तो हम उसके साथ झगड़ते हैं? नहीं! एक फैमिली की तरह रहना। बनावट मत करना। लोग जो दिखावा करते हैं, ऐसा नहीं। एक फैमिली... ‘तुम्हारे बिना मुझे अच्छा नहीं लगता’, ऐसा कहना। वह हमें डाँटे न, उसके थोड़ी देर बाद कह देना, ‘तू चाहे कितना भी डाँटे मगर मुझे तुम्हारे बगैर अच्छा नहीं लगता।’ ऐसा कहना। इतना गुरु मंत्र बोलना। ऐसा कभी बोलते ही नहीं न! आपको बोलने में कोई हर्ज है? तुम्हारे बगैर अच्छा नहीं लगता! मन में प्रेम रखते हैं लेकिन थोड़ा-बहुत दिखाना भी।

[2] घर में क्लेश

कभी घर में क्लेश होता है? आपको कैसा लगता है? घर में क्लेश होता है वह अच्छा लगता है?

प्रश्नकर्ता : क्लेश बिना तो नहीं चलती दुनिया।

(पृ.३)

दादाश्री : तब तो वहाँ भगवान रहेंगे ही नहीं। जहाँ क्लेश है वहाँ भगवान नहीं रहते।

प्रश्नकर्ता : वह तो है लेकिन कभी-कभी तो होना चाहिए न ऐसा, क्लेश?

दादाश्री : नहीं, वह क्लेश होना ही नहीं चाहिए। क्लेश क्यों होना चाहिए इंसान के घर? क्लेश किसलिए होना चाहिए? और क्लेश होने से अच्छा लगेगा? क्लेश हो तो आपको कितने महिनों तक अच्छा लगेगा?

प्रश्नकर्ता : बिल्कुल नहीं।

दादाश्री : एक महीना भी अच्छा नहीं लगेगा, नहीं? मजेदार खाना, सोने के गहने पहनना और ऊपर से क्लेश करना। यानी जीवन जीना नहीं आता उसका यह क्लेश है। जीवन जीने की कला नहीं जानते, उसका ही यह क्लेश है। आप तो कौन-सी कला के माहिर हैं कि डॉलर किस तरह कमाएँ! बस वही सोचते रहते हैं। लेकिन जीवन कैसे जीएँ, उस बारे में नहीं सोचा। नहीं सोचना चाहिए?

प्रश्नकर्ता : सोचना चाहिए, लेकिन हर एक का तरीका अलग अलग होता है।

दादाश्री : नहीं, सबका तरीका अलग-अलग नहीं होता, एक ही तरह का। डॉलर, डॉलर। और फिर हाथ में आने पर हज़ार डॉलर वहाँ स्टोर में खर्च कर डालता है। चीज़ें घर में लाकर बसाता है। और यहाँ उसने जो कुछ भी बसाया उसे क्या देखते रहना चाहिए? फिर जब पुराना हो जाए तो दूसरा ले आता है। सारा दिन तोड़-जोड़, तोड़-जोड़, दु:ख, दु:ख और दु:ख, परेशानी-परेशानी और परेशानी। अरे, ऐसा जीवन कैसे जीया जाए? ऐसा मनुष्य को शोभा देता है? क्लेश नहीं होना चाहिए, कलह नहीं होना चाहिए। कुछ नहीं होना चाहिए।

प्रश्नकर्ता : लेकिन क्लेश किसे कहते हैं?

दादाश्री : ओहो... ऐसे घर वालों के साथ, बाहर वालों के

(पृ.४)

साथ, वाइफ के साथ टकराए, उसे क्लेश कहते हैं। मन टकराए और फिर थोड़ी देर अलग रहे, उसे क्लेश कहते हैं। दो-तीन घंटे लड़े और फिर तुरंत एक हो जाए तो हर्ज नहीं लेकिन टकराकर दूर रहे, तो वह क्लेश कहलाता है। बारह घंटे दूर रहे तो सारी रात क्लेश में कटती है।

प्रश्नकर्ता : आपने जो कलह की बात कही वह पुरुष में ज़्यादा है या स्त्री में ज़्यादा है?

दादाश्री : वह तो स्त्री में ज़्यादा होता है, कलह।

प्रश्नकर्ता : उसका कारण क्या है?

दादाश्री : ऐसा है न, कभी जब झगड़ा हो जाता है, तब क्लेश हो जाता है। क्लेश होना अर्थात् झट से सुलग कर बुझ जाना। पुरुष और स्त्री में क्लेश हो जाए तब पुरुष उसे छोड़ देगा लेकिन स्त्री उसे जल्दी नहीं छोड़ती और क्लेश में से कलह खड़ी हो जाती है। ये पुरुष छोड़ देते हैं लेकिन ये स्त्रियाँ छोड़ती नहीं हैं फिर और क्लेश में से कलह खड़ी हो जाती है। फिर वह मुँह फुलाकर घूमती रहती है, मानो हमने उसे तीन दिन तक भूखा रखा हो ऐसा करती रहती है!

प्रश्नकर्ता : तो फिर इस कलह को दूर करने के लिए क्या करें?

दादाश्री : आप क्लेश नहीं करोगे, फिर कलह नहीं होगी। वास्तव में आप ही क्लेश करके आग लगाते हो। आज खाना अच्छा नहीं बनाया, आज तो मेरा मुँह बिगड़ गया, ऐसा करके क्लेश खड़ा करते हो और फिर वह कलह करती है।

प्रश्नकर्ता : मुख्य बात यह है कि घर में शांति रहनी चाहिए।

दादाश्री : मगर शांति कैसे रहेगी? लड़की का नाम शांति रखें, फिर भी शांति नही रहती। उसके लिए तो धर्म समझना चाहिए। घर के सभी सदस्यों से कहना चाहिए कि, ‘हम घर के सभी सदस्य आपस में किसी के बैरी नहीं हैं, किसी का किसी से झगड़ा नहीं है। हमें मतभेद करने की कोई ज़रूरत नहीं हैं। आपस में मिल-बाँटकर

(पृ.५)

शांतिपूर्वक खाओ-पीओ। आनंद करो, मौज करो।’ इस प्रकार हमें सोच-समझकर सब करना चाहिए। घर वालों के साथ क्लेश कभी भी नहीं करना चाहिए। उसी घर में पड़े रहना है फिर क्लेश किस काम का? किसी को परेशान करके खुद सुखी हो सके, ऐसा कभी नहीं होता और हमें तो सुख देकर सुख लेना है। हम घर में सुख देंगे, तभी सुख मिलेगा और वह चाय-पानी भी ठीक से बनाकर देगी, वर्ना खराब करके देगी।

यह तो कितनी चिंता-संताप! मतभेद ज़रा भी कम नहीं होता, फिर भी मन में मानता है कि मैंने कितना धर्म किया! अरे, घर में मतभेद टला? कम भी हुआ है? चिंता कम हुई? कुछ शांति आई? तब कहता है कि नहीं, लेकिन मैंने धर्म तो किया न? अरे, तू किसे धर्म कहता है? धर्म तो भीतर शांति देता है। जहाँ आधि-व्याधि-उपाधि नहीं हो, वह धर्म! स्वभाव (आत्मा) की ओर जाना धर्म कहलाता है। यह तो क्लेश परिणाम बढ़ते ही रहते हैं!

वाइफ के हाथ से अगर पंद्रह-बीस इतनी बड़ी काँच की डिशें और ग्लास-वेयर गिरकर फूट जाएँ तो? उस वक्त आप पर कोई असर होता है क्या?

दु:ख होता है, इसलिए कुछ बड़बड़ाए बगैर रहते नहीं हो न! यह रेडियो बजाए बगैर रहता ही नहीं! दु:ख हुआ कि रेडियो शुरू, इसलिए उसे (वाइफ को) दु:ख होता है फिर। तब फिर वह भी क्या कहेगी? हाँ, जैसे तुम्हारे हाथों तो कभी कुछ टूटता ही नहीं! यह समझने की बात है कि डिशें गिर जाती हैं न। उसे हम कहें कि तू फोड़ डाल तो नहीं फोड़ेगी। फोड़ेगी कभी? वह कौन फोड़ता होगा? इस वल्र्ड में कोई मनुष्य एक डिश भी फोड़ने की शक्ति नहीं रखता। यह तो सब हिसाब बराबर हो रहा है। डिशें टूटने पर हमें पूछना चाहिए कि तुम्हें लगी तो नहीं है न?

अगर सोफे के लिए झगड़ा होता हो तो सोफे को बाहर फेंक दो। वह सोफा तो दस-बीस हज़ार का होगा, उसके लिए झगड़ा

(पृ.६)

कैसा? जिसने फाड़ा हो उसके प्रति द्वेष होता है। अरे भाई, फेंक आ। जो चीज़ घर में झगड़ा खड़ा करे, उस चीज़ को बाहर फेंक आ।

जितना समझ में आता है, उतनी श्रद्धा बैठती है। उतना ही वह फल देती है, मदद करती है। श्रद्धा नहीं बैठे तो वह मदद नहीं करती। इसलिए समझकर चलोगे तो अपना जीवन सुखी होगा और उनका भी सुखी होगा। अरे! आपकी पत्नी आपको पकौड़े और जलेबियाँ बनाकर नहीं देतीं?

प्रश्नकर्ता : बनाकर देती है!

दादाश्री : हाँ तो फिर? उनका उपकार नहीं मानते, क्योंकि वह हमारी पार्टनर है, ‘इसमें उनका क्या उपकार?’ हम पैसे लाते हैं और वह यह सब कर देती है, उसमें दोनों की पार्टनरशिप है। बच्चे भी पार्टनरशिप में हैं, उस अकेली के थोड़े ही हैं? उसने जन्म दिया तो क्या उस अकेली के हैं? बच्चे दोनों के होते हैं। दोनों के हैं या उनके अकेली के?

प्रश्नकर्ता : दोनों के।

दादाश्री : हाँ। क्या पुरुष बच्चे को जन्म देने वाले थे? अर्थात् यह जगत् समझने जैसा है! कुछ मामलों में समझने जैसा है। और वह बात ज्ञानी पुरुष समझाते हैं। उन्हें कुछ लेना-देना नहीं होता। इसलिए वे समझाते हैं कि भाई, यह अपने हित में है। उससे घर में क्लेश कम होता है, तोड़फोड़ भी कम होती है।

कृष्ण भगवान ने कहा है, बुद्धि दो प्रकार की है, अव्यभिचारिणी और व्यभिचारिणी। व्यभिचारिणी अर्थात् दु:ख ही देती है और अव्यभिचारिणी बुद्धि, सुख ही देती है। दु:ख में से सुख खोज निकालती है। और यह तो बासमती चावल में कंकड़ मिलाकर खाते हैं। यहाँ अमरीका में खाने का कितना अच्छा और शुद्ध घी मिलता है, दही मिलता है, कितना अच्छा भोजन! ज़िंदगी सरल है फिर भी जीवन जीना नहीं आता, इसलिए मार खाते हैं न लोग!

(पृ.७)

हमारे लिए हितकारी क्या है, इतना तो सोचना चाहिए न! शादी की, उस दिन का आनंद याद करें, वह हितकारी है या विधुर हुए, उस दिन का शोक याद करें, वह हितकारी है?

हमें तो शादी के समय ही विधुर होने का विचार आया था! तब शादी के समय नया साफ़ा बाँधा था। हम क्षत्रियपुत्र कहलाते हैं, उन दिनों पगड़ी पहनते थे और कुर्ता पहनकर 15-16 साल का लड़का एकदम सुंदर दिखाई देता था। और क्षत्रियपुत्र यानी मज़बूत होते थे।

बाद में साफा खिसका तो अंदर विचार आया कि यह शादी तो कर रहे हैं, हैं तो अच्छे, शादी भी हो रही है, लेकिन दोनों में से एक को तो वैधव्य आएगा ही!

प्रश्नकर्ता : उतनी उम्र में आपको ऐसे विचार आए थे?

दादाश्री : हाँ, नहीं आएगा भला? एक पहिया तो टूटेगा न? शादी हुई है तो वैधव्य आए बगैर रहेगा नहीं।

प्रश्नकर्ता : लेकिन शादी के समय तो सिर पर शादी का जोश सवार होता है, कितना मोह होता है! उसमें ऐसा वैराग्य का विचार कहाँ आता है?

दादाश्री : लेकिन उस समय विचार आया कि शादी हुई और बाद में वैधव्य तो आएगा ही। दो में से एक को तो वैधव्य आएगा, या तो उन्हें आएगा या तो मुझे आएगा।

सभी की मौजूदगी में, सूर्यनारायण की साक्षी में, पंडितजी की साक्षी में शादी की उस समय पंडितजी ने कहा था कि ‘समय वर्ते सावधान’। तो तुझे सावधान होना भी नहीं आता? समय के अनुसार सावधान होना चाहिए। पंडितजी कहते हैं कि ‘समय वर्ते सावधान’। उसे पंडितजी समझते हैं, मगर शादी करने वाला क्या समझेगा? सावधान का अर्थ क्या है? जब बीवी उग्र हो जाए तब तू ठंडा हो जाना, सावधान हो जाना। ‘समय वर्ते सावधान’ यानी जैसा समय आए, उस अनुसार सावधान रहने की ज़रूरत है। तभी संसार में शादी करनी

(पृ.८)

चाहिए। अगर वह उछले और हम भी उछलने लगें तो असावधानी कहलाएगी। वह उछले तब हमें शांत रहना है। सावधान रहने की ज़रूरत नहीं है? यानी हम तो सावधान रहे थे। दरार पड़ने नहीं दी। दरार पड़ने लगे तो तुरंत वेल्डिंग सेट चालू कर देते थे।

प्रश्नकर्ता : क्लेश होने का मूल कारण क्या है?

दादाश्री : भयंकर अज्ञानता! उसे संसार में जीना नहीं आता, लड़के का बाप होना नहीं आता, पत्नी का पति होना नहीं आता। जीवन जीने की कला ही नहीं आती। ये तो सुख होने पर भी सुख नहीं भोग सकते।

प्रश्नकर्ता : लेकिन कलह पैदा होने का कारण यह है कि, स्वभाव मेल नहीं खाता?

दादाश्री : अज्ञानता है, इसलिए। संसार का अर्थ ही यह है कि किसी का स्वभाव किसी से मिलता ही नहीं। जिसे यह ज्ञान प्राप्त हुआ हो उसके पास एक ही रास्ता है, ‘एडजस्ट एवरीव्हेर’।

जहाँ क्लेश होता है, वहाँ भगवान का वास नहीं रहता। यानी हम लोग ही भगवान से कहते हैं, ‘साहब, आप मंदिर में रहना, मेरे घर मत आना। हम मंदिर बनवाएँगे, लेकिन हमारे घर मत आना।’ जहाँ क्लेश नहीं होता, वहाँ भगवान का वास निश्चित है, इसकी मैं तुम्हें ‘गारन्टी’ देता हूँ। क्लेश हुआ कि भगवान चले जाते हैं। और भगवान चले जाते हैं तो लोग हमें क्या कहते हैं, धंधे में कुछ बरकत नहीं रही। अरे, भगवान गए इस कारण बरकत नहीं आती। भगवान अगर रहें न, तब तक धंधे में अच्छी बरकत आती है। आपको पसंद है क्लेश?

प्रश्नकर्ता : नहीं।

दादाश्री : फिर भी हो जाता है न?

प्रश्नकर्ता : कभी-कभी।

दादाश्री : वह तो दिवाली भी कभी-कभी ही आती है न, हर रोज़ थोड़े ही आती है?

(पृ.९)

प्रश्नकर्ता : बाद में पंद्रह मिनट में शांत हो जाता है, क्लेश बंद हो जाता है।

दादाश्री : अपने भीतर से क्लेश निकाल दो। जिनके यहाँ घर में क्लेश है, वहाँ से मनुष्यता चली जाती है। बड़े पुण्य से मनुष्य जीवन प्राप्त होता है, वह भी हिन्दुस्तान का मनुष्य! और वह भी फिर यहाँ (अमेरिका में) आपको, वहाँ हिन्दुस्तान में तो शुद्ध घी खोजने पर भी नहीं मिलता और आपको यहाँ पर रोज़ शुद्ध ही मिलता है। अशुद्ध तो ढूँढने पर भी नहीं मिले, कितने पुण्यवान हो! लेकिन इस पुण्य का भी फिर दुरुपयोग होता है।

अपने घर में क्लेश रहित जीवन जीना चाहिए, इतनी कुशलता तो आप में होनी चाहिए। दूसरा कुछ नहीं आए तो उन्हें समझाना चाहिए कि ‘क्लेश होगा तो हमारे घर में से भगवान चले जाएँगे। इसलिए तू तय कर कि हमें क्लेश नहीं करना है!’ और आप भी तय करो कि क्लेश नहीं करना है। तय करने के बाद क्लेश हो जाए तो समझना कि यह आपकी सत्ता के बाहर हुआ है। यानी वह क्लेश कर रहा हो तो भी आप ओढ़कर सो जाना। वह भी थोड़ी देर बाद सो जाएगा। लेकिन अगर आप भी उनसे बहस करोगे तो?

क्लेश नहीं हो ऐसा निश्चय करो न! तीन दिन के लिए तो निश्चय करके देखो न! प्रयोग करने में क्या हर्ज है? तीन दिन का उपवास करते हैं न स्वास्थ्य के लिए? उसी तरह यह भी तय तो करके देखो। घर में आप सब मिलकर तय करो कि ‘दादा जो बात कर रहे थे, वह बात मुझे पसंद आई है, इसलिए हम आज से क्लेश छोड़ दें।’ फिर देखो।

प्रश्नकर्ता : यहाँ अमरीका में औरतें भी नौकरी करती हैं न, इसलिए ज़रा ज़्यादा पावर आ जाता है औरतों को, इसलिए हज़बेन्ड-वाइफ में ज़्यादा किट-किट होती है।

दादाश्री : पावर आए तो अच्छा है न बल्कि, आपको तो यह समझना है कि ‘अहोहो! बिना पावर के थे, अब पावर आया तो

(पृ.१०)

अच्छा हुआ हमारे लिए!’ बैलगाड़ी ठीक से चलेगी न? बैलगाड़ी के बैल ढीले हों तो अच्छा या पावर वाले हों तो?

प्रश्नकर्ता : लेकिन गलत पावर करे, तब खराब चलेगा न? अच्छा पावर करती हो तो ठीक है।

दादाश्री : ऐसा है न, पावर को मानने वाला नहीं हो, तो उसका पावर दीवार से टकराएगा। वह ऐसे रौब मारेगी और वैसे रौब मारेगी परंतु यदि आप पर कुछ असर नहीं होगा तो उसका सारा पावर दीवार से टकराकर फिर उसीको वापस लगेगा।

प्रश्नकर्ता : आपके कहने का मतलब ऐसा है कि हमें औरतों की सुननी ही नहीं चाहिए?

दादाश्री : सुनो, अच्छी तरह से सुनो, आपके हित की बात हो तो सब सुनो और पावर जब टकराए, उस घड़ी मौन रहना। आप यह देख लेना कि कितना पीया है। पीया होगा, उसी अनुसार पावर इस्तेमाल करेगी न?

प्रश्नकर्ता : ठीक है। उसी प्रकार जब पुरुष भी व्यर्थ पावर दिखाएँ तब?

दादाश्री : तब आप ज़रा ध्यान रखना। आज थोड़े उल्टे चल रहे हैं ऐसा मन में कहना, मुँह पर कुछ मत कहना।

प्रश्नकर्ता : हाँ... नहीं तो ज़्यादा उल्टा करेंगे।

दादाश्री : ‘आज उल्टे चले हैं, कहती हैं... ऐसा नहीं होना चाहिए। कितना सुंदर... दो मित्र आपस में ऐसा करते हैं क्या? ऐसा करें तब मैत्री टिकेगी क्या? उसी प्रकार ये स्त्री-पुरुष दोनों मित्र ही कहलाते हैं। अर्थात् मैत्री भाव से घर चलाना है, उसके बदले यह दशा कर डाली! क्या इसलिए लोग ग्रीन कार्ड वालों के साथ अपनी लड़कियों की शादी करवाते होंगे? ऐसा करने के लिए? क्या यह हमें शोभा देता है? आपको क्या लगता है? यह हमें शोभा नहीं देता।

(पृ.११)

संस्कारी किसे कहते हैं? घर में क्लेश हो, वे संस्कारी कहलाते हैं या क्लेश नहीं हो, वे?

पहले तो घर में क्लेश नहीं होना चाहिए और अगर हो जाए तो उसे पलट लेना चाहिए। थोड़ा होने लगे ऐसा हो, हमें लगे कि अभी ज्वाला भभकेगी, उससे पहले ही पानी छिड़क कर ठंडा कर देना। पहले की तरह क्लेशयुक्त जीवन जीओ तो उसका क्या फायदा? उसका अर्थ ही क्या? क्लेशयुक्त जीवन नहीं होना चाहिए न? क्या बाँटकर ले जाना है? घर में साथ में खाना-पीना है, फिर कलह किस बात की? अगर कोई, आपके पति के लिए कुछ कहे तो बुरा लगता है कि मेरे पति के बारे में ऐसा कहते हैं और खुद पति से कहती हैं कि ‘तुम ऐसे हो, वैसे हो’, ऐसा सब नहीं होना चाहिए। पति को भी ऐसा नहीं करना चाहिए। आप में क्लेश होगा न, तो बच्चों के जीवन पर असर पड़ेगा। कोमल बच्चों पर सब असर होता है। इसलिए क्लेश जाना चाहिए। क्लेश मिटे तभी घर के बच्चे भी सुधरते हैं। ये तो बच्चे सब बिगड़ गए हैं।

हमें तो यह ज्ञान हुआ तब से, बीस सालों से तो क्लेश है ही नहीं, लेकिन उसके बीस साल पहले भी क्लेश नहीं था। पहले से ही, क्लेश को तो हमने निकाल दिया था। किसी भी हालत में क्लेश करने जैसा नहीं है यह जगत्।

अब आप सोच कर कार्य करना या फिर ‘दादा भगवान’ का नाम लेना। मैं भी ‘दादा भगवान’ का नाम लेकर सभी कार्य करता हूँ न! ‘दादा भगवान’ का नाम लोगे तो तुरंत ही आपकी धारणा अनुसार हो जाएगा।

[3] पति-पत्नी में मतभेद

हमें तो मूलत: क्रोध-मान-माया-लोभ जाएँ, मतभेद कम हों, ऐसा चाहिए। आपको यहाँ पूर्णता प्राप्त करनी है, प्रकाश करना है। यहाँ कब तक अंधेरे में रहोगे? आपने क्रोध-मान-माया-लोभ की निर्बलताएँ, मतभेद देखे हैं?

(पृ.१२)

प्रश्नकर्ता : बहुत।

दादाश्री : कहाँ? कोर्ट में?

प्रश्नकर्ता : घर पर, कोर्ट में, सब जगह...

दादाश्री : घर में तो क्या होगा? घर में तो आप तीन लोग, वहाँ मतभेद कैसा? नहीं है दो-चार-पाँच बेटियाँ, ऐसा तो कुछ है नहीं। आप तीन लोग हो, उसमें मतभेद कैसा?

प्रश्नकर्ता : नहीं, लेकिन तीन में ही कई मतभेद हैं।

दादाश्री : तीन में ही? ऐसा!

प्रश्नकर्ता : अगर ज़िंदगी में कॉन्फलिक्ट (मतभेद) नहीं होंगे, तो ज़िंदगी का मज़ा ही नहीं आएगा!

दादाश्री : अहोहो... मज़ा इससे आता है? तब तो फिर रोज़ ही करो ना! यह किसकी खोज है? यह किस उपजाऊ दिमाग़ की खोज है? फिर तो रोज़ मतभेद करने चाहिए, कॉन्फलिक्ट का मज़ा लेना हो तो।

प्रश्नकर्ता : वह तो अच्छा नहीं लगेगा।

दादाश्री : यह तो खुद का बचाव किया है लोगों ने। मतभेद सस्ता होता है या महँगा? कम मात्रा में या अधिक मात्रा में?

प्रश्नकर्ता : कम मात्रा में भी होता है और अधिक मात्रा में भी होता है।

दादाश्री : कभी दिवाली और कभी होली! उसमें मज़ा आता है या मज़ा मारा जाता है?

प्रश्नकर्ता : यह तो संसार चक्र ही ऐसा है।

दादाश्री : नहीं, लोगों को बहाने बनाने के लिए यह अच्छा हाथ लगा है। संसार चक्र ऐसा है, ऐसा बहाना बनाते हैं, लेकिन यों नहीं कहते कि मेरी कमज़ोरी है।

(पृ.१३)

प्रश्नकर्ता : कमज़ोरी तो है ही। कमज़ोरी है, तभी तो तकलीफ होती है न!

दादाश्री : हाँ बस, अत: लोग संसारचक्र कहकर उसे ढकने जाते हैं। इसलिए ढकने के कारण, वह वैसी ही रहती है। वह कमज़ोरी क्या कहती है? ‘जब तक मुझे पहचानोगे नहीं, तब तक मैं नहीं जाने वाली।’ संसार ज़रा सा भी बाधक नहीं है। संसार निरपेक्ष है। सापेक्ष भी है और निरपेक्ष भी है। वह तो हम ऐसा करें तो ऐसा और ऐसा नहीं करें तो कुछ भी नहीं, कुछ भी लेना-देना नहीं। मतभेद तो कितनी बड़ी कमज़ोरी है।

प्रश्नकर्ता : लेकिन घर में मतभेद तो होते रहते हैं, यह तो संसार हैं न!

दादाश्री : लोग तो बस, रोज़ झगड़े होते हैं न, फिर भी कहते हैं कि ‘ऐसा तो चलता रहता है।’ अरे, मगर उससे डेवेलपमेन्ट (विकास) नहीं होता। क्यों होता है? किसलिए होता है? ऐसा क्यों कह रहे हो? क्या हो रहा है? उसका पता लगाना पड़ेगा।

घर में कभी मतभेद होता है, तब क्या दवाई लगाते हो? दवाई की बोतल रखते हो?

प्रश्नकर्ता : मतभेद की कोई दवाई नहीं है।

दादाश्री : हें! क्या कहते हो? तब फिर आप इस कमरे में चुप, पत्नी उस कमरे में चुप, ऐसे रूठ कर सोए रहना? दवाई लगाए बगैर? फिर वह किस तरह मिट जाता होगा? घाव भर जाता होगा क्या? मुझे यह बताओ कि दवाई लगाए बगैर घाव कैसे भर जाएगा? यह तो सुबह तक भी घाव नहीं भरता। सवेरे चाय का कप देते समय ऐसे पटकती है। आप भी समझ जाते हो कि अभी रात का घाव भरा नहीं है। ऐसा होता है या नहीं होता? यह बात कुछ अनुभव से बाहर की थोड़े ही है? हम सभी एक जैसे ही हैं। अर्थात् ऐसा क्यों किया कि अभी भी मतभेद का घाव पड़ा हुआ है।

(पृ.१४)

लेकिन रोज़ रोज़ वह घाव वैसा ही रहता है। घाव भरता ही नहीं, घाव तो रहता ही है न! खरोंचें पड़ी होती हैं, इसलिए घाव नहीं होने देने चाहिए। क्योंकि यदि अभी उसे दबाया, तो जब आपका बुढ़ापा आएगा तब पत्नी आपको दबाएगी। अभी तो मन में कहती है कि ज़ोर वाला है यह, इसलिए थोड़े समय चला लेगी। फिर उसकी बारी आएगी, तब आपको समझा देगी। इसके बजाय व्यापार ऐसा रखना कि वह आपको प्रेम करे, आप उसे प्रेम करें। भूलचूक तो सभी से होती ही है न। भूलचूक नहीं होती? भूलचूक होने पर मतभेद क्यों करें? मतभेद करना हो तो किसी बलवान से जाकर झगड़ना ताकि आपको तुरंत जवाब मिल जाए। यहाँ पर तुरंत जवाब मिलेगा ही नहीं कभी भी। इसलिए दोनों समझ लेना। ऐसे मतभेद मत होने देना। यदि कोई मतभेद डाले तो कहना कि दादाजी क्या कहते थे? ऐसा क्यों बिगाड़ते हो?

मत ही नहीं रखना चाहिए। अरे! दोनों ने शादी की फिर मत अलग कैसा? दोनों ने शादी की, फिर मत अलग रख सकते हैं?

प्रश्नकर्ता : नहीं रखना चाहिए, मगर रहता है।

दादाश्री : उसे आप निकाल देना। अलग मत रख सकते हैं? वर्ना शादी नहीं करनी थी। शादी की है तो एक हो जाओ।

यानी यह जीवन जीना भी नहीं आया! व्याकुलता में जी रहे हो! ‘अकेले हो?’ तो कहता है, ‘नहीं, शादी-शुदा हूँ’। तो वाइफ है, फिर भी तेरी व्याकुलता नहीं मिटी! क्या व्याकुलता नहीं जानी चाहिए? इन सब पर मैंने विचार कर लिया था। यह सब लोगों को नहीं सोचना चाहिए? बहुत बड़ा विशाल जगत् है, लेकिन यह जगत् अपने रूम के अंदर है, ऐसा ही मान लिया है, और वहाँ भी अगर जगत् मानता हो तो भी अच्छा, लेकिन वहाँ भी वाइफ के साथ लट्ठेबाज़ी करता है!

प्रश्नकर्ता : दो पतीले हों तो आवाज़ होती है और फिर शांत हो जाती है।

दादाश्री : आवाज़ हो तो मज़ा आता है क्या? ‘ज़रा भी अक़्ल नहीं है’ ऐसा भी कहती है।

(पृ.१५)

प्रश्नकर्ता : वह तो फिर यह भी कहती है न कि मुझे आपके सिवा दूसरा कोई अच्छा नहीं लगता।

दादाश्री : हाँ, ऐसा भी बोलती है!

प्रश्नकर्ता : लेकिन बर्तन घर में खड़केंगे ही न?

दादाश्री : रोज़-रोज़ बर्तन खड़केंगे तो कैसे अच्छा लगेगा? यह तो समझता नहीं है, इसलिए चलता है। जाग्रत हो उसे तो, एक ही मतभेद पड़े तो रातभर नींद नहीं आए! इन बर्तनों (मनुष्यों) के तो स्पंदन हैं, इसलिए रात को सोते-सोते भी स्पंदन करते रहते हैं कि ‘ये तो ऐसे हैं, टेढ़े हैं, उल्टे हैं, नालायक हैं, निकाल देने जैसे हैं।’ और उन बर्तनों के कोई स्पंदन हैं? हमारे लोग बिना समझे ‘हाँ’ में ‘हाँ’ मिलाते हैं कि दो बर्तन साथ में होंगे तो खड़केंगे! अरे, हम क्या बर्तन हैं कि हम खड़कें? इन ‘दादा’ को किसी ने कभी भी टकराव में नहीं देखा होगा! सपना भी नहीं आया होगा ऐसा! टकराना क्यों? टकराना तो अपनी जोखिमदारी पर है। क्या यह किसी और की जोखिमदारी है? चाय जल्दी नहीं आई हो और आप टेबल तीन बार ठोको, वह जोखिमदारी किसकी? इसके बजाय आप नासमझ बनकर बैठे रहो। चाय मिली तो ठीक वर्ना हम तो चले ऑफिस। क्या गलत है? चाय का भी कोई काल तो होगा न? यह संसार नियम बाहर तो नहीं होगा न? इसलिए हमने कहा है कि ‘व्यवस्थित’! जब उसका समय होगा तो चाय मिलेगी। आपको ठोकना नहीं पड़ेगा। आप स्पंदन खड़े नहीं करोगे तो भी चाय आएगी और स्पंदन खड़े करोगे तब भी आएगी। लेकिन स्पंदनों से वापस वाइफ के बहीखाते में हिसाब जमा होगा कि आप उस दिन टेबल ठोक रहे थे न!

घर में वाइफ के साथ मतभेद हो, तब उसका समाधान करना नहीं आता, बच्चों के साथ मतभेद उत्पन्न हो तो उसका समाधान करना नहीं आता और उलझता रहता है।

प्रश्नकर्ता : पति तो ऐसा ही कहेगा न कि ‘वाइफ समाधान करे, मैं नहीं करुँगा।’

(पृ.१६)

दादाश्री : हंअ.. यानी ‘लिमिट’ पूरी हो गई। ‘वाइफ’ समाधान करे और हम नहीं करें, तब हमारी लिमिट हो गई पूरी। पुरुष को तो ऐसा बोलना चाहिए कि ‘वाइफ’ खुश हो जाए और ऐसा करके गाड़ी आगे बढ़ा दे और आप तो पंद्रह-पंद्रह दिन, महीना-महीना भर गाड़ी अटका कर रखते हो, वह नहीं चलेगा। जब तक सामने वाले के मन का समाधान नहीं होगा, तब तक आपको मुश्किल रहेगी। इसलिए समाधान कर लेना।

इस तरह आपको घर में मतभेद पड़ेंगे तो कैसे चलेगा? स्त्री कहती है कि ‘मैं तुम्हारी हूँ’ और पति कहता है कि ‘मैं तेरा हूँ’, फिर मतभेद कैसा? आप दोनों के बीच ‘प्रोब्लम’ बढ़ेंगे तो अलगाव पैदा होगा। ‘प्रोब्लम’ ‘सॉल्व’ हो जाएँ, तो फिर अलगाव नहीं होगा। जुदाई के कारण दु:ख है। और सभी को प्रोब्लम खड़े होते ही हैं, तुम्हें अकेले को ही होते हों ऐसा नहीं हैं। जितनों ने शादी की उतनों को प्रोब्लम खड़े हुए बिना रहते नहीं हैं।

पत्नी के साथ मतभेद पड़ता है उसे! जिसके साथ... डबल बेड होता है या एक ही बिस्तर होता है?

प्रश्नकर्ता : नहीं, माफ करना। एक ही होता है।

दादाश्री : तो फिर उसके साथ झगड़ा हो और रात को लात मारे तब क्या करोगे?

प्रश्नकर्ता : नीचे।

दादाश्री : तो उसके साथ एकता रखना। वाइफ के साथ भी मतभेद हो, वहाँ भी एकता नहीं रहेगी तब फिर और कहाँ रखोगे ? एकता यानी क्या कि कभी भी मतभेद नहीं पड़े। इस एक व्यक्ति के साथ तय करना कि ‘तुम्हारे और मेरे बीच मतभेद नहीं पड़े, इतनी एकता करनी चाहिए।’ वैसी एकता रखी है आपने?

प्रश्नकर्ता : ऐसा कभी सोचा ही नहीं। ये पहली बार सोच रहा हूँ।

(पृ.१७)

दादाश्री : हाँ, यह सोचना पड़ेगा न? भगवान कितने विचार कर मोक्ष में गए!

बातचीत करो न! उसमें कुछ खुलासा होगा। यह तो संयोग बैठा, इसलिए इकट्ठे हुए हैं, वर्ना इकट्ठे नहीं होते ! इसलिए कुछ बातचीत करो न! इसमें हर्ज क्या है? हम सब एक ही हैं। आपको जुदाई लगती है, क्योंकि भेदबुद्धि से मनुष्य को जुदा लगता है। बाकी सब एक ही हैं। मनुष्य में भेदबुद्धि होती है न! वाइफ के साथ तो भेदबुद्धि नहीं होती न?

प्रश्नकर्ता : हाँ, वैसा ही हो जाता है।

दादाश्री : यह वाइफ के साथ भेद कौन करवाता है? बुद्धि ही!

औरत और उसका पति दोनों पड़ोसी के साथ झगड़ा करते हैं, तब कैसे अभेद होकर झगड़ते हैं! दोनों ऐसे-ऐसे हाथ करके, तुम ऐसे और तुम वैसे। दोनों यों हाथ करते हैं तो हम समझते हैं कि अहोहो! इन दोनों में इतनी एकता! यह इनका ‘कोर्पोरेशन’ अभेद है, ऐसा हमें लगता है। और बाद में घर में जाकर दोनों झगड़ने लगें, तब क्या कहेंगे? घर में वे दोनों झगड़ते हैं या नहीं झगड़ते? कभी तो झगड़ते होंगे न? वह कॉर्पोरेशन अंदर-अंदर जब झगड़ता है न, ‘तू ऐसी और तुम वैसे, तू ऐसी और तुम वैसे...’ फिर घर में जमकर लड़ाई होती है न! तब तो कहता है, ‘तू चली जा, यहाँ से, अपने घर चली जा। मुझे तेरी ज़रूरत ही नहीं है।’ अब यह नासमझी नहीं है क्या? आपको क्या लगता है? तो अभेद थे, वह टूट गया और भेद उत्पन्न हुआ। यानी वाइफ के साथ भी ‘तू तू, मैं मैं’ हो जाती है। ‘तू ऐसी है और तू वैसी है!’ तब वह कहती है, ‘तुम कहाँ सीधे हो?’ अर्थात् घर में भी ‘मैं और तू’ हो जाता है।

‘मैं और तू, मैं और तू, मैं और तू’। जो पहले एक थे, ‘हम दोनों एक हैं, हम ऐसे हैं, हम वैसे हैं। हमारा ही है यह।’ उसमें से ‘मैं और तू’ हुआ! अब, मैं और तू हुआ इसलिए खींचातानी होती है। वह खींचातानी फिर कहाँ तक पहुँचती है? अंत में, हल्दीघाटी

(पृ.१८)

की लड़ाई शुरू हो जाती है। सर्व विनाश को निमंत्रित करने का साधन, यह खींचातानी! इसलिए खींचातानी तो किसी के साथ मत होने देना।

रोज़ाना ‘मेरी वाइफ, मेरी वाइफ’ कहता है और एक दिन उसने अपने कपड़े पति के बैग में रख दिए। तब दूसरे दिन पति क्या कहेगा? ‘मेरे बैग में तूने साड़ियाँ रखी ही क्यों?’ यह आबरूदार के लड़के! उसकी साड़ियाँ इसे खा गई! लेकिन उसका खुद का अलग अस्तित्व है न! वाइफ और हज़बेन्ड, वे तो बिज़नेस के लिए एक हुए। कॉन्ट्रैक्ट है यह। वह अलग अस्तित्व क्या मिट जाता है? अस्तित्व अलग ही रहता है। ‘मेरे बैग में साड़ियाँ क्यों रखती हो’ ऐसा कहते हैं या नहीं कहते?

प्रश्नकर्ता : कहते हैं, कहते हैं।

दादाश्री : यह तो कलह करता है कि मेरे बैग में तेरी साड़ियाँ रखीं ही क्यों? इस पर पत्नी कहती है, ‘किसी दिन इनके बैग में कुछ रखा तो ऐसे ही चिल्लाते हैं। जाने दो, पति चुनने में मेरी भूल हो गई लगती है। ऐसा पति कहाँ से मिला?’ लेकिन अब क्या करें? खूंटे से बँधे हैं! (विदेश में) ‘मेरी’ हो तो दूसरे ही दिन चली जाए, लेकिन इन्डियन किस तरह चली जाए? खूँटे से बँधी हुई! जहाँ झगड़ा करने का स्थान ही नहीं हो, ऐसी जगह झगड़ा करें तो फिर झगड़ा करने जैसी जगह पर तो मार ही डालेंगे न ये लोग!

अरे, वर्ना अगर पास-पास में बैग रखे हों तब भी कहेगा, ‘उठा ले तू अपना बैग यहाँ से।’ अरे, शादी-शुदा हो, शादी की है, एक हो या नहीं? और फिर लिखता क्या है? अर्धांगिनी लिखता है। अरे! किस जात के हो तुम? हाँ, फिर अर्धांगिनी क्यों लिखता हैं? उसमें, आधा अंग नहीं है बैग में! हम किसका मज़ाक उड़ा रहे हैं, पुरुषों का या स्त्रियों का? ऐसा कहते है न! अर्धांगिनी नहीं कहते?

प्रश्नकर्ता : कहते हैं न!

दादाश्री : और ऐसे मुकर जाते हैं फिर। स्त्रियाँ दख़ल नहीं करती। स्त्रियों के बैग में यदि आपके कपड़े रखे हों तो वह दख़ल

(पृ.१९)

नहीं करती। और यहाँ तो इसे भारी अहंकार। अकड़ में एकदम तना हुआ, बिच्छू की तरह, ज़रा भी अड़े तो यों डंक मार देता है, एकदम से।

यह तो मेरे साथ बीता वह बोलता हूँ। यह तो मेरी आपबीती बता रहा हूँ, ताकि आप सबकी समझ में आए कि इन पर ऐसी बीती होगी। आप ऐसे ही सीधी तरह से कबूल करोगे नहीं, वह तो मैं कबूल कर लेता हूँ।

प्रश्नकर्ता : आप कहते हैं, तब सभी को वापस खुद का याद आ जाता है और कबूल कर लेते हैं।

दादाश्री : नहीं, पर आप कबूल नहीं करते, लेकिन मैं तो कबूल कर लेता हूँ कि मुझ पर बीती है। आपबीती नहीं बीती? अरे! डंक मारे तब कैसा डंक मारता है, कि ‘तू अपने घर चली जा’ कहता है। अरे! चली जाएगी तब तेरी क्या दशा होगी? वह तो ये कर्म से बंधी है। कहाँ जाए बेचारी? लेकिन यह जो तू बोलता है वह व्यर्थ नहीं जाएगा। इससे उसके दिल पर दाग़ पड़ेगा, बाद में वही दाग़ तुझ पर लगेगा। ये कर्म भुगतने पड़ेंगे। वह तो मन में ऐसा समझता है कि अब कहाँ जाने वाली है? ऐसा नहीं बोलना चाहिए। अगर ऐसा बोलते हो तो वह भूल ही कहलाएगी न! सभी ने थोड़े बहुत ताने तो दिए होंगे या नहीं?

प्रश्नकर्ता : हाँ, दिए हैं। सभी ने दिए हैं। इसमें अपवाद नहीं है। कम-ज़्यादा होगा, लेकिन अपवाद नहीं होगा।

दादाश्री : यानी ऐसा है सब। अब इन सबको सयाना बनाना है, बोलिए अब, ये किस प्रकार सयाने बनेंगे? देखो फ़जीहत, फ़जीहत! जैसे एरंडी का तेल पिया हो, ऐसा मुँह हो गया है! मजेदार खीर और अच्छा-अच्छा भोजन खाते हैं, फिर भी मुँह एरंडी का तेल पिया हो, ऐसा लगता है। एरंडी का तेल तो महँगा हो गया है, तो कहाँ से लाकर पीएँ? यह तो यों ही, एरंडी का तेल पीया हो ऐसा मुँह हो जाता है!

प्रश्नकर्ता : घर में मतभेद दूर करने के लिए क्या करें?

(पृ.२०)

दादाश्री : मतभेद क्यों होते हैं, इसका पता लगाओ पहले। कभी ऐसा मतभेद होता है कि, एक लड़का और एक लड़की है, तो फिर दोनों लड़के क्यों नहीं, ऐसा मतभेद होता है?

प्रश्नकर्ता : नहीं, वैसे तो छोटी-छोटी बातों में मतभेद होता है।

दादाश्री : अरे, छोटी बातों में तो, वह तो इगोइज़म है। इसलिए, जब वह कहे कि ‘ऐसा है’, तब कहना, ‘ठीक है।’ ऐसा कहेंगे तो फिर कुछ नहीं होगा। लेकिन हम फिर अपनी अक़्ल बीच में लाते हैं। अक़्ल से अक़्ल लड़ती है, इसलिए मतभेद होता है।

प्रश्नकर्ता : ‘यह ठीक है’ ऐसा मुँह से बोलने के लिए क्या करना चाहिए? ऐसा बोल नहीं पाते, इस अहम् को कैसे दूर करें?

दादाश्री : ऐसा बोल नहीं पाते, सही कहते हैं। इसके लिए थोड़े दिन प्रैक्टिस करनी पड़ेगी। यह जो मैं कह रहा हूँ, वह उपाय करने के लिए थोड़े दिन प्रैक्टिस करो न! फिर वह फिट हो जाएगा, एकदम से नहीं होगा।

प्रश्नकर्ता : मतभेद क्यों होते हैं? इसकी वजह क्या?

दादाश्री : मतभेद होता है, तब यह समझता है कि मैं अक़्लमंद और वह समझती है कि मैं अक़्लमंद। अक़्ल के बारदान आए! बेचने जाएँ तो चार आने भी नहीं आते, अक़्ल के बारदान (खाली बोरें) कहते हैं उसे। इसके बजाय हम सयाने हो जाएँ, उसकी अक़्ल को हम देखा करें कि अहोहो... कैसी अक़्लमंद है! तब वह भी ठंडी पड़ जाएगी। लेकिन हम भी अक़्लमंद और वह भी अक़्ल वाली, अक़्ल ही जहाँ लड़ने लगे, वहाँ क्या होगा फिर?

आपको मतभेद ज़्यादा होते हैं कि उन्हें ज़्यादा होते हैं?

प्रश्नकर्ता : उन्हें ज़्यादा होते हैं।

दादाश्री : अहोहो! मतभेद यानी क्या? मतभेद का अर्थ आपको समझाता हूँ। यह रस्सा-कशी का खेल होता है न, देखा है आपने?

(पृ.२१)

प्रश्नकर्ता : हाँ।

दादाश्री : दो-चार लोग इस ओर खींचते हैं और दो-चार लोग उस ओर खींचते हैं। मतभेद अर्थात् रस्साकशी। अत: हमें देखना है कि घर में बीवी बहुत ज़ोर से खींच रही है और हम भी ज़ोर से खींचेंगे तब फिर क्या होगा?

प्रश्नकर्ता : टूट जाएगा।

दादाश्री : और टूट जाने पर गाँठ लगानी पड़ती है। तो गाँठ लगाकर फिर चलाना, इसके बजाय अगर साबुत रखें, उसमें क्या हर्ज है? इसलिए जब वह बहुत खींचे न, तब हमें छोड़ देना चाहिए।

प्रश्नकर्ता : लेकिन दो में से छोड़े कौन?

दादाश्री : समझदार, जिसमें अक़्ल ज़्यादा है वह छोड़ देगा और कमअक़्ल खींचे बगैर रहेगा ही नहीं! इसलिए हम अक़्लमंद को छोड़ देना चाहिए, छोड़ देना वह भी एकदम नहीं छोड़ना। एकदम छोड़ दें न, तो सामने वाला गिर पड़ेगा। इसलिए धीरे-धीरे, धीरे-धीरे छोड़ना। मेरे साथ कोई खींचने लगे तब मैं धीरे-धीरे छोड़ देता हूँ, वर्ना गिर पड़े बेचारा। अब आप छोड़ दोगे ऐसे? अब छोड़ना आएगा? छोड़ दोगे न? छोड़ दो, वर्ना रस्सा गाँठ मारकर चलाना पड़ेगा। रोज़ रोज़ गाँठ लगाना, यह क्या अच्छा लगता है? फिर गाँठ तो लगानी पडग़ी न! और फिर रस्सा तो चलाना ही पड़ता है न! आपको क्या लगता है?

घर में मतभेद होने चाहिए? एक अंश भी नहीं होना चाहिए! घर में अगर मतभेद होता है तो यू आर अनफिट। अगर हज़बेन्ड ऐसा करे तो वह अनफिट फॉर हज़बेन्ड और वाइफ ऐसा करे तो अनफिट फॉर वाइफ।

प्रश्नकर्ता : पति-पत्नी के झगड़ों का बच्चों पर क्या असर होता है?

दादाश्री : अहोहो! बहुत बुरा असर होता है। इतना सा बालक

(पृ.२२)

हो वह भी ऐसे देखता रहता है। पापा मेरी मम्मी के साथ बहुत झगड़ा करते हैं। पापा ही खराब हैं। लेकिन वह बोलता नहीं। वह समझता है कि बोलूँगा तो मारेंगे मुझे। मन में यह सब ‘नोट’ करता है, नोटेड इट्स कन्टेन्टस। लेकिन घर में ऐसा तूफान देखता है तो फिर मन में गाँठ बाँध लेता है कि ‘बड़ा होने पर पापा को पीटूँगा।’ हमारे लिए अभी से तय कर लेता है। फिर वह बड़ा होने पर पिटाई करता है! ‘क्या ऐसे पीटने के लिए मैंने तुम्हें बड़ा किया था?’ ‘तब आपको किसने बड़ा किया था?’ वह कहेगा! ‘अरे, वहाँ तक, मेरे बाप तक पहुँचा?’ तब कहेगा, ‘आपके दादा तक पहुँचूँगा।’ आपने ऐसा बोलने का अवसर दिया तब न? ऐसी गाँठ बाँधने दो तो आपकी ही भूल है न! घर में डाँटें किसलिए? यदि उसे डाँटो ही नहीं तो बच्चा भी देखता है कि पापा कितने अच्छे हैं!

लड़कों, शादी के लिए ‘मना’ क्यों करते हो? मैंने उनसे पूछा कि ‘क्या दिक्कत है आपको? मुझे बताओ कि तुम्हें स्त्री पसंद ही नहीं है? या आप पुरुष नहीं हो कि वास्तविकता क्या है मुझे बताओ।’ तब वे कहते हैं, ‘नहीं, हमें शादी नहीं करनी।’ मैंने पूछा, ‘क्यों?’ तब कहते हैं, ‘शादी में सुख नहीं है, यह हमने देख लिया है।’ मैंने कहा, ‘अभी तुम्हारी उम्र भी नहीं हुई है और शादी किए बगैर तुम्हें कैसे मालूम हुआ, कैसे अनुभव हुआ?’ तब कहते हैं, ‘हमारे माता-पिता का सुख (!) हम देखते आए हैं इसलिए हम इन लोगों का सुख जान गए! इन लोगों को ही सुख नहीं है, तो हम शादी करेंगे तो और ज़्यादा दु:खी होंगे।’ यानी ऐसा भी होता है?

ऐसा है न, अभी मैं कहूँ कि भाई, इस समय बाहर अंधेरा हो गया है। तो ये भाई कहें, ‘नहीं, उजाला है।’ तब मैं कहूँ, कि भाई, मैं आपको विनती करता हूँ, आप फिर से देखिए न।’ तब कहे, ‘नहीं, उजाला है।’ तब मैं समझ जाता हूँ कि इन्हें जैसा दिखता है वैसा बोल रहे हैं। मनुष्य की दृष्टि से बाहर दृष्टि आगे नहीं जा सकती। इसलिए फिर मैं उसे कह देता हूँ कि आपके व्यू पोईन्ट से आप ठीक ही हैं।

(पृ.२३)

अब मेरे लिए कोई दूसरा काम हो तो बताओ। इतना ही कहता हूँ, ‘यस, यू आर करेक्ट बाइ योर व्यू पोईन्ट!’ (हाँ, आप अपने दृष्टिकोण से सही हो।) कहकर मैं आगे बढ़ जाता हूँ। इनके साथ कहाँ सारी रात बैठा रहूँ? वे तो ऐसे के ऐसे ही रहने वाले हैं। इस तरह मतभेद का हल निकाल लेना।

मानो कि यहाँ से पाँच सौ फुट दूर हमने एक सुंदर सफेद घोड़ा खड़ा किया है और यहाँ पर प्रत्येक को दिखाकर पूछें कि वहाँ क्या दिख रहा है? तब कोई गाय कहे, तो हमें उसका क्या करना चाहिए? हमारे घोड़े को कोई गाय कहे, उस घड़ी हमें उसे मारना चाहिए या क्या करना चाहिए?

प्रश्नकर्ता : मारना नहीं चाहिए।

दादाश्री : क्यों?

प्रश्नकर्ता : उसकी दृष्टि से गाय दिखाई दी।

दादाश्री : हाँ, उसका चश्मा ऐसा है। आपको समझ लेना है कि इस बेचारे को नंबर आए हैं। इसलिए उसका कसूर नहीं। इसलिए आप उसे डाँट नहीं सकते। उससे कहना कि ‘भाई, सही है आपकी बात।’ फिर दूसरे से पूछो कि क्या दिखाई देता है? तब कहे कि, घोड़ा दिखता है। तब आप समझ जाओगे कि इन्हें नंबर नहीं है। फिर तीसरे से पूछें कि क्या दिखता है? वह कहे, ‘बड़ा बैल हो ऐसा लगता है।’ तब हम उसके चश्मे का नंबर जान जाएँगे। नहीं दिखता अर्थात् नंबर है, ऐसा समझ लेना। तुम्हें क्या लगता है?

हमें शादी किए हुए पचपन साल हुए हैं। तो पच्चीस-तीस साल की उम्र तक, ज्ञान से पहले, थोड़ी भूल-चूक हुई होगी। छोटी उम्र में हम भी कुछ सालों तक संडासी लेकर ऐसे ज़ोर से फेंक देते थे। इज़्ज़तदार लोग थे न! ख़ानदान! छ: गाँव के पटेल!! फिर पता चला कि मेरी यह ख़ानदानी चली गई। इज़्ज़त नीलाम हो गई। संडासी मारी उसी समय से इज़्ज़त की नीलामी हुई ऐसा नहीं कहा जाएगा? क्या,

(पृ.२४)

पत्नी को संडासी मारते हैं अपने लोग? नासमझी का बोरा! तो और कुछ नहीं मिला जो संडासी मारी? क्या, यह शोभा देता है हमें?

प्रश्नकर्ता : संडासी मारी वह तो एक बार मारने से पूरा हो गया, किन्तु वे, जो आंतरिक मतभेद होते हैं, वे बिहेवियर में परिणमित होते हैं, वह तो बहुत भयंकर कहलाएगा न?

दादाश्री : आंतरिक मतभेद न? वे तो बहुत भयंकर!

पर मैंने पता लगाया था कि इस आंतरिक मतभेद का कोई उपाय है? लेकिन वह किसी शास्त्र में नहीं मिला। फिर मैंने खुद संशोधन किया कि इसका उपाय इतना ही है कि मैं अपना मत ही छोड़ दूँ, तब कोई मतभेद नहीं रहेगा। मेरा मत ही नहीं, आपका मत ही मेरा मत।

अब एक बार मेरा हीरा बा से मतभेद हो गया। मैं भी फँस गया। मेरी वाइफ को मैं ‘हीरा बा’ कहता हूँ। हम तो ज्ञानी पुरुष, हम तो सभी को ‘बा’ कहते हैं और ये बाकी की सब बेटियाँ कहलाती हैं! अगर बात सुनना हो तो कहूँ। यह बहुत लंबी बात नहीं है, छोटी बात है।

प्रश्नकर्ता : हाँ, वह बात बताइए न!

दादाश्री : एक दिन मतभेद हो गया था। मेरी ही भूल थी उसमें, उनकी भूल नहीं थी।

प्रश्नकर्ता : वह तो उनकी हुई होगी, लेकिन आप कहते हैं कि मेरी भूल हुई थी।

दादाश्री : हाँ, लेकिन उनकी भूल नहीं हुई थी, मेरी भूल। मुझे ही मतभेद नहीं डालना है। उन्हें तो हो तो भी हर्ज नहीं और नहीं हो तो भी हर्ज नहीं। मुझे (मतभेद) नहीं डालना था, इसलिए मेरी ही भूल कहलाएगी न! यह ऐसे किया तो कुर्सी को लगा या मुझे?

प्रश्नकर्ता : आपको।

दादाश्री : इसलिए मुझे समझना चाहिए न!

(पृ.२५)

तब फिर एक दिन मतभेद हुआ। मैं फँस गया। मुझसे वे कहती हैं, ‘मेरे भैया की चार लड़कियों की शादी होनी है, उनमें यह पहली लड़की की शादी है तो हम शादी में क्या देंगे?’ तो वैसे ऐसा नहीं पूछती तो चलता। जो भी दें, उसके लिए मैं ‘ना’ नहीं करता। मुझे पूछा इसलिए फिर मेरी अक़्ल के अनुसार चला। उनके जैसी अक़्ल मुझ में कहाँ से होती? उन्होंने पूछा इसलिए मैंने क्या कहा? ‘इस अलमारी में चाँदी का जो पड़ा हैं, वे दे देना, नये बनवाने के बजाय! ये चांदी के बर्तन अलमारी में पड़े हैं छोटे-छोटे, उनमें से एक-दो दे देना!’ इस पर उन्होंने मुझे क्या कहा जानते हो? हमारे घर में ‘मेरा-तेरा’ जैसा शब्द नहीं निकलता था। ‘हमारा-अपना’ ऐसा ही बोला जाता था। अब वे ऐसा बोलीं कि ‘आपके मामा के लड़कों की बेटियों की शादी में तो इतने बड़े-बड़े चाँदी के थाल देते हो न!’ उस दिन ‘मेरा-आपका’ बोलीं। वैसे हमेशा ‘हमारा’ ही कहती थीं। मेरे-तुम्हारे के भेद से नहीं कहती थीं। मैंने सोचा, ‘आज हम फँस गए।’ मैं तुरंत समझ गया। इसलिए इसमें से निकलने का रास्ता ढूँढने लगा। अब किस प्रकार इसे सुधार लूँ। खून निकलने लगा, अब किस प्रकार पट्टी लगाएँ कि खून बंद हो जाए, वह हमें आता था!

यानी उस दिन मेरा-तेरा हुआ! ‘आपके मामा के लड़के’ कहा! यहाँ तक दशा हुई, मेरी नासमझी इतनी उल्टी! मैंने सोचा, यह तो ठोकर लगने जैसा हुआ आज तो! इसलिए मैं तुरंत ही पलट गया! पलटने में हर्ज नहीं। मतभेद हो, इससे तो पलटना अच्छा। तुरंत ही पलट गया पूरा....। मैंने कहा, ‘मैं ऐसा नहीं कहना चाहता।’ मैं झूठ बोला, मैंने कहा, ‘मेरी बात अलग है, आपके समझने में ज़रा भूल हो गई। मैं ऐसा नहीं कह रहा था।’ तब कहती हैं, ‘तो क्या कह रहे थे?’ तब मैंने कहा, ‘यह चाँदी का छोटा बर्तन देना और दूसरे पाँच सौ रुपये नक़द देना। वे उन्हें काम में आएँगे।’ ‘आप तो भोले हैं। इतना सारा कोई देता है कहीं?’ इस पर मैं समझ गया कि हम जीत गए! फिर मैंने कहा, ‘तो फिर आपको जितने देने हों, उतने देना। चारों लड़कियाँ हमारी बेटियाँ हैं।’ तब वे खुश हो गईं। फिर ‘देव जैसे हैं’ ऐसा कहने लगीं!

(पृ.२६)

देखो, पट्टी लगा दी न! मैं जानता था कि मैं पाँच सौ कहूँगा तो दे दें, ऐसी नहीं हैं ये! तो फिर हम उन्हें ही अधिकार सौंप दें न! मैं स्वभाव जानता था। मैं पाँच सौ दूँ तो वे तीन सौ दे आएँ। तो फिर बोलो, सत्ता सौंपने में मुझे हर्ज होगा क्या?

[4] भोजन के समय किट-किट

घर में किसलिए यह दख़ल देते हो? इंसान से भूल नहीं होती क्या? करने वाले से भूल होती है या नहीं करने वाले से?

प्रश्नकर्ता : करने वाले से।

दादाश्री : तब ‘कढ़ी खारी है’ ऐसी भूल नहीं निकालनी चाहिए। उस कढ़ी को अलग रखकर, अन्य जो कुछ है वह खा लेना चाहिए। क्योंकि उनकी आदत है कि ऐसी कोई गलती निकाल कर पत्नी को धमकाना। यह उनकी आदत है इसलिए। लेकिन वह बहन भी कोई कच्ची माया नहीं है। यह अमरीका ऐसा करता है, तो रशिया वैसा करता है। यानी अमरीका और रशिया जैसा हो गया यह तो, कुटुंब में, फैमिली में। इसलिए निरंतर अंदर कोल्ड वॉर चलता ही रहता है। ऐसा नहीं, फैमिली बना दो। मैं आपको समझाऊँगा कि फैमिली बनकर कैसे रहना! यहाँ तो घर-घर में क्लेश है।

‘कढ़ी खारी बनी’, ऐसा आप न कहो तो नहीं चलेगा? ओपिनियन नहीं दोगे तो क्या उन लोगों को पता नहीं चलेगा या हमें कहना ही पड़ता है? आपके यहाँ मेहमान आए हों न, तो मेहमानों को भी खाने नहीं देते। तो हम ऐसे क्यों बनें? वह खाएगी तो क्या उसे पता नहीं चलेगा तो फिर आपको ही भोंपा बजाना पड़ेगा?

प्रश्नकर्ता : कढ़ी खारी हो तो खारी कहनी ही पड़ेगी न?

दादाश्री : फिर जीवन खारा ही हो जाएगा न! आप ‘खारी’ कहकर सामने वाले का अपमान करते हो। उसे फैमिली नहीं कहते!

प्रश्नकर्ता : अपनों को ही कह सकते हैं न, पराये को थोड़े ही कह सकते हैं?

(पृ.२७)

दादाश्री : तो क्या अपनों को ठेस पहुँचानी चाहिए?

प्रश्नकर्ता : कहेंगे तो दूसरी बार ठीक से करेगी न, इसलिए।

दादाश्री : वह ठीक बनाए या न भी बनाए, वे बातें सब गप हैं। किस आधार पर होता है? वह मैं जानता हूँ। बनाने वाले के हाथ में सत्ता नहीं है और तुम्हारे, कहने वाले के हाथों में भी सत्ता नहीं है। यह सारी सत्ता किस आधार पर चल रही है? इसलिए एक अक्षर भी बोलने जैसा नहीं है।

तू थोड़ा सयाना हुआ कि नहीं? अब थोड़ा-बहुत सयाना हुआ या नहीं हुआ? सयाना हो जाएगा न! पूर्णरूप से सयाना हो जाना है। घर पर वाइफ कहेगी, ‘अरे! ऐसा पति बार-बार मिले।’ मुझे आज तक केवल एक ही बहन ने कहा है, ‘दादाजी, पति मिले तो यही का यही मिले।’ तू एक सिर्फ ऐसी मिली। वर्ना ज़्यादातर तो मुँह पर अच्छा कहती हैं, लेकिन पीछे से इतनी सारी गालियाँ देती हैं। ‘मेरे ख्याल में है’, ऐसा कहने वाली भी एक औरत मिली!

बाकी स्त्री को बार-बार टोकाटाकी नहीं करनी चाहिए। ‘सब्जी ठंडी क्यों हो गई? दाल में छौंक ठीक से क्यों नहीं लगाया?’ ऐसी किट-किट क्यों करते हो? बारह महिनों में एकाध दिन एकाध शब्द कहा हो तो ठीक है, लेकिन यह तो रोज़? ‘ससुर मर्यादा में तो बहू लाज में।’ आपको मर्यादा में रहना चाहिए। दाल ठीक नहीं बनी हो, सब्जी ठण्डी हो गई हो तो वह सब तो नियम के अधीन होता है। अगर बहुत ज़्यादा हुआ तो किसी वक्त कहना पड़े तो धीरे से कहना कि ‘यह सब्जी रोज़ गर्म होती है, तब बहुत अच्छी लगती है।’ इस प्रकार कहोगे तो वह इशारा समझ जाएगी।

हमारे यहाँ तो घर में भी किसी को मालूम नहीं कि ‘दादा’ को यह पसंद नहीं है या पसंद है। यह रसोई बनानी क्या रसोई बनाने वाले के हाथ का खेल है? यह तो खाने वाले के ‘व्यवस्थित’ के हिसाब से थाली में आता है, उसमें दख़ल नहीं करनी चाहिए।

(पृ.२८)

[5] पति चाहिए, पतिपना नहीं

शादी करने से पहले लड़की देखते हैं, उसमें हर्ज नहीं। देखो, लेकिन सारा जीवन वैसी की वैसी रहने वाली हो, तो देखना। वैसी रहती है क्या? जैसी देखी थी वैसी? पर परिवर्तन हुए बिना रहेगा? फिर परिवर्तन होगा न, वह सहन नहीं होगा, व्याकुलता होने लगेगी। फिर जाएँ कहाँ? आ फँसे भाई, आ फँसे।

फिर शादी किसलिए? आप बाहर से कमा लाओ, वह घर का काम करे और आपका संसार चले, साथ ही धर्म कर सको, इसके लिए शादी करनी है। और बीवी कहती हो कि एक-दो बच्चे चाहिए, तो उतना निबटारा ला दो, फिर राम तेरी माया! लेकिन यह तो फिर पति बनने जाता है। अरे, पति बनने क्यों चला है? तुझमें बरकत तो है नहीं और पति बनने चला! ‘मैं तो पति हूँ’ कहता है! बड़ा आया पति! मुँह तो देखो इनके, पतियों के! लेकिन लोग तो पतिपना करते हैं न?

गाय का स्वामी बन बैठता है, भैंस का भी, लेकिन गायें भी तुम्हें स्वामी के रूप में स्वीकार नहीं करतीं। वह तो आप मन में समझते हो कि यह गाय मेरी है। आप तो कपास को भी मेरा कहते हो, ‘यह मेरा कपास है।’ कपास को तो मालूम भी नहीं बेचारे को। आपके होते तो आपको देखते ही बढ़ते और आपके घर चले जाने पर नहीं बढ़ते। लेकिन यह कपास तो रात को भी बढ़ता है। कपास रात को बढ़ता है या नहीं बढ़ता?

प्रश्नकर्ता : बढ़ता है।

दादाश्री : उन्हें तुम्हारी कोई ज़रूरत नहीं, उसे तो बरसात की ज़रूरत है। जब बरसात नहीं होती, तब सूख जाता है बेचारा!

प्रश्नकर्ता : लेकिन उन्हें क्या हमारा पूरा ध्यान नहीं रखना चाहिए?

दादाश्री : अहोहो! बीवी ध्यान रखने के लिए लाए होंगे?

प्रश्नकर्ता : इसीलिए तो बीवी को घर लाए हैं न!

(पृ.२९)

दादाश्री : ऐसा है न, शास्त्रकारों ने कहा है कि पतिपना करना नहीं। वास्तव में तुम पति नहीं हो, तुम्हारी पार्टनरशिप है। यह तो यहाँ व्यवहार में बोला जाता है कि पत्नी और पति, वर-वधू! मगर वास्तव में पार्टनरशिप है। पति हो, इसलिए आपका हक़-दावा नहीं है। दावा नहीं कर सकते। समझा-समझाकर सब काम करो।

प्रश्नकर्ता : कन्यादान किया, दान में कन्या दी, इसलिए फिर हम उसके पति ही हो गए न?

दादाश्री : यह सुधरे हुए समाज का काम नहीं हैं, यह वाईल्ड (जंगली) समाज का काम है। हमें, सुधरे हुए समाज को, यह देखना चाहिए कि पत्नी को ज़रा भी तकलीफ़ न हो। वर्ना आप सुखी नहीं रहोगे। पत्नी को दु:ख देकर कोई सुखी नहीं हुआ। और जिस स्त्री ने पति को कुछ भी दु:ख पहुँचाया होगा, वह स्त्री भी कभी सुखी नहीं हुई!

इस पतिपने के कारण तो वह सिर पर चढ़ बैठता है। अब पतिपना भोगना है, भोगवटा (सुख-दु:ख का असर) है वह, पार्टनरशिप है। वाइफ के साथ पार्टनरशिप है, मालिकीपना नहीं है।

प्रश्नकर्ता : यह वाइफ बॉस बन बैठती है, तो उसका क्या करें?

दादाश्री : उसमें हर्ज नहीं, वह तो जलेबी, पकौड़े बना कर देती है न। हम कहें कि अहोहो! तूने तो पकौड़े-जलेबी बनाकर खिलाए न! ऐसा करो तो खुश हो जाएगी, कल वापस ठंडी पड़ जाएगी, अपने आप। इसकी घबराहट मत रखना। वह हम पर सवार कब होगी? अगर उसकी मूँछे उग जाएँ, तब सवार होगी। लेकिन क्या मूँछे निकलेंगी? कितनी भी सयानी हो जाए, फिर भी मूँछे निकलेंगी?

बाकी एक जन्म तो जितना आपका हिसाब है उतना ही होगा। दूसरा कोई लंबा-चौड़ा हिसाब होगा ही नहीं। एक भव का हिसाब तो निश्चित ही है, तो फिर क्यों न आप शांत चित्त होकर रहो?

हिन्दू लोग तो मूल में ही क्लेशपूर्ण स्वभाव के होते हैं। पर कुछ लोग तो ऐसे पक्के होते हैं कि बाहर झगड़ा कर आएँ, पर घर

(पृ.३०)

में बीवी के साथ झगड़ा नहीं करते। कुछ तो अपनी बीवी को झूला भी झूलाते भी हैं।

प्रश्नकर्ता : वे झूला झूला रहे थे, मियाँभाई! वह बात बताइए न!

दादाश्री : एक दिन हम एक मियाँभाई के वहाँ गए थे। वे मियाँभाई बीवी को झूला झूला रहे थे! इस पर मैंने पूछा कि, ‘आप ऐसा करते हो इससे वह आप पर सवार नहीं हो जाती?’ तब उसने कहा कि ‘वह क्या सवार होगी, उसके पास कोई हथियार नहीं, कुछ भी नहीं।’ मैंने कहा कि, ‘हम हिन्दुओं को तो डर लगता है कि बीवी सवार हो जाएगी तो क्या होगा? इसलिए हम झूला नहीं झूलाते।’ तब मियाँभाई ने कहा कि ‘यह झूला झूलाने की वजह आप जानते हो?’

वह तो ऐसा हुआ था कि 1943-44 में हमने गवर्मेन्ट के काम का कॉन्ट्रेक्ट लिया था, उसमें चुनाई काम का मुखिया था, लेबर कॉन्ट्रेक्ट वाला। उसने सब-कॉन्ट्रेक्ट ले लिया था। उसका नाम अहमद मियाँ, वे अहमद मियाँ कई दिनों से कह रहे थे कि, ‘साहब मेरे घर आप आइए, मेरी झोंपड़ी में आइए।’ झोंपड़ी कह रहा था बेचारा। बातचीत में बड़े समझदार होते हैं, वर्तन में बात अलग होती है या नहीं भी होती, पर बातचीत में जहाँ स्वार्थ नहीं होता, वहाँ अच्छा लगता है।

वह अहमद मियाँ एक दिन कहने लगा, ‘सेठजी, आज हमारे घर आप तशरीफ़ लाइए। मेरे यहाँ पधारिए ताकि मेरे बीवी-बच्चे सभी को आनंद हो।’ तब ज्ञान-वान तो नहीं था पर विचार बहुत सुंदर, सभी के लिए भावनाएँ बहुत सुंदर। अपने यहाँ से कमा रहा हो तो उसके लिए, ‘कैसे अच्छा कमाए’, ऐसी भावना भी थी। और वह दु:ख में से मुक्त होकर सुखी हो जाए, ऐसी भावना!

यह तो मैंने देखा था कि इस कम्युनिटी में कैसे-कैसे गुण होते हैं! मैंने कहा, ‘क्यों नहीं आऊँगा? तेरे यहाँ पहले आऊँगा।’ तब कहने लगा, ‘मेरे यहाँ तो एक ही रूम है, आपको कहाँ बिठाऊँगा?’ तब मैंने कहा, ‘मैं कहीं भी बैठ जाऊँगा, मुझे तो एक कुर्सी ही चाहिए,

(पृ.३१)

और कुर्सी नहीं होगी, तो भी मुझे चलेगा। तेरे यहाँ अवश्य आऊँगा। तेरी इच्छा है, इसलिए मैं आऊँगा।’ फिर मैं तो गया। हमारा कॉन्ट्रेक्ट का व्यवसाय, इसलिए हमें मुसलमान के घर भी जाना होता था, वहाँ चाय भी पीते थे। हमें किसी से जुदाई नहीं रहती थी।

मैंने कहा, ‘अरे, यह एक ही रूम बड़़ा है और दूसरा तो संडास जितना छोटा है।’ तब बोला, ‘साहब, क्या करें? हम गरीब के लिए इतना बहुत है।’ मैंने कहा, ‘तेरी वाइफ कहाँ सोती है?’ तब कहा, ‘इसी रूम में, इसे बेडरूम कहो, इसी को डाईनींग रूम कहो, सब कुछ यही।’ मैंने कहा ‘अहमद मियाँ, औरत के साथ कुछ झगड़ा-वगड़ा नहीं होता क्या? ‘यह क्या बोले?’ मैंने कहा, क्या? तब वह बोला, ‘कभी नहीं होता है। मैं ऐसा मूर्ख आदमी नहीं हूँ।’ ‘लेकिन मतभेद?’ तब बोला, ‘नहीं, मतभेद औरत के साथ नहीं। क्या कहता है, बीवी के साथ मेरी तकरार नहीं होती।’ मैंने कहा, ‘कभी बीवी गुस्सा हो जाए तब?’ तो कहता है, ‘प्यारी, बाहर वह साहब परेशान करता है और ऊपर से तू परेशान करेगी तो मेरा क्या होगा?’ तो चुप हो जाती है!

मैंने कहा, ‘मतभेद नहीं होता, इसलिए झंझट नहीं न?’ तो कहता है, ‘‘नहीं, मतभेद होगा तो वह कहाँ सोएगी और मैं कहाँ सोऊँगा? यहाँ दो-तीन मंज़िलें हों तो मैं जानूँ कि तीसरी मंज़िल पर चला जाऊँ। पर यहाँ तो इसी रूम में सोना है। मैं इस करवट सो जाऊँ और वह उस करवट सो जाए, फिर क्या मज़ा आएगा? सारी रात नींद नहीं आएगी। और तब तो सेठजी मैं कहाँ जाऊँ? इसलिए इस बीवी को तो कभी दु:ख नहीं देता। बीवी मुझे पीटे, फिर भी दु:ख नहीं देता। इसलिए मैं बाहर सब के साथ झगड़ा करके आता हूँ, पर बीवी के साथ ‘क्लियर’ रखता हूँ। वाइफ को कुछ भी नहीं करना चाहिए।’’ खुजली आए, तब बाहर झगड़ा कर आते हैं, पर घर में नहीं।

बीवी ने सुलेमान से गोश्त लाने को कहा हो, पर सुलेमान को तनख्वाह कम मिलती हो, तो वह बेचारा गोश्त कहाँ से लाए? सुलेमान

(पृ.३२)

से बीवी महीने भर से कह रही हो कि ‘इन सभी बच्चों को, बेचारों को बहुत इच्छा है। अब तो गोश्त ले आओ।’ फिर एक दिन बीवी मन में बहुत चिढ़ती है तो वह कहता है, ‘आज तो लेकर ही आऊँगा’, उसके पास जवाब तैयार होता है, जानता है कि जवाब नहीं दूँगा तो गालियाँ देगी। तब फिर कह देता है कि ‘आज लाऊँगा।’ ऐसा कहकर टाल देता है। अगर जवाब नहीं दे तो जाते समय बीवी किट-किट करेगी। इसलिए तुरंत पॉज़िटिव जवाब दे देता है कि ‘आज ले आऊँगा, कहीं से भी ले आऊँगा।’ तब बीवी समझती है कि आज तो लेकर आएँगे तो फिर पकाएँगे, लेकिन जब वह आता है तब खाली हाथ देखकर बीवी चिल्लाती है। सुलेमान यूँ तो समझ में बड़ा पक्का होता है, इसलिए बीवी को समझा देता है कि, ‘मेरी हालत मैं ही जानता हूँ, तुम क्या समझो।’ एक-दो वाक्य ऐसे कहता है कि बीवी कहेगी, ‘अच्छा बाद में लाना।’ पर दस-पंद्रह दिन बाद बीवी फिर से कहती है तो, फिर ‘मेरी हालत मैं जानता हूँ’ ऐसा कहता है तो बीवी मान जाती है। वह कभी झगड़ा नहीं करता।

और अपने लोग तो उस समय कहते हैं कि ‘तू मुझ पर रौब जमाती है?’ अरे, स्त्री से ऐसा नहीं कहते। उसका मतलब ही इट सेल्फ कहता है, तू दबा हुआ है। अरे, लेकिन तुम पर कैसे रौब जमाएगी? जहाँ शादी करते समय भी तुम्हारा हाथ ऊपर ही रखते हैं, तो तुम पर कैसे रौब जमाएगी? हाथ ऊपर रखकर शादी की है और माना कि आज रौब जमा रही है तो आपको शांत रहना चाहिए। जिसमें निर्बलता हो वह चिढ़ जाता है।

फिर एक हकीम का लड़का आया था, औरंगाबाद में। उसने सुना होगा कि दादा के पास कुछ अध्यात्म ज्ञान जानने योग्य है। इसलिए वह लड़का आया, पच्चीस साल का ही था। तब मैंने सत्संग की सारी बातें की, जगत् की। क्योंकि यह वैज्ञानिक पद्धति अच्छी है, आपके सुनने लायक है। आज तक चला, वह ज़माने के अनुसार लिखा गया है। जैसा ज़माना था, वैसा वर्णन किया हुआ है। अर्थात् ज़माना जैसे-जैसे बदलता जाता है, वैसे वर्णन बदलता जाता है। और

(पृ.३३)

पैग़ंबर साहब यानी क्या? खुदा का पैग़ाम यहाँ लाकर सभी को पहुँचाए उनका नाम पैग़ंबर साहब।

मैंने तो मज़ाक किया उससे, मैंने पूछा कि ‘अरे, शादी-वादी की है या ऐसे ही घूम रहा है?’ ‘शादी की है’ कहता है। मैंने कहा, ‘कब की? मुझे बुलाया नहीं तूने?’ ‘दादाजी मेरी आपसे पहचान नहीं थी वर्ना बुलाता उस दिन, शादी हुए छह महीने ही हुए हैं अभी।’ मैंने मज़ाक किया थोड़ा। ‘नमाज़ कितनी बार पढ़ता है?’ ‘साहब, पाँचों बार’ कहने लगा। अरे, तुझे रात को किस प्रकार नमाज़ पढऩा अनुकूल आता है तीन बजे? ‘पढऩी ही पड़ती है, उसमें चलेगा ही नहीं। तीन बजे उठकर अदा करता हूँ। छोटी उम्र से ही करता आया हूँ। मेरे फादर हक़ीम साहब भी करते थे।’ फिर मैंने पूछा, ‘अब तो बीवी आई, अब वह कैसे करने देगी, तीन बजे?’ ‘बीवी ने भी मुझसे कहा है, तुम नमाज़ अदा कर लेना।’ तब मैंने पूछा, ‘बीवी के साथ झगड़ा नहीं होता?’ ‘यह क्या बोले? यह क्या बोले?’ मैंने कहा, ‘क्यों?’ बोला ‘ओहोहो बीवी तो मुँह का पान! वह मुझे डाँटे तो चला लूँ, साहब। बीवी की वजह से तो जी रहा हूँ, बीवी मुझे बहुत सुख देती है। बहुत अच्छा-अच्छा भोजन पकाकर खिलाती है। उसे दु:ख कैसे दिया जाए?’ अब इतना समझे तो भी बहुत अच्छा। बीवी पर ज़ोर नहीं चलाते। हमें नहीं समझना चाहिए? बीवी का कोई गुनाह है? ‘मुँह का पान’ गाली दे, फिर भी कोई हर्ज नहीं। दूसरा कोई गाली दे तो देख लूँ।’ देखो तब! अब इन लोगों को कितनी क़ीमत है!

[6] दूसरों की भूल निकालने की आदत

प्रश्नकर्ता : भूल निकालें तब बुरा लगता है उसे और नहीं निकालें तब भी बुरा लगता है।

दादाश्री : नहीं, नहीं, बुरा नहीं लगता है। आप भूल नहीं निकालोगे तो वह कहेगी, ‘कढ़ी खारी थी, फिर भी नहीं कहा!’ तब कहना, ‘तुम्हें पता चलेगा न, मैं क्यों कहूँ?’ पर यह तो कढ़ी खारी बनी तो मुँह बिगाड़ता हैं, ‘कढ़ी बहुत खारी है!’ अरे! किस तरह के

(पृ.३४)

आदमी हो? इसे पति के रूप में कैसे रखा जाए? ऐसे पति को निकाल बाहर करना चाहिए। ऐसे कमज़ोर पति! अरे, क्या पत्नी नहीं समझती जो तू उसे कहता है! माथापच्ची करता है? फिर उसके दिल पर चोट नहीं लगेगी क्या? मन में कहेगी, ‘क्या मैं यह नहीं समझती? यह तो मुझे तीर मार रहा है। यह कलमुँहा हर रोज़ मेरी गलतियाँ ही निकालता रहता है।’ लोग जान-बूझकर ऐसी भूलें निकालते रहते हैं। उससे यह संसार ज़्यादा बिगड़ता जा रहा है। आपको क्या लगता है? यानी हम थोड़ा सोचें तो क्या हर्ज है?

प्रश्नकर्ता : ऐसी गलतियाँ निकालें तो फिर उनसे वापस गलती नहीं होगी न?

दादाश्री : अहोहो, अर्थात् सीख देने के लिए! तब भूल निकालने में हर्ज नहीं, मैं आपसे क्या कहता हूँ कि भूलें निकालो, पर वह उसे उपकार समझे तब भूलें निकालो। वह कहे कि ‘अच्छा हुआ आपने मेरी भूल बताई। मुझे तो मालूम ही नहीं।’ आप उपकार मानती हो? बहन, आप इनका उपकार मानती हो?

प्रश्नकर्ता : नहीं।

दादाश्री : तब फिर उसका फायदा ही क्या हुआ? जो भूलें वह जानती हो, उन्हें बताने का अर्थ क्या है? उन्हें स्त्रियाँ कलमुँहा कहती हैं, कि ‘कलमुँहा जब देखो तब बोलता रहता है।’ जिस भूल को वह जानती हो, वह भूल हमें नहीं निकालनी चाहिए। दूसरा कुछ भी हुआ हो, कढ़ी खारी बनी हो या फिर सब्ज़ी बिगड़ गई हो, जब वह खाएगी तब उसे पता चलेगा या नहीं? इसलिए हमें कहने की ज़रूरत नहीं है! पर जो भूल उसे मालूम नहीं हो, वह हम बताएँ तो वह उपकार मानेगी। बाक़ी, जो वह जानती हो, वह भूल दिखाना तो गुनाह है। अपने इन्डियन लोग ही निकालते हैं।

मैं तो सांताक्रुज में तीसरी मंज़िल पर घर में बैठा होऊँ तो चाय आती है। तब किसी दिन ज़रा शक्कर डालना भूल गए हों, तो पी जाता हूँ और वह भी दादा के नाम पर। भीतर दादा से कहता हूँ कि

(पृ.३५)

‘चाय में शक्कर डालो साहब!’ तब दादा डाल देते हैं! अर्थात् बगैर शक्कर की चाय आए तब पी जाते हैं बस। हमें तो कोई परेशानी ही नहीं न! और फिर वे दौड़ते हुए शक्कर लेकर आते हैं। मैंने पूछा, ‘भाई, शक्कर क्यों लाया? ये चाय के कप-प्लेट ले जा!’ तब कहता है, ‘चाय फीकी थी फिर भी आपने शक्कर नहीं माँगी!’ मैंने कहा, मैं क्यों कहूँ? आपको समझ में आए ऐसी बात है?

एक भाई से पूछा, ‘घर में कभी पत्नी की भूल निकालते हो?’ तब कहता है, ‘वह है ही भूल वाली, इसलिए भूल निकालनी ही पड़ती है न!’ देखो, यह अक़्ल का बोरा आया! बेचने जाएँ तो चार आने भी बारदान के नहीं आएँ और मान बैठा है कि मेरी पत्नी भूल वाली है, लो!

प्रश्नकर्ता : कई लोग अपनी भूल समझते हैं, फिर भी नहीं सुधरें, तो?

दादाश्री : वे कहने से नहीं सुधरेंगे। कहने से तो बल्कि उल्टा चलते हैं। वह तो किसी समय जब सोच रहा हो, तब आप कहना कि यह गलती कैसे सुधरेगी? आमने-सामने बातचीत करो, ऐसे फ्रेन्ड की तरह। वाइफ के साथ फ्रेन्डशिप रखनी चाहिए। नहीं रखनी चाहिए? औरों के साथ फ्रेन्डशिप रखते हो। फ्रेन्ड के साथ ऐसे क्लेश करते रहते हो रोज़-रोज़? उसकी भूलें डायरेक्ट दिखाते रहते हो? नहीं! क्योंकि फ्रेन्डशिप टिकानी है। और यह तो शादी की है, कहाँ जाने वाली है? ऐसा हमें शोभा नहीं देता। जीवन ऐसा बनाओ कि बगीचे जैसा। घर में मतभेद नहीं हों, कुछ नहीं हो, घर बगीचे जैसा लगे। घर में किसी को थोड़ी भी दख़ल नहीं होने देना। छोटे बच्चे की भी भूल, अगर वह जानता हो तो नहीं दिखानी चाहिए। नहीं जानता हो वही भूल दिखानी चाहिए।

वह तो व्यर्थ का पागलपन था, पतिपना जताने का। यानी पतिपना नहीं दिखाना चाहिए। पतिपना तो तब कहलाएगा कि जब सामने वाला प्रतिकार नहीं करे, तब समझना कि पतिपना है। ये तो तुरंत प्रतिकार करते हैं।

(पृ.३६)

घर में स्त्री के साथ तो हर कोई किट-किट करता है, यह वीर की निशानी नहीं। वीर तो कौन कहलाता है, जो स्त्री को अथवा संतानों को, किसी को भी तकलीफ नहीं देता। बच्चा ज़रा उल्टा बोले, पर माता-पिता बिगड़ें नहीं, तब सही कहलाएगा। बच्चा तो आखिर बच्चा है। आपको क्या लगता है? न्याय क्या कहता है?

किस बात के लिए आपको टोकना पड़ेगा कि जिसकी उसे समझ नहीं हो। वह हमें उसे समझाना चाहिए। उसे अपनी समझ है। उसे हम कहें, तब उसके इगोइज़म को चोट पहुँचती है। और फिर वह मौका ढूँढ़ता है कि मेरी पकड़ में आने दो एक दिन। मौके की ताक में रहता है। तो फिर ऐसा करने की क्या ज़रूरत? अर्थात् वह जिन-जिन बातों में समझ सके ऐसा हो, उसके लिए टोकने की ज़रूरत नहीं होती।

ज़्यादा कड़वा हो तो आपको अकेले पी जाना है, पर स्त्रियों को कैसे पीने दें? क्योंकि आफ्टर ऑल आप महादेवजी हैं। आप महादेवजी नहीं हैं ? पुरुष महादेवजी समान होते हैं। अधिक कड़वा हो तो कहो, ‘तू सो जा, मैं पी लूँगा!’ स्त्रियाँ भी क्या संसार में सहयोग नहीं देतीं बेचारी? फिर उनके साथ दखल कैसी? उसे कुछ दु:ख हो गया हो, तब आपको पश्चाताप करना चाहिए एकांत में कि अब दु:ख नहीं दूँगा। मेरी भूल हो गई यह।

घर में किस प्रकार के दु:ख होते हैं? किस प्रकार के झगड़े होते हैं? किस प्रकार के मतभेद होते हैं? यह सब दोनों लिखकर लाए न, तो एक घंटे में सभी का निपटारा ला दूँ। मतभेद समझ की कमी की वजह से ही होते हैं। बाकी कोई कारण नहीं।

अपने घर की बात घर में रहे, ऐसे फैमिली की तरह जीवन जीना चाहिए। इतना परिवर्तन लाओ तो बहुत अच्छा है। क्लेश तो होना ही नहीं चाहिए। आपको जितने डॉलर मिलें, उतने में गुज़ारा कर लेना। और बहन आपको यदि पैसों की सुविधा न हो, तब साड़ियों के लिए जल्दबाज़ी नहीं करनी चाहिए। आपको भी सोचना चाहिए कि पति को परेशानी में, मुश्किल में नहीं डालना चाहिए। ज़्यादा हो तो खर्च करना।

(पृ.३७)

[7] गाड़ी का गरम मूड

यह तो रात को कभी पति को घर लौटने में देरी हो जाए, किसी संयोगवश, ‘हं... इतनी देर से आया जाता होगा?’ तो क्या वे नहीं जानते कि देर हो गई है? उनके भीतर भी खटकता होगा कि बहुत देर हो गई, बहुत देर हो गई। उसमें फिर यह वाइफ ऐसा कहती है कि ‘इतनी देर से कोई आता होगा?’ बेचारा! ऐसी मीनिंगलेस बातें करनी चाहिए? तुझे समझ में आता है? यानी जब वे घर देर से लौटें, उस दिन आपको देख लेना कि मूड कैसा है? इसलिए फिर तुरंत कहना कि पहले चाय-वाय पीओ, फिर भोजन के लिए बैठो। फिर अच्छे मूड में आ जाता है। मूड उल्टा हो तो आप उन्हें चाय-पानी पिलाकर खुश करना। जैसे पुलिस वाला आया हो, हमारा मूड नहीं हो, फिर भी चाय-पानी नहीं कराते? यह तो अपना है, उसे खुश नहीं करना चाहिए? अपने हैं, तो खुश करना चाहिए। बहुतों को मालूम होगा, कभी गाड़ी मूड में नहीं होती, ऐसा नहीं होता? गरम हो गई हो तब उसे लाठी मारते रहे तो? उसे मूड में लाने के लिए ठंडी करनी पड़ती है थोड़ी, रेडीयेटर फिराना, पंखा चलाना। नहीं करते?

प्रश्नकर्ता (स्त्री) : ब्रान्डी पीना कैसे बंद कराएँ?

दादाश्री : घर में तुम्हारा प्रेम देखेंगे तो सब छोड़ देंगे। प्रेम के खातिर सभी चीज़ें छोड़ने को तैयार हैं। यहाँ प्रेम नज़र नहीं आता इसलिए शराब से प्रेम करता है, किसी और से प्रेम करता है। वर्ना बीच पर घूमता रहता है। अरे, यहाँ तेरे बाप ने क्या गाड़ रखा है, घर पर जा न! तब कहता है, ‘घर पर तो मुझे अच्छा ही नहीं लगता।’

[8] सुधारना या सुधरना?

यानी यह संबंध रिलेटिव है। कर्ईं लोग क्या करते हैं कि पत्नी को सुधारने के लिए इतनी ज़िद पर आते हैं कि प्रेम की डोर टूट जाए वहाँ तक जिद पकड़ते हैं। वे क्या समझते हैं कि इसे मुझे सुधारना ही चाहिए। अरे! तू सुधर न! तू सुधर एकबार। और यह तो रियल

(पृ.३८)

नहीं, रिलेटिव है! अलग हो जाएगी। इसलिए हमें झूठ-मूठ नाटक करके भी उसकी गाड़ी पटरी पर चढ़ा देनी है। यहाँ से पटरी पर चढ़ गई तो स्टेशन पहुँच जाएगी, सटासट। यानी यह रिलेटिव है और समझा-बुझाकर निराकरण ले आना।

प्रश्नकर्ता : प्रकृति नहीं सुधरती, पर व्यवहार तो सुधारना चाहिए न?

दादाश्री : व्यवहार तो लोगों को आता ही नहीं। अगर कभी व्यवहार आया होता, अरे! आधा घंटा भी व्यवहार करना आया होता तो भी बहुत हो गया! व्यवहार तो समझे ही नहीं। व्यवहार यानी क्या? ऊपर-ऊपर से। व्यवहार मतलब सत्य नहीं। यह तो व्यवहार को ही सत्य मान लिया है। व्यवहार में सत्य यानी रिलेटिव सत्य। इसलिए यहाँ के नोट असली हों या जाली हों, दोनों ‘वहाँ’ (मोक्ष) के स्टेशन पर काम नहीं आएँगे। इसलिए इसे छोड़ो और अपना काम निकाल लो! व्यवहार यानी जो लिया था, उसे वापस देना वह। अभी कोई कहे कि, ‘भाई, तुझ में अक़्ल नहीं है’ तो समझना कि यह तो दिया हुआ ही वापस आया। यह अगर समझ लो तो वह व्यवहार कहलाएगा। आजकल व्यवहार किसी में है ही नहीं। जिसका व्यवहार व्यवहार है, उसका निश्चय निश्चय है।

कोई कहेगा कि, ‘भाई, उसे सीधी करो।’ अरे! उसे सीधी करने जाएगा तो तू टेढ़ा हो जाएगा। इसलिए वाइफ को सीधी करने मत जाना, जैसी है वैसी उसे ‘करेक्ट’ कहना। हमें उसके साथ हमेशा का साथ-सहकार हो तो अलग बात है, यह तो एक जन्म के बाद फिर कहाँ के कहाँ बिखर जाएँगे। दोनों का मरणकाल भिन्न, दोनों के कर्म भिन्न। कुछ लेना भी नहीं और देना भी नहीं! यहाँ से वह किसके वहाँ जाएगी किसे मालूम? हम सीधी करें और अगले जन्म में जाए दूसरे के हिस्से में!

जो खुद सीधा हो चुका हो, वही दूसरे को सुधार सकता है। प्रकृति डाँट-डपट से नहीं सुधरती, न ही वश में आती है। डाँट-डपट

(पृ.३९)

से तो संसार खड़ा हुआ है। डाँट-डपट से तो उसकी प्रकृति और अधिक बिगड़ेगी।

सामने वाले को सुधारने के लिए यदि आप दयालु हो तो डाँटना मत। उसे सुधारने के लिए तो उसकी बराबरी का उसे मिल ही जाएगा।

जो हमारे रक्षण में हो, उसका भक्षण कैसे कर सकते हैं? जो खुद के आश्रय में आया उसका रक्षण करना, वही मुख्य ध्येय होना चाहिए। उसने गुनाह किया हो, फिर भी उसका रक्षण करना चाहिए। ये विदेशी सैनिक यहाँ अभी कैदी हैं, फिर भी अपने सैनिक उनकी कैसी रक्षा करते हैं! तब ये तो अपने घर वाले ही हैं न? ये तो बाहर वालों के पास म्याऊँ बन जाते हैं, वहाँ झगड़ा नहीं करते और घर पर ही सब-कुछ करते हैं।

[9] कॉमनसेन्स से ‘एडजस्ट एवरीव्हेर’

किसी के साथ मतभेद होना और दीवार से टकराना दोनों समान हैं, उन दोनों में कोई फर्क नहीं। दीवार से टकराता है, वह नहीं दिखने के कारण टकराता है और जो मतभेद होता है, वह मतभेद भी नहीं दिखने के कारण होता है। आगे का उसे नज़र नहीं आता, आगे का उसे सॉल्यूशन नहीं मिलता, इसलिए मतभेद होता है। यह क्रोध होता है, वह भी नहीं दिखने से क्रोध होता है। ये क्रोध-मान-माया-लोभ वगैरह करते हैं, वे सब भी नहीं दिखने से ही करते हैं। तो बात को इस तरह समझनी चाहिए न! जिसे लगे उसका दोष है न, दीवार का कोई दोष है क्या? और इस जगत् में सभी दीवारें ही हैं। दीवार से टकराने पर हम उसके साथ खरी-खोटी करने नहीं जाते न कि यह मेरा सही है? ऐसे लड़ने के लिए झंझट नहीं करते न?

जो टकराते हैं न, समझो वे सब दीवारें ही हैं। फिर दरवाज़ा कहाँ है वह ढूँढऩा चाहिए, तो अंधेरे में भी दरवाज़ा मिलेगा। ऐसे हाथ से टटोलते-टटोलते जाएँ तो दरवाज़ा मिलता है या नहीं मिलता? और वहाँ से फिर निकलजाना। टकराना नहीं है, ऐसे नियम का पालन करना चाहिए कि ‘किसी के साथ टकराना नहीं है।’

(पृ.४०)

[10] दो डिपार्टमेन्ट अलग

पुरुष को स्त्री के मामले में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए और स्त्री को पुरुष के मामले में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। प्रत्येक को अपने-अपने ‘डिपार्टमेन्ट’ में ही रहना चाहिए।

प्रश्नकर्ता : स्त्री का डिपार्टमेन्ट कौन-सा? किन-किन में पुरुषों को हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए?

दादाश्री : ऐसा है, खाना क्या पकाना, घर कैसे चलाना, यह सब स्त्री के डिपार्टमेन्ट हैं। गेहूँ कहाँ से लाती है, कहाँ से नहीं यह जानने की हमें क्या ज़रूरत? वे यदि आपसे कहें कि गेहूँ लाने में तकलीफ़ होती है तो वह अलग बात है। लेकिन वह आपसे कहे नहीं, राशन नहीं दिखाती हों, तो हमें उसके ‘डिपार्टमेन्ट’ में हाथ डालने की ज़रूरत ही क्या है? ‘आज खीर बनाना, आज जलेबी बनाना।’ ऐसा भी कहने की क्या ज़रूरत? टाइम आएगा तब वह रखेगी। उनका ‘डिपार्टमेन्ट’, वह उनका स्वतंत्र! कभी बहुत इच्छा हो जाए तो कहना, ‘आज लड्डू बनाना।’ कहने के लिए मना नहीं करता, पर बिना वजह दूसरा इधर-उधर चिल्लाए कि ‘कढ़ी खारी हो गई, खारी हो गई’, यह सब नासमझी की बातें हैं।

समझदार पुरुष तो घर के मामले में हाथ ही नहीं डालता, उसे पुरुष कहते हैं! वर्ना स्त्री जैसा होता है। कुछ मर्द तो घर में जाकर मसाले के डिब्बे देखते हैं कि, ‘ये दो महीने पहले लाए थे तो इतनी जल्दी खत्म हो गए।’ अरे, ऐसा सब देखता है तो ऐसे कैसे निपटारा होगा? वह तो जिसका ‘डिपार्टमेन्ट’ है, क्या उसे चिंता नहीं होगी? क्योंकि चीज़ें तो इस्तेमाल होती रहती हैं और नई ली भी जाती हैं। पर यह बिना बात ही ज़्यादा अक़्लमंद बनने जाता है। उसके रसोई डिपार्टमेन्ट में हाथ नहीं डालना चाहिए।

हमें भी शुरू में तीस साल तक थोड़ी परेशानी हुई थी। फिर चुन-चुनकर सब निकाल दिया और डिविज़न कर दिया कि रसोई-खाता आपका और कमाई-खाता हमारा, कमाना है हमें। आपके खाते

(पृ.४१)

में हमें हाथ नहीं डालना है। हमारे खाते में आपको हाथ नहीं डालना है। साग-सब्जी आपको लाने हैं।

पर हमारे घर का रिवाज आपने देखा हो तो बहुत सुंदर लगेगा। जब तक हीरा बा का शरीर ठीक था, तब तक, बाहर मोहल्ले के नुक्कड़ पर सब्जीमंडी थी, वहाँ खुद सब्जी लेने जातीं। तब हम बैठे हों, तो हीरा बा मुझसे पूछतीं, ‘क्या सब्जी लाऊँ?’ तब मैं उनसे कहता, ‘आपको जो ठीक लगे, वह लाना।’ फिर वे ले आती। पर ऐसे ही रोज़ चलता रहे तो क्या होगा? वे फिर पूछना बंद रखेंगी। हीरा बा कहेगी, अरे, हमें वे क्या कहते हैं? आपको ठीक लगे वह। फिर पाँच-सात दिन पूछना बंद कर दिया। फिर एक दिन मैंने कहा कि ‘करेले क्यों लाईं?’ तब वे कहने लगीं, ‘मैं जब पूछती हूँ तब कहते हो, आपको जो ठीक लगे वह ले आना और आज ये लाई तो आप भूल निकाल रहे हो?’ तब मैंने कहा, ‘‘नहीं, हमें ऐसा रिवाज रखना है। आपको मुझे पूछना है, ‘क्या सब्जी लाऊँ?’ तब मैं कहूँगा, ‘आपको जो ठीक लगे वह’। यह अपना रिवाज जारी रखना।’’ तो उन्होंने अंत तक जारी रखा। इसमें देखने वाले को भी शोभनीय लगे कि वाह! इस घर के रिवाज का क्या कहना! यानी हमारा व्यवहार बाहर अच्छा दिखना चाहिए। एक पक्षीय नहीं होना चाहिए। महावीर भगवान कैसे पक्के थे! व्यवहार और निश्चय दोनों अलग। एक पक्षीय नहीं। देखते नहीं हैं व्यवहार को? लोग भी तो रोज़ देखते हैं न। ‘रोज़ाना आपसे पूछती हैं?’ मैंने कहा, ‘हाँ, रोज़ाना पूछती हैं।’ ‘तो थक नहीं जातीं?’ कहते हैं। मैंने कहा, ‘अरे, क्यों थकेंगी भला बा? क्या मंज़िलें चढऩी हैं या पहाड़ चढऩे हैं?’ हम दोनों का व्यवहार लोग देखें ऐसा करो।

प्रश्नकर्ता : स्त्री को पुरुष की किन बातों में हाथ नहीं डालना चाहिए?

दादाश्री : पुरुष की किसी भी बात में दख़ल नहीं करनी चाहिए। ‘दुकान में कितना माल आया? कितना गया? आज देर से

(पृ.४२)

क्यों आए?’ फिर उनको कहना पड़े कि ‘आज नौ बज़े की गाड़ी चूक गया।’ तब पत्नी कहेगी कि, ‘ऐसे कैसे घूमते हो कि गाड़ी छूट जाती है?’ फिर वह चिढ़ जाता है। उसे भी मन में होता है कि अगर भगवान भी ऐसा पूछता, तो उसे मारता। पर यहाँ क्या करें अब? बिना वजह दख़ल देते हैं। अच्छे बासमती चावल बनाते हैं और फिर उसमें कंकड़ डालकर खाते हैं। उसमें क्या स्वाद आएगा? स्त्री-पुरुष को परस्पर हेल्प करनी चाहिए। पति को चिंता रहती हो तो पत्नी को ऐसे बोलना चाहिए कि उसे चिंता नहीं हो, और पति को भी, पत्नी को परेशानी न हो, ऐसा ध्यान रखना चाहिए। पति को भी समझना चाहिए कि पत्नी को घर पर बच्चे कितने परेशान करते होंगे? घर में कुछ टूट-फूट जाए तो पुरुष को शोर नहीं मचाना चाहिए। पर वह भी लोग शोर मचाते हैं कि ‘पिछली बार अच्छे से अच्छे दर्जन कप-रकाबी लाया था, वे सारे के सारे आपने क्यों फोड़ डाले? सब खत्म कर दिए।’ इससे पत्नी को मन में होता है कि ‘मैंने तोड़ डाले? मुझे क्या वे खा जाने थे? टूट गए सो टूट गए, उसमें मैं क्या करूँ?’ ‘मी काय करूँ?’ कहेगी। अब वहाँ लड़ाई। जहाँ कुछ लेना भी नहीं, कुछ देना भी नहीं। जहाँ झगड़ने की कोई वजह ही नहीं वहाँ भी लड़ने लगे?

डिविज़न तो मैंने पहले से, छोटा था तभी से कर दिए थे कि, यह रसोई खाता उसका और धंधा खाता मेरा। बचपन में मुझसे घर की स्त्री धंधे का हिसाब माँगे, तो मेरा दिमाग़ घूम जाता। क्योंकि मै कहता, तुम्हारी लाइन नहीं। तुम विदाउट एनी कनेक्शन पूछ रही हो? कनेक्शन (अनुसंधान) समेत होना चाहिए। वह पूछती थी ‘इस साल कितना कमाए?’ मैं कहता था, ‘ऐसा आपको नहीं पूछना चाहिए। यह तो हमारा पर्सनल मेटर हुआ। आप ऐसा पूछती हो? तो कल सुबह अगर मैं किसी को पाँच सौ रुपये देकर आया होऊँ, तो आप मेरा तेल निकाल लोगी।’ किसी को पैसे दे आया तब कहोगी, ‘ऐसे लोगों को पैसे बाँटते फिरोगे तो पैसे खत्म हो जाएँगे।’ ऐसे तुम मेरा तेल निकालोगी, इसलिए पर्सनल मेटर में तुम्हें हस्तक्षेप नहीं करना है।

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[11] शंका जलाए सोने की लंका

घर में ज़्यादातर तकरारें आजकल शंका की वजह से खड़ी हो जाती हैं। यह कैसा है कि शंका की वजह से स्पंदन उठते हैं और इन स्पंदनों से लपटें निकलती हैं। और अगर नि:शंक हो जाएँ न, तो लपटें अपने आप ही शांत हो जाएँगी। पति-पत्नी दोनों शंकाशील होंगे, तो लपटें कैसे शांत होंगी? एक नि:शंक हो, तभी छुटकारा हो सकता है। माँ-बापों की तकरार से बच्चों के संस्कार बिगड़ते हैं। बच्चों के संस्कार नहीं बिगड़ें, इसलिए दोनों को समझकर निपटारा लाना चाहिए। यह शंका निकाले कौन? अपना यह ‘ज्ञान’ तो संपूर्ण नि:शंक बनाए ऐसा है!

एक पति को अपनी वाइफ पर शंका हुई थी। वह बंद होगी? नहीं। वह लाइफ टाइम शंका कहलाती है। काम हो गया न, पुण्यशाली (!) पुण्यशाली मनुष्य को होती है न! इसी तरह वाइफ को भी पति पर शंका हो जाए, वह भी लाइफ टाइम नहीं जाती।

प्रश्नकर्ता : नहीं करनी हो फिर भी हो जाएँ, वह क्या है?

दादाश्री : अपनापन, मालिकीपना। मेरा पति है! पति भले ही हो, पति होने में हर्ज नहीं। ‘मेरा’ कहने में हर्ज नहीं है, ममता नहीं रखनी चाहिए। मेरा कहना, ‘मेरा पति’ ऐसा बोलना, लेकिन ममता नहीं रखनी है।

इस दुनिया में दो चीज़ें रखनी चाहिए। ऊपर-ऊपर से विश्वास खोजना और ऊपर-ऊपर से शंका करना। गहराई में मत उतरना। और अंत में तो, विश्वास खोजने वाला मेड हो जाता है, लोग मेन्टल हॉस्पिटल में डाल देंगे। ये पत्नी से एक दिन कहें, ‘इसका क्या प्रमाण है कि तू शुद्ध है?’ तब वाइफ क्या कहेगी, ‘जंगली है मुआ।’

ये लड़कियाँ बाहर जाती हों, पढऩे जाती हों तब भी ऐसी शंका! ‘वाइफ’ पर भी शंका! ऐसा सब दग़ा! घर में भी दग़ा ही है न, इस समय! इस कलियुग में खुद के घर में ही दग़ा होता है। कलियुग अर्थात् दग़े का काल। कपट और दग़ा, कपट और दग़ा, कपट और

(पृ.४४)

दग़ा! क्या ये सुख के लिए करते हैं? वह भी बिना समझे, मूर्छा में! निर्मल बुद्धि वाले के यहाँ कपट और दग़ा नहीं होते। ये तो ‘फूलिश’ (मूर्ख) मनुष्य के यहाँ दग़ा और कपट होते हैं। कलियुग में ‘फूलिश’ ही जमा हुए हैं न!

लोगों ने कहा हो कि यह नालायक आदमी है, फिर भी आप उसे लायक कहना। क्योंकि नालायक नहीं भी हो और उसे नालायक कहोगे तो भारी गुनाह होगा। सती हो उसे यदि ‘वैश्या’ कह दिया तो भयंकर गुनाह है! उसके लिए कितने ही जन्मों तक भुगतते रहना पड़ेगा। इसलिए किसी के भी चारित्र के संबंध में बोलना मत। क्योंकि, यदि वह गलत निकला तो? लोगों के कहने पर आप भी कहने लगो, तो उसमें आपकी क्या क़ीमत रही? हम तो ऐसा कभी भी किसी के बारे में बोलते नहीं, और किसी को कहा भी नहीं। मैं तो दखल ही नहीं करता न! वह ज़िम्मेदारी कौन ले? किसी के चरित्र के बारे शंका नहीं करनी चाहिए। उसमें भारी जोखिम है। शंका तो हम कभी भी करते नहीं। हम क्यों जोखिम उठाएँ?

एक आदमी को उसकी वाइफ पर शंका होती थी। उससे मैंने पूछा कि शंका किस कारण से होती है? तूने देखा, इसलिए शंका होती है? तूने नहीं देखा था, तब क्या ऐसा नहीं हो रहा था? लोग तो जो पकड़ा जाए उसे ‘चोर’ कहते हैं। जो पकड़े नहीं गए वे सब भीतर से चोर ही हैं। पर ये तो, जो पकड़ा गया उसे ‘चोर’ कहते हैं, अरे! उसे क्यों चोर कहता है? वह तो ढीला था, कम चोरी की है इसलिए पकड़ा गया। अधिक चोरी करने वाले पकड़ में आते होंगे?

अत: जिसे पत्नी के चरित्र संबंधी शांति चाहिए, तो उसे बिल्कुल काली बदसूरत बीवी लानी चाहिए ताकि उसका कोई ग्राहक ही न बने, कोई उसे रखे ही नहीं। और वही ऐसा कहे कि, ‘मुझे कोई सँभालने वाला नहीं हैं, ये एक पति मिले हैं, वे ही सँभालते हैं।’ अत: वह आपके प्रति सिन्सियर रहेगी, बहुत सिन्सियर रहेगी। बाकी, यदि सुंदर होगी तो लोग भोगेंगे ही। सुंदर हो, तो लोगों की दृष्टि

(पृ.४५)

बिगड़ेगी ही! कोई सुंदर पत्नी लाए तब हमें यही विचार आता है कि इसकी क्या दशा होगी! काली दाग़ वाली होगी, तभी सेफसाइड रहेगी।

पत्नी बहुत सुंदर हो, तब वह भगवान को भूलेगा न? और पति रूपवान हो तो वह स्त्री भी भगवान भूल जाएगी! यानी कि सामान्य रूप से सब अच्छा। हमारे बुज़ुर्ग तो ऐसा कहते थे कि ‘खेत रखना समतल और पत्नी रखना कुरूप?’

ये लोग तो कैसे हैं कि ‘जहाँ होटल देखीं वहाँ खा लेते हैं’। अत: शंका करने जैसा जगत् नहीं है। शंका ही दु:खदायी है।

और ये लोग तो, वाइफ ज़रा देर से आए, तब भी शंका करते रहते हैं। शंका करने जैसा नहीं है। ऋणानुबंध से बाहर कुछ भी होने वाला नहीं है। वह घर आए तब उसे समझाना, लेकिन शंका मत करना। शंका तो बल्कि अधिक बढ़ावा देती है। हाँ सावधान ज़रूर करना, पर किसी प्रकार की शंका मत करना। शंका करने वाला मोक्ष खो देता है। इसलिए आपको अगर छूटना हो, मोक्ष में जाना हो तो आपको शंका नहीं करनी चाहिए। कोई दूसरा आदमी आपकी ‘वाइफ’ के गले में हाथ डाल कर घूम रहा हो और वह आपके देखने में आया, तो क्या आपको ज़हर खा लेना चाहिए?

किसी भी बात में शंका होने लगे तो वे शंकाएँ मत रखना। आप जाग्रत रहना मगर सामने वाले पर शंका नहीं रखनी चाहिए। शंका हमें मार डालती है। उसका तो जो होना होगा वह होगा, पर हमें तो वह शंका ही मार डालेगी। क्योंकि शंका तो, मनुष्य मर जाए, तब तक भी उसे छोड़ती नहीं। शंका करे तो मनुष्य का वजन बढ़ता है क्या? मनुष्य मुर्दे की तरह जी रहा हो, उसके जैसा हो जाता है।

[12] पतिपने के गुनाह

प्रश्नकर्ता : कुछ लोग स्त्री से ऊबकर घर से भाग जाते हैं, ऐसा क्यों?

दादाश्री : नहीं, भगोड़े क्यों बनें? हम सभी परमात्मा हैं।

(पृ.४६)

आपको भागने की क्या आवश्यकता है? आपको उसका ‘समभाव से निकाल (निपटारा)’ कर देना है!

प्रश्नकर्ता : निकाल करना हो तो किस प्रकार करें? मन में भाव करें कि यह पूर्व जन्म का आया है?

दादाश्री : उतने से निकाल नहीं होगा। निकाल यानी सामने वाले के साथ फोन जोड़ना पड़ेगा, उसकी आत्मा को खबर देनी पड़ेगी। उस आत्मा के सामने ऐसा कबूल (एक्सेप्ट) करना पड़ेगा कि हमारी भूल हुई है अर्थात् बड़ा प्रतिक्रमण करना होगा।

प्रश्नकर्ता : कोई हमारा अपमान करे, फिर भी हमें उसका प्रतिक्रमण करना है?

दादाश्री : अपमान करे तभी प्रतिक्रमण करना है, हमें मान दे तब नहीं करना है। प्रतिक्रमण करने से उस पर द्वेषभाव तो होगा ही नहीं। ऊपर से उस पर अच्छा असर पड़ेगा। हमारे प्रति द्वेषभाव नहीं होगा, वह तो समझो पहला स्टेप, पर बाद में उसे खबर भी पहुँचती है।

प्रश्नकर्ता : उसके आत्मा को पहुँचती है क्या?

दादाश्री : हाँ, ज़रूर पहुँचती है। फिर वह आत्मा उसके पुद्गल को भी धकेलती है कि ‘भाई फोन आया तेरा।’ अपना यह प्रतिक्रमण है, वह अतिक्रमण के ऊपर है, क्रमण के ऊपर नहीं।

प्रश्नकर्ता : बहुत प्रतिक्रमण करने होंगे?

दादाश्री : जितनी स्पीड से हमें मकान बनाना है, उतने राजमिस्त्री हमें बढ़ाने होंगे। ऐसा है न, कि बाहर के लोगों के प्रति प्रतिक्रमण नहीं होंगे तो चलेगा, पर अपने आस-पास के और नज़दीकी घर वाले हैं, उनके प्रतिक्रमण अधिक करने होंगे। घर वालों के लिए मन में भाव रखना कि साथ में जन्मे हैं, साथ रहते हैं, वे कभी इस मोक्षमार्ग में आएँ।

एक भाई मेरे पास आए थे। वे मुझसे कहते थे, ‘दादा, मैंने

(पृ.४७)

शादी तो की है, पर मुझे मेरी बीवी पसंद नहीं है।’ मैंने कहा, ‘क्यों, पसंद नहीं आने का क्या कारण है?’ तब कहता है, ‘वह थोड़ी लंगड़ी हैं, लंगड़ाती है।’ ‘तो तेरी बीवी को तू पसंद है या नहीं?’ तो बोला, ‘दादा, मैं तो पसंद आऊँ ऐसा ही हूँ न! खूबसूरत हूँ, पढ़ा लिखा हूँ, कमाता हूँ और अपाहिज नहीं हूँ।’ तो उसमें भूल तेरी ही है। तेरी ऐसी कैसी भूल हुई कि तुझे लंगड़ी मिली और उसने कितने अच्छे पुण्य किए थे कि तू इतना अच्छा उसे मिला? अरे, यह तो अपना किया ही अपने सामने आता है, उसमें सामने वाले का क्या दोष देखता है? जा, तेरी भूल भुगत ले और फिर से नयी भूल मत करना। वह भाई समझ गया और उसकी ‘लाइफ’ फ्रेक्चर होते-होते रह गई और सुधर गई।

[13] दादाई दृष्टि से चलो, पतियों...

प्रश्नकर्ता : वाइफ ऐसा कहे कि आपके पेरेन्ट्स को अपने साथ नहीं रखना है या नहीं बुलाना है, तो क्या करें?

दादाश्री : तब समझाकर काम लेना। डेमोक्रेटिक तरीके से काम लेना। उसके माँ-बाप को बुलाकर उनकी बहुत सेवा करनी..

प्रश्नकर्ता : माता-पिता वृद्ध हों, बड़ी उम्र के बुज़ुर्ग हों, एक ओर माता-पिता हैं और दूसरी ओर वाइफ है, तब उन दोनों में से पहले किसकी बात सुनें?

दादाश्री : वाइफ के साथ ऐसा अच्छा संबंध कर देना कि वाइफ आपको ऐसा कहे कि ‘आपके माता-पिता का ख्याल रखो न! ऐसा क्यों करते हो?’ वाइफ के सम्मुख माता-पिता के बारे में थोड़ा उल्टा बोलना। लोग तो क्या कहते हैं? मेरी माँ जैसी किसी की माँ नहीं है। तू उनके लिए मत बोलना। फिर जब वह उल्टी चले तब आप कहना कि माँ का स्वभाव आजकल ऐसा ही हो गया है। इन्डियन माइन्ड को उल्टा चलने की आदत होती है, इन्डियन माइन्ड है न!

तू जानता है कि लोग वाइफ को गुरु बनाएँ, ऐसे हैं?

प्रश्नकर्ता : हाँ जी, जानता हूँ।

(पृ.४८)

दादाश्री : उसे गुरु बनाने जैसा नहीं है, वर्र्ना माता-पिता और सारा कुटुंब परेशानी में पड़ जाएगा और गुरु बनाने पर खुद भी परेशानी में पड़ जाएगा। उसे भी खिलौने की तरह नाचना पड़ेगा न! पर मेरे पास आने वाले के साथ ऐसा नहीं होता। मेरे पास सब-कुछ ऑलराइट! हिंसक भाव ही उड़ जाता है न! हिंसा करने का विचार ही नहीं आता। कैसे सुख पहुँचाऊँ यही विचार आता है।

प्रश्नकर्ता : ये लेडीज़ काम करके थक बहुत जाती हैं। काम बताएँ तो बहाने बहुत बनाती हैं कि मैं थक गई हूँ, सिर दु:ख रहा है, कमर दु:ख रही है।

दादाश्री : ऐसा है न, तो उसे सुबह से कह देना चाहिए कि ‘देख तुझ से काम नहीं होगा, तू थक गई है।’ तब उसे जोश आ जाएगा कि ‘नहीं तुम बैठे रहो चुपचाप, मैं कर लूँगी।’ अर्थात् आपको कला से काम लेना आना चाहिए। अरे! सब्जी काटने में भी कला नहीं हो तो यहाँ खून निकला होता है।

प्रश्नकर्ता : हम जब गाड़ी में जाते हैं तब वह मुझे कहती रहती है, गाड़ी कहाँ मोड़नी है, कब ब्रेक लगाना, ऐसा गाड़ी में मुझे कहती रहती है, यानी टोकती है गाड़ी में, ‘ऐसे चलाओ, ऐसे चलाओ!’

दादाश्री : तो उसके हाथ में दे देना। उसे सौंप देना गाड़ी। झंझट ही नहीं। समझदार आदमी! किट-किट करे, तब उसे कहना, ‘ले, तू चला!’

प्रश्नकर्ता : तब वह कहेगी, ‘मेरी हिम्मत नहीं है।’

दादाश्री : क्यों? तब कहना, ‘उसमें तुम्हें क्या हर्ज है? तब क्या तुम्हें ऊपर लटका रखा है कि टोकती रहती हो?’ गाड़ी उसे सौंप देना। ड्राईवर हो तो पता चले टोकने पर, यह तो घर का आदमी है इसलिए टोकती रहती है।

प्रश्नकर्ता : पत्नी का पक्ष न लें, तो घर में झगड़े होंगे न।

दादाश्री : पत्नी का ही पक्ष लेना। पत्नी का पक्ष लेना, कुछ

(पृ.४९)

हर्ज नहीं। क्योंकि पत्नी का पक्ष लोगे तो ही रात को सो सकोगे चैन से वर्ना सोओगे कैसे? वहाँ काज़ी मत बनना।

प्रश्नकर्ता : पड़ोसी का पक्ष तो लेना ही नहीं चाहिए न?

दादाश्री : नहीं, आपको हमेशा वादी का ही वकील बनना है, प्रतिवादी का नहीं बनना है। हम जिस घर का खाते हों उसी का... वकालत सामने वाले के घर की करें और खाएँ इस घर का! इसलिए सामने वाले का न्याय मत तोलना उस घड़ी। आपकी वाइफ अन्याय में हो तो भी आपको उसके अनुसार ही चलना है। वहाँ न्याय करने जैसा नहीं है कि ‘तुझमें ही अक़्ल नहीं है इसलिए यह...’ क्योंकि कल भोजन वहीं करना है, तू अपनी ही कंपनी में वकालत करता है! और वैसा कहा तो प्रतिवादी का वकील बन गया।

प्रश्नकर्ता : सामने वाले का समाधान हुआ कैसे कहलाएगा? सामने वाला का समाधान हो, लेकिन उसमें उसका अहित हो तो?

दादाश्री : वह आपको नहीं देखना है। सामने वाले का अहित हो वह तो उसे ही देखना है। आपको सामने वाले का हिताहित देखना है पर आप, हित देखने वाले में, आप में शक्ति क्या है? आप अपना ही हित नहीं देख सकते, तो दूसरों का क्या हित देख सकोगे? सब अपनी-अपनी शक्ति के अनुसार हित देखते हैं, उतना हित देखना चाहिए। पर सामने वाले के हित के लिए टकराव खड़ा हो, ऐसा नहीं करना चाहिए।

प्रश्नकर्ता : सामने वाले का समाधान करने का हम प्रयत्न करें पर परिणाम विपरीत आने वाला है, ऐसा हमें पता हो, तब क्या करें?

दादाश्री : परिणाम कुछ भी हो मगर हमें तो, ‘सामने वाले का समाधान करना है’, इतना तय रखना है। समभाव से निकाल करना तय करो, फिर निकाल हो या न हो, वह पहले से नहीं देखना है, और निकाल होगा! आज नहीं तो कल होगा, परसों होगा। गाढ़ ऋणानुबंध हो तो दो साल, तीन साल या पाँच साल में भी होगा।

(पृ.५०)

वाइफ के साथ ऋणानुबंध बहुत चीकने (गाढ़) होते हैं, संतानों के चीकने होते हैं, माता-पिता के चीकने होते हैं। वहाँ पर थोड़ा ज़्यादा समय लगेगा। ये आपके साथ के साथ ही होते हैं, इसलिए वहाँ निकाल धीरे-धीरे होता है। लेकिन यदि आपने निश्चित किया है कि कभी न कभी ‘हमें समभाव से निकाल करना है’, इसलिए एक न एक दिन उसका निकाल होकर रहेगा, उसका अंत आएगा।

[14] ‘मेरी’ की लपेटें खुलेंगीं ऐसे

शादी के समय मंडप में बैठते हैं न! मंडप में बैठते हैं, तब ऐसे देखते हैं। हाँ, यह मेरी वाइफ, यानी पहली लपेट लगाई। ‘मेरी वाइफ, मेरी वाइफ, मेरी वाइफ, मेरी वाइफ...’ शादी करने बैठा तभी से लपेटें लगाता रहता है, वह। अभी तक लपेटें लगा ही रहा है, तो न जाने कितनी ही लपेटें लग गई होंगी अब तक! अब किस प्रकार वे लपेटें खुलेंगी? ममता की लपेटें लगी हैं!

अब ‘नहीं है मेरी,’ ‘नहीं है मेरी’ ऐसे अजपा जाप करो। ‘यह स्त्री मेरी नहीं हैं, नहीं हैं मेरी’, इससे लपेटें खुल जाएँगी। पचास हज़ार बार ‘मेरी-मेरी’ कहकर लपेटें लगाई हों, वह ‘नहीं है मेरी’ की पचास हज़ार लपेटें लगाने पर छूटेंगी! यह क्या भूत है बगैर काम का? एक आदमी की पत्नी के मृत्यु को दस साल हो गए थे, फिर भी वह उसे भूल नहीं पाया था और रोता रहता था। यह क्या भूत लिपटा है? मैंने उसे ‘नहीं है मेरी,’ ‘नहीं है मेरी’ बोलने को कहा। तो उसने क्या किया? तीन दिन तक ‘नहीं है मेरी, नहीं है मेरी’ बोलता ही रहा और रटता रहा। बाद में उसका रोना बंद हो गया! ये सभी लपेटें ही हैं और उसी से यह फज़ीहत हुई है। यानी यह सब कल्पित है। आपको समझ में आई मेरी बात? अब ऐसा सरल रास्ता कौन दिखाएगा?

सारा दिन काम करते-करते पति का प्रतिक्रमण करती रहना। एक दिन में छ: महिनों का बैर कट जाएगा। और आधा दिन हुआ तो समझो न, तीन महीने का खत्म हो जाता है। शादी से पहले पति के प्रति ममता थी? नहीं। तब ममता कब से बंधी? शादी के समय

(पृ.५१)

मंडप में आमने सामने बैठे, इसलिए तूने तय किया कि ‘ये मेरे पति आए। थोड़े मोटे हैं और साँवले हैं।’ फिर उसने भी तय किया कि ‘यह मेरी पत्नी आई।’ तब से ‘मेरा-मेरा’ की जो लपेटें लगीं, वे लपेटें लगती ही रही हैं। वह पंद्रह साल की फिल्म है, उसे ‘नहीं है मेरा, नहीं हैं मेरा’ करोगे, तब वे लपेटें खुलेंगी और ममता छूटेगी। यह तो, शादी हुई तबसे अभिप्राय उत्पन्न हुए, प्रिज्युडिस (पूर्वाग्रह) उत्पन्न हुआ कि ‘ये ऐसे हैं, वैसे हैं।’ उससे पहले कुछ था? अब तो हमें मन में निश्चय करना है कि ‘जो हैं, सो ये ही हैं’ और हम खुद पसंद करके लाए हैं। अब क्या पति बदल सकते हैं?

[15] परमात्म प्रेम की पहचान

इस संसार में अगर कोई कहे कि, ‘यह स्त्री का प्रेम क्या प्रेम नहीं है?’ तब मैं समझाता हूँ कि जो प्रेम बढ़े-घटे, वह सच्चा प्रेम है ही नहीं। आप हीरे के गहने लाकर दो, उस दिन प्रेम बहुत बढ़ जाता है और यदि नहीं लाए तो प्रेम घट जाता है, यह प्रेम नहीं है।

प्रश्नकर्ता : सच्चा प्रेम बढ़ता-घटता नहीं, तो उसका स्वरूप कैसा होता है?

दादाश्री : वह बढ़ता-घटता नहीं। जब देखो तब प्रेम वैसे का वैसा ही दिखता है। यह तो, आपका काम कर दे, तब तक उसका आपके प्रति प्रेम रहता है और काम नहीं करे तो प्रेम टूट जाता है, उसे प्रेम कहेंगे ही कैसे? अर्थात् जहाँ स्वार्थ नहीं होता वहाँ पर शुद्ध प्रेम होता है। स्वार्थ कब नहीं होता? मेरा-तेरा नहीं होता, तब स्वार्थ नहीं होता। जब ‘ज्ञान’ होता है, तब मेरा-तेरा नहीं होता। ‘ज्ञान’ के बगैर तो मेरा-तेरा होता ही है न?

ये तो सभी ‘रोंग बिलीफ’ हैं। ‘मैं चंदूभाई हूँ’ वह रोंग बिलीफ है। फिर घर जाने पर हम पूछें कि ‘यह कौन है?’ तब वह कहता है ‘नहीं पहचाना? इस औरत का मैं स्वामी हूँ।’ ओहोहो! बड़े स्वामी आए! मानो स्वामी का स्वामी ही न हो, ऐसी बातें करता है! स्वामी का स्वामी नहीं होता? तब फिर ऊपर वाले स्वामी की स्वामिनी आप

(पृ.५२)

हुए और आपकी स्वामीनी यह हुई। इस धाँधल में क्यो पड़ें? स्वामी ही क्यों बनें? हमारे ‘कम्पेनियन’ हैं, कहो तो क्या हर्ज है?

प्रश्नकर्ता : दादा ने एकदम ‘मॉडर्न’ भाषा का प्रयोग किया।

दादाश्री : तब फिर? टसल कम हो जाए न! हाँ, एक रूम में दो ‘कम्पेनियन’ रहते हों, तब एक व्यक्ति चाय बनाए और दूसरा व्यक्ति पीए  और दूसरा उसके लिए उसका काम कर दे। ऐसा करके ‘कम्पेनियनशिप’ चलती रहे।

प्रश्नकर्ता : ‘कम्पेनियन’ में आसक्ति होती है या नहीं?

दादाश्री : उसमें आसक्ति होती है, पर वह आसक्ति अग्नि जैसी नहीं होती। ये तो शब्द ही ऐसे गाढ़ आसक्ति वाले हैं। ‘पतिपना और पत्नी’ इन शब्दों में ही इतनी गाढ़ आसक्ति है, और यदि ‘कम्पेनियन’ कहें तो आसक्ति कम हो जाती है।

एक आदमी की वाइफ 20 साल पहले मर गई थीं। तो एक भाई ने मुझसे कहा कि, ‘इस चाचा को रुलाऊँ?’ मैंने पूछा, ‘कैसे रुलाओगे?’ इस उम्र में तो नहीं रोएँगे। तब वह कहता है, ‘देखो, वे कितने सेन्सिटिव हैं!’ फिर वे बोले, ‘क्यों चाचा, चाची की तो बात ही मत पूछो, क्या उनका स्वभाव था!’ वह ऐसे कह रहा था कि चाचा सचमुच रो पड़े! अरे, कैसे हैं ये घनचक्कर! साठ साल में भी अभी पत्नी के लिए रोना आता है! ये तो किस तरह के घनचक्कर हैं? ये लोग तो वहाँ सिनेमा में भी रोते हैं न? उसमें कोई मर जाए, तब देखने वाले भी रोने लगते हैं!

प्रश्नकर्ता : तो वह आसक्ति छूटती क्यों नहीं?

दादाश्री : वह तो नहीं छूटती। ‘मेरी-मेरी’ करके किया न, वह अब ‘नहीं हैं मेरी, नहीं हैं मेरी’ के जाप करेंगे, तो बंद हो जाएगा। वह तो जो-जो लपेटें लगी होंगी, उन्हें छोड़ना ही पड़ेगा न! अर्थात् यह तो केवल आसक्ति है। चेतन जैसी चीज़ ही नहीं है। ये तो सब चाबी भरे हुए पुतले हैं।

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और जहाँ आसक्ति होती है, वहाँ पर आक्षेप आए बिना रहते ही नहीं। वह आसक्ति का स्वभाव है। आसक्ति हो तो आक्षेप लगते ही रहते हैं कि ‘तुम ऐसे हो और तुम वैसे हो! तू ऐसी और तू वैसी!’ ऐसा नहीं बोलते, क्यों? आपके गाँव में नहीं बोलते? या बोलते हैं? ऐसा जो बोलते हैं, वह आसक्ति के कारण है।

ये लड़कियाँ पति पसंद करती हैं, ऐसे देख-दाख कर पसंद करती हैं, बाद में क्या झगड़ती नहीं होंगी? झगड़ती हैं क्या? तो उसे प्रेम कह ही नहीं सकते न! प्रेम तो हमेशा के लिए होता है। जब देखो, तब वही प्रेम। वैसा ही दिखे, वह प्रेम कहलाता है और वहाँ आश्वासन ले सकते हैं। यह तो आपको प्रेम आया हो और उस दिन वह रूठकर बैठी हो, तब ‘क्या करना’, यह कैसा तुम्हारा प्रेम! मुँह फुलाकर घूमे, ऐसे प्रेम का क्या करना है? आपको क्या लगता है?

जहाँ बहुत प्रेम होता है, वहीं पर नापसंदगी होती  है,  यह मनुष्य  स्वभाव  है।

ये तो, सिनेमा जाते समय आसक्ति की ही धुन में और लौटते समय ‘बेअक़्ल है’ कहता है। तब वह कहती है कि ‘तुम में कहाँ ढंग है?’ ऐसे बातें करते करते घर आते हैं। यह अक़्ल ढूँढ़ता है, तब वह ढंग देखती है!

और प्रेम से सुधरता है। यह सब सुधारना हो, तो प्रेम से सुधरता है। इन सभी को मैं सुधारता हूँ न, वह प्रेम से सुधारता हूँ। हम प्रेम से ही कहते हैं, इसलिए बात बिगड़ती नहीं। और ज़रा भी द्वेष से कहें तो वह बात बिगड़ जाएगी। दूध में दही नहीं डाला हो और यों ही ज़रा हवा लग गई, तो भी उस दूध का दही बन जाता है।

प्रश्नकर्ता : इसमें प्रेम और आसक्ति का भेद ज़रा समझाइए।

दादाश्री : जो विकृत प्रेम है, उसी का नाम आसक्ति। इस संसार में हम जिसे प्रेम कहते हैं, वह विकृत प्रेम कहलाता है और उसे आसक्ति ही कहा जाएगा।

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यह तो सूई और चुंबक में जैसी आसक्ति है, वैसी यह आसक्ति है। उसमें प्रेम जैसी वस्तु ही नहीं है। प्रेम होता ही नहीं न किसी जगह। यह तो सूई और चुंबक के आकर्षण को लेकर आपको ऐसा लगता है कि मुझे प्रेम है, इसलिए मैं खिंच रहा हूँ। लेकिन वह प्रेम जैसी वस्तु ही नहीं है। प्रेम तो, ज्ञानी पुरुष का ‘प्रेम’, वह प्रेम कहलाता है।

इस दुनिया में शुद्ध प्रेम, वही परमात्मा है। उसके सिवा अन्य कोई परमात्मा दुनिया में हुआ ही नहीं है और होगा भी नहीं। और वहाँ दिल को ठंडक होती है तब दिलावरी काम होते हैं। वर्ना दिलावरी काम नहीं हो सकते। दो प्रकार से दिल को ठंडक होती है। अधोगति में जाना हो, तब किसी स्त्री में दिल लगाना और उध्र्वगति में जाना हो, तब ज्ञानी पुरुष में दिल लगाना। और वे तो तुम्हें मोक्ष में ले जाएँगे। दोनों जगह दिल की ज़रूरत पड़ेगी, तब दिलावरी प्राप्त होती है।

अर्थात् जिस प्रेम में क्रोध-मान-माया-लोभ कुछ भी नहीं, स्त्री नहीं, पुरुष नहीं, जो प्रेम समान, एक जैसा रहता है, ऐसा शुद्ध प्रेम देखे, तब मनुष्य के दिल में ठंडक होती है।

मैं प्रेम स्वरूप हो चुका हूँ। उस प्रेम में ही आप मस्त हो जाओगे तो जगत् भूल ही जाओगे, जगत् पूरा विस्मृत होता जाएगा। प्रेम में मस्त हुए तो फिर आपका संसार अच्छा चलेगा, आदर्शरूप से चलेगा।

[16] शादी की अर्थात् ‘प्रोमिस टु पे’

1943 में हीरा बा की एक आँख चली गई। डॉक्टर कुछ करने गए, उन्हें झामर का रोग था, वे झामर का इलाज करने गए, तब आँख पर असर हुआ और उसे नुकसान हो गया।

इसलिए लोगों के मन में हुआ कि यह ‘नया दूल्हा’ तैयार हुआ। फिर से शादी करवाओ। कन्याएँ बहुत थीं न और कन्या के माता-पिता की इच्छा ऐसी कि कैसे भी करके, उसे कुएँ में डालकर भी ठिकाने लगा दें। तब भादरण के एक पाटीदार आए। उनके साले की लड़की होगी, इसलिए आए थे। मैंने कहा, ‘क्या है आपको?’ तब वे कहने

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लगे, ‘आपके साथ ऐसा हुआ?’ अब उन दिनों 1944 में मेरी उम्र 36 साल की। तब मैंने कहा, ‘क्यों आप ऐसा पूछने आए हो?’ तब उसने कहा, ‘एक तो हीरा बा की आँख गई, दूसरा यह कि बच्चे भी नहीं हैं।’ मैंने कहा, ‘प्रजा नहीं है, लेकिन मेरे पास कोई स्टेट नहीं है। बरोडा ‘स्टेट’ नहीं है कि मुझे उन्हें देना हो। स्टेट हो तो लड़के को दिया हुआ भी काम का होता। यही कोई एकाध झोंपड़ा है और थोड़ी ज़मीन है, और वह भी फिर हमें किसान ही बनाएगी न! अगर स्टेट (राज्य) होती तो समझो कि ठीक था।’ फिर मैंने उनसे कहा कि ‘अब आप किसलिए यह कह रहे हो? और हीरा बा को तो हमने प्रोमिस किया है, शादी की थी तब। तो फिर एक आँख चली गई तो क्या, दूसरी चली जाए तब भी हाथ पकड़कर चलाऊँगा।’

प्रश्नकर्ता : मेरी शादी होने के बाद हम दोनों एक-दूसरे को पहचान गए हैं और लगता है कि पसंद में भूल हो गई। किसी का स्वभाव किसी से मेल नहीं खाता। अब दोनों में मेल कैसे और किस प्रकार से किया जाए ताकि सुखी हो सकें?

दादाश्री : यह आप जो कहते हो न, उसमें से एक भी वाक्य सत्य नहीं है। पहला वाक्य, शादी होने के बाद दोनों व्यक्ति एक-दूसरे को पहचानने लगते हैं, लेकिन नाम मात्र को भी नहीं पहचानते। अगर पहचान जाएँ तो यह झंझट ही नहीं हो। ज़रा भी नहीं पहचानते।

मैंने तो केवल बुद्धि के डिविज़न (विभाजन) से सारा मतभेद समाप्त कर दिया था। पर हीरा बा की पहचान मुझे कब हुई? साठ साल की उम्र में हीरा बा को पहचान पाया! 15 साल का था तब शादी की, 45 साल तक उनका निरीक्षण करता रहा, तब जाकर मैंने उन्हें पहचाना कि ‘ऐसी हैं’!

प्रश्नकर्ता : अर्थात् ज्ञान होने के बाद पहचान पाए?

दादाश्री : हाँ, ज्ञान होने के बाद पहचाना। वर्ना पहचान ही नहीं सकते। मनुष्य पहचान ही नहीं सकता। मनुष्य खुद अपने आप को नहीं पहचान सकता कि मैं कैसा हूँ! अर्थात् यह वाक्य कि ‘एक

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दूसरों को पहचानते हैं’ इन सब बातों में कुछ रखा नहीं और पसंद करने में भूल नहीं हुई है।

प्रश्नकर्ता : यह समझाइए कि किस प्रकार पहचानें? पति अपनी पत्नी को धीरे-धीरे सूक्ष्म रूप से प्रेम द्वारा किस तरह पहचाने, वह समझाइए।

दादाश्री : पहचानोगे कब? पहले तो समानता का दाँव दोगे तब। उन्हें स्पेस देनी चाहिए। जैसे बाज़ी खेलने बैठते हैं आमने-सामने, उस वक्त समानता का दाँव होता है, तब खेलने में मज़ा आता है। पर ये तो समानता का दाँव क्या देंगे? हम समानता का दाँव देते हैं।

प्रश्नकर्ता : किस प्रकार देते हैं? प्रैक्टिकली किस प्रकार से देते हैं?

दादाश्री : मन से उन्हें अलग है ऐसा नहीं लगने देते। वे उल्टा-सीधा बोलें, फिर भी, समान हों उस प्रकार से, अर्थात् प्रेशर नहीं लाते।

यानी सामने वाले की प्रकृति को पहचान लेना कि यह प्रकृति ऐसी है और ऐसी है। फिर और तरीके ढूँढ निकालना है। मैं अलग तरह से काम नहीं लेता, लोगों के साथ? मेरा कहा मानते हैं या नहीं मानते सभी? मानते हैं। वह इसलिए नहीं क्योंकि कुशलता थी, लेकिन मैं अलग तरह से काम लेता हूँ।

घर में बैठना पसंद नहीं हो, फिर भी कहना कि तेरे बिना मुझे अच्छा नहीं लगता। तब वह भी कहेगी कि तुम्हारे बिना मुझे अच्छा नहीं लगता। तब मोक्ष में जा सकेंगे। दादा मिले हैं न, इसलिए मोक्ष में जा सकेंगे।

प्रश्नकर्ता : आप हीरा बा से कहते हैं?

दादाश्री : हाँ, हीरा बा से मैं अभी भी कहता हूँ न!

मैं अभी भी, इस उम्र में भी हीरा बा से कहता हूँ, कि ‘आपके बगैर मैं बाहर जाता हूँ, पर मुझे अच्छा नहीं लगता।’ अब वे मन में

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क्या समझती हैं, ‘मुझे अच्छा लगता है और उन्हें क्यों अच्छा नहीं लगता होगा?’ ऐसा कहें तो संसार बिगड़ नहीं जाएगा। अब तू घी डाल न यहाँ से, नहीं डालेगा तो रूखापन आ जाएगा! डालो सुंदर भाव! ये बैठे हैं न, मैं कहता हूँ न तो हीरा बा मुझे कहती हैं, ‘मैं भी आपको याद आती हूँ?’ मैंने कहा, ‘अच्छी तरह। लोग याद आते हैं तब क्या आप नहीं याद आओगी?’ और वास्तव में याद आती भी हैं, याद नहीं आतीं ऐसा नहीं!

आदर्श है हमारी लाइफ (जीवन)! हीरा बा भी कहती हैं, ‘आप जल्दी आना।’

स्त्री का पति होना आया, ऐसा कब कहलाएगा, कि स्त्री निरंतर पूज्यता अनुभव करे! पति तो कैसा होना चाहिए? कभी भी स्त्री को और संतानों को परेशानी नहीं होने दे, ऐसा हो। स्त्री कैसी हो? कभी भी पति को परेशानी नहीं होने दे, उसी के विचारों में जीवन जीती हो।

[17] पत्नी के साथ तक़रार

दोनों भले ही मस्ती-ऊधम मचाएँ, लड़ें-झगड़ें पर एक-दूसरे पर मुक़दमा दायर नहीं करते। और हम अगर बीच में पड़ेंगे तो वे अपना काम करवा लेंगे और वे लोग तो फिर से एक। दूसरे घर रहने नहीं चले जाते, इसे ‘तोता मस्ती’ कहते हैं। हम तुरंत समझ जाते हैं कि इन दोनों ने तोता मस्ती शुरू की है।

एक घंटे तक नौकर को, बच्चों को या पत्नी को बार-बार धमकाते रहे हो तो फिर वह (अगले जन्म में) पति बनकर अथवा सास बनकर आपको सारा जीवन परेशान करेंगे! न्याय तो होना चाहिए या नहीं होना चाहिए? इसी को भुगतना है। आप किसी को दु:ख दोगे तो आपको सारा जीवन दु:ख पड़ेगा। केवल एक ही घंटा दु:ख दोगे तो उसका फल सारी ज़िंदगी मिलेगा। फिर चिल्लाओगे कि ‘पत्नी मुझे ऐसा क्यों करती है?’ पत्नी को ऐसा होता है कि, ‘इस पति के साथ मुझसे ऐसा क्यों हो रहा है?’ उसे भी दु:ख होता है, पर क्या हो? फिर मैंने उनसे पूछा कि, ‘पत्नी आपको खोज लाई थी कि आप

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पत्नी को खोज लाए थे?’ तब वे बोले, ‘मैं ढूँढ़ लाया था।’ तब उस बेचारी का क्या दोष? आपके ले आने के बाद टेढ़ी निकले, उसमें वह क्या करे, कहाँ जाए फिर?

प्रश्नकर्ता : अबोला (मतभेद के कारण आपसी बातचीत बंद कर देना) रखकर बात टालने से उसका निपटारा हो सकता है?

दादाश्री : नहीं हो सकता। आपको तो सामने मिले तो ‘कैसे हो? कैसे नहीं?’ ऐसा कहना चाहिए। सामने वाला ज़रा चीखे-चिल्लाए तब आपको धीरे से ‘समभाव से निकाल (निपटारा)’ करना है। उसका निकाल तो करना पड़ेगा न, कभी न कभी? अबोला रखोगे.. तो उससे क्या निकाल हो गया? वह निकाल नहीं हो पाता, इसीलिए तो अबोला खड़ा होता है। अबोला यानी बोझा, जिस बात का निकाल नहीं हुआ उसका बोझा। हमें तो तुरंत उसे रोककर कहना है, ‘रुकिए, हमारी कुछ भूल हो तो बताइए। मुझसे बहुत भूलें होती हैं। आप तो बहुत होशियार, पढ़े-लिखे हो, इसलिए आपसे नहीं होती, पर मैं कम पढ़ा-लिखा हूँ, इसलिए मुझ से बहुत भूलें होती हैं।’ ऐसा कहोगे तो वह खुश हो जाएँगे।

प्रश्नकर्ता : ऐसा कहने से भी वह नरम नहीं पड़े तो क्या करना चाहिए?

दादाश्री : नरम नहीं पड़े तो आपको क्या करना है? आप तो कहकर छूट जाना, फिर क्या उपाय? कभी न कभी किसी दिन नरम पड़ेंगे। यदि धमकाकर नरम करोगे तो उससे तो बिल्कुल नरम नहीं पड़ेंगे। आज नरम दिखेंगे पर वह मन में नोंध(अत्यंत राग अथवा द्वेष सहित लंबे समय तक याद रखना) रखेंगे और जब आप नरम होंगे, उस दिन वापस सब निकालेंगे। अर्थात् जगत् बैर वाला है। कुदरत का नियम ऐसा है कि प्रत्येक जीव भीतर बैर रखता ही है। भीतर परमाणुओं का संग्रह करके रखता है, इसलिए हमें पूर्ण रूप से केस हल कर देना है।

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प्रश्नकर्ता : तब फिर कुछ कहना ही नहीं है?

दादाश्री : कहना है, लेकिन सम्यक् कहना, अगर कहना आए तो। वर्ना कुत्ते की तरह भौं-भौं करने का क्या अर्थ? यानी सम्यक् कहना।

प्रश्नकर्ता : सम्यक् यानी किस तरह से?

दादाश्री : ओहोहो! तुमने इस बच्चे को क्यों गिराया? क्या कारण है इसका? तब वह कहेगी कि, ‘जान-बूझकर मैं थोड़े ही गिराऊँगी? वह तो मेरे हाथ से सरक गया और गिर पड़ा’।

प्रश्नकर्ता : वह तो वो झूठ बोलती है न?

दादाश्री : वह झूठ बोले, यह हमें नहीं देखना है, झूठ बोले या सच बोले वह उसके अधीन है, वह आपके अधीन नहीं है।

प्रश्नकर्ता : कहना नहीं आए तो फिर क्या करें? चुप बैठें?

दादाश्री : मौन रहो और देखते रहो कि ‘क्या होता है?’ सिनेमा में बच्चे को गिराते हैं, तब क्या करते हो आप? कहने का अधिकार है सभी को, पर क्लेश बढ़े नहीं, उस प्रकार से कहने का अधिकार है। बाकी जो कहने से क्लेश बढ़े, वह तो मूर्खों का काम है।

प्रश्नकर्ता : हमें झगड़ा नहीं करना हो, हम कभी झगड़ा करते ही नहीं हों, फिर भी घर में सभी सामने से रोज़ झगड़े करते हों, तब क्या करें?

दादाश्री : हमें ‘झगड़ाप्रूफ’ हो जाना चाहिए। ‘झगड़ाप्रूफ’ हो जाएँगे, तभी इस संसार में रह पाएँगे। हम आपको ‘झगड़ाप्रूफ’ बना देंगे। झगड़ा करने वाला भी थक जाए, ऐसा हमारा स्वरूप होना चाहिए। पूरे ‘वल्र्ड’ में कोई हमें ‘डिप्रेस’ नहीं कर सके, ऐसा बन जाना चाहिए। हम ‘झगड़ाप्रूफ’ हो गए, फिर झंझट ही नहीं न! लोगों को झगड़े करने हों, गालियाँ देनी हों, तो भी हर्ज नहीं। इसके बावजूद भी बेशर्म नहीं कहलाओगे, बल्कि जागृति बहुत बढ़ेगी।

पूर्व में जो झगड़े किए थे उनके बैर बँधे होते हैं और वे आज

(पृ.६०)

झगड़े के रूप में चुकाए जाते हैं। झगड़ा होता है, उसी क्षण बैर का बीज पड़ जाता है, वह अगले जन्म में उगेगा।

प्रश्नकर्ता : तो वह बीज किस तरह दूर हो?

दादाश्री : धीरे-धीरे ‘समभाव से निकाल’ करते रहो, तो दूर हो जाएगा। बहुत भारी बीज पड़ा हो तो देर लगेगी, शांति रखनी पड़ेगी। प्रतिक्रमण बहुत करने होंगे। अपना कोई कुछ नहीं लेता। दो वक्त का खाना मिले, कपड़े मिलें फिर क्या चाहिए? कमरे को ताला लगाकर जाएँ, मगर हमें दो वक्त खाना मिलता है या नहीं, इतना ही देखना है। हमें घर में बंद करके जाएँ, तो भी हर्ज नहीं। हम सो जाएँ। पूर्व जन्म के बैर ऐसे बंधे हो तो हमें ताला लगाकर बंद करके जाएँ! बैर और वह भी नामसझी में बंधा हुआ! समझपूर्वक हो तो हम समझ जाएँ कि यह समझपूर्वक है, तब भी हल आ जाए। अब नासमझी वाला हो, वहाँ कैसे हल आए? इसलिए वहाँ बात को छोड़ देना।

अब सभी बैर छोड़ देने हैं। इसलिए कभी हमारे पास से ‘स्वरूप ज्ञान’ प्राप्त कर लेना ताकि सभी बैर छूट जाएँ। इस जन्म में ही सभी बैर छोड़ देना है। हम आपको रास्ता दिखाएँगे।

खटमल काटते हैं, वे तो बेचारे बहुत अच्छे हैं पर यह पति बीवी को काटता है और बीवी पति को काटती है, वह बहुत भारी होता है। क्यों? काटते हैं या नहीं?

प्रश्नकर्ता : काटते हैं।

दादाश्री : तो वह काटना बंद करना है। खटमल काटते हैं, वे तो काटकर चले जाते हैं। वे बेचारे तो तृप्त हो जाए तब चले जाते हैं, लेकिन बीवी तो हमेशा काटती ही रहती है। एक आदमी तो मुझसे कहने लगा, ‘मेरी वाइफ मुझे साँपिन की तरह काटती है!’ तो अरे, शादी क्यों की थी उस साँपिन के साथ? तो क्या वह साँप नहीं है? ऐसे ही साँपिन मिलती होगी? साँप हो, तभी साँपिन आती है।

हम तो इतना समझते हैं कि झगड़ने के बाद ‘वाइफ’ के साथ

(पृ.६१)

व्यवहार ही नहीं रखना हो तो अलग बात है, पर फिर से बोलना है तो फिर बीच की सारी भाषा गलत है। हमें यह लक्ष्य में ही होता है कि दो घंटे बाद फिर से बोलना है, इसलिए उसकी किच-किच नहीं करते। यह तो, अगर आपको अभिप्राय फिर से नहीं बदलना हो तो अलग बात है। आपका अभिप्राय बदले नहीं, तो आपका किया हुआ सही है। फिर से यदि ‘वाइफ’ के साथ बैठने वाले ही नहीं हो, तो फिर जो झगड़ा किया वह सही है! पर यह तो कल फिर से साथ में बैठकर भोजन करने वाले हो। तो फिर कल नाटक किया था, उसका क्या? यह सोचना चाहिए न?

सबसे पहले पति को पत्नी से माफी माँगनी चाहिए। पति बड़े मन वाले होते हैं। बीवी पहले माफी नहीं माँगती।

प्रश्नकर्ता : पति को उदार मन का कहा, इसलिए वे खुश हो गए।

दादाश्री : नहीं, वह उदार मन वाला ही होता है। उसका विशाल मन होता है और स्त्रियाँ साहजिक होती हैं। साहजिक होती हैं, इसीलिए भीतर से उदय आए, तो माफी माँगे या न भी माँगें। पर यदि आप माँगो, तो वह तुरंत माँग लेगी और आप उदय कर्म के अधीन नहीं रहोगे। आप जागृति के अधीन रहोगे। और वह उदय कर्म के अधीन रहती है। वह सहज कहलाती है न! स्त्री सहज कहलाती है। आप में सहजता नहीं आ पाती। सहज हो जाए तो बहुत सुखी रहेगा।

प्रश्नकर्ता : यह अहम् गलत है, ऐसा हमें कहा जाता है और ये सब सुनते हैं, संत पुरुष भी ऐसा कहते हैं, फिर भी वह अहम् जाता क्यों नहीं?

दादाश्री : अहम् कब जाएगा? वह गलत है, ऐसा हम एक्सेप्ट करें, तब जाएगा। वाइफ के साथ तकरार होती हो, तब हमें समझ लेना चाहिए कि यह अपना अहम् गलत है। इसलिए फिर आप रोज़ उस अहम् से ही भीतर उसकी माफी माँगते रहो, तो वह अहम् चला जाएगा। कुछ उपाय तो करना चाहिए न?

हम यह सरल और सीधा रास्ता बता देते हैं और यह टकराव

(पृ.६२)

क्या रोज़-रोज़ होता है? वह तो जब अपने कर्म का उदय होता है, तब होता है। उतने समय ही आपको एडजस्ट होना है। घर में वाइफ के साथ झगड़ा हुआ हो, तो झगड़ा होने के बाद वाइफ को होटल में ले जाकर भोजन करवाकर खुश कर देना। अब तंत नहीं रहनी चाहिए।

इसलिए ‘यह’ ज्ञान हो तो फिर वह झंझट नहीं रहती। ज्ञान हो तब तो हम सुबह-सुबह दर्शन ही करते हैं न? वाइफ के भीतर भी भगवान के दर्शन करने ही पड़ते हैं न! वाइफ में भी दादा दिखाई दें तो कल्याण हो गया! वाइफ को देखें तो ये ‘दादा’ दिखते हैं न! उसके भीतर भी शुद्धात्मा दिखते हैं न! तो कल्याण हो गया!

इसलिए कुछ भी करके ‘एडजस्ट’ होकर वक्त गुज़ार दो ताकि कर्ज़ चुक जाए। किसी का पच्चीस साल का, किसी का पंद्रह साल का, किसी का तीस साल का, न चाहते हुए भी कर्ज तो चुकाना पड़ता है। पसंद नहीं हो फिर भी उसी कमरे में साथ में रहना पड़ता है। यहाँ बिछौना बाई साहब का और यहाँ बिछौना भाई साहब का! मुँह मोड़ कर सो जाएँ तो भी बाई साहब को विचार तो भाई साहब के ही आते हैं न! कोई चारा ही नहीं है। यह संसार ही ऐसा है। उसमें भी सिर्फ आपको ही वे पसंद नहीं हैं, ऐसा नहीं है, उसे भी आप पसंद नहीं होते। अर्थात् इसमें मज़ा लेने जैसा नहीं है।

‘डोन्ट सी लॉ, प्लीज सेटल’ (नियम मत देखो, समाधान करो) सामने वाले को ‘सेटलमेन्ट’ करने को कहना। ‘तुम ऐसा करो, वैसा करो’ ऐसा कहने के लिए वक्त ही कहाँ होता है? सामने वाले की सौ भूलें हों, तो भी आपको तो अपनी ही गलती कहकर आगे निकल जाना है। इस काल में ‘लॉ (नियम)’ कहीं देखे जाते होंगे? यह तो अंतिम चरण तक पहुँच गया है!

प्रश्नकर्ता : कई बार घर में भारी तकरार हो जाती है, तब क्या करें?

दादाश्री : समझदार आदमी हो न, तो लाख रुपये दें, फिर भी तकरार नहीं करे। और यह तो बिना पैसे तकरार करता है, फिर वह अनाड़ी नहीं तो क्या? भगवान महावीर को कर्म खपाने के लिए साठ

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मील चलकर अनाड़ी क्षेत्र में जाना पड़ा था, और आज के लोग पुण्यवान हैं, कि घर बैठे अनाड़ी क्षेत्र है! कैसे अहो भाग्य! यह तो अत्यंत लाभदायक है। कर्म खपाने के लिए, यदि सीधा रहे तो।

घर में कोई पूछे, सलाह माँगे तभी जवाब देना। बिना पूछे सलाह देने बैठ जाए, उसे भगवान ने ‘अहंकार’ कहा है। पति पूछे कि ये प्याले कहाँ रखने हैं? तब पत्नी जवाब देती है कि ‘फलाँ जगह पर रखो।’ तब आप वहाँ रख देना। इसके बजाय वह कहे कि ‘तुझे अक़्ल नहीं है फिर तू यहाँ कहाँ रखने को कह रही है?’ इस पर पत्नी कहेगी कि ‘अक़्ल नहीं है इसीलिए तो मैंने तुम्हें ऐसा कहा, अब तुम्हारी अक़्ल से रखो।’ अब इसका निबेड़ा कब आए? यह तो संयोगों के टकराव हैं केवल! ये लट्टू, खाते समय, उठते समय टकराते ही रहते हैं। लट्टू फिर टकराते हैं, छिलते हैं और खून निकलता है! यह तो मानसिक खून निकलता है न! वह रक्त निकलता हो तो अच्छा, पट्टी बांधने पर ठीक हो जाता है। इस मानसिक घाव पर तो पट्टी भी नहीं लगती न कोई!

घर में किसी को भी, पत्नी को, छोटी बच्ची को, किसी भी जीव को आहत करके मोक्ष में नहीं जा सकते। ज़रा-सी भी तरछोड़ लगे, वह मोक्ष का मार्ग नहीं है।

प्रश्नकर्ता : तिरस्कार और तरछोड़,इन दोनों में क्या फर्क है?

दादाश्री : तरछोड़ और तिरस्कार में तिरस्कार तो शायद कभी मालूम नहीं भी पड़े। तरछोड़ के आगे तिरस्कार बिल्कुल माइल्ड चीज़ है, जबकि तरछोड़ का तो बड़ा ही उग्र स्वरूप है। तरछोड़ से तो तुरंत ही रक्त निकले ऐसा है। उससे इस शरीर से रक्त नहीं निकलता, पर मन का रक्त निकलता है। तरछोड़ ऐसी भारी चीज़ है।

एक बहन हैं, वे मुझसे कहती हैं, ‘आप मेरे फादर हों, ऐसा लगता है, पिछले जन्म के।’ बहन बहुत अच्छी, बहुत संस्कारी थीं। फिर बहन से पूछा कि, ‘इस पति के साथ कैसे मेल बैठता है?’ तब कहा, ‘वे कभी कुछ नहीं बोलते, कुछ भी नहीं कहते।’ तब मैंने कहा, ‘किसी दिन कुछ तो होता होगा न?’ तब कहे, ‘नहीं, कभी-कभार

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ताना देते हैं।’ ‘हाँ’, इस बात पर से मैं समझ गया। तब मैंने पूछा कि, ‘वह ताना दें तब आप क्या करती हो? आप उस वक्त डंडा लाती हो या नहीं?’ तब वह कहती है, ‘नहीं, मैं उन्हें ऐसा कहती हूँ कि कर्म के उदय से मैं और आप मिले हैं। मैं अलग, आप अलग। अब ऐसा क्यों करते हो? किसलिए ताने देते हो और यह सब क्या है? इसमें किसी का भी दोष नहीं है। यह सब कर्म के उदय का दोष है। इसलिए ताने देने के बजाय कर्म चुकता कर डालो न!’ वह तकरार अच्छी कहलाएगी न! आज तक तो बहुत सारी स्त्रियाँ देखीं, पर ऐसी ऊँची समझ वाली तो यही एक स्त्री देखी।

मेरा स्वभाव मूलत: क्षत्रिय स्वभाव। हमारा क्षत्रिय ब्लड, इसलिए ऊपरी (बॉस, वरिष्ठ मालिक) को धमकाने की आदत और अन्डरहैन्ड का रक्षण करने की आदत। यह क्षत्रियधर्म का मूल गुण, अत: अन्डरहैन्ड का रक्षण करने की आदत। इसलिए वाइफ और सब तो अपने अन्डरहैन्ड, इसलिए उनका रक्षण करने की आदत। वे उल्टा-सुल्टा करें फिर भी रक्षण करने की आदत। नौकर हो उन सबका रक्षण करता था, उनकी भूल हो गई हो फिर भी उन बेचारों से कुछ नहीं कहता था और ऊपरी हो तो उसकी खबर ले लूँ। और सारा जगत् अन्डरहैन्ड के साथ किच-किच करता है। अरे, स्त्री जैसा है तू! स्त्री ऐसा करती है अन्डरहैन्ड को! यह आपको कैसा लगता है?

आप शादी करके घर में लाए और बीवी को डाँटते रहो, यह कैसा है कि गाय को खूँटे से बाँधकर, उसे मारते रहें। खूँटे से बाँधकर उसे मारते रहें तब? यहाँ से मारो तो उस ओर जाएगी बेचारी! यह एक खूँटी से बंधी कहाँ जाने वाली है? यह समाज का खूँटा ऐसा है कि भाग भी नहीं सकती। खूँटे से बंधी हुई को मारें तो बहुत पाप लगता है। खूँटी से न बंधी हो तो हाथ ही न आए न! यह तो समाज की वजह से दबी रहती है वर्ना कब की भाग जाती। डायवोर्स लेने के बाद मारकर देखो? तब क्या होगा?

‘मिनट’ के लिए भी झंझट नहीं हो, उसका नाम पति। मित्र के साथ जैसे बिगड़ने नहीं देते, उस प्रकार सँभालना। मित्र के साथ यदि

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नहीं सँभालते तो मित्रता टूट जाती है। मित्राचार यानी मित्राचार। उन्हें शर्त बता देना कि तू मित्राचारी में, यदि आउट ऑफ मित्राचारी हो गई तो गुनाह लगेगा। मिल-जुलकर मित्राचारी रख।’

फ्रेन्ड के प्रति सिन्सियर रहता है, इतना कि फ्रेन्ड दूर रहकर भी कहता है कि ‘मेरा फ्रेन्ड ऐसा है। मेरे बारे में कभी बुरा सोचता ही नहीं।’ उसी प्रकार पत्नी के लिए भी बुरा नहीं सोचना चाहिए। वह क्या फ्रेन्ड से बढ़कर नहीं है?

[18] पत्नी लौटाए तौल के साथ

अब रात को पत्नी के साथ आपकी झंझट हुई हो, तो उसका तंत सुबह तक रहता है, इसलिए सवेरे चाय देती है तो पटकती है,ऐसे। आप समझ जाते हो कि तंत है अभी भी, शांत नहीं हुई है। ऐसे पटके, उसका नाम तंत।

‘यह वह क्या करती है? वह किसलिए ऐसा करती है? वह आपको दबाना चाहती है। और तू क्रोधित हो गया, तब वह समझेगी कि हाँ, चलो, नरम पड़ गया। पर अगर गुस्सा नहीं होते तो फिर वह ज़्यादा करेगी।’ ऐसी कलह के बावजूद भी अगर पति गुस्सा नहीं करे, तो फिर अंदर जाकर दो-चार बर्तनों को ऐसे गिराती है। वह खननन.... आवाज हो तो फिर पति चिढ़ता है। फिर भी अगर नहीं चिढ़े तो बेटे को चिमटी काटकर रुलाती है। तब फिर वह चिढ़ जाता है, पापा। ‘तू बेटे के पीछे पड़ी है, बच्चे को बीच में क्यों लाती है? ऐसा वैसा...’ इससे वह समझ जाती है कि हं, यह ठंडा पड़ गया।

पुरुष प्रसंग भूल जाते हैं और स्त्रियों की नोंध सारी ज़िंदगी रहती हैं। पुरुष भोले होते हैं, बड़े दिल वाले होते हैं, भद्रिक होते हैं, इसलिए वे भूल जाते हैं बेचारे। स्त्रियाँ तो कह भी देती हैं कि उस दिन आप ऐसा बोले थे, वह मेरे कलेजे में लगा है। अरे! बीस साल हुए तो भी नोंध ताज़ी! बेटा बीस साल का हो गया, शादी योग्य हो गया तो भी वह बात याद रखी है? सभी चीज़ें सड़ जाती है, पर इनकी चीज़ें नहीं सड़ती! स्त्री को आपने दिया हो तो वह उसे असल

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जगह पर रखती है, कलेजे में। इसलिए देना-वेना मत। नहीं है देने जैसी चीज़ यह। सावधान रहने जैसा  है।

हमेशा स्त्री को जितना भी आप कहोगे, उसकी ज़िम्मेदारी आएगी, क्योंकि जब तक आपका शरीर तंदुरुस्त रहता है न, तभी तक वह सहन करती है और मन में क्या कहती है? जोड़ ढीले पड़ेंगे, तब ठिकाने ला दूँगी। इन सभी को जिनके जोड़ ढीले पड़ गए, उन सभी को ठिकाने ला दिया। मैंने देखे भी हैं। इसलिए मैं लोगों को सलाह देता हूँ, ‘मत करना भाई, बीवी के साथ तो तकरार मत करना। बीवी के साथ बैर मत बाँधना, नहीं तो परेशान हो जाएगा।

भारतीय स्त्री जाति मूल संस्कार में आए न, तो वह तो देवी है। पर यह तो बाहरी संस्कार छू गए हैं न, इसलिए बिफर गई है अब। बिफरती है! इसलिए शास्त्रकारों ने कहा है, ‘रमा रमाड़वी सहेल छे, विफरी तो महामुश्केल थई जाय’ और वह बिफरे, ऐसा करते हैं लोग। उसे छेड़कर उकसाते हैं और जब बिफरे तो बाघिन जैसी हो जाती है। इस हद तक नहीं जाना चाहिए आपको। मर्यादा रखनी चाहिए और यदि स्त्री को परेशान करते रहोगे तो कहाँ जाएगी वह बेचारी? इसलिए फिर वह वक्र चलती है। पहले वक्र (टेढ़ा) चलती है और फिर बिफर जाती है! वह बिफरी तो हो चुका! इसलिए उसे छेड़ना मत। लेट गो करना।

और स्त्री जब बिफरेगी तब तुम्हारी बुद्धि नहीं चलेगी, तुम्हारी बुद्धि उसे नहीं बाँध सकेगी। इसलिए बिफरे नहीं, उस प्रकार से बातें करना। आँखो में भरपूर प्रेम रखना। कभी वह ऐसा-वैसा कहे, तब वह तो स्त्री जाति है, अत: लेट गो करना। यानी एक आँख में संपूर्ण प्रेम रखना, दूसरी आँख में थोड़ी सख़्ती रखना, उस प्रकार से रहना चाहिए। जिस समय जो ज़रूरी हो, वैसा। बिल्कुल सख़्ती हर रोज़ नहीं रखनी चाहिए। वह तो एक आँख में सख़्ती की तरह और एक आँख में देवी की तरह मानना। समझ में आया न?

प्रश्नकर्ता : एक आँख में सख़्ती और एक आँख में देवी, ये दोनों एट-ए-टाइम कैसे रह सकते हैं?

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दादाश्री : पुरुष को ऐसा सब तो आता है! मैं तीस-पैंतीस साल का था, तब घर आता न, उस वक्त हीरा बा अकेली नहीं, आसपास की सभी स्त्रियाँ मुझे देखतीं तो वे एक आँख में सख़्ती देखतीं और एक आँख में पूज्यता देखतीं। तो सभी स्त्रियाँ सिर पर ओढ़कर बैठतीं और सभी चौकन्नी हो जातीं। और हीरा बा तो हमारे घर में प्रवेश करने से पहले ही डर जातीं। जूते की आहट हुई कि डर जातीं। एक आँख में सख़्ती, एक में नर्मी। उसके बगैर स्त्री सँभलती ही नहीं। इसीलिए हीरा बा कहती है न, दादा कैसे हैं?

प्रश्नकर्ता : तीखे भँवरे जैसे।

दादाश्री : ‘तीखे भँवरे जैसे हैं’, ऐसा हमेशा रखते थे। वैसे उन्हें ज़रा भी धमकाते नहीं थे। घर में प्रवेश करें कि चुप्प। सब बर्फ जैसा ठंडा हो जाता, जूते की आहट हुई कि तुरंत!

सख़्ती किसलिए कि वे ठोकर नहीं खा बैठें, इसलिए सख़्ती रखना। इसलिए एक आँख में सख्ती और एक आँख में प्रेम रखना।

प्रश्नकर्ता : इसलिए संस्कृत में कहा है, ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवता!’

दादाश्री : हाँ, बस! इसलिए मैं जब ऐसा कहता हूँ न, तब सभी लोग मुझसे कहते हैं, ‘दादा! आप स्त्रियों के तरफ़दार हैं, पक्षपाती हैं’?

अब मैं क्या कहता हूँ कि, ‘स्त्रियों की पूजा करो’, इसका अर्थ ऐसा नहीं है कि सवेरे जाकर आरती उतारना। ऐसा करेगा तो वह तेरा तेल निकाल देगी। इसका अर्थ क्या है? एक आँख में प्रेम और एक आँख में सख़्ती रखना। अर्थात् पूजा मत करना। वैसी योग्यता नहीं है। अत: मन से पूजा करना।

यानी पत्नी से कहना कि ‘तुझे मुझसे जितना लड़ना हो उतना लड़ना। मुझे तो दादा ने लड़ने को मना किया है। दादा ने मुझे आज्ञा दी है। मैं यहाँ बैठा हूँ, तुझे जो कुछ कहना हो कह अब।’ ऐसा उसे कह देना।

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प्रश्नकर्ता : लेकिन वह बोलेगी ही नहीं न फिर।

दादाश्री : दादा का नाम आते ही चुप हो जाएगी। दूसरा कोई हथियार इस्तेमाल मत करना। यही हथियार इस्तेमाल करना।

एक बहन ने तो मुझे बताया था कि, ‘शादी हुई तब वे बहुत अकड़ते थे।’ मैंने पूछा ‘अब?’ तब कहे, ‘दादाजी, आप सारा स्त्री चरित्र समझते हैं, मुझसे क्यों कहलवाते हैं?’ उन्हें मुझसे कोई सुख लेना हो तब मैं उनसे कहती हूँ, ‘भाईसाब कहिए।’ अर्थात् भाईसाब कहलवाती हूँ तब! ‘उसमें मेरा क्या दोष? पहले वे मुझसे भाईसाब कहलवाते थे और अब मैं भाईसाब कहलवाती हूँ।’ समझ में आता है?

ये अमलदार भी ऑफिस से थककर घर आते हैं न, तब बाईसाहब क्या कहती हैं? कि ‘डेढ़ घंटे लेट हो गए, कहाँ गए थे?’ ले! उसकी बीवी एक बार उसे धमका रही थी। तब ऐसा शेर जैसा आदमी, जिससे सारा गुजरात डरता था, उसे भी डराती थी, देखो न! सारे गुजरात में जिसका कोई नाम नहीं ले सकता, उसे उसकी बीवी सुनती ही नहीं थी और उसे भी धमका देती थी! फिर मैंने उससे एक दिन पूछा, ‘बहन, तुम्हारा पति है वह तुम्हें अकेली छोड़कर दस-पंद्रह दिन बाहर जाए, तो?’ तब कहती है, ‘मुझे तो डर लगता है।’ ‘किसका डर लगता है?’ तब कहती है, ‘अंदर दूसरे रूम में प्याला खड़के न, तब भी मेरे मन में ऐसा लगता है कि भूत आया होगा!’ एक चुहिया गिलास खड़काए तो भी डर लगता है और यह पति! पति के कारण तुझे डर नहीं लगता। उस पति को फिर तू धमकाती रहती है! बाघ जैसे पति का तेल निकाल देती है!

एक व्यक्ति तीन हज़ार की घोड़ी लाया था। यों तो रोज़ उस घोड़ी पर बाप बैठता था। उसका बेटा चौबीस साल का था। एक दिन बेटा घोड़ी पर बैठकर तालाब पर गया। उस घोड़ी के साथ ज़रा छेडख़ानी की, अब घोड़ी तीन हज़ार की, उसके साथ छेडख़ानी करनी चाहिए? उसके साथ छेडख़ानी नहीं करनी चाहिए। उसे उसकी चाल से ही चलने देना पड़ता है। तो उसने छेडख़ानी की, तो घोड़ी तेज़ी से पिछले दोनों पैरों पर खड़ी हो गई और वह लड़का गिर पड़ा। पोटला नीचे गिर पड़ा।

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अब वह पोटला घर आकर क्या कहने लगा कि ‘इस घोड़ी को बेच दो, घोड़ी खराब है।’ उसे बैठना नहीं आता और घोड़ी की गलती निकालता है! देखो, यह उसका मालिक! ये सब मालिक! फिर मैंने कहा, ‘हाँ, वह घोड़ी खराब थी, यह तीन हज़ार की घोड़ी!’ अरे, तुझे सवारी करनी नहीं आती, इसमें घोड़ी को क्यों बदनाम करता है? घोड़ी पर सवारी करनी नहीं आनी चाहिए? घोड़ी को बदनाम करते हो?

एक बार पति यदि पत्नी का प्रतिकार करे तो उसका प्रभाव ही नहीं रहेगा। आपका घर ठीक से चल रहा हो, बच्चे अच्छी तरह से पढ़ रहे हों, किसी बात की झंझट नहीं हो और आपको उसमें उल्टा दिखा और आप बिना वजह प्रतिकार करो, तब आपकी अक़्ल का नाप स्त्री निकाल लेती है कि इसमें कुछ बरकत नहीं है।

आपको स्त्रियों के साथ ‘डीलिंग (वर्तन)’ करना नहीं आता। आप व्यापारियों को यदि ग्राहकों के साथ डीलिंग करना नहीं आए तो वे आपके पास नहीं आएँगे। इसलिए लोग नहीं कहते कि ‘सेल्समेन अच्छा रखो?’ अच्छा, होशियार सेल्समेन हो तो लोग थोड़ी क़ीमत भी ज़्यादा दे देते हैं। उसी प्रकार आपको स्त्री के साथ ‘डीलिंग’ करना आना चाहिए।

स्त्री जाति की वजह से जगत् का यह सब नूर है, वर्ना घर में साधु से भी बुरा हाल होता। सवेरे झाडू ही नहीं लगी होती! चाय का भी ठिकाना नहीं होता! यह तो वाइफ है, इसलिए जब वह कहती है, तो सवेरे जल्दी-जल्दी नहा लेता है। उसकी वजह से सारी शोभा है। और उनकी शोभा आपकी वजह से है।

स्त्री अर्थात् सहज प्रकृति। पति को पाँच करोड़ का नुकसान हुआ हो न, तो पति सारा दिन चिंता करता है, दुकान में नुकसान हो जाए तो घर आकर खाता-पीता भी नहीं, पर पत्नी तो घर आने पर कहेगी, ‘लो, उठो, अब बहुत हाय-हाय मत करो, आप चाय पीओ और आराम से भोजन करो।’ अब आधी पार्टनरशिप होने पर भी उसे चिंता क्यों नहीं होती? क्योंकि वह साहजिक है। इसलिए इस सहज

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के साथ रहें, तो जीया जाए, वर्ना नहीं जीया जाए। और यदि दो पुरुष साथ में रहें तो मर जाएँ आमने-सामने। यानी स्त्री तो सहज है, इसीलिए घर में यह आनंद रहता है थोड़ा-बहुत।

स्त्री तो दैवी शक्ति है, पर अगर पुरुष को समझ में आ जाए तो काम बन जाए। स्त्री का दोष नहीं, आपकी उल्टी समझ का दोष है। स्त्रियाँ तो देवियाँ हैं, उन्हें देवी पद से नीचे मत उतारना। ‘देवी है,’ कहते हैं न। और उत्तर प्रदेश में तो कहीं कहीं ‘आइए देवी’ कहते हैं। आज भी कहते हैं, ‘शारदा देवी आई, फलाना, मणी देवी आई!’ कुछ प्रदेशों में नहीं कहते?

और चार पुरुष यदि साथ-साथ रहते हों, तो एक व्यक्ति खाना पकाये, एक व्यक्ति... उस घर में बरकत नहीं होती। एक पुरुष और एक स्त्री रह रहे हों, तो घर सुंदर दिखता है। स्त्री सजावट बहुत सुंदर करती है।

प्रश्नकर्ता : आप सिर्फ स्त्रियों का ही पक्ष मत लिया कीजिए।

दादाश्री : मैं स्त्रियों का पक्ष नहीं लेता। इन पुरुषों का भी पक्ष लेता हूँ। यों स्त्रियों को लगता है कि हमारा पक्ष लेते हैं, पर तरफदारी पुरुषों की करता हूँ। क्योंकि फेमिली के मालिक आप हो। शी इज़ नॉट द ओनर ऑफ फैमिली, यु आर ओनर। (वह कुटुंब की मालिक नहीं, आप मालिक हैं)। लोग बम्बई में कहते हैं न, ‘क्यों आप पुरुषों का पक्ष नहीं लेते और स्त्रियों का पक्ष लेते हैं?’ मैंने कहा, ‘उनकी कोख से महावीर पैदा हुए हैं, तुम्हारी कोख से कौन पैदा होता है? बिना वजह तुम ले बैठे हो?’

प्रश्नकर्ता : फिर भी, आप स्त्रियों का बहुत पक्ष लेते हैं। ऐसा हमारा मानना है।

दादाश्री : हाँ, वह ज़रा मुझ पर आक्षेप है, सभी जगह हो जाता है। वह आक्षेप लोगों ने मुझ पर लगाया है, लेकिन साथ ही मैं पुरुषों को ऐसी समझ देता हूँ कि बाद में स्त्रियाँ उनका सम्मान करती हैं। ऐसी व्यवस्था कर देता हूँ। हालांकि देखने में ऐसा लगता है कि

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स्त्रियों की तरफदारी कर रहा हूँ, परंतु वास्तव में अंदर से तो पुरुषों के लिए होता है। यानी कि यह सब, क्या व्यवस्था करें, उसके रास्ते होने चाहिए। दोनों को संतोष होना चाहिए।

मुझे तो (व्यवहार में) स्त्रियों के साथ भी बहुत अनुकूल होता है और पुरुषों के साथ भी उतना ही अनुकूल होता है। पर वास्तव में हम न तो स्त्रियों के पक्ष में होते हैं और न ही पुरुषों के पक्ष में होते हैं। दोनों ठीक से संसार चलाओ। पहले के लोगों ने स्त्रियों को नीचे उतार दिया। स्त्रियाँ तो हेल्पिंग (सहायक) हैं। वह नहीं होगी तो तेरा घर कैसे चलेगा?

[19] पत्नी की शिकायतें

तू शिकायत करेगा तो तू शिकायती बन जाएगा। मैं तो, जो शिकायत करने आए उसे ही गुनहगार मानता हूँ। तुझे शिकायत करने का वक्त ही क्यों आया? शिकायती ज़्यादातर गुनहगार ही होते हैं। खुद गुनहगार हो, तभी शिकायत करने आता है। तू शिकायत करेगा तो तू शिकायती बन जाएगा और सामने वाला आरोपी बन जाएगा। इसलिए उसकी दृष्टि में तू आरोपी ठहरेगा। इसलिए किसी के विरुद्ध शिकायत मत करना।

वह भागाकार करे तो आप गुणा करना ताकि रक़म शून्य हो जाए। सामने वाले के लिए ऐसा सोचना कि उसने मुझे ऐसा कहा, वैसा कहा, वही गुनाह है। रास्ते पर चलते समय दिवार टकराए तो उसे क्यों नहीं डाँटते? पेड़ को जड़ क्यों कहते हैं? जिनसे चोट लगे, वे सभी हरे पेड़ ही हैं न? गाय का पैर आप पर पड़े तो आप उसे कुछ कहते हों? ऐसा इन सभी लोगों का है। ‘ज्ञानी पुरुष’ सभी को माफी कैसे देते हैं? वे जानते हैं कि ये सभी (लोग) समझते नहीं हैं, पेड़ जैसे हैं। समझदार को तो कहना ही नहीं पड़ता, वह तो तुरंत भीतर प्रतिक्रमण कर लेता है।

पति अपमान करे, तब क्या करती हो फिर? दावा दायर करती हो?

प्रश्नकर्ता : ऐसा कहीं करते होंगे? ऐसा कभी होता होगा?

(पृ.७२)

दादाश्री : तब क्या करती हो? ‘मेरे आशीर्वाद हैं’, कहकर सो जाना! बहन, तुम सो जाओगी या मन में गालियाँ देती रहोगी? मन में ही गालियाँ देती रहती है।

और फिर तीन हज़ार की साड़ी देखी तो घर आकर मुँह फूल जाता है। ऐसा देखकर आप पूछो, ‘क्यों ऐसा हो गया?’ वह साड़ी में खो गई होती है। जब लाकर दो, तब छोड़ती है, वर्ना तब तक क्लेश करना नहीं छोड़ती। ऐसा नहीं होना चाहिए।

पत्नी कहेगी कि, ‘यह हमारे सोफे की डिज़ाइन ठीक नहीं है। आपके मित्र के वहाँ गए थे, उसकी डिज़ाइन कितनी सुंदर थी!’ अरे, ये सोफे हैं, उसमें तुझे सुख नहीं मिलता? तब कहती है कि, ‘नहीं, मैंने वहाँ जो देखा, उसमें सुख लगता है।’ बाद में पति को वैसा सोफा लाना पड़ता है! अब जब वह नया ले आए और किसी दिन बेटा ब्लेड से कहीं काट दे तो वापस भीतर मानो आत्मा कट जाता है! बच्चे सोफा काट देते हैं या नहीं? और उस पर कूदते हैं न? और कूदते हैं तब मानो उसकी छाती पर कूद रहा हो, ऐसा लगता है! यानी यह मोह है। वह मोह ही आपको काट-काटकर तेल निकाल देगा।

बेकार ही जन्म बिगड़ जाते हैं इसमें तो और दूसरा, बहनों से कहता हूँ कि शॉपिंग मत करना। शॉपिंग बंद कर दो। यह तो डॉलर आए कि... अरे, ज़रूरत नहीं है तो क्यों लेते हो, यूज़लेस? किसी अच्छे रास्ते पर पैसा जाना चाहिए या नहीं जाना चाहिए? किसी की फैमिली में मुश्किल हो, उन बेचारों के पास नहीं हो और पचास-सौ डॉलर दे दो तो कितना अच्छा लगेगा! और शॉपिंग में फ़िजूल खर्ची करती हो और घर में सब भरा पड़ा रहता है।

प्रश्नकर्ता : फिर स्त्रियाँ त्रागा (अपनी मनमानी/बात मनवाने के लिए किए जाने वाला नाटक) करती हैं!

दादाश्री : त्रागा तो स्त्रियाँ नहीं, मूए पुरुष करते हैं।

आजकल तो लोग बहुत नहीं करते। त्रागा यानी क्या? खुद को

(पृ.७३)

कुछ भोग लेना हो तो सामने वाले को धमकाकर भोग लेता है, धार्युं (मनमानी) करवाता है!

प्रश्नकर्ता : सब जगह औरतों का ही दोष क्यों देखा जाता है और पुरुषों का नहीं देखा जाता?

दादाश्री : ऐसा है न, पुरुषों के हाथ में कानून था, इसलिए स्त्रियों का ही नुकसान किया है।

ये पुस्तकें तो पुरुषों ने लिखीं है, इसलिए पुरुषों को ही आगे किया है। स्त्रियों को हटा दिया है। उसमें उन्होंने उसकी वैल्यू खत्म कर दी है। अब, मार भी उतनी ही खाई है। नर्क में भी ये ही जाते हैं। यहीं से नर्क में जाते हैं। स्त्रियों को ऐसा नहीं होता। भले ही स्त्री की प्रकृति अलग है पर उसकी प्रकृति के अनुसार वह भी फल देती है और यह भी फल देती है। स्त्री की अजाग्रत प्रकृति है। अजाग्रत अर्थात् सहज प्रकृति।

प्रश्नकर्ता : कब तक हमें ऐसे सहन करना चाहिए?

दादाश्री : सहन करने से तो शक्ति बहुत बढ़ती है।

प्रश्नकर्ता : तो ऐसे सहन ही करते रहें, ऐसा?

दादाश्री : सहन करने के बजाय उस पर सोचना अच्छा है। सोचकर उसका सॉल्यूशन निकालो। बाक़ी सहन करना गुनाह है। बहुत सहनशीलता हो जाए न, फिर स्प्रिंग की तरह उछलती है फिर, वह सारा घर तहस-नहस कर डालती है। सहनशीलता तो स्प्रिंग है। स्प्रिंग पर लोड नहीं डालना चाहिए कभी भी। वह तो, थोड़े समय के लिए ठीक है। अब रास्ते में आते-जाते किसी के साथ कुछ हुआ हो तब, वहाँ ज़रा यह स्प्रिंग इस्तेमाल करनी है। यहाँ घर के लोगों पर ‘लोड’ नहीं डालना चाहिए। घर के लोगों का सहन करोगे तो क्या होगा? स्प्रिंग उछलेगी वह तो।

प्रश्नकर्ता : सहनशीलता की लिमिट कितनी रखें?

दादाश्री : उसे तो एक हद तक सहन करना। फिर सोचकर

(पृ.७४)

पता लगाओ कि क्या है यह वास्तव में। सोचने पर पता चलेगा कि इसके पीछे क्या है! केवल सहते ही रहोगे तो स्प्रिंग उछलेगी। सोचने की ज़रूरत है। विचारहीनता के कारण सहना पड़ता है। सोचोगे तो पता चलेगा कि इसमें भूल कहाँ हो रही है! उससे इसका सब समाधान निकल आएगा। भीतर अनंत शक्ति है, अनंत शक्ति! आप जो माँगो, वह शक्ति मिले ऐसी है। यह तो भीतर शक्ति खोजता नहीं और बाहर शक्ति खोजता है। बाहर कौन-सी शक्ति है?

सहन करने से ही घर-घर में विस्फोट होते हैं। मैं कितना सहन करूँ, मन में ऐसा ही मानते हैं। बाकी, सोचकर रास्ता निकालना चाहिए। जो संजोग मिले हैं, जो संजोग कुदरत का निर्माण हैं, उनसे तू अब किस प्रकार से छूट पाएगा? नये बैर बँधे नहीं और पुराने बैर छोड़ देने हों तो उसका रास्ता निकालना चाहिए। यह जन्म बैर छोड़ने के लिए है, और बैर छोड़ने का रास्ता है; ‘प्रत्येक के साथ समभाव से निकाल!’ फिर देखो आपके बच्चे कितने संस्कारी होंगे!

प्रश्नकर्ता : मेरी सहेली का प्रश्न है कि उसके पति हमेशा उस पर गुस्सा होते हैं, तो इसका क्या कारण होगा?

दादाश्री : वह अच्छा है। लोग गुस्सा हों, इसके बजाय पति हो, वह अच्छा। घर के आदमी हैं न!

ऐसा है, ये लुहार लोग यदि भारी लोहा हो और उसे मोड़ना हो, तब उसे गरम करते हैं। क्यों करते हैं? यों ठंडा, नहीं मुड़े ऐसा होता है, इसलिए लोहे को गरम करके फिर मोड़ते हैं। वह फिर दो हथौड़ियाँ मारे, उतने में मुड़ जाता है। हमें जैसा बनाना हो वैसा बन जाता है। प्रत्येक वस्तु गरम होने पर मुड़ती ही है हमेशा। जितनी गरमी उतना कमज़ोर और कमज़ोर यानी एक-दो हथौड़ी मारते ही उस पति की जैसी डिज़ाइन आपको चाहिए, वैसी बना देनी चाहिए।

प्रश्नकर्ता : कैसी डिज़ाइन बनानी चाहिए, दादा? हाथ में आने के बाद क्या?

दादाश्री : आपको जैसी बनानी हो वैसी बन सकती है डिज़ाइन।

(पृ.७५)

अपने पति को तोते जैसा बना देती है। पत्नी बोले, ‘आया राम’, तब वह भी कहेगा, ‘आया राम’। ‘गया राम’ बोले तो वह भी कहेगा, ‘गया राम।’ ऐसा तोते जैसा बन जाएगा। पर लोगों को हथौड़ी मारना नहीं आता न! वे सारी कमज़ोरियाँ हैं। गुस्सा हो जाना, कमज़ोरी है।

आप जा रहे हों और मकान पर से सिर पर एक पत्थर गिरे, और खून निकले, तो उस वक्त क्या बहुत गुस्सा करोगे?

प्रश्नकर्ता : नहीं, वह तो हैपन (हो गया) है।

दादाश्री : नहीं, मगर वहाँ पर गुस्सा क्यों नहीं करते? आपने किसी को देखा नहीं, तो गुस्सा कैसे आएगा?

प्रश्नकर्ता : किसी ने जान-बूझकर मारा नहीं।

दादाश्री : यानी हमारे पास कंट्रोल है क्रोध का। अत: हम ऐसा समझते हैं कि जान-बूझकर किसी ने मारा नहीं है तो वहाँ कंट्रोल रख सकते हैं। कंट्रोल तो है ही। फिर कहते हैं, ‘मुझे गुस्सा आ जाता है।’ अरे, वहाँ क्यों नहीं आता? पुलिस वाले के साथ, जब पुलिस वाला धमकाए, उस वक्त क्यों गुस्सा नहीं आता? उसे पत्नी पर गुस्सा आता है, बच्चों पर गुस्सा आता है, पड़ोसी पर, ‘अन्डरहैन्ड’, (मातहत) पर गुस्सा आता है, पर ‘बॉस’ (मालिक) पर क्यों नहीं आता? गुस्सा मनुष्य को आ नहीं सकता। यह तो उसे अपना धार्युं (मनमानी) करना है।

प्रश्नकर्ता : घर में या बाहर फ्रेन्ड्स में, सब जगह, प्रत्येक के मत अलग-अलग होते हैं और वहाँ हमारा धार्युं नहीं हो तो फिर हमें गुस्सा आता है, तब क्या करें?

दादाश्री : सभी लोग अपनी धार्युं करने जाएँ, तब क्या होगा? ऐसा विचार ही कैसे आए? तुरंत ही ऐसा विचार आना चाहिए कि सभी यदि अपना धार्युं करने जाएँगे, तो यहाँ पर आमने-सामने बर्तन तोड़ देंगे और खाने को भी नहीं रहेगा। इसलिए धार्युं कभी मत करना। धारणा ही मत करना ताकि उससे उल्टा हो ही नहीं। जिसे गरज़ होगी वह धारणा करेगा, ऐसा रखो।

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प्रश्नकर्ता : हम कितने भी शांत रहें, लेकिन पुरुष गुस्सा हो जाते हैं, तब हम क्या करें?

दादाश्री : वे गुस्सा करें और झगड़ा करना हो तो आप भी गुस्सा करना, वर्ना बंद कर दो। फिल्म खत्म करनी हो तो ठंडी हो जाना और फिल्म खत्म नहीं करनी हो तो सारी रात चलने देना। कौन मना करता है? अच्छी लगती है फिल्म?

प्रश्नकर्ता : नहीं, फिल्म अच्छी नहीं लगती।

दादाश्री : गुस्सा करके क्या करना है? मनुष्य खुद गुस्सा नहीं करता। यह तो मिकेनिकल एडजस्टमेन्ट गुस्सा करता है। खुद गुस्सा नहीं करता। खुद को फिर मन में पछतावा होता है कि गुस्सा नहीं किया होता तो अच्छा होता।

प्रश्नकर्ता : उसे ठंडा करने का उपाय क्या है?

दादाश्री : वह तो मशीन गरम हो गई हो, उसे ठंडी करनी हो तो थोड़ी देर रहने दो, अपने आप ठंडी हो जाएगी और हाथ लगाएँ और उससे छेडख़ानी करें तो हम जल जाएँगे।

प्रश्नकर्ता : मेरे और मेरे पति के बीच गुस्सा और बहस हो जाती है। कहा-सुनी वगैरह हो जाती है, तो क्या करूँ मैं?

दादाश्री : गुस्सा तू करती है या वह? गुस्सा कौन करता है?

प्रश्नकर्ता : वे करते हैं, फिर मुझ से भी हो जाता है।

दादाश्री : तो आप भीतर ही खुद को डाँटना, ‘क्यों तू ऐसा करती है?’ जो किया वह भुगतना तो पड़ेगा न! लेकिन प्रतिक्रमण (पछतावा) करने से सभी दोष खत्म हो जाते हैं। वर्ना हमारे दिए हुए दु:ख ही फिर हमें भुगतने पड़ते हैं। लेकिन प्रतिक्रमण करने से ज़रा ठंडा पड़ जाता है।

प्रश्नकर्ता : लेकिन पति-पत्नी के बीच थोड़ा गुस्सा तो होना ही चाहिए न?

(पृ.७७)

दादाश्री : नहीं, ऐसा कोई कानून नहीं है। पति-पत्नी के बीच तो बहुत शांति रहनी चाहिए। दु:ख हो, तो वे पति-पत्नी ही नहीं होते। फ्रेन्डशिप में नहीं होता। सच्ची फ्रेन्डशिप में नहीं होता। फिर यह तो सबसे बड़ी फ्रेन्डशिप है! यहाँ नहीं होना चाहिए। यह तो लोगों ने घुसा दिया है। खुद को ऐसा होता है इसलिए घुसा दिया है कि नियम ऐसा ही है, कहते हैं! पति-पत्नी के बीच तो बिल्कुल नहीं होना चाहिए, और कही भले हो।

प्रश्नकर्ता : हमारे शास्त्रों में लिखा है कि स्त्री को पति को ही परमेश्वर समान मानना चाहिए और उसकी आज्ञा के अनुसार चलना चाहिए, तो अभी इस समय में इसका पालन कैसे करना चाहिए?

दादाश्री : वह तो पति यदि राम जैसे हों, तब हमें सीता बनना चाहिए। पति टेढ़ा हुआ हो, तब हम टेढ़े नहीं हों तो कैसे चलेगा? सीधा रहा जा सके तो उत्तम, लेकिन सीधा रह नहीं पाते न। मनुष्य किस प्रकार सीधा रह सकता है? बार-बार परेशान करता रहता है फिर। फिर पत्नी भी क्या करे बेचारी? वह तो, पति को पति धर्म निभाना चाहिए और पत्नी को पत्नी धर्म निभाना चाहिए। अगर पति की थोड़ी भूल हो तो उसे निभा ले, वह ‘स्त्री’ कहलाती है। लेकिन आकर वह इतनी गालियाँ देने लगे, तब ये पत्नी क्या करे बेचारी?

प्रश्नकर्ता : पति ही परमात्मा है, वह क्या गलत है?

दादाश्री : आज के पतियों को परमात्मा मानो, तो पागल होकर फिरें ऐसे हैं!

प्रश्नकर्ता : यों पति को परमेश्वर कहना चाहिए? उनके प्रतिदिन दर्शन करने चाहिए? उनका चरणामृत पीना चाहिए?

दादाश्री : वह उसे परमेश्वर कहे, मगर वह मरने वाले न हों, तो परमेश्वर। जो मर जाने वाले हैं, वे कैसे परमेश्वर! पति परमेश्वर काहे का? इस समय के पति परमेश्वर होते होगें?

प्रश्नकर्ता : मैं तो प्रतिदिन चरण स्पर्श करती हूँ पति के।

(पृ.७८)

दादाश्री : ऐसा करके पति को छलती होगी। पति को छलती होगी पैर छूकर। पति यानी पति और परमेश्वर यानी परमेश्वर। वह पति भी कहाँ कहता है कि ‘मैं परमेश्वर हूँ’? ‘मैं तो पति हूँ’ ऐसा ही कहता है न?

प्रश्नकर्ता : हाँ, ‘पति हूँ’ ऐसा ही कहते हैं।

दादाश्री : हं.., ऐसे तो गाय का भी पति होता है, सभी के पति होते हैं। सिर्फ आत्मा ही परमेश्वर है, शुद्धात्मा!

प्रश्नकर्ता : चरणामृत पी सकते है?

दादाश्री : आज के लोग, दुर्गंध वाले लोगों का चरणामृत कैसे पी सकते हैं! ये मनुष्य गंध मारते हैं, ऐसे बैठा हो, फिर भी गंध मारता है। वह तो पहले सुगंध वाले लोग थे, तब की बात अलग थी। आज तो सभी लोग गंध मारते हैं। हमारा सिर भी फटने लगे। जैसे-तैसे करके दिखावा करना है कि पति-पत्नी हैं हम।

प्रश्नकर्ता : अब तो सभी ने वह केन्सल कर दिया है, दादा। अब सब पढ़ी-लिखी हैं न, इसलिए सभी ने वह परमेश्वर पद हटा दिया है।

दादाश्री : पति परमेश्वर बन बैठे हैं, देखो न! उनके हाथ में किताब लिखने की सत्ता। इसलिए कौन कहने वाला! एक तरफा कर डाला न? ऐसा नहीं होना चाहिए।

प्रश्नकर्ता : आजकल की स्त्री अपने पति को पहले की स्त्री जैसा सम्मान नहीं देतीं।

दादाश्री : हाँ, पहले के पति ‘राम’ थे और अभी के ‘मरा’ हैं।

प्रश्नकर्ता : यह कहती है यमराज।

प्रश्नकर्ता : पति के प्रति पत्नी का कर्तव्य क्या है, वह समझाइए।

दादाश्री : स्त्री को हमेशा पति के प्रति सिन्सियर (वफादार) रहना चाहिए। पति को पत्नी से कहना चाहिए कि ‘तुम सिन्सियर नहीं

(पृ.७९)

रहोगी तो मेरा दिमाग़ बिगड़ जाएगा।’ उसे तो चेतावनी देनी चाहिए। ‘बिवेयर’ (सावधान) करना, लेकिन दबाव नहीं डाल सकते कि तुम सिन्सियर रहो। किन्तु उसे ‘बिवेयर’ कह सकते हैं। सिन्सियर रहना चाहिए सारी ज़िंदगी। रात-दिन सिन्सियर, उनकी ही चिंता होनी चाहिए। तुम्हें उनकी चिंता रखनी चाहिए तभी संसार ठीक से चलेगा।

प्रश्नकर्ता : पतिदेव सिन्सियर नहीं रहे, तब फिर पत्नी का दिमाग़ खराब हो जाए तो पाप नहीं लगता न?

दादाश्री : दिमाग़ खराब हो तो वह स्वाद चखता है न! पति भी स्वाद चखता है न बाद में! ऐसा नहीं करना चाहिए। एज़ फार एज़ पोसिबल (जहाँ तक हो सके) पति की इच्छा नहीं हो और भूलचूक हो जाती हो तो पति को उसके लिए क्षमा माँग लेनी चाहिए, कि ‘मैं क्षमा चाहता हूँ, फिर से ऐसा नहीं होगा।’ सिन्सियर तो रहना चाहिए न मनुष्य को? सिन्सियर नहीं रहे तो कैसे चलेगा?

प्रश्नकर्ता : माफी माँग लेते हैं पति, बात-बात में माफी माँग लेते हैं, लेकिन फिर वैसा ही करें तब?

दादाश्री : पति माफी माँगे तो नहीं समझ जाना चाहिए कि बेचारा कितनी लाचारी का अनुभव कर रहा है! इसलिए लेट गो करना। उसे उसकी ‘हेबिट’ (आदत) नहीं पड़ी है। ‘हेबिच्युएटेड’ (आदी) नहीं हुआ है। उसे भी पसंद नहीं होता मगर क्या करे? बरबस ऐसा हो जाता है। भूलचूक तभी होती है न!

प्रश्नकर्ता : पति को हेबिट (आदत) हो गई हो, तो क्या करें?

दादाश्री : क्या करोगी फिर? क्या उसे निकाल दोगे? निकाल दो तो फज़ीहत होगी बाहर! बल्कि ढककर रखना चाहिए, और क्या हो सकता है? गटर को ढकते हैं या खुला रखते हैं? इन गटरों का ढक्कन ढक देना चाहिए या खुला रखना चाहिए?

प्रश्नकर्ता : बंद रखना चाहिए।

दादाश्री : वर्ना यदि खोलें तो बदबू आएगी, अपना सिर घुमने लगेगा।

(पृ.८०)

प्रश्नकर्ता : ये बिंदी क्यों लगाते हैं? अमरीका की बहुत-सी स्त्री हमें पूछती हैं कि तुम लोग यहाँ बिंदी क्यों लगाती हो?

दादाश्री : हाँ, बिंदी इसलिए कि हम आर्य स्त्रियाँ हैं। हम अनार्य नहीं हैं। आर्य स्त्रियाँ बिंदी वाली होती हैं। अर्थात् पति से चाहे कितना भी झगड़ा हो, फिर भी वह घर छोड़कर चली नहीं जाती और बिना बिंदी वाली तो दूसरे दिन ही चली जाती है। और यह तो स्टेडी (स्थिर) रहती है, बिंदी वाली। यहाँ मन का स्थान है, वह एक पति में मन एकाग्र रहे, इसलिए।

प्रश्नकर्ता : स्त्रियों को क्या करना चाहिए? पुरुषों का तो आपने बताया, मगर स्त्रियों को दोनों आँखो में क्या रखना चाहिए?

दादाश्री : स्त्रियों को तो, उन्हें चाहे कैसा भी पति मिला हो, जो भी पति मिले हैं, वह अपने हिसाब का है। पति मिलना, वह कोई गप नहीं है। अत:, जो पति मिला उसके प्रति एक पतिव्रता बनने का प्रयत्न करना। और अगर ऐसा नहीं हो सके, तो उसके लिए फिर क्षमापना करो। पर तेरी दृष्टि ऐसी होनी चाहिए। और पति के साथ पार्टनरशिप (साझेदारी) में किस प्रकार आगे बढ़ें, उध्र्वगति हो, किस प्रकार मोक्ष प्राप्त हो, ऐसे विचार करो!

[20] परिणाम, तलाक़ के

मतभेद पसंद हैं? मतभेद हों, तब झगड़े होते हैं, चिंता होती है, तो मनभेद से क्या होता है? मनभेद होने पर ‘डायवोर्स’ ले लेते हैं और तनभेद हो तब अर्थी निकलती है!

प्रश्नकर्ता : व्यवहारिक मामलों में जो मतभेद होते हैं, वे विचारभेद कहलाते हैं या मतभेद कहलाते हैं?

दादाश्री : वह मतभेद कहलाता है। यह ज्ञान लिया हो तो उसे विचारभेद कहते हैं, वर्ना मतभेद कहलाता है। मतभेद से तो झटका लगता है!

प्रश्नकर्ता : मतभेद कम रहे तो वह अच्छा है न?

(पृ.८१)

दादाश्री : मनुष्यों में मतभेद तो होना ही नहीं चाहिए। यदि मतभेद है, तो वह मानवता ही नहीं कहलाती। क्योंकि मतभेद में से कभी मनभेद हो जाता है। मतभेद से मनभेद हो जाए तो ‘तू ऐसी है और तू अपने घर चली जा’ ऐसा कहने लगता है। इसमें फिर मज़ा नहीं रहता। जैसे-तैसे निभा लेना।

प्रश्नकर्ता : अभी तो ठेठ मतभेद तक पहुँच गया है।

दादाश्री : वही कह रहा हूँ, वह सब अच्छा नहीं है। बाहर शोभा नहीं देता। इसका कोई अर्थ नहीं है। अभी भी सुधारा जा सकता है। हम मनुष्य हैं, इसलिए सुधारा जा सकता है। यह किसलिए ऐसा होना चाहिए? अरे, फ़जीहत करते रहते हैं? कुछ समझना तो पड़ेगा न? इन सभी में सुपरफ्लुअस रहना है, जबकि स्त्री के पति बन बैठे हैं, कुछ लोग तो! अरे! पतिपना क्यों जताता है? यह तो यहाँ जीया, तब तक पति और कल डायवोर्स न ले, तब तक पति। कल बीवी डायवोर्स ले, तब तू किसका पति?

प्रश्नकर्ता : आजकल सभी डायवोर्स लेते हैं, तलाक़ लेते हैं। वे छोटे-छोटे बच्चों को छोड़कर तलाक़ लेते हैं, तो उनकी हाय नहीं लगती?

दादाश्री : लगती है न सारी, मगर क्या करें फिर? वास्तव में तलाक़ नहीं लेना चाहिए। सच पूछो तो निबाह लेना चाहिए सब। बच्चे होने से पहले लिया होता तो हर्ज नहीं था, लेकिन यदि बच्चे होने के बाद तलाक़ ले तो बच्चों की हाय लगती है न!

प्रश्नकर्ता : बच्चों के बाप का ज़रा भी दिमाग़ नहीं चलता हो, कुछ कामकाज नहीं करता हो, मोटल चलाना नहीं आता हो और चार दीवारी के बीच घर में बैठा रहता हो, तो क्या करें?

दादाश्री : क्या करोगी लेकिन? दूसरा सीधा मिलेगा या नहीं, उसका क्या भरोसा?

प्रश्नकर्ता : भरोसा तो नहीं है...

(पृ.८२)

दादाश्री : दूसरा अगर उससे भी खराब मिले, तब क्या करोगी? कई स्त्रियों को मिला है ऐसा। पहला पति था वह अच्छा था। अरे, घनचक्कर! तो फिर जहाँ थी वहीं पड़े रहना था न! भीतर ऐसा समझना चाहिए या नहीं?

प्रश्नकर्ता : दादा को सौंप दें, फिर दूसरा सीधा मिलेगा न?

दादाश्री : अच्छा मिला और तीन साल बाद उसे अटेक आया, तब क्या करोगी? इस निरे भय वाले संसार में किसलिए यह सब.... जो हुआ वही करेक्ट कहकर चला लो तो अच्छा।

पहला पति सदैव अच्छा निकलता है, लेकिन दूसरा तो आवारा ही होगा। क्योंकि वह भी ऐसा ही ढूँढता है। आवारा ही खोजता है और वह खुद भी आवारा होता है, तभी दोनों इकट्ठे होंगे न! भटके हुए दोनों मिल जाते हैं। इसके बजाय तो पहले वाला अच्छा। अपना जाना हुआ तो है न! अरे! ऐसा तो नहीं है! वह रात को गला तो नहीं दबा देगा न! ऐसा तुम्हें भरोसा होता है न! जबकि वह दूसरा वाला तो गला भी दबा दे!

बच्चों की खातिर भी खुद को समझना चाहिए। एक या दो बच्चे हों मगर वे बेचारे बेसहारा ही हो जाएँगे न! बेसहारा नहीं माने जाएँगे?

प्रश्नकर्ता : बेसहारा ही माने जाएँगे!

दादाश्री : माँ कहाँ गई? पापा कहाँ गए? एक बार खुद का एक पाँव कट गया हो, तब एक जन्म गुजारा नहीं करते या आत्महत्या कर लेते हैं?

पति बुरा नहीं लगता। ऐसा लगेगा तब क्या करोगी? फिर पति का दिमाग़ ज़रा आड़ा-टेढ़ा हो, लेकिन शादी की है तो मेरा पति, यानी मेरा सबसे अच्छा-बेस्ट, ऐसा कहना। अत: बुरे जैसा कुछ दुनिया में होता ही नहीं।

प्रश्नकर्ता : बेस्ट कहें तब तो पति सिर पर चढ़ जाएँगे।

(पृ.८३)

दादाश्री : नहीं, सिर पर नहीं चढ़ेंगे। वे सारा दिन बेचारे बाहर काम करते रहते हैं, वे क्या सिर पर चढ़ेंगे? पति तो जैसा आपको मिला हो न, उसी को निबाह लेना, दूसरा थोड़े ही लेने जाएँगे? बिकाऊ मिलते हैं? कुछ उल्टा-सीधा करो और डायवोर्स लेना पड़े, वह तो गलत दिखेगा बल्कि। वह भी पूछेगा, डायवोर्स वाली है, तब और कहाँ जाओगी? इसके बजाय एक से शादी की तो निकाल कर लो वहीं पर। यानी सब जगह ऐसा होता है और हम से नहीं बनती हो, पर क्या करे? अब जाए कहाँ? इसलिए इसीका निकाल कर देना। हम इन्डियन, कितने पति बदलें? यह एक बनाया वही... जो मिला वह सही। केस, एक तरफ रख देना। और पुरुषों को कैसी भी स्त्री मिली हो, क्लेश करती हो, फिर भी उसके साथ निकाल कर लेना अच्छा। वह क्या पेट में काटने वाली है? वह तो बाहर शोर मचाती है अथवा मुँह पर गालियाँ देती हैं, पेट में घुसकर काटे तब आप क्या करोगे? उसके जैसा है यह सब। रेडियो ही है। पर यह आपको ऐसे पता नहीं चलेगा कि यह वास्तव में.. आपको तो ऐसा ही लगता है कि यह सब सचमुच वही कर रही है। फिर उसे भी पछतावा होता है, कि अरे, मुझे नहीं कहना चाहिए था और मुँह से निकल गया। तब तो फिर वह करती है या रेडियो करता है?

एक स्त्री का संसार मुंबई में फ्रेक्चर होने जा रहा था। पति ने दूसरा गुप्त संबंध रखा होगा और इस स्त्री को तो पता चल गया, इसलिए ज़बरदस्त झगड़े होने लगे। फिर उस औरत ने मुझे बताया कि ‘ये ऐसे हैं, मैं क्या करूँ? मुझे भाग जाना है।’ मैंने कहा, एक पत्नीव्रत का कानून पाल रहा हो, वैसा मिले तो भाग जाना। वर्ना दूसरा कौन सा अच्छा मिलेगा? वैसे तो एक ही रखी है न? तब कहे, ‘हाँ, एक ही है।’ तब मैंने कहा, ‘ठीक है, लेट गो कर (चला ले), दिल बड़ा कर दे। तुझे इससे अच्छा दूसरा नहीं मिलेगा।’

कलियुग में तो पति भी अच्छा नहीं मिलता और पत्नी भी अच्छी नहीं मिलती। यह सारा माल ही कूड़ा-करकट जैसा है न! माल पसंद करने जैसा है ही नहीं। इसलिए यह पसंद नहीं करना है, यह तो तुझे हल लाना है। यह कर्मों का हिसाब चुकाना है, इसलिए

(पृ.८४)

हल लाना है। जबकि लोग मज़े से मानो ही पति-पत्नी बनने जाते हैं! अरे, निपटारा ला न इधर से। किसी भी तरह से क्लेश कम हो, उस प्रकार हल निकालना है।

प्रश्नकर्ता : दादा, उन्हें ऐसा संयोग मिला, वह भी हिसाब से ही हुआ होगा न?

दादाश्री : बिना हिसाब के तो ऐसा मिलेगा ही नहीं न!

संसार है इसलिए घाव तो पड़ेंगे ही न! और बाई साहब भी कहेंगी कि अब घाव भरेगा नहीं। लेकिन संसार में मग्न हुए कि फिर घाव भर जाते हैं। मूर्छा है न! मोह के कारण मूर्छा है। मोह के कारण घाव भर जाते हैं। यदि घाव नहीं भरते, तब तो वैराग्य ही आ जाए न! मोह किसे कहते हैं? कई सारे अनुभव हुए होते हैं, पर भूल जाता है। ‘डायवोर्स’ लेते समय तय करता है कि अब किसी स्त्री से शादी नहीं करनी है, लेकिन फिर भी वापस कूद पड़ता है!

प्रश्नकर्ता : मैं उनसे कह रहा था कि हमारे विवाहित जीवन में निन्यानवे प्रतिशत बेमेल जोड़े हैं।

दादाश्री : हमेशा ही जिसे बेमेल जोड़ा कहा जाता है न, कलियुग में यदि बेमेल जोड़ा हो तो वह बेमेल जोड़ा ही ऊपर ले जाएगा या फिर एकदम अधोगति में ले जाएगा। दोनों में से एक कार्यकारी होता है और सजोड़ा कार्यकारी नहीं होता। बेमेल जोड़ा है, इसलिए उच्च गति में ले जाएगा और सजोड़ा तो ऐसे भटकाता है साथ-साथ में।

बेमेल जोड़े में कैसा होना चाहिए कि वह बिगड़े तब हमें शांत रहना चाहिए, यदि हम समझदार हों तो। लेकिन वह बिगड़े और हम भी बिगड़े, उसमें रहा क्या?

प्रश्नकर्ता : डायवोर्स, ऐसे कैसे संयोग होने पर डायवोर्स लेना चाहिए?

दादाश्री : यह डायवोर्स तो अभी निकले हैं। पहले डायवोर्स थे ही कहाँ?

(पृ.८५)

प्रश्नकर्ता : अभी तो हो रहे हैं न? तो किन संयोगों में वह सब करना चाहिए?

दादाश्री : कहीं भी मेल नहीं खाता हो, तब अलग हो जाना अच्छा। एडजस्टेबल ही नहीं हो तो अलग हो जाना बेहतर। वर्ना हम तो एक ही बात कहते हैं कि ‘एडजस्ट एवरीव्हेर’। दूसरों को कहकर गुणाकार करने मत जाना कि, ‘ऐसा है और वैसा है।’

प्रश्नकर्ता : इस अमरीका में जो डायवोर्स लेते हैं, वह खराब कहलाएगा या आपस में बनती न हो, वे लोग डायवोर्स लेते हैं?

दादाश्री : डायवोर्स लेने का अर्थ ही क्या है पर! ये क्या कप-प्लेट हैं? कप-प्लेट अलग-अलग नहीं बाँटते। उनका डायवोर्स नहीं करते, तो इन मनुष्यों का-स्त्रिओं का तो डायवोर्स करते होंगे? उन लोगों के लिए, विदेशियों के लिए ठीक है, किन्तु आप तो इन्डियन हो। जहाँ एक पत्नीव्रत और एक पतिव्रत के नियम थे। एक पत्नी के अलावा दूसरी स्त्री को देखूँगा नहीं, ऐसा कहते थे, ऐसे विचार थे। वहाँ डायवोर्स के विचार शोभा देते हैं? डायवोर्स यानी ये झूठे बर्तन बदलना। भोजन के बाद झूठे बर्तन वापस दूसरे को देना, फिर तीसरे को देना। निरे झूठे बर्तन बदलते रहना, उसका नाम डायवोर्स। पसंद है तुझे डायवोर्स?

कुत्ते, जानवर सभी डायवोर्स वाले हैं और फिर ये मनुष्य भी वही करें तो फिर फर्क ही क्या रहा? मनुष्य बीस्ट (जानवर) जैसा ही हो गया। अपने हिन्दुस्तान में तो एक शादी के बाद दूसरी शादी नहीं करते थे। वे तो, यदि पत्नी की मृत्यु हो जाए तो शादी भी नहीं करते थे,ऐसे लोग थे! कैसे पवित्र लोग जन्मे थे!

अरे, तलाक़ लेने वालों का मैं घंटेभर में मेल करा दूँ फिर से! तलाक़ लेना हो, उसे मेरे पास लाओ तो मैं एक ही घंटे में मेल कर दूँ। फिर वे दोनों साथ रहेंगे। डर मात्र नासमझी का है। कई अलग हो चुके जोड़ों का मेल हो गया है।

हमारे संस्कार हैं ये तो। लड़ते-लड़ते दोनों को अस्सी साल हो

(पृ.८६)

जाएँ, फिर भी मरने के बाद तेरहवें के दिन शैय्यादान करते हैं। शैय्यादान में चाचा को यह भाता था और यह पसंद था, चाची सब बम्बई से मँगाकर रखती हैं। तब एक लड़का था न, वह अस्सी साल की चाची से कहता है, ‘माँजी, चाचा ने तो आपको छह महीने पहले गिरा दिया था। उस वक्त तो आप उल्टा बोल रही थीं चाचा के बारे में।’ ‘फिर भी, ऐसे पति नहीं मिलेंगे’ कहने लगी। ऐसा कहा उन्होंने। सारी ज़िंदगी के अनुभव में से ढूँढ निकालती हैं कि ‘पर वे दिल के बहुत अच्छे थे। यह प्रकृति टेढ़ी थी पर दिल के..’

लोग देखें, ऐसा हमारा जीवन होना चाहिए। हम इन्डियन हैं। हम विदेशी नहीं हैं। हम स्त्री को निबाह लें और स्त्री हमें निबाहे, ऐसा करते करते अस्सी साल तक चलता है। जबकि वह (फॉरेनर्स) तो एक घंटा भी नहीं निभाए और पति भी एक घंटा नहीं निभाए।

हर किसी की प्रकृति के पटाखे फूटते हैं। ये पटाखे कहाँ से आए?

प्रश्नकर्ता : अपनी-अपनी प्रकृति के हैं।

दादाश्री : जब हम समझें कि ‘यह फूटेगा ही’ तब फुस हो जाता है! फुस्स... फुस हो जाता है। नहीं हो जाता?

और मन अगर फरियाद करे कि ‘कितना अधिक बोल गए! कितना सारा ऐसा हो गया।’ तब (मन से) कहना, ‘सो जा, वे घाव अभी भर जाएँगे’। घाव भर जाएँगे तुरंत... कंधा थपथपाओ तो सो जाएगा। तेरे घाव भर गए न सब! नहीं? जो घाव पड़े हुए थे वे?

प्रश्नकर्ता : झगड़ा हो, तब भी भरा हुआ माल निकलता है?

दादाश्री : जब झगड़ा होता है, तब भीतर नया माल भरता है, लेकिन यह ज्ञान मिलने के बाद भरा हुआ माल निकल जाता है।

प्रश्नकर्ता : यों तो पति झगड़ा कर रहा हो और उस समय मैं प्रतिक्रमण करूँ तो?

दादाश्री : तो हर्ज नहीं।

(पृ.८७)

प्रश्नकर्ता : तब भरा हुआ माल निकल जाएगा न सारा?

दादाश्री : तब तो सारा निकल जाएगा। जहाँ पर प्रतिक्रमण हो वहाँ माल निकल जाता है। प्रतिक्रमण ही सिर्फ एक उपाय है इस जगत् में।

पति डाँटे तब क्या करोगी अब?

प्रश्नकर्ता : समभाव से निकाल कर देंगे।

दादाश्री : ऐसा! चली नहीं जाओगी अब?

प्रश्नकर्ता : नहीं।

दादाश्री : वे चले जाएँ, तब क्या करोगी तुम अब? ‘मुझे तुम्हारे साथ नहीं जमेगा’ ऐसा कहे तब?

प्रश्नकर्ता : बुला लाऊँगी। माफी माँगकर पाँव पड़कर वापस बुला लाऊँगी।

दादाश्री : हाँ, बुला लाना। समझा-बुझाकर सिर पर हाथ रखकर, सिर पर हाथ फेरकर... ऐसा भी करना कि वे चुप हो जाएँ फिर।

अक़्ल से ही यदि काम होता हो तो अक़्ल इस्तेमाल करना। फिर दूसरे दिन वह आपसे कहे, ‘तूने मेरे पैर छुए थे न?’ तब कहना, ‘वह बात अलग थी। आप क्यों भाग रहे थे, नासमझी कर रहे थे, इसलिए छुए!’ वह समझे कि इसने सदा के लिए छुए, वह तो उस समय के लिए ही, ऑन द मोमेन्ट (उस क्षण के लिए) था!

[21] सप्तपदी का सार

जीवन जीने की कला इस काल में नहीं है। मोक्ष का मार्ग तो जाने दो, मगर जीवन जीना तो आना चाहिए न? बात ही समझनी है कि इस रास्ते पर ऐसा है और इस रास्ते पर ऐसा है। फिर तय करना है कि किस राह पर जाना है? समझ में नहीं आए तो ‘दादा’ से पूछ लेना, तब ‘दादा’ आपको दिखाएँगे कि ये तीन रास्ते जोखिम वाले हैं

(पृ.८८)

और यह रास्ता बिना जोखिम वाला है। उस राह पर हमारे आशीर्वाद लेकर चलना है।

शादी-शुदा को लगे कि हम तो फँस गए उलटे! कुंवारों को लगता है कि ये लोग मज़े कर रहे हैं! इन दोनों के बीच का अंतर कौन दूर करेगा? और शादी किए बगैर चले, ऐसा भी नहीं है इस दुनिया में! तो किसलिए शादी करके दु:खी होना है? तो कहते हैं, ये लोग दु:खी नहीं होते, एक्सपीरियन्स (अनुभव) ले रहे हैं। संसार सही है या गलत, सुख है या नहीं? वह हिसाब निकालने के लिए संसार है। आपने निकाला कुछ हिसाब अपने बहीखाते का?

सारा संसार कोल्हू के समान है। पुरुष बैल की जगह पर है और स्त्रियाँ तेली की जगह पर। वहाँ तेली गाता है और यहाँ स्त्री गाती है! और बैल आँख पर पट्टी लगाए तान में ही चलता रहता है! गोल-गोल घुमता रहता है। ऐसे ही सारा दिन यह बाहर काम करता है और समझता है कि काशी पहुँच गया होऊँगा! और पट्टी खोलकर देखे तो भाईसाहब वहीं के वहीं! फिर उस बैल को क्या करता है वह तेली? फिर थोड़ी खली बैल को खिलाता है तो बैल खुश होकर फिर से शुरू हो जाता है। वैसे ही इसमें औरत अच्छा खाना खिलाए कि भाई आराम से खाकर फिर से शुरू!

बाकी ये दिन कैसे गुज़ारें, यह भी मुश्किल हो गया है। पति आकर कहेगा कि, ‘मेरे हार्ट में दर्द है।’ लड़का आकर कहेगा कि ‘मैं फेल हो गया’। पति के हार्ट में दर्द हो तब पत्नी को विचार आता है कि ‘हार्ट फेल’ हो गया तो क्या होगा, सभी तरह के विचार घेर लेते हैं। चैन नहीं लेने देते।

शादी की क़ीमत कब होती? लाखों लोगों में से एकाध आदमी को शादी करने को मिलती, तब। यह तो सभी शादी करते हैं, उसमें क्या? स्त्री-पुरुष का (शादी के बाद) व्यवहार कैसा होना चाहिए, उसका तो बहुत बड़ा कॉलेज है। ये तो पढ़े बिना शादी कर लेते हैं।

अब, एक बार अपमान हो, तो अपमान सहन करने में हर्ज

(पृ.८९)

नहीं, पर साथ ही अपमान को लक्ष (जागृति) में रखने की ज़रूरत है कि क्या अपमान के लिए जीवन है? अपमान में हर्ज नहीं, पर मान की भी ज़रूरत नहीं और अपमान की भी ज़रूरत नहीं है। लेकिन क्या हमारा जीवन अपमान के लिए है? ऐसा लक्ष तो होना चाहिए न?

बीवी रूठी हुई हो, तब तक भगवान को याद करता है और बीवी बात करने आई तो भाई तैयार! फिर भगवान और बाकी सब-कुछ एक ओर! कैसी उलझन! इस तरह क्या दु:ख मिट जाने वाले हैं?

संसार यानी क्या? जंजाल। यह शरीर मिला है, वह भी जंजाल है! जंजाल का भी कहीं शौक़ होता होगा? इसके प्रति रूचि रहती है यह भी एक आश्चर्य है न! मछली का जाल अलग और यह जाल अलग! मछली के जाल में से काट-कूटकर निकला जा सकता है पर इस में से निकला ही नहीं जा सकता। अंत में, जब अर्थी उठे, तब निकल पाते हैं!

‘ज्ञानी पुरुष’ इस संसार जाल से निकलने का रास्ता दिखाते हैं, मोक्षमार्ग दिखाते हैं और सही राह पर ला देते हैं और हमें लगता है कि हम इस जंजाल में से मुक्त हुए!

इसे जीवन कैसे कहें? जीवन कितना सुशोभित होता है! एक-एक मनुष्य की सुगंध आनी चाहिए। आस-पड़ोस में कीर्ति फैली हुई हो कि कहना पड़ेगा, ‘ये सेठजी हैं न, ये कितने अच्छे हैं! इनकी बातें कितनी सुंदर! इनका वर्तन कितना सुंदर!’ ऐसी कीॢत सभी ओर दिखाई देती है? ऐसी सुगंध आती है लोगों की?

प्रश्नकर्ता : कभी-कभी, किसी-किसी की सुगंध आती है।

दादाश्री : किसी-किसी मनुष्य की, पर वह भी कितनी? और अगर उनके घर जाकर पूछो तो दुर्गंध देता है। बाहर सुगंध आती है, पर घर जाकर पूछो तो कहेंगे कि, ‘उनका नाम ही मत लो, उनकी तो बात ही मत करना।’ अत: यह सुगंध नहीं कहलाती।

जीवन तो मदद करने के लिए ही जाना चाहिए। यह अगरबत्ती जब सुलगती है, उसमें खुद की सुगंध लेती है वह?

(पृ.९०)

और यह जो संसार है वह म्यूज़ियम है। इस म्यूज़ियम में शर्त क्या है? प्रवेश करते ही लिखा हुआ है कि भाई, तुम्हें जो खाना-पीना हो, कुछ भोगना हो तो अंदर भोगना। कुछ भी बाहर लेकर नहीं निकलना है और लड़ना नहीं है। किसी के प्रति राग-द्वेष नहीं करने है। खाना-पीना सभी-कुछ लेकिन राग-द्वेष नहीं। जबकि यह तो अंदर जाकर शादी रचाता है। अरे, शादी कहाँ रचाई? ये तो बाहर जाते समय फज़ीहत होगी! फिर वह कहेगा कि मैं बंध गया। कानून के अनुसार भीतर जाएँ और खाएँ-पीएँ, शादी करें तो भी हर्ज नहीं। स्त्री से कह देना, ‘देखो यह संसार एक संग्रहस्थान है, इसमें राग-द्वेष मत करना। जब तक ठीक लगे तब तक घूमना-फिरना, लेकिन आखिर में हमें बिना राग-द्वेष निकल जाना है।’ उस पर द्वेष नहीं। कल सवेरे दूसरे के साथ घूम रही हो तब भी उस पर द्वेष नहीं। यह संग्रहस्थान ऐसा है। फिर आपको जितनी-जितनी युक्तियाँ करनी हो, उतनी करना। अब संग्रहस्थान को दूर नहीं कर सकते। जो हुआ वही सही है अब तो। हम संस्कारी देश में जन्मे हैं न! इसलिए मेरिज-वेरिज सब-कुछ तरीके से होना चाहिए!

[22] पति-पत्नी के प्राकृतिक पर्याय

प्रश्नकर्ता : स्त्रिओं को आत्मज्ञान हो सकता है या नहीं? समकित हो सकता है?

दादाश्री : वास्तव में नहीं हो सकता, पर हम यहाँ करवाते हैं। क्योंकि प्रकृति की वह कक्षा ही ऐसी है कि आत्मज्ञान पहुँचता ही नहीं। क्योंकि स्त्रियों में कपट की ग्रंथि इतनी बड़ी होती है, मोह और कपट की, वे दो ग्रंथियाँ आत्मज्ञान को छूने नहीं देतीं।

प्रश्नकर्ता : यानी व्यवस्थित का अन्याय हुआ न वह तो?

दादाश्री : नहीं, वह तो दूसरे जन्म में पुरुष होकर बाद में मोक्ष में जाएगी। ये सभी कहते हैं कि स्त्रियाँ मोक्ष में नहीं जा सकतीं, तो वह बात एकांतिक नहीं है। पुरुष होकर फिर जाती हैं। ऐसा कोई कानून नहीं है कि स्त्रियाँ स्त्री ही रहेंगी। वे पुरुष जैसी कब होंगी कि जब वे पुरुष

(पृ.९१)

के साथ स्पर्धा में रही हों और अहंकार बढ़ता जाए, क्रोध बढ़ता ही जाए, तब वह स्त्रीपन उड़ जाता है। अहंकार और क्रोध की प्रकृति पुरुष की और माया और लोभ की प्रकृति स्त्री की, ऐसा करके चली यह गाड़ी। पर हमारा यह अक्रम विज्ञान ऐसा कहता है कि स्त्रियों का भी मोक्ष हो सकता है। क्योंकि यह विज्ञान आत्मा जगाता है। आत्मज्ञान नहीं हो पाए, तो भी हर्ज नहीं, पर आत्मा को जगाता है। कितनी स्त्रियाँ ऐसी हैं कि दादा निरंतर चौबीसों घंटे याद रहते हैं! हिन्दुस्तान में कितनी ही और अमरीका में कितनी होंगी कि जिन्हें दादा चौबीसों घंटे याद रहते हैं!

प्रश्नकर्ता : अत: आत्मा की तो कोई जाति ही नहीं है न?

दादाश्री : आत्मा की जाति होती ही नहीं न! प्रकृति की जाति होती है। उजला माल भरा हो तो उजला निकलता है। काला भरा हो तो काला निकलता है। प्रकृति, वह भी भरा हुआ माल है। जो माल भरा है वह प्रकृति और वैसे पुद्गल कहलाता है। यानी पूरण किया उसका गलन होता रहता है। भोजन का पूरण किया, तो उसका संडास में गलन होता है। पानी पीया, तो वह पेशाब में, श्वासोच्छवास, सभी पुद्गल परमाणु।

पुरुष होना हो तो ये दो गुण छूटें तब हो सकते हैं, मोह और कपट। मोह और कपट दो तरह के परमाणु इकट्ठे हों तो स्त्री बनता है और क्रोध और मान दोनों इकट्ठे हों तो पुरुष बनता है। यानी परमाणु के आधार पर यह सब हो रहा है।

एक बार बहनों ने मुझसे पूछा कि हमारे कुछ विशिष्ट दोष होते हैं, उनमें ज़्यादा नुकसानदायक दोष कौन-सा है? तब मैंने कहा, ‘अपना धार्युं करवाना चाहे वह।’ सभी बहनों की इच्छा ऐसी होती है कि अपना धार्युं करवाएँ। पति को भी उल्टी पट्टी पढ़ाकर उससे अपना धार्युं करवाती हैं। अत: यह गलत, उल्टा रास्ता है। मैंने उन्हें लिखवाया है कि यह रास्ता नहीं होना चाहिए। धार्युं करवाने का अर्थ क्या है? बहुत ही नुकसानदायक!

प्रश्नकर्ता : परिवार का भला होता हो, ऐसा हम करवाएँ तो उसमें क्या गलत है?

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दादाश्री : नहीं, वह भला कर ही नहीं सकती न! जोधार्युं करवाते हैं, वे परिवार का भला नहीं करते, कभी भी। परिवार का भला कौन कर सकता है कि ‘सभी का धार्युं हो, इस तरह से हो तो अच्छा’, वह परिवार का भला कर सकता है। सभी का, किसी का भी मन न दु:खे, इस प्रकार हो तब। जो धार्युं करवाना चाहे, वह तो परिवार का भारी नुकसान करता है। वह तकरार और झगड़ा करने का साधन है। खुद का धार्युं न हो तो फिर खाती भी नहीं, दु:खी हो कर बैठी रहती है। किसे मारने जाए, मन मारकर बैठी रहती है फिर। और दूसरे दिन फिर कपट करती है। वह कौन सी जात है! धार्युं के मुताबिक करना चाहे, पर नहीं हो तब क्या होगा? ऐसा सब नहीं रखना चाहिए। बहनों, अब आप उदार दिल वाली बन जाओ।

प्रश्नकर्ता : स्त्रियाँ अपने आँसुओं के द्वारा पुरुषों को पिघला देती हैं और खुद का जो गलत है उसे भी सत्य ठहरा देती हैं। इस बारे में आपका क्या कहना है?

दादाश्री : बात सच्ची है। उसका गुनाह उन्हें लगेगा और ऐसा आग्रह रखती है न, इसलिए विश्वास उठ जाता है।

किसी के पति भोले हों तो वे उँगली ऊँची करें। जिन्होंने उंगली ऊँची की न, वे अकेले में मुझसे कह देती हैं, ‘हमारे पति भोले हैं, सभी भोले हैं’, यह इटसेल्फ सूचित करता है कि ये स्त्रियाँ तो पति को नचाती हैं। इसे ज़ाहिर करना बुरा दिखेगा। बुरा नहीं दिखेगा? ज़्यादा नहीं कह सकते। अकेले में स्त्रियों से पूछें कि ‘बहन, आपके पति भोले हैं?’ ‘बहुत भोले’। माल कपट का भरा हुआ है इसलिए, परंतु ऐसा कह नहीं सकते, बुरा दिखता है। अन्य गुण बहुत सुंदर हैं।

प्रश्नकर्ता : स्त्री को एक ओर तो लक्ष्मी कहते हैं और दूसरी ओर कपट वाली, मोह वाली...

दादाश्री : लक्ष्मी कहते हैं। तो क्या वह कुछ ऐसी-वैसी है? जब पति नारायण कहलाते हैं तो वह क्या कहलाएगी? अत: उस जोड़ी को

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लक्ष्मीनारायण कहते हैं! तो क्या वह कुछ निम्न कक्षा की हैं? स्त्री तो तीर्थंकरों की माता हैं। जितने तीर्थंकर हुए हैं न, चौबीस, उनकी माता कौन?

प्रश्नकर्ता : स्त्रियाँ।

दादाश्री : तब उन्हें निम्र कक्षा की कैसे कह सकते हैं? स्त्री बनी है इसीलिए मोह तो होगा ही। लेकिन जन्म किसे दिया? बड़े-बड़े सभी तीर्थंकरों को... जन्म ही वे देती हैं, महान लोगों को। उन्हें हम कैसे बुरा-भला कह सकते हैं? लेकिन फिर भी हमारे लोग स्त्रियों को बुरा-भला कहते हैं।

प्रश्नकर्ता : हम लोग सदैव स्त्री से ही कहते हैं कि तुम्हें मर्यादा रखनी चाहिए, पुरुषों से नहीं कहते।

दादाश्री : वह तो अपने मनुष्यपन का गलत उपयोग किया है। सत्ता का दुरुपयोग किया है। सत्ता के दो उपयोग हो सकते हैं। एक सदुपयोग और दूसरा दुरुपयोग। सदुपयोग करो तो सुख बर्तता है, लेकिन अभी भी दुरुपयोग करते हो, इसलिए दु:खी होते हो। जिस सत्ता का दुरुपयोग करें तो वह सत्ता हाथ से चली जाती है और यदि वह सत्ता हमेशा के लिए रखनी हो, हमेशा के लिए पुरुष ही रहना हो आपको, तो सत्ता का दुरुपयोग मत करना, वर्ना अगले जन्म में स्त्री बनना पड़ेगा सत्ताधीशों को! सत्ता का दुरुपयोग करें, तो सत्ता चली जाती है।

कुछ भी हो, पति नहीं हो, पति चला गया हो, फिर भी दूसरे के पास जाए नहीं। वह कैसा भी हो, यदि खुद भगवान पुरुष बनकर आए हों, फिर भी ना। ‘मेरे पास मेरा पति है, मैं पतिव्रता हूँ’ वह सती कहलाती है। इस समय सती कह सकें, ऐसा है इन लोगों का? हमेशा नहीं है ऐसा, नहीं? ज़माना अलग ही तरह का है! सत्युग में ऐसा टाइम कभी-कभी आता है, सतियों के लिए ही। इसलिए सतियों का नाम लेते हैं न लोग!

प्रश्नकर्ता : हाँ।

दादाश्री : वह सती होने की इच्छा के कारण। उनका नाम

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लिया हो तो कभी न कभी सती बनेगी और विषय तो चूड़ियों के भाव बिक रहा है। ऐसा आप जानते हैं? समझे नहीं आप, मेरे कहने का मतलब?

प्रश्नकर्ता : हाँ, चूड़ियों के भाव बिकता है।

दादाश्री : किस बाज़ार में? कॉलिजों में! किस भाव से बिकता है? सोने के भाव से चूड़ियाँ बिकती हैं। वहाँ हीरों के भाव से चूड़ियाँ बिकती हैं! सब जगह ऐसा होता है, नहीं होता? सभी जगह ऐसा नहीं होता। कितनी तो सोना दो तो भी नहीं लेतीं। चाहे कुछ भी दो तो भी नहीं लेतीं। लेकिन बाकी तो बिक जाती हैं, आज की स्त्रियाँ। सोने के भाव नहीं तो दूसरे भाव से भी बिक जाती हैं!

अत: इस विषय के कारण स्त्री बना है, केवल एक विषय के कारण ही और पुरुष ने भोगने के लिए स्त्री को एनकरेज (प्रेरित) किया और बेचारी को बिगाड़ा। बरकत नहीं हो फिर भी खुद में बरकत है, ऐसा मन से मान लेती है। तब पूछें कि कैसे मान लिया? किस तरह माना? पुरुष बार-बार कहते ही रहे, इसलिए वह समझती है कि ये जो कह रहे हैं, उसमें गलत क्या है। अपने आप नहीं मान लेती। आपने कहा हो कि तू बहुत अच्छी है, तेरे जैसी और कोई स्त्री नहीं। उसे कहें कि तू सुंदर है तो वह सुंदर मान लेती है अपने आपको। इन पुरुषों ने स्त्री को स्त्री के रूप में ही रखा। और स्त्री मन में समझती है कि मैं पुरुषों को बनाती हूँ, मूर्ख बनाती हूँ। ऐसा करके पुरुष उसे भोगकर अलग हो जाते हैं।

प्रश्नकर्ता : यानी ऐसा नहीं है कि स्त्री लंबे अरसे तक स्त्री के जन्म में रहेगी, ऐसा निश्चित नहीं है। लेकिन उन्हें पता नहीं चलता, इसलिए इसका उपाय नहीं हो पाता।

दादाश्री : उपाय हो जाए, तो स्त्री, पुरुष ही है। वह उस ग्रंथि को जानती ही नहीं हैं बेचारी और वहाँ पर इन्टरेस्ट आता है, वहाँ मज़ा आता है इसलिए वहीं पड़ी रहती है और कोई ऐसा रास्ता जानता नहीं है इसलिए बताता नहीं हैं। इसे केवल सती स्त्रियाँ ही जानती हैं,

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सतियाँ उनके पति के सिवा अन्य किसी का विचार ही नहीं करतीं, और वह कभी भी नहीं। उसका पति तुरंत मर जाए, चला जाए, फिर भी नहीं। उसी पति को पति मानती है। इसलिए उन स्त्रियों का सारा कपट खत्म हो जाता है।

सतीत्व रखे तो कपट जाने लगता है अपने आप ही। आपको कुछ कहना नहीं पड़ता। मूल सती, जन्म से ही सती होती है। यानी उसमें पहले का कोई दाग़ नहीं होता। जबकि आप में पहले के दाग़ रह जाते हैं, और वापस पुरुष बनती हो। लेकिन पुरुषों में भी जो पुरुष हैं, वे पुरुष बनने के बाद सभी पुरुष एक समान नहीं होते। कुछ पुरुष स्त्रियों जैसे भी होते हैं। थोड़े स्त्री के लक्षण रह जाते हैं और फिर यदि कपट खत्म हो गया और यदि सतीपन आ जाए, तब तो (कपट) खत्म हो जाता है। पुरुष हो तो सती की तरह साफ होते जाता है, और दोष खत्म हो जाते हैं। सतीत्व से सारे दोष खत्म हो जाते हैं। जितनी सतियाँ हुई हैं, उनके सारे दोष खत्म हो जाते हैं और वे मोक्ष में जाती हैं। समझ में आता है कुछ? मोक्ष में जाने के लिए सती बनना पड़ेगा। हाँ, जितनी सतियाँ हुईं, वे मोक्ष में गईं, वर्ना पुरुष बनना पड़ेगा। पुरुष भोले होते हैं बेचारे, जैसे नचाए वैसे नाचते हैं बेचारे। सभी पुरुषों को स्त्रियों ने नचाया है। स्त्रियों में केवल सती स्त्री ही पुरुषों को नहीं नचाती। सती तो परमेश्वर मानती है पति को!

प्रश्नकर्ता : ऐसा जीवन बहुत कम लोगों का देखने को मिलता है।

दादाश्री : इस कलियुग में कहाँ से होगा? सतयुग में भी कुछ ही सतियाँ होती हैं, तो इस कलियुग में कहाँ से होंगी?

अत: स्त्रियों का दोष नहीं है, स्त्रियाँ तो देवी जैसी हैं। स्त्रियों में और पुरुषों में आत्मा तो आत्मा ही है, केवल पैकिंग का फर्क है। ‘डिफरेन्स ऑफ पैकिंग!’ स्त्री तो एक प्रकार का ‘इफेक्ट’ है। और आत्मा पर स्त्री की ‘इफेक्ट’ रहता है। उसकी ‘इफेक्ट’ हम पर नहीं पड़े तो सही। स्त्री, वह तो शक्ति है। इस देश में राजनीति में कैसी-कैसी स्त्रियाँ हो गईं! और धर्मक्षेत्र में जो स्त्री आगे बढ़ी हो, वह तो

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कैसी होगी? इस क्षेत्र से जगत् का कल्याण ही कर दे! स्त्री में तो जगत् कल्याण की शक्ति भरी पड़ी है! उसमें खुद का कल्याण करके दूसरों का कल्याण करने की शक्ति है।

[23] विषय बंद वहाँ प्रेम संबंध

विवाहित जीवन कब शोभायमान होता है? जब दोनों को बुखार चढ़े, और वे दवाई पीएँ, तब। बिना बुखार दवाई पीएँ नहीं। किसी एक को बिना बुखार के वे दवाई पीए, तो वह विवाहित जीवन शोभा नहीं देता। दोनों को बुखार चढ़े तभी दवाई पीओ। दिस इज़ द ऑन्ली मेडिसिन (यह केवल दवाई ही है)। मेडिसिन मीठी हो, उससे कहीं हर रोज़ पीने जैसी नहीं होती। विवाहित जीवन को शोभायमान करना हो तो संयमी पुरुष की आवश्यकता है। ये सभी जानवर असंयमी कहलाते हैं। मनुष्यों का तो संयमी जीवन होना चाहिए। पहले जो राम-सीता आदि हो गए, वे सभी पुरुष संयम वाले थे। स्त्री के साथ संयमी! अभी का यह असंयम क्या दैवी गुण है? नहीं, वह पाशवी गुण है। मनुष्यों में ऐसा नहीं होना चाहिए। मनुष्य असंयमी नहीं होना चाहिए। जगत् समझता ही नहीं कि विषय क्या है! एक बार के विषय में पाँच-पाँच लाख जीव मर जाते हैं, उसकी समझ नहीं होने से यहाँ मौज उड़ाते हैं। समझते नहीं है न! कोई चारा नहीं हो तभी ऐसी हिंसा हो, ऐसा होना चाहिए। लेकिन ऐसी समझ नहीं हो, तब क्या करे?

सभी धर्मों ने उलझन पैदा की कि स्त्रियों का त्याग करो। अरे, स्त्री का त्याग कर दूँ, तो मैं कहाँ जाऊँ? मुझे खाना कौन पका कर देगा? मैं अपना व्यापार करूँ या घर में चूल्हा फूँकूँ?

विवाहित जीवन की सराहना की है उन लोगों ने। शास्त्रकारों ने विवाहित जीवन की कोई निंदा नहीं की है। शादी के सिवाय दूसरा जो भ्रष्टाचार है, उसकी निंदा की है।

प्रश्नकर्ता : विषय, पुत्र प्राप्ति के लिए ही होना चाहिए या फिर बर्थ कंट्रोल करके विषय भोग सकते हैं?

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दादाश्री : नहीं, नहीं। वह तो ऋषि-मुनियों के समय में, पहले तो पति-पत्नी का व्यवहार ऐसा नहीं था। ऋषिमुनि शादी करते थे, तब वे पहले तो शादी करने को मना ही करते थे। तब ऋषि पत्नी ने कहा कि, ‘आप अकेले! आपका संसार ठीक से चलेगा नहीं, प्रवृति ठीक से होगी नहीं, इसलिए हमारी पार्टनरशिप रखो, स्त्रियों की, तो आपकी भक्ति भी होगी और संसार भी चलेगा।’ अत: उन लोगों ने एक्सेप्ट किया, लेकिन कहा कि ‘हम तुम्हारे साथ संसार नहीं बसाएँगे।’ तब इन स्त्रियों ने कहा कि ‘नहीं, हमें एक पुत्र दान और एक पुत्री दान, दो दान देना केवल। तो उस दान जितना ही संग, अन्य कोई संग नहीं। बाद में हमारी आपके साथ संसार में फ्रेन्डशिप।’ अत: उन लोगों ने एक्सेप्ट किया और फिर वे मित्र की भ्रांति ही रहती थीं, पत्नी के रूप में नहीं। वह घर का सब काम निभा लेतीं और ये बाहर का काम निभा लेते। बाद में दोनों भक्ति करने बैठते साथ-साथ। लेकिन अब तो बस यही काम रह गया है! इसलिए बिगड़ गया है सारा। ऋषि-मुनि तो नियम वाले थे।

अभी अगर एक पुत्र या एक पुत्री के लिए शादी करें, तब हर्ज नहीं। बाद में मित्रों की तरह रहें। फिर दु:खदायी नहीं होगा। यह तो सुख खोजते हैं, फिर तो ऐसा ही होगा न! दावा ही दायर करेंगे न! ऋषिमुनि बहुत अलग तरह के थे।

एक पत्नीव्रत का पालन करोगे न? तब कहे, ‘पालन करूँगा’, तो आपका मोक्ष है और अगर दूसरी स्त्री का ज़रा भी विचार आया, वहीं से मोक्ष गया, क्योंकि वह अणहक्क (बिना हक़ का) का है। हक़ का होगा वहाँ मोक्ष और अणहक्क का वहाँ पशुता।

विषय की लिमिट होनी चाहिए। स्त्री-पुरुष का विषय कहाँ तक होना चाहिए? परस्त्री नहीं होनी चाहिए और परपुरुष नहीं होना चाहिए और यदि उसका विचार आए, तो उसे प्रतिक्रमण से धो देना चाहिए। बड़े से बड़ा जोखिम है तो इतना ही, परस्त्री और परपुरुष! खुद की स्त्री जोखिम नहीं है। अब हमारी इसमें कहाँ गलती है? क्या हम डाँटते हैं किसी प्रकार से? इसमें कोई गुनाह है? यह हमारी सायन्टिफिक खोज है! वर्ना साधुओं को यहाँ तक कहा गया है कि

(पृ.९८)

स्त्री की लकड़ी की प्रतिमा हो, उसे भी मत देखना। जहाँ स्त्री बैठी हो, उस जगह बैठना नहीं। पर मैंने ऐसी-वैसी दखल नहीं की है न?

इस काल में एक पत्नीव्रत को हम ब्रह्मचर्य कहते हैं और तीर्थंकर भगवान के समय में जो ब्रह्मचर्य का फल मिलता था, वही फल प्राप्त होगा, उसकी हम गारन्टी देते हैं।

प्रश्नकर्ता : एक पत्नीव्रत कहा, वह सूक्ष्म से भी या केवल स्थूल? मन तो जाए ऐसा है न?

दादाश्री : सूक्ष्म से भी होना चाहिए और यदि मन जाए, तो मन से अलग रहना चाहिए और उनके प्रतिक्रमण करते रहना पड़ेगा। मोक्ष में जाने की लिमिट क्या? एक पत्नीव्रत और एक पतिव्रत।

अगर तू संसारी है, तो तेरे हक़ का विषय भोगना लेकिन अणहक्क का विषय तो भोगना ही मत। क्योंकि इसका फल भयंकर है।

हक़ का छोड़कर अन्य जगह विषय भोग होगा तो वह स्त्री जहाँ जाएगी, वहाँ आपको जन्म लेना पड़ेगा। वह अधोगति में जाए तो आपको भी वहाँ जाना पड़ेगा। आजकल बाहर तो सभी जगह ऐसा ही हो रहा है। कहाँ जन्म होगा उसका ठिकाना ही नहीं है! अणहक्क के विषय जिन्होंने भोगे उन्हें तो भयंकर यातनाएँ भोगनी पड़ेंगी। एकाध जन्म में उनकी बेटी भी चरित्रहीन बनती है। नियम ऐसा है कि जिसके साथ अणहक्क के विषय भोगे हों, वही फिर माँ या बेटी बनकर आती है। अणहक्क का लिया तभी से मनुष्यपन चला जाता है। अणहक्क का विषय तो भयंकर दोष कहलाता है। खुद दूसरों का भोगे तो खुद की बेटियों को लोग भोग लेते हैं। आप किसी का भुगत लें इसलिए खुद की बेटियों को कोई भुगत लें, उसकी चिंता ही नहीं है न!

अणहक्क के विषय में सदैव कषाय होते हैं और कषाय होते हैं इसलिए नर्क में जाना पड़ता है। पर यह लोगों को पता नहीं चलता। इसलिए फिर डरते नहीं है, किसी प्रकार का भय भी नहीं लगता। अभी यह मनुष्य जन्म तो पिछले जन्म में अच्छा किया था, उसका फल है।

(पृ.९९)

विषय आसक्ति से उत्पन्न होते हैं और फिर उसमें से विकर्षण होता है। विकर्षण हो तब बैर बंधता है और बैर के फाउन्डेशन पर यह जगत् खड़ा हुआ है।

लक्ष्मी के कारण बैर बंधता है, अहंकार के कारण बैर बंधता है, लेकिन यह विषय का बैर बहुत ज़हरीला होता है।

इस विषय में से पैदा हुआ चरित्रमोह। वह फिर ज्ञान आदि सबकुछ उड़ा देता है। यानी अभी तक विषय के कारण ही यह सब रुका हुआ है। मूल विषय है और उसमें से लक्ष्मी पर राग बैठा और उसका अहंकार है। अर्थात् यदि मूल विषय चला जाए, तो सबकुछ चला जाए।

प्रश्नकर्ता : तो बीज को सेकना आना चाहिए, मगर उसे किस प्रकार सेकें?

दादाश्री : वह तो अपने इस प्रतिक्रमण से, आलोचना, प्रतिक्रमण-प्रत्याख्यान से।

प्रश्नकर्ता : वही! अन्य उपाय नहीं है?

दादाश्री : अन्य कोई उपाय नहीं है। तप करने से तो पुण्य बंधता है और बीज को सेकने से निराकरण होता है। यह समभाव से निकाल करने का नियम क्या कहता है, तू किसी भी तरह से ऐसा कर दे कि उनसे बैर नहीं बंधे। बैर से मुक्त हो जा।

प्रश्नकर्ता : उसमें बैर कैसे बंधता है? अनंत काल का बैर बीज पड़ता है, वह किस प्रकार से?

दादाश्री : ऐसा है न कि मरा हुआ पुरुष या मरी हुई स्त्री हो तो ऐसा मानो कि उसमें दवाइयाँ भरें, और पुरुष पुरुष जैसा ही रहे और स्त्री स्त्री जैसी ही रहे तो हर्ज नहीं, उनके साथ बैर नहीं बंधेगा। क्योंकि वे जीवित नहीं हैं और ये तो जीवित हैं। अत: यहाँ बैर बंधता है।

प्रश्नकर्ता : वह किस कारण बंधता है?

दादाश्री : अभिप्राय में भिन्नता है इसलिए। आप कहो कि,

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‘मुझे अभी सिनेमा देखने जाना है।’ तब वह कहेगी कि, ‘नहीं, आज तो मुझे नाटक देखने जाना है।’ यानी टाइमिंग नहीं मिलते। यदि एक्ज़ेक्ट टाइमिंग के साथ टाइमिंग मिल रहा हो, तभी शादी करना।

ऐसा है न, इस अवलंबन का जितना भी सुख आपने लिया, वह सारा उधार लिया हुआ सुख है, लोन पर। और लोन ‘री पे’ (वापस चुकता) करना पड़ता है।

आत्मा से सुख नहीं लेते और पुद्गल से सुख माँगा आपने। आत्मा का सुख हो वहाँ हर्ज ही नहीं है, लेकिन पुद्गल के पास भीख माँगी है, वह लौटानी होगी। वह लोन है। जितनी मिठास आती है, उतनी ही उसमें से कड़वाहट भुगतनी होगी। क्योंकि पुद्गल से लोन लिया है। इसलिए उसे ‘री पे’ करते समय उतनी ही कड़वाहट आएगी। पुद्गल से लिया है, इसलिए पुद्गल को ही ‘री पे’ करना होगा।

अभी तो मुझे कितने ही लोग कह जाते हैं कि, ‘मुझ से आजिज़ी करवाती है।’ तब मैंने कहा, ‘तेरा प्रभाव चला गया, फिर और क्या करवाएगी? समझ जा न अभी भी, अभी भी योगी बन जा!’ अब इन्हें कैसे पहुँच पाएँ? इस दुनिया को कैसे पहुँच पाएँ?

एक औरत अपने पति को चार बार साष्टांग करवाती है, तब एक बार छूने देती है। अरे, इसके बजाय यदि ये समाधि ले ले तो क्या बुरा? समुद्र में समाधि ले तो समुद्र सीधा तो है! झंझट तो नहीं! इसके लिए चार बार साष्टांग!

प्रश्नकर्ता : पिछले जन्म में हम उससे टकराए थे, इस जन्म में वह हम से टकराती है। मगर उसका रास्ता तो निकालना पड़ेगा न? सॉल्यूशन तो निकालना पड़ेगा न?

दादाश्री : उसका सॉल्यूशन तो होता है, लेकिन लोगों के मनोबल कच्चे होते हैं न!

विकारी भाग बंद कर देना है तो अपने आप सब बंद हो जाएगा। उसे लेकर सदा के लिए किट-किट चलती रहती है।

(पृ.१०१)

प्रश्नकर्ता : अब यह कैसे किया जाए? इसे बंद किस तरह करें?

दादाश्री : विषय जीतना होगा।

प्रश्नकर्ता : विषय नहीं जीता जाता, इसलिए तो हम आपकी शरण में आए हैं।

दादाश्री : कितने सालों से विषय... बुढ़े होने आए फिर भी विषय? जब देखो तब विषय, विषय और विषय!

प्रश्नकर्ता : इन विषयों को बंद करने पर भी टकराव नहीं टलते इसीलिए तो हम आपके चरणों में आए।

दादाश्री : ऐसा हो ही नहीं सकता। जहाँ विषय बंद है, वहाँ मैंने देखा है, जितने जितने पुरुष मजबूत मन के हैं, उनकी स्त्री तो बिल्कुल उनके कहे अनुसार रहती है।

उसके साथ विषय बंद करने के सिवा और कोई उपाय मिला ही नहीं क्योंकि इस संसार में राग-द्वेष का मूल कारण ही विषय है। मौलिक कारण ही यही है। यहीं से सभी राग-द्वेष जन्मे हैं। संसार सारा यहीं से खड़ा हुआ है। इसलिए संसार बंद करना हो तो यहीं से (विषय) बंद कर देना पड़ेगा।

जिसे क्लेश नहीं करना है, जो क्लेश का पक्ष नहीं लेता, उसे क्लेश होता तो है, पर धीरे-धीरे बहुत कम होता जाता है। यह तो, जो ऐसा मानते हैं कि क्लेश करना ही चाहिए, तब तक क्लेश ज़्यादा होता है। हमें क्लेश के पक्षकार नहीं बनना चाहिए। क्लेश करना ही नहीं है, ऐसा जिसका निश्चय है, उसे क्लेश कम से कम होता है। और जहाँ क्लेश है, वहाँ भगवान तो खड़े ही नहीं रहते न!

डबल बेड का सिस्टम बंद करो और सिंगल बेड का सिस्टम रखो। ये तो सभी कहते हैं, ‘डबल बेड बनाओ, डबल बेड...’ पहले तो हिन्दुस्तान में कोई मनुष्य ऐसे सोता ही नहीं था। कोई भी क्षत्रिय नहीं। क्षत्रिय तो बहुत सख्त होते हैं लेकिन वैश्य भी नहीं। ब्राह्मण

(पृ.१०२)

भी इस प्रकार नहीं सोते, कोई भी मनुष्य नहीं! देखो काल कैसा विचित्र आया है!

जब से हीरा बा के साथ मेरा विषय बंद हुआ, तब से मैं ‘हीरा बा’ कहता हूँ उन्हें। उसके बाद से कोई खास मुश्किल नहीं आई है हमें। और पहले जो थी वह विषय के संग के कारण, सोहबत में तो तोतामस्ती होती थी थोड़ी-बहुत, लेकिन वह तोतामस्ती होती थी। लोग समझें कि इस तोते ने उस तोती को मारना शुरू किया! मगर होती है तोतामस्ती। लेकिन जब तक विषय का डंक है, तब तक यह जाता नहीं। वह डंक निकले, तभी जाएगा। हमारा निजी अनुभव बता रहे हैं। यह तो अपना ज्ञान है, उसके कारण ठीक है वर्ना ज्ञान नहीं हो तो डंक मारता ही रहेगा। उस समय तो अहंकार था न! उसमें अहंकार का एक हिस्सा भोग होता है कि उसने मुझे भोग लिया। और वह कहेगी, उन्होंने मुझे भोग लिया। और यहाँ पर (यह ज्ञान मिलने के बाद) निकाल करते हैं वे, फिर भी वह डिस्चार्ज (निकाली) किच-किच तो रहती ही है। हमें तो वह किच-किच भी नहीं थी, ऐसा मतभेद नहीं था किसी प्रकार का।

विज्ञान तो देखो! संसार के साथ झगड़े ही बंद हो जाएँ। पत्नी के साथ तो झगड़े नहीं, लेकिन सारे संसार के साथ झगड़े बंद हो जाएँ। यह विज्ञान ही ऐसा है और झगड़े बंद हुए अर्थात् मुक्त हुआ।

[24] रहस्य, ऋणानुबंध के...

यानी शादी तो जबरदस्त बंधन है। भैंस को बाड़े में बंद करें ऐसी दशा होती है। इस फँसाव में नहीं पैठे, वही उत्तम। फँसने के बाद भी निकल जाएँ तो और अधिक उत्तम। वर्ना आखिर फल चखने के बाद निकल जाना चाहिए। बाकी, आत्मा किसी का पति, स्त्री या पुरुष या किसी का बेटा बन नहीं सकता, मात्र सभी कर्म पूरे हो रहे हैं! आत्मा में तो कुछ भी परिवर्तन नहीं होता। आत्मा तो आत्मा ही है, परमात्मा ही है। यह तो हम मान बैठे हैं कि यह हमारी स्त्री!

यह चिड़िया सुंदर घोंसला बनाती है, तो उसे कौन सिखाने गया था? यह संसार चलाना तो अपने आप आ जाए ऐसा है। हाँ, ‘स्वरूप

(पृ.१०३)

ज्ञान’ प्राप्त करने के लिए पुरुषार्थ करने की ज़रूरत है। संसार चलाने के लिए कुछ भी करने की ज़रूरत नहीं है। ये मनुष्य अकेले ही ज़रूरत से ज़्यादा अक़्लमंद हैं। इन पशु-पक्षियों के क्या बीवी-बच्चे नहीं हैं? उनकी शादी रचानी पड़ती है? यह तो मनुष्यों को ही बीवी-बच्चे हुए हैं, मनुष्य ही शादी रचाने में लगे हैं।

ये गायें-भैंसें भी शादी करती हैं। बच्चे वगैरह सब होते हैं। लेकिन है वहाँ पर पति? वे भी ससुर बनते हैं, सास बनती हैं, लेकिन वे कहीं बुद्धिमानों की तरह कोई व्यवस्था खड़ी करते हैं? कोई ऐसा कहता है कि मैं इसका ससुर हूँ? फिर भी हमारी तरह का ही सारा व्यवहार है न? वह भी दूध पिलाती है, बछड़े को चाटती है न! हम अक़्ल वाले नहीं चाटते।

आप खुद शुद्धात्मा हैं और ये सभी व्यवहार ऊपर-ऊपर से अर्थात् ‘सुपरफ्लुअस’ करने हैं। खुद ‘होम डिपार्टमेन्ट’ में रहना और ‘फोरिन’ में ‘सुपरफ्लुअस’ रहना। ‘सुपरफ्लुअस’ यानी तन्मयाकार वृत्ति नहीं वह, केवल ‘ड्रामेटिक’। केवल ‘ड्रामा’ ही खेलना है। ड्रामे में घाटा आए, तो भी हँसना है और मुनाफा हो तो भी हँसना है। ‘ड्रामा’ में अभिनय करना पड़ता है, घाटा आए तो वैसा दिखावा करना पड़ता है। मुँह से कहते ज़रूर हैं कि भारी नुकसान हुआ है, लेकिन भीतर तन्मयाकार नहीं होते। हमें ‘लटकती सलाम’ रखनी है। कई लोग नहीं कहते कि भाई, इनके साथ तो मेरा ‘लटकती सलाम’ जैसा संबंध है! उसी प्रकार सारे संसार के साथ रहना है। जिसे सारे संसार के साथ लटकती सलाम रखना आ गया, वह ज्ञानी हो गया। इस शरीर के साथ भी ‘लटकती सलाम’! हम निरंतर सभी के साथ ‘लटकती सलाम’ रखते हैं, फिर भी सब कहते हैं कि ‘आप हम पर बहुत अच्छा भाव रखते हैं।’ मैं व्यवहार सभी निभाता हूँ, मगर आत्मा में रहकर।

प्रश्नकर्ता : क्या ऐसा होता है कि पत्नी के पुण्य से पुरुष का चलता हो? कहते हैं न कि पत्नी के पुण्य से यह लक्ष्मी है या सब अच्छा है, ऐसा होता है?

(पृ.१०४)

दादाश्री : वह तो लोगों ने, कोई अपनी पत्नी को पीट रहा हो न, तो उसे समझाया कि अरे! तेरी औरत का नसीब तो देख। क्यों उस पर चिल्ला रहा है? उसका पुण्य है तो तू खा रहा है, ऐसे शुरू हो गया। सभी जीव अपने पुण्य का ही खाते हैं। आपकी समझ में आ गया न? वह तो ऐसा सब करें तभी रास्ते पर आएँगे न! सब अपने-अपने पुण्य का ही भोगते हैं और खुद का पाप भी खुद ही भुगतते हैं। किसी का कुछ लेना-देना ही नहीं है फिर। उसमें एक बाल जितनी भी झंझट नहीं है।

प्रश्नकर्ता : कोई शुभ कार्य करे, जैसे कि पुरुष दान करे, लेकिन स्त्री का भी उसमें सहयोग हो, तो दोनों को फल मिलता है?

दादाश्री : हाँ, मिलता है न! करने वाला और सहयोग देने वाला अर्थात् करवाने वाला, या फिर कर्ता के प्रति अनुमोदन करने वाला, इन सभी को पुण्य मिलता है। तीनों को, करने वाले-करवाने वाले और अनुमोदन करने वाले को पुण्य मिलता है। आपने जिसे कहा हो कि यह करना, करने योग्य है, वह करवाने वाला कहलाता है, आप करने वाले कहलाते हो और स्त्री विरोध नहीं करे, तो वह अनुमोदना करने वाली। सभी को पुण्य मिलता है। लेकिन करने वाले के हिस्से में पचास प्रतिशत और बाकी पचास प्रतिशत उन दोनों में बंट जाता है।

प्रश्नकर्ता : पूर्व जन्म के ऋणानुबंध में से मुक्त होने के लिए क्या करना चाहिए?

दादाश्री : आपका जिनके साथ पूर्व जन्म का ऋणानुबंधन हो और आपको वह पसंद ही नहीं हो, उसका सहवास पसंद ही नहीं हो, फिर भी उसके सहवास में रहना ही पड़े, तो क्या करना चाहिए? उसके साथ बाहर का व्यवहार ज़रूर रखना चाहिए, मगर भीतर उसके नाम के प्रतिक्रमण करने चाहिए। क्योंकि हमने पिछले जन्म में अतिक्रमण किया था, उसका यह परिणाम है। क्या कॉज़ेज़ किए थे? कहते हैं कि उसके साथ अतिक्रमण किया था पूर्व जन्म में, उसका इस जन्म में फल आया, अत: उसका प्रतिक्रमण करोगे, तो वह खत्म हो जाएगा।

(पृ.१०५)

अत: भीतर उससे माफी माँग लो। माफी माँगते रहो कि मैंने जो दोष किए हों, उनकी माफी माँगता हूँ। किसी भी भगवान को साक्षी रखकर माफी माँग लो, तो सब खत्म हो जाएगा। वर्ना फिर क्या होता है कि उसके प्रति ज़्यादा दोष दृष्टि रखने से, जैसे कि किसी पुरुष को स्त्री बहुत दोषित देखे तो तिरस्कार बढ़ेगा और तिरस्कार हो, तब भय लगता है। आपको जिसके प्रति तिरस्कार होगा, उससे भय लगेगा आपको। उसे देखते ही आपको घबराहट होती है, इससे समझ लो कि यह तिरस्कार है। अत: तिरस्कार छोड़ने के लिए आप भीतर माफी माँगते रहो। दो ही दिनों में वह तिरस्कार बंद हो जाएगा। उसे पता नहीं चलता, आप भीतर माफी माँगते रहो उसके नाम की, उसके प्रति जो जो दोष किए हों, ‘हे भगवान, मैं क्षमा माँगता हूँ। यह मेरे दोष का परिणाम है।’ किसी भी मनुष्य के प्रति जो-जो दोष किए हों, उसके भीतर आप माफी माँगते रहो भगवान से, तो सब धुल जाएगा।

प्रश्नकर्ता : हमें धर्म के मार्ग पर जाना हो, तो घर संसार छोड़ना पड़ता है। यह धर्मकार्य के लिए अच्छा है, परंतु घर के लोगों को दु:ख हो, किन्तु खुद के लिए घर संसार छोड़ें तो वह अच्छा कहलाएगा?

दादाश्री : नहीं। घर वालों का हिसाब चुकाना ही पड़ेगा। उनका हिसाब चुकाने के बाद, वे सभी खुश होकर कहें कि ‘आप जाइए’, तब कोई हर्र्ज नहीं। लेकिन उन्हें दु:ख हो ऐसा नहीं करना है। क्योंकि उस एग्रीमेन्ट का भंग नहीं कर सकते।

प्रश्नकर्ता : भौतिक संसार छोड़ देने का मन होता है, तो क्या करें?

दादाश्री : भौतिक संसार में घुसने का मन होता था न, एक दिन?

प्रश्नकर्ता : तब तो ज्ञान नहीं था। अब तो ज्ञान मिला है इसलिए उसमें फर्क पड़ता है।

दादाश्री : हाँ, उसमें फर्क पड़ेगा लेकिन यदि उसमें घुसे हो, तो निकलने का रास्ता खोजना पड़ेगा। यों ही भाग नहीं सकते।

(पृ.१०६)

प्रश्नकर्ता : प्रत्येक दिन कम होता जा रहा है।

दादाश्री : ‘मेरा’ कहकर मरते हैं। असल में ‘मेरा’ है नहीं। फिर वह जल्दी चली जाए तो हमें अकेले बैठे रहना पड़ेगा। सच्चा हो तो दोनों को साथ ही जाना चाहिए न? और अगर पति के पीछे सती हो जाए, तो भी वह किस राह गई होगी और यह पति किस राह गया होगा? सबकी अपने-अपने कर्मों के हिसाब से गति होती है। कोई जानवर में जाता है, कोई मनुष्य में जाता है, कोई देवगति में जाता है। उसमें सती कहेगी कि मैं आपके साथ मर जाऊँ तो आपके साथ मेरा जन्म होगा, लेकिन ऐसा कुछ बनता नहीं है। यह तो सब बावलापन है। पति-पत्नी, ऐसा कुछ है नहीं। यह तो बुद्धिशाली लोगों ने व्यवस्था की है।

प्रश्नकर्ता : भाई कहते हैं, कि यदि किसी प्रकार की तकरार नहीं हो, तो अगले जन्म में फिर साथ में रह सकेंगे?

दादाश्री : इस जन्म में ही रहा नहीं जाता। इस जन्म में ही डायवोर्स हो जाते हैं, तो फिर अगले जन्म की कहाँ बात करते हो? ऐसा प्रेम है ही नहीं न! अगले जन्म के प्रेम वालों में तो क्लेश ही नहीं होता। वह तो इज़ी लाइफ (सरल ज़िंदगी) होती है। बहुत प्रेम की ज़िंदगी होती है। भूल ही नहीं दिखें। भूल करे तो भी नहीं दिखे, ऐसा प्रेम होता है।

प्रश्नकर्ता : अगर ऐसी प्रेम वाली ज़िंदगी हो, तो फिर अगले जन्म में वे ही फिर से मिलते हैं या नहीं?

दादाश्री : हाँ, मिलते हैं न, किसी की ऐसी ज़िंदगी हो तो मिलते हैं। सारी ज़िंदगी क्लेश नहीं हुआ हो तो मिलते हैं।

[25] आदर्श व्यवहार, जीवन में...

दादाश्री : ज़िंदगी को सुधारें किस प्रकार?

प्रश्नकर्ता : सच्चे मार्ग पर चलकर।

(पृ.१०७)

दादाश्री : कितने साल तक सुधारनी है? सारी ज़िंदगी? कितने साल, कितने दिन, कितने घंटे, किस प्रकार सुधरेगा वह सब?

प्रश्नकर्ता : मालूम नहीं मुझे।

दादाश्री : हं.. इसलिए सुधरता नहीं है न! और वास्तव में दो ही दिन सुधारने हैं, एक वर्किंग डे (काम पर जाने का दिन) और एक है तो होलीडे (छुट्टी का दिन)। दो ही दिन सुधारने हैं, सुबह से शाम तक। दो में परिवर्तन लाए तो सभी परिवर्तित हो जाएँगे। दो की सेटिंग कर दी तो हर दिन उसी अनुसार चलता रहेगा और उस अनुसार चलोगे तो सब सही हो जाएगा। लंबा-चौड़ा परिवर्तन करना ही नहीं है। ये सब भी हर रोज़ परिवर्तन नहीं करते। इन दो की ही सेटिंग करनी है। इन दो दिनों की व्यवस्था की न तो सभी दिन उनमें समा गए।

प्रश्नकर्ता : वह व्यवस्था किस तरह करनी है?

दादाश्री : क्यों? सुबह उठो तो उठकर पहले भगवान का जो स्मरण करना हो, वह कर लेना। पहले तो सवेरे जल्दी उठने का रिवाज़ रखना चाहिए। क्योंकि क़रीब पाँच बजे से उठ जाना चाहिए मनुष्य को। तो आधा घंटा अपनी एकाग्रता का सेवन करना चाहिए। किसी इष्टदेव या जो भी हों, उनकी भक्ति कुछ एक या आधे घंटे, ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए। ऐसा रोज़ चलता रहेगा फिर। बाद में उठकर ब्रश आदि सब कर लेना। ब्रश में भी सिस्टम सेट कर देनी चाहिए। आप खुद ही ब्रश लेना, सब-कुछ खुद ही करना, अन्य किसी को नहीं कहना चाहिए। अगर बीमार-वीमार हों तो बात अलग है। फिर चाय-पानी आए, तब कलह नहीं करनी चाहिए और जो कुछ भी आया वह पी लेना चाहिए, और पीने के बाद उनसे कहना कि थोड़ी शक्कर कम पड़ती है, कल से ज़रा ज़्यादा डालना। आपको उन्हें कहना है सिर्फ। कलह मत करना। चाय के साथ नाश्ता-वाश्ता जो करना हो, वह कर लिया और फिर खाना खाकर जॉब पर जाना हो, तो भोजन करके जॉब पर गए तो वहाँ के फ़र्ज़ अदा करना।

यहाँ घर से कलह किए बगैर निकलना। फिर जॉब करके वापस

(पृ.१०८)

आए, और जॉब पर बॉस के साथ झंझट हो गई हो, तो उसे रास्ते में शांत कर देना। इस ब्रेन (दिमाग़) का चेक नट दबा देना, अगर वह रेज़ (गरम) हो गया हो तो। शांत होकर घर में जाना, यानी घर में कुछ तकरार मत करना। बॉस के साथ लड़ता है तो, उसमें बीवी का क्या दोष बेचारी का? तेरा बॉस के साथ झगड़ा होता है या नहीं होता?

प्रश्नकर्ता : होता है।

दादाश्री : तो उसमें बीवी का क्या दोष? वहाँ लड़कर आया हो, तो बीवी समझ जाती है कि आज अच्छे मूड में नहीं है। अच्छे मूड में नहीं होता न?

प्रश्नकर्ता : हाँ।

दादाश्री : अत: ऐसी व्यवस्था एक दिन की कर दो, वर्किंग डे की और एक होलीडे की। दो ही तरह के दिन आते हैं। तीसरा दिन कोई आता ही नहीं न? इसलिए दो दिनों की व्यवस्था की, उसके अनुसार चलता रहेगा फिर।

प्रश्नकर्ता : अब छुट्टी के दिन क्या करना है?

दादाश्री : छुट्टी के दिन तय करना कि आज छुट्टी का दिन है, इसलिए आज बाल-बच्चे, वाइफ, सभी को कहीं घूमने को नहीं मिलता हो तो आज इन्हें घूमाने ले जाएँगे, भोजन के बाद। अच्छा-अच्छा भोजन बनाना चाहिए। भोजन के बाद घूमाने ले जाना चाहिए। फिर घूमने में खर्च की मर्यादा रखना कि होलीडे के दिन इतना ही खर्च! किसी वक्त एकस्ट्रा करना पड़े, तो हम बजट बनाएँगे, वर्ना इतना ही खर्च। यह सब तय करना चाहिए आपको। वाइफ से ही तय करवाना आप।

प्रश्नकर्ता : वे कहते हैं कि घर में पूरनपूरी (मीठी रोटी) खानी चाहिए। पिज़्ज़ा खाने बाहर नहीं जाना है।

दादाश्री : खुशी से पूरनपूरी खाओ, सब खाओ, पकोड़े खाओ, जलेबी खाओ। जो चाहे सो खाओ।

(पृ.१०९)

प्रश्नकर्ता : लेकिन होटल में पिज़्ज़ा खाने नहीं जाना है।

दादाश्री : पिज़्ज़ा खाने? वह हम से कैसे खाया जाए? हम तो आर्य प्रजा। फिर भी शौक़ हो तो दो-चार बार खिलाकर फिर धीरे-धीरे छुड़वा देना। धीरे-धीरे छुड़वा देना। एकदम से आप बंद कर दो तो वह गलत कहलाएगा। आप साथ में खाने लगना और फिर छुड़वा देना धीरे-धीरे।

प्रश्नकर्ता : वाइफ को बनाने का शौक़ नहीं हो तो हमें क्या करना चाहिए?

दादाश्री : आपको शौक़ बदल देना चाहिए। दूसरी बहुत-सी चीज़ें हैं अपने यहाँ। शौक़ बदल देना। राई-मेथी के तड़के वाला नहीं भाता हो तो दालचीनी और काली मीर्च का तड़का लगवा देना ताकि अच्छा लगे। पिज़्ज़ा में तो क्या खाने जैसा है?

यानी व्यवस्था करो तो सारा जीवन अच्छी तरह बीतेगा और सुबह आधा घंटा भगवान की भक्ति करो तो काम ढंग से चलेगा। तुझे तो ज्ञान प्राप्त हो गया, इसलिए तू तो समझदार हो गया अब। लेकिन दूसरों को ज्ञान नहीं मिला हो, उन्हें कुछ भक्ति करनी चाहिए न! तेरा तो सब ठीक से चलने लगा है न!

यह अक्रम विज्ञान व्यवहार को नहीं हिलाता। प्रत्येक ज्ञान, व्यवहार का तिरस्कार करता है। यह विज्ञान व्यवहार का किचिंत् मात्र तिरस्कार नहीं करता और खुद की ‘रियालिटी’ में संपूर्ण रहकर व्यवहार का तिरस्कार नहीं करता है। जो व्यवहार का तिरस्कार नहीं करे, वही सैद्धांतिक वस्तु होती है। सैद्धांतिक वस्तु किसे कहते हैं कि जो कभी भी असैद्धांतिकता को प्राप्त न हो, वह सिद्धांत कहलाता है। कोई ऐसा कोना नहीं है, जहाँ असिद्धांत हो। अर्थात् यह ‘रियल साइन्स’ है, ‘कम्पलीट साइन्स’ है। व्यवहार का किचिंत्मात्र भी तिरस्कार नहीं करवाता!

किसी को ज़रा-सा भी दु:ख नहीं हो, वह आखरी ‘लाइट’

(पृ.११०)

कहलाती है। विरोधी को भी शांति होती है। विरोधी भी ऐसा कहे कि ‘भाई, इनका और मेरा मतभेद है, पर उनके प्रति मुझे भाव है, आदर है’ ऐसा कहता है आखिर! विरोध तो होता ही है। हमेशा विरोध तो रहने वाला ही है। 360 डिग्री का और 356 डिग्री का भी विरोध होता ही है। इसी प्रकार इन सभी जगह विरोध तो होता ही है। एक ही डिग्री पर सभी मनुष्य नहीं आ सकते। एक ही विचार श्रेणी पर सभी मनुष्य नहीं आ सकते क्योंकि मनुष्य की विचार श्रेणियों की चौदह लाख योनियाँ हैं। बोलिए, कितने ‘एडजस्ट’ हो सकते हैं हम से? कुछ ही योनियाँ ‘एडजस्ट’ हो सकती हैं। सभी नहीं हो सकतीं।

घर में तो सुंदर व्यवहार कर देना चाहिए। ‘वाइफ’ के मन में ऐसा लगे कि ऐसा पति कभी मिलेगा नहीं और पति के मन में ऐसा लगे कि ऐसी ‘वाइफ’ भी कभी नहीं मिलेगी! ऐसा हिसाब ला दें, तब हम सच्चे!

प्रश्नकर्ता : अध्यात्म में तो आपकी बात के लिए कुछ कहने जैसा है ही नहीं पर व्यवहार में भी आपकी बातें ‘टॉप’ की बातें हैं!

दादाश्री : ऐसा है न, कि व्यवहार में ‘टॉप’ का समझे बिना कोई मोक्ष में गए नहीं है। भले ही कितना भी, बारह लाख का आत्मज्ञान हो, लेकिन व्यवहार को समझे बगैर कोई मोक्ष में नहीं गए है क्योंकि व्यवहार ही छुड़वाएगा न! वह नहीं छोड़े तो आप क्या करोगे? आप ‘शुद्धात्मा’ ही हैं लेकिन व्यवहार आपको छोड़े तब न? आप व्यवहार को उलझाते रहते हो। उसका झटपट हल ला दो न!

- जय सच्चिदानंद

मूल गुजराती शब्दों के समानार्थी शब्द

अणहक्क : बिना हक़ का

ऊपरी : बॉस, वरिष्ठ मालिक

उपाधि : बाहर से आनेवाले दु:ख

भोगवटा : सुख-दु:ख का असर

निकाल : निपटारा

चीकणे : गाढ़

त्रागा : अपनी मनमानी/बात मनवाने के लिए किए जानेवाला नाटक

नोंध : अत्यंत राग अथवा द्वेष सहित लम्बे समय तक याद रखना, नोट करना

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