दादा भगवान कथित

मृत्यु समय, पहले और पश्चात्...

मूल गुजराती संकलन : डॉ. नीरू बहन अमीन

अनुवाद : महात्मागण

www.dadabhagwan.org
Table of Contents
संपादकीय
मृत्यु समय, पहले और पश्चात...

संपादकीय

मृत्यु मनुष्य को कितना ज़्यादा भयभीत करती है, कितना ज़्यादा शोक उत्पन्न करवाती है और निरे दु:ख में ही डूबोकर रखती है। और हर एक मनुष्य को जीवन में किसी न किसी की मृत्यु का साक्षी बनना पड़ता है। उस समय मृत्यु के संबंध में सैकड़ों विचार उठते हैं कि मृत्यु के स्वरूप की वास्तविकता क्या होगी? लेकिन उसका रहस्य नहीं खुलने के कारण वहीं का वहीं अटक जाता है। इस मृत्यु के रहस्यों को जानने के लिए हर कोई उत्सुक होता ही है। और उसके बारे में बहुत कुछ सुनने या पढऩे में आता है, लोगों से बातें जानने को मिलती हैं। लेकिन वे मात्र बुद्धि की अटकलें ही हैं।

मृत्यु क्या होगी? मृत्यु के पहले क्या होता होगा? मृत्यु के समय क्या होता होगा? मृत्यु के पश्चात् क्या होता है? मृत्यु के अनुभव बताने वाला कौन? जिसकी मृत्यु होती है, वह अपने अनुभव कह नहीं सकता। जो जन्म पाता है, वह अपनी पहले की अवस्था स्थिति जानता नहीं है। इस तरह जन्म से पहले और मृत्यु के बाद की अवस्था कोई जानता नहीं है। इसलिए मृत्यु से पहले, मृत्यु समय और मृत्यु के पश्चात् किस दशा में से गुजरना पड़ता है, उसका रहस्य, रहस्य ही रह जाता है। दादाश्री ने अपने ज्ञान में देखकर ये सभी रहस्य, जैसे हैं वैसे, यथार्थ रूप से खुल्ले किए हैं, जो यहाँ संकलित हुए हैं।

मृत्यु का रहस्य समझ में आते ही मृत्यु का भय चला जाता है।

प्रिय स्वजन की मृत्यु के समय हमें क्या करना चाहिए? हमारा सही फ़र्ज़ क्या है? उसकी गति किस प्रकार सुधारनी चाहिए? प्रिय स्वजन की मृत्यु के बाद हमें क्या करना चाहिए? हम किस समझ से समता में रहें?

और जो भी लोकमान्यताएँ हैं, जैसे कि श्राद्ध, तेरही, ब्रह्मभोज, दान, गरुड़ पुराण आदि, उनकी सत्यता कितनी? मरने वाले को क्या क्या पहुँचता है? यह सब करना चाहिए या नहीं? मृत्यु के बाद की गति की स्थिति आदि सभी खुलासे यहाँ स्पष्ट होते हैं।

ऐसी, भयभीत करने वाली मृत्यु के रहस्य जब पता चलते हैं, तब मनुष्य को ऐसे अवसर पर उसके जीवन काल के समय के व्यवहार में ऐसे अवसरों पर निश्चय ही सांत्वना प्राप्त होती है।

‘ज्ञानी पुरुष’ वे, जो देह से, देह की सभी अवस्थाओं से, जन्म से, मृत्यु से अलग ही रहे हैं। उनके निरंतर ज्ञाता-दृष्टा रहते हैं, और अजन्म-अमर आत्मा की अनुभव दशा में बरतते हैं वे! जीवन से पूर्व की, जीवन के पश्चात् की और देह की अंतिम अवस्था में अजन्म-अमर, ऐसे आत्मा की स्थिति की हक़ीक़त क्या है, यह ज्ञानी पुरुष ज्ञान दृष्टि से खुल्लमखुल्ला कह देते हैं।

आत्मा तो सदैव जन्म-मृत्यु से परे ही है, वह तो केवलज्ञान स्वरूप ही है। केवल ज्ञाता-दृष्टा ही है। जन्म-मृत्यु आत्मा को हैं ही नहीं। फिर भी बुद्धि से जन्म-मृत्यु की परंपरा का सर्जन होता है, जो मनुष्य के अनुभव में आता है। तब स्वाभाविक रूप से मूल प्रश्न सामने आता है कि जन्म-मृत्यु किस प्रकार होते हैं? उस समय आत्मा और साथ-साथ क्या-क्या वस्तुएँ होती है? उन सभी का क्या होता है? पुनर्जन्म किस का होता है? कैसे होता है? आवागमन किस का है? कार्य में से कारण और कारण में से कार्य की परंपरा का सर्जन कैसे होता है? वह कैसे रुक सकता है? आयुष्य के बंध किस प्रकार पड़ते हैं? आयुष्य किस आधार पर निश्चित होता है? ऐसे सनातन प्रश्नों की सचोट-समाधानकारी, वैज्ञानिक समझ ज्ञानी पुरुष के सिवाय कौन दे सकता है?

और उससे भी आगे, गतियों में प्रवेश के कानून क्या होंगे? आत्महत्या के कारण और परिणाम क्या हैं? प्रेतयोनि क्या होती होगी? भूतयोनि है? क्षेत्र परिवर्तन के नियम क्या हैं? भिन्न-भिन्न गतियों का आधार क्या है? गतियों में से मुक्ति कैसे मिलती है? मोक्षगति प्राप्त करने वाला आत्मा कहाँ जाता है? सिद्धगति क्या है? ये सभी बातें यहाँ स्पष्ट होती हैं।

आत्म-स्वरूप और अहंकार-स्वरूप की सूक्ष्म समझ ज्ञानी के सिवाय कोई नहीं समझा सकता।

मृत्यु के बाद फिर से मरना नहीं पड़े, फिर से जन्म नहीं लेना पड़े, उस दशा को प्राप्त करने संबंधी सभी स्पष्टताएँ, यहाँ सूक्ष्म रूप से संकलित हुई हैं, जो पाठक को संसार व्यवहार और अध्यात्मिक प्रगति के लिए हितकारी होकर रहेंगी।

- डॉ. नीरु बहन अमीन

(पृ.१)

मृत्यु समय, पहले और पश्चात...

मुक्ति, जन्म-मरण से

प्रश्नकर्ता : जन्म-मरण के झंझट में से कैसे छूटें?

दादाश्री : बहुत अच्छा पूछा। क्या नाम है आपका?

प्रश्नकर्ता : चंदूभाई।

दादाश्री : सच में चंदूभाई हो?

प्रश्नकर्ता : हाँ।

दादाश्री : चंदूभाई तो आपका नाम है, नहीं?

प्रश्नकर्ता : हाँ।

दादाश्री : तब आप कौन हैं? आपका नाम चंदूभाई है, यह तो हम सबको कबूल है, मगर आप कौन हो?

प्रश्नकर्ता : इसीलिए तो आया हूँ।

दादाश्री : वह जान लें, तब यह जन्म-मरण का झंझट छूटे।

अभी तो मूल इस चंदूभाई के नाम पर ही यह सब चलता रहा है न? सभी चंदूभाई के नाम पर? अरे, धोखा हो जाएगा यह तो? आप पर थोड़ा तो रखना था न?

अरथी मतलब कुदरत की ज़ब्ती! कैसी ज़ब्ती? तब कहें, नाम

(पृ.२)

पर जो बैन्क बैलेन्स था, वह ज़ब्त हो गया, बच्चे ज़ब्ती में गए, बंगला ज़ब्ती में गया। फिर ये कपड़े जो नाम पर रहे हैं, वे भी ज़ब्ती में गए! सबकुछ ज़ब्ती में गया। तब कहता है ‘साहब, अब मुझे वहाँ साथ क्या ले जाने का?’ तब कहे ‘लोगों के साथ जो गुत्थियाँ उलझाई थीं, उतनी ले जाओ!’ इसलिए ये नाम पर का सब ज़ब्ती में जाने वाला है। इसलिए हमें अपने खुद के लिए कुछ करना चाहिए न? नहीं करना चाहिए?

भेजो, अगले जन्म की गठरियाँ

जो हमारे रिश्तेदार नहीं हों, ऐसे दूसरे लोगों को कुछ सुख दिया हो, फेरा लगाकर, दूसरा कुछ भी उन्हें दिया हो तो वह ‘वहाँ’ पहुँचेगा। रिश्तेदार नहीं, परंतु दूसरे लोगों के लिए। फिर यहाँ लोगों को दवाईयों का दान दिया हो, औषधदान, दूसरा आहारदान दिया हो, फिर ज्ञानदान दिया हो और अभयदान वह सब दिया हो, तो वह वहाँ सब आएगा। इनमें से कुछ देते हो या ऐसे ही सब? खा जाते हो?

अगर साथ ले जा सकते तो यहाँ तो ऐसे भी हैं कि तीन लाख का कर्ज़ करके जाएँ! धन्य हैं न! जगत् ही ऐसा है, इसलिए नहीं ले जा पाते, यही अच्छा है।

माया की करामात

जन्म माया करवाती है, शादी माया करवाती है और मृत्यु भी माया करवाती है। पसंद हो या नापसंद हो, लेकिन छुटकारा नहीं है। पर इतनी शर्त होती है कि माया का साम्राज्य नहीं है। मालिक आप हो। अर्थात् आपकी इच्छा के अनुसार हुआ है। पिछले जन्म की आपकी जो इच्छा थी, उसका हिसाब निकला और उसके अनुसार माया चलाती है। फिर अब शोर मचाएँ तो नहीं चलता। हमने ही माया से कहा था कि यह मेरा लेखा-जोखा है।

(पृ.३)

ज़िंदगी एक जेल

प्रश्नकर्ता : आपके हिसाब से ज़िंदगी क्या है?

दादाश्री : मेरे हिसाब से ज़िंदगी, वह जेल है, जेल! वे चार प्रकार की जेलें हैं।

पहली नज़रक़ैद है। देवलोग नज़रक़ैद में हैं। ये मनुष्य सादी क़ैद में हैं। जानवर कड़ी मज़दूरी वाली क़ैद में हैं और नर्क के जीव उमरक़ैद में हैं।

जन्म-समय से ही चले आरी

यह शरीर भी हर क्षण मर रहा है, पर लोगों को क्या, कुछ पता है? पर अपने लोग तो, लकड़ी के दो टुकड़े हो जाएँ और नीचे गिर पड़ें, तब कहेंगे, ‘कट गया’। अरे, यह कट ही रहा था, यह आरी चल ही रही थी।

मृत्यु का भय

यह निरंतर भय वाला जगत् है। एक क्षणभर के लिए भी निर्भयता वाला यह जगत् नहीं है और जितनी निर्भयता लगती है, उतनी उसकी मूर्छा में है जीव। खुली आँखों से सो रहे हैं, इसलिए यह सब चल रहा है।

प्रश्नकर्ता : ऐसा कहा जाता है कि आत्मा मरता नहीं है, वह तो जीता ही रहता है।

दादाश्री : आत्मा मरता ही नहीं है, पर जब तक आप आत्मस्वरूप हुए नहीं, तब तक आपको भय लगता रहता है न? मरने का भय लगता है न? वह तो अभी शरीर में कुछ दर्द हो न, तब ‘छूट जाऊँगा, मर जाऊँगा’ ऐसा भय लगता है। देह की दृष्टि नहीं हो, तो खुद मर

(पृ.४)

नहीं जाता है। यह तो ‘मैं ही हूँ यह, यही मैं हूँ’ ऐसा आपको शत-प्रतिशत है। आपको ‘यह चंदूलाल, वह मैं ही हूँ, ऐसा शत-प्रतिशत विश्वास है न?’

यमराज या नियमराज?

इस हिन्दुस्तान के सारे वहम मुझे निकाल देने हैं। सारा देश बेचारा वहम में ही खत्म हो गया है। इसलिए यमराज नामक कोई नहीं है, ऐसा मैं गारन्टी के साथ कहता हूँ। तब कोई पूछे, ‘पर क्या होगा? कुछ तो होगा न?’ तब मैंने कहा, ‘नियमराज है।’ इसलिए यह मैं देखकर कहता हूँ। मैं कुछ पढ़ा हुआ नहीं बोलता। यह मेरे दर्शन से देखकर, इन आँखों से नहीं, मेरा जो दर्शन है, उससे मैं देखकर यह सब कहता हूँ।

मृत्यु के बाद क्या?

प्रश्नकर्ता : मृत्यु के बाद कौन सी गति होगी?

दादाश्री : सारी ज़िंदगी जो कार्य किए हों वे, सारी ज़िंदगी जो कार्य किए हों, किए हों यहाँ पर, उनका हिसाब मरते समय निकलता है। मरते समय एक घंटा पहले लेखा-जोखा सामने आता है। यहाँ पर जो बिना हक़ का सब ले लिया हो, पैसे छीने हों, औरतें छीनी हों, बिना हक़ का सब ले लेते हैं बुद्धि से, चाहे किसी भी प्रकार से छीन लेते हैं। उन सभी की फिर जानवर गति होती है और यदि सारा जीवन सज्जनता रखी हो तो मनुष्य गति होती है। मरणोपरांत चार प्रकार की ही गतियाँ हुआ करती हैं। जो सारे गाँव की फ़सल जला दे, अपने स्वार्थ के लिए, ऐसे होते हैं न यहाँ? उन्हें अंत में नर्कगति मिलती है। अपकार के सामने भी उपकार करते हैं, ऐसे लोग सुपरह्मुमन होते हैं, वे फिर देवगति में जाते हैं।

(पृ.५)

योग उपयोग परोपकाराय

मन-वचन-काया और आत्मा का उपयोग लोगों के लिए कर। तेरे लिए करेगा तो खिरनी का (पेड़ का नाम) जन्म मिलेगा। फिर पाँच सौ साल तक भोगते ही रहना। फिर तेरे फल लोग खाएँगे, लकड़ियाँ जलाएँगे। फिर लोगों द्वारा तू क़ैदी की तरह काम में लिया जाएगा। इसलिए भगवान कहते हैं कि तेरे मन-वचन-काया और आत्मा का उपयोग दूसरों के लिए कर। फिर तुझे कोई भी दु:ख आए तो मुझे कहना।

और कहाँ जाते हैं?

प्रश्नकर्ता : देह छूटने के बाद वापस आने का रहता है क्या?

दादाश्री : और कहीं जाना ही नहीं होता। यहीं के यहीं, अपने पास-पड़ोस में जो बैल-गाय बंधते हैं, कुत्ते जो नज़दीक में रहते हैं न, अपने हाथों ही खाते-पीते हैं, अपने सामने ही देखते रहते हैं, हमें पहचानते हैं, वे हमारे मामा हैं, चाचा हैं, फूफा है, सब वही के वही, यहीं के यहीं ही हैं। इसलिए मारना मत उन्हें। खाना खिलाना। आपके ही नज़दीक के हैं। आपको चाटने फिरते हैं, बैल भी चाटते हैं।

रिटर्न टिकट!

प्रश्नकर्ता : गाय-भैंसों का जन्म बीच में क्यों मिलता है?

दादाश्री : ये तो अनंत जन्म, ये लोग सभी आए हैं, वे गायों-भैंसों में से ही आए हैं। और यहाँ से सभी जाने वाले हैं, उनमें से पंद्रह प्रतिशत को छोड़कर बाकी सब वहाँ की ही टिकट लेकर आए हैं। कौन-कौन वहाँ की टिकट लेकर आए हैं? कि जो मिलावट करते हैं, जो बिना हक़ का छीन लेते हैं, बिना हक़ का भोगते हैं, बिना हक़ का आया, वहाँ जानवर का अवतार मिलने वाला है।

(पृ.६)

पिछले जन्मों की विस्मृति

प्रश्नकर्ता : हमें पिछले जन्म का याद क्यों नहीं रहता और यदि याद रहे तो क्या होगा?

दादाश्री : वह किसे याद आता है कि जिसे मरते समय ज़रा-सा भी दु:ख नहीं पड़ा हो और यहाँ अच्छे आचार-विचार वाला हो, तो उसे याद आता है। क्योंकि माता के गर्भ में तो अपार दु:ख होता है। लेकिन इस दु:ख के अलवा दूसरा भी दु:ख होता है मृत्यु के समय का दु:ख, ये दोनों होते हैं इसलिए फिर वह बेभान हो जाता है दु:ख के कारण, इसलिए याद नहीं रहता है।

अंतिम पल में गठरियाँ समेट न...

एक अस्सी साल के चाचा थे, उन्हें अस्पताल में भर्ती किया था। मैं जानता था कि ये दो-चार दिन में जाने वाले हैं यहाँ से, फिर भी मुझे कहते हैं कि ‘वे चंदूलाल तो हमें यहाँ देखने भी नहीं आते।’ हमने बताया कि ‘चंदूलाल तो आ गए।’ तब कहते कि ‘उस नगीनदास का क्या?’ अत: बिस्तर में पड़े-पड़े नोंध करते रहते कि कौन-कौन देखने आता है। अरे, अपने शरीर का ध्यान रख न! ये दो-चार दिनों में तो जाने वाला है। पहले तू अपनी गठरियाँ सँभाल। तेरी यहाँ से ले जाने की गठरी तो जमा कर। यह नगीनदास नहीं आया तो उसको क्या करना है?

बुख़ार आया और टप्प

बूढ़े चाचा बीमार हों और आपने डॉक्टर को बुलाया, सभी इलाज करवाया, फिर भी चल बसे। फिर शोक प्रदर्शित करने वाले होते हैं न, वे आश्वासन देने आते हैं। फिर पूछते हैं, ‘क्या हो गया था चाचा को?’ तब आप कहो कि असल में मलेरिया जैसा लगता था, पर फिर

(पृ.७)

डॉक्टर ने बताया कि यह तो जरा फ्लू जैसा है!’ वे पूछेंगे कि किस डॉक्टर को बुलाया था? आप कहो कि फलाँ को। तब कहेंगे, ‘आपमें अक्कल नहीं है। उस डॉक्टर को बुलाने की ज़रूरत थी।’ फिर दूसरा आकर आपको सुनाएगा, ‘ऐसा करना चाहिए न! ऐसी बेवकूफी की बात करते हो?’ यानी सारा दिन लोग सुनाते ही रहते हैं! यानी ये लोग तो उल्टे चढ़ बैठते हैं, आपकी सरलता का लाभ उठाते हैं। इसलिए मैं आपको समझाता हूँ कि लोग जब दूसरे दिन पूछने आएँ तो आपको क्या कहना चाहिए कि भाई, चाचा को ज़रा बुख़ार आया और टप्प हो गए, और कुछ हुआ नहीं था।’ सामने वाला पूछे उतना ही जवाब। हमें समझ लेना चाहिए कि विस्तार से कहने जाएँगे तो झंझट होगी। उसके बजाय, रात को बुख़ार आया और सुबह टप्प हो गए, कहें तो फिर कोई झंझट ही नहीं न!

स्वजन की अंतिम समय में देखभाल

प्रश्नकर्ता : किसी स्वजन का अंतकाल नज़दीक आया हो तो उसके प्रति आस-पास के सगे-संबंधियों का बरताव कैसा होना चाहिए?

दादाश्री : जिनका अंतकाल नज़दीक आया हो, उन्हें तो बहुत अच्छी तरह सँभालना चाहिए। उनका हर एक शब्द सँभालना चाहिए। उसे नाराज़ नहीं करना चाहिए। सभी को उन्हें खुश रखना चाहिए और वे उल्टा बोलें तब भी आपको स्वीकार करना चाहिए कि ‘आपका सही हैं!’ वे कहेंगे, ‘दूध लाओ’ तब तुरंत दूध लाकर दे दें। तब वे कहें ‘यह तो पानी वाला है, दूसरा ला दो!’ तब तुरंत दूसरा दूध गरम करके ले आएँ। फिर कहना कि ‘यह शुद्ध-अच्छा है।’ परंतु उन्हें अनुकूल रहे ऐसा करना चाहिए, ऐसा सब बोलना चाहिए।

प्रश्नकर्ता : अर्थात् उसमें सच्चे-झूठे का झंझट नहीं करना है?

दादाश्री : यह सच्चा-झूठा तो इस दुनिया में होता ही नहीं है।

(पृ.८)

उन्हें पसंद आया कि बस, उसके अनुसार सब करते रहना है। उन्हें अनुकूल रहे उस प्रकार से बरताव करना है। छोटे बच्चे के साथ हम किस प्रकार का बरताव करते हैं? बच्चा काँच का गिलास फोड़ डाले तो हम उसे डाँटते हैं? दो साल का बच्चा हो, उसे कुछ कहते हैं कि क्यों फोड़ डाला या ऐसा-वैसा? बच्चे के साथ व्यवहार करते हैं, उसी प्रकार उनके साथ व्यवहार करना चाहिए।

अंतिम पल में धर्मध्यान

प्रश्नकर्ता : अंतिम घंटों में किसी लामाओं को कुछ क्रियाएँ करवाते हैं। जब मृत्यु-शय्या पर मनुष्य होता है, तब तिब्बती लामाओं में, ऐसा कहा जाता है कि वे लोग उसकी आत्मा से कहते हैं कि तू इस प्रकार जा। या तो अपने में जो गीता-पाठ करवाते हैं, या अपने में कुछ अच्छे शब्द उसे सुनाते हैं। उससे उन पर कुछ अंतिम घंटों में असर होता है क्या?

दादाश्री : कुछ नहीं होता। बारह महीनों के बहीखाते आप लिखते हो, तब धनतेरस से आप बड़ी मुश्किल से नफा करो और घाटा निकाल दो तो चलेगा?

प्रश्नकर्ता : नहीं चलेगा।

दादाश्री : क्यों ऐसा?

प्रश्नकर्ता : वह तो सारे वर्ष का ही आता है न!

दादाश्री : उसी प्रकार वह सारी ज़िंदगी का लेखा-जोखा आता है। ये तो, लोग ठगते हैं। लोगों को मूर्ख बनाते हैं।

प्रश्नकर्ता : दादाजी, मनुष्य की अंतिम अवस्था हो, जाग्रत अवस्था हो, अब उस समय कोई उसे गीता का पाठ सुनाए अथवा किसी दूसरे शास्त्र की बात सुनाए, उसे कानों में कुछ कहे...

(पृ.९)

दादाश्री : वह खुद कहता हो तो, उसकी इच्छा हो तो सुनाना चाहिए।

मर्सी किलिंग

प्रश्नकर्ता : जो भारी पीड़ा सहता हो उसे पीड़ा सहने दें, और यदि उसे मार डालें तो फिर उसका अगले जन्म में पीड़ा सहना शेष रहेगा, यह बात ठीक नहीं लगती। वह भारी पीड़ा सहता हो तो उसका अंत लाना ही चाहिए, उसमें क्या गलत है?

दादाश्री : ऐसा किसी को अधिकार ही नहीं है। हमें इलाज करने का अधिकार है, सेवा करने का अधिकार है, परंतु किसी को मारने का अधिकार ही नहीं है।

प्रश्नकर्ता : तो उसमें हमारा क्या भला हुआ?

दादाश्री : तो मारने से क्या भला हुआ? आप उस पीड़ाग्रस्त को मार डालो तो आपका मनुष्यत्व चला जाता है और वह तरीका मानवता के सिद्धांत के बाहर है, मानवता के विरुद्ध है।

साथ, स्मशान तक ही

यह तकिया होता है, उसका खोल बदलता रहता है, लेकिन तकिया तो वही का वही। खोल फट जाता है और बदलता रहता है, वैसे ही यह खोल भी बदलता रहता है।

बाकी यह जगत् सारा पोलम्पोल है। फिर भी व्यवहार से नहीं बोलें तो सामने वाले के मन को दु:ख होगा। पर स्मशान में साथ जाकर वहाँ चिता में कोई गिरा नहीं। घर के सभी लोग वापस आते हैं। सभी सयाने-समझदार हैं। उसकी माँ हो, वह भी रोती-रोती वापस आती है।

(पृ.१०)

प्रश्नकर्ता : फिर उसके नाम से छाती कूटते हैं कि पीछे कुछ छोड़कर नहीं गए, और दो लाख छोड़ गए हों, तो कुछ बोलते नहीं।

दादाश्री : हाँ, ऐसा। यह तो नहीं छोड़ गया उसका रोना है कि ‘मरता गया और मारता गया’ ऐसा भी अंदर-अंदर बोलते हैं! ‘कुछ छोड़ा नहीं और हमें मारता गया!’ अब वह नहीं छोड़ गया, उसमें उस स्त्री का नसीब कच्चा इसलिए नहीं छोड़ा। पर मरने वाले को गालियाँ खाने का लिखा था, इसीलिए खाई न! इतनी-इतनी सुनाते हैं!

हमारे लोग जो स्मशान जाते होंगे, वे वापस नहीं आते न, या सभी वापस आते हैं? यानी यह तो एक तरह का फ़जीता है। रोएँ तो भी दु:ख और नहीं रोएँ तो भी दु:ख। बहुत रोएँ, तो लोग कहेंगे कि ‘लोगों के यहाँ नहीं मरते, जो इतना रो रहे हो? कैसे, घनचक्कर हो या क्या?’ और नहीं रोएँ, तब कहेंगे कि आप पत्थर जैसे हो, हृदय पत्थर जैसा है तुम्हारा!’ यानी किस ओर जाना वही समस्या है! सब साधारण अवस्था जैसा होना चाहिए, ऐसा कहेंगे।

वहाँ स्मशान में जलाएँगे भी और साथ में पास के होटल में बैठकर चाय-नाश्ता भी करेंगे, ऐसे नाश्ता करते हैं न लोग?

प्रश्नकर्ता : नाश्ता लेकर ही जाते हैं न!

दादाश्री : ऐसा! क्या बात करते हो? यानी ऐसा है यह जगत् तो सारा! ऐसे जगत् में किस तरह रास आए?

‘आने-जाने’ का संबंध रखते हैं, पर सिर पर नहीं लेते। आप लेते हो सिर पर अब? सिर पर लेते हो? पत्नी का या अन्य किसी का भी नहीं?

प्रश्नकर्ता : नहीं।

दादाश्री : क्या बात करते हो?! और वे तो पत्नी को बगल

(पृ.११)

में रखकर बिठाते रहते हैं। कहेंगे कि तेरे बिना मुझे अच्छा नहीं लगता। पर स्मशान में कोई साथ आता नहीं। आता है कोई?

मृत्युतिथि के समय

प्रश्नकर्ता : परिवार में किसी की तिथि आए, तो उस दिन परिवारजनों को क्या करना चाहिए?

दादाश्री : भगवान से प्रार्थना करनी चाहिए कि उसका भला हो।

फिर ठिकाना मिलता नहीं

प्रश्नकर्ता : किसी व्यक्ति का अवसान हो, तो हमें जानना हो कि वह व्यक्ति अब कहाँ है, तो वह कैसे पता चले?

दादाश्री : वह तो किसी विशेष ज्ञान के बिना नहीं दिखता न! कुछ विशेष ज्ञान चाहिए उसके लिए। और जानकर भी उसका कोई अर्थ नहीं है। पर हम भावना करें तो पहुँचती अवश्य है भावना। हम याद करें, भावना करें तो पहुँचती है। वह तो, ज्ञान के बिना दूसरा कुछ पता नहीं चलता न!

तुझे किसी व्यक्ति का पता लगाना है? कोई गया है तेरा सगा-संबंधी ?

प्रश्नकर्ता : मेरा सगा भाई ही अभी एक्सपायर हो गया।

दादाश्री : तो वह तुझे याद नहीं करता और तू याद किया करता है? यह एक्सपायर होना, उसका मतलब क्या है, समझता है? बहीखाते का हिसाब पूरा होना, वह। इसलिए हमें क्या करना है? हमें बहुत याद आए वह, तो वीतराग भगवान से कहना कि उसे शांति दीजिए। याद आता है, इसलिए उसे शांति मिले ऐसा कहना। दूसरा क्या हमसे हो सकता है?

(पृ.१२)

अल्लाह की अमानत

आपको जो कुछ पूछना हो पूछो। अल्लाह के वहाँ पहुँचने में जो कुछ बाधाएँ आती हों, वह हमें पूछो, वे हम आपकी दूर कर देंगे।

प्रश्नकर्ता : मेरे बेटे का दुर्घटना में निधन हुआ है, तो उस दुर्घटना का कारण क्या होगा?

दादाश्री : इस संसार में जो सब आँखों से दिखाई देता है, कान से सुनने में आता है, वह सब ‘रिलेटिव करेक्ट’ (व्यवहार सत्य) है,... बिलकुल सत्य नहीं है वह बात! यह शरीर भी हमारा नहीं है, तो बेटा हमारा कैसे हो सकता है? यह तो व्यवहार से, लोक-व्यवहार से अपना बेटा माना जाता है, वास्तव में वह अपना बेटा होता नहीं है। वास्तव में तो यह शरीर भी हमारा नहीं है। इसलिए, जो हमारे पास रहे उतना ही अपना और दूसरा सभी पराया है! इसलिए बेटे को अपना बेटा मानते रहें, तो परेशानी होगी और अशांति रहेगी! वह बेटा अब गया, खुदा की ऐसी ही मर्ज़ी है, तो उसे अब ‘लेट गो’ करना है।

प्रश्नकर्ता : वह तो ठीक है, अल्लाह की अमानत अपने पास थी, वह ले ली!

दादाश्री : हाँ, बस। यह सारा बाग़ ही अल्लाह का है।

प्रश्नकर्ता : इस प्रकार जो उसकी मृत्यु हुई, वे अपने कुकर्म होंगे?

दादाश्री : हाँ, लड़के के भी कुकर्म और आपके भी कुकर्म, अच्छे कर्म हों, तो उसका बदला अच्छा मिलता है।

पहुँचें मात्र भाव के स्पंदन

बच्चे मर गए फिर, उनके पीछे उनकी चिंता करने से उन्हें

(पृ.१३)

दु:ख होता है। अपने लोग अज्ञानता के कारण ऐसा सब करते हैं। इसलिए आपको जैसा है वैसा समझकर, शांतिपूर्वक रहना चाहिए। बेकार माथापच्ची करें, उसका अर्थ क्या है? सभी जगह, कोई ऐसे हैं ही नहीं जिनके बच्चे मरे नहीं हों! ये तो सांसारिक ऋणानुबंध हैं, हिसाब लेन-देन के हैं। हमारे भी बेटा-बेटी थे, पर वे मर गए। मेहमान आया था, वह मेहमान चला गया। वह अपना सामान ही कहाँ है? हमें भी नहीं जाना क्या? हमें भी जाना है वहाँ, यह क्या तूफ़ान फिर? इसलिए जो जीवित हैं, उन्हें शांति दो। गया वह तो गया, उसे याद करना भी छोड़ दो। यहाँ जीवित हों, जितने आश्रित हों उन्हें शांति दें, उतना अपना फ़र्ज़। यह तो गए हुए को याद करते हैं और इन्हें शांति नहीं दे सकते हैं। यह कैसा? अत: फ़र्ज़ चूक जाते हो सारे। आपको ऐसा लगता है क्या? गया वह तो गया। जेब में से लाख रुपये गिर गए और वापस नहीं मिले तो हमें क्या करना चाहिए? सिर फोड़ना चाहिए?

अपने हाथ का खेल नहीं है यह और उस बेचारे को वहाँ दु:ख होता है। हम यहाँ दु:खी होते हैं, उसका असर उसे वहाँ पहुँचता है। तो उसे भी सुखी नहीं होने देते और हम भी सुखी नहीं होते। इसलिए शास्त्रकारों ने कहा है कि ‘जाने के बाद परेशान मत होना।’ इसलिए हमारे लोगों ने क्या किया कि ‘गरुड़ पुराण बिठाओ, फलाँ बिठाओ, पूजा करो, और मन में से निकाल दो।’ आपने ऐसा कुछ बिठाया था? फिर भी भूल गए नहीं?

प्रश्नकर्ता : पर वह भुलाया नहीं जाता। बाप-बेटे के बीच व्यवहार इतना अच्छा चल रहा था। इसलिए वह भुलाया जाए ऐसा नहीं है।

दादाश्री : हाँ, भूल सकें ऐसा नहीं है, मगर हम नहीं भूलें तो उसका हमें दु:ख होता है और उसे वहाँ दु:ख होता है। इस तरह अपने

(पृ.१४)

मन में उसके लिए दु:ख मनाना, वह पिता के तौर पर अपने लिए काम का नहीं है।

प्रश्नकर्ता : उसे किस प्रकार दु:ख होता है?

दादाश्री : हम यहाँ दु:खी हों, उसका असर वहाँ पहुँचे बगैर रहता नहीं। इस जगत् में तो सब फोन जैसा है, टेलीविज़न जैसा है यह संसार! और हम यहाँ परेशान हो तो वह वापस आने वाला है?

प्रश्नकर्ता : नहीं।

दादाश्री : किसी भी रास्ते आने वाला नहीं है?

प्रश्नकर्ता : नहीं!

दादाश्री : तो फिर परेशान हो, तो उसे पहुँचता है और उसके नाम पर हम धर्म-भक्ति करें, तो भी उसे हमारी भावना पहुँचती है और उसे शांति होती है। उसे शांति पहुँचाने की बात आपको कैसी लगती है? और उसे शांति मिले यह आपका फ़र्ज़ है न? इसलिए ऐसा कुछ करो न कि उसे अच्छा लगे। एक दिन स्कूल के बच्चों को ज़रा पेड़े खिलाएँ, ऐसा कुछ करो।

इसलिए जब आपके बेटे की याद आए, तब उसकी आत्मा का कल्याण हो ऐसा बोलना। ‘कृपालुदेव’ का नाम लोगे, ‘दादा भगवान’ कहोगे तो भी काम होगा। क्योंकि ‘दादा भगवान’ और ‘कृपालुदेव’ आत्म स्वरूप में एक ही है। देह से अलग दिखते हैं, आँखों से अलग दिखते हैं, परंतु वस्तुत: एक ही हैं। यानी महावीर भगवान का नाम लोगे तो भी एक ही बात है। उसकी आत्मा का कल्याण हो उतनी ही हमें निरंतर भावना करनी है। हम उसके साथ निरंतर रहे, साथ में खाया-पीया, इसलिए उसका कल्याण कैसे हो ऐसी भावना करनी चाहिए। हम परायों के लिए अच्छी भावना करते हैं, तो यह तो अपने स्वजन के लिए क्या नहीं करें?

(पृ.१५)

रोते हैं, स्व के लिए या जाने वाले के लिए?

प्रश्नकर्ता : अपने लोगों को पूर्वजन्म की समझ है, फिर भी घर में कोई मर जाए, उस समय अपने लोग रोते क्यों है?

दादाश्री : वे तो अपने-अपने स्वार्थ के लिए रोते हैं। बहुत नज़दीकी रिश्तेदार हों, तो वह सच में रोते हैं, पर दूसरे सभी जो सच में रोते हैं न, वे तो अपने रिश्तेदारों को याद करके रोते हैं। यह भी आश्चर्य है न! ये लोग भूतकाल को वर्तमानकाल में लाते हैं। इन भारतीयों को भी धन्य है न! भूतकाल को वर्तमानकाल में लाते हैं और वह प्रयोग हमें दिखाते हैं!

परिणाम कल्पांत के

यह एक कल्पांत किया तो ‘कल्प’ के अंत तक भटकने का हो जाता है। एक पूरे कल्प के अंत तक भटकने का हुआ यह।

वह ‘लीकेज’ नहीं करते

प्रश्नकर्ता : नरसिंह मेहता ने, उनकी पत्नी की मृत्यु हुई तब ‘भलु थयुं भांगी जंजाळ’ (भला हुआ छूटा जंजाल) बोल उठे, तो वह क्या कहलाएगा?

दादाश्री : पर वे बावले होकर बोल उठे कि ‘भलु थयुं भांगी जंजाळ’। यह बात मन में रखने की होती है कि ‘जंजाल छूट गया।’ वह मन में से ‘लीकेज’ नहीं होना चाहिए। पर यह तो मन में से ‘लीकेज’ होकर बाहर निकल गया। मन में रखने की चीज़ ज़ाहिर कर दें, तो वे बावले मनुष्य कहलाते हैं।

ज्ञानी होते हैं बहुत विवेकी

और ‘ज्ञानी’ बावले नहीं होते। ज्ञानी बहुत समझदार होते हैं।

(पृ.१६)

मन में सबकुछ होता है कि ‘भला हुआ छूटा जंजाल’ पर बाहर क्या कहते हैं? अरेरे, बहुत बुरा हुआ। यह तो मैं अकेला अब क्या करूँगा?! ऐसा भी कहते हैं। नाटक करते हैं। यह जगत् तो स्वयं नाटक ही है। इसलिए अंदर जानो कि ‘भला हुआ छूटा जंजाल’ पर विवेक में रहना चाहिए। ‘भला हुआ छूटा जंजाल, सुख से भजेंगे श्री गोपाल’ ऐसा नहीं बोलते। ऐसा अविवेक तो कोई बाहर वाला भी नहीं करता। दुश्मन हो, फिर भी विवेक से बैठता है, मुँह शोक वाला करके बैठता है! हमें शोक या और कुछ नहीं होता, फिर भी बाथरुम में जाकर पानी लगाकर, आकर आराम से बैठते हैं। यह अभिनय है। दी वल्र्ड इज़ दी ड्रामा इटसेल्फ, (संसार स्वयं एक नाटक हैं) आपको नाटक ही करना है केवल, अभिनय ही करना है, लेकिन अभिनय ‘सिन्सियरली’ करना है।

जीव भटके तेरह दिन?

प्रश्नकर्ता : मृत्यु के बाद तेरह दिन का रेस्टहाउस होता है, ऐसा कहा जाता है?

दादाश्री : तेरह दिन का तो इन ब्राह्मणों को होता है। मरने वाले को क्या? वह ब्राह्मण ऐसा कहते हैं कि रेस्टहाउस है। ये घर के ऊपर बैठा रहेगा, अँगूठे जितना, और देखता रहेगा। अरे, मुए, देखता किस लिए रहता है? पर देखो उनका तूफ़ान, देखो तूफ़ान! इतना अँगूठे जितना ही है, कहते हैं, और खपरैल पर बैठा रहता है। और अपने लोग सच मानते हैं, और ऐसा सच न मानें, तो तेरही करते ही नहीं ये लोग। नहीं तो ये लोग तेरही आदि कुछ भी नहीं करते।

प्रश्नकर्ता : गरुड़ पुराण में लिखा है कि अँगूठे जितना ही आत्मा है।

दादाश्री : हाँ, उसका नाम ही गरुड़ पुराण है न! पुराणा (पुराना)

(पृ.१७)

कहलाता है। अँगूठे जितना आत्मा, इसलिए प्राप्ति ही नहीं होती न, और प्रगति नहीं होती! कल्याण नहीं हुआ। एवरी डे फ्रायडे! करने गए साइन्टिफिक, हेतु साइन्टिफिक था, पर थिन्किंग सब बिगड़ गई। ये लोग उस नाम पर क्रियाएँ करते हैं और क्रियाएँ करें उससे पहले ब्राह्मण को दान देते थे और तब दान करने योग्य ही ब्राह्मण थे। तो ब्राह्मण को दान देते थे तो पुण्य बंधता था। अब तो यह सब जर्जरित हो गया है। ब्राह्मण यहाँ से पलंग ले जाते हैं, उसका सौदा पहले से किया होता है कि बाईस रुपये में तुझे दूँगा। गद्दे का सौदा किया होता है, चद्दर का सौदा किया होता है। हम दूसरा सब देते हैं, कपड़े साधन आदि सब, वे भी बेच देते हैं सभी। इस तरह आत्मा को पहोंचेगा, ऐसा कैसे मान लिया लोगों ने?

प्रश्नकर्ता : दादाजी अब तो कितने ही लोग ऐसा कहते हैं कि ब्राह्मणों को कह देते हैं कि तू सब ले आना और हम निर्धारित पैसे दे देंगे।

दादाश्री : वह तो आज नहीं, कितने ही वर्षों से करते हैं। निर्धारित पैसे दे देंगे, तू ले आना। और वह दूसरे की दी हुई खाट होती है वह ले आता है! बोलो अब! फिर भी लोगों को मानने में नहीं आता, फिर भी गाड़ी तो वैसे चलती ही रहती है। जैन ऐसा नहीं करते। जैन बड़े पक्के होते हैं, ऐसा-वैसा नहीं करते। ऐसा-वैसा कुछ है भी नहीं। यहाँ से आत्मा निकला, तो सीधे उसकी गति में जाता है, योनि प्राप्त हो जाती है।

मरने वाले को नहीं कुछ लेना-देना

प्रश्नकर्ता : मरने वाले के पीछे कुछ भजन-कीर्तन करना या नहीं? उससे क्या फ़ायदा होता है?

दादाश्री : मरने वाले को कोई लेना-देना नहीं है।

(पृ.१८)

प्रश्नकर्ता : तो फिर ये अपनी धार्मिक विधियाँ हैं, मृत्यु के अवसर पर जो सभी विधियाँ की जाती हैं, वे सही हैं या नहीं?

दादाश्री : इसमें एक अक्षर भी सच्चा नहीं है। यह तो वे गए, सो गए। लोग अपने आप करते हैं और यदि ऐसे कहें कि अपने लिए करो न! तब कहते हैं, ‘नहीं भाई, फुरसत नहीं है मुझे।’ यदि पिताजी के लिए करने को कहें, तब भी नहीं करें ऐसे हैं ये। लेकिन पड़ोसी कहते हैं, ‘अरे मुए, तेरे बाप का कर, तेरे बाप का कर!’ वह तो पड़ोसी ठोक-पीटकर करवाते हैं!

प्रश्नकर्ता : तो यह गरुड़ पुराण बिठाते हैं, वह क्या है?

दादाश्री : वह तो गरुड़ पुराण तो, वे जो रोते रहते हैं न, वे गरुड़ पुराण में जाते हैं, यानी फिर शांति करने के सभी रास्ते हैं ये।

वह सब वाह-वाह के लिए

प्रश्नकर्ता : यह मृत्यु के बाद बारहवाँ करते हैं, तेरही करते हैं, बरतन बाँटते हैं, भोजन रखते हैं, उसका महत्व कितना है?

दादाश्री : वह अनिवार्य चीज़ नहीं है। वह तो पीछे वाह-वाह के लिए करवाते हैं। और यदि खर्च न करें न, तो लोभी होता रहता है। दो हज़ार रुपये दिलवाए हों तो खाता-पीता नहीं है और दो हज़ार के पीछे पैसे जोड़ता रहता है। इसलिए ऐसा खर्चा करे तो फिर मन शुद्ध हो जाता है और लोभ नहीं बढ़ता है। परंतु वह अनिवार्य चीज़ नहीं है। अपने पास में हो तो करना, नहीं हो तो कोई बात नहीं।

श्राद्ध की सच्ची समझ

प्रश्नकर्ता : ये श्राद्ध में पितृओं को जो आह्वान होता है, वह ठीक है? उस समय श्राद्ध पक्ष में पितृ आते हैं? और कौए को भोजन खिलाते हैं, वह क्या है ?

(पृ.१९)

दादाश्री : ऐसा है न, यदि बेटे के साथ संबंध होगा तो आएगा। सारा संबंध पूरा होता है, तब तो देह छूटता है। किसी प्रकार का घर वालों के साथ संबंध नहीं रहा, इसलिए यह देह छूट जाता है। फिर कोई मिलता नहीं है। फिर नया संबंध बंधा हो, तो फिर जन्म होता है वहाँ, बाकी कोई आता-करता नहीं है। पितृ किसे कहेंगे? बेटे को कहेंगे या बाप को कहेंगे? बेटा पितृ होने वाला है और बाप भी पितृ होने वाला है और दादा भी पितृ होना वाला है, किसे कहेंगे पितृ?

प्रश्नकर्ता : याद करने लिए ही ये क्रियाएँ रखी हैं, ऐसा न?

दादाश्री : नहीं, याद करने के लिए भी नहीं। यह तो अपने लोग मृतक के पीछे धर्म के नाम पर चार आने भी खर्च करें ऐसे नहीं थे। इसलिए फिर उन्हें समझाया कि भाई आपके पिताश्री मर गए हैं, तो कुछ खर्च करो, कुछ ऐसा करो, वैसा करो। तो फिर आपके पिताश्री को पहुँचेगा। यानी लोग भी उसे डाँटकर कहते हैं कि बाप के लिए कुछ कर न! श्राद्ध कर न! कुछ अच्छा कर न! तो ऐसे करके दो सौ-चार सौ, जो भी खर्च करवाते हैं धर्म के नाम पर, उतना उसे फल मिलता है। बाप के नाम पर करता है और बाद में फल मिलता है। यदि बाप का नाम नहीं दिया होता, तो ये लोग चार आने भी खर्च नहीं करते। अत: अंधश्रद्धा पर यह बात चल रही है। आपकी समझ में आया न? नहीं समझे?

ये व्रत-उपवास करते हैं, वह सब आयुर्वेद के लिए है, आयुर्वेद के लिए। ये सब व्रत-उपवास आदि करते हैं और आयुर्वेद में किस तरह फायदा हो, उसके लिए प्रबंध किया है यह सब। पहले के लोगों ने प्रबंध अच्छा किया है। इन मूर्ख लोगों को भी फायदा होगा, इसलिए अष्टमी, एकादशी, पंचमी, ऐसा सब किया है और ये श्राद्ध करते हैं न! अत: श्राद्ध, वह तो बहुत अच्छे हेतु के लिए किया है। 

(पृ.२०)

प्रश्नकर्ता : दादाजी, श्राद्ध में कौओं को भोजन खिलाते हैं, उसका क्या तात्पर्य है? अज्ञानता कहलाती है वह?

दादाश्री : नहीं, अज्ञानता नहीं है। यह एक तरह से लोगों ने सिखाया है कि उस प्रकार से श्राद्धकर्म होता है। वह अपने यहाँ तो श्राद्ध करने का तो बड़ा इतिहास है। इसका क्या कारण था? श्राद्ध कब से शुरू होते हैं कि भादों सुद पूनम से लेकर भादों वद अमावस्या तक श्राद्धपक्ष कहलाता है। सोलह दिन के श्राद्ध! अब यह श्राद्ध का किस लिए इन लोगों ने डाला? बहुत बुद्धिमान प्रजा हैं! इसलिए श्राद्ध जो डाले हैं, वह तो सब वैज्ञानिक तरीका है। अपने इन्डिया में आज से कुछ साल पहले गाँवों में हर एक घर में एक खटिया तो बिछी रहती थी, मलेरिया से एक-दो लोग तो खटिया में होते थे। कौन से माह में? तब कहें, भादों माह में। यानी हम गाँव में जाएँ, तो हर एक घर के बाहर एकाध खटिया पड़ी होती और उसमें मरीज़ सो रहा होता, ओढ़कर। बुख़ार होता, मलेरिया के बुख़ार से ग्रस्त। भादों के महीने में मच्छर बहुत होते थे, इसलिए मलेरिया बहुत फैलता था, यानी मलेरिया पित्त का ज्वर कहलाता है। वह वायु या कफ का ज्वर नहीं है। पित्त का ज्वर, तो इतना अधिक पित्त बढ़ जाता है। बरसात के दिन और पित्तज्वर और फिर मच्छर काटते थे। जिसे पित्त ज़्यादा होता है उसे काटते हैं। इसलिए मनुष्यों ने, इन खोजकत्र्ताओं ने यह खोज की थी कि हिन्दुस्तान में, कोई रास्ता निकालो, नहीं तो आबादी आधी हो जाएगी। अभी तो ये मच्छर कम हो गए हैं, नहीं तो आदमी जीवित नहीं होता। इसलिए पित्त के बुख़ार को शमन करने के लिए, ऐसी शमन क्रिया करने के लिए खोज की थी कि ये लोग दूधपाक या खीर, दूध और शक्कर आदि खाएँ तो पित्त शमेगा और मलेरिया से कुछ छुटकारा मिले। अब ये लोग घर का दूध हो, फिर भी खीर-बीर बनाते नहीं थे, दूधपाक खाते नहीं थे ऐसे ये लोग! बहुत नोर्मल न(!),

(पृ.२१)

इसलिए क्या हो, वह आप जानते हो? अब ये दूधपाक रोज़ खाएँ किस तरह?

अब बाप को तो एक अक्षर (कुछ) भी नहीं पहुँचता। पर इन लोगों ने खोज की थी कि ये हिन्दुस्तान के लोग चार आने भी धर्म करें, ऐसे नहीं हैं। ऐसे लोभी हैं कि दो आने भी धर्म नहीं करें। इसलिए ऐसे उल्टा कान पकड़वाया कि ‘अपने बाप का श्राद्ध तो कर!’ ऐसा सब कहने आते हैं न! इसलिए श्राद्ध का नाम इस प्रकार डाल दिया था। इसलिए लोगों ने फिर शुरू कर दिया कि बाप का श्राद्ध तो करना पड़ेगा न! और मुझ-सा कोई अड़ियल हो और श्राद्ध न करता हो तब क्या कहते हैं? ‘बाप का श्राद्ध भी करता नहीं है।’ आस-पास वाले किच-किच करते हैं, इसलिए फिर श्राद्ध कर देता है। तब फिर भोजन करवा देता है।

तब पूनम के दिन से खीर खाने को मिलती है और पंद्रह दिनों तक खीर मिलती रहती है। क्योंकि आज मेरे यहाँ, कल आपके यहाँ और लोगों को भी यह माफिक आ गया कि, ‘ठीक है बारी-बारी से खाना है न! ठगे नहीं जाना है और फिर खाना डालना कौए को।’ इस प्रकार खोज की थी। उससे पित्त सारा शांत हो जाता है। तो इसलिए इन लोगों ने यह व्यवस्था की थी। इसलिए हमारे लोग उस समय क्या कहते थे कि सोलह श्राद्धों के बाद यदि जीवित रहा तो नवरात्रि में आया!

हस्ताक्षर बिना मरण भी नहीं

पर कुदरत का नियम ऐसा है कि किसी भी मनुष्य को यहाँ से नहीं ले जा सकते। मरने वाले के हस्ताक्षर बिना उसे यहाँ से नहीं ले जा सकते। लोग हस्ताक्षर करते होंगे क्या? ऐसा कहते हैं न कि ‘हे भगवान, यहाँ से जाया जाए तो अच्छा’। अब ऐसा किस लिए बोलते

(पृ.२२)

हैं? वह आप जानते हो? कभी ऐसा भीतर दु:ख होता है, तब फिर दु:ख का मारा बोलता है कि ‘यह देह छूटे तो अच्छा।’ उस घड़ी हस्ताक्षर करवा लेता है।

उससे पहले करना ‘मुझे’ याद

प्रश्नकर्ता : दादाजी ऐसा सुना है कि आत्महत्या के बाद इस प्रकार के सात जन्म होते हैं, यह बात सच है?

दादाश्री : जो संस्कार पड़ते हैं, वे सात-आठ जन्म के बाद जाते हैं। इसलिए ये कोई बुरे संस्कार मत पड़ने देना। बुरे संस्कारों से दूर भागना। हाँ, यहाँ चाहे जैसा दु:ख हो तो वह सहन करना, पर गोली मत मारना, आत्महत्या मत करना। इसलिए बड़ौदा शहर में आज से कुछ साल पहले सबसे कह दिया था कि आत्महत्या का विचार आए, तब मुझे याद करना और मेरे पास आ जाना। ऐसे मनुष्य हों न, जोखिम वाले मनुष्य, उन्हें कहकर रखता था। वह फिर मेरे पास आते थे, तब उसे समझा देता था। दूसरे दिन आत्महत्या करना बंद हो जाता था। v~zv के बाद सबको खबर कर दी थी कि जिस किसी को आत्महत्या करनी हो तो वह मुझसे मिले, और फिर करे। कोई आए कि मुझे आत्महत्या करनी है तो उसे मैं समझाता था। आसपास के ‘कॉज़ेज़’ (कारण), सर्कल, आत्महत्या करने जैसी हैं या नहीं करने जैसी, सब उसे समझा देता था और उसे वापस मोड़ लेता था।

आत्महत्या का फल

प्रश्नकर्ता : कोई मनुष्य यदि आत्महत्या करे तो उसकी क्या गति होती है? भूत-प्रेत बनता है?

दादाश्री : आत्महत्या करने से तो प्रेत बनता है और प्रेत बनकर

(पृ.२३)

भटकना पड़ता है। इसलिए आत्महत्या करके उलटे उपाधियाँ मोल लेता है। एकबार आत्महत्या करे, उसके बाद कितने ही जन्मों तक उसका प्रतिघोष गूँजता रहता है! और यह जो आत्महत्या करता है, वह कोई नया नहीं कर रहा है। वह तो पिछले जन्म में आत्महत्या की थी, उसके प्रतिघोष से करता है। यह जो आत्महत्या करता है, वह तो पिछले किए हुए आत्मघात कर्म का फल आता है। इसलिए अपने आप ही आत्महत्या करता है। वे ऐसे प्रतिघोष पड़े होते हैं कि वह वैसा का वैसा ही करता आया होता है। इसलिए अपने आप आत्महत्या करता है और आत्महत्या होने के बाद फिर अवगति वाला जीव बन जाता है। अवगति अर्थात् देह के बिना भटकता है। भूत बनना कुछ आसान नहीं है। भूत तो देवगति का अवतार है, वह आसान चीज़ नहीं है। भूत तो यहाँ पर कठोर तप किए हों, अज्ञान तप किए हों, तब भूत होता है, जब कि प्रेत अलग चीज़ हैं।

विकल्प बिना जीया नहीं जाता

प्रश्नकर्ता : आत्महत्या के विचार क्यों आते होंगे?

दादाश्री : वह तो भीतर विकल्प खतम हो जाते हैं इसलिए। यह तो विकल्प के आधार पर जीया जाता है। विकल्प समाप्त हो जाएँ, फिर अब क्या करना, उसका कोई दर्शन दिखता नहीं है, इसलिए फिर आत्महत्या करने की सोचता है। इसलिए ये विकल्प भी काम के ही हैं।

सहज विचार बंद हो जाएँ, तब ये सब उलटे विचार आते हैं। विकल्प बंद होते हैं इसलिए जो सहज विचार आते हों, वे भी बंद हो जाते हैं। घोर अँधेरा हो जाता है। फिर कुछ दिखता नहीं है! संकल्प अर्थात् ‘मेरा’ और विकल्प अर्थात् ‘मैं’। वे दोनों बंद हो जाएँ, तब मर जाने के विचार आते हैं।

(पृ.२४)

आत्महत्या के कारण

प्रश्नकर्ता : वह जो उसे वृत्ति हुई, आत्महत्या करने की उसका रूट (मूल) क्या है?

दादाश्री : आत्महत्या का रूट तो ऐसा होता है कि उसने किसी जन्म में आत्महत्या की हो तो उसके प्रतिघोष सात जन्मों तक रहा करते हैं। जैसे एक गेंद डालें न हम, तीन फीट ऊपर से डालें, तो अपने आप दूसरी बार ढाई फीट उछलकर वापस गिरेगी। फिर एक फुट उछलकर गिरे वापस, ऐसा होता है कि नहीं? तीन फीट पूरा नही उछलती, पर अपने स्वभाव से ढाई फीट उछलकर वापस गिरती है, तीसरी बार दो फीट उछलकर वापस गिरती है, चौथी बार डेढ़ फीट उछलकर वापस गिरती है। फिर एक फुट उछलकर गिरती है। ऐसा उसका गति का नियम होता है। ऐसे कुदरत के भी नियम होते हैं। तो ये आत्महत्या करें, तो सात जन्म तक आत्महत्या करनी ही पड़ती है। अब उसमें कम-ज्यादा परिणाम से आत्महत्या हमें पूर्ण ही दिखती है, मगर परिणाम कम तीव्रता वाले होते हैं और कम होते-होते, परिणाम खतम हो जाते हैं।

अंतिम पलों में

मरते समय सारी ज़िंदगी में जो किया हो, उसका सार (हिसाब) आता है। वह सार पौना घंटे तक पढ़ता रहे, फिर देह बंध जाता है। फलत: दो पैरों में से चार पैर हो जाते हैं। यहाँ रोटी खाते खाते, वहाँ डंठल खाने! इस कलियुग का माहात्म्य ऐसा है! इसलिए यह मनुष्यत्व फिर मिलना मुश्किल है, ऐसा यह कलियुग का काल...!

प्रश्नकर्ता : अंतिम समय किसे पता है कि कान बंद हो जाएँ?

दादाश्री : अंतिम समय में तो आज जो आपके बहीखाते में

(पृ.२५)

जमा है न, वह आता है। मृत्यु समय का घंटा, जो गुणस्थान आता है न, वह सार है और वह लेखा-जोखा सिर्फ सारी ज़िंदगी का नहीं, परंतु पहले जो जन्म लिया और बाद में, बीच के भाग का लेखा-जोखा है। तो मृत्यु की घड़ी में हमारे लोग, कितने ही कान में बुलवाते हैं, ‘बोलो राम, बोलो राम,’ अरे मुए, राम क्यों बुलवाता है? राम तो गए कभी के!

पर लोगों ने सिखलाया ऐसा, कि ऐसा कुछ करना। लेकिन वह तो अंदर पुण्य जागा हो न, तब एडजस्ट होता है। और वह तो लड़की को ब्याहने की चिंता में ही पड़ा होता है। ये तीन लड़कियाँ ब्याह दीं और यह चौथी रह गई। ये तीन ब्याह दीं और छोटी अकेली रह गई। रक़म करी कि वह आगे आकर खड़ी रहेगी। और वह बचपन में अच्छा किया हुआ नहीं आएगा, बुढ़ापे में अच्छा किया हुआ आएगा।

कुदरत का कैसा सुंदर कानून!

अत: यहाँ से जाता है, वह भी कुदरत का न्याय, ठीक है न! लेकिन वीतराग सावधान करते हैं कि भाई पचास साल हो गए अब सँभल जा!

पचहत्तर वर्ष की आयु हो तो पचासवें वर्ष में पहली फोटो खिंचती है और साठ वर्ष का आयुष्य हो, तब चालीसवें वर्ष में फोटो खिंचती है। इक्यासी वर्ष का आयुष्य हो तो चौवनवें वर्ष में फोटो खिंच जाती है। लेकिन तब तक इतना टाइम फ्री ऑफ कॉस्ट (मुफ्त) मिलता है, दो तिहाई हिस्सा फ्री में मिलता है और एक तिहाई भाग, उसकी फिर फोटो खिंचती रहती हैं। कानून अच्छा है या ज़ोर-ज़बरदस्ती वाला है? ज़ोर-ज़बरदस्ती वाला नहीं है न? न्यायसंगत है न? दो तिहाई उछल-कूद की हो, उसकी हमें आपत्ति नहीं है, पर अब सीधा मर, कहते हैं!

(पृ.२६)

क्षण-क्षण भाव मरण

प्रश्नकर्ता : देह की मृत्यु तो कहलाती है न?

दादाश्री : अज्ञानी मनुष्यों का तो दो तरह का मरण होता है। रोज़ भाव मरण होता रहता है। क्षण-क्षण भाव मरण और फिर अंतत: देह की मृत्यु होती है। लेकिन हर रोज़ उनके मरण, रोना रोज़ का। क्षण-क्षण भाव मरण। इसलिए कृपालुदेव ने लिखा है न,

‘क्षण-क्षण भयंकर भाव मरणे कां अहो राची रह्यो!’

(क्षण-क्षण भयंकर भाव मृत्यु, क्यों अरे प्रसन्न है!)

ये सभी जी रहे हैं, वे मरने के लिए या किस लिए जी रहे हैं?

समाधि मरण

इसलिए मृत्यु से कहें कि ‘‘तुझे जल्दी आना हो तो जल्दी आ, देर से आना हो तो देर से आ, मगर ‘समाधि मरण’ बनकर आना!’’

समाधि मरण अर्थात् आत्मा के सिवाय और कुछ याद ही नहीं हो। निज स्वरूप शुद्धात्मा के अलावा दूसरी जगह चित्त ही नहीं हो, मन-बुद्धि-चित्त-अहंकार, कुछ भी डाँवाडोल हो नहीं! निरंतर समाधि! देह को उपाधि (परेशानी, दु:ख) हो, फिर भी उपाधि छुए नहीं! देह तो उपाधि वाला है कि नहीं?

प्रश्नकर्ता : हाँ।

दादाश्री : केवल उपाधि वाला ही नहीं, व्याधि वाला भी है या नहीं? ज्ञानी को उपाधि छूती नहीं। व्याधि हुई हो तो वह भी छूती नहीं। और अज्ञानी तो व्याधि नहीं हो, तो उसे बुलाता है! समाधि मृत्यु अर्थात् ‘मैं शुद्धात्मा हूँ’ ऐसा भान रहे! अपने कितने ही महात्माओं की मृत्यु हुई, उन सभी को ‘मैं शुद्धात्मा हूँ, मैं शुद्धात्मा हूँ’ ऐसा भान रहा करता था।

(पृ.२७)

गति की निशानी

प्रश्नकर्ता : मृत्यु समय ऐसी कोई निशानी है कि कभी पता चले कि इस जीव की गति अच्छी हुई या नहीं?

दादाश्री : उस समय, मेरी लड़की ब्याही कि नहीं? ऐसा हुआ नहीं। ऐसी सभी घर की ही भेजाफोड़ी करता रहता है। उपाधि करता रहता है। इसलिए समझना कि इसकी हो गई अधोगति। और आत्मा में रहता हो अर्थात् भगवान में रहता हो तो अच्छी गति हुई।

प्रश्नकर्ता : लेकिन बेहोश रहे थोड़े दिन, तो?

दादाश्री : बेहोश रहे, फिर भी भीतर यदि ज्ञान में हो तो चलेगा। यह ज्ञान लिया हुआ होना चाहिए। फिर बेहोश हो तो भी चलेगा।

मृत्यु का भय

प्रश्नकर्ता : तो मृत्यु का भय क्यों रहता है सभी को?

दादाश्री : मृत्यु का भय तो अहंकार को रहता है, आत्मा को कुछ नहीं। अहंकार को भय रहता है कि मैं मर जाऊँगा, मैं मर जाऊँगा।

उस दृष्टि से देखो तो सही

ऐसा है न, भगवान की दृष्टि से इस संसार में क्या चल रहा है? तब कहे, उनकी दृष्टि से तो कोई मरता ही नहीं। भगवान की जो दृष्टि है, वह दृष्टि यदि आपको प्राप्त हो, एक दिन के लिए दें वे आपको, तो यहाँ चाहे जितने लोग मर जाएँ, फिर भी आपको असर नहीं होगा। क्योंकि भगवान की दृष्टि में कोई मरता ही नहीं है।

जीव तो मरण, शिव तो अमर

कभी न कभी सोल्युशन तो लाना पड़ेगा न? जीवन-मृत्यु का

(पृ.२८)

सोल्युशन नहीं लाना पड़ेगा? वास्तव में खुद मरता भी नहीं है और वास्तव में जीता भी नहीं है। यह तो मान्यता में ही भूल है कि स्वयं को जीव मान बैठा है। खुद का स्वरूप शिव है। खुद शिव है, लेकिन यह खुद की समझ में नहीं आता है और खुद को जीवस्वरूप मान बैठा है!

प्रश्नकर्ता : ऐसा हर एक जीव को समझ में आता हो, तो यह दुनिया चले नहीं न?

दादाश्री : हाँ, चले ही नहीं न! लेकिन फिर हर एक व्यक्ति को वह समझ में आए ऐसा भी नहीं है! यह तो पज़ल है सब। अत्यंत गुह्य, अत्यंत गुह्यतम। इस गुह्यतम के कारण ही यह सब ऐसा पोलम्पोल जगत् चलता रहता है।

जीए-मरे, वह कौन?

ये जन्म-मृत्यु आत्मा के नहीं हैं। आत्मा परमानेन्ट वस्तु है। ये जन्म-मृत्यु इगोइज़म (अहंकार) के हैं। इगोइज़म जन्म पाता है और इगोइज़म मरता है। वास्तव में आत्मा खुद मरता ही नहीं। अहंकार ही जन्मता है और अहंकार ही मरता है।

मृत्यु समय, पहले और पश्चात्...

आत्मा की स्थिति

जन्म-मरण क्या है?

प्रश्नकर्ता : जन्म-मरण क्या है?

दादाश्री : जन्म-मृत्यु तो होते हैं, हम देखते हैं कि उसमें क्या है, उसमें पूछने जैसा नहीं है। जन्म-मरण यानी उसके कर्म का हिसाब पूरा हो गया, एक अवतार का जो हिसाब बांधा था, वह पूरा हो गया, इसलिए मृत्यु हो जाती है।

(पृ.२९)

मृत्यु क्या है?

प्रश्नकर्ता : मृत्यु क्या है?

दादाश्री : मृत्यु तो, ऐसा है न, यह क़मीज़ सिलवाई यानी क़मीज़ का जन्म हुआ न, और जन्म हुआ, इसलिए मृत्यु हुए बगैर रहती ही नहीं! किसी भी वस्तु का जन्म होता है, उसकी मृत्यु अवश्य होती है। और आत्मा अजन्म-अमर है, उसकी मृत्यु ही नहीं होती। मतलब जितनी वस्तुएँ जन्मती हैं, उनकी मृत्यु अवश्य होती है और मृत्यु है तो जन्म पाएँगी। यानी जन्म के साथ मृत्यु जोइन्ट हुआ है। जन्म हो, वहाँ मृत्यु अवश्य होती ही है!

प्रश्नकर्ता : मृत्यु किस लिए है?

दादाश्री : मृत्यु तो ऐसा है न, इस देह का जन्म हुआ न वह एक संयोग है, उसका वियोग हुए बगैर रहता ही नहीं न! संयोग हमेशा वियोगी स्वभाव के ही होते हैं। हम स्कूल में पढऩे गए थे, तब शुरूआत की थी या नहीं, बिगिनिंग? फिर एन्ड आया कि नहीं आया? हर एक चीज़ बिगिनिंग (शुरूआत) और एन्ड वाली (अंत वाली) ही होती है। यहाँ पर इन सभी चीज़ों का बिगिनिंग और एन्ड होता है। नहीं समझ में आया तुझे?

प्रश्नकर्ता : समझ में आया न!

दादाश्री : ये सभी चीज़ें बिगिनिंग-एन्ड वाली, परंतु बिगिनिंग और एन्ड को जो जानता है, वह जानने वाला कौन है?

बिगिनिंग-एन्ड वाली सभी वस्तुएँ हैं, वे टेम्परेरी (अस्थायी) वस्तुएँ हैं। जिसका बिगिनिंग होता है, उसका एन्ड होता है, बिगिनिंग हो उसका एन्ड होता ही है अवश्य। वे सभी टेम्परेरी वस्तुएँ हैं, मगर टेम्परेरी को जानने वाला कौन है? तू परमानेन्ट है, क्योंकि तू इन

(पृ.३०)

वस्तुओं को टेम्परेरी कहता है, इसलिए तू परमानेन्ट है। यदि सभी वस्तुएँ टेम्परेरी होतीं तो फिर टेम्परेरी कहने की ज़रूरत ही नहीं थी। टेम्परेरी सापेक्ष शब्द है। परमानेन्ट है, तो टेम्परेरी है।

मृत्यु का कारण

प्रश्नकर्ता : तो मृत्यु किस लिए आती है?

दादाश्री : वह तो ऐसा है, जब जन्म होता है, तब ये मन-वचन-काया की तीन बेटरियाँ हैं, जो गर्भ में से इफेक्ट (परिणाम) देती जाती हैं। वे इफेक्ट पूर्ण होते हैं, तब ‘बेटरियों’ से हिसाब पूरा हो जाता है। तब तक वे बेटरियाँ रहती हैं और फिर खतम हो जाती हैं, उसे मृत्यु कहते हैं। पर तब फिर अगले जन्म के लिए भीतर नयी बेटरियाँ चार्ज (पावर भरता) हो गई होती हैं। अगले जन्म के लिए भीतर नयी बेटरियाँ चार्ज होती ही रहती है और पुरानी ‘बेटरियाँ’ ‘डिस्चार्ज’ होती है। ऐसे ‘चार्ज-डिस्चार्ज’ होता ही रहता है। क्योंकि उसे ‘रोंग बिलीफ़’ (उल्टी मान्यता) है। इसलिए ‘कॉज़ेज़’ (कारण) उत्पन्न होते हैं। जब तक ‘रोंग बिलीफ़’ हैं, तब तक राग-द्वेष और कॉज़ेज़ उत्पन्न होते हैं। और वह ‘रोंग बिलीफ़’ बदले और ‘राइट बिलीफ़ बैठे, तब फिर राग-द्वेष और ‘कॉज़ेज़’ उत्पन्न नहीं होते।

पुनर्जन्म

प्रश्नकर्ता : जीवात्मा मरता है, फिर वापस आता है न?

दादाश्री : ऐसा है न, फ़ॉरेन वालों का वापस नहीं आता है, मुस्लिमों का वापस नहीं आता है, लेकिन आपका वापस आता है। आप पर भगवान की इतनी कृपा है कि आपका वापस आता है। यहाँ से मरा कि वहाँ दूसरी योनि में पैठ गया होता है। और उनका तो वापस नहीं आता।

(पृ.३१)

अब वास्तव में वापस नहीं आते, ऐसा नहीं है। उनकी मान्यता ऐसी है कि यहाँ से मरा यानी मर गया, लेकिन वास्तव में वापस ही आता है। पर उन्हें समझ नहीं आता है। पुनर्जन्म ही समझते नहीं हैं। आपको पुनर्जन्म समझ में आता है न?

शरीर की मृत्यु हो, तो वह जड़ हो जाता है। उस पर से साबित होता है कि उसमें जीव था, वह निकलकर दूसरी जगह गया। फ़ॉरेन वाले तो कहते हैं कि यह वही जीव था और वही जीव मर गया। हम वह कबूल करते नहीं हैं। हम लोग पुनर्जन्म में मानते हैं। हम ‘डेवलप’ (विकसित) हुए हैं। हम वीतराग विज्ञान को जानते हैं। वीतराग विज्ञान कहता है, पुनर्जन्म के आधार पर हम इकट्ठे हुए हैं, ऐसा हिन्दुस्तान में समझते हैं। उसके आधार पर हम आत्मा को मानने लगे है। नहीं तो यदि पुनर्जन्म का आधार नहीं होता तो आत्मा माना ही कैसे जा सकता है?

तो पुनर्जन्म किस का होता है? तब कहे, आत्मा है, तो पुनर्जन्म होता है, क्योंकि देह तो मर गया, जलाया गया, ऐसा हम देखते हैं।

यानी आत्मा समझ में आता हो, तो हल ही आ जाएगा न! लेकिन वह समझ आए ऐसा नहीं है न! इसलिए तमाम शास्त्रों ने कहा कि ‘आत्मा जानो!’ अब उसे जाने बिना जो कुछ किया जाता है, वह सब उसे फायदेमंद नहीं है, हैल्पिंग नहीं है। पहले आत्मा जानो तो सारा सोल्युशन (हल) आ जाएगा।

पुनर्जन्म किस का?

प्रश्नकर्ता : पुनर्जन्म कौन लेता है? जीव लेता है या आत्मा लेता है?

दादाश्री : नहीं, किसी को लेना नहीं पड़ता, हो जाता है। यह सारा संसार ‘इट हेपन्स’ (अपने आप चल रहा) ही है!

(पृ.३२)

प्रश्नकर्ता : हाँ, मगर वह किस से हो जाता है? जीव से हो जाता है या आत्मा से?

दादाश्री : नहीं, आत्मा को कुछ लेना-देना ही नहीं है, सब जीव से ही है। जिसे भौतिक सुख चाहिए, उसे योनि में प्रवेश करने का ‘राइट’ (अधिकार) है। जिसे भौतिक सुख नहीं चाहिए, उसे योनि में प्रवेश करने का राइट चला जाता है।

संबंध जन्म-जन्म का

प्रश्नकर्ता : मनुष्य के हर एक जन्म का पुनर्जन्म के साथ संबंध है?

दादाश्री : वह तो हर एक जन्म पूर्वजन्म ही होता है। अर्थात् हर एक जन्म का संबंध पूर्वजन्म से ही होता है।

प्रश्नकर्ता : लेकिन पूर्वजन्म का इस जन्म से क्या लेना-देना है?

दादाश्री : अरे अगले जन्म के लिए यह पूर्वजन्म हुआ। पिछला जन्म, वह पूर्वजन्म है, तो यह जन्म है। वह अगले जन्म का पूर्वजन्म कहलाता है।

प्रश्नकर्ता : हाँ, वह बात सच्ची है। पर पूर्वजन्म में ऐसा कुछ होता है, जिसका इस जन्म के साथ कोई संबंध हो?

दादाश्री : बहुत ही संबंध, निरा! पूर्वजन्म में बीज पड़ता है और दूसरे जन्म में फल आता है। इसलिए उसमें, बीज में और फल में फर्क नहीं? संबंध हुआ कि नहीं?! हम बाजरे का दाना बोएँ, वह पूर्वजन्म और बाल आए, वह यह जन्म, फिर से इस बाल में से बीज रूप में दाना गिरा वह पूर्वजन्म और उसमें से बाल आए, वह नया जन्म। समझ में आया कि नहीं?

(पृ.३३)

प्रश्नकर्ता : एक आदमी रास्ते पर चलता हुआ जा रहा है और दूसरे कितने ही रास्ते पर चलते हुए जाते हैं, पर कोई साँप किसी आदमी को ही काटता है, उसका कारण पुनर्जन्म ही?

दादाश्री : हाँ, हम यही कहना चाहते हैं कि पुनर्जन्म है। इसलिए वह साँप आपको काटता है, पुनर्जन्म नहीं होता तो आपको साँप नहीं काटता, पुनर्जन्म है, वह आपका हिसाब आपको चुकाता है। ये सभी हिसाब पूरे हो रहे हैं। जिस तरह बहीखाते के हिसाब चुकता होते हैं न, उसी तरह सभी हिसाब पूरे हो रहे हैं। और ‘डेवलपमेन्ट’ के कारण ये हिसाब सभी हमें समझ में आते भी है। इसलिए हमारे यहाँ कितने ही लोगों को, पुनर्जन्म है ही, ऐसी मान्यता भी हो गई है न! परंतु वे ‘पुनर्जन्म’ है ही, ऐसा नही कह सकते। ‘है ही’ ऐसा कोई सबूत दे नहीं सकते। लेकिन उसकी अपनी श्रद्धा में बैठ गया है, ऐसे सभी उदाहरणों से, कि पुनर्जन्म है तो सही!

ये बहन कहेंगी, इसको सास अच्छी क्यों मिली और मुझे क्यों ऐसी मिली? यानी संयोग सभी तरह-तरह के मिलते हैं।

और क्या साथ में जाता है?

प्रश्नकर्ता : एक जीव दूसरे देह में जाता है। वहाँ साथ में पंचेन्द्रियाँ और मन आदि हर एक जीव लेकर जाता है?

दादाश्री : नहीं, नहीं, कुछ भी नहीं। इन्द्रियाँ तो सभी एक्ज़ोस्ट (खाली) होकर खतम हो गई, इन्द्रियाँ तो मर गई। इसलिए उसके साथ इन्द्रियों जैसा कुछ भी जाने वाला नहीं है। केवल ये क्रोध-मान-माया-लोभ जाने वाले हैं। उस कारण शरीर में क्रोध-मान-माया-लोभ सभी आ गया। और सूक्ष्म शरीर कैसा होता है? जब तक मोक्ष में नहीं जाते, तब तक साथ ही रहता है। चाहे जहाँ अवतार हो, पर यह सूक्ष्म शरीर तो साथ ही होता है।

(पृ.३४)

इलेक्ट्रिकल बॉडी

आत्मा देह को छोड़कर अकेला नहीं जाता है। आत्मा के साथ फिर सारे कर्म, जो कारण शरीर कहलाते हैं वे, फिर तीसरा ‘इलेक्ट्रिकल बॉडी’ (तेजस शरीर), ये तीनों साथ ही निकलते हैं। जब तक यह संसार है, तब तक हर एक जीव में यह इलेक्ट्रिकल बॉडी होती ही है! कारण शरीर बंधा कि इलेक्ट्रिकल बॉडी साथ में ही होती है। इलेक्ट्रिकल बॉडी हर एक जीव में सामान्य भाव से होती ही है और उसके आधार पर अपना चलता है। भोजन लेते हैं, उसे पचाने का काम इलेक्ट्रिकल बॉडी करती है। वह खून बनता है, खून शरीर में ऊपर चढ़ाती है, नीचे उतारती है, वह सब अंदर कार्य करती रहती है। आँख से दिखता है, वह लाईट सारा इस इलेक्ट्रिकल बॉडी के कारण होता है और ये क्रोध-मान-माया-लोभ भी इस ‘इलेक्ट्रिकल बॉडी’ के कारण ही होते हैं। आत्मा में क्रोध-मान-माया-लोभ हैं ही नहीं। यह गुस्सा भी, वह सब इलेक्ट्रिकल बॉडी के शॉक (आघात) हैं।

प्रश्नकर्ता : यानी ‘चार्ज’ होने में ‘इलेक्ट्रिकल बॉडी’ काम करती होगी न?

दादाश्री : इलेक्ट्रिकल बॉडी हो, तभी चार्ज होता है। नहीं तो यह इलेक्ट्रिकल बॉडी नहीं हो, तो यह कु छ चलेगा ही नहीं। ‘इलेक्ट्रिकल बॉडी’ हो और आत्मा नहीं हो, तब भी कुछ नहीं चलेगा। ये सारे समुच्य ‘क़ॉज़ेज़’ हैं।

गर्भ में जीव का प्रवेश कब?

प्रश्नकर्ता : संचार होता है। तभी जीव प्रवेश करता है। प्राण आता है, ऐसा वेदों में कहते हैं।

दादाश्री : नहीं, वे सभी बातें हैं, वे अनुभव की नहीं हैं, सच्ची

(पृ.३५)

बात नहीं हैं ये सब। वे लौकिक भाषा की। जीव के बिना कभी भी गर्भ धारण नहीं होता। जीव की उपस्थिति में ही गर्भ धारण होता है, नहीं तो धारण नहीं होता।

वह पहले तो अंडे की भांति बेभान अवस्था में रहता है।

प्रश्नकर्ता : मुर्गी के अंडे में छेद बनाकर जीव भीतर गया?

दादाश्री : नहीं, वह तो यह लौकिक में ऐसा। लौकिक में आप कहते हैं, ऐसा ही लिखा है। क्योंकि गर्भ धारण होना, वह तो काल, सभी साइन्टिफिक सरकमस्टेन्शियल एविडन्स, काल भी मिले, तब धारण होता है।

नौ महीने भीतर जीव रहता है तब प्रकट होता है और सात महीनों का जीव हो, तब अधूरे महीनों में पैदा हो गया हो, इसलिए कच्चा होता है। उसका दिमाग-विमाग सब कच्चा होता हैं। सभी अंग कच्चे होते हैं। सात महीने में पैदा हुआ इसलिए और अट्ठारह महीनों में आया तो बात ही अलग, बहुत हाई लेवल (उच्च कोटी) का दिमाग होता है। अत: नौ महीने से ज्यादा जितने महीने हों, उतना उसका ‘टॉप’ दिमाग होता है, जानते हो ऐसा?

क्यों बोलते नहीं? आपने सुना नहीं कि यह अट्ठारह महीने का है ऐसा! सुना है? पहले सुनने में नहीं आया, नहीं? कि जाने दो, उसकी माँ तो अट्ठारह महीने का है, कहती है! वह तो बड़ा होशियार होता है। उसकी माँ के पेट में से बाहर निकलता ही नहीं। अट्ठारह महीनों तक रौब जमाता है वहाँ।

बीच में समय कितना?

प्रश्नकर्ता : यानी यह देह छोड़ना और दूसरा धारण करना, उन दोनों के बीच में वैसे, कितना समय लगता है?

(पृ.३६)

दादाश्री : कुछ भी समय नहीं लगता। यहाँ भी होता है, इस देह से अभी निकल रहा होता है यहाँ से और वहाँ योनि में भी हाज़िर होता है, क्योंकि यह टाइमिंग है, वीर्य और रज का संयोग होता है, उस घड़ी। इधर से देह छूटने वाला हो, उधर वह संयोग होता है, वह सब इकट्ठा हो तब यहाँ से जाता है। नहीं तो वह यहाँ से जाता ही नहीं, अर्थात् मनुष्य की मृत्यु के बाद आत्मा यहाँ से सीधा ही दूसरी योनी में जाता है। इसलिए आगे क्या होगा, इसकी कोई चिन्ता करने जैसा नहीं है। क्योंकि मरने के बाद दूसरी योनि प्राप्त हो ही जाती है और उस योनि में प्रवेश करते ही वहाँ खाना आदि सब मिलता है।

उससे सर्जन कारण-देह का

जगत् भ्रांति वाला है, वह क्रियाओं को देखता है, ध्यान को नहीं देखता। ध्यान अगले जन्म का पुरुषार्थ है और क्रिया, वह पिछले जन्म का पुरुषार्थ है। ध्यान, वह अगले जन्म में फल देने वाला है। ध्यान हुआ कि उस समय परमाणु बाहर से खिंचते हैं और वे ध्यान स्वरूप होकर भीतर सूक्ष्मता से संग्रहित हो जाते हैं और कारण-देह का सर्जन होता है। जब ऋणानुबंध से माता के गर्भ में जाता है, तब कार्य-देह की रचना हो जाती है। मनुष्य मरता है तब आत्मा, सूक्ष्म शरीर तथा कारण-शरीर साथ जाते हैं। सूक्ष्म शरीर हर एक का कॉमन होता है, परंतु कारण शरीर हर एक का उसके द्वारा सेवित कॉज़ेज़ के अनुसार अलग-अलग होता है। सूक्ष्म-शरीर, वह इलेक्ट्रिकल बॉडी (तेजस-शरीर) है।

कारण-कार्य की-शृंखला

मृत्यु के बाद जन्म और जन्म के बाद मृत्यु है, बस। यह निरंतर चलता ही रहता हैं! अब यह जन्म और मृत्यु क्यों हुए हैं? तब कहे

(पृ.३७)

कॉज़ेज़ एन्ड इफेक्ट, इफेक्ट एन्ड कॉज़ेज़, कारण और कार्य, कार्य और कारण। उसमें यदि कारणों का नाश करने में आए, तो ये सारे ‘इफेक्ट’ बंद हो जाते हैं, फिर नया जन्म नहीं लेना पड़ता!

यहाँ पर सारी ज़िंदगी ‘कॉज़ेज़’ खड़े किए हों, वे आपके ‘कॉज़ेज़’ किस के यहाँ जाएँगे? और ‘कॉज़ेज़’ किए हों, इसलिए वे आपको कार्यफल दिए बगैर रहेंगे नहीं। ‘कॉज़ेज़’ खड़े किए हुए हैं, ऐसा आपको खुद को समझ में आता है?

हर एक कार्य में ‘कॉज़ेज़’ पैदा होते हैं। आपको किसी ने नालायक कहा तो आपके भीतर ‘कॉज़ेज़’ पैदा होते है। ‘तेरा बाप नालायक है’ वह आपके ‘कॉज़ेज़’ कहलाते हैं। आपको नालायक कहता है, वह तो नियमानुसार कह गया और आपने उसे गैरकानूनी किया। वह समझ में नहीं आया आपको? क्यों बोलते नहीं?

प्रश्नकर्ता : ठीक है।

दादाश्री : अर्थात् ‘कॉज़ेज़ इस भव में होते हैं। उसका ‘इफेक्ट’ अगले जन्म में भोगना पड़ता है!

यह तो ‘इफेक्टिव’ (परिणाम) मोह को ‘कॉज़ेज़’ (कारण) मोह मानने में आता है। आप ऐसा केवल मानते हो कि ‘मैं क्रोध करता हूँ’ लेकिन यह तो आपको भ्रांति है, तब तक ही क्रोध है। बाकी, वह क्रोध है ही नहीं, वह तो इफेक्ट है। और कॉज़ेज़ बंद हो जाएँ, तब इफेक्ट अकेला ही रहता है। और वह ‘कॉज़ेज़’ बंद किए इसलिए ‘ही इज़ नोट रिस्पोन्सिबल फॉर इफेक्ट’ (परिणाम के लिए खुद ज़िम्मेदार नहीं) और ‘इफेक्ट’ अपना प्रभाव दिखाए बिना रहेगा ही नहीं।

कारण बंद होते हैं?

प्रश्नकर्ता : देह और आत्मा के बीच संबंध तो है न?

(पृ.३८)

दादाश्री : यह देह है, वह आत्मा की अज्ञान दशा का परिणाम है। जो जो ‘कॉज़ेज़’ किए, उसका यह ‘इफेक्ट’ है। कोई आपको फूल चढ़ाए तो आप खुश हो जाते हो और आपको गाली दे तो आप चिढ़ जाते हो। उस चिढऩे और खुश होने में बाह्य दर्शन की कीमत नहीं है। अंतर भाव से कर्म चार्ज होते हैं। उसका फिर अगले जन्म में ‘डिस्चार्ज’ होता है। उस समय वह ‘इफेक्टिव’ है। ये मन-वचन-काया तीनों ‘इफेक्टिव’ हैं। ‘इफेक्ट’ भोगते समय दूसरे नये ‘कॉज़ेज़’ उत्पन्न होते हैं। जो अगले जन्म में फिर से ‘इफेक्टिव’ होते हैं। इस प्रकार ‘कॉज़ेज़ एन्ड इफेक्ट’,‘ इफेक्ट एन्ड कॉज़ेज़’ यह क्रम निरंतर चलता ही रहता है।

केवल मनुष्य जन्म में ही ‘कॉज़ेज़’ बंद हो सकें ऐसा है। अन्य सभी गतियों में तो केवल ‘इफेक्ट’ ही है। यहाँ ‘कॉज़ेज़’ एन्ड ‘इफेक्ट’ दोनों हैं। हम ज्ञान देते हैं, तब ‘कॉज़ेज़’ बंद कर देते हैं। फिर नया ‘इफेक्ट’ नहीं होता है।

तब तक भटकना है...

‘इफेक्टिव बॉडी’ अर्थात् मन-वचन-काया की तीन बेटरियाँ तैयार हो जाती हैं और उनमें से फिर नये ‘कॉज़ेज़’ उत्पन्न होते रहते हैं। अर्थात् इस जन्म में मन-वचन-काया डिस्चार्ज होते रहते हैं और दूसरी तरफ भीतर नया चार्ज होता रहता है। जो मन-वचन-काया की बेटरियाँ चार्ज होती रहती हैं, वे अगले भव के लिए हैं और ये पिछले भव की हैं, वे हाल में डिस्चार्ज होती रहती हैं। ‘ज्ञानी पुरुष’ नया ‘चार्ज’ बंद कर देते हैं। इसलिए पुराना ‘डिस्चार्ज’ होता रहता है।

मृत्यु के पश्चात् आत्मा दूसरी योनि में जाता है। जब तक खुद का ‘सेल्फ का रियलाइज़’ (आत्मा की पहचान)नहीं होता, तब तक सभी योनियों में भटकता रहता है। जब तक मन में तन्मयाकार होता

(पृ.३९)

है, बुद्धि में तन्मयाकार होता है, तब तक संसार खड़ा रहता है। क्योंकि तन्मयाकार होना अर्थात् योनि में बीज पड़ना और कृष्ण भगवान ने कहा है कि योनि में बीज पड़ता है और उससे यह संसार खड़ा रहता है। योनि में बीज पड़ना बंद हो गया कि उसका संसार समाप्त हो गया।

विज्ञान वक्रगति वाला है

प्रश्नकर्ता : ‘थियरी ऑफ इवोल्युशन’ (उत्क्रंतिवाद) के अनुसार जीव एक इन्द्रिय, दो इन्द्रिय ऐसे ‘डेवलप’ होता-होता मनुष्य में आता है और मनुष्य में से फिर वापस जानवर में जाता है। तो इस ‘इवोल्युशन थियरी’ में ज़रा विरोधाभास लगता है। वह ज़रा स्पष्ट कर दीजिए।

दादाश्री : नहीं। उसमें विरोधाभास जैसा नहीं है। ‘इवोल्युशन की थियरी’ सब सही है। केवल मनुष्य तक ही ‘इवोल्युशन की थियरी’ करेक्ट (सही) है, फिर उसके आगे की बात वे लोग जानते ही नहीं है।

प्रश्नकर्ता : मनुष्य में से पशु में वापस जाता है क्या? प्रश्न यह है।

दादाश्री : ऐसा है, पहले डार्विन की थियरी ‘उत्क्रांतिवाद’ के अनुसार ‘डेवलप’ होता-होता मनुष्य तक आता है और मनुष्य में आया इसलिए ‘इगोइज़म’ (अहंकार) साथ में होने से कत्र्ता होता है। कर्म का कत्र्ता होता है, इसलिए फिर कर्म के अनुसार उसे भोगने जाना पड़ता है। ‘डेबिट’ (पाप) करे, तब जानवर में जाना पड़ता है और ‘ क्रेडिट’ (पुण्य) करे, तब देवगति में जाना पड़ता है अथवा तो मनुष्यगति में राजापद मिलता है। अत: मनुष्य में आने के बाद फिर ‘क्रेडिट’ और ‘डेबिट’ पर आधारित है।

(पृ.४०)

फिर नहीं हैं चौरासी योनियाँ

प्रश्नकर्ता : लेकिन ऐसा कहते हैं न कि मानवजन्म, जो चौरासी लाख योनि में भटककर आने के बाद मिला है, वह फिर से उतना भटकने के बाद मानवजन्म मिलता है न?

दादाश्री : नहीं, ऐसा कुछ नहीं है। एक बार मनुष्य जन्म में आया और फिर पूरी चौरासी में भटकना नहीं पड़ता है। उसे यदि पाशवता के विचार आएँ, तो अधिक से अधिक आठ भव उसे पशुयोनि में जाना पड़ता है, वह भी केवल सौ-दो सौ वर्ष के लिए। फिर वापस यहीं का यहीं मनुष्य में आता है। एक बार मनुष्य होने के पश्चात् चौरासी लाख फेरे भटकना नहीं होता है।

प्रश्नकर्ता : एक ही आत्मा चौरासी लाख फेरे फिरता है न?

दादाश्री : हाँ, एक ही आत्मा।

प्रश्नकर्ता : पर आत्मा तो पवित्र है न?

दादाश्री : आत्मा पवित्र तो इस समय भी है। चौरासी लाख योनियों में फिरते हुए भी पवित्र रहा है! पवित्र था और पवित्र रहेगा!

वासना के अनुसार गति

प्रश्नकर्ता : मरने से पहले जैसी वासना हो, उस रूप में जन्म होता है न?

दादाश्री : हाँ, वह वासना, लोग जो कहते हैं न कि मरने से पहले ऐसी वासना थी, पर वह वासना कुछ लानी नहीं पड़ती है। वह तो हिसाब है, सारी ज़िंदगी का। सारी ज़िंदगी आपने जो किया हो, उसका मृत्यु के समय आख़िरी घंटा होता है तब हिसाब आता है और उस हिसाब के अनुसार उसकी गति हो जाती हैं।

(पृ.४१)

क्या मनुष्य में से मनुष्य ही?

प्रश्नकर्ता : मनुष्य में से मनुष्य में ही जाने वाले हैं न?

दादाश्री : वह खुद की समझ में भूल है। बाकी स्त्री की कोख से मनुष्य ही जन्म लेता है। वहाँ कोई गधा नहीं जन्मता। मगर वह ऐसा समझ बैठा है कि हम मर जाएँगे फिर भी मनुष्य में ही जन्मेंगे तो वह भूल है। अरे, मुए तेरे विचार तो गधे के हैं, फिर मनुष्य किस प्रकार होने वाला है? तुझे विचार आते हैं, किस का भोग लूँ, किस का ले लूँ। बिना हक़ का भोगने के विचार आते हैं, वे विचार ही ले जाते हैं, अपनी गति में!

प्रश्नकर्ता : जीव का ऐसा कोई क्रम है कि मनुष्य में आने के बाद मनुष्य में ही आए कि दूसरे कहीं जाए?

दादाश्री : हिन्दुस्तान में मनुष्य जन्म में आने के बाद चारों गतियों में भटकना पड़ता है। फ़ॉरेन के मनुष्यों में ऐसा नहीं है। उनमें दो-पाँच प्रतिशत अपवाद होता है। दूसरे सब ऊपर चढ़ते ही रहते हैं।

प्रश्नकर्ता : लोग जिसे विधाता कहते हैं, वे किसे कहते हैं?

दादाश्री : वे कुदरत को ही विधाता कहते है। विधाता नाम की कोई देवी नहीं है। ‘साइन्टिफिक सरकमस्टेन्शियल एविडन्स’ (वैज्ञानिक सांयोगिक प्रमाण), वही विधाता है। हमारे लोगों ने तय किया कि छठी के दिन विधाता लेख लिख जाता है। विकल्पों से यह सब ठीक है और वास्तविक जानना हो तो यह सच नहीं है।

यहाँ तो नियम यह है कि जिसने बिना हक़ का लिया, उसके दो पैर के चार पैर हो जाएँगे। पर वह हमेशा के लिए नहीं है। ज़्यादा से ज़्यादा दो सौ साल और बहुत हुआ तो सात-आठ जन्म जानवर में जाते हैं और कम से कम, पाँच ही मिनटों में जानवर में

(पृ.४२)

जाकर, फिर से मनुष्य में आ जाता है। कितने ही जीव ऐसे हैं कि एक मिनिट में सत्रह अवतार बदलते हैं, अर्थात् ऐसे भी जीव हैं। इसलिए जानवर में गए, उन सभी को सौ-दौ सौ साल का आयुष्य नहीं मिलता है।

वह समझ आए लक्षणों पर से

प्रश्नकर्ता : यह जानवर योनि में जाने वाले हैं, इसका सबूत तो बतलाइए कुछ, उसे वैज्ञानिक आधार पर किस तरह मानें?

दादाश्री : यहाँ कोई जो भौंकता रहता हो ऐसा मनुष्य मिला है आपको? ‘क्या भौंकता रहता है?’ ऐसा आपने उससे कहा था? वह वहीं से, कुत्ते में से आया है। कोई बन्दर की तरह हरकतें करे, ऐसे होते हैं! वे वहाँ से आए होते हैं। कोई बिल्ली की तरह ऐसे ताकते बैठे रहते हैं, आपका कुछ ले लेने के लिए, छीन लेने के लिए। वे वहाँ से आए हुए होते हैं। अर्थात् यहाँ, कहाँ से आए हैं वे, यह भी पहचान सकते हैं और कहाँ जाने वाले हैं, वह भी पहचान सकते हैं। और वह भी फिर सदा के लिए नहीं। ये लोग तो कैसे हैं, इन्हें पाप करना भी नहीं आता है।

इस कलियुग के लोगों को पाप करना भी नहीं आता है और करते हैं पाप ही! इसलिए उनके पापों का फल कैसा होता है? बहुत हुआ तो पचास-सौ साल जानवर में जाकर वापस यहीं का यहीं आता है, हज़ारों वर्ष या लाखों वर्ष नहीं। और कितने तो पाँच ही वर्ष में जानवर में जाकर वापस आ जाते हैं। इसलिए जानवर में जाना, उसे गुनाह मत समझना। क्योंकि वे तो तुरंत ही वापस आते हैं बेचारे! क्योंकि ऐसे पाप ही नहीं करते न! इनमें शक्ति ही नहीं है ऐसे पाप करने की।

(पृ.४३)

नियम, हानि-वृद्धि का

प्रश्नकर्ता : यह मनुष्यों की जनसंख्या बढ़ती ही गई है, इसका अर्थ यह कि जानवर कम हुए हैं?

दादाश्री : हाँ, सही है। जितने आत्मा हैं, उतने ही आत्मा हैं, पर ‘कन्वर्जन’ (रूपांतर) होता रहता है। कभी मनुष्य बढ़ जाते हैं, तब जानवर कम होते है और कभी जानवर बढ़ जाते हैं, तब मनुष्य कम हो जाते हैं। ऐसे कन्वर्जन होता रहता है। अब फिर से मनुष्य कम होंगे। अब सन् 1993 से शुरूआत होगी घटने की!

तब लोग केल्क्युलेशन (गिनती) लगाते हैं कि सन् 2000 में ऐसा हो जाएगा और वैसा हो जाएगा, हिन्दुस्तान की आबादी बढ़ जाएगी, फिर हम क्या खाएँगे? ऐसा केल्क्युलेशन लगाते हैं, नहीं लगाते हैं? वह किस के जैसा है? ‘सिमिली’ (उपमा) बताऊँ?

एक चौदह साल का लड़का हो, उसका कद चार फुट और चार ईंच हो और अट्ठारहवे साल में पाँच फुट लंबा हो जाता है। तब कहते हैं, चार साल में आठ ईंच बढ़ा, तब यह सत्तरवें साल में कितना होगा? ऐसा केल्क्युलेशन लगाएँ, उसके जैसा यह आबादी का केल्क्युलेशन लगाते हैं!

बच्चों को दु:ख क्यों?

प्रश्नकर्ता : निर्दोष बच्चे को शारीरिक वेदना भुगतनी पड़ती है? उसका क्या कारण है?

दादाश्री : बच्चे के कर्म का उदय बच्चे को भुगतना है और ‘मदर’ (माता) को वह देखकर भुगतना है। मूल कर्म बच्चे का, उसमें मदर की अनुमोदना थी, इसलिए ‘मदर’ को देखकर भुगतना है। करना, करवाना और अनुमोदन करना-ये तीन कर्मबंधन के कारण हैं।

(पृ.४४)

मनुष्य भव की महत्ता

मनुष्यदेह में आने के बाद अन्य गतियों में जैसे कि देव, तिर्यंच अथवा नर्क में जाकर आने के बाद फिर से मनुष्य देह प्राप्त होती है। और भटकन का अंत भी मनुष्य देह में से ही मिलता है। यह मनुष्यदेह यदि सार्थक करना आया तो मोक्ष की प्राप्ति हो सके ऐसा है और नहीं आए तो भटकने का साधन बढ़ा दे, वैसा भी है! दूसरी गतियों में केवल छूटता है। इसमें दोनों ही हैं। छूटता है और साथ साथ बंधता भी है। इसलिए दुर्लभ मनुष्यदेह प्राप्त हुआ है, तो उससे अपना काम निकाल लो। अनंत अवतार आत्मा ने देह के लिए बिताए। एक अवतार यदि देह आत्मा के लिए निकाले तो काम ही हो जाएगा!

मनुष्यदेह में ही यदि ज्ञानी पुरुष मिलें तो मोक्ष का उपाय हो जाए। देवता भी मनुष्यदेह के लिए तरसते हैं। ज्ञानी पुरुष से भेंट होने पर, तार जुड़ने पर, अनंत जन्मों तक शत्रु समान हुआ देह परम मित्र बन जाता है! इसलिए, इस देह में आपको ज्ञानी पुरुष मिले हैं, तो पूरा-पूरा काम निकाल लो। पूरा ही तार जोड़कर तड़ीपार उतर जाओ।

अजन्म-अमर को आवागमन कहाँ से?

प्रश्नकर्ता : परंतु आवागमन का फेरा किसे है?

दादाश्री : जो अहंकार है न, उसे आवागमन है। आत्मा तो मूल दशा में ही है। अहंकार फिर बंद हो जाता है, इसलिए उसके फेरे बंद हो जाते है!

फिर मृत्यु का भी भय नहीं

प्रश्नकर्ता : मात्र यह सनातन शांति प्राप्त करे तो वह इस जन्म के लिए ही होती है या जन्मों जन्म की होती है?

(पृ.४५)

दादाश्री : नहीं। वह तो परमानेन्ट हो गई, वह तो। फिर कत्र्ता ही नहीं रहा, इसलिए कर्म बंधते नहीं। एकाध अवतार में या दो अवतारों में मोक्ष होता ही है, और कोई चारा ही नहीं है, चलता ही नहीं है। जिसे मोक्ष में नहीं जाना हो, उसे यह धंधा ही करना नहीं चाहिए। यह लाइन में पड़ना ही नहीं। जिसे मोक्ष नहीं पसंद हो, तो इस लाइन में पड़ना ही नहीं।

प्रश्नकर्ता : यह सब ‘ज्ञान’ है, वह दूसरे जन्म में जाए, तब याद रहता है क्या?

दादाश्री : सब उसी रूप में होगा। बदलेगा ही नहीं। क्योंकि कर्म बंधते नहीं, इसलिए फिर उलझनें ही खड़ी नहीं होतीं न!

प्रश्नकर्ता : तो इसका अर्थ ऐसा हुआ कि हमारे गत जन्म के ऐसे कर्म होते हैं, जिन्हें लेकर गुत्थियाँ (उलझनें) चलती ही रहती हैं?

दादाश्री : पिछले अवतार में अज्ञानता से कर्म बंधे, उन कर्मों का यह इफेक्ट है अब। इफेक्ट भोगने पड़ते हैं। इफेक्ट भोगते-भोगते, फिर यदि ज्ञानी मिले नहीं, तो फिर से नये कॉज़ेज़ और परिणाम स्वरूप नये इफेक्ट खड़े होते रहते हैं। इफेक्ट में से फिर कॉज़ेज़ उत्पन्न होते ही रहेंगे और वे कॉज़ेज़ फिर अगले जन्म में इफेक्ट होंगे। कॉज़ेज़ एन्ड इफेक्ट, इफेक्ट एन्ड कॉज़ेज़, कॉज़ेज़ एन्ड इफेक्ट, इफेक्ट एन्ड कॉज़ेज़, कॉज़ेज़ एन्ड इफेक्ट वह चलता ही रहता है। इसलिए ज्ञानी पुरुष जब कॉज़ेज़ बंद कर देते हैं, तब सिर्फ इफेक्ट ही भुगतने का रहा। इसलिए कर्म बंधने बंद हो गए।

इसलिए, सब ‘ज्ञान’ याद रहता ही है, इतना ही नहीं, लेकिन खुद वह स्वरूप ही हो जाता है। फिर तो मरने का भी भय नहीं लगता। किसी का भय नहीं लगता, निर्भयता होती है।

(पृ.४६)

अंतिम समय की जागृति

जीवित हैं, तब तक

प्रश्नकर्ता : दादाश्री, ज्ञान लेने से पहले के, इस भव के जो पर्याय बंध गए हों, उनका निराकरण किस प्रकार आएगा?

दादाश्री : अभी हम जीवित हैं, तब तक पश्चाताप करके उन्हें धो डालना है, लेकिन वे कुछ ही, पूरा निराकरण नहीं होता है। पर ढीले तो हो ही जाते हैं। ढीले हो जाते हैं, इसलिए अगले भव में हाथ लगाते ही तुरंत गाँठ छूट जाती है!

प्रश्नकर्ता : प्रायश्चित से बंध छूट जाते हैं?

दादाश्री : हाँ, छूट जाते हैं। कुछ ही प्रकार के बंध हैं, वे कर्म प्रायश्चित करने से मज़बूत गाँठ में से ढीले हो जाते हैं। अपने प्रतिक्रमण में बहुत शक्ति है। दादा को हाज़िर रखकर करो तो काम हो जाएगा।

यह ज्ञान मिलने के बाद हिसाब महाविदेह का

कर्म के धक्के से अवतार होने वाले हों वे होंगे, शायद एक-दो अवतार। पर उसके बाद सीमंधर स्वामी के पास ही जाना पड़ेगा। यह यहाँ का धक्का, हिसाब बांध दिया है पहले, कुछ चिकना हो गया है न, तो वह पूरा हो जाएगा। उससे कोई चारा ही नहीं न!

प्रश्नकर्ता : प्रतिक्रमण करने से कर्म के धक्के कम होते हैं?

दादाश्री : कम होते हैं न! और जल्दी निपटारा आ जाता है।

‘हमने’ ऐसे किया निवारण विश्व से

जितनी भूलें खत्म की प्रतिक्रमण कर-करके, उतना मोक्ष नज़दीक आया।

(पृ.४७)

प्रश्नकर्ता : वे फाइलें फिर चिपकेंगी नहीं न दूसरे जन्म में?

दादाश्री : क्या लेने? हमें दूसरे जन्म से क्या लेना है? यहीं के यहीं प्रतिक्रमण इतने कर डालें। फुरसत मिली कि उसके लिए प्रतिक्रमण करते रहना चाहिए। ‘चंदूभाई से आपको इतना कहना पड़ेगा कि प्रतिक्रमण करते रहो। आपके घर के सभी सदस्यों के साथ, आपसे कुछ न कुछ पहले दु:ख हुआ होता है, उसके आपको प्रतिक्रमण करने हैं। संख्यात या असंख्यात जन्मों में जो राग-द्वेष, विषय, कषाय के दोष किए हों, उनकी क्षमा माँगता हूँ। ऐसे रोज़ एक-एक व्यक्ति की, ऐसा घर के हर एक व्यक्ति को याद कर-कर के करना चाहिए। बाद में आस-पास के, पास-पड़ोस के सबको लेकर उपयोग रखकर यह करते रहना चाहिए। आप करोगे उसके बाद यह बोझ हलका हो जाएगा। ऐसे ही हल्का नहीं होता है।

हमने सारे विश्व के साथ इस प्रकार निवारण किया है। पहले ऐसे निवारण किया था, तभी तो यह छुटकारा हुआ। जब तक हमारा दोष आपके मन में है, तब तक मुझे चैन नहीं लेने देगा! इसलिए, हम जब ऐसा प्रतिक्रमण करते हैं, तब वहाँ पर मिट जाता है।

मृतको के प्रतिक्रमण?

प्रश्नकर्ता : जिसकी क्षमा माँगनी है, उस व्यक्ति का देह विलय हो गया हो, तो प्रतिक्रमण कैसे करें?

दादाश्री : देहविलय हो गया हो, तब भी उसकी फोटो हो, उसका चेहरा याद हो, तो कर सकते हैं। चेहरा ज़रा याद नहीं हो और नाम मालूम हो, तो नाम लेकर भी कर सकते हैं, तो उसको पहुँच जाएगा सब।

प्रश्नकर्ता : यानी मृतक व्यक्ति के लिए प्रतिक्रमण किस प्रकार करना है?

(पृ.४८)

दादाश्री : मन-वचन-काया, भावकर्म, द्रव्यकर्म, नोकर्म, मृतक का नाम तथा उसके नाम की सर्व माया से भिन्न ऐसे, उसके शुद्धात्मा को याद करना, और बाद में ‘ऐसी गलतियाँ की थीं’ उन्हें याद करना (आलोचना)। उन गलतियों के लिए मुझे पश्चाताप होता है और उनके लिए मुझे क्षमा करो (प्रतिक्रमण)। ऐसी गलतियाँ नहीं होंगी ऐसा दृढ़ निश्चय करता हूँ, ऐसा तय करना है (प्रत्याखान)। ‘हम’ खुद चंदूभाई के ज्ञाता-दृष्टा रहें और जानें कि चंदूभाई ने कितने प्रतिक्रमण किए, कितने सुंदर किए और कितनी बार किए।

- जय सच्चिदानंद

अंतिम समय की प्रार्थना

‘हे दादा भगवान, हे श्री सीमंधर स्वामी प्रभु, मैं मन-वचन-काया ...* (जिसका अंतिम समय आ गया हो वह व्यक्ति, खुद का नाम ले)... तथा ..*.. के नाम की सर्व माया, भावकर्म, द्रव्यकर्म, नोकर्म आप प्रकट परमात्म स्वरूप प्रभु के सुचरणों में समर्पित करता हूँ।

हे दादा भगवान, हे श्री सीमंधर स्वामी प्रभु, मैं आपकी अनन्य शरण लेता हूँ। मुझे आपकी अनन्य शरण मिले। अंतिम घड़ी पर हाज़िर रहना। मुझे उँगली पकड़कर मोक्ष में ले जाना। अंत तक संग में रहना।

हे प्रभु, मुझे मोक्ष के सिवाय इस जगत् की दूसरी कोई भी विनाशी चीज़ नहीं चाहिए। मेरा अगला जन्म आपके चरणों में और शरण में ही हो।’

‘दादा भगवान ना असीम जय जयकार हो’ बोलते रहना।

* (जिसका अंतिम समय आ गया हो, उसे इस प्रकार प्रार्थना करनी चाहिए।)

(इस प्रकार वह व्यक्ति बार-बार बोले अथवा कोई उसके पास बार-बार बुलवाए।)

मृत व्यक्ति के प्रति प्रार्थना

आपके किसी मृत स्वजन या मित्र के लिए इस प्रकार प्रार्थना करनी चाहिए।

‘प्रत्यक्ष दादा भगवान की साक्षी में, प्रत्यक्ष सीमंधर स्वामी की साक्षी में, देहधारी ...*... के मन-वचन-काया के योग, भावकर्म, द्रव्यकर्म, नोकर्म से भिन्न ऐसे हे शुद्धात्मा भगवान, आप ऐसी कृपा करो कि ..*.. जहाँ हो वहाँ सुख-शांति पाए, मोक्ष पाए।

आज दिन के अद्यक्षण पर्यंत मुझ से ..*.. के प्रति जो भी राग-द्वेष, कषाय हुए हों, उनकी माफ़ी चाहता हूँ। हृदयपूर्वक पछतावा करता हूँ। मुझे माफ करो और फिर से ऐसे दोष कभी भी नहीं हों, ऐसी शक्ति दो।’

* (मृत व्यक्ति का नाम लें)

(इस प्रकार बार-बार प्रार्थना करनी चाहिए। बाद में जितनी बार मृत व्यक्ति याद आए, तब-तब यह प्रार्थना करनी चाहिए।)

शुद्धात्मा के प्रति प्रार्थना

(प्रतिदिन एक बार करें)

हे अंतर्यामी परमात्मा! आप प्रत्येक जीवमात्र में विराजमान हैं, वैसे ही मुझ में भी विराजमान हैं। आपका स्वरूप ही मेरा स्वरूप है। मेरा स्वरूप शुद्धात्मा है।

हे शुद्धात्मा भगवान! मैं आपको अभेद भाव से अत्यंत भक्तिपूर्वक नमस्कार करता हूँ।

अज्ञानतावश मैंने जो जो ** दोष किए हैं, उन सभी दोषों को आपके समक्ष ज़ाहिर करता हूँ। उनका हृदयपूर्वक बहुत पश्चाताप करता हूँ और आपसे क्षमा-याचना करता हूँ। हे प्रभु! मुझे क्षमा कीजिए, क्षमा कीजिए, क्षमा कीजिए और फिर से ऐसे दोष नहीं करुँ, ऐसी आप मुझे शक्ति दीजिए, शक्ति दीजिए, शक्ति दीजिए।

हे शुद्धात्मा भगवान! आप ऐसी कृपा करें कि हमारे भेदभाव छूट जाएँ और अभेद स्वरूप प्राप्त हो। मैं आप में अभेद स्वरूप से तन्मयाकार रहूँ।

** (जो जो दोष हुए हों, वे मन में ज़ाहिर करें।)

प्रतिक्रमण विधि

प्रत्यक्ष ‘दादा भगवान’ की साक्षी में, देहधारी क् के मन-वचन-काया के योग, भावकर्म-द्रव्यकर्म-नोकर्म से भिन्न, ऐसे हे शुद्धात्मा भगवान ! आपकी साक्षी में, आज तक मुझसे जो जो क्क् दोष हुए हैं, उनके लिए मैं क्षमा माँगता हूँ, हृदयपूर्वक बहुत पश्चाताप करता हूँ। मुझे क्षमा कीजिए और फिर से ऐसे दोष कभी भी नहीं करुँ, ऐसा द्रढ़ निश्चय करता हूँ। उसके लिए मुझे परम शक्ति दीजिए।

** क्रोध-मान-माया-लोभ, विषय-विकार, कषाय आदि से उस व्यक्ति को जो भी दु:ख पहुँचाया हो, उन दोषों को मन में याद करें।

*(जिसके प्रति दोष हुआ हो, उस व्यक्ति का नाम)

www.dadabhagwan.org