दादा भगवान कथित

भावना से सुधरें जन्मोंजन्म

मूल गुजराती संकलन : डॉ. नीरू बहन अमीन

अनुवाद : महात्मागण

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संपादकीय
भावना से सुधरें जन्मोंजन्म

संपादकीय

सुबह से लेकर शाम तक घर में या बाहर, लोगों के मुँह से ऐसा सुनने में आता है कि हम ऐसा नहीं करना चाहते हैं फिर भी ऐसा हो जाता है। ऐसा करना चाहते हैं मगर ऐसा नहीं होता। भावना प्रबल है, पक्का निश्चय है, प्रयत्न भी करते हैं, फिर भी नहीं होता है।

सभी धर्मोपदेशकों की साधकों के लिए हमेशा यह शिकायत रहती है कि हम जो कहते हैं, उसको आप आत्मसात् नहीं करते हैं। श्रोता भी हताश होकर अकुलाते हैं कि धर्म संबंधी इतना कुछ करने पर भी हमारे वर्तन में क्यों नहीं आता? इसका रहस्य क्या है? कहाँ रुकावट है? किस प्रकार इस भूल का निवारण हो सकता है?

परम पूज्य दादा भगवान (दादाश्री) ने इस काल के मनुष्यों की कैपेसिटी(क्षमता) को देखकर, उनकी योग्यतानुसार इसका हल एक नए ही अभिगम से, संपूर्ण वैज्ञानिक ढंग से प्रस्तुत किया है। दादाश्री ने वैज्ञानिक तरीके से स्पष्टीकरण करते हुए कहा है कि वर्तन तो परिणाम है, इफेक्ट है और भाव वह कारण है, कॉज़ है। परिणाम में सीधे ही परिवर्तन नहीं लाया जा सकता है। वह भी उसकी वैज्ञानिक रीति के अनुसार ही लाया जा सकता है। कारण बदलने पर परिणाम अपने आप ही बदल जाता है। कारण बदलने के लिए अब इस जन्म में नए सिरे से भाव बदलिए। उस भाव परिवर्तन के लिए दादाश्री ने नौ कलमों के अनुसार भावना करना सिखाया है। सभी शास्त्र जो उपदेश करते हैं, जिसका कोई परिणाम नहीं आता है, उसका सारांश नौ कलमों के द्वारा दादाश्री ने आमूल परिवर्तन की चाबी के रूप में दे दिया है। जिसका अनुसरण करके लाखों लोगों ने इस जीवन को तो सही मगर आनेवाले जन्मों को भी सुधार लिया है। वास्तव में इस जन्म में बाहर से परिवर्तन नहीं होता है लेकिन इन नौ कलमों की भावना करने से भीतर में नए कारण मूल से बदल जाते हैं और ज़बरदस्त अंतर शांति का अनुभव होता है। अन्य के दोषों को देखना बंद हो जाता है, जो परम शांति प्रदान करने का परम कारण बन जाता है। और उसमें भी कईओं ने तो पूर्व में नौ कलमों जैसी ही कुछ भावना की थी, जो आज के इस अनुसंधान में परिणमित होकर तुरंत ही वर्तमान वर्तन में चरितार्थ हो जाती है।

कोई भी सिद्धि प्राप्त करनी हो तो उसके लिए सिर्फ खुद के अंदर विद्यमान भगवान के पास शक्तियाँ बार-बार माँगनी चाहिए। जो निश्चित रूप से फल देंगी ही।

दादाश्री अपने विषय में कहते हैं कि, ‘हमने इन नौ कलमों का आजीवन पालन किया है, यह तो पूँजी है। अर्र्थात् यह हमारा रोज़मर्रा का माल (अनुभव ज्ञान) है, जो बाहर ज़ाहिर किया है। मैंने अपने भीतर ये नौ कलमें, जो चालीस-चालीस सालों से निरंतर चलती रही हैं, उन्हें आखिरकार लोककल्याण हेतु ज़ाहिर किया है।’

कईं साधकों को यह मान्यता ²ढ़ हो जाती है कि मैं इन नौ कलमों की सारी बातें जानता हूँ और मुझे ऐसा ही रहता है, मगर उनसे पूछे कि आपके द्वारा किसी को दु:ख होता है क्या? उनके घर के या नज़दीकी रिश्तेदारों से पूछने पर वे ‘हाँ’ कहते हैं। उसका अर्थ यही होता है कि वे सही मानों में नहीं समझें हैं। ऐसा समझा हुआ काम नहीं आता है। असल में तो ज्ञानीपुरुष ने अपने जीवन में जो सिद्ध किया हो, वही अनुभवगम्य वाणी के द्वारा प्रदान किया गया हो तभी क्रियाकारी होता है। अर्र्थात् वह भावना ज्ञानीपुरुष द्वारा दी गई डिज़ाइन (योजना) के अनुसार होनी चाहिए तभी काम देंगी और मोक्षमार्ग पर तेज़ी से प्रगति कराएँगी। और अंतत: ऐसा परिणाम दिलाएँगी कि खुद से किसी भी जीव को किंचित्मात्र दु:ख नहीं होगा, इतना ही नहीं लेकिन नौ कलमों की प्रतिदिन भावना करने पर कितने ही दोष धुल जाते हैं और हम मोक्षमार्ग पर आगे बढ़ पाते हैं।

- डॉ. नीरू बहन अमीन

भावना से सुधरें जन्मोंजन्म

(नौ कलमें - सार, सभी शास्त्रों का)

उससे टूटे अंतराय तमाम

मैं एक पुस्तक पढऩे के लिए देता हूँ। बड़ी पुस्तकें पढऩे के लिए नहीं देता, एक छोटी-सी आपके लिए! उसे पढऩा ज़रा, यों ही!

प्रश्नकर्ता : ठीक है।

दादाश्री : एक बार इसे पढ़ लो ना, पूरी पढ़ लो। यह दवाई दे रहा हूँ, यह पढऩे की दवाई है। यह नौ कलमें हैं, इन्हें सिर्फ पढऩा ही है, यह कुछ करने की दवाई नहीं है। बाकी आप जो करते हो, वह सब ठीक है लेकिन यह तो भावना करने की दवाई है, इसलिए यह जो दे रहे हैं, उसे पढ़ते रहना। इससे तमाम प्रकार के अंतराय टूट जाएँगे।

इसलिए पहले एक-दो मिनट ये नौ कलमें पढ़ लीजिए।

प्रश्नकर्ता : नौ कलमें...

१. हे दादा भगवान ! मुझे किसी भी देहधारी जीवात्मा का किंचित्मात्र भी अहम् न दुभे (ठेस न पहुँचे), न दुभाया जाए या दुभाने के प्रति अनुमोदना न की जाए, ऐसी परम शक्ति दीजिए।

मुझे किसी देहधारी जीवात्मा का किंचित्मात्र भी अहम् न दुभे, ऐसी स्याद्वाद वाणी, स्याद्वाद वर्तन और स्याद्वाद मनन करने की परम शक्ति दीजिए।

२. हे दादा भगवान ! मुझे किसी भी धर्म का किंचित्मात्र भी प्रमाण न दुभे, न दुभाया जाए या दुभाने के प्रति अनुमोदना न की जाए, ऐसी परम शक्ति दीजिए।

मुझे किसी भी धर्म का किंचित्मात्र भी प्रमाण न दुभाया जाए ऐसी स्याद्वाद वाणी, स्याद्वाद वर्तन और स्याद्वाद मनन करने की परम शक्ति दीजिए।

३. हे दादा भगवान ! मुझे किसी भी देहधारी उपदेशक, साधु, साध्वी या आचार्य का अवर्णवाद, अपराध, अविनय न करने की परम शक्ति दीजिए।

४. हे दादा भगवान ! मुझे किसी भी देहधारी जीवात्मा के प्रति किंचित्मात्र भी अभाव, तिरस्कार कभी भी न किया जाए, न करवाया जाए या कर्ता के प्रति अनुमोदना न की जाए, ऐसी परम शक्ति दीजिए।

५. हे दादा भगवान ! मुझे किसी भी देहधारी जीवात्मा के साथ कभी भी कठोर भाषा, तंतीली भाषा न बोली जाए, न बुलवाई जाए या बोलने के प्रति अनुमोदना न की जाए, ऐसी परम शक्ति दीजिए।

कोई कठोर भाषा, तंतीली भाषा बोले तो मुझे, मृदु-ऋजु भाषा बोलने की शक्ति दीजिए।

६. हे दादा भगवान ! मुझे किसी भी देहधारी जीवात्मा के प्रति, स्त्री, पुरुष या नपुंसक, कोई भी लिंगधारी हो, तो उसके संबंध में किंचित्मात्र भी विषय-विकार संबंधी दोष, इच्छाएँ, चेष्टाएँ या विचार संबंधी दोष न किए जाएँ, न करवाए जाएँ या कर्ता के प्रति अनुमोदना न की जाए, ऐसी परम शक्ति दीजिए।

मुझे निरंतर निर्विकार रहने की परम शक्ति दीजिए।

७. हे दादा भगवान ! मुझे किसी भी रस में लुब्धता न हो ऐसी शक्ति दीजिए।

समरसी आहार लेने की परम शक्ति दीजिए।

८. हे दादा भगवान ! मुझे किसी भी देहधारी जीवात्मा का प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष, जीवित अथवा मृत, किसी का किंचित्मात्र भी अवर्णवाद, अपराध, अविनय न किया जाए, न करवाया जाए या कर्ता के प्रति अनुमोदना न की जाएँ, ऐसी परम शक्ति दीजिए।

९. हे दादा भगवान ! मुझे जगत् कल्याण करने का निमित्त बनने की परम शक्ति दीजिए, शक्ति दीजिए, शक्ति दीजिए।

(यह दिन में तीन बार पढऩा है।)

इतना आपको दादा भगवान से माँगते रहना है। यह प्रतिदिन यंत्रवत् पढऩे की चीज़ नहीं है, हृदय में रखने की चीज़ है। यह प्रतिदिन उपयोगपूर्वक भावना करने की चीज़ है। इतने पाठ में तमाम शास्त्रों का सार आ जाता है।

दादाश्री : सभी शब्द पढ़ लिए?

प्रश्नकर्ता : हाँ जी, सब अच्छी तरह पढ़ लिया।

अहम् नहीं दुभे...

प्रश्नकर्ता : १. ‘हे दादा भगवान ! मुझे किसी भी देहधारी जीवात्मा का किंचित्मात्र भी अहम् न दुभे (ठेस न पहुँचे), न दुभाया जाए या दुभाने के प्रति अनुमोदना न की जाए, ऐसी परम शक्ति दीजिए।

मुझे, किसी देहधारी जीवात्मा का किंचित्मात्र भी अहम् न दुभे, ऐसी स्याद्वाद वाणी, स्याद्वाद वर्तन और स्याद्वाद मनन करने की परम शक्ति दीजिए।’ इसे समझाइए।

दादाश्री : किसी का अहम् नहीं दुभे, इसलिए हम स्याद्वाद वाणी माँगते हैं। ऐसी वाणी आपको धीरे-धीरे उत्पन्न होगी। मैं जो

वाणी बोलता हूँ न, वह मुझे यह भावना करने के फल स्वरूप ही प्राप्त हुई है।

प्रश्नकर्ता : लेकिन इसमें किसी के अहम् को ठेस नहीं पहुँचानी चाहिए, तो इसका अर्थ ऐसा तो नहीं है न कि किसी के अहम् का पोषण करें?

दादाश्री : नहीं। ऐसे अहम् का पोषण नहीं करना है। यह तो अहम् को ठेस नहीं पहुँचानी है, ऐसा होना चाहिए। मैं कहूँ कि काँच के गिलास मत फोड़ना, उसका अर्थ ऐसा नहीं है कि आप काँच के गिलास का ध्यान रखना। वे अपनी जगह सुरक्षित ही पड़े हैं। इसलिए फोड़ना मत। फिर वे तो सुरक्षित उनकी स्थिति में ही पड़े हैं। आप अपने निमित्त से मत फोड़ना। यदि वे फूट रहे हों तो आप अपने निमित्त से मत फोड़ना। और आपको सिर्फ यह भावना करनी है कि मुझे, किसी जीव को किंचित्मात्र दु:ख नहीं हो, उसका अहंकार भग्न नहीं हो, ऐसा रखना चाहिए। उसे उपकारी मानते हैं।

प्रश्नकर्ता : व्यापार में सामने वाले का अहम् नहीं दुभे ऐसा हमेशा नहीं रह पाता, किसी न किसी के अहम् को तो ठेस लग ही जाती है।

दादाश्री : उसे ‘अहम् दुभाना’ नहीं कहते। अहम् दुभाना यानी क्या कि वह बेचारा कुछ बोलना चाहे और हम कहें, ‘चुप बैठ, तू कुछ मत बोल।’ ऐसे उसके अहंकार को दुभाना नहीं चाहिए। और व्यापार में तो अहम् दुभाना यानी उसमें वास्तव में अहम् नहीं दुभता, भीतर मन दुभता है।

प्रश्नकर्ता : लेकिन अहम् तो कोई अच्छी वस्तु नहीं है, तो फिर उसे दुभाने में क्या हर्ज है?

दादाश्री : वह खुद ही अभी अहंकार स्वरूप है, इसलिए उसे

(पृ.५)

नहीं दुभाना चाहिए। वह खुद ही है सब, वह जो कुछ भी करता है, उसमें मैं ही हूँ, ऐसा वह मानता है। इसलिए नहीं दुभाना चाहिए। इसलिए आप घर में भी किसी को नहीं डाँटना। किसी का अहंकार नहीं दुभे ऐसा रखना। किसी का भी अहंकार नहीं दुभाना चाहिए। लोगों का अहंकार दुभाने से वे आपसे जुदा हो जाते हैं, फिर कभी आपको नहीं मिलते। आपको किसी से ऐसा नहीं कहना चाहिए कि, ‘तू यूज़लेस (निकम्मा) है, तू ऐसा है, वैसा है।’ ऐसे किसी का मान भंग नहीं करना चाहिए। हाँ, डाँट सकते हैं, डाँटने में हर्ज नहीं है। कुछ भी हो लेकिन किसी का अहंकार नहीं दुभाना चाहिए। सिर पर चोट लगे उसमें हर्ज नहीं, लेकिन उसके अहंकार पर चोट नहीं लगनी चाहिए। किसी का अहंकार भग्न नहीं करना चाहिए।

कोई मज़दूर हो, उसका भी तिरस्कार नहीं करना। तिरस्कार से उसका अहम् दुभता है। हमें उसकी ज़रूरत नहीं हो तो उससे कहें कि ‘भैया, मुझे तेरा काम नहीं है’ और यदि उसका अहंकार दुभता नहीं हो तो पैसे देकर भी उसे काम से अलग कर देना। पैसे तो आ जाएँगे लेकिन उसका अहम् नहीं दुभाना चाहिए। वर्ना वह बैर बाँधेगा, ज़बरदस्त बैर बाँधेगा! हमारा कल्याण नहीं होने देगा, बीच में आएगा।

यह तो बहुत गहन बात है! अब इसके बावजूद किसी का अहंकार आपसे दुभाया गया हो तो यहाँ हमारे पास (इस कलम अनुसार) शक्ति माँगना। यानी जो हुआ उससे खुद का अभिप्राय अलग रखते हैं, इसलिए उसकी अधिक ज़िम्मेदारी नहीं रहती। क्योंकि अब उसका अभिप्राय अलग हो गया है। अहंकार दुभाने का जो ‘ओपिनियन’ (अभिप्राय) था, वह इस प्रकार माँग करने से उसका ‘ओपिनियन’ अलग हो गया।

प्रश्नकर्ता : अभिप्राय से अलग हो गया यानी क्या?

दादाश्री : ‘दादा भगवान’ तो समझ गए न कि इस बेचारे को

(पृ.६)

अब किसी का अहम् दुभाने की इच्छा नहीं है। अपनी खुद की ऐसी इच्छा नहीं है फिर भी हो जाता है। जबकि जगत् के लोगों को इच्छा सहित हो जाता है। अर्थात् यह कलम बोलने से क्या होता है कि हमारा अभिप्राय अलग हो गया। इसलिए हम उनकी ओर से मुक्त हो गए।

अर्थात् यह शक्ति ही माँगनी है। आपको कुछ करना नहीं है, सिर्फ शक्ति ही माँगनी है। इसे अमल में नहीं लाना है।

प्रश्नकर्ता : शक्ति माँगने की बात ठीक है, लेकिन हमें ऐसा क्या करना चाहिए कि जिससे दूसरों का अहम् नहीं दुभे?

दादाश्री : नहीं, ऐसा कुछ नहीं करना है। इस कलम के अनुसार आपको सिर्फ बोलना है, बस! और कुछ करना नहीं है। अभी जो अहम् दुभाया जाता है वह फल (डिस्चार्ज में) आया हुआ है। अभी जो हुआ है वह तो ‘डिसाइडेड’ हो गया है, उसे रोका भी नहीं जा सकता। उसे बदलने जाना वह तो सिर्फ माथापच्ची है। लेकिन यह कलम बोलें तो फिर ज़िम्मेदारी ही नहीं रहती।

प्रश्नकर्ता : और यह बोलना वह सच्चे दिल से होना चाहिए।

दादाश्री : वह तो सच्चे दिल से ही सब करना चाहिए। और जो भी मनुष्य करता है न, वह गलत दिल से नहीं करता, सच्चे दिल से ही करता है। लेकिन इसमें खुद का अभिप्राय अलग हो गया। यह एक तरह का बहुत बड़ा विज्ञान है।

इसके अनुसार कुछ करना नहीं है, आपको तो ये नौ कलमें बोलना ही है। शक्ति ही माँगनी है कि ‘दादा भगवान, मुझे शक्ति दो। मुझे यह शक्ति चाहिए।’ इससे आपको शक्ति प्राप्त होगी और ज़िम्मेदारी मिट जाएगी। जबकि जगत् कौन सा ज्ञान सिखलाता है? ‘ऐसा मत करो’। लोग क्या कहते हैं कि अरे भाई, मुझे नहीं करना है फिर भी

(पृ.७)

हो जाता है। इसलिए आपका ज्ञान हमें ‘फिट’ (अनुकूल) नहीं होता है। यह जो आप कहते हैं, इससे आगे का बंद नहीं होता और आज का रूकता नहीं, इसलिए दोनों ही बिगड़ते हैं। अर्थात् ‘फिट’ हो ऐसा होना चाहिए।

भाव प्रतिक्रमण, तत्क्षण ही

प्रश्नकर्ता : जब सामने वाले का अहंकार दुभाया, तब ऐसा होता है कि यह मेरा अहंकार बोला न?

दादाश्री : नहीं, ऐसा अर्थ करने की ज़रूरत नहीं है। अपनी जागृति क्या कहती है? यह हमारा मोक्षमार्ग यानी अंतर्मुखी मार्ग है। निरंतर अंदर की जागृति में ही रहना और सामने वाले का अहम् दुभाया हो तो तुरंत उसका प्रतिक्रमण कर लेना, यही आपका काम है। आप तो इतने सारे प्रतिक्रमण करते हैं उसमें एक ज़्यादा! हम से भी यदि कभी किसी का अहम् दुभाया गया हो, तो हम भी प्रतिक्रमण करते हैं।

इसलिए सुबह के समय में ऐसा बोलना कि, ‘मेरे मन-वचन-काया से किसी भी जीव को किंचित्मात्र भी दु:ख नहीं हो।’ ऐसा पाँच बार बोलकर घर से निकलना और फिर जो दु:ख हो तो वह आपकी इच्छा के विरुद्ध हुआ है, उसका शाम को प्रतिक्रमण कर लेना।

प्रतिक्रमण यानी क्या? दाग़ लगते ही तुरंत धो डालना। फिर कोई हर्ज नहीं है। फिर क्या झंझट? प्रतिक्रमण कौन नहीं करता? जिसे (अज्ञान रूपी) बेहोशी है, वे मनुष्य प्रतिक्रमण नहीं करते। बाकी मैंने जिनको ज्ञान प्रदान किया है, वे मनुष्य कैसे हो गए हैं? विचक्षण पुरुष हो गए हैं, प्रति क्षण सोचने वाले। बाईस तीर्थंकरों के अनुयायी विचक्षण थे। वे ‘शूट ऑन साइट’ ही प्रतिक्रमण करते थे। दोष हुआ कि तुरंत ही ‘शूट’! और आजकल के लोग ऐसा नहीं कर पाएँगे, इसलिए भगवान ने यह रायशी-देवशी (रात भर में हुए दोषों के लिए सुबह माफी माँगना - दिनभर में हुए दोषों के लिए रात को माफी माँगना), पाक्षिक और पर्युषण में संवत्सरी प्रतिक्रमण करना बताया है।

(पृ.८)

स्याद्वाद वाणी, वर्तन, मनन...

प्रश्नकर्ता : अब ‘किसी का भी अहम् न दुभे, ऐसी स्याद्वाद वाणी, स्याद्वाद वर्तन और स्याद्वाद मनन करने की परम शक्ति दीजिए।’ इसे ज़रा समझाइए।

दादाश्री : स्याद्वाद का अर्थ ये कि सब लोग किस भाव से, किस ‘व्यू पोइन्ट’ (दृष्टिकोण) से कहते हैं, हमें यह समझना चाहिए।

प्रश्नकर्ता : सामने वाले का ‘व्यू पोइन्ट’ समझना वह स्याद्वाद कहलाता है ?

दादाश्री : सामने वाले का ‘व्यू पोइन्ट’ समझना और उसके मुताबिक व्यवहार करना, उसका नाम स्याद्वाद। उसके ‘व्यू पोइन्ट’ को दु:ख नहीं पहुँचे ऐसा व्यवहार करना। चोर के ‘व्यू पोइन्ट’ को भी दु:ख नहीं हो उस तरह आप बोलें, उसका नाम स्याद्वाद!

हम जो बात करते हैं, वह मुस्लिम हो या पारसी हो, सभी को एक जैसी ही समझ में आती है। किसी का प्रमाण नहीं दुभता कि ‘पारसी ऐसे हैं या स्थानकवासी ऐसे हैं।’ ऐसा दु:ख नहीं होना चाहिए।

प्रश्नकर्ता : यहाँ पर कोई चोर बैठा हो, उसे हम कहें कि चोरी करना अच्छा नहीं है, तो उसका मन तो दुभेगा ही न?

दादाश्री : नहीं, ऐसा मत कहना। हमें उसे कहना चाहिए कि ‘चोरी करने का फल ऐसा आता है। तुझे ठीक लगे तो करना।’ ऐसा कह सकते हैं। अर्थात् बात सही तरीके से करनी चाहिए। तब वह सुनने को भी तैयार होगा। वर्ना तो वह बात को सुनेगा ही नहीं और

(पृ.९)

उल्टे आपके शब्द व्यर्थ जाएँगे। अपना बोला हुआ व्यर्थ जाएगा और ऊपर से वह बैर बाँधेगा कि ‘बड़े आए नसीहत देने वाले!’ ऐसा नहीं होना चाहिए।

लोग कहते हैं कि चोरी करना गुनाह है। लेकिन चोर क्या समझता है कि चोरी करना मेरा धर्म है। हमारे पास कोई चोर को लेकर आए तो हम उसके कंधे पर हाथ रखकर अकेले में पूछेंगे कि ‘भाई, यह बिज़नेस (धंधा) तुझे अच्छा लगता है? तुझे पसंद है?’ फिर वह अपनी सब हक़ीकत बताएगा। हमारे पास उसे भय नहीं लगता। मनुष्य भय के कारण झूठ बोलता है। फिर उसे समझाएँ कि, ‘यह जो तू करता है उसकी ज़िम्मेदारी क्या आती है? उसका फल क्या है, यह तुझे मालूम है?’ और ‘तू चोरी करता है’ ऐसा तो हमारे मन में भी नहीं होता। यदि ऐसा हमारे मन में होता तो उसके ऊपर असर पड़ता। हर कोई अपने-अपने धर्म में है। किसी भी धर्म का प्रमाण नहीं दुभे, उसका नाम स्याद्वाद वाणी। स्याद्वाद वाणी संपूर्ण होती है। प्रत्येक की प्रकृति अलग-अलग होती है, फिर भी स्याद्वाद वाणी किसी की भी प्रकृति को हरकत नहीं करती।

प्रश्नकर्ता : स्याद्वाद मनन अर्थात् क्या?

दादाश्री : स्याद्वाद मनन अर्थात् विचारणा में, विचार करते समय भी किसी धर्म का प्रमाण नहीं दुभाना चाहिए। वर्तन में तो होना ही नहीं चाहिए लेकिन विचार में भी नहीं होना चाहिए। बाहर बोलें वह अलग लेकिन मन में भी ऐसे अच्छे विचार होने चाहिए कि सामने वाले का प्रमाण नहीं दुभे। क्योंकि मन में जो विचार आते हैं, वे सामने वाले को पहुँचते हैं। इसलिए तो इन लोगों के मुँह चढ़े हुए होते हैं। क्योंकि आपके विचार वहाँ पहुँचकर उन्हें असर करते हैं।

प्रश्नकर्ता : किसी के प्रति खराब विचार आए तो प्रतिक्रमण करना चाहिए?

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दादाश्री : हाँ, नहीं तो फिर उसका मन बिगड़ेगा। और प्रतिक्रमण करो तो उसका बिगड़ा हुआ मन होगा तो भी फिर से सुधर जाएगा। किसी के लिए भी बुरा या ऐसा-वैसा नहीं सोचना चाहिए। ऐसा कुछ भी नहीं करना चाहिए। ‘सब सबकी सँभालो’। अपना-आपना सँभालो, बस! और कोई झंझट नहीं।

धर्म का प्रमाण नहीं दुभे...

प्रश्नकर्ता : २. हे दादा भगवान ! मुझे किसी भी धर्म का किंचित्मात्र भी प्रमाण न दुभे, न दुभाया जाए या दुभाने के प्रति अनुमोदना न की जाए, ऐसी परम शक्ति दीजिए।

मुझे किसी भी धर्म का किंचित्मात्र भी प्रमाण न दुभाया जाए ऐसी स्याद्वाद वाणी, स्याद्वाद वर्तन और स्याद्वाद मनन करने की परम शक्ति दीजिए।

दादाश्री : किसी का भी प्रमाण नहीं दुभाना चाहिए। कोई भी गलत है, ऐसा नहीं लगना चाहिए। यह ‘एक’ भी संख्या कहलाती है या नहीं कहलाती?

प्रश्नकर्ता : हाँ जी।

दादाश्री : तो ‘दो’ संख्या कहलाती है या नहीं कहलाती?

प्रश्नकर्ता : हाँ, कहलाती है।

दादाश्री : तब ‘सौ’ संख्या वाले क्या कहेंगे? ‘हमारा सही, आपका गलत।’ ऐसा नहीं कह सकते। सभी का सही है। ‘एक’ का ‘एक’ के अनुसार, ‘दो’ का ‘दो’ के अनुसार, प्रत्येक का उसके अनुसार सही है। अर्थात् हर एक का (व्यू पोइन्ट) जो स्वीकार करता है, उसका नाम स्याद्वाद। एक वस्तु अपने गुणधर्म में है और हम उसके कुछ

(पृ.११)

ही गुणों का स्वीकार करें और बाकी के गुणों का अस्वीकार करें, यह गलत है। स्याद्वाद यानी प्रत्येक के प्रमाण अनुसार। 360 डिग्री होने पर सभी का सही कहलाता है लेकिन उसकी डिग्री तक उसका सही और इसकी डिग्री तक इसका सही होता है।

कोई भी धर्म गलत है ऐसा हम नहीं बोल सकते। हर एक धर्म सही है, कोई गलत नहीं है, हम किसी को गलत कह ही नहीं सकते न। वह उसका धर्म है। मांसाहार करता हो, उसे हम गलत कैसे कह सकते हैं? वह कहेगा, ‘मांसाहार करना मेरा धर्म है।’ तो हम ‘मना’ नहीं कर सकते। वह उनकी मान्यता है, उनकी बिलीफ है। हम किसी की बिलीफ का खंडन नहीं कर सकते। लेकिन जो शाकाहारी परिवार में जन्मे हैं, यदि वे लोग मांसाहार करते हों तो हमें उन्हें कहना चाहिए कि, ‘भैया, यह अच्छी बात नहीं है।’ फिर उसे मांसाहार करना हो तो उसमें हम विरोध नहीं कर सकते। हमें समझाना चाहिए कि यह वस्तु हेल्पफुल (सहायक) नहीं है।

स्याद्वाद यानी किसी धर्म का प्रमाण नहीं दुभाना चाहिए। जितनी मात्रा में सत्य हो उतनी मात्रा में उसे सत्य कहें और जितनी मात्रा में असत्य हो उसे असत्य भी कहें। उसका अर्थ प्रमाण नहीं दुभाया। क्रिश्चियन प्रमाण, मुस्लिम प्रमाण, किसी भी धर्म का प्रमाण नहीं दुभाना चाहिए। क्योंकि सभी धर्म 360 डिग्री में समा जाते हैं। रियल इज़ द सेन्टर एन्ड ऑल दीस आर रिलेटिव व्यूज़ (रियल सेन्टर है और ये सारे रिलेटिव-सापेक्ष दृष्टिकोण हैं।) सेन्टर वाले के लिए सभी रिलेटिव व्यूज़ समान हैं। भगवान का स्याद्वाद यानी किसी को किंचित्मात्र दु:ख नहीं हो, फिर चाहे कोई भी धर्म हो।

अर्थात् स्याद्वाद मार्ग ऐसा होता है। हर एक के धर्म को स्वीकार करना पड़ता है। सामने वाला दो थप्पड़ मारे तो भी हमें स्वीकार करना चाहिए, क्योंकि सारा जगत् निर्दोष है। दोषित दिखाई देता है, वह

(पृ.१२)

आपके दोष के कारण दिखाई देता है। बाकी, जगत् दोषित है ही नहीं। लेकिन आपकी बुद्धि दोषित दिखाती है कि इसने गलत किया।

अवर्णवाद, अपराध, अविनय...

प्रश्नकर्ता : ३. ‘हे दादा भगवान ! मुझे किसी भी देहधारी उपदेशक साधु, साध्वी या आचार्य का अवर्णवाद, अपराध, अविनय न करने की परम शक्ति दीजिए।’ इसमें जो अवर्णवाद शब्द है न, उसकी यथार्थ समझ क्या है?

दादाश्री : किसी भी तरह जैसा है वैसा बताने के बजाय उल्टा बताना, वह अवर्णवाद कहलाता है। जैसा है वैसा तो नहीं लेकिन ऊपर से उससे उल्टा। जैसा है वैसा चित्रण करें, गलत को गलत और सही को सही कहें, तो अवर्णवाद नहीं कहलाता। लेकिन पूरा ही गलत कहें, तब अवर्णवाद कहलाता है। लेकिन सभी कुछ ही गलत कहें, तब अवर्णवाद कहलाता है। हर एक मनुष्य में कुछ तो अच्छा होगा या नहीं होगा? और थोड़ा उल्टा भी होगा। लेकिन उसका सब कुछ उल्टा बताएँ, तब फिर वह अवर्णवाद कहलाता है। ‘इस मामले में ज़रा ऐसे हैं, लेकिन दूसरे मामलों में बहुत अच्छे हैं,’ ऐसा होना चाहिए।

अवर्णवाद यानी हम किसी के बारे में जानते हैं, उसकी कुछ बाबतें जानते हैं। फिर भी उसके विरुद्ध बोलें और जो गुण उसमें नहीं है वैसे गुणों की सभी बातें बताएँ, वे सभी अवर्णवाद। वर्णवाद यानी क्या कि ‘जो है वह कहना और अवर्णवाद यानी जो नहीं है वह कहना।’ वह तो भारी विराधना कहलाती है, बहुत बड़ी विराधना कहलाती है। सामान्य लोगों के संदर्भ में निंदा कहलाती है किन्तु महान पुरुषों का तो अवर्णवाद कहलाता है। महान पुरुष यानी जो अंतर्मुख हुए हैं वे। महान पुरुष यानी इस व्यवहार में महान हैं वैसे नहीं, प्रेसिडेन्ट (राष्ट्रपति) हो उसके लिए नहीं, अंतर्मुख हुए पुरुषों का

(पृ.१३)

अवर्णवाद करना, वह तो बड़ा जोखिम है! अवर्णवाद बड़ा जोखिमी है! वह तो विराधना से भी बढ़कर है।

प्रश्नकर्ता : उपदेशक, साधु-आचार्यों के लिए ऐसा कहा है न?

दादाश्री : हाँ, वे सभी। वे भले ही राह पर हों या नहीं हों, ज्ञान हो या नहीं हो, यह हमें नहीं देखना है। वे भगवान महावीर के आराधक हैं न! भगवान महावीर के नाम पर करते हैं न? वे जो भी करें, सही या गलत, लेकिन भगवान महावीर के नाम पर करते हैं न? इसलिए उनका अवर्णवाद नहीं कर सकते।

प्रश्नकर्ता : अवर्णवाद और विराधना में क्या अंतर है?

दादाश्री : विराधना करने वाला तो उल्टा जाता है, नीचे जाता है, अधोगति में और अवर्णवाद करने वाला तो फिर प्रतिक्रमण करे तो फिर बाधा नहीं आती, रेग्यूलर हो जाता है। किसी का अवर्णवाद करें, लेकिन फिर प्रतिक्रमण करें तो शुद्ध हो जाता है।

प्रश्नकर्ता : अविनय और विराधना के बारे में ज़रा समझाइए?

दादाश्री : अविनय विराधना नहीं कहलाता। अविनय तो निम्न स्टेज है और विराधना तो, सचमुच में उसके विरुद्ध गया कहलाता है। अविनय यानी मुझे कुछ लेना-देना नहीं है, ऐसा। विनय नहीं करे, उसका नाम अविनय।

प्रश्नकर्ता : अपराध यानी क्या?

दादाश्री : आराधना करने वाला मनुष्य ऊपर चढ़ता है और विराधना करने वाला नीचे उतरता है। लेकिन अपराध करता हो तो दोनों ओर से मार खाता है। अपराध करने वाला खुद तो आगे नहीं बढ़ता और किसी को बढऩे भी नहीं देता। वह अपराधी कहलाता है।

(पृ.१४)

प्रश्नकर्ता : और विराधना में भी किसी को आगे बढऩे नहीं देता न?

दादाश्री : लेकिन विराधना वाला बेहतर। किसी को पता चला तो फिर वह कहेगा न कि, ‘क्या देखकर इस ओर चल पड़े? अहमदाबाद इस ओर होता होगा कहीं?’ तब वह लौट भी आए मगर अपराधी तो लौटेगा भी नहीं औरे आगे भी नहीं बढ़ेगा। विराधना वाला तो उल्टा चलता है इसलिए गिर पड़ता है न!

प्रश्नकर्ता : लेकिन विराधना वाले को वापस लौटने का मौका है क्या?

दादाश्री : हाँ, वापस लौटने का मौका तो है ही न!

प्रश्नकर्ता : अपराध वाले को वापस लौटने का मौका है क्या?

दादाश्री : वह तो वापस लौट भी नहीं सकता और आगे भी नहीं बढ़ सकता। उसकी कोई कक्षा ही नहीं है। आगे बढ़े नहीं और पीछे जाए नहीं। जब देखो तब वहीं का वहीं, उसका नाम अपराध।

प्रश्नकर्ता : अपराध की परिभाषा क्या है?

दादाश्री : विराधना बिना इच्छा के होती है और अपराध इच्छापूर्वक होता है।

प्रश्नकर्ता : वह किस तरह होता है, दादाजी?

दादाश्री : ज़िद पर अड़ा हो तो वह अपराध कर बैठता है। जानता है कि यहाँ विराधना करने जैसा नहीं है, फिर भी विराधना करता है। जानता हो फिर भी विराधना करे वह अपराध में जाता है। विराधना करने वाला छूट जाता है लेकिन अपराध करने वाला नहीं छूटता। बहुत तीव्र भारी अहंकार हो वह अपराध कर बैठता है। इसलिए

(पृ.१५)

आपको अपने आप से कहना पड़ता है कि, ‘भैया, तू तो पागल है। बिना वजह (अहंकार का) पावर लेकर चलता है। यह तो लोग नहीं जानते मगर मैं जानता हूँ कि तू कैसा है? तू तो चक्कर है।’ ऐसे हमें इलाज करना पड़ता है। प्लस और माइनस करना पड़ता है, अकेला गुणा ही करता हो तो कहाँ पहुँचेगा? इसलिए हमें भाग करना होगा। ज़ोड-बाकी (प्लस-माइनस) नेचर के अधीन है, जबकि गुणा-भाग मनुष्य के हाथ में है। इस अहंकार द्वारा सात से गुणा किया हो तो सात से भाग देना, तब नि:शेष होगा।

प्रश्नकर्ता : किसी की निंदा करें उसकी गिनती किस में होगी?

दादाश्री : निंदा विराधना कहलाती है लेकिन प्रतिक्रमण करने से धुल जाती है। वह अवर्णवाद के समान है। इसलिए तो हम कहते हैं कि किसी की निंदा मत करना। फिर भी लोग पीछे से निंदा करते हैं। अरे, निंदा नहीं करनी चाहिए। यह वातावरण सारा परमाणुओं से ही भरा है, इसलिए सबकुछ उसे पहुँच जाता है। एक शब्द भी किसी के बारे में गैरज़िम्मेदारी वाला नहीं बोल सकते और बोलना है तो कुछ अच्छा बोलिए। कीर्ति बयान करना, अपकीर्ति बयान मत करना।

अत: किसी की निंदा में मत पड़ना। प्रशंसा नहीं कर सको तो हर्ज नहीं, लेकिन निंदा में मत पड़ना। मैं कहता हूँ कि निंदा करने में हमें क्या फायदा है? उसमें तो भारी नुकसान है। इस जगत् में यदि कोई ज़बरदस्त नुकसान है तो वह निंदा करने में है। इसलिए किसी की भी निंदा करने का कारण नहीं होना चाहिए।

यहाँ निंदा जैसी वस्तु ही नहीं होती। हम समझने के लिए ये बातें करते हैं कि क्या सही और क्या गलत! भगवान ने क्या कहा? कि गलत को गलत जान और अच्छे को अच्छा जान। लेकिन गलत जानते समय उस पर किंचित्मात्र द्वेष नहीं रहना चाहिए और अच्छा जानते समय उस पर किंचित्मात्र राग नहीं रहना चाहिए। गलत को

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गलत नहीं जानते तो अच्छे को अच्छा नहीं जान सकते। इसलिए हमें विगतपूर्वक बात करनी चाहिए। ज्ञानी के पास ही ज्ञान समझ में आता है।

अभाव, तिरस्कार नहीं किया जाए...

प्रश्नकर्ता : ४. हे दादा भगवान ! मुझे किसी भी देहधारी जीवात्मा के प्रति किंचित्मात्र भी अभाव, तिरस्कार कभी भी न किया जाए, न करवाया जाए या कर्ता के प्रति अनुमोदना न की जाए, ऐसी परम शक्ति दीजिए।

दादाश्री : हाँ, ठीक है। हमें किसी के लिए अभाव हो, मान लीजिए कि आप ऑफिस में बैठे हैं और कोई आया तो आपको उसके प्रति अभाव हुआ, तिरस्कार हुआ, तो फिर आपको मन में सोचकर उसका पछतावा करना चाहिए कि ऐसा नहीं होना चाहिए।

इस तिरस्कार से कभी भी नहीं छूट सकते। उसमें तो निरे बैर ही बंधते हैं। किसी के भी प्रति ज़रा-सा भी तिरस्कार होगा, अरे इस निर्जीव के साथ भी तिरस्कार होगा तो भी आप नहीं छूट पाएँगे। अर्थात् किसी के प्रति ज़रा-सा भी तिरस्कार नहीं चलेगा। और जब तक किसी के लिए तिरस्कार होगा, तब तक वीतराग नहीं हो पाएँगे। वीतराग होना पड़ेगा, तभी आप छूट सकेंगे।

कठोर-तंतीली भाषा नहीं बोली जाए...

प्रश्नकर्ता : ५. हे दादा भगवान ! मुझे किसी भी देहधारी जीवात्मा के साथ कभी भी कठोर भाषा, तंतीली (चुभने वाली) भाषा न बोली जाए, न बुलवाई जाए या बोलने के प्रति अनुमोदना न की जाए, ऐसी परम शक्ति दीजिए। कोई कठोर भाषा, तंतीली भाषा बोले तो मुझे, मृदु-ऋजु भाषा बोलने की शक्ति दीजिए।

दादाश्री : कठोर भाषा नहीं बोलनी चाहिए। किसी के साथ

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कठोर भाषा निकल गई और उसे बुरा लगा तो हमें उसको रूबरू कहना चाहिए कि ‘भैया, मुझ से भूल हो गई, माफ़ी माँगता हूँ।’ और यदि रूबरू में नहीं कह पाएँ ऐसा हो तो फिर भीतर पछतावा करना कि ऐसा नहीं बोलना चाहिए।

प्रश्नकर्ता : और फिर से हमें सोचना चाहिए कि ऐसा नहीं बोलना है।

दादाश्री : हाँ, ऐसा सोचना चाहिए और पछतावा करना चाहिए। पछतावा करें तो ही वह बंद होता है वर्ना यों ही बंद नहीं होता। सिर्फ बोलने से बंद नहीं होता।

प्रश्नकर्ता : मृदु-ऋजु भाषा यानी क्या?

दादाश्री : ऋजु यानी सरल और मृदु यानी नम्रतापूर्ण। अत्यंत नम्रतापूर्ण हो तो मृदु कहलाती है। अर्थात् सरल और नम्रतापूर्ण भाषा हम बोलें और ऐसी शक्ति माँगे, तो ऐसा करते-करते वह शक्ति आएगी। आप कठोर भाषा बोलें और बेटे को बुरा लगा तो उसका पछतावा करना और बेटे से भी कहना कि, ‘मैं माफ़ी माँगता हूँ। अब फिर से ऐसा नहीं बोलूँगा।’ यही वाणी सुधारने का रास्ता है और ‘यह’ एक ही कॉलेज है।

प्रश्नकर्ता : कठोर भाषा और तंतीली भाषा तथा मृदुता-ऋजुता, इनमें क्या भेद है?

दादाश्री : कई लोग कठोर भाषा बोलते हैं न कि, ‘तू नालायक है, बदमाश है, चोर है।’ जो शब्द हमने सुने नहीं हो! ऐसे कठोर वचन सुनते ही हमारा हृदय स्तंभित हो जाता है। कठोर भाषा ज़रा भी प्रिय नहीं लगती। उल्टे मन में प्रश्न उठता है कि फिर यह सब क्या है? कठोर भाषा अहंकारी होती है।

(पृ.१८)

और तंतीली भाषा यानी क्या? स्पर्धा में जैसे तंत होता है न? ‘देखो, मैंने कैसा बढिय़ा खाना पकाया और उसे तो पकाना ही नहीं आता!’ ऐसे तंत हो जाता है, स्पर्धा में आ जाता है। वह तंतीली भाषा बहुत बुरी होती है।

कठोर और तंतीली भाषा नहीं बोलनी चाहिए। भाषा के सारे दोष इन दो शब्दो में समा जाते हैं। इसलिए फुरसत के समय में ‘दादा भगवान’ से हम शक्ति माँगते रहें। कर्कश बोला जाता हो तो उसकी प्रतिपक्षी शक्ति माँगना कि मुझे शुद्ध वाणी बोलने की शक्ति दो, स्याद्वाद वाणी बोलने की शक्ति दो, मुदु-ऋजु भाषा बोलने की शक्ति दो, ऐसा माँगते रहना। स्याद्वाद वाणी यानी किसी को दु:ख नहीं हो ऐसी वाणी।

निर्विकार रहने की शक्ति दो

प्रश्नकर्ता : ६. ‘हे दादा भगवान ! मुझे किसी भी देहधारी जीवात्मा के प्रति, स्त्री, पुरुष या नपुंसक, कोई भी लिंगधारी हो, तो उसके संबंध में किंचित्मात्र भी विषय-विकार संबंधी दोष, इच्छाएँ, चेष्टाएँ या विचार संबंधी दोष न किए जाएँ, न करवाए जाएँ या कर्ता के प्रति अनुमोदना न की जाए, ऐसी परम शक्ति दीजिए। मुझे, निरंतर निर्विकार रहने की परम शक्ति दीजिए।’

दादाश्री : आपकी दृष्टि बिगड़ते ही आप तुरंत अंदर ‘चंदूभाई’ (चंदूभाई की जगह पाठक स्वयं को समझे) से कहना, ‘ऐसा नहीं करना चाहिए। ऐसा हमें शोभा नहीं देता। हम खानदानी क्वॉलिटी के (गुण वाले) हैं। जैसी हमारी बहन होती है, वैसे वह भी दूसरे की बहन है। हमारी बहन पर किसी की कुदृष्टि हो तो हमें कितना दु:ख होगा! वैसे दूसरों को भी दु:ख होगा या नहीं होगा? इसलिए हमें ऐसा शोभा नहीं देता। अर्थात् दृष्टि बिगड़़े तो पछतावा करना चाहिए।

(पृ.१९)

प्रश्नकर्ता : चेष्टाएँ, इसका क्या अर्थ है?

दादाश्री : देह से होने वाली सारी क्रियाएँ, जिसकी तस्वीर खींची जा सकती हैं वे सारी चेष्टाएँ कहलाती हैं। आप मज़ाक उड़ाते हों, वह चेष्टा है। ऐसे हँसते हों वह भी चेष्टा कहलाती है।

प्रश्नकर्ता : अर्थात् किसी की हँसी उड़ाना, किसी का मज़ाक उड़ाना वे चेष्टाएँ कहलाती हैं?

दादाश्री : हाँ, ऐसी बहुत प्रकार की चेष्टाएँ हैं।

प्रश्नकर्ता : तो यह विषय-विकार संबंधी चेष्टाएँ किस तरह से हैं?

दादाश्री : विषय-विकार के बारे में देह ऐसी जो-जो क्रियाएँ करे, जिसकी तस्वीर ली जा सके, वे सारी चेष्टाएँ कहलाती हैं। जो क्रिया देह से नहीं हो, उसे चेष्टा नहीं कहते। कभी ये इच्छाएँ होती हैं, मन में विचार आते हैं, लेकिन चेष्टाएँ नहीं हुई होती हैं। विचार संबंधी दोष वे मन के हैं।

‘मुझे निरंतर निर्विकार रहने की शक्ति दीजिए।’ इतना आप ‘दादाजी’ से माँगना। ‘दादाजी’ तो दानेश्वर हैं।

रस में लुब्धता न हो...

प्रश्नकर्ता : ७. ‘हे दादा भगवान ! मुझे किसी भी रस में लुब्धता न हो ऐसी शक्ति दीजिए। समरसी आहार लेने की परम शक्ति दीजिए।’

दादाश्री : भोजन लेते समय आपको अमुक सब्ज़ी, जैसे कि टमाटर की ही रुचि हो, जिसकी आपको फिर से याद आती रहे, तो वह लुब्धता हुई कहलाती है। टमाटर खाने में हर्ज नहीं है लेकिन फिर से याद नहीं आना चाहिए। वर्ना हमारी सारी शक्ति लुब्धता में चली

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जाएगी। इसलिए हमें कहना चाहिए कि, ‘जो भी आए मुझे मंज़ूर है।’ किसी भी प्रकार की लुब्धता नहीं होनी चाहिए। थाली में जो खाना आए, आमरस और रोटी आए, तो आराम से खाना। उसमें किसी प्रकार का हर्ज नहीं है। लेकिन जो आए उसे स्वीकार करना, दूसरा कुछ याद नहीं करना।

प्रश्नकर्ता : समरसी यानी क्या?

दादाश्री : समरसी यानी पूरणपूरी (मीठी रोटी), दाल-भात, सब्ज़ी सब खाइए, मगर अकेली पूरणपूरी ही ठूँस-ठूँसकर नहीं खानी चाहिए।

कुछ लोग मिठाई खाना छोड़ देते हैं, तब मीठाई उस पर दावा करेगी कि मेरे साथ तुझे क्या तकलीफ है? दोष भैंसे का और दंड चरवाहे को! अरे, जीभ की क्या गलती? गलती तो भैंसे की है। भैंसे की गलती यानी अज्ञानता की गलती।

प्रश्नकर्ता : लेकिन समरसी भोजन यानी क्या? उसमें भाव की समानता किस प्रकार रहती है?

दादाश्री : आप लोगों के समाज में जैसा भोजन बनाते हैं न, वह आपकी ‘समाज’ की रुचि अनुसार समरसी लगे, वैसा भोजन बनाते हैं। और अन्य लोगों को आपके ‘समाज’ का खिलाएँ तो उन्हें समरसी नहीं लगेगा, आप लोग मिर्च आदि कम खाने वाले हों। प्रत्येक जाति का समरसी भोजन अलग-अलग होता है। समरसी भोजन यानी टेस्टफुल, स्वादिष्ट भोजन। मिर्च ज़्यादा नहीं, फलाना ज़्यादा नहीं, सब उचित मात्रा में डाली हुई वस्तु। कोई कहता है कि, ‘मैं तो सिर्फ दूध पीकर चला लूँगा।’ यह समरसी आहार नहीं कहलाता। समरसी यानी भली-भाँति छ: प्रकार के रस साथ मिलाकर खाओ, टेस्टफुल बनाकर खाओ। कड़वा नहीं खा पाओ तो करेले खाओ, कंकोड़ा खाओ, मेथी खाओ

(पृ.२१)

लेकिन कड़वा भी लेना चाहिए। कड़वा नहीं लेते इसी वज़ह से तो सारे रोग होते हैं। इसलिए फिर क्विनाइन (कड़वी दवाई) लेनी पड़ती है! उस रस की कमी होने से यह तकलीफ होती है। अर्थात् सभी रस लेने चाहिए।

प्रश्नकर्ता : मतलब समरसी लेने के लिए भी शक्ति माँगनी है कि हे दादा भगवान! मैं समरसी आहार ले सकूँ ऐसी शक्ति दीजिए।

दादाश्री : हाँ, आप यह शक्ति माँगना। आपकी भावना क्या है? समरसी आहार लेने की आपकी भावना हुई, वही आपका पुरुषार्थ। और मैं शक्ति दूँ, इससे आपका पुरुषार्थ मज़बूत हो गया।

प्रश्नकर्ता : किसी भी रस में लुब्धता नहीं होनी चाहिए, वह भी ठीक है?

दादाश्री : हाँ, अर्थात् किसी को ऐसा तो नहीं होना चाहिए कि मुझे खटाई के सिवा और कुछ रुचिकर नहीं लगता। कुछ कहते हैं कि, ‘हमें मीठा खाए बगैर मज़ा नहीं आता।’ तब तीखे ने क्या गुनाह किया? कुछ कहें, ‘हमें मीठा भाता ही नहीं, अकेला तीखा ही चाहिए।’ यह सब समरसी नहीं कहलाता। समरसी यानी सब ‘एक्सेप्टेड (स्वीकार्य)’। कम-ज़्यादा मात्रा में पर सब एक्सेप्टेड।

प्रश्नकर्ता : समरसी आहार और ज्ञान, इन दोनों के बीच क्या कनेक्शन है? ज्ञान जागृति में जो आहार समरसी नहीं हो वह नहीं लिया जा सकता?

दादाश्री : समरसी आहार के लिए तो ऐसा है न कि हमारे (ज्ञानप्राप्त) महात्माओं के लिए तो अब ‘जो हुआ सो व्यवस्थित’ है, फिर उनको क्या खाना और क्या नहीं खाना, उसका कहाँ झग़डा है? यह तो आम लोगों को बताया है और हमारे महात्माओं को भी थोड़ा विचार में तो आएगा कि हो सके उतना समरसी आहार लेना चाहिए।

(पृ.२२)

मैं ही कहता हूँ कि ‘भाई ज़रा मिर्च तो मुझे दीजिए और फिर ये भी कहता हूँ (मिर्च से) कि खाँसी के कारण बन रहे हैं! फिर उसकी दवाई होती हैं उसे भी ‘मैं जानता हूँ, क्योंकि ये प्रकृति है न!’

प्रकृति का गुणा-भाग

प्रश्नकर्ता : अर्थात् प्रकृति को समरसी (भोजन) होना चाहिए, ऐसा है?

दादाश्री : प्रकृति यानी क्या? तेरह से गुणा की गई चीज़ तेरह से भाग करेंगे तब प्रकृति पूरी होगी। अब किसी ने सत्रह से गुणा की गई चीज़ को तेरह से भाग करेंगे तो क्या होगा? इसलिए मैंने अलग ही तरह का गुणा किया।

प्रश्नकर्ता : अर्थात् तेरह से गुणा किया उसे तेरह से ही भाग करना है?

दादाश्री : ऐसा करेंगे तभी नि:शेष होगा न!

प्रश्नकर्ता : उसका उदाहरण किस तरह ले सकते हैं?

दादाश्री : प्रकृति यानी पहले जो भाव किए हुए हैं, वे किस आधार पर किए कि जो अन्य सभी आहार खाया उसके आधार पर भाव किए। अब उस भाव को तेरह से गुणा किया। अब उस भाव को उड़ा देना हो तो तेरह से भाग करेंगे तब नि:शेष होगा। और फिर से नए भाव उत्पन्न नहीं होने दिया तो वह खाता बंद हो गया। नई इच्छाएँ हैं नहीं, इसलिए खाता बंद हो गया। खाता बंद करना चाहिए।

...वहाँ प्रकृति की शून्यता

प्रश्नकर्ता : शुद्धात्मा का ज्ञान तो दिया। अब यह प्रकृति शून्यता प्राप्त करने के लिए ये नौ कलमें बोलें, वह हेल्प करती हैं?

(पृ.२३)

दादाश्री : उससे हेल्प तो होगी ही। जितने से गुणा किया उतने से भाग करना। मुझे डॉक्टर कहते हैं कि, ‘यह खाना’। मैंने कहा, ‘डॉक्टर, यह बात दूसरे मरीज़ को कहना। यह हमारा गुणा अलग तरह का है। वह मुझे भाग करने को कहे तो उसका किस प्रकार मेल हो?

प्रश्नकर्ता : आप तो ऊपर से अधिक मात्रा में मिर्च लेकर भाग लगाते हैं?

दादाश्री : मिर्च लेते समय मैं सब से कहता हूँ कि यह खाँसी के कारण डालता हूँ और खाँसी आए तो दिखाता हूँ कि देखो, आई न खाँसी?

प्रश्नकर्ता : उसमें भाग करना कहाँ आया?

दादाश्री : वही भाग करना कहलाता है। मिर्च नहीं ली होती तो भाग करना पूरा नहीं होता।

प्रश्नकर्ता : अर्थात् प्रकृति में पहले जो भरा हुआ है, उसे अब पूरा करना है?

दादाश्री : हाँ, पूरा कर लेना है।

इन नीरू बहन से मैं कहता हूँ, ‘आप कहो तो सुपारी खाऊँ?’ लेकिन सुपारी खाते समय कहता हूँ कि यह खाँसी होने का कारण है। तब वे कई बार तो ‘मना’ करती हैं, तो रहने देता हूँ और फिर कहती हैं कि ‘लीजिए’, तब ले लेता हूँ। इसलिए खाँसी होती है और (आमतौर पर) मैं सुपारी नहीं खाता हूँ। मुझे किसी चीज़ की आदत नहीं है। लेकिन भीतर माल भरा हुआ है उस हिसाब से खाई जाती हैं न!

हमारा यह ‘अक्रम विज्ञान’ है! ये जो पिछली आदतें पड़ी हुई हैं इसलिए होता है। इसलिए ये शक्ति मांगो। फिर लुब्ध आहार ले

(पृ.२४)

लिया, उसमें कोई हर्ज नहीं, लेकिन इस कलम अनुसार बोलने से करार छूटते जाते हैं।

प्रश्नकर्ता : हमारी जो प्रकृति है, उसे यदि गुणा करेंगे तो वह बढ़ जाएगी। उसका भाग लगाना चाहिए। प्रकृति को प्रकृति से भाग लगाना चाहिए, इसे ज़रा समझाइए।

दादाश्री : इसलिए ये कलम बार-बार बोलने से उसमें भाग लगता रहेगा और कम होता जाएगा। यह कलम नहीं बोलेंगे तो (प्रकृति रूपी) पौधा अपने आप पनपता रहेगा। इसलिए इसे बार-बार बोलने से कम हो जाएगा। ये जैसे-जैसे बोलोगे न तो अंदर प्रकृति का जो गुणा हुआ है वह टूट जाएगा और आत्मा का गुणा होगा और प्रकृति का भाग होगा। इसलिए आत्मा पुष्ट होता जाएगा। जैसे समय मिले कि ये नौ कलमें रात-दिन बोलते रहना! फुरसत मिलते ही बोलना। हम तो सभी दवाइयाँ दे देते हैं, सबकुछ समझा देते हैं, फिर आपको जो करना हो सो करना...

प्रत्यक्ष-परोक्ष, जीवित-मृतक का...

प्रश्नकर्ता : ८. ‘हे दादा भगवान ! मुझे किसी भी देहधारी जीवात्मा का प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष, जीवित अथवा मृत, किसी का किंचित्मात्र भी अवर्णवाद, अपराध, अविनय न किया जाए, न करवाया जाए या कर्ता के प्रति अनुमोदना न की जाएँ, ऐसी परम शक्ति दीजिए।’

दादाश्री : अवर्णवाद यानी किसी मनुष्य की बाहर इज़्ज़त अच्छी हो, रूतबा हो, कीर्ति हो, तो उसके बारे में आपने उल्टा बोलकर तोड़ डाला, उसे अवर्णवाद कहते हैं। उसका उल्टा बोलना।

प्रश्नकर्ता : इसमें मृतकों (जिनकी मृत्यु हो गई है) को भी हम जो क्षमापना करते हैं, हम जो कुछ संबोधन करते हैं, वह उनको पहुँचता है क्या?

(पृ.२५)

दादाश्री : उन्हें पहुँचाना नहीं है। जो आदमी मर गया है और आज उसका नाम लेकर आप गालियाँ दो तो आप भयंकर दोष के भागी बनते हो, ऐसा हम कहना चाहते हैं। इसलिए हम मना करते हैं कि मरे हुए का भी नाम मत देना (कुछ उल्टा मत बोलना)। बाकी पहुँचाने-नहीं पहुँचाने का सवाल नहीं है। कोई बुरा आदमी हो और वह सबकुछ उल्टा करके मर गया हो, फिर भी उसका बाद में कुछ बुरा मत बोलना।

अभी रावण के बारे में भी उल्टा नहीं बोलना चाहिए, क्योंकि वह अभी देहधारी है (दूसरे जन्म में)। अत: उसे ‘फोन’ पहुँच जाता है। ‘रावण ऐसा था और वैसा था’ बोलें न, तो वह उसे पहुँच जाता है।

आपके कोई सगे-संबंधी जिनकी मृत्यु हो गई हो और लोग उनकी निंदा करते हों तो आपको उसमें हाँ में हाँ नहीं मिलानी चाहिए। ऐसा हुआ हो तो आपको फिर पछतावा करना चाहिए कि ऐसा नहीं होना चाहिए। किसी मृतक के बारे में ऐसी बात करना भयंकर अपराध है। जो मर गया है उसे भी अपने लोग तो नहीं छोड़ते। ऐसा करते हैं या नहीं करते लोग? ऐसा नहीं करना चाहिए, ऐसा हम कहना चाहते हैं। उसमें बड़ा भारी जोखिम है।

उस समय पहले के अभिप्राय अनुसार यह बोल दिया जाता है। इसलिए यह कलम बोलते रहते हो और फिर वे बात बोल दी जाए, तो दोष नहीं लगता। हुक्का पीते जाएँ और बोलते जाएँ कि ‘यह नहीं पीना चाहिए, नहीं पिलाना चाहिए या पिलाने के प्रति अनुमोदन नहीं किया जाए, ऐसी शक्ति दो।’ तो इससे सारे करार खत्म होते जाते हैं, वर्ना पुद्गल (अहंकार) का स्वभाव तुरंत पलटी मार देने का है। इसलिए ऐसी भावना करनी चाहिए।

(पृ.२६)

जगत् कल्याण करने की शक्ति दीजिए

प्रश्नकर्ता : ९. ‘हे दादा भगवान ! मुझे जगत् कल्याण करने का निमित्त बनने की परम शक्ति दीजिए, शक्ति दीजिए, शक्ति दीजिए।’ हम यह कल्याण की भावना करें, तो वह किस प्रकार काम करेगी?

दादाश्री : आपका शब्द ऐसा निकले कि सामने वाले का काम हो जाए।

प्रश्नकर्ता : आप पौद्गलिक या ‘रियल’ (आत्म) के कल्याण की बात करते हैं?

दादाश्री : पुद्गल का नहीं, हमें तो ‘रियल’ की ओर ले जाए उसकी ही आवश्यकता है। फिर ‘रियल’ के सहारे आगे का (मोक्ष तक का) काम हो जाएगा। यह ‘रियल’ प्राप्त होगा तो ‘रिलेटिव’ प्राप्त होगा ही! पूरे जगत् का कल्याण करो ऐसी भावना विकसित करनी है। सिर्फ गाने के हेतु नहीं बोलना है, भावना करनी है। ये तो लोग इसे सिर्फ गाने के लिए गाते हैं, जैसे श्लोक बोलते हैं, वैसे।

प्रश्नकर्ता : ऐसे ही फिजूल बैठा रहे, उसके बजाय ऐसी भावना करे तो उत्तम कहलाएगा न?

दादाश्री : अति उत्तम। बुरे भाव तो निकल गए! उसमें जितना हुआ उतना सही, उतनी तो कमाई हुई!

प्रश्नकर्ता : उस भावना को मिकेनिकल भावना कह सकते हैं?

दादाश्री : नहीं। मिकेनिकल किस तरह कह सकते हैं? मिकेनिकल तो वह ज़रूरत से ज़्यादा यों ही खुद को ख्याल नहीं रहे और बोलता रहे, तब मिकेनिकली!

(पृ.२७)

इसमें करना कुछ नहीं है

प्रश्नकर्ता : इसमें लिखा है कि ‘मुझे शक्ति दीजिए, शक्ति दीजिए’, तो ऐसा पढऩे से हमें शक्ति मिल जाएगी?

दादाश्री : ज़रूर! ये ‘ज्ञानी पुरुष’ के शब्द हैं!! प्रधानमंत्री की चिट्ठी हो और यहाँ के एक व्यापारी की चिट्ठी हो तो उसमें क्या कोई फर्क नहीं है?! क्यों आप बोले नहीं? हाँ, इसलिए यह ‘ज्ञानी पुरुष’ की बात है। इसमें बुद्धि चलाए तो मनुष्य पागल हो जाए। ये बातें तो बुद्धि से परे हैं।

प्रश्नकर्ता : लेकिन अमल में लाने के लिए उसमें लिखा है उस अनुसार करना होगा न?

दादाश्री : नहीं, इसे पढऩा ही है। अमल में अपने आप ही आ जाएगा। इसलिए यह (नौ कलमों की) किताब आप अपने साथ ही रखना और रोज़ाना पढऩा। आपको इसके अंदर के सारे ज्ञान की जानकारी हो जाएगी। रोज़ पढ़ते-पढ़ते आपको इसकी प्रैक्टिस हो जाएगी। उस रूप हो जाओगे। आज आपको मालूम नहीं होगा कि इसमें मुझे क्या फायदा हुआ! लेकिन धीरे-धीरे आपको ‘यथार्थ’ समझ में आ जाएगा।

यह शक्ति माँगने से फिर उसका फल वर्तन में आकर खड़ा रहेगा। इसलिए आपको ‘दादा भगवान’ से शक्तियाँ माँगनी है। और ‘दादा भगवान’ के पास अपार, अनंत शक्तियाँ है, जो माँगो सो मिले ऐसी! अर्थात् इसे माँगने से क्या होगा?

प्रश्नकर्ता : शक्ति प्राप्त होगी।

दादाश्री : हाँ, इन्हें पालन करने की शक्ति आएगी न, उसके बाद फिर पालन होगा। वे यों ही नहीं पाल सकोगे। इसलिए आप ये

(पृ.२८)

शक्ति बार-बार माँगते रहना। और कुछ नहीं करना है, ये जो लिखा है वैसा झट से हो जाए ऐसा नहीं है और होगा भी नहीं। आपसे जितना हो सके उसे जानो कि इतना हो पाता है और इतना नहीं हो पाता तो उसकी क्षमा माँगना और साथ ही साथ ये शक्ति माँगना, इससे शक्ति प्राप्त होगी।

शक्ति माँगकर, सिद्ध करो काम

एक भाई से मैंने कहा कि, ‘इन नौ कलमों में सब समा गया है। इसमें कुछ भी बाकी नहीं रखा है। आप ये नौ कलमें रोज़ पढऩा।’ फिर उसने कहा, ‘लेकिन यह नहीं हो पाएगा।’ मैंने कहा, ‘अरे, मैं करने को नहीं कहता हूँ।’ ‘नहीं हो पाएगा’ ऐसा क्यों कहते हो? आपको तो इतना कहना है कि, ‘हे दादा भगवान, मुझे शक्ति दीजिए।’ शक्ति माँगने को कहता हूँ। तब कहते हैं, ‘फिर तो मज़ा आएगा!’ (संसार में) लोगों ने तो करना ही सिखाया है।

फिर मुझे कहते हैं, ‘ये शक्तियाँ कौन देगा?’ मैंने कहा, ‘मैं शक्तियाँ दूँगा।’ आप जो माँगों वे शक्तियाँ देने को तैयार हूँ। आपको खुद को माँगना ही नहीं आता, इसलिए मुझे इस तरह सिखाना पड़ता है कि ऐसे शक्ति माँगना। ऐसा नहीं सिखाना पड़ता? देखो न, सब सिखाया ही है न? यह मेरा सिखाया हुआ ही है न? फिर वे समझ गए, फिर कहते हैं कि इतना तो होगा, इतने में सब आ गया।

यह करना नहीं है आपको। आप ज़रा सा भी मत करना। आराम से पहले खाते थे उससे दो रोटी ज़्यादा खाना, पर यह शक्ति माँगना। तब मुझे कहते हैं, ‘यह बात मुझे पसंद आई।’

प्रश्नकर्ता : पहले तो यही शंका होती है कि शक्ति माँगने से मिलेगी या नहीं?

दादाश्री : यही शंका गलत साबित होती रहती है। अब यह

(पृ.२९)

शक्ति माँगते रहते हो न! इसलिए आपमें यह शक्ति उत्पन्न होने के बाद, वह शक्ति ही कार्य करवाएगी। आपको नहीं करना है। आप करने जाओगे तो अहंकार बढ़ जाएगा। फिर ‘मैं करने जाता हूँ लेकिन होता नहीं है’ ऐसा होगा फिर। इसलिए वह शक्ति माँगो।

प्रश्नकर्ता : इन नौ कलमों में हम शक्ति माँगते हैं कि ऐसा नहीं किया जाए, नहीं करवाया जाए और अनुमोदन नहीं किया जाए, इसलिए इसका मतलब यह है कि भविष्य में ऐसा नहीं हो, उसके लिए हम शक्तियाँ माँगते हैं या फिर यह हमारा पिछला किया-कराया धुल जाए इसलिए है यह?

दादाश्री : पिछला धुल जाए और शक्ति उत्पन्न हो। शक्ति तो है ही, लेकिन वह शक्ति (पिछले दोष) धुलने पर व्यक्त होती है। शक्ति तो है ही लेकिन व्यक्त होनी चाहिए। इसलिए दादा भगवान की कृपा माँगते हैं, यह अपना धुल जाए तो शक्ति व्यक्त हो जाए।

प्रश्नकर्ता : यह सब पढ़ा न, यह तो ज़बरदस्त बात है। छोटा आदमी भी अगर समझ जाए तो उसकी सारी ज़िंदगी सुखमय जाए।

दादाश्री : हाँ, बाकी समझने जैसी बात ही (आज तक) उसे नहीं मिली। यह पहली बार स्पष्ट समझने जैसी बात मिल रही है। अब यह प्राप्त हो जाए तो हल आ जाए।

इन नौ कलमों में से अपने आप हम से जितनी कलमों का पालन होता हो, उसमें हर्ज नहीं है। लेकिन जितना पालन नहीं हो पाए, उसका मन में खेद मत रखना। आपको तो सिर्फ इतना ही कहना है कि मुझे शक्ति दीजिए। उससे शक्ति मिलती रहेगी। भीतर शक्ति जमा होती रहेगी। फिर काम अपने आप होगा। शक्ति माँगोंगे तो सभी नौ कलमें सेट हो जाएँगी। अर्थात् आप सिर्फ बोलेंगे तो भी बहुत हो गया। बोला यानी शक्ति माँगी, उससे शक्ति प्राप्त हुई।

(पृ.३०)

‘भावना’ से भावशुद्धि

प्रश्नकर्ता : आपने कहा न कि, हुक्का पीते जाते हैं लेकिन अंदर चलता रहता है कि नहीं पीया जाए, नहीं पिलाया जाए और पीने के प्रति नहीं अनुमोदन किया जाए...

दादाश्री : हाँ, मतलब इसका अर्थ इतना ही है कि, ‘आप इसमें सहमत नहीं है’, ऐसा कहना चाहते हैं। इसलिए उससे अलग (जुदा) हैं और हुक्का पीना जब अपने आप बंद हो जाए, तब ठीक है। लेकिन अब आप उससे चिपके नहीं हैं, वह आपसे चिपका हुआ है। उसकी अवधि पूरी हो जाने पर चला जाएगा, ऐसा कहना चाहते हैं। एक ओर हुक्का गुडग़ुड़ाते हों और एक ओर यह भावना बोलें तो (धीरे-धीरे) गुडग़ुड़ाना उड़ जाएगा और इस भाव की शुरूआत हो गई।

अब लोग कहते हैं कि ‘आइए साहब, आइए साहब’। तब वहाँ पर मन में क्या होता है कि ‘इस वक्त कहाँ से आ टपके (गए)?’ जबकि ये क्या कहते हैं कि आप हुक्का गुडग़ुड़ाते हैं, मगर भीतर में ‘यह नहीं होना चाहिए’ ऐसा है। जबकि वे लोग इससे उल्टा कहते हैं। बाहर ‘आइए, पधारिए’ कहते हैं और फिर भीतर (मन) में कहते हैं कि, ‘ये कहाँ से आ टपके?’ तो वे सुधरा हुआ बिगाड़ते हैं। जबकि आप बिगड़ा हुआ सुधारते हैं।

प्रश्नकर्ता : पूरे ‘अक्रम विज्ञान’ का अजूबा (आश्चर्य) ही यह है कि बाहर बिगड़ा हुआ है और अंदर सुधार रहे हैं।

दादाश्री : हाँ, इसलिए हमें संतोष रहता है न! भले ही यह घान (कढ़ाई में एक बार में तली गई वस्तु) बिगड़ गया तो बिगड़ गया लेकिन यह नया घान तो अच्छा होगा। एक घान बिगड़ा सो गया, लेकिन नया तो अच्छा होगा न? तब वे लोग क्या कहते हैं कि ‘यह जो घान है उसी को सुधारना है।’ अरे अब छोड़ भी। जाने

(पृ.३१)

दे न, नया भी बिगड़ जाएगा। यह तो घान भी गया और तेल भी गया।

प्रश्नकर्ता : आज जो बिगड़ा है, उसके ज़िम्मेदार आज हम नहीं है। वह तो पिछले जन्म का परिणाम है।

दादाश्री : हाँ, आज हम ज़िम्मेदार नहीं है। आज वह सत्ता औरों के हाथ में है। ज़िम्मेदारी हमारे हाथ में नहीं है न! इसमें परिवर्तन होने वाला नहीं है और बिना वज़ह हाय-हाय क्यों कर रहा है? लेकिन वहाँ तो फिर गुरु महाराज भी कहते हैं कि, ‘अगर ऐसा नहीं हुआ तो तुम्हें यहाँ आने ही नहीं दूँगा।’ तब वह क्या कहता है कि, ‘साहब, मुझे करना तो बहुत कुछ है लेकिन होता नहीं है, उसका क्या करूँ?’ अर्थात् नासमझी के कारण ऐसा सब चल रहा है।

प्रश्नकर्ता : यह तो प्रकृति एकदम से कुछ उल्टा-सीधा कर डालती है न, तब उसे भीतर ज़बरदस्त सफोकेशन (घुटन) होता है।

दादाश्री : अरे, यहाँ तक होता है कि पाँच-पाँच दिन तक नहीं खाते। अरे, गुनाह किसका और किसे मारता रहता है! पेट को किसलिए मारता है! गुनाह मन का है और पेट को मारता है। कहता है कि, ‘तुम्हें खाना नहीं खाना है’। तब वह क्या करे बेचारा? फिर शक्ति चली जाए न, बेचारे की। अगर उसने खाया हो, तो दूसरा कुछ काम कर पाएगा। इसलिए अपने लोग कहते हैं न कि ‘भैंसे के गुनाह का दंड भिश्ती को क्यों देते हो?’ गुनाह भैंसे का (मन का) है और इस भिश्ती का (देह का) बेचारे का क्या गुनाह है?

और बाहर झाड़-बुहार करने से क्या फायदा है? जो हमारी सत्ता में ही नहीं है न! फिर बिना वज़ह शोर मचाने का क्या अर्थ है? लेकिन अंदर का सारा कचरा बुहारना पड़ता है, अंदर का सारा धोना पड़ता है। यह तो बाहर का धो डालते हैं, गंगाजी जाएँ तो भी देह को

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बार-बार डुबकियाँ लगवाता हैं। अरे, देह को डुबकियाँ लगवाने से क्या होगा? मन को डुबकी लगवाओ न! मन को, बुद्धि को, चित्त को, अहंकार को, इन सभी को, पूरे अंत:करण को डुबोना है। इसमें साबुन भी कभी इस्तेमाल नहीं किया। फिर बिगड़ जाएगा या नहीं बिगड़ जाएगा?

जब तक उम्र छोटी हो, तब तक अच्छा चलता है। फिर दिन-ब-दिन बिगड़ता है और फिर कचरा जमा होता जाता है। इसलिए हमने क्या कहा कि तेरा आचरण बाहर रखता जा और ये नौ कलमें लेता जा। ये जो भी सभी झूठ है उसे बाहर रखता जा और इन नौ कलमों की भावना करता जा, तो अगला जन्म हो जाएगा उत्तम!

प्रश्नकर्ता : यह ‘ज्ञान’ प्राप्त नहीं किया हो, वे लोग भी इस प्रकार से आचरण में परिवर्तन ला सकते हैं न?

दादाश्री : हाँ, सभी परिवर्तन ला सकते हैं। सभी को यह बोलने की छूट है।

प्रश्नकर्ता : कुछ उल्टा हो जाए तो बाद में उसे धो डालने के लिए ये कलमें एक ज़बरदस्त उपाय है।

दादाश्री : यह तो बड़ा पुरुषार्थ है। अर्थात् महानतम विज्ञान हम प्रकाश में लाए हैं यह (हमने खुला किया है यह)! लेकिन अब लोगों को समझ में आना चाहिए न! इसलिए फिर अनिवार्य किया कि इतना तुम्हें करना है। भले ही समझ में नहीं आए, लेकिन इतना (नौ कलमों की दवाई) पी जा न!

प्रश्नकर्ता : अंदरूनी रोग खत्म हो जाएँगे।

दादाश्री : हाँ, खत्म हो जाएँगे। ‘दादा’ कहें कि ‘पढऩा’ तो बस सिर्फ पढऩा ही है, तो भी बहुत हो गया! यह तो पचाने हेतु

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नहीं है। यह तो पुड़िया घोलकर पी जाना और फिर आराम से घूमने जैसा है!

प्रश्नकर्ता : क्या ये सही है कि भाव करने से पात्रता बढ़ती है?

दादाश्री : भाव ही वास्तविक पुरुषार्थ है। अन्य सभी फिजूल (बिना काम) की बातें हैं। कर्तापद वह तो बंधनपद है और यह भाव छुड़ाने वाला पद है। ‘ऐसा करो, वैसा करो, फलाँ करो’, इसलिए फिर लोग बंध गए हैं न, उससे!

भावना फल देगी, अगले जन्म में

प्रश्नकर्ता : जब ऐसा व्यवहार हो जाए कि हमसे किसी के अहंकार का प्रमाण दुभाया गया, ऐसे समय यह कलम बोल सकते हैं कि किसी के भी अहम् का प्रमाण नहीं दुभाया जाए...?

दादाश्री : तब तो हमें ‘चंदूभाई’ से कहना कि, ‘भैया, प्रतिक्रमण करो, उसे दु:ख हुआ उसका।और अन्य छोटी-छोटी बातों में तो झंझट करना ही नहीं। बाकी, ऐसे किसी का अहम् दुभाया जाए, ऐसे भारी लक्षण नहीं हो। और थोड़ा सा दु:ख हो जाए तो हमें ‘चंदूभाई’ के पास प्रतिक्रमण करवाना चाहिए।

यह तो भावना करनी है। अभी और एक जन्म तो शेष रहा न, इसलिए ये भावनाएँ फल देंगी। तब तो आप भावनारूप ही हो गए होंगे। जैसी भावनाएँ लिखी हुई हैं वैसा ही वर्तन होगा, लेकिन अगले जन्म में! अभी बीज बोया है इसलिए आप कहें कि ‘लाइए, उसे भीतर से कुरेदकर खा जाएँ।’ तो वह नहीं चलेगा।

प्रश्नकर्ता : परिणाम इस जन्म में नहीं, अगले जन्म में आएगा?

दादाश्री : हाँ, अभी एक-दो जन्म शेष रहे हैं। इसके लिए यह

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बीज बोते हैं, इसलिए अगले जन्म में ‘क्लियर’ (स्वच्छ) आएगा। यह तो जिसे (अच्छे) बीज बोना हो उसके लिए है।

प्रश्नकर्ता : तो यह निरंतर यानी जब-जब व्यवहार हो जाए उस हिसाब से?

दादाश्री : नहीं, उस व्यवहार को और इस भावना को कुछ लेना-देना नहीं है। व्यवहार से क्या लेना-देना? व्यवहार तो निराधार है बेचारा! और यह भावना तो आधारित वस्तु है। ये भावनाएँ तो साथ आने वाली है और व्यवहार तो चला जाएगा।

प्रश्नकर्ता : लेकिन व्यवहार के आधार पर ही यह भावना की जा सकती है न?

दादाश्री : नहीं। व्यवहार से कोई लेना-देना नहीं है। भावना ही साथ आएगी। यह व्यवहार निराधार है, वह तो चला जाएगा। कितना भी अच्छा व्यवहार हो लेकिन वह भी चला जाएगा। क्योंकि वह संयोग प्राप्त हो चुका है जबकि यह भावना करनी है। जिसका संयोग प्राप्त होना अभी बाकी है।

प्रश्नकर्ता : लेकिन उस व्यवहार की वजह से खुद के भाव बदलते हैं, तब इस भावना का प्रयोग करके फिर से भाव परिवर्तन करना है न?

दादाश्री : लेकिन वह कुछ हेल्प नहीं करेगा। पूर्व में जितना किया होगा, वह आज हेल्प करता है। हाँ, ऐसा हो सकता है कि पूर्व में थोड़ा-बहुत किया हो तो ही इस जन्म में सारा परिवर्तन होता है।

प्रश्नकर्ता : अर्थात् पिछले जन्म के भाव के अनुसार ही परिणाम के रूप में आज का व्यवहार आता है?

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दादाश्री : वही परिणाम आता है, दूसरा नहीं आता। भाव यानी बीज और द्रव्य यानी परिणाम। बाजरे का एक दाना बोयें तो इतनी बड़ी बाल आती है!

ये कलमें तो सिर्फ बोलनी ही हैं। प्रतिदिन भावना ही करनी है। यह तो बीज बोना है। बोने के बाद जब फल प्राप्त होता है, तब देख लेना। तब तक खाद डालते रहना। बाकी, इस व्यवहार में ऐसा कोई परिवर्तन लाना नहीं है, कुछ भी। और यह जो है, वह पुराना है वही है।

अर्थात् ये नौ कलमें क्या कहती हैं? ‘हे दादा भगवान! मुझे शक्ति दो।’ अब लोग क्या कहते हैं? ‘यह तो पालन की जा सके ऐसी नहीं है।’ लेकिन ये करने के लिए नहीं हैं। अरे, नासमझी की बातें क्यों करते हो! इस संसार में सभी ने कहा कि, ‘करो, करो, करो’। अरे, करने को होता ही नहीं है, समझने का ही होता है। और फिर ‘मैं ऐसा नहीं करना चाहता और (ऐसा जो हो गया) उसका मैं पछतावा करता हूँ’। ऐसे ‘दादा भगवान’ के पास माफ़ी माँगनी है। अब ‘यह नहीं करना है’ ऐसा कहा न, वहीं से आपका अभिप्राय अलग हो गया। फिर करता हो उसका हर्ज नहीं है। लेकिन अभिप्राय जुदा हुआ कि छूटा! यह मोक्षमार्ग का रहस्य है, वह जगत् के लक्ष्य में होता नहीं न!

प्रश्नकर्ता : लोग ‘डिस्चार्ज’ में ही परिवर्तन चाहते हैं, परिणाम में ही परिवर्तन लाना चाहते हैं ये लोग?

दादाश्री : हाँ। अर्थात् जगत् को यह लक्ष्य मालूम ही नहीं है, इसकी समझ ही नहीं है। मैं उसे अभिप्राय से मुक्त करना चाहता हूँ। अभी ‘यह गलत है’ ऐसा आपका अभिप्राय हो गया। क्योंकि पहले ‘यह सही है’ ऐसा अभिप्राय था और इसलिए संसार खड़ा रहा है और

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अब ‘यह गलत है’ ऐसा अभिप्राय हुआ, तो मुक्त हुआ। अब यह अभिप्राय किसी भी संयोग में फिर बदलना नहीं चाहिए!

ये नौ कलमें हर रोज़ बोलने से धीरे-धीरे किसी के साथ झगड़ा-टंटा कुछ भी नहीं रहेगा। क्योंकि खुद का भाव नहीं रहा है। अब जो ‘रिएक्शनरी’ (प्रत्याघाती) है, उतना ही शेष रह गया है। वह धीरे-धीरे कम होता जाएगा।

महात्माओं के लिए, वह चार्ज या डिस्चार्ज?

प्रश्नकर्ता : भाव और भावना, इन दोनों के बीच में क्या अंतर है?

दादाश्री : वे दोनों ‘चंदूभाई’ में आ गए! लेकिन आप सही कहते हैं, भाव और भावना में अंतर है।

प्रश्नकर्ता : भावना पवित्र होती है और भाव तो अच्छा भी होता और बुरा भी होता है।

दादाश्री : नहीं। भावना पवित्र होती है ऐसा नहीं है। भावना तो अपवित्र को भी लागू होती है। किसी का मकान जला देने की भावना होती है और किसी का मकान बना देने की भी भावना होती है। अर्थात् भावना का उपयोग दोनों ओर हो सकता है, लेकिन भाव वह चार्ज है और भावना डिस्चार्र्र्ज है।

हमें जो भीतर होता है कि मुझे ऐसा करना है, ऐसे जो भाव होते हैं, वह भी भावना है, वह भाव नहीं है। वास्तव में भाव वही है जो चार्ज होता है।

अर्थात् भावकर्म से यह संसार खड़ा हुआ है। हमसे कोई कार्य नहीं हो, फिर भी भाव तो ऐसा ही रखना। अपने यहाँ (अक्रम मार्ग

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में) भाव को उड़ा दिया है। बाहर के लोगों को भावकर्म करना चाहिए। अर्थात् शक्ति माँगनी चाहिए। जिसे जो शक्ति चाहिए, वह शक्ति दादा भगवान के पास माँगनी चाहिए।

प्रश्नकर्ता : बाहर के, जगत् के जो लोग हैं, उन्हें ये शक्ति माँगनी चाहिए, तो अपने महात्मा जो शक्ति माँगते हैं, भावना करते हैं, वह किसमें जाता है?

दादाश्री : महात्मा जो माँगते हैं, वह डिस्चार्ज में है। क्योंकि भावना दो प्रकार की है, चार्ज और डिस्चार्ज दोनों। जगत् के व्यवहार में लोगों को भी भावना होती हैं और यहाँ हमें भी भावना होती हैं। लेकिन हमारी भावना डिस्चार्ज के रूप में है और उन्हें चार्ज-डिस्चार्ज दोनों रूप में होती हैं। लेकिन शक्ति माँगने में क्या नुकसान है?

प्रश्नकर्ता : बाहर के लोग नौ कलमों की शक्ति माँगे, तो वह भाव कहलाता है और महात्मा शक्ति माँगे, तो वह भाव नहीं कहलाता?

दादाश्री : बाहर के लोगों के लिए वह भाव कहलाता है और हमारे महात्माओं के लिए यह भावना है। बात सही है। वे भाव कहलाते हैं, चार्ज कहलाता है और महात्माओं के लिए डिस्चार्ज कहलाता है, भाव नहीं कहलाता।

भाव, एक्ज़ेक्ट डिज़ाइन अनुसार

प्रश्नकर्ता : इन नौ कलमों में जैसा कहा गया है, वैसी ही हमारी भावना है, इच्छा है, अभिप्राय भी है।

दादाश्री : ऐसा लगता ज़रूर है कि हमेशा से ऐसा ही कर रहा था, लेकिन वास्तव में वैसा है नहीं। इस तरफ का झुकाव है, यह बात सही है लेकिन वह झुकाव निश्चित रूप से इस प्रकार होना चाहिए। डिज़ाइनपूर्वक होना चाहिए। झुकाव तो होता ही है, साधु-संतों को

(पृ.३८)

परेशान नहीं करना है ऐसी इच्छा तो रहती ही है न! लेकिन वह डिज़ाइन के अनुसार होना चाहिए।

प्रश्नकर्ता : डिज़ाइन अनुसार यानी किस प्रकार, दादाजी?

दादाश्री : उसमें जो लिखा है उसके अनुसार, एक्ज़ेक्टनेस (यथार्थ रूप से)। बाकी वैसे तो मुझे साधु-संतों को परेशान नहीं करना है ऐसा होता है, फिर भी उन्हें परेशान करते ही हैं। उसका कारण क्या है? तब कहे, डिज़ाइन अनुसार नहीं है उसका। वह डिजाइन अनुसार होगा तो ऐसा नहीं होगा।

प्रश्नकर्ता : ये जो नौ कलमें हैं, उन्हें समझदारी से जीवन में लानी चाहिए?

दादाश्री : नहीं, ऐसे कुछ समझदारी से लाना नहीं है। हम क्या कहते हैं कि यह हमने जो कहा है ऐसे ही शक्ति माँगो सिर्फ। वह शक्ति ही आपको वहाँ एक्ज़ेक्टनेस में लाकर रख देगी। आपको समझदारी से नहीं करना है। ऐसा हो ही नहीं सकता, मनुष्य कर ही नहीं सकता। यदि समझदारी से करने जाए तो होने वाला नहीं है। कुदरत को सौंप देना। इसलिए ‘हे दादा भगवान! शक्ति दीजिए।’ शक्ति अपने आप प्रकट होगी। बाद में यथार्थ रूप आएगा।

यह तो बहुत ऊँची वस्तु है। लेकिन जब तक समझ में नहीं आता तब तक सब ऐसा ही!

मैंने ऐसा किसलिए कहा होगा कि शक्ति माँगना, शक्ति दो ऐसा? खुद डिज़ाइन नहीं कर सकता। मूल डिज़ाइन कैसे बना सकता है? अर्थात् (आज) यह इफेक्ट है। यह जो शक्ति माँगते हैं, वह कॉज़ है और इफेक्ट बाद में आएगी। वह इफेक्ट भी किसके द्वारा आती है? दादा भगवान के द्वारा प्रबंधित। इफेक्ट भगवान के थ्रु (द्वारा) आनी चाहिए।

(पृ.३९)

अर्थात् नौ कलमों के अनुसार शक्ति माँगते रहे तो अपने आप ही फिर नौ कलमों में रहेंगे। नौ कलमों में ही रहेंगे फिर, कई सालों बाद।

जगत् के संबंधों से मुक्त होने के लिए

प्रश्नकर्ता : ये जो नौ कलमें दी हैं वह विचार, वाणी और वर्तन की शुद्धता के लिए ही दी हैं न?

दादाश्री : नहीं, नहीं। अक्रम मार्ग में इसकी ज़रूरत ही नहीं है। ये नौ कलमें तो आपके अनंत अवतार के सबके साथ जो भी हिसाब बंधे हुए हैं, उन हिसाबों में से मुक्त होने के लिए दी हैं। आपके बहीखाते साफ करने के लिए दी हैं।

इसलिए ये नौ कलमें बोलने से तार छूट जाएँगे। लोगों के साथ जो तार जुड़े हुए हैं, उस ऋणानुबंध से मोक्ष अटका है। इसलिए इन ऋणानुबंधनों से छूटने के लिए ये नौ कलमें हैं।

इन्हें बोलने से आपके आज तक के जो दोष हुए हैं न, वे सारे ढीले हो जाएँगे। और फिर इसका परिणाम तो आएगा ही। सारे दोष जली हुई रस्सी के समान हो जाते हैं, फिर यों हाथ लगाते ही ढेर हो जाएँगे।

प्रश्नकर्ता : दोषों के प्रतिक्रमण करने के लिए हम नौ कलमें प्रतिदिन बोला करें तो उसमें से शक्ति मिलेगी क्या?

दादाश्री : आप नौ कलमें बोलें, वह अलग है और इन दोषों का प्रतिक्रमण करें, वह अलग है। जो दोष होते हैं, उसके प्रतिक्रमण तो रोज़ाना करने चाहिए।

अनंत अवतार से लोगों के साथ राग-द्वेष के जो हिसाब हुए

(पृ.४०)

होते हैं, वे सारे ऋणानुबंध इन नौ कलमों को बोलने से छूट जाएँगे। यह प्रतिक्रमण है, बहुत बड़ा प्रतिक्रमण है। इन नौ कलमों में सारे संसार (जगत्) का प्रतिक्रमण आ जाता है। इन्हें अच्छी तरह करना। हम आपको दिखा देते हैं, फिर हम तो हमारे देश (मोक्ष) में चले जाएँगे न!

रही आजीवन वर्तना नौ कलमों की, दादा को

ऐसा है न, इस काल के हिसाब से लोगों में इतनी शक्ति नहीं है। जितनी शक्ति है उतना ही दिया है। इतनी भावना करेंगे उनका अगले जन्म में मनुष्यत्व नहीं जाएगा, इसकी गारन्टी देता हूँ। वर्ना आज अस्सी प्रतिशत मनुष्यत्व नहीं रहे ऐसा हो गया है।

हमारी इन नौ कलमें हैं न, उनमें उच्चतम भावनाएँ हैं। सारा सारांश इनमें समाया हुआ है। ये नौ कलमें हम आजीवन पालन करते आए हैं, यानी यह पूँजी है। अर्थात् यह हमारा रोज़मर्रा का माल है जो ज़ाहिर किया है। अंतत: लोगों का कल्याण हो उसकी खातिर। कई सालों से, चालीस-चालीस सालों से निरंतर ये नौ कलमें प्रतिदिन हमारे भीतर चलती ही रही हैं। जो लोगों के लिए मैंने जाहिर (बताई) की हैं।

प्रश्नकर्ता : आज तो हम ‘हे दादा भगवान! मुझे शक्ति दीजिएऐसा करके बोलते हैं। तो ये नौ कलमें आप किसे संबोधित करते थे?

दादाश्री : वे ‘दादा भगवाननहीं होंगे, लेकिन कोई और नाम होगा। लेकिन नाम होगा ही। उन्हें ही संबोधित करके कहते थे। उन्हें ‘शुद्धात्मा’ कहो या चाहे जो कहो। वह उन्हें ही संबोधित करके कहते थे।

क्रमिक मार्ग के इतने बड़े शास्त्र पढ़ें या फिर सिर्फ नौ कलमें

(पृ.४१)

बोलें तो भी बहुत हो गया! इन नौ कलमों में इतनी शक्ति भरी पड़ी हैं। इतनी ग़ज़ब की शक्ति है, लेकिन यह समझ में नहीं आता न! ये तो हम समझाएँ तब समझ में आएगा और इसकी कीमत समझ में आई है ऐसा कब कहूँ कि जब कोई मुझे आकर कहे कि ‘ये नौ कलमें मुझे बहुत अच्छी लगी’ और समझने जैसी है ये सारी नौ कलमें।

ये नौ कलमें किसी शास्त्र में नहीं हैं। लेकिन हम जिसका पालन करते हैं और जो हमेशा हमारे अमल में ही हैं, वही आपको करने के लिए देते हैं। हमारी जो वर्तना है उसी प्रकार ये कलमें लिखी गई हैं। इन नौ कलमों के अनुसार हमारा वर्तन होता है, फिर भी हम भगवान नहीं कहलाते। भगवान तो, जो भीतर हैं वही भगवान! बाकी, किसी मनुष्य से ऐसा वर्तन नहीं हो सकता।

चौदह लोक का सार है इतने में। ये नौ कलमें जो लिखी हैं, उसमें चौदह लोक का सार है। पूरे चौदह लोक का जो दही हो, उसे मथकर यह मक्खन निकालकर मैंने रखा है। इसलिए ये सभी कितने पुण्यवान हैं कि (अक्रम मार्ग की) लिफ्ट में बैठे-बैठे मोक्ष में जा रहे हैं! हाँ, बस इतनी शर्त है कि हाथ बाहर मत निकालना!

ये नौ कलमें तो किसी जगह होती ही नहीं। नौ कलमें तो पूर्ण पुरुष ही लिख सकते हैं। वे (आम तौर पर) होते ही नहीं न, वे हों तो लोगों का कल्याण हो जाए!

वीतराग विज्ञान का सार

यह भावना करते समय कैसा होना चाहिए? पढ़ते समय हर एक शब्द नज़र के सामने दिखना चाहिए। यदि ‘आप पढ़ते हैं’ ऐसा ‘दिखाई दे’ तब आप अन्य जगह पर मग्न (उलझे हुए) नहीं होते हैं।

(पृ.४२)

यह भावना करते समय आप अन्यत्र नहीं होने चाहिए। हम एक क्षण के लिए भी अन्यत्र नहीं जाते। उसी मार्ग पर आपको भी आना पड़ेगा न? जिस जगह हम हैं वहीं पर! यह भावना करने से पूर्ण होते जाओगे। भावना तो इतनी ही करने योग्य हैं।

हाँ, यह भावना मन-वचन-काया की एकता से बोलो। इसलिए इसे अवश्य करना। इसलिए अब आप ये नौ कलमें तो अवश्य करना। ये नौ कलमें पूरे वीतराग विज्ञान का सार हैं! और प्रतिक्रमण-प्रत्याख्यान सभी उसमें समा गया हैं। ऐसी नौ कलमें किसी जगह नहीं निकली थी। जैसे यह ब्रह्मचर्य की पुस्तक नहीं निकली थी, उसी तरह ये नौ कलमें भी नहीं निकली थी। यदि ये नौ कलमें पढ़ें न और भावना करें न तो दुनिया में किसी के साथ बैर नहीं रहे, सभी के साथ मैत्री हो जाए। ये नौ कलमें तो सभी शास्त्रों का सार है।

- जय सच्चिदानंद

शुद्धात्मा के प्रति प्रार्थना

(प्रतिदिन एक बार बोलें)

हे अंतर्यामी परमात्मा! आप प्रत्येक जीवमात्र में बिराजमान हैं, वैसे ही मुझ में भी बिराजमान हैं। आपका स्वरूप ही मेरा स्वरूप है। मेरा स्वरूप शुद्धात्मा है।

हे शुद्धात्मा भगवान! मैं आपको अभेद भाव से अत्यंत भक्तिपूर्वक नमस्कार करता हूँ।

अज्ञानतावश मैंने जो जो * दोष किए हैं, उन सभी दोषों को आपके समक्ष ज़ाहिर करता हूँ। उनका हृदयपूर्वक बहुत पश्चाताप करता हूँ और आपसे क्षमा-याचना करता हूँ। हे प्रभु ! मुझे क्षमा कीजिए, क्षमा कीजिए, क्षमा कीजिए और फिर से ऐसे दोष नहीं करूँ, ऐसी आप मुझे शक्ति दीजिए, शक्ति दीजिए, शक्ति दीजिए।

हे शुद्धात्मा भगवान! आप ऐसी कृपा करें कि मुझे भेदभाव छूट जाएँ और अभेद स्वरूप प्राप्त हो। मैं आप में अभेद स्वरूप से तन्मयाकार रहूँ।

* जो जो दोष हुए हों, वे मन में ज़ाहिर करें।

प्रतिक्रमण विधि

प्रत्यक्ष दादा भगवान की साक्षी में, देहधारी (जिसके प्रति दोष हुआ हो, उस व्यक्ति का नाम) के मन-वचन-काया के योग, भावकर्म-द्रव्यकर्म-नोकर्म से भिन्न ऐसे हे शुद्धात्मा भगवान, आपकी साक्षी में, आज दिन तक मुझसे जो जो * दोष हुए हैं, उसके लिए क्षमा माँगता हूँ। हृदयपूर्वक बहुत पश्चाताप करता हूँ। मुझे क्षमा कीजिए। और फिर से ऐसे दोष कभी भी नहीं करूँ, ऐसा दृढ़ निश्चय करता हूँ। उसके लिए मुझे परम शक्ति दीजिए।

** क्रोध-मान-माया-लोभ, विषय-विकार, कषाय आदि से किसी को भी दु:ख पहुँचाया हो, उस दोषो को मन में याद करें।

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