दादा भगवान कथित

क्रोध

मूल गुजराती संकलन : डॉ. नीरू बहन अमीन

अनुवाद : महात्मागण

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Table of Contents
संपादकीय
क्रोध

संपादकीय

क्रोध वह कमज़ोरी है लेकिन लोग उसे बहादुरी समझते हैं। क्रोध करने वाले के बजाय क्रोध नहीं करने वाले का प्रभाव कुछ और ही प्रकार का होता है!

आम तौर पर जब अपनी धारणा के अनुसार न हो, हमारी बात सामने वाला न समझ सके, डिफरेन्स ऑफ व्यू पोइन्ट हो जाए, तब क्रोध हो जाता है। हम सही हों लेकिन अगर कोई हमें गलत ठहराए, तब कई बार क्रोध हो जाता है लेकिन हम जो सही हैं, वह हमारे दृष्टि बिंदु से ही न? सामने वाला भी खुद के दृष्टि बिंदु से खुद को सही ही मानेगा न! कई बार सूझ नहीं पड़ती, आगे का नज़र नहीं आता और समझ में ही नहीं आता है कि क्या करना चाहिए, तब क्रोध हो जाता है।

जब अपमान होता है, तब क्रोध हो जाता है। जब नुक़सान हो, तब क्रोध हो जाता है। इस प्रकार मान के रक्षण के लिए, लोभ के रक्षण के लिए क्रोध हो जाता है। वहाँ मान और लोभ कषाय से मुक्त होने की जागृति में आना ज़रूरी है। नौकर से चाय के कप टूट जाएँ, तब क्रोध हो जाता है जबकि जमाई के हाथों टूटें तब? वहाँ क्रोध कैसा कंट्रोल में रहता है! अर्थात् बिलीफ पर ही आधारित है न?

कोई अपना नुकसान या अपमान करे तो वह अपने ही कर्म का फल है, सामने वाला निमित्त है, ऐसी समझ फिट हो जाएगी, तभी क्रोध जाएगा।

जहाँ-जहाँ और जब-जब क्रोध आता है, तब-तब उसे नोट कर लेना और उस पर जागृति रखना। और हमारे क्रोध की वजह से जिसे दु:ख हुआ हो, उसका प्रतिक्रमण करना चाहिए, पछतावा करना चाहिए और फिर से नहीं करूँगा ऐसा दृढ़ निश्चय करना क्योंकि जिस पर क्रोध होता है, उसे दु:ख होता है और वह फिर बैर बाँधता है तब फिर अगले जन्म में फिर से मिलेगा!

माँ-बाप अपने बच्चों पर और गुरु अपने शिष्यों पर क्रोध करें तो उससे पुण्य बंधता है क्योंकि उसके पीछे उद्देश्य, उसका भला करना, उसे सुधारने का है। स्वार्थ के लिए होगा तो पाप बंधेगा। वीतरागों की समझ की बारीकी तो देखो!

प्रस्तुत पुस्तक में क्रोध, जो बहुत परेशान करने वाला खुला कषाय है, उससे संबंधित सारी बातें विस्तार से संकलित करके यहाँ प्रकाशित हुई हैं, जो सुज्ञ पाठक को क्रोध से मुक्त होने में पूर्णतया सहायक होगी, यही अभ्यर्थना।

- डॉ. नीरू बहन अमीन

क्रोध

कौन माने, ‘‘मैं गलत?’’

प्रश्नकर्ता : हम सही हों, फिर भी कोई यदि अपने लिए गलत कर दे, तब फिर अंदर से उस पर क्रोध आ जाता है। तो एकदम से क्रोध न आए, उसके लिए क्या करें?

दादाश्री : हाँ, लेकिन आप सही होंगे तब न? आप सही हो क्या? आप सही हो, ऐसा आपको पता चला?

प्रश्नकर्ता : हमें अपना आत्मा कहता है न कि हम सही हैं।

दादाश्री : यह तो जब आप ही जज, आप ही वकील और आप ही अभियुक्त, तब फिर आप सच्चे ही हुए न? आप फिर झूठे बनोगे ही नहीं न? सामने वाले को भी ऐसा ही लगता है कि मैं ही सही हूँ। आपको समझ में आता है?

ये सभी हैं कमज़ोरियाँ

प्रश्नकर्ता : लेकिन मुझे यह पूछना था कि अन्याय के लिए चिढऩा तो अच्छा है न? जब हम किसी भी चीज़ के लिए खुले तौर पर अन्याय होता हुआ देखें, तब जो प्रकोप हो जाता है, क्या वह योग्य है?

दादाश्री : ऐसा है कि ये क्रोध, चिढ़ वगैरह सभी कमज़ोरियाँ हैं, सिर्फ वीकनेस हैं। पूरे जगत् के पास ये कमज़ोरियाँ हैं।

(पृ.२)

दादाश्री : कोई तुम्हें डाँटे तो तू उग्र हो जाता है न?

प्रश्नकर्ता : हाँ, हो जाता हूँ।

दादाश्री : तो वह कमज़ोरी कहलाएगी या मज़बूती कहलाएगी?

प्रश्नकर्ता : किसी जगह पर तो क्रोध होना ही चाहिए!

दादाश्री : नहीं, नहीं। क्रोध तो खुद ही कमज़ोरी है। ‘किसी जगह पर तो क्रोध होना ही चाहिए,’ वह तो संसारी बात है। यह तो, खुद से क्रोध नहीं निकल पाता इसलिए ऐसा कहता है कि क्रोध होना ही चाहिए!

मन भी नहीं बिगड़े, वह बलवान

प्रश्नकर्ता : तो फिर कोई मेरा अपमान करे और मैं शांति से बैठा रहूँ तो वह निर्बलता नहीं कहलाएगी?

दादाश्री : नहीं। ओहोहो! अपमान सहन करना, वह तो बहुत बड़ा बल कहलाता है! अभी हमें कोई गालियाँ दें तो हमें कुछ भी नहीं होगा, उसके लिए मन भी नहीं बिगड़ेगा, वही है बल! और निर्बलता तो ये सब किच-किच करते ही रहते हैं न, जीवमात्र लड़ते ही रहते हैं। वह सारी निर्बलता कहलाती हैं। अर्थात् शांति से अपमान सहन करना बहुत बड़ा बल कहलाता है और ऐसा अपमान एक ही बार पार कर जाएँ, एक स्टेप पार कर जाएँ न तो सौ स्टेप पार करने की शक्ति आ जाएगी। आपको समझ में आया न? सामने वाला यदि बलवान हो, तो जीवमात्र उसके सामने निर्बल हो ही जाता है। वह तो उसका स्वाभाविक गुण है लेकिन यदि कोई निर्बल व्यक्ति आपको छेड़े और तब भी आप उसे कुछ भी नहीं करो, तब वह बहुत बड़ा बल कहलाएगा।

वास्तव में तो निर्बल का रक्षण करना चाहिए और बलवान का

(पृ.३)

सामना करना चाहिए जबकि इस कलियुग में ऐसे लोग रहे ही नहीं न! अभी तो निर्बल को ही मारते रहते हैं और बलवान से तो भागते हैं। बहुत कम लोग हैं कि जो निर्बल की रक्षा करते हैं और बलवान का सामना करते हैं। यदि ऐसे लोग हों, तो उसे तो क्षत्रिय गुण कहा जाएगा। वर्ना पूरा जगत् कमज़ोरों को ही मारता रहता है। घर जाकर पति अपनी पत्नी पर शूरवीरता दिखाता है। खूंटे से बंधी हुई गाय को मारें तो वह किस ओर जाएगी? और खुली छोड़कर मारे तो? भाग जाएगी न, या फिर सामना करेगी।

खुद की शक्ति होने के बावजूद भी इंसान सामने वाले को तंग नहीं करे, अपने दुश्मन को भी दु:खी न करे, वह बहुत बड़ा बलवान कहलाता है। अभी कोई आप पर गुस्सा करे और आप भी उस पर गुस्सा हो जाओ तो क्या वह कमज़ोरी नहीं कहलाएगी? यानी मेरा क्या कहना है कि ये क्रोध-मान-माया और लोभ, ये सभी निर्बलताएँ हैं। जो बलवान है, उसे तो क्रोध करने की ज़रूरत ही कहाँ रही? लेकिन ये तो क्रोध का जितना ताप है, उस ताप से सामने वाले को बस में करने जाते हैं जबकि जिसे क्रोध नहीं है उसके पास कुछ होगा तो सही न? उसका शील नामक जो चारित्र है उससे जानवर भी वश में हो जाते हैं। बाघ, सिंह, दुश्मन वगैरह, पूरी सेना सभी वश हो जाते हैं!

क्रोधी, वह अबला ही

प्रश्नकर्ता : लेकिन दादा, कभी जब कोई व्यक्ति अपने सामने गरम हो जाए, तब क्या करना चाहिए?

दादाश्री : गरम तो हो ही जाएँगे न! उनके हाथ में थोड़े ही है? अंदर की मशीनरी हाथ में नहीं है न! यह तो जैसे-तैसे करके मशीनरी चलती रहती है। यदि खुद के हाथ में होता तो कोई मशीनरी गरम होने ही नहीं देता न! थोड़ा भी गरम हो जाना यानी गधा बन

(पृ.४)

जाना। मनुष्यपन में गधा बन गया! ऐसा कोई करेगा ही नहीं न! लेकिन जहाँ खुद के हाथ में नहीं है, वहाँ फिर क्या हो?

ऐसा है, इस जगत् में कभी भी गरम होने का कोई कारण ही नहीं है। कोई कहेगा कि, ‘यह बच्चा कहना नहीं मानता फिर भी गरम होने का कारण नहीं है। वहाँ तुझे ठंडे रहकर काम लेना चाहिए। यह तो तू निर्बल है इसलिए गरम हो जाता है। और गरम हो जाना, भयंकर निर्बलता कहलाती है। अत: जब बहुत अधिक निर्बलता होगी, तभी गरम होगा न! अत: जो गरम होता है उस पर तो दया रखनी चाहिए कि इस बेचारे का इस पर बिल्कुल भी कंट्रोल नहीं है। जिसका खुद का स्वभाव ही उसके कंट्रोल में नहीं है, उस पर दया रखनी चाहिए।

गरम होना क्या है? पहले खुद जलना और फिर सामने वाले को जला देना। यह दियासलाई लगाना यानी खुद भभककर जलना और फिर सामने वाले को जला देना। अगर गरम होना खुद के हाथ में होता तो कोई गरम होता ही नहीं न! जलन किसे पसंद है? यदि कोई ऐसा कहे कि, ‘कितनी ही बार संसार में क्रोध करने की ज़रूरत पड़ती है।’ तब मैं कहूँगा कि, ‘नहीं, कोई ऐसा कारण नहीं है कि जहाँ पर क्रोध करने की ज़रूरत हो।’ क्रोध तो निर्बलता है इसलिए वह हो जाता है। भगवान ने इसलिए अबला कहा है। पुरुष तो किसे कहते हैं? जिसमें क्रोध-मान-माया और लोभ की निर्बलता न हो, उसे भगवान ने पुरुष कहा है। यानी ये जो पुरुष दिखाई देते हैं उन्हें भी अबला कहा है लेकिन इन्हें शर्म नहीं आती है न, उतना अच्छा है! वर्ना अबला कहने पर तो शरमा जाते हैं न? लेकिन इन्हें कुछ भान ही नहीं है। भान कितना है? नहाने का पानी रखो तो नहा लेता है। खाना, नहाना, सोना वगैरह सब भान है लेकिन और कुछ भान नहीं है, मनुष्यपना का जो विशेष भान कहा जाता है कि ये सज्जन पुरुष हैं, वैसी सज्जनता लोगों को दिखाई दें, उसका भान नहीं है।

(पृ.५)

क्रोध-मान-माया और लोभ तो खुली कमज़ोरी है और बहुत क्रोध आ जाए तो यों हाथ पैर यों काँपते हुए नहीं देखे हैं आपने?

प्रश्नकर्ता : शरीर भी मना करता है कि ‘तुझे क्रोध नहीं करना है।’

दादाश्री : हाँ, शरीर भी मना करता है कि यह अपने को शोभा नहीं देता। यानी क्रोध तो कितनी बड़ी कमज़ोरी है! अत: क्रोध नहीं होना चाहिए हम में।

पड़े प्रभाव, बिना कमज़ोरी के

प्रश्नकर्ता : कोई व्यक्ति छोटे बच्चे को बहुत ही मार रहा हो और उस समय हम वहाँ से गुज़र रहे हों, तब उस व्यक्ति को रोकें और अगर नहीं माने तो अंत में डाँटकर, क्रोध करके उसे एक तरफ हटा देना चाहिए या नहीं?

दादाश्री : क्रोध करोगे, तो भी वह मारे बगैर नहीं रहेगा। अरे, आपको भी मारेगा न! फिर भी उसे धीरे से कहो ‘उस पर क्रोध किसलिए करते हो?’ व्यवहारिक बातचीत करो। वर्ना, सामने क्रोध करोगे तो वह वीकनेस है।

प्रश्नकर्ता : तो उसे बच्चे को मारने दें?

दादाश्री : नहीं, वहाँ पर आपको जाकर कहना चाहिए कि, ‘भाई, आप ऐसा क्यों कर रहे हो? इस बालक ने आपका क्या बिगाड़ा है?’ उसे इस तरह समझाकर बात करनी चाहिए। यदि आप उस पर क्रोध करोगे तो वह क्रोध आपकी कमज़ोरी है। प्रथम तो खुद में कमज़ोरी नहीं होनी चाहिए। जिसमें कमज़ोरी नहीं होती उसका प्रभाव पड़ता है न! वह तो अगर यों ही, साधारण रूप से भी कहा जाए न, तो भी सब मान जाएँगे।

(पृ.६)

प्रश्नकर्ता : शायद न मानें।

दादाश्री : नहीं मानने का क्या कारण है? आपका प्रभाव नहीं पड़ता। अर्थात् कमज़ोरी नहीं होनी चाहिए, चारित्रवान होना चाहिए। ‘मेन ऑफ पर्सनालिटी’ होनी चाहिए! लाखों गुंडे उसे देखते ही भाग जाएँ! चिड़-चिड़े आदमी से कोई नहीं भागता, बल्कि मारेंगे भी! संसार तो कमज़ोर को ही मारता है न!

अर्थात् मेन ऑफ पर्सनालिटी होनी चाहिए। पर्सनालिटी कब आती है? विज्ञान जानने पर पर्सनालिटी आती है। इस जगत् में जिसे भूल जाते हैं, वह (रिलेटिव) ज्ञान है और जिसे कभी भी नहीं भूला जा सके, वह विज्ञान है!

गरमी से भी प्रभावकारी है हिम

तुम्हें पता है, हिम गिरता है वह? अब हिम का मतलब बहुत ही ठंड होती है न? उस हिम से पेड़ जल जाते हैं, सारा कपास, घास सभी कुछ जल जाता है। तू ऐसा जानता है क्या? वे ठंड में क्यों जल जाते होंगे?

प्रश्नकर्ता : ‘ओवर लिमिट’ ठंड के कारण।

दादाश्री : हाँ, यानी यदि तू ठंडा बनकर रहेगा तो वैसा शील उत्पन्न हो जाएगा।

जहाँ क्रोध बंद, वहाँ प्रताप

प्रश्नकर्ता : लेकिन दादा, ज़रूरत से ज़्यादा ठंडा होना भी एक प्रकार की कमज़ोरी ही है न?

दादाश्री : ज़रूरत से ज़्यादा ठंडा होने की ज़रूरत ही नहीं है। आपको तो लिमिट में रहना है, उसे ‘नॉर्मेलिटी’ कहते हैं। बिलो नॉर्मल इज़ द फीवर, अबव नॉर्मल इज़ द फीवर, नाइन्टी एट इज़ द नॉर्मल। अत: हमें नॉर्मेलिटी ही चाहिए।

(पृ.७)

लोग क्रोधी के बजाय क्रोध नहीं करने वाले से अधिक घबराते हैं। क्या कारण होगा उसका? क्रोध बंद होने पर प्रताप उत्पन्न होता है। कुदरत का नियम है ऐसा! नहीं तो उसे रक्षण करने वाले ही नहीं मिलेंगे न! क्रोध तो रक्षण था, अज्ञानता में क्रोध से रक्षण होता था।

चिड़-चिड़े का नंबर आखिरी

प्रश्नकर्ता : सात्विक चिढ़ या फिर सात्विक क्रोध अच्छा है या नहीं?

दादाश्री : उसे लोग क्या कहते हैं? ये बच्चे भी उसे क्या कहते हैं कि, ‘ये तो चिड़चिड़े ही हैं!’ चिढ़ तो मूर्खता है, फूलिशनेस है! चिढ़ को कमज़ोरी कहते हैं। बच्चों से हम पूछें कि, ‘तेरे पापा जी कैसे हैं?’ तब वे भी कहेंगे कि, ‘वे तो बहुत चिड़चिड़े हैं!’ बोलो, अब इज़्ज़त बढ़ी या घटी? ऐसी वीकनेस नहीं होनी चाहिए। अत: जहाँ सात्विकता है, वहाँ वीकनेस नहीं होगी।

जब घर में छोटे बच्चों से पूछें कि, ‘तेरे घर में पहला नंबर किसका?’ तब बेटा ढूँढ निकालता है कि मेरी दादी नहीं चिढ़ती, इसलिए सब से अच्छी वे हैं। पहला नंबर उनका। फिर दूसरा, तीसरा, ऐसे करते-करते पापा का नंबर अंत में आता है! किसलिए? क्योंकि वे चिड़चिड़े हैं, इसलिए। मैं कहूँ कि, ‘पापा पैसे लाकर खर्च करते हैं फिर भी उनका आखिरी नंबर?’ तब वे कहते हैं, ‘हाँ’। बोलो अब, मेहनत-मज़दूरी करते हो, खिलाते हो, पैसे लाकर देते हो, फिर भी आखिरी नंबर आपका ही आता है न?

क्रोध यानी अंधापन

प्रश्नकर्ता : सामान्य रूप से, मनुष्य को क्रोध आने का मुख्य कारण क्या हो सकता है?

(पृ.८)

दादाश्री : दिखाई देना बंद हो जाता है, इसलिए! मनुष्य दीवार से कब टकराता है? जब उसे दीवार दिखाई नहीं देती, तब टकरा जाता है न? उसी तरह जब अंदर दिखाई देना बंद हो जाता है तो मनुष्य से क्रोध हो जाता है। आगे का रास्ता नहीं मिलता इसलिए क्रोध हो जाता है।

सूझ नहीं पड़ने पर क्रोध

क्रोध कब आता है? तो कहते हैं, ‘जब दर्शन रुक जाता है तब ज्ञान रुक जाता है, तब क्रोध उत्पन्न होता है।’ मान भी ऐसा ही है। जब दर्शन रुक जाता है, तब ज्ञान रुक जाता है और तब मान खड़ा हो जाता है।

प्रश्नकर्ता : उदाहरण देकर समझाइए तो अधिक सरलता रहेगी।

दादाश्री : लोग नहीं कहते कि ‘क्यों इतने गुस्सा हो गए?’ तो कहते हैं, ‘मुझे कुछ नहीं सूझता, इसलिए गुस्सा हो गया।’ हाँ, जब कुछ सूझ नहीं पड़ती, तब मनुष्य गुस्सा हो जाता है। जिसे सूझ पड़े, क्या वह गुस्सा करेगा? गुस्सा हुआ तो वह गुस्सा पहला इनाम किसे देता है? जहाँ से निकलता है, वहाँ। पहले खुद को जलाता है फिर दूसरों को जलाता है।

क्रोधाग्नि जलाए स्व-पर को

क्रोध यानी खुद अपने ही घर में दियासलाई लगाना। खुद के घर में घास भरकर उसमें दियासलाई लगाना, वह क्रोध है। यानी पहले खुद जलता है और फिर पड़ोसी को जलाता है।

किसी के खेत में घास के बड़े-बड़े गट्ठर इकट्ठे किए हुए हो लेकिन एक ही दियासलाई डालने पर क्या होगा?

प्रश्नकर्ता : जल जाएगा।

(पृ.९)

दादाश्री : उसी तरह एक बार क्रोध करने पर, दो साल में जो कमाया हो, वह मिट्टी में मिल जाता है। क्रोध मतलब प्रकट अग्नि। उसे खुद को पता नहीं चलता है कि मैंने मिट्टी में मिला दिया क्योंकि बाहर की चीज़ों में कोई कमी नहीं आती लेकिन भीतर सब खत्म हो जाता है। अगले जन्म की जो सभी तैयारियाँ होंगी न, उनमें से थोड़ा खर्च हो जाता है और अगर ज़्यादा खर्च हो जाए तो क्या होगा? यहाँ जब मनुष्य योनि में था, तब रोटी खाता था, फिर वहाँ चारा खाने (जानवर में) जाना पड़ेगा। रोटी छोड़कर यों चारा खाने जाना पड़ेगा। क्या वह अच्छा कहलाएगा?

वर्ल्ड में कोई भी मनुष्य क्रोध को नहीं जीत सकता। क्रोध के दो रूप हैं, एक कढ़ापा (कुढऩ) और दूसरा अजंपा (बेचैनी)। जो लोग क्रोध को जीतते हैं, वे कढ़ापा को जीतते हैं। इसमें ऐसा रहता है कि एक को दबाने जाए, तो दूसरा बढ़ जाता है और कहे कि ‘मैंने क्रोध को जीत लिया’, तो फिर मान बढ़ेगा। वास्तव में क्रोध को पूर्णतया नहीं जीता है। द्रश्यमान (दिखाई देने वाले) क्रोध को जीत लिया है, ऐसा कहा जाएगा।

तंत, वही क्रोध

जिस क्रोध में तंत है, वही क्रोध कहलाता है। उदाहरण के तौर पर पति-पत्नि रात में खूब झगड़े, क्रोध ज़बरदस्त धधक उठे, पूरी रात दोनों जागते हुए पड़े रहे। सुबह बीवी ने चाय का प्याला ज़रा पटककर रखा, तो पति समझ जाएगा कि अभी तंत है! यही क्रोध है। फिर भले ही तंत कितने भी समय के लिए हो! अरे, कई लोगों को तो ज़िंदगीभर रहता है! बाप बेटे का मुँह नहीं देखता और बेटा बाप का मुँह नहीं देखता! क्रोध का तंत तो बिगड़े हुए चेहरे पर से ही पता चल जाता है।

तंत एक ऐसी चीज़ है कि अगर किसी ने पंद्रह साल पहले

(पृ.१०)

आपका अपमान किया हो और वह व्यक्ति पंद्रह साल बाद आज आपको मिल जाए तो मिलते ही आपको सब याद आ जाता है। वह है तंत। बाकी, तंत तो किसी का भी जाता नहीं है। बड़े-बड़े साधु महाराज भी तंत वाले होते हैं। रात को यदि आपने कुछ मज़ाक उड़ाया हो न तो पंद्रह-पंद्रह दिनों तक आपसे बात नहीं करेंगे, वह तंत!

फर्क, क्रोध और गुस्से में

प्रश्नकर्ता : दादा जी, गुस्से और क्रोध में क्या फर्क है?

दादाश्री : क्रोध उसे कहेंगे, जो अहंकार सहित है। जब गुस्सा और अहंकार दोनों एक साथ हों, तब क्रोध कहलाता है। बाप बेटे पर गुस्सा करे तो वह क्रोध नहीं कहलाता। उस क्रोध में अहंकार नहीं होता इसलिए वह गुस्सा कहलाता है। इसीलिए भगवान ने कहा है कि, ‘यह गुस्सा कर रहा है फिर भी उसका पुण्य जमा करना।’ तब पूछा, ‘यह गुस्सा कर रहा है, फिर भी?’ तब कहा, ‘क्रोध करे तो पाप है, गुस्से में पाप नहीं है।’ क्रोध में अहंकार मिला हुआ होता है और जब आपको गुस्सा आता है, तब भीतर आपको बुरा लगता है न?

क्रोध-मान-माया और लोभ दो तरह के होते हैं।

एक प्रकार का क्रोध वह कि जो मोड़ा जा सके- निवार्य। किसी पर क्रोध आ जाए तो उसे अंदर ही अंदर मोड़ा जा सके और उसे शांत किया जा सके, ऐसे, मोड़ा जा सके वैसा क्रोध। इस स्टेज तक पहुँचे तो व्यवहार बहुत सुंदर हो जाएगा!

दूसरे प्रकार का क्रोध वह है कि जो मोड़ा नहीं जा सके-अनिवार्य। बहुत प्रयत्न करने पर भी पटाखा फूटे बगैर रहता ही नहीं! वह मोड़ा नहीं जा सके वैसा, अनिवार्य क्रोध। ऐसा क्रोध खुद का अहित करता है और सामने वाले का भी अहित करता है।

(पृ.११)

भगवान ने कहाँ तक का क्रोध चला लिया है? साधुओं के लिए और चारित्र वालों के लिए? जब तक सामने वाले मनुष्य के लिए दु:खदाई न हो, उतने क्रोध को भगवान ने चला लिया है। मेरा क्रोध सिर्फ मुझे ही दु:ख दे लेकिन अन्य किसी को दु:खदाई न हो उतना क्रोध चला लिया है।

जानने वाले को पहचानो

प्रश्नकर्ता : हम सभी जानते हैं कि यह क्रोध आया, वह गलत है। फिर भी...

दादाश्री : ऐसा है न, जो क्रोधी है वह नहीं जानता, लोभी है वह नहीं जानता, मानी है वह भी नहीं जानता, जानने वाला जुदा ही है। और इन सभी लोगों को मन में ऐसा होता है कि ‘मैं जानता हूँ’ फिर भी क्यों हो जाता है? अब ‘जानता हूँ’, कहने वाला कौन है? यह मालूम नहीं है। ‘कौन जानता है’ यह मालूम नहीं है। बस इतना ही ढूँढ निकालना है। ‘जानने वाले’ को ढूँढ निकालें, तो यह सब चला जाए, ऐसा है। जानते ही नहीं हैं, जानना तो उसे कहते हैं कि चला ही जाए, खड़ा ही नहीं रहे।

सम्यक् उपाय, जानो एक बार

प्रश्नकर्ता : ऐसा जानने के बावजूद भी क्रोध हो जाता है। उसका क्या निवारण है?

दादाश्री : कौन जानता है? जानने के बाद क्रोध होगा ही नहीं। क्रोध हो जाता है इसका मतलब जानते ही नहीं, सिर्फ अहंकार करते हो कि ‘मैं जानता हूँ।’

प्रश्नकर्ता : क्रोध हो जाने के बाद ध्यान आता है कि हमें क्रोध नहीं करना चाहिए।

(पृ.१२)

दादाश्री : नहीं, लेकिन जानने के बाद क्रोध नहीं होगा। हमने यहाँ पर दो शीशियाँ रखी हों, वहाँ पर किसी ने समझाया हो कि यह दवाई है और दूसरी शीशी में पॉइज़न है। दोनों एक सी दिखाई देती हैं लेकिन उसमें भूलचूक हो जाए तो समझ में आएगा न कि यह जानता ही नहीं? भूलचूक नहीं हो तभी कह सकते हैं कि ‘यह जानता है’ लेकिन भूलचूक हो जाती है तो यह बात पक्की हो गई कि वह जानता ही नहीं था। उसी प्रकार जब क्रोध हो जाता है, तब कुछ भी जानते नहीं हो और यों ही जानने का अहंकार लेकर घूमते रहते हो। उजाले में ठोकरें लगेंगी क्या? यानी जब तक ठोकरें लगती हैं, तब तक कुछ जाना ही नहीं। यह तो, अंधेरे को ही उजाला कहते हैं, वह अपनी भूल है। इसलिए सत्संग में बैठकर ‘जानो’ एक बार, फिर क्रोध-मान-माया और लोभ सभी कुछ चला जाएगा।

प्रश्नकर्ता : क्रोध तो सभी को आ जाता है न!

दादाश्री : लेकिन इस भाई से पूछो, वे तो मना कर रहे हैं।

प्रश्नकर्ता : सत्संग में आने के बाद फिर क्रोध नहीं आता न!

दादाश्री : ऐसा? उन्होंने कौन सी दवाई ली होगी? द्वेष का मूल चला जाए, ऐसी दवाई ली है।

समझदारी से

प्रश्नकर्ता : मेरा कोई नज़दीकी रिश्तेदार है उस पर मैं क्रोधित हो जाता हूँ। वह उसकी दृष्टि से शायद सही भी हो लेकिन मैं अपनी दृष्टि से क्रोधित हो जाता हूँ, तो किस वजह से क्रोधित हो जाता हूँ?

दादाश्री : आप आ रहे हो और इस मकान पर से एक पत्थर सिर पर आ गिरा और खून निकला, तो क्या उस समय बहुत क्रोध करोगे?

(पृ.१३)

प्रश्नकर्ता : नहीं, वह तो हैपन (हो गया) है।

दादाश्री : नहीं, लेकिन वहाँ पर क्रोध क्यों नहीं करते? यदि खुद ने किसी को देखा नहीं तो क्रोध कैसे होगा?

प्रश्नकर्ता : किसी ने जान-बूझकर नहीं मारा।

दादाश्री : और अभी बाहर जाएँ और कोई लड़का यदि पत्थर मारे, वह लग जाए और खून निकलने लगे तो उस पर क्रोध करते हैं, वह क्यों? ‘उसने मुझे पत्थर मारा, और खून निकला’ इसलिए क्रोध करते हैं कि ‘तूने क्यों मारा?’ और जब पहाड़ पर से लुढ़कता-लुढ़कता पत्थर आकर लगे और माथे से खून बहने लगे, तो देखता है लेकिन क्रोध नहीं करता।

उनके मन में ऐसा लगता है कि ‘यही कर रहा है।’ कोई व्यक्ति जान-बूझकर मार ही नहीं सकता। अर्थात् पहाड़ पर से पत्थर का लुढ़कना और मनुष्य का पत्थर मारना, दोनों एक जैसा ही है। लेकिन भ्रांति से ऐसा दिखाई देता है कि यह कर रहा है। इस वर्ल्ड में किसी मनुष्य को संडास जाने की भी शक्ति नहीं है।

यदि हमें पता चले कि किसी ने जान-बूझकर नहीं मारा तो वहाँ क्रोध नहीं करते हैं। फिर कहता है, ‘मुझे क्रोध आ जाता है। मेरा स्वभाव क्रोधी है।’ अरे, स्वभाव से क्रोध नहीं आता। वहाँ पुलिस वाले के सामने क्यों नहीं आता? पुलिस वाला डाँटे उस समय क्यों क्रोध नहीं आता? उसे पत्नी पर गुस्सा आता है, बच्चों पर क्रोध आता है, पड़ौसी पर, ‘अन्डर हैन्ड’ (मातहत) पर क्रोध आता है लेकिन ‘बॉस’ पर क्यों नहीं आता? यों ही स्वभावत: मनुष्य को क्रोध नहीं आ सकता। यह तो उसेअपनी मनमानी करनी है।

प्रश्नकर्ता : कैसे कंट्रोल करें?

(पृ.१४)

दादाश्री : समझ से। यह जो आपके सामने आता है, वह तो निमित्त है और आपके ही कर्म का फल दे रहा है। वह निमित्त बन गया है। अब ऐसा समझ में आ जाए तो क्रोध कंट्रोल में आ जाएगा। जब ऐसा देखते हो कि पत्थर पहाड़ पर से गिरा, तब क्रोध कंट्रोल में आ जाता है। तो इसमें भी समझ लेना है कि भाई, यह सब पहाड़ जैसा ही है।

रास्ते में कोई गाड़ी वाला गलत रास्ते से आपके सामने आ जाए, तो लड़ते नहीं हो न? क्रोध नहीं करते हो न? क्यों? आप टक्कर लगाकर तोड़ देते हो उसे? ऐसा करते हो? नहीं। तो वहाँ क्यों नहीं करते? वहाँ समझ जाता है कि मैं मर जाऊँगा। अरे भाई, उससे ज़्यादा तो यहाँ क्रोध करने में मर जाते हो लेकिन यह चित्र नज़र नहीं आता और वह खुला दिखाई देता है, इतना ही फर्क है! वहाँ रोड पर सामना नहीं करता? क्रोध नहीं करता सामने वाले की भूल हो फिर भी?

प्रश्नकर्ता : नहीं।

दादाश्री : उसी तरह जीवन में भी समझ लेने की ज़रूरत है।

परिणाम तो, कॉज़ेज़ बदलने से ही बदलेंगे

एक भाई ने मुझ से कहा कि, ‘अनंत जन्मों से इस क्रोध को निकाल रहे हैं, फिर भी यह क्रोध जाता क्यों नहीं?’ तब मैंने कहा कि, ‘आप क्रोध निकालने के उपाय नहीं जानते हो।’ तब उसने कहा कि, ‘क्रोध निकालने के तो जो उपाय शास्त्र में लिखे हैं, वे सभी करते हैं, फिर भी क्रोध नहीं जाता।’ तब मैंने कहा कि, ‘सम्यक् उपाय होना चाहिए।’ तब कहा कि, ‘बहुत सम्यक् उपाय पढ़े हैं लेकिन उनमें से कुछ भी काम में नहीं आया।’ फिर मैंने कहा कि, ‘क्रोध को बंद करने का उपाय ढूँढना मूर्खता है क्योंकि क्रोध तो परिणाम है। जैसे कि आपने परीक्षा दी और रिज़ल्ट आया और मैं

(पृ.१५)

रिज़ल्ट को नाश करने का उपाय करूँ, उसके जैसी बात हुई। यह जो रिज़ल्ट आया, वह किसका परिणाम है, हमें उसे बदलने की ज़रूरत है।’

लोगों ने क्या कहा है कि, ‘क्रोध को दबाओ, क्रोध को निकालो।’ अरे, ऐसा क्यों करते हो? बिना बात के दिमाग़ बिगाड़ रहे हो! इसके बावजूद भी क्रोध निकलता तो है नहीं। फिर भी लोग कहेंगे कि, ‘नहीं साहब, थोड़ा-बहुत क्रोध दब गया है।’ अरे, जब तक वह अंदर है तब तक वह दबा हुआ नहीं कहा जा सकता। तब उन भाई ने कहा कि, ‘तो आपके पास और कोई उपाय है?’ मैंने कहा, ‘हाँ, उपाय है। आप करोगे?’ तब उन्होंने कहा, ‘हाँ’। तब मैंने कहा कि, ‘एक बार तो नोट करो कि इस जगत् में खास तौर पर किस पर अधिक क्रोध आता है?’ जहाँ-जहाँ क्रोध आता है, उसे ‘नोट’ कर लो और जहाँ क्रोध नहीं आता, उसे भी जान लो। एक बार लिस्ट में डाल दो कि इस व्यक्ति पर क्रोध नहीं आता। कुछ लोग उल्टा करते हैं फिर भी उन पर क्रोध नहीं आता और कुछ तो बेचारे सीधा कर रहे हों फिर भी उन पर क्रोध आ जाता है तो फिर कोई कारण तो होगा न?

प्रश्नकर्ता : उसके लिए मन के अंदर ग्रंथि बन गई होगी?

दादाश्री : हाँ, ग्रंथि बन चुकी है, उस ग्रंथि को छोड़ने के लिए अब क्या करें? परीक्षा तो दे चुके हो। जितनी बार उसके प्रति क्रोध होना है, उतनी बार हो ही जाएगा और उसके लिए ग्रंथि भी बन चुकी है लेकिन आगे से आपको क्या करना चाहिए? जिस पर क्रोध आता है उसके लिए मन नहीं बिगड़ने देना चाहिए। मन को सुधारना कि भाई, अपने प्रारब्ध के हिसाब से यह व्यक्ति ऐसा कर रहा है। वह जो कुछ कर रहा है, वह मेरे कर्म के उदय है इसलिए ऐसा कर रहा है। इस प्रकार मन को सुधार लेना।

(पृ.१६)

मन को सुधारते रहोगे और सामने वाले के प्रति मन सुधर जाएगा तो उसके प्रति क्रोध आना बंद हो जाएगा। कुछ समय तक, जो पिछला इफेक्ट है, पहले का इफेक्ट है, उतना इफेक्ट देकर फिर बंद हो जाएगा।

यह ज़रा सूक्ष्म बात है और सूक्ष्म है इसलिए लोगों को पता नहीं चल पाया। हर एक चीज़ का उपाय तो होता ही है न! जगत् बगैर उपाय के तो है ही नहीं न! जगत् तो परिणाम का ही नाश करना चाहता है। अत: क्रोध-माना-माया और लोभ का उपाय यह है। परिणाम को कुछ भी मत करो, उसके कॉज़ेज़ को खत्म करो तो ये सभी चले जाएँगे। यानी वह खुद विचारक होना चाहिए। वर्ना अगर अजागृत होगा तो किस प्रकार उपाय करेगा?

प्रश्नकर्ता : कॉज़ेज़ किस तरह खत्म करें, वह ज़रा फिर से समझाइए न!

दादाश्री : इस भाई पर मुझे क्रोध आ रहा हो तो फिर मैं नक्की करूँगा कि इस पर जो क्रोध आ रहा है वह, मैंने पहले जो उसके दोष देखे हैं, उसका परिणाम है। अब यह जो दोष कर रहा है, उन्हें यदि मन पर नहीं लूँगा तो फिर उसके प्रति क्रोध बंद होता जाएगा। लेकिन कुछ पूर्व के परिणाम हैं, उतने आ जाएँगे लेकिन आगे के दूसरे सब बंद हो जाएँगे।

प्रश्नकर्ता : दूसरे के दोष दिख जाते हैं, क्या उस वजह से क्रोध आता है?

दादाश्री : हाँ। वे दोष देखते हैं, उन्हें भी हमें जान लेना है कि ये भी गलत परिणाम हैं। अर्थात् जब इन गलत परिणामों को देखना बंद हो जाएगा, उसके बाद क्रोध बंद हो जाएगा। हमारा दोष देखना बंद हो गया तो फिर सबकुछ बंद हो गया।

(पृ.१७)

क्रोध के मूल में अहंकार

लोग पूछते हैं, हमारे इस क्रोध का क्या इलाज करें? मैंने कहा, ‘अभी आप क्या करते हैं?’ तब कहते हैं, ‘क्रोध को दबाते रहते हैं।’ मैंने पूछा, ‘पहचानकर दबाते हो या बिना पहचाने? क्रोध को पहचानना तो होगा न?’ क्रोध और शांति दोनों साथ-साथ बैठे हैं। अब हम क्रोध को नहीं पहचान पाएँ और शांति को दबा दें तो शांति मर जाएगी बल्कि! अत: यह दबाने जैसी चीज़ नहीं है। तब उसकी समझ में आया कि क्रोध अहंकार है। अब किस प्रकार के अहंकार से क्रोध होता है, इसका पता लगाना चाहिए।

बेटे ने ग्लास फोड़ा तो क्रोध आ गया, वहाँ हमारा क्या अहंकार है? इस ग्लास का नुकसान होगा, ऐसा अहंकार है। नफा व नुकसान का अहंकार है हमारा! इसलिए नफा व नुकसान के अहंकार को, उस पर सोच-विचार करके, निर्मूल करो। गलत अहंकार को संभालकर रखने से क्रोध होता रहता है। क्रोध है, लोभ है, वास्तव में तो इन सभी की जड़ में अहंकार ही है।

क्रोध का शमन, किस समझ से?

क्रोध खुद ही अहंकार है। अब उसका पता लगाना चाहिए। पता लगाओ कि किस प्रकार से वह अहंकार है। जब उसकी जाँच करें, तब पकड़ में आता है कि क्रोध अहंकार है। यह क्रोध क्यों उत्पन्न हुआ? तब कहते हैं कि, ‘इस बहन ने कप और प्लेट फोड़ दिए इसलिए क्रोध उत्पन्न हुआ।’ अब कप और प्लेट फोड़ दे, उसमें हमें क्या हर्ज है? तब कहते हैं कि, ‘हमारे घर में नुकसान हुआ।’ और नुकसान हुआ तो क्या फिर उसे डाँट दें? लेकिन अहंकार करना, डाँटना वगैरह को अगर बारीकी से सोचा जाए तो ऐसा है कि सोचने से ही वह सारा अहंकार धुल जाएगा। अब इन कप का टूटना, वह निवार्य

(पृ.१८)

है या अनिवार्य है? निवार्य संयोग होते हैं या नहीं होते? नौकर को सेठ डाँटता है कि, ‘अरे, कप और प्लेट क्यों फोड़ दिए? तेरे हाथ टूटे हुए थे क्या? और तेरा ऐसा था और वैसा था।’ यदि अनिवार्य हो तो क्या उसे डाँट सकते हैं? जमाई के हाथ से कप और प्लेट फूट गए हों तो वहाँ कुछ भी नहीं कहते! क्योंकि वह सुपीरियर है, वहाँ चुप! अगर इन्फिरियर हो तो छिट्-छिट् करता है! ये सब इगोइज़म हैं। सुपीरियर के सामने क्या सभी चुप नहीं हो जाते? इन दादा के हाथ से कुछ फूट जाए तो किसी के मन में कुछ आता ही नहीं और नौकर के हाथ से फूट जाए तो?

इस जगत् ने न्याय कभी देखा ही नहीं। यह सब नासमझी के कारण है। यदि बुद्धि समझदार होती न तो भी बहुत था! बुद्धि यदि विकसित हो, समझ वाली हो तो कहीं भी कोई झगड़ा होगा ही नहीं। अब झगड़ा करने से क्या कप और प्लेट जुड़ जाते हैं? सिर्फ संतोष मिलता है, उतना ही न? इससे तो बल्कि कलह हो जाती है, वह अलग। मन में क्लेश हो जाता है, वह अलग। इस व्यापार में तो एक तो प्याले गए वह नुकसान; दूसरा, यह क्लेश हुआ वह नुकसान और तीसरा, नौकर के साथ बैर बंधा वह नुकसान! नौकर बैर बाँधता है कि ‘मैं गरीब हूँ’, इसीलिए ये मुझे अभी ऐसा कह रहे हैं न! लेकिन वह बैर छोड़ेगा नहीं और भगवान ने कहा है कि बैर किसी के भी साथ मत बाँधना। शायद कभी प्रेम बाँध सके तो बाँधना लेकिन बैर मत बाँधना। क्योंकि प्रेम बंधेगा तो वह प्रेम अपने आप ही बैर को खोद डालेगा। प्रेम तो ऐसा है कि बैर की कबर खोद डाले लेकिन बैर से तो बैर बढ़ता ही जाता है। इस प्रकार निरंतर बढ़ता ही जाता है। बैर के कारण ही तो यह भटकन है सारी! ये मनुष्य किसलिए भटकते हैं? क्या तीर्थंकर नहीं मिले थे? तो कहते हैं, ‘नहीं, तीर्थंकर तो बहुत सारे मिले थे। उनकी देशना भी सुनी लेकिन कुछ हुआ नहीं।’

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किस-किस बात में अड़चनें आती हैं? कहाँ-कहाँ परेशानी होती है? उन परेशानियों को खत्म कर दो न! यदि परेशानी होती है तो वह संकुचित दृष्टि है। तो ‘ज्ञानीपुरुष’ लोंग साइट दे देते हैं। उस लोंग साइट के आधार पर सबकुछ ‘ज्यों का त्यों’ दिखाई देता है!

जब बच्चों पर गुस्सा आए तब...

प्रश्नकर्ता : घर में बच्चों पर क्रोध आता है तो क्या करूँ?

दादाश्री : नासमझी से क्रोध आता है। जब आप उसे पूछो कि ‘तुझे बड़ा मज़ा आया था?’ तब वह कहेगा कि ‘मुझे अंदर बहुत बुरा लगा, बहुत दु:ख हुआ था।’ उसे दु:ख होता है, आपको दु:ख होता है! इसमें बच्चे पर चिढऩे की ज़रूरत ही कहाँ रही फिर? और चिढऩे से सुधरते हैं तो चिढऩा। रिज़ल्ट (परिणाम) अच्छा आए तो चिढऩा काम का है। रिज़ल्ट ही अच्छा नहीं आए तो चिढऩे का क्या अर्थ है? क्रोध करने से फायदा होता हो तो करना और यदि फायदा नहीं हो तो ऐसे ही चला लेना न!

प्रश्नकर्ता : अगर हम क्रोध न करें तो वह हमारी सुनेगा ही नहीं, खाएगा भी नहीं।

दादाश्री : क्रोध करने के बाद भी कहाँ सुनते हैं?!

वीतरागों की सूक्ष्मता तो देखो

फिर भी लोग क्या कहते हैं कि यह बाप अपने बेटे पर इतना गुस्सा हो गया है न, इसलिए यह बाप नालायक आदमी है और कुदरत के वहाँ इसका क्या न्याय होता होगा? ‘इस बाप के हिस्से में पुण्य रखो।’ हाँ, क्योंकि बेटे के हित के लिए खुद अपने आप पर संघर्षण लेता है न! बेटे के सुख के लिए खुद ने संघर्षण मोल लिया, इसलिए इसे पुण्य दो! वर्ना किसी भी प्रकार का क्रोध पाप

(पृ.२०)

का ही बंधन करता है लेकिन सिर्फ यही क्रोध जो बेटे के या शिष्य के सुख के लिए करते हो, उसमें आप खुद को जलाकर उसके सुख के लिए करते हो इसलिए उससे पुण्य बंधता है। फिर भी यहाँ तो लोग उसे अपयश ही देते रहते हैं! लेकिन ईश्वर के घर पर सही नियम है या नहीं? लोग खुद के बेटे पर या बेटी पर क्रोध करते हैं लेकिन उसमें हिंसकभाव नहीं होता। बाकी, सभी जगह हिंसकभाव होता है। फिर भी उसमें तंत रहा करता है क्योंकि जैसे ही वह बेटे को देखता है तो अंदर फिर से क्लेश होने लगता है। उसका वह तंत रहा करता है।

अब यदि क्रोध में हिंसकभाव और तंत, ये दो चीज़ें न रहें तो मोक्ष हो जाएगा। और सिर्फ हिंसकभाव नहीं है, सिर्फ तंत है तब भी पुण्य बंधता है। कैसी सूक्ष्मता से भगवान ने ढूँढ निकाला है न!

क्रोध करे फिर भी बाँधे पुण्य

भगवान ने कहा है कि यदि दूसरों के भले के लिए क्रोध करता है, परमार्थ हेतु क्रोध करता है तो उसके फलस्वरूप पुण्य मिलता है।

अब इस क्रमिक मार्ग में तो शिष्य घबराते ही रहते हैं कि ‘‘अभी कुछ कहेंगे, अभी कुछ कहेंगे।’’ और वे(गुरु) भी पूरे दिन सुबह से अकुलाया हुआ ही बैठा रहता है। तो ठेठ दसवें गुणस्थानक तक यही हाल। वह आँखें लाल करे तो अंदर आग लगती है। यह वेदना, कितनी वेदना होती होगी! तब कैसे पहुँच पाएँगे? मोक्ष पाना क्या यों ही लड्डू खाने का खेल है? यह तो, कभी-कभार ही ऐसा अक्रम विज्ञान प्राप्त होता है।

क्रोध यानी एक प्रकार का सिग्नल

संसार के लोग क्या कहते हैं कि इस भाई ने बेटेपर क्रोध किया इसलिए यह गुनहगार है और उसने पाप बाँधा। भगवान ऐसा

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नहीं कहते। भगवान कहते हैं कि, ‘लड़के पर क्रोध नहीं किया, इसलिए उसका बाप गुनहगार है। अत: उस पर सौ रुपए का जुर्माना।’ तब अगर कोई पूछे, ‘क्रोध करना ठीक है?’ तो कहते हैं, ‘नहीं, लेकिन अभी उसकी ज़रूरत थी। यदि यहाँ क्रोध नहीं किया होता तो लड़का उल्टे रास्ते चला जाता।’

अर्थात् क्रोध एक प्रकार का लाल सिग्नल है और कुछ नहीं। यदि आँख नहीं दिखाई होती, यदि क्रोध नहीं किया होता, तो लड़का उल्टे रास्ते पर चला जाता। इसलिए भगवान तो, बाप अगर लड़के पर क्रोध करे, फिर भी उसे सौ रुपए इनाम देते हैं।

क्रोध तो लाल झंडी है। पब्लिक को यह पता नहीं है और कितनी देर लाल झंडी दिखानी है, कितने समय तक दिखानी है, यह समझने की ज़रूरत है। अभी मेल गाड़ी जा रही हो और ढाई घंटे लाल झंडी लेकर बिना कारण खड़ा रहे तो क्या होगा? यानी लाल सिग्नल की ज़रूरत है लेकिन कितने टाइम (समय) रखना, वह समझने की ज़रूरत है।

ठंडा (शांत रहना), वह हरा सिग्नल है।

रौद्रध्यान परिणामित धर्मध्यान में

बच्चों पर क्रोध किया लेकिन अंदर आपका भाव क्या है कि ‘ऐसा नहीं होना चाहिए।’ अंदर आपका भाव क्या है?

प्रश्नकर्ता : ऐसा नहीं होना चाहिए।

दादाश्री : यानी यह रौद्रध्यान था, वह धर्मध्यान में परिणामित हो गया। क्रोध हुआ, फिर भी परिणाम में आया धर्मध्यान।

प्रश्नकर्ता : ऐसा नहीं होना चाहिए, यह भाव है इसलिए?

दादाश्री : हिंसक भाव नहीं है उसके पीछे। हिंसक भाव के

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बिना क्रोध हो ही नहीं सकता लेकिन क्रोध की एक खास दशा है कि यदि कोई खुद के बेटे, खुद के मित्र या खुद की वाइफ पर क्रोध करे तो पुण्य बंधता है क्योंकि यह देखा जाता है कि क्रोध करने के पीछे उसका हेतु क्या है?

प्रश्नकर्ता : प्रशस्त क्रोध।

दादाश्री : अप्रशस्त क्रोध, बुरा कहलाता है।

तो इस क्रोध में भी इतना भेद है। दूसरा, पैसों के लिए बेटे को भला-बुरा कहें कि तू व्यापार में ठीक से ध्यान नहीं दे रहा, वह क्रोध अलग है। बच्चे को सुधारने के लिए, चोरी कर रहा हो, दूसरा कुछ उल्टा-सीधा कर रहा हो, उसके लिए बेटे को डाँटे, क्रोध करे, तो इसे भगवान ने कहा है कि इसका फल पुण्य है। भगवान कितने समझदार!

क्रोध टालो ऐसे

प्रश्नकर्ता : हम क्रोध किस पर करते हैं? खास करके ऑफिस में सेक्रेटरी पर क्रोध नहीं करते और अस्पताल में नर्स पर नहीं करते, लेकिन घर में वाइफ पर हम क्रोध करते हैं।

दादाश्री : इसीलिए तो जब सौ लोग बैठे हों और सुन रहे हों, तब सब से कहता हूँ कि ऑफिस में बॉस (मालिक) धमकाए या कोई डाँटे तो लोग उन सब का क्रोध घर में बीवी पर निकालते हैं। इसलिए मुझे कहना पड़ता है कि, ‘अरे! बीवी को क्यों डाँटते हो, बेचारी को! बिना वजह बीवी को डाँटते हो! बाहर कोई धमकाए उनसे लड़ो न, यहाँ क्यों लड़ते हो बेचारी से?’

एक व्यक्ति था, वह हमारा जान-पहचान वाला था। वह मुझे हमेशा कहता था कि, ‘साहब, एक बार मेरे यहाँ पधारिए!’ चिनाई का काम करता था। एक बार जब मैं वहाँ से गुज़र रहा था तब मुझे मिल

(पृ.२३)

गया और बोला, ‘मेरे घर चलिए, थोड़ी देर के लिए।’ तब मैं उसके घर गया। वहाँ मैंने पूछा, ‘अरे, दो रूम तेरे लिए काफी हैं?’ तो वह कहने लगा, ‘मैं तो कारीगर हूँ न!’ यह तो हमारे ज़माने की, अच्छे ज़माने की बात कर रहा हूँ। अभी तो एक रूम में रहना पड़ता है, लेकिन अच्छे ज़माने में भी बेचारे के दो ही रूम थे! फिर मैंने पूछा, ‘क्या बीवी तुझे परेशान नहीं करती?’ तब कहने लगा, ‘बीवी को क्रोध आ जाता है लेकिन मैं क्रोध नहीं करता हूँ’ मैंने पूछा, ‘ऐसा क्यों?’ उसने कहा, ‘यदि वह क्रोध करे और मैं भी क्रोध करूँ, तब तो फिर इन दो रूमों में, मैं कहाँ सोऊँ और वह कहाँ सोए?!’ वह उस ओर मुँह करके सो जाए और मैं भी इस ओर मुँह करके सो जाऊँ, ऐसी हालत में तो मुझे सुबह चाय भी अच्छी नहीं मिलेगी! वही मुझे सुख देती है। उसी की वजह से मेरा सुख है। मैंने पूछा, ‘बीवी कभी क्रोध करे तो?’ उसने कहा, ‘‘उसे मना लेता हूँ। ‘यार, जाने दे न, मेरी हालत मैं ही जानता हूँ’, ऐसा-वैसा करके मना लेता हूँ लेकिन उसे खुश रखता हूँ। बाहर मारपीट करके आ जाता हूँ लेकिन घर में उससे मारपीट नहीं करता।’’ और कई लोग तो बाहर से मार खाकर आते हैं और घर में मारपीट करते हैं।

ये तो हमेशा क्रोध करते हैं। गायें-भैंसें अच्छी कि क्रोध तो नहीं करतीं। जीवन में कुछ शांति तो होनी चाहिए न! कमज़ोरी वाला नहीं होना चाहिए। यह तो हर घड़ी क्रोध हो जाता है। आप गाड़ी में आए हो न? यदि गाड़ी रास्ते भर क्रोध करती रहे तो क्या होगा?

प्रश्नकर्ता : तो यहाँ आ ही नहीं पाएँगे।

दादाश्री : तब यदि आप यह क्रोध करते हो तो उसकी गाड़ी किस तरह चलती होगी? तू तो क्रोध नहीं करती?

प्रश्नकर्ता : कभी-कभी हो जाता है।

(पृ.२४)

दादाश्री : और यदि दोनों से हो जाए तो फिर बाकी क्या रहा?

प्रश्नकर्ता : पति-पत्नी के बीच थोड़ा-बहुत क्रोध तो होना ही चाहिए न?

दादाश्री : नहीं। ऐसा कोई नियम नहीं है। पति-पत्नी के बीच में तो बहुत शांति रहनी चाहिए। यदि दु:ख रहे तो वे पति-पत्नी कहे ही नहीं जाएँगे। सच्ची फ्रेन्डशिप में दु:ख नहीं होता जबकि यह तो सब से बड़ी फ्रेन्डशिप है!! यहाँ क्रोध नहीं होना चाहिए। यह तो लोगों ने ज़बरदस्ती दिमाग़ में डाल दिया है, खुद को होता है इसलिए कह दिया किनियम ऐसा ही है, कहते हैं! पति-पत्नी के बीच तो बिल्कुल दु:ख नहीं होना चाहिए, भले ही बाकी सभी जगहों पर हो जाए।

मनमानी की मार

प्रश्नकर्ता : घर में या बाहर मित्रों में सब जगह हर एक के मत भिन्न-भिन्न होते हैं और उसमें हमारी धारणा के अनुसार नहीं हो तो हमें क्रोध क्यों आता है? तब क्या करना चाहिए?

दादाश्री : सब लोग अपनी धारणा के अनुसार करने जाएँ तो क्या होगा? ऐसा विचार ही क्यों आता है? तुरंत ही सोचना चाहिए कि यदि सभी अपनी मनमानी करने लगें तो यहाँ पर सारे बरतन तोड़ देंगे आमने-सामने और खाना भी नहीं रहेगा। अत: मनमानी कभी करना ही मत। धारणा ही मत रखना, इसलिए फिर गलत ठहरेगा ही नहीं। जिसे गरज़ होगी वह धारणा करेगा, ऐसा रखना।

प्रश्नकर्ता : हम कितने भी शांत रहे लेकिन पति क्रोध करे तो हमें क्या करना चाहिए?

दादाश्री : वह क्रोध करे और उसके साथ झगड़ा करना हो तो

(पृ.२५)

आपको भी क्रोध करना चाहिए अन्यथा नहीं! यदि फिल्म बंद करनी हो तो शांत हो जाना। फिल्म बंद नहीं करनी हो तो पूरी रात चलने देना, कौन मना करता है? क्या आपको पसंद है ऐसी फिल्म?

प्रश्नकर्ता : नहीं, ऐसी फिल्म पसंद नहीं है।

दादाश्री : क्रोध करके क्या करना है? वह आदमी खुद क्रोध नहीं करता है, यह तो ‘मिकेनिकल एडजस्टमेन्ट’ (डिस्चार्ज होती मनुष्य प्रकृति) क्रोध करता है। इसलिए फिर खुद को मन में पछतावा होता है कि यह क्रोध नहीं किया होता तो अच्छा था।

प्रश्नकर्ता : उसे ठंडा करने का उपाय क्या है?

दादाश्री : वह तो यदि मशीन गरम हुई हो और ठंडी करनी हो तो थोड़ी देर बंद रखने पर अपने आप ठंडी हो जाएगी और यदि हाथ लगाएँ या उसे छेड़ेंगे तो हम जल जाएँगे।

प्रश्नकर्ता : मेरे और मेरे हज़बेन्ड के बीच क्रोध और बहस हो जाती है, कहा सुनी वगैरह। तो मैं क्या करूँ?

दादाश्री : क्रोध तू करती है या वह? क्रोध कौन करता है?

प्रश्नकर्ता : वह, फिर मुझ से भी हो जाता है।

दादाश्री : तो आप भीतर ही खुद को उलाहना देना, ‘क्यों तू ऐसा करती है? पहले किया हुआ तो भुगतना ही होगा न!’ लेकिन प्रतिक्रमण करने से ये सभी दोष खत्म हो जाएँगे। वर्ना हमारे ही दिए हुए दु:ख हमें भुगतने पड़ते हैं लेकिन प्रतिक्रमण करने पर ज़रा ठंडे पड़ जाते हैं।

यह तो एक तरह की पाशवता है

प्रश्नकर्ता : हम से क्रोध हो जाए और गाली निकल जाए तो कैसे सुधारें?

(पृ.२६)

दादाश्री : ऐसा है कि यह जो क्रोध करता है और गाली देता है, वह सब इसलिए हो जाता है कि अपने आप पर कंट्रोल नहीं है। कंट्रोल करने के लिए पहले कुछ समझना चाहिए। यदि हम पर कोई क्रोध करे तो हम से सहन होगा या नहीं, यह सोचना चाहिए। हम क्रोध करें, उससे पहले हम पर कोई क्रोध करे तो हम से सहन होगा? अच्छा लगेगा या नहीं? हमें जितना अच्छा लगे, उतना ही वर्तन औरों के साथ करना चाहिए।

वह आपको गाली दे और तुझे दिक्कत न हो, डिप्रेशन नहीं आए तो आप भी करना, वर्ना बंद कर देना। गालियाँ तो देनी ही नहीं चाहिए। यह तो एक तरह की पाशवता है। अन्डर डेवेलप्ड पीपल्स, अनकल्चर्ड (अल्प विकसित मनुष्य, असंस्कृत)!

प्रतिक्रमण ही सच्चा मोक्षमार्ग

पहले तो दया रखो, शांति रखो, समता रखो, क्षमा रखो ऐसा उपदेश देते थे। तब ये लोग क्या कहते हैं ‘अरे! मुझे क्रोध आता रहता है और तू कहता है कि क्षमा रखो लेकिन मैं किस प्रकार क्षमा रखूँ?’ अत: इन्हें उपदेश किस प्रकार दिया जाना चाहिए कि आपको क्रोध आ जाए तो आप इस प्रकार मन में पछतावा करना कि ‘मेरी कौन सी कमज़ोरी कि वजह से ऐसा क्रोध हो जाता है? यह मुझ से गलत हो गया।’ ऐसे पछतावा करना और यदि कोई गुरु हों तो उनकी मदद लेना और ऐसा निश्चय करना कि फिर से ऐसी कमज़ोरी खड़ी न हो। आप अब क्रोध का बचाव मत करना बल्कि उसका प्रतिक्रमण करना।’’

यानी दिन में कितने अतिक्रमण होते हैं और किसके साथ हुए, उन्हें नोट करते रहना और उसी समय प्रतिक्रमण कर लेना।

(पृ.२७)

प्रतिक्रमण में क्या करना होगा? आपको क्रोध हुआ और सामने वाली व्यक्ति को दु:ख हुआ तो उसके आत्मा को याद करके उससे क्षमा माँग लेना। अर्थात् जो हुआ उसकी क्षमा माँग लेना और फिर से नहीं करूँगा ऐसी प्रतिज्ञा करना। और आलोचना अर्थात् क्या कि हमारे पास दोष ज़ाहिर कर देना कि मुझ से यह दोष हो गया है।

मन में भी माफी माँगो

प्रश्नकर्ता : दादा जी, कई बार पश्चाताप या प्रतिक्रमण करते समय ऐसा होता है कि कोई भूल हो गई, किसी पर क्रोध आ गया, तब भीतर दु:ख होता है कि यह गलत हो गया लेकिन सामने वाले से माफी माँगने की हिम्मत नहीं होती।

दादाश्री : इस तरह से माफी माँगनी ही नहीं है, वर्ना फिर वे उसका दुरुपयोग करेंगे। ‘हाँ, अब आई न ठिकाने?’ ऐसा है यह! नोबल (खानदान) जाति नहीं है! ये लोग माफी माँगने लायक नहीं है! इसलिए उसके शुद्धात्मा को याद करके मन में ही माफी माँग लेना। हज़ारों में कोई दस आदमी ऐसे निकलेंगे कि माफी माँगने से पहले ही झुक जाएँ।

नकद परिणाम, हार्दिक प्रतिक्रमण के

प्रश्नकर्ता : किसी पर खूब क्रोध हो जाता है, फिर बोलकर चुप हो जाते हैं लेकिन बाद में ऐसा जो बोले, उसके लिए बहुत जी जलता है तो उसके लिए एक से ज़्यादा प्रतिक्रमण करने होंगे?

दादाश्री : उसमें दो-तीन बार सच्चे दिल से प्रतिक्रमण करना और एकदम अच्छी तरह हो गया तो, पूरा हो गया। ‘हे दादा भगवान! मुझ से ज़बरदस्त क्रोध हुआ, सामने वाले को भारी कष्ट हुआ! उसके लिए माफी माँगता हूँ। आपके रूबरू खूब माफी माँगता हूँ।’

(पृ.२८)

गुनाह, लेकिन बेजान

प्रश्नकर्ता : अतिक्रमण से जो उत्तेजना होती है, वह प्रतिक्रमण से शांत हो जाती है?

दादाश्री : हाँ, शांत हो जाती है। चिकणी फाइल (गाढ़ ऋणानुबंध का हिसाब) हो, वहाँ पर तो पाँच-पाँच हज़ार प्रतिक्रमण करने पड़ते हैं, तब शांत होता है। गुस्सा बाहर नहीं आए पर व्याकुलता हो जाए, तो भी यदि हम उसके लिए प्रतिक्रमण नहीं करें तो उतना दाग़ हम पर रह जाएगा। प्रतिक्रमण करने से साफ हो जाता है। अतिक्रमण किया, इसलिए प्रतिक्रमण करो।

प्रश्नकर्ता : किसी पर क्रोध हो जाने के बाद ध्यान आए और उसी क्षण हम उनसे माफी माँग लें, तो वह क्या कहलाएगा?

दादाश्री : अभी ज्ञान लेने के बाद क्रोध हो जाए और फिर माफी माँग ले, तो कोई हर्ज़ नहीं। हो गया मुक्त! और ऐसे रूबरू माफी नहीं माँग सको, यदि ऐसा हो तो मन में माँग लेना तो बस, हो गया।

प्रश्नकर्ता : रूबरू सभी के बीच?

दादाश्री : कोई बात नहीं। इस तरह नहीं माँगे और यों ही अंदर प्रतिक्रमण कर लोगे तो चलेगा क्योंकि यह गुनाह जीवित नहीं है, यह डिस्चार्ज है। ‘डिस्चार्ज’ गुनाह यानी यह चार्ज गुनाह नहीं है! इसलिए इतना बुरा फल नहीं देगा!

प्रतिष्ठा करने से हैं कषाय

यह सब आप नहीं चलाते हैं, क्रोध-मान-माया और लोभ आदि कषाय चलाते हैं। कषायों का ही राज है! जब, ‘खुद कौन है’ उसका भान होगा, तब जाकर कषाय जाएँगे। जब क्रोध होता है तब पछतावा

(पृ.२९)

होता है, लेकिन भगवान का बताया गया प्रतिक्रमण करना नहीं आए तो क्या होगा? प्रतिक्रमण करना आए तो छुटकारा हो जाता।

अर्थात् यह क्रोध-मान-माया और लोभ की सृष्टि कब तक रहती है? जब तक ऐसा निश्चय है कि ‘मैं चंदू भाई हूँ और ऐसा ही हूँ’, तभी तक रहेगी। जब तक हमने प्रतिष्ठा की हुई है कि ‘मैं चंदू भाई हूँ’, इन लोगों ने हम पर प्रतिष्ठा की और हमने उसे मान लिया कि ‘मैं चंदू भाई हूँ’, तब तक ये क्रोध-मान-माया और लोभ अंदर रहेंगे।

खुद की प्रतिष्ठा कब समाप्त होगी कि जब ‘मैं शुद्धात्मा हूँ’ यह भान होगा तब। जब खुद के निज स्वरूप में आ जाएँगे, तब प्रतिष्ठा टूट जाएगी और तब क्रोध-मान-माया और लोभ जाएँगे वर्ना नहीं जाएँगे। मारते रहने से भी नहीं जाएँगे और बल्कि बढ़ते रहेंगे। एक को मारो तो दूसरा बढ़ेगा और दूसरे को मारो तो तीसरा बढ़ेगा।

जहाँ क्रोध दुबला, वहाँ मान तगड़ा

एक महाराज कहते है, मैंने क्रोध को दबा-दबाकर निर्मूल कर दिया है। मैंने कहा, ‘‘उसके परिणाम स्वरूप यह ‘मान’ नाम का भैंसा अधिक तगड़ा हुआ।’’ मान तगड़ा होता रहता है क्योंकि माया के ये पुत्र ऐसे नहीं हैं कि मर जाएँ। उनका उपाय करेंगे तो जाएँगे, वर्ना ये जाने वालों में से नहीं हैं। ये माया की संतानें हैं। वह मान नामक भैंसा इतना तगड़ा हुआ, ‘मैंने क्रोध को दबा दिया, मैंने क्रोध को दबा दिया।’ वह फिर तगड़ा हुआ। इसके बजाय तो चारों समान थे, वह ठीक था।

क्रोध और माया हैं रक्षक

क्रोध और माया, वे तो रक्षक हैं। वे तो लोभ और मान के रक्षक हैं। लोभ की यथार्थ रक्षक माया और मान का यथार्थ रक्षक

(पृ.३०)

क्रोध। फिर भी मान के लिए थोड़ी बहुत माया का उपयोग होता है, कपट करते हैं। क्या लोग ऐसा करते होंगे कि कपट करके भी मान प्राप्त कर लें?

और क्रोध करके लोभ कर लेता है। लोभी क्रोधी नहीं होता और यदि क्रोध करे तो समझना कि इसे लोभ में कोई बाधा आई है, इसलिए यह क्रोध कर रहा है। वर्ना लोभी तो, बल्कि उसे कोई गालियाँ दे फिर भी कहेगा, ‘हमें तो अपना रुपया मिल गया, वह भले ही शोर मचाता रहे।’ लोभी ऐसे होते हैं क्योंकि कपट हर तरह से रक्षण करेगा ही न! कपट अर्थात् माया और क्रोध, ये सभी रक्षक हैं।

क्रोध तो, जब खुद के मान पर आँच आए, तब क्रोध कर लेता है। खुद का मान भंग हो, वहाँ।

क्रोध भोला है। सब से पहले भोले का नाश होता है। क्रोध तो गोला-बारूद है और जहाँ गोला-बारूद होगा, वहाँ सैना लड़ेगी ही। क्रोध के जाने के बाद फिर सैना क्यों लड़ेगी? फिर तो (ऐरे-गैरे) सब भाग जाएँगे। कोई खड़ा नहीं रहेगा।

क्रोध का स्वरूप

क्रोध, वे उग्र परमाणु हैं। जब बारूद से भरा अनार (आतिशबाज़ी) हो फूटता तब ज्वाला भड़कती है और जब अदंर का बारूद खत्म हो जाता है, तब अपने आप अनार शांत हो जाता है। क्रोध का भी ऐसा ही है। क्रोध, वे उग्र परमाणु हैं और वे जब ‘व्यवस्थित’ के नियम के अनुसार फूटते हैं, तब सभी तरफ से सुलगते हैं। हम उग्रता को क्रोध नहीं कहते। जिस क्रोध में तंत रहे, वही क्रोध कहलाता है। क्रोध तो कब कहलाएगा कि जब भीतर जलन हो। जलन होने से ज्वाला भड़कती रहती है और दूसरों तक भी उसका असर पहुँचता है। वह कुढऩ कहलाती है और अजंपा में खुद अकेला अंदर ही

(पृ.३१)

अंदर जलता रहता है लेकिन तंत तो दोनों में ही रहता है। जबकि उग्रता अलग चीज़ है।

घुटना, सहन करना, वह भी क्रोध

क्रोध वाली वाणी नहीं निकले तो सामने वाले को चोट नहीं पहुँचती। मुँह से बोल दे सिर्फ वही क्रोध कहलाता है, ऐसा नहीं है। अगर भीतर घुटता रहे तो वह भी क्रोध है। उसे सहन करना वह तो डबल (दोहरा) क्रोध है। सहन करना यानी दबाते रहना। वह तो, जब एक दिन स्प्रिंग उछलेगी तब पता चलेगा। सहन क्यों करना है? इसका तो ज्ञान से हल ला देना है।

क्रोध में बड़ी हिंसा

बुद्धि इमोशनल होती है, ज्ञान मोशन में रहता है। जैसे ट्रेन मोशन में चलती है, यदि वह इमोशनल हो जाए तो?

प्रश्नकर्ता : एक्सिडेन्ट हो जाता है।

दादाश्री : ऐसे-ऐसे करते हुए चलेगी तो एक्सिडेन्ट हो जाएगा। इसी तरह मनुष्य जब इमोशनल होता है, तब कई जीव भीतर मर जाते हैं। क्रोध होने पर कितने ही छोटे-छोटे जीव मर कर खत्म हो जाते हैं और ऊपर से खुद दावा करता है कि, ‘मैं तो अहिंसा धर्म का पालन करता हूँ, जीव-हिंसा तो करता ही नहीं हूँ।’ अरे, लेकिन क्रोध से तो निरे जीव ही मारते हैं, इमोशनल होकर!

क्रोध को जीत सकते हैं ऐसे

द्रव्य अर्थात् बाहरी व्यवहार, वह नहीं पलटता लेकिन यदि भाव पलटे तो बहुत हो गया।

(पृ.३२)

कोई कहे कि क्रोध बंद करना है तो आज ही क्रोध बंद नहीं हो जाएगा। क्रोध को तो पहचानना पड़ेगा, कि क्रोध क्या है? क्यों उत्पन्न होता है? उसका जन्म किस आधार पर होता है? उसकी माँ कौन? बाप कौन? सब पता लगाने के बाद क्रोध को पहचाना जा सकेगा।

छूटा हुआ ही छुड़वाए

आपको निकालना है सब? क्या क्या निकालना है, बताओ। लिस्ट (सूचि) बनाकर मुझे दो। वह सब निकाल देंगे। क्या आप क्रोध-मान-माया और लोभ से बंधे हुए हो?

प्रश्नकर्ता : एकदम।

दादाश्री : तो बंधा हुआ व्यक्ति अपने आप कैसे छूट सकता है? चारों ओर से ऐसे हाथ-पैर सब कसकर बंधे हुए हों तो वह खुद कैसे मुक्त हो सकेगा?

प्रश्नकर्ता : उसे किसी का सहारा लेना चाहिए?

दादाश्री : बंधे हुए की हेल्प लेनी चाहिए?

प्रश्नकर्ता : स्वतंत्र हो उसकी हेल्प लेनी चाहिए।

दादाश्री : हम किसी से पूछें कि ‘भाई, कोई है यहाँ छूटा हुआ? मुक्त है? तो यहाँ हमारी हेल्प करो।’ अर्थात् जो मुक्त हुआ हो, वही मुक्त कर सकता है। बाकी, और कोई नहीं कर सकता।

क्रोध-मान-माया और लोभ की खुराक

कई लोग जो जागृत होते हैं। वे कहते भी हैं कि यह जो क्रोध हो जाता है वह हमें पसंद नहीं है, फिर भी करना पड़ता है।

और कुछ तो क्रोध करते हैं और कहते हैं, ‘क्रोध नहीं करेंगे तो हमारी गाड़ी चलेगी ही नहीं, हमारी गाड़ी बंद हो जाएगी।’ ऐसा भी कहते हैं।

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क्रोध-मान-माया और लोभ निरंतर उसका खुद का ही चुराकर खाते हैं लेकिन लोगों की समझ में नहीं आता। इन चारों को यदि तीन साल भूखा रखो तो वे भाग जाएँगे लेकिन जिस खुराक से वे जी रहे हैं, वह खुराक क्या है? यदि वह नहीं जानेंगे, तो वे कैसे भूखे मरेंगे? उसकी समझ नहीं होने की वजह से ही उन्हें खुराक मिलती रहती हैं। वे जीवित कैसे रहते हैं? और वह भी, अनादिकाल से जी रहे हैं! इसलिए उनकी खुराक बंद कर दो। ऐसा विचार तो किसी को भी नहीं आता और सभी ज़बरदस्ती उन्हें निकालने में लगे हैं। वे चारों यों ही चले जाएँ, ऐसे नहीं हैं। वह तो, जब आत्मा बाहर निकले तब अंदर का सभी कुछ झाड़ने-पोंछने निकलते हैं। उन्हें हिंसक मार नहीं चाहिए, उन्हें तो अहिंसक मार चाहिए।

आचार्य शिष्य को कब धमकाते हैं? जब क्रोध आता है तब। उस समय यदि कोई कहे, ‘महाराज, इसे क्यों धमका रहे हैं?’ तो तब महाराज कहते हैं, ‘वह तो धमकाने योग्य ही है।’ बस फिर तो हो गया खत्म। ऐसा बोले, वही क्रोध की खुराक। क्रोध करके उसका रक्षण करना, वही उसकी खुराक है।

इन क्रोध-मान-माया और लोभ को तीन साल तक यदि खुराक नहीं मिले तो फिर वे अपने आप भाग जाएँगे। हमें कहना ही नहीं पड़ेगा क्योंकि हर चीज़ अपनी अपनी खुराक से जीवित रहती है और संसार के लोग क्या करते हैं? हर रोज़ इन क्रोध-मान-माया और लोभ को खुराक देते रहते हैं। रोज़ भोजन करवाते हैं और फिर ये तगड़े होकर घूमते रहते हैं।

बच्चों को मारे, खूब क्रोधित होकर पीटे तब अगर बीवी कहे कि ‘बेचारे बच्चे को इतना क्यों मारा?’ तब कहता है, ‘तू नहीं समझेगी, मारने योग्य ही है।’ इससे क्रोध समझ जाता है कि, ‘अरे वाह, मुझे खुराक दी! भूल है ऐसा नहीं समझता और मारने लायक है ऐसा

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अभिप्राय दिया है, इसलिए यह मुझे खुराक दे रहा है।’ इसे खुराक देना कहते हैं। हम क्रोध को एन्करेज (प्रोत्साहित) करें, उसे अच्छा समझें, तो वह क्रोध को खुराक देना कहा जाएगा। क्रोध के लिए अगर ऐसा समझें कि ‘क्रोध गलत है’ तो ऐसा कहा जाएगा कि उसे खुराक नहीं दी। क्रोध की तरफदारी की, उसका पक्ष लिया, तो उसे खुराक मिल गई। खुराक से ही तो वह जी रहा है। लोग तो उसका पक्ष लेते हैं न?

हमने क्रोध-मान-माया और लोभ किसी को भी रक्षण नहीं दिया है। क्रोध हो जाने पर अगर कोई कहे कि, ‘यह क्रोध क्यों कर रहे हो?’ तब मैं कह देता हूँ कि, ‘यह क्रोध बहुत गलत चीज़ है, मेरी निर्बलता के कारण हो गया।’ अर्थात् हमने रक्षण नहीं किया लेकिन लोग रक्षण कर देते हैं।

ये साधु नसवार सूँघते हों और हम कहें, ‘साहब, आप नसवार सूँघ रहे हैं?’ तब यदि वह कहे, ‘नसवार में हर्ज नहीं।’ तो बढ़ जाएगा।

ये चारों, जो क्रोध-मान-माया और लोभ हैं, उनमें से एक फस्र्ट मेम्बर पर प्रेम ज़्यादा रहता है, दूसरे पर उससे कम रहता है। इस तरह जिसकी तरफदारी ज़्यादा, उसकी प्रियता अधिक।

स्थूल कर्म : सूक्ष्म कर्म

स्थूल कर्म का अर्थ क्या है, यह समझ लो। तुम्हें एकदम क्रोध आया, तू क्रोध नहीं करना चाहता फिर भी आ जाता है, ऐसा होता है या नहीं होता?

प्रश्नकर्ता : होता है।

दादाश्री : वह जो क्रोध आ जाता है तो उसका फल यहीं पर तुरंत मिल जाता है। लोग कहते हैं कि, ‘जाने दो न उसे, वह

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तो है ही बहुत क्रोधी।’ कोई शायद उसे सामने से थप्पड़ भी मार दे। अर्थात् क्रोध होना यह स्थूल कर्म है। और क्रोध हुआ उसके पीछे आज तेरा भाव क्या है कि ‘क्रोध करना ही चाहिए।’ तो वह फिर से अगले जन्म के क्रोध का हिसाब है। तेरा आज का भाव है कि क्रोध नहीं करना चाहिए, तेरे मन में निश्चय हो कि क्रोध करना ही नहीं है, फिर भी यदि हो जाए तो अगले जन्म के लिए तुझे बंधन नहीं रहा। स्थूल कर्म में तुझ से क्रोध हुआ तो तुझे इस जन्म में मार खानी पड़ेगी। फिर भी तुझे अगले जन्म के लिए बंधन नहीं रहेगा क्योंकि सूक्ष्म कर्म में तेरा निश्चय है कि क्रोध करना ही नहीं चाहिए। और आज कोई व्यक्ति किसी पर क्रोध नहीं करता है, फिर भी मन में कहे कि, ‘ये लोग ऐसे हैं कि इन पर क्रोध करेंगे तभी ये सीधे होंगे।’ तो इससे अगले जन्म में वह फिर से क्रोध वाला बनेगा! अर्थात् बाहर जो क्रोध होता है, वह स्थूल कर्म है। और उस समय अंदर जो भाव होते हैं, वह सूक्ष्म कर्म है। यदि हम यह समझ लें तो स्थूल कर्म से बिल्कुल भी बंधन नहीं है। इसलिए मैंने यह नई तरह का ‘साइन्स’ (विज्ञान) दिया है। अभी तक ‘स्थूल कर्म से बंधन है’, ऐसा लोगों के दिमाग़ में भर दिया है और इसी कारण लोग घबराते रहते हैं।

भेदज्ञान से छूटें कषाय

प्रश्नकर्ता : चार कषायों को जीतने के लिए क्या कोई प्राथमिक भूमिका तैयार करनी ज़रूरी है? यदि ज़रूरी है तो उसके लिए क्या करना चाहिए?

दादाश्री : ऐसा है न, यदि क्रोध-मान-माया और लोभ, ये चारों चले जाएँ तो मानो बस वह भगवान बन गया!

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भगवान ने तो क्या कहा है कि ‘तेरा क्रोध ऐसा है कि तेरे सगे मामा पर तू क्रोध करता है तो उसका मन तुझ से अलग हो जाता है, सारी ज़िंदगी के लिए अलग हो जाता है, तो तेरा क्रोध गलत है।’ वह क्रोध जो सामने वाले के मन को साल-दो साल के लिए जुदा कर दे, फिर वापस एक हो जाए, उसे अप्रत्याखानी क्रोध कहा जाता है। जो मन को ब्रेक डाऊन कर दे, उसे अंतिम कक्षा का यूज़लेस क्रोध कहा है, उसे अनंतानुबंधी क्रोध कहा है। लोभ भी ऐसा, फिर मान, वे सभी ऐसे मज़बूत होते हैं कि उनके जाने के बाद फिर इंसान सही राह पर आ जाता है और गुणस्थानक प्राप्त करता है, वर्ना गुणस्थानक में भी नहीं आ पाता। क्रोध-मान-माया और लोभ, ये चारों अनंतानुबंधी कषाय चले जाएँ तो भी बहुत हो गया।

अब जब ‘जिन’ की बात सुनेंगे, तो ये जाएँगे। ‘जिन’ यानी आत्मज्ञानी। चाहे वे किसी भी धर्म के आत्मज्ञानी हो, चाहे वेदांत के हों, चाहे जैन के, लेकिन आत्मज्ञानी होने चाहिए। उनकी बातें सुनकर श्रावक बना जाता है। और श्रावक बन गए तो उसके अनंतानुबंधी कषाय चले जाते हैं। फिर अपने आप ही क्षयोपक्षम होता रहता है।

अब दूसरा उपाय यह है कि जब हम उसे भेदज्ञान करवा देते हैं तब सारे कषाय चले जाते हैं, खत्म हो जाते हैं। यह इस काल का आश्चर्य है। इसीलिए ‘अक्रम विज्ञान’ कहा है न!

जय सच्चिदानंद

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