दादा भगवान कथित

प्रतिक्रमण (संक्षिप्त)

मूल गुजराती संकलन : डॉ. नीरू बहन अमीन

अनुवाद : महात्मागण

www.dadabhagwan.org
Table of Contents
समर्पण
संपादकीय
प्रतिक्रमण

समर्पण

अतिक्रमणों की अनंत फुहार;

कर्मों के बनते पल-पल हार!

मोक्ष तो क्या, पर धर्म भी निराधार;

कौन राहबर ले जाए उस राह?

अक्रम विज्ञानी दादा तारणहार;

प्रतिक्रमण का दिया हथियार!

मोक्ष मार्ग का सच्चा साथीदार;

ताज बनकर शोभित दादा दरबार!

‘प्रतिक्रमण’ संक्षिप्त है क्रियाकारी;

तुड़ाए बंधन मूल अहंकारी!

प्रतिक्रमण विज्ञान हुआ यहाँ साकार;

‘समर्पण’ जग को, मचाओ जय जयकार!

संपादकीय

हृदयपूर्वक मोक्षमार्ग पर जानेवालों को, पल पल सताते कषायों को खत्म करने के लिए, मार्ग पर आगे बढऩे के लिए, कोई अचूक साधन तो चाहिए या नहीं चाहिए? स्थूलतम से सूक्ष्मतम टकराव कैसे टालें? हमें या हम से अन्यों को दु:ख हो तो उसका निवारण क्या है? कषायों की बमबारी को रोकने के लिए या वे फिर से नहीं हों, उसके उपाय क्या हैं? इतना धर्म किया, जप, तप, व्रत, ध्यान, योगादि किए, फिर भी मन-वचन-काया से होनेवाले दोष क्यों नहीं रुकते? अंतरशांति क्यों नहीं होती? कभी निज दोष दिखाई दें, उसके बाद उसके लिए क्या करें? उन्हें किस प्रकार हटाएँ? मोक्षमार्ग पर आगे बढऩे, और संसार मार्ग में भी सुख-शांति, मंद कषाय और प्रेमभाव से जीने के लिए कोई ठोस साधन तो होना चाहिए न? वीतरागों ने धर्मसार में जगत् को क्या सिखाया है? वास्तव में धर्मध्यान कौन सा है? पाप से वापस लौटना हो तो उसका कोई अचूक मार्ग है क्या? अगर है तो नज़र क्यों नहीं आता?

धर्मशास्त्रों में से बहुत कुछ पढ़ा जाता है, फिर भी वह जीवन में आचरण में क्यों नहीं आता? साधु, संत, आचार्य, कथाकार इतने उपदेश देते हैं फिर भी क्या कमी रह जाती है, उसे चरितार्थ करने में? प्रत्येक धर्म में, प्रत्येक साधु-संतों की जमातों में कितनी ही क्रियाएँ होती हैं? कितने व्रत, जप, तप, नियम हो रहे हैं, फिर भी क्यों फलदायी नहीं होते? कषाय क्यों कम नहीं होते? दोषों का निवारण क्यों नहीं होता? क्या इसकी ज़िम्मेदारी गद्दी पर बैठे उपदेशकों की नहीं है? ऐसा जो लिखा गया, वह द्वेष या बैरभाव से नहीं लेकिन करूणाभाव से है, फिर भी उसे धोने के लिए कोई उपाय है या नहीं? अज्ञान दशा में से ज्ञान दशा और अंतत: केवलज्ञान स्वरूप दशा तक पहुँचने के लिए ज्ञानियों ने, तीर्थंकरों ने क्या निर्देश दिया होगा? ऋणानुबंधवाले व्यक्तियों के साथ राग या द्वेष के बंधनों से मुक्त होकर वीतरागता कैसे प्राप्त हो?

‘मोक्ष का मार्ग है वीर का, नहीं है कायर का काम’ लेकिन वीरता कहाँ इस्तेमाल करें ताकि जल्दी मोक्ष तक पहुँचें? कायरता किसे कहेंगे? पापी पुण्यशाली हो सकते हैं? वह कैसे?

पूरी ज़िंदगी जल गई इस आर.डी.एक्स की अगन में, उसे कैसै बुझाएँ? रात-दिन पत्नी का प्रभाव, पुत्र-पुत्रियों का ताप और पैसे कमाने का उत्पात-इन सभी तापों से कैसे शाता प्राप्त करके नैया पार उतारें?

गुरु-शिष्यों के बीच, गुरुमाताओं और शिष्यायों के बीच, निरंतर कषायों के फेरे में पड़े हुए उपदेशक कैसे लौट सकते हैं? अणहक्क की लक्ष्मी और अणहक्क की स्त्रियों के पीछे मन-वचन-वर्तन या दृष्टि से दोष हो जाएँ तो उसका तिर्यंच अथवा नर्कगति के सिवा कहाँ स्थान हो सकता है? उनसे कैसे मुक्त हों? उसमें सचेत रहना हो तो कैसे रह सकते हैं और कैसे मुक्त हो सकते हैं? ऐसे अनेक उलझन भरे सनातन प्रश्नों का हल क्या हो सकता है?

प्रत्येक मनुष्य अपने जीवनकाल के दौरान कभी-कभी संयोगों के दबाव में ऐसी परिस्थिति में फँस जाता है कि भूलें नहीं करनी हों, फिर भी संसार व्यवहार में भूलों से मुक्त नहीं हो पाता, ऐसी परिस्थिति में दिल के सच्चे पुरुष लगातार उलझन में रहते हैं कि भूलों से छुटकारा पाने का और जीवन जीने का सच्चा मार्ग मिल जाए, ताकि वे अपने आंतरिक सुख-चैन में रहकर प्रगति कर सकें। उसके लिए कभी भी प्राप्त नहीं हुआ हो ऐसा अध्यात्म विज्ञान का एकमात्र अचूक आलोचना-प्रतिक्रमण-प्रत्याख्यान रूपी हथियार तीर्थंकरों ने, ज्ञानियों ने जगत् को अर्पण किया है। इस हथियार द्वारा विकसित दोषरूपी विशाल वृक्ष को मुख्य जड़ समेत निर्मूल करके अनंत जीव मोक्षलक्ष्मी को प्राप्त कर सके हैं। ऐसे मुक्ति देनेवाले इस प्रतिक्रमण रूपी विज्ञान का यथार्थरूप से ज्यों का त्यों प्रकट ज्ञानीपुरुष श्री दादा भगवान ने केवलज्ञान स्वरूप में देखकर कही गई वाणी द्वारा किया है, जो प्रस्तुत ग्रंथ में संकलित हुई है, ये सारी बातें सुज्ञ पाठक के आत्यंतिक कल्याण के लिए उपयोगी सिद्ध होंगी।

ज्ञानीपुरुष की वाणी द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव तथा भिन्न-भिन्न निमित्तों के अधीन निकली हुई है, उस वाणी के संकलन में भासित क्षतियों को क्षम्य मानकर ज्ञानीपुरुष की वाणी का अंतर आशय प्राप्त करें यही अभ्यर्थना!

ज्ञानीपुरुष की जो वाणी निकली है, वह नैमित्तिक रूप से जो मुमुक्षु-महात्मा सामने आए, उनके समाधान के लिए निकली होती है और वह वाणी जब ग्रंथरूप में संकलित हो, तब कभी कुछ विरोधाभास लग सकता है। जैसे कि एक प्रश्नकर्ता की आंतरिक दशा के समाधान के लिए ज्ञानीपुरुष द्वारा ‘प्रतिक्रमण जागृति है और अतिक्रमण डिस्चार्ज है’ ऐसा प्रत्युतर प्राप्त हो और दूसरे सूक्ष्म जागृति की दशा तक पहुँचे महात्मा को सूक्ष्मता से समझाने के लिए ज्ञानीपुरुष ऐसा खुलासा करते हैं कि ‘अतिक्रमण डिस्चार्ज है और प्रतिक्रमण भी डिस्चार्ज है, डिस्चार्ज को डिस्चार्ज से डिवाइड करना (भाग लगाना) है।’ तो दोनों खुलासे नैमित्तिक तौर पर यथार्थ ही हैं। लेकिन सापेक्ष तौर पर विरोधाभासी लगते हैं। इस प्रकार प्रश्नकर्ता की दशा में फर्कहोने की वजह से प्रत्युत्तर में विरोधाभास नज़र आता है, फिर भी सैद्धांतिक तौर पर उसमें विरोधाभास है ही नहीं। सुज्ञ पाठकों को ज्ञान वाणी की सूक्ष्मता आत्मसात करके बात समझ में आए इसलिए साहजिक रूप से यह सूचित किया गया है।

डॉ. नीरू बहन अमीन के जय सच्चिदानंद

(पृ.१)

प्रतिक्रमण

1. प्रतिक्रमण का यथार्थ स्वरूप

प्रश्नकर्ता : मनुष्य को इस जीवन में मुख्यरूप से क्या करना चाहिए?

दादाश्री : मन में जैसा हो, वैसा ही वाणी में बोलना चाहिए और वैसा ही वर्तन में करना चाहिए। अगर हमें वाणी में कुछ बोलना है लेकिन मन बिगड़ जाए तो उसके लिए प्रतिक्रमण करना है और प्रतिक्रमण किसका करना है? किसकी साक्षी में करोगे? तब कहें, ‘दादा भगवान’ की साक्षी में प्रतिक्रमण करो। यह जो दिखाई देते हैं, वे ‘दादा भगवान’ नहीं हैं। ये तो भादरण के पटेल हैं, ए.एम.पटेल हैं। ‘दादा भगवान’ भीतर चौदह लोक के नाथ प्रकट हुए हैं, इसलिए उनके नाम से प्रतिक्रमण करो कि, ‘हे दादा भगवान! मेरा मन बिगड़ गया, उसके लिए माफी माँगता हूँ। मुझे माफ कीजिए।’ मैं भी उनका नाम लेकर प्रतिक्रमण करता हूँ।

अच्छे कर्म करो तो धर्म कहलाता है और खराब कर्म करो तो अधर्म कहलाता है और धर्म-अधर्म से पार निकल जाना, वह आत्मधर्म कहलाता है। अच्छे कर्म करो तो क्रेडिट उत्पन्न होता है और उस क्रेडिट को भोगने के लिए जाना पड़ता है। खराब कर्म करो तो डेबिट उत्पन्न होता है और उस डेबिट को भुगतने के लिए जाना पड़ता है। और जहाँ खाते में क्रेडिट-डेबिट नहीं हैं, वहाँ आत्मा प्राप्त होता है।

प्रश्नकर्ता : इस संसार में आए हैं, इसलिए कर्म तो करने ही पड़ेंगे न? जाने-अनजाने में गलत कर्म हो जाएँ तो क्या करना चाहिए?

(पृ.२)

दादाश्री : हो जाएँ तो उसका उपाय होता है न! जब कभी भी गलत कर्म हो जाए तो तुरंत उसके बाद पछतावा होता है, और सच्चे दिल से, सिन्सियारिटी से पछतावा करना चाहिए। पछतावा करने के बावजूद फिर से वैसा हो जाए तो उसकी चिंता नहीं करनी चाहिए। फिर से पछतावा करना चाहिए। उसके पीछे क्या विज्ञान है, वह आपको समझ में नहीं आया इसलिए आपको ऐसा लगेगा कि यह पछतावा करने से बंद नहीं हो रहा है। क्यों बंद नहीं हो रहा है, वह विज्ञान है। इसलिए आपको पछतावा ही करते रहना है। जो सच्चे दिल से पछतावा करता है, उसके सभी कर्म धुल जाते हैं। किसी को बुरा लगा तो आपको पछतावा करना ही चाहिए।

प्रश्नकर्ता : शरीर के धर्म निभाते हैं तो क्या उसके प्रायश्चित करने पड़ेंगे?

दादाश्री : अवश्य! जब तक ‘मैं आत्मा हूँ’ ऐसा भान नहीं हो जाता, तब तक यदि प्रायश्चित नहीं होगा तो कर्म ज़्यादा चिपकेंगे। प्रायश्चित करने से कर्म की गाँठें हल्की हो जाती हैं। वर्ना उस पाप का फल बहुत खराब आता है। मनुष्यपना भी चला जाता है, और यदि मनुष्य जन्म मिले तो उसे सभी तरह की अड़चनें आती हैं। खाने की, पीने की, मान-तान तो कभी दिखाई ही नहीं देता, हमेशा ही अपमान। इसलिए यह प्रायश्चित या दूसरी सभी क्रियाएँ करनी पड़ती हैं। इसे परोक्ष भक्ति कहते हैं। जब तक आत्मज्ञान नहीं हो, तब तक परोक्ष भक्ति करने की ज़रूरत है।

अब पश्चाताप किसके समक्ष करना चाहिए? किसकी साक्षी में करना चाहिए कि जिसे आप मानते हों। कृष्ण भगवान को मानते हों या दादा भगवान को मानते हों, जिसे भी मानो, उनकी साक्षी में करना चाहिए। वर्ना उपाय नहीं हो, ऐसा तो इस दुनिया में है ही नहीं। पहले उपाय जन्म लेता है, उसके बाद रोग उत्पन्न होता है।

यह जगत् खड़ा कैसे हुआ? अतिक्रमण से। क्रमण से कोई परेशानी नहीं है। आपने होटल में कोई चीज़ मँगवाकर खाई और दो प्लेटें आपके

(पृ.३)

हाथ से टूट गईं, फिर उसके पैसे देकर बाहर निकले, तो आपने अतिक्रमण नहीं किया। तो फिर उसका प्रतिक्रमण नहीं करना पड़ेगा। लेकिन प्लेट फूटें और आप कहो कि, तेरे आदमी ने फोड़ी हैं, तो फिर बात आगे बढ़ेगी। अतिक्रमण किया उसका प्रतिक्रमण करना पड़ेगा। और अतिक्रमण हुए बगैर रहता नहीं, इसलिए प्रतिक्रमण करो। दूसरा सब क्रमण तो है ही। सहज रूप से बात हुई, वह क्रमण है। उसमें हर्ज नहीं है, लेकिन अतिक्रमण हुए बगैर नहीं रह पाता। इसलिए उसका प्रतिक्रमण करो।

प्रश्नकर्ता : यह अतिक्रमण हुआ, वह खुद को कैसे पता चलेगा?

दादाश्री : वह खुद को भी पता चलता है और सामनेवाले को भी पता चलता है। आपको भी पता चलेगा कि उसके चेहरे पर असर हो गया है और आप पर भी असर हो जाता है। दोनों पर असर होता है। इसलिए उसका प्रतिक्रमण करना ही है।

अतिक्रमण तो, क्रोध-मान-माया-लोभ, ये सभी अतिक्रमण कहलाते हैं। इनके प्रतिक्रमण किए कि क्रोध-मान-माया-लोभ गए। अतिक्रमण हुआ और प्रतिक्रमण किया, तो क्रोध-मान-माया-लोभ गए। यह संसार अतिक्रमण से खड़ा हुआ है और प्रतिक्रमण से नाश होगा।

प्रश्नकर्ता : तो प्रतिक्रमण यानी क्या?

दादाश्री : प्रतिक्रमण यानी सामनेवाला जो आपका अपमान करता है, तब आपको समझ जाना चाहिए कि इस अपमान का गुनहगार कौन है? वह करनेवाला गुनहगार है या भुगतनेवाला गुनहगार है, पहले आपको यह डिसीज़न लेना चाहिए। तो वह, यह है अपमान करनेवाला बिल्कुल भी गुनहगार नहीं होता। एक सेन्ट (प्रतिशत) भी गुनहगार नहीं होता। वह निमित्त है और अपने ही कर्म के उदय के कारण वह निमित्त मिलता है। मतलब यह अपना ही गुनाह है। अब प्रतिक्रमण इसलिए करना है कि सामनेवाले पर खराब भाव हुआ हो तो प्रतिक्रमण करने चाहिए। उसके लिए अगर मन में ऐसे विचार आ गए हों कि नालायक है, लुच्चा है, तो प्रतिक्रमण करना चाहिए। और ऐसा विचार नहीं आया हो और हमने उसका उपकार माना हो तो प्रतिक्रमण करने की ज़रूरत नहीं है।

(पृ.४)

बाकी कोई भी गाली दे तो वह अपना ही हिसाब है, वह आदमी तो निमित्त है। जेब काटे तो काटनेवाला निमित्त है और हिसाब अपना ही है। ये तो निमित्त को ही काटते हैं और उसी के झगड़े हैं ये सारे।

उल्टा चलना, वह अतिक्रमण कहलाता है और वापस लौटे, वह प्रतिक्रमण कहलाता है।

जहाँ झगड़ा है, वहाँ प्रतिक्रमण नहीं है और जहाँ प्रतिक्रमण है, वहाँ झगड़ा नहीं है।

बेटे को पीटने का कोई अधिकार नहीं है, समझाने का अधिकार है। फिर भी अगर बेटे को पीट दिया और फिर प्रतिक्रमण नहीं किया तो सभी कर्म चिपकते ही रहेंगे न? प्रतिक्रमण तो होना ही चाहिए न?

‘मैं चंदूभाई हूँ’, यही अतिक्रमण है। फिर भी व्यवहार में इसे लेट गो करना। लेकिन क्या किसी को दु:ख होता है आपसे? नहीं होता, तो अतिक्रमण नहीं हुआ है। पूरे दिन में अपने से किसी को दु:ख हो जाए तो वह अतिक्रमण है। उसका प्रतिक्रमण करो। यह वीतरागों का साइन्स है। अतिक्रमण अधोगति में ले जाएगा और प्रतिक्रमण उर्ध्वगति में ले जाएगा और ठेठ मोक्ष जाने तक प्रतिक्रमण ही हेल्प करेगा।

प्रतिक्रमण किसे नहीं करना होता? जिसने अतिक्रमण नहीं किया है, उसे।

प्रश्नकर्ता : व्यवहार, व्यापार व अन्य प्रवृत्ति में अन्याय हो रहा है ऐसा लगने की वजह से मन में ग्लानि हो, उससे यदि व्यवहार बिगड़ने लगे तो उसके लिए क्या करना चाहिए? हमसे यदि ऐसा कोई अन्याय हो रहा हो तो उसका क्या प्रायश्चित है?

दादाश्री : प्रायश्चित में आलोचना-प्रतिक्रमण-प्रत्याख्यान होना चाहिए। जहाँ-जहाँ किसी के भी साथ अन्याय किया हो, वहाँ आलोचना-प्रतिक्रमण होना चाहिए और फिर से अन्याय नहीं करूँगा ऐसा नक्की करना चाहिए। जिन भगवान को मानते हों, कौन से भगवान को मानते हो?

(पृ.५)

प्रश्नकर्ता : शिव जी को।

दादाश्री : हाँ, तो उन शिव जी के पास, वहाँ पर पश्चाताप करना चाहिए। आलोचना करनी चाहिए कि मुझसे इन लोगों के साथ ऐसा गलत दोष हुआ है, ऐसा अब फिर से नहीं करूँगा। आपको बार-बार पश्चाताप करना चाहिए। और फिर से ऐसा दोष हो जाए तो फिर से पश्चाताप करना चाहिए। ऐसा करते-करते दोष कम हो जाएँगे। आपको नहीं करना हो फिर भी अन्याय हो जाएगा। जो हो जाता है, वह अभी भी प्रकृतिदोष है। यह प्रकृति दोष वह आपका पूर्वजन्म का दोष है, यह आज का दोष नहीं है। आज आपको सुधरना है, लेकिन यह जो हो जाता है वह आपका पहले का दोष है। वह आपको परेशान किए बगैर नहीं रहेगा। इसलिए बार-बार आलोचना-प्रतिक्रमण-प्रत्याख्यान करने पड़ेंगे।

प्रश्नकर्ता : हमें सहन करना पड़ता है, तो उसका रास्ता क्या है?

दादाश्री : आपको तो सहन कर ही लेना चाहिए, व्यर्थ हो-हल्ला नहीं करना चाहिए। और फिर सहन भी समतापूर्वक करना चाहिए। सामनेवाले को मन में गाली देकर नहीं, लेकिन समतापूर्वक कि भई, तूने मुझे कर्म में से मुक्त किया। मेरा जो कर्म था, वह शद्ममुझसे भुगतवाया और मुझे मुक्त किया। इसलिए उसका उपकार मानना चाहिए। मुफ्त में कुछ सहन नहीं करना पड़ता, वह अपने ही दोष का परिणाम है।

प्रश्नकर्ता : और प्रतिक्रमण तो, दूसरों के दोष दिखाई दिए, उसी के प्रतिक्रमण करने हैं?

दादाश्री : सिर्फ दूसरों के दोष ही नहीं, हर एक बात में, झूठ बोल लिया हो, उल्टा हुआ हो, जो भी कोई हिंसा हुई हो, पाँच महाव्रतों में से कोई भी महाव्रत टूटे तो उन सभी के प्रतिक्रमण करना है।

2. प्रत्येक धर्म ने प्ररूपित किया प्रतिक्रमण

भगवान ने कहा है कि, आलोचना, प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान के अलावा अन्य कोई व्यवहार धर्म है ही नहीं। लेकिन यदि वह कैश

(पृ.६)

होगा तो, उधार नहीं चलेगा। किसी को गाली दी, जो अभी हुआ उसे लक्ष्य में रख, किसके साथ क्या हुआ वह, और फिर आलोचना करके, कैश प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान कर। उसे भगवान ने व्यवहार-निश्चय दोनों कहा है। लेकिन वह किससे हो पाएगा? समकित होने के बाद ही हो सकता है। तब तक यदि करना हो फिर भी नहीं होगा। समकित नहीं हुआ और फिर भी कोई अपने यहाँ से आलोचना-प्रतिक्रमण-प्रत्याख्यान सीखकर जाए तो भी काम निकाल लेगा। भले ही संक्षेप में सीख जाए तो भी हर्ज नहीं है। समकित उसके सामने आकर खड़ा रहेगा!!!

जिसके आलोचना-प्रतिक्रमण सच्चे होंगे, उसे आत्मा प्राप्त हुए बगैर रहेगा ही नहीं।

प्रश्नकर्ता : पश्चाताप करता हूँ, वह प्रतिक्रमण है और ऐसा कहना कि ऐसा नहीं करूँगा, वह प्रत्याख्यान?

दादाश्री : हाँ। पश्चाताप, वह प्रतिक्रमण कहलाता है। अब प्रतिक्रमण किया लेकिन अब फिर से ऐसा अतिक्रमण नहीं हो, उसके लिए ऐसा कहना कि ‘फिर से ऐसा नहीं करूँगा’ वह प्रत्याख्यान कहलाता है। फिर से ऐसा नहीं करूँगा, ऐसा प्रोमिस करता हूँ, मन में ऐसा तय करना है और उसके बाद यदि फिर से ऐसा हो जाए तो एक परत तो चली गई थी। लेकिन फिर दूसरी परत आती है, तो उससे घबराना नहीं, बार-बार ऐसा करते ही रहना है।

प्रश्नकर्ता : आलोचना यानी क्या?

दादाश्री : हाँ, आलोचना यानी आपने कोई खराब काम किया हो, तो आपके जो भी गुरु हों, या फिर ज्ञानी हों, उनके सामने इक़रार करना। जैसा हुआ हो वैसे ही स्वरूप में इक़रार करना।

अर्थात् आपको प्रतिक्रमण किसका करना है? तब कहें, ‘जितना अतिक्रमण किया हो, जो लोगों को स्वीकार्य नहीं है, जो लोकनिंद्य है ऐसे कर्म, और सामनेवाले को दु:ख हो जाए ऐसा हुआ हो तो वे अतिक्रमण कहलाते हैं। वैसा हुआ हो तो प्रतिक्रमण करने की ज़रूरत है।’

(पृ.७)

कर्म बाँधता कौन है? उसे आपको जानना पड़ेगा, आपका नाम क्या है?

प्रश्नकर्ता : चंदूभाई।

दादाश्री : तो ‘मैं चंदूभाई हूँ’ वही कर्म बँधन करवाता है। फिर यदि रात को सो जाए, फिर भी पूरी रात कर्म बंधते हैं। ‘मैं चंदूभाई हूँ’, ऐसा रहे तो सोते हुए भी कर्म बंधते हैं। उसका क्या कारण है? क्योंकि वह आरोपित भाव है। इसलिए गुनाह लागू हुआ। सचमुच में ‘खुद’ चंदूभाई नहीं है और जहाँ आप नहीं हो, वहाँ ‘मैं हूँ’ ऐसा आरोपण करते हो। कल्पित भाव है वह, और निरंतर उसका गुनाह लागू होता है न!! आपकी समझ में आता है?! फिर मैं चंदूभाई, इनका ससुर लगता हूँ, इनका मामा लगता हूँ, इनका चाचा लगता हूँ, ये सभी आरोपित भाव हैं, इससे निरंतर कर्म बँधते रहते हैं। रात को नींद में भी कर्म बँधते रहते हैं। रात को कर्म बँधते हैं, उसमें तो कोई चारा ही नहीं है लेकिन ‘मैं चंदूभाई हूँ’ उस अहंकार को यदि आप निर्मल कर डालो, तो आपको कम कर्म बँधेंगे।

अहंकार निर्मल करने के बाद फिर से क्रियाएँ करनी पड़ती हैं। कैसी क्रियाएँ करनी पड़ती हैं? कि सुबह आपके बेटे की पत्नी से कप-प्लेट फूट गए, तब आपने कह दिया कि, तेरे में अक़्ल नहीं है। इससे उसे जो दु:ख हुआ, उस समय आपको मन में ऐसा होना चाहिए कि ‘यह मैंने उसे दु:ख दिया है।’ वहाँ प्रतिक्रमण होना चाहिए। दु:ख दिया यानी अतिक्रमण कहलाएगा। और अतिक्रमण होने पर प्रतिक्रमण करने से वह मिट जाता है। वह कर्म हलका हो जाता है।

किसी को कुछ दु:ख हो, यदि ऐसा आचरण करे तो वह अतिक्रमण कहलाता है और अतिक्रमण होने पर प्रतिक्रमण होना ही चाहिए। और वह बारह महीनों में एक बार करते हैं, वैसा नहीं। शूट ऑन साइट (दोष देखते ही खत्म करो) होना चाहिए, तो ये दु:ख कुछ कम होंगे। वीतराग के कहे गए मत के अनुसार चलेंगे तो दु:ख जाएगा वर्ना दु:ख नहीं जाएगा।

(पृ.८)

प्रश्नकर्ता : ऐसा प्रतिक्रमण कैसे करना चाहिए?

दादाश्री : आपने यदि ज्ञान प्राप्त किया हो तो आपको उसके आत्मा का पता चलेगा। अत: आत्मा को संबोधित करके करना है, नहीं तो भगवान को संबोधित करके करना, ‘हे भगवान! पश्चाताप करता हूँ, माफ़ी माँगता हूँ और अब फिर से नहीं करूँगा।’ बस यही है प्रतिक्रमण!

प्रश्नकर्ता : इससे धुल जाएगा क्या?

दादाश्री : हाँ, हाँ, बिल्कुल!! प्रतिक्रमण किया इसलिए फिर रहेगा नहीं न?! बहुत भारी कर्म हो तो जली हुई रस्सी जैसा दिखेगा लेकिन हाथ लगाते ही झड़ जाएगा।

प्रश्नकर्ता : वह पछतावा कैसे करूँ? सब को दिखे उस तरह से करूँ या मन में करूँ?

दादाश्री : मन में। मन में दादाजी को याद करके कि ‘यह मेरी भूल हूई है, अब फिर से नहीं करूँगा’ मन में ऐसा याद करके करना, तो फिर ऐसा करते-करते वह सारा दु:ख विस्मृत हो जाएगा। वह भूल खत्म हो जाएगी। लेकिन ऐसा नहीं करेंगे तो फिर भूलें बढ़ती जाएँगी।

सिर्फ यही मार्ग ऐसा है कि खुद के दोष दिखते जाते हैं और शूट होते जाते हैं, ऐसा करते-करते दोष खत्म होते जाएँगे।

प्रश्नकर्ता : एक ओर पाप करता रहे और दूसरी ओर पछतावा करता रहे, इस तरह तो चलता ही रहेगा।

दादाश्री : इस तरह नहीं करना है। जो मनुष्य पाप करता है, वह यदि पछतावा करे तो वह नकली पछतावा कर ही नहीं सकता। उसका पछतावा सच्चा ही होता है और पछतावा सच्चा होता है, इसीलिए प्याज़ की परत की तरह एक परत हटती है। उसके बाद भी प्याज़ तो फिर भी पूरा ही दिखेगा। फिर बाद में दूसरी परत हटेगी। पछतावा कभी भी व्यर्थ नहीं जाता।

(पृ.९)

प्रश्नकर्ता : लेकिन सच्चे मन से माफ़ी माँगनी है न?

दादाश्री : माफ़ी माँगनेवाला सच्चे मन से ही माफ़ी माँगता है और झूठे मन से माँगेगा तो भी चला लिया जाएगा। तो भी माफ़ी माँगना।

प्रश्नकर्ता : तब तो फिर उसे आदत पड़ जाएगी?

दादाश्री : आदत पड़ जाए तो भले ही पड़ जाए। लेकिन माफ़ी माँगना। माफ़ी माँगे बगैर तो आ बनेगी, समझो!!! माफ़ी का क्या अर्थ है? वह प्रतिक्रमण कहलाता है और दोष को क्या कहते हैं? अतिक्रमण।

कोई ब्रान्डी पीए और कहे कि मैं माफ़ी माँगता हूँ, तो मैं कहता हूँ कि माफ़ी माँगना। माफ़ी माँगते रहना और पीते रहना। लेकिन मन में तय करना कि ‘अब मुझे छोड़ देनी है।’ सच्चे दिल से मन में तय करना कि मुझे छोड़ देनी है तो एक दिन उसका अंत आएगा। मेरा यह विज्ञान शत-प्रतिशत है।

यह तो विज्ञान है!! उगे बगैर रहेगा नहीं। तुरंत ही फल देनेवाला है। ‘दिस इज़ द कैश बैंक ऑफ डिवाइन सोल्युशन’। यही ‘कैश बैंक’ है! दस लाख वर्षों में था ही नहीं! दो घंटों में मोक्ष ले जाओ!! यहाँ पर तू जो माँगेगा, वह देने को तैयार हूँ । तू माँगते हुए थक जाएगा।

किसी आदमी को चोरी करने के बाद पछतावा हो, तो कुदरत उसे छोड़ देती है। पश्चाताप किया, इसलिए भगवान के वहाँ यह गुनाह नहीं माना जाता। लेकिन जगत् के लोग जो भी दंड दें, उसे इस जन्म में भुगत लेना पड़ेगा।

‘यह सब गलत है, ऐसा नहीं करना चाहिए’, ऐसा सभी बोलते हैं। वे ऊपर-ऊपर से बोलते हैं। ‘सुपरफ्लुअस’ बोलते हैं, ‘हार्टिली’ नहीं बोलते। बाकी यदि ‘हार्टिली’ बोलें तो उस दोष को कुछ समय बाद जाए बगैर चारा ही नहीं! आपका कितना भी बुरा दोष हो लेकिन यदि उसके लिए आपको ‘हार्टिली’ बहुत पछतावा होगा तो फिर से वह दोष नहीं होगा। और फिर से हो जाए तो भी उसमें हर्ज नहीं, लेकिन बहुत पछतावा करते रहना।

(पृ.१०)

प्रश्नकर्ता : प्रतिक्रमण और पश्चाताप में क्या फर्क है?

दादाश्री : पश्चाताप अस्पष्ट रूप से है, क्रिश्चियन लोग इतवार को चर्च में पश्चाताप करते हैं। जो पाप किए उसका अस्पष्ट रूप से पश्चाताप करते हैं। और प्रतिक्रमण तो कैसा है कि जिसने गोली दाग़ी, जिसने अतिक्रमण किया, वह प्रतिक्रमण करता है, तत्क्षण! शूट ऑन साइट उसे धो डालता है!!

आलोचना-प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान महावीर भगवान के सिद्धांत का सार है और अक्रम मार्ग में ‘ज्ञानीपुरुष’ ही सार है, इतना ही समझना चाहिए। आज्ञा ही धर्म और आज्ञा ही तप है। लेकिन वह दखल किए बिना रहता नहीं न! अनादि से बुरी आदत जो पड़ी है।

3. नहीं हैं, वे प्रतिक्रमण महावीर के

प्रश्नकर्ता : अनादिकाल से प्रतिक्रमण तो करता आया है, फिर भी छुटकारा तो हुआ नहीं।

दादाश्री : सच्चे प्रतिक्रमण नहीं किए हैं। सच्चे प्रत्याख्यान और सच्चे प्रतिक्रमण करे तो उसका हल आए। प्रतिक्रमण शूट ऑन साइट होना चाहिए। अब यदि मेरा एक शब्द ज़रा टेढ़ा निकल जाए, तो मुझसे भीतर प्रतिक्रमण हो ही जाना चाहिए। तुरंत ही, ऑन द मोमेन्ट। इसमें उधार नहीं चलेगा। इसे तो बासी रखा ही नहीं जा सकता।

प्रतिक्रमण यानी पछतावा करना, तो पछतावा किसका करते हो?

प्रश्नकर्ता : पछतावा नहीं कर पाते। क्रियाएँ करते रहते हैं।

दादाश्री : प्रतिक्रमण यानी वापस लौटना। जो पाप किए हों, क्रोध किया हो, उस पर पछतावा करना, उसे प्रतिक्रमण कहते हैं।

प्रतिक्रमण किसे कहेंगे कि जिसे करने से दोष कम हों। जिसे करने से दोष बढ़ते रहें, उसे प्रतिक्रमण कैसे कहेंगे? भगवान ने ऐसा नहीं कहा था। भगवान कहते हैं, जो भाषा समझ में आए, उस भाषा में प्रतिक्रमण करो। अपनी-अपनी भाषा में प्रतिक्रमण कर लेना। वर्ना

(पृ.११)

लोग प्रतिक्रमण को समझ नहीं पाएँगे। यह मागधी भाषा में रखा हुआ है। अब ये लोग गुजराती तक नहीं समझते, उन्हें मागधी में प्रतिक्रमण करने से क्या फ़ायदा होगा? और साधु-आचार्य भी नहीं समझते, उनमें भी दोष कुछ कम नहीं हो पाए हैं। यानी इसमें ऐसी परिस्थिति हो गई है।

भगवान ने मागधी भाषा में सिर्फ नवकार मंत्र ही बोलने को कहा था और वह भी समझकर बोलना। अर्थात् मागधी में रखने जैसा सिर्फ यह नवकार मंत्र ही है, क्योंकि भगवान के शब्द हैं। बाकी प्रतिक्रमण में पहले तो उसका अर्थ समझना ही पड़ेगा कि यह मैं प्रतिक्रमण कर रहा हूँ! किसका? किसी ने मेरा अपमान किया अथवा मैंने किसी का अपमान किया, उसका मैं प्रतिक्रमण कर रहा हूँ।

प्रतिक्रमण यानी कषायों को खत्म कर देना।

ये लोग साल में एक बार प्रतिक्रमण करते हैं, तब नए कपड़े पहनकर जाते हैं। प्रतिक्रमण वह क्या शादी-ब्याह है या क्या है? प्रतिक्रमण करना यानी बहुत गहरा पछतावा करना! वहाँ नए कपड़ों का क्या काम है?! वहाँ शादी थोड़े ही है? ऊपर से रायशी और देवशी (रात भर में हुए दोषों के प्रतिक्रमण सुबह और दिन भर में हुए दोषों के प्रतिक्रमण रात को करना)। सुबह का खाया शाम को याद नहीं रहता, वहाँ प्रतिक्रमण किस प्रकार करेंगे?!

वीतराग धर्म किसे कहते हैं कि प्रतिदिन पाँच सौ-पाँच सौ प्रतिक्रमण करें। जैन धर्म तो हर जगह है लेकिन वीतराग धर्म नहीं है। बारह महीनों में एक बार प्रतिक्रमण करे, उसे जैन कैसे कहेंगे? फिर भी संवत्सरी प्रतिक्रमण करते हैं, उसमें हर्ज नहीं है।

हम ऐसा बोलते हैं, लेकिन हमने तो बोलने से पहले ही प्रतिक्रमण कर लिया होता है। आप ऐसा नहीं बोलना। हम इतना कठोर बोलते हैं, भूल निकालते हैं, फिर भी हम निर्दोष देखते हैं। लेकिन जगत् को समझाना तो पड़ेगा न? यथार्थ, सही बात तो समझानी पड़ेगी न?!

 (पृ.१२)

आत्मज्ञान, वह मोक्षमार्ग है। आत्मज्ञान प्राप्ति के बाद के प्रतिक्रमण मोक्षमार्ग देगा, बाद में सभी साधनाएँ मोक्षमार्ग देगी।

प्रश्नकर्ता : तो वे प्रतिक्रमण उसके आत्मज्ञान होने का कारण बन सकेंगे?

दादाश्री : नहीं। इन पुरानों का प्रतिक्रमण करता है और फिर से मोह के नए अतिक्रमण खड़े होते हैं। मोह बंद नहीं हुआ है न? मोह है न? दर्शन मोह, अर्थात् पुराने सभी प्रतिक्रमण करने से वे विलय हो जाएँगे लेकिन नए खड़े होंगे। जब प्रतिक्रमण करते हैं, उस घड़ी पुण्य बंधता है।

संसार के लोग प्रतिक्रमण करते हैं। जो जागृत हैं वे रायशी-देवशी दोनों करते हैं, तो उतने दोष कम हो गए। लेकिन जब तक दर्शन मोहनीय है, तब तक मोक्ष नहीं होगा, दोष उत्पन्न होते ही रहेंगे। जितने प्रतिक्रमण करेगा उतने सभी दोष जाएँगे।

अर्थात् इस काल में अभी शूट ऑन साइट की बात तो कहाँ रही लेकिन कहते हैं कि, शाम को पूरे दिन का प्रतिक्रमण करना। वह बात भी कहाँ गई। सप्ताह में एकाध बार करना वह बात भी कहाँ गई और पाक्षिक भी कहाँ गया, और बारह महीने में एक बार करते हैं। उसे भी नहीं समझते और अच्छे कपड़े पहनकर घूमते रहते हैं। अर्थात् रियल प्रतिक्रमण कोई नहीं करता है। इसलिए दोष बढ़ते ही गए। प्रतिक्रमण तो उसे कहते हैं कि दोष घटते ही जाएँ।

इन नीरू बहन को अगर आपके लिए ज़रा भी उल्टा विचार आ जाए कि ‘यह आ गए और भीड़ हो गई।’ उतना विचार भीतर आए लेकिन आपको पता नहीं चलने देंगी। चेहरा हँसता रखेंगी। उस समय प्रतिक्रमण करेंगी। उल्टा विचार आया, वह अतिक्रमण किया कहलाता है। वे प्रतिदिन पाँच सौ-पाँच सौ प्रतिक्रमण करती हैं।

निरे दोष ही होते रहते हैं। भान ही नहीं रहता।

प्रश्नकर्ता : वह तो भाव प्रतिक्रमण है। क्रिया प्रतिक्रमण तो हो ही नहीं सकते न?

(पृ.१३)

दादाश्री : नहीं, क्रिया में प्रतिक्रमण होता ही नहीं, प्रतिक्रमण तो, भाव प्रतिक्रमण की ही ज़रूरत है, जो क्रियाकारी है। क्रिया प्रतिक्रमण नहीं होते हैं।

प्रश्नकर्ता : द्रव्य प्रतिक्रमण और भाव प्रतिक्रमण यानी क्या? यह ज़रा समझाइए।

दादाश्री : भाव ऐसा रखना कि ‘ऐसा नहीं होना चाहिए’, यह भाव प्रतिक्रमण कहलाता है। और द्रव्य प्रतिक्रमण में तो पूरा सब, एक-एक शब्द बोलना पड़ता है। जितने शब्द लिखे हुए होते हैं न, वे सभी आपको बोलने पड़ते हैं। वह द्रव्य प्रतिक्रमण कहलाता है।

तो ये प्रतिक्रमण तो, आज यदि भगवान यहाँ होते न, तो इन सभी को जेल में डाल देते। अरे भाई ऐसा किया? प्रतिक्रमण यानी एक गुनाह की माफ़ी माँग लेना, साफ कर देना। एक दाग़ लगा हो, उस दाग़ को धोकर साफ कर डालना। जैसी जगह थी, वैसी कर देना, उसे प्रतिक्रमण कहते हैं। आजकल तो निरे दाग़वाले कपड़े दिखाई देते हैं।

यह तो, एक भी दोष का प्रतिक्रमण किया नहीं और निरे दोषों के भंडार हो गए हैं।

ये नीरू बहन हैं, उनके सभी आचार-विचार क्यों उच्च हो गए हैं? प्रतिदिन पाँच सौ-पाँच सौ प्रतिक्रमण करती हैं और अब कहती हैं कि भीतर तो बारह सौ-बारह सौ प्रतिक्रमण होते हैं। और इन लोगों ने एक भी नहीं किया!

हमेशा ही, करने से आवरण आता है। आवरण आने से भूल ढक जाती है, इसलिए भूल दिखाई ही नहीं देती। भूलें तो जब आवरण टूटेगा तब दिखाई देंगी और वह आवरण ज्ञानीपुरुष से टूट पाएगा, वर्ना खुद से आवरण नहीं टूट सकता। ज्ञानीपुरुष तो सभी आवरण फ्रेक्चर करके तोड़ देते हैं!!

प्रश्नकर्ता : किस प्रकार से किया हुआ प्रतिक्रमण शुद्ध माना जाता है? सही प्रतिक्रमण कैसे किया जाता है?

(पृ.१४)

दादाश्री : समकित होने के बाद सही प्रतिक्रमण हो सकता है। सम्यकत्व होने के बाद, दृष्टि सुलटी होने के बाद, आत्मदृष्टि होने के बाद सही प्रतिक्रमण हो सकता है। लेकिन तब तक यदि प्रतिक्रमण करे और पछतावा करे तो उससे कम हो जाएगा सारा। आत्मदृष्टि नहीं हुई हो और संसार के लोग गलत होने के बाद पछतावा करें और प्रतिक्रमण करें तो उससे पाप कम बँधेंगे। समझ में आया न? प्रतिक्रमण-पछतावा करने से कर्म खत्म हो जाएँगे!

कपड़े पर चाय का दाग़ लगते ही तुरंत उसे धो डालते हो। ऐसा क्यों?

प्रश्नकर्ता : दाग़ निकल जाए, इसलिए।

दादाश्री : उसी प्रकार भीतर दाग़ लगने पर तुरंत धो डालना चाहिए। ये लोग तुरंत धो देते हैं। कोई कषाय उत्पन्न हुआ, कुछ हुआ कि तुरंत धो डालते हैं तो साफ ही साफ, सुंदर ही सुंदर! आप तो बारह महीने में एक दिन करते हो, उस दिन सभी कपड़े डूबो देते हो?!

हमारा प्रतिक्रमण शूट ऑन साइट कहलाता है। अर्थात् आप जो करते हो वह प्रतिक्रमण नहीं कहलाता। क्योंकि आपका एक भी कपड़ा नहीं धुलता और हमारे तो सभी धुलकर स्वच्छ हो गए। प्रतिक्रमण तो वही कहलाता है कि जिससे कपड़े धुलकर स्वच्छ हो जाए।

रोज़ाना एक-एक करके कपड़े धोने पड़ेंगे। जबकि जैन क्या करते हैं? जब बारह महीने हो जाए, तब बारह महीनों के सभी कपड़े एक साथ धोते हैं! भगवान के वहाँ तो ऐसा नहीं चलता। ये लोग बारह महीने में एक बार कपड़े उबालते हैं या नहीं? इन्हें तो एक-एक करके धोना पड़ेगा। हर रोज़ पाँच सौ-पाँच सौ कपड़े (दोष) पूरे दिन धुलेंगे तब काम होगा।

जितने दोष दिखेंगे, उतने कम होते जाएँगे। इन्हें रोज़ के पाँच सौ दोष दिखाई देते हैं। अब दूसरों को दिखाई नहीं देते, उसकी क्या वज़ह है? अभी कच्चा है उतना, क्या दोषरहित हो गया है, कि दिखाई नहीं देते?

(पृ.१५)

भगवान ने रोज़ (अपने दोषों का) बहीखाता लिखने को कहा था, अभी बारह महीने में एक बार बहीखाता लिखते हैं। जब पर्यूषण आता हैं तब। भगवान ने कहा था कि सच्चा व्यापारी हो तो रोज़ाना लिखना और शाम को हिसाब निकालना। बारह महीने में एक बार बहीखाता लिखता है, उस समय फिर क्या याद रहेगा? उस समय कौन सी रकम याद रहेगी? भगवान ने कहा था कि सच्चा व्यापारी बनना और रोज़ का बहीखाता रोज़ लिखना और बहीखाते में कुछ गलती हो गई हो, अविनय हुआ हो तो तुरंत ही प्रतिक्रमण करना, उसे मिटा देना।

4. अहो! अहो! ये जागृत दादा

इस दुनिया में सभी निर्दोष हैं। लेकिन देखो ऐसी कठोर वाणी निकल रही है न?! हमने तो इन सभी को निर्दोष देखा है, एक भी दोषित नहीं है। हमें दोषित दिखाई ही नहीं देता, सिर्फ दोषित कह देते हैं। ऐसा कहीं कहना चाहिए? बोलना अनिवार्य है क्या? किसी के भी बारे में नहीं बोलना चाहिए। उसके पीछे तुरंत ही उसके प्रतिक्रमण चलते रहते हैं। यह हमारी चार डिग्री की कमी है, उसका यह परिणाम है। लेकिन प्रतिक्रमण किए बगैर नहीं चलेगा।

हम कुछ कह देते हैं, कठोर शब्द बोलते हैं, वह जान-बूझकर बोलते हैं लेकिन कुदरत के प्रति हमारी भूल तो हुई ही न! इसलिए हम उसका प्रतिक्रमण (ए.एम.पटेल से) करवाते हैं। प्रत्येक भूल का प्रतिक्रमण होता है। सामनेवाले का मन टूट नहीं जाए, हमारा ऐसा रहता है।

मुझसे ‘है’ उसे ‘नहीं है’ ऐसा नहीं कहा जा सकता और ‘नहीं है’ उसे ‘है’ ऐसा नहीं कहा जा सकता। इसलिए मुझसे कुछ लोगों को दु:ख हो जाता है। यदि ‘नहीं है’ उसे मैं ‘है’ कहूँ तो आपके मन में भ्रम पैदा हो जाएगा। और ऐसा बोलने पर उन लोगों (प्रतिपक्षियों) के मन पर उल्टा असर होगा कि ‘ऐसा क्यों बोल रहे हैं?’ इसलिए ऐसा जब बोलना हुआ हो तो मुझे उनके प्रतिक्रमण करने पड़ते हैं! क्योंकि उन्हें दु:ख तो होना ही नहीं चाहिए। कोई मानता हो कि इस पीपल के पेड़ में भूत है और मैं कहूँ कि भूत जैसी कोई चीज़ नहीं

(पृ.१६)

है इस पेड़ में तो इससे उसे दु:ख तो होगा। इसलिए फिर मुझे प्रतिक्रमण करना पड़ता है। वह तो हमेशा करना ही पड़ेगा न!

प्रश्नकर्ता : दूसरों की समझ से गलत लगता हो तो उसके लिए क्या करे?

दादाश्री : ये जितने भी सत्य हैं, वे सभी व्यावहारिक सत्य हैं। वे सभी झूठ हैं। व्यावहारिक रूप से सत्य हैं। मोक्ष में जाना हो तो सभी झूठ हैं। सबका प्रतिक्रमण करना पड़ेगा। ‘मैं आचार्य हूँ’ उसका भी प्रतिक्रमण करना पड़ेगा। ‘मैंने अपने आपको आचार्य माना’ उसका भी प्रतिक्रमण करना पड़ेगा। क्योंकि ‘मैं शुद्धात्मा  हूँ’, तो यह सब झूठ है। तुझे यह समझ में आ रहा है या नहीं?

प्रश्नकर्ता : आ ही रहा है।

दादाश्री : सब झूठ। लोग तो नहीं समझने की वज़ह से कहते हैं कि ‘मैं सत्य कह रहा हूँ’। अरे, सत्य कहें तो कोई प्रत्याघात ही न हो!

ऐसा है न, हम जिस घड़ी बोलते हैं, उसी घड़ी हमारे ज़ोरदार प्रतिक्रमण भी चलते रहते हैं। बोलते समय साथ में ही।

प्रश्नकर्ता : लेकिन जो बात सही है, वह कह रहे थे, उसके लिए क्या प्रतिक्रमण करना?

दादाश्री : नहीं, लेकिन फिर भी प्रतिक्रमण तो करने ही पड़ेंगे न। तूने किसी का गुनाह देखा ही क्यों? निर्दोष है फिर भी दोष क्यों देखा? निर्दोष है फिर भी उसकी निंदा तो हुई न? जिस बात से किसी की निंदा हो, ऐसी सही बात भी नहीं कहनी चाहिए। ऐसी सही बात भी गुनाह है। संसार में सही बात बोलना भी गुनाह है। सही बात हिंसक नहीं होनी चाहिए। इसे हिंसक बात कहा जाएगा।

आलोचना, प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान, वह मोक्षमार्ग है। अपने महात्मा क्या करते हैं? पूरे दिन आलोचना, प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान ही करते रहते हैं। अब उन्हें कहेंगे कि ‘आप इस ओर चलो। व्रत,

(पृ.१७)

नियम करो।’ तो कहेंगे, ‘हमें व्रत, नियम का क्या करना है? हमारे भीतर ठंडक है, हमें चिंता नहीं है। उपाधि नहीं है। निरंतर समाधि में रह पाते हैं। फिर किसलिए?’ वह तो क्लेश कहलाए। उपधान तप और फलाँ तप। वह सब तो उलझन में पड़े हुए लोग करते हैं। जिन्हें ज़रूरत है, शौक़ है। इसलिए हम कहते हैं कि यह तप तो शौक़ीन लोगों का काम है। जो संसार के शौक़ीन हों, उन्हें तप करने चाहिए।

प्रश्नकर्ता : लेकिन ऐसी मान्यता है कि तप करने से कर्मों की निर्जरा होती है।

दादाश्री : ऐसा कभी भी नहीं होता। कौन से तप से निर्जरा होती है? आंतरिक तप चाहिए। अदीठ तप। जो हम कहते हैं न कि ये हमारे सभी महात्मा अदीठ तप करते हैं। जो तप आँखों से दिखाई नहीं देता। और आँखों से दिखाई देनेवाले तप और जो जाने जा सकें ऐेसे तप, उन सभी का फल पुण्य है। और अदीठ तप अर्थात् भीतर का तप, आंतरिक तप, जो बाहर नहीं दिखता, उन सभी का फल मोक्ष है।

साध्वीजियों को क्या करना चाहिए? साध्वीजियाँ जानती हैं कि हमें कषाय होते हैं, पूरे दिन कषाय होते रहते हैं, तो उन्हें क्या करना चाहिए? शाम को बैठकर पूरा एक गुणस्थानक, यह कषाय भाव हुआ, इनके प्रति यह कषाय भाव हुआ, इनके प्रति यह कषाय भाव हुआ, बैठकर उन्हीं के लिए इस प्रकार से प्रतिक्रमण करने चाहिए और प्रत्याख्यान करने चाहिए कि ‘ऐसा नहीं करूँगी, ऐसा नहीं करूँगी’, तो वे मोक्षमार्ग पर चल रही हैं।

ऐसा तो कुछ नहीं करती हैं वे बेचारे, फिर क्या होगा? इस तरह मोक्षमार्ग को समझें तो उस पर चल पाएँगे न, समझने की ज़रूरत है।

प्रश्नकर्ता : जब तक उनसे प्रत्यक्ष क्षमा नहीं माँगते, तब तक उन्हें खटका तो रहेगा ही न! अत: प्रत्यक्ष क्षमा तो माँगनी ही पड़ेगी न?

दादाश्री : प्रत्यक्ष क्षमा माँगने की ज़रूरत ही नहीं है। भगवान ने मना किया है। यदि भला आदमी हो तो, उससे क्षमा माँगना, प्रत्यक्ष

(पृ.१८)

क्षमा माँगना और यदि वह कमज़ोर आदमी हो तो क्षमा माँगने पर ताना मारेगा। और कमज़ोर आदमी और ज़्यादा कमज़ोर होता जाएगा। इसलिए प्रत्यक्ष मत करना और प्रत्यक्ष करना हो तो यदि बहुत भला आदमी हो, तभी करना। कमज़ोर तो ऊपर से मारेगा। और पूरा जगत् कमज़ोर ही है। बदले में ताना मारेगा, ‘हाँ, मैं कह रही थी न, तू समझ नहीं रही थी, मान ही नहीं रही थी, अब आई ठिकाने पर।’ अरे भाई, वह ठिकाने पर ही है, वह बिगड़ी हुई नहीं है। तू बिगड़ी हुई है, वह तो सुधरी हुई है, सुधर रही है।

मोक्षमार्ग में क्रियाकांड या ऐसा कुछ नहीं होता। सिर्फ संसारमार्ग में क्रियाकांड होते हैं। संसारमार्ग यानी जिसे भौतिक सुख चाहिए, अन्य कुछ चाहिए, उसके लिए क्रियाकांड हैं। मोक्षमार्ग में ऐसा कुछ नहीं होता। मोक्षमार्ग यानी क्या? आलोचना, प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान। चलाते ही जाओ अपनी गाड़ी। अपना यह मोक्षमार्ग है। उसमें क्रियाकांड और ऐसा कुछ नहीं होता न!

आलोचना, प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान, यही है मोक्षमार्ग। कितने ही जन्मों से हमारी यह लाइन (मार्ग) है, कितने ही जन्मों से आलोचना- प्रतिक्रमण-प्रत्याख्यान करते-करते यहाँ तक पहुँचे हैं।

कषाय नहीं करना और प्रतिक्रमण करना, यही दो धर्म हैं। कषाय नहीं करना, वह धर्म है। और पूर्वकर्म के अनुसार हो जाएँ तो उनके प्रतिक्रमण करना, यही धर्म है। बाकी और कोई धर्म जैसी चीज़ नहीं है। और यही दो आइटम सभी लोगों ने निकाल दिए हैं!

यदि आपने किसी से उल्टा कहा तो आपको प्रतिक्रमण करना पड़ेगा, लेकिन उन्हें भी आपके प्रतिक्रमण करने पड़ेंगे। उन्हें क्या प्रतिक्रमण करना चाहिए कि ‘मैंने कब भूल की होगी कि इन्हें मुझे गाली देने का समय आया?’ अर्थात् उन्हें अपनी भूल का प्रतिक्रमण करना पड़ेगा। उन्हें अपने पूर्व जन्म का प्रतिक्रमण करना पड़ेगा और आपको आपके इस जन्म का प्रतिक्रमण करना पड़ेगा! ऐसे रोज़ाना पाँच सौ-पाँच सौ प्रतिक्रमण करेंगे तो मोक्ष में जा पाएँगे!

(पृ.१९)

यदि सिर्फ इतना ही करो न, तो अन्य कोई धर्म नहीं ढूँढोंगे तो भी हर्ज नहीं है। इतना पालन करोगे तो बस है, और मैं तुझे गारन्टी देता हूँ, तेरे सिर पर हाथ रख देता हूँ। मोक्ष के लिए, ठेक तक मैं तुझे सहयोग दूँगा! तेरी तैयारी चाहिए। एक ही शब्द का पालन करेगा तो बहुत हो गया!

5. अक्रम विज्ञान का तरीका

अक्रम हमें क्या कहता है? यदि किसी से पूछें कि, ‘तू कई दिनों से चोरी कर रहा है?’ तब वह कहेगा, ‘हाँ’। प्रेम से पूछेंगे तो सब कहेगा। ‘कितने सालों से कर रहा है?’ तब वह कहेगा, ‘एक-दो सालों से कर रहा हूँ।’ फिर हम कहें, ‘चोरी करता है, उसमें हर्ज़ नहीं है, लेकिन प्रतिक्रमण करना इतना।’ उसके सिर पर हाथ फेर देते हैं।

जो प्रतिक्रमण किया, उससे सारी चोरी खत्म हो गई। अभिप्राय बदल गया। वह यह जो कर रहा है, उसमें खुद का अभिप्राय एक्सेप्ट नहीं करता। नॉट हिज़ ओपीनियन!

दादा का नाम लेकर फिर पछतावा करना, ‘अब फिर से नहीं करूँगा, चोरी की, वह गलत किया है और अब फिर से ऐसा नहीं करूँगा’, ऐसा उसे सिखलाते हैं!

ऐसा उसे सिखलाने के बाद, फिर उसके माँ-बाप क्या कहते हैं, ‘फिर से चोरी की वापस?’ फिर से चोरी करे तब भी ऐसा बोलना। ऐसे बोलने से क्या होता है, यह मैं जानता हूँ। और कोई चारा नहीं है।

अर्थात् यह अक्रम विज्ञान ऐसा सिखलाता है कि यह जो बिगड़ गया है, वह सुधरनेवाला नहीं है, लेकिन इस तरीके से उसे सुधार।

सभी धर्म कहते हैं कि, ‘आप तप के कर्ता हो, त्याग के कर्ता हो। आप ही त्याग करते हो। आप त्याग नहीं करते।’ ‘नहीं करते’ कहना वह भी ‘करते हैं’, कहने के समान है। इस तरह कर्तापन को स्वीकार करते हैं। और कहेंगे, ‘मुझसे त्याग नहीं होता’ यह भी कर्तापन है। हाँ! और कर्तापन को स्वीकार करते हैं, वह सब देहाध्यासी मार्ग

(पृ.२०)

है। हम कर्तापन को स्वीकार ही नहीं करते। हमारी पुस्तक में कहीं भी ‘ऐसा करो’ ऐसा नहीं लिखा होता।

अर्थात् करने का रह गया और ‘नहीं करने का’ करवाते हैं। और फिर ‘नहीं करने का’ हो नहीं पाता। होगा भी नहीं और बिना वजह उसमें वेस्ट ऑफ टाइम एन्ड एनर्जी (समय और शक्ति का दुव्र्यय)। क्या करना है? अलग चीज़ करनी है। जो करना है, वह तो आपको शक्ति माँगनी है। और पहले जो शक्ति माँगी है, वह अभी हो रहा है।

प्रश्नकर्ता : पहले का ही तो इफेक्ट में आया है।

दादाश्री : हाँ। इफेक्ट में आया है। अर्थात् कॉज़ेज़ रूप में आपको शक्ति माँगनी है। हमने नौ कलमों में शक्ति माँगने को कहा है, ऐसी सौ-दो सौ कलमें लिखें तो सभी शास्त्र आ जाएँ उनमें। इतना ही करना है। दुनिया में कितना करना है? इतना ही। कर्ताभाव से अगर कुछ करना हो तो सिर्फ शक्ति माँगनी है।

प्रश्नकर्ता : वह शक्ति माँगने की बात न?

दादाश्री : हाँ। क्योंकि सभी थोड़े ही मोक्ष में जा रहे हैं?! लेकिन कर्ताभाव से करना हो तो, इतना करना, शक्ति माँगना। कर्ताभाव से शक्ति माँगना, ऐसा कहते हैं।

प्रश्नकर्ता : यानी जिसने ज्ञान नहीं लिया है, उसके लिए यह बात है?

दादाश्री : हाँ। जिसने ज्ञान नहीं लिया है। जगत् के लोगों के लिए है। वर्ना अभी जिस रास्ते पर लोग चल रहे हैं न, वह बिल्कुल उल्टा रास्ता है। उससे कोई भी व्यक्ति खुद का हित बिल्कुल भी प्राप्त नहीं कर पाएगा।

‘करना है लेकिन नहीं कर पाते’, टेढ़े उदयकर्म आ जाएँ तो क्या हो सकता है? भगवान ने तो ऐसा कहा था कि, ‘स्वरूप में रहकर उदय को जानो। करने को नहीं कहा था। ‘इसे जानो’ इतना

(पृ.२१)

ही कहा था। उसके बजाय ‘यह किया लेकिन नहीं हो पा रहा। करते हैं लेकिन हो नहीं पाता। बहुत ही इच्छा है लेकिन हो नहीं पाता’ कहते हैं। अरे, लेकिन बेवजह उसे गाता क्यों रहता है। ‘मुझसे नहीं हो पा रहा, नहीं हो पा रहा।’ ऐसा चिंतन करने से आत्मा कैसा हो जाएगा? पत्थर हो जाएगा। और यह तो क्रिया ही करने जाता है और साथ में ‘नहीं हो पा रहा, नहीं हो पा रहा, नहीं हो पा रहा’ बोलता है।

मैं मना करता हूँ कि ऐसा नहीं कहना चाहिए। ‘नहीं होता है’ ऐसा तो कहना ही नहीं चाहिए। तू तो अनंत शक्तिवाला है, हमारे समझाने के बाद ही तो ‘मैं अनंत शक्तिवाला हूँ’, कहता है। वर्ना अब तक ‘नहीं हो पा रहा है’ ऐसा ही कहता था! क्या अनंत शक्ति चली गई है!

क्योंकि मनुष्य कुछ कर सके ऐसा है नहीं। मनुष्य का स्वभाव कुछ नहीं कर सकता। करनेवाली परसत्ता है। ये जीव सिर्फ जाननेवाले ही हैं। इसलिए आपको जानते रहना है और आप यह जानते रहोगे तो गलत पर जो श्रद्धा बैठी थी, वह नहीं रहेगी। और आपके अभिप्राय में परिवर्तन होगा। क्या परिवर्तन होगा? झूठ बोलना अच्छा है, यह अभिप्राय नहीं रहेगा। यह अभिप्राय नहीं रहा, उसके जैसा कोई पुरुषार्थ नहीं है, इस दुनिया में। यह बात सूक्ष्म है, लेकिन गहराई से सोचना पड़ेगा।

प्रश्नकर्ता : नहीं, लेकिन बात लॉजिकल है पूरी।

दादाश्री : यदि संडास जाना भी परसत्ता के हाथ में है तो करना आपके हाथ में कैसे हो सकता है? ऐसा कोई मनुष्य नहीं है कि जिसके हाथ में कुछ भी करने की सत्ता हो। आपको जानना है और निश्चय करना है, इतना ही आपको करना है। अगर यह बात समझ में आ गई तो काम निकल जाएगा। समझ में आ जाए, इतनी आसान नहीं है। आपकी समझ में आया? कुछ भी करने के बजाय जानना अच्छा है। करना तुरंत हो सकता है क्या?

प्रश्नकर्ता : आप जो कह रहे हो, वह समझ में आ गया। बात सही है लेकिन यह समझने के बाद भी करने का तो रहता ही है न? जैसे करने की सत्ता नहीं है, वैसे ही जानने की भी सत्ता तो है ही नहीं न?

(पृ.२२)

दादाश्री : नहीं। जानने की सत्ता है। करने की सत्ता नहीं है। यह बहुत सूक्ष्म बात है। अगर इतनी बात समझ में आ गई तो बहुत हो गया।

कोई लड़का चोर बन गया है। वह चोरी करता है। मौका मिलने पर लोगों के पैसे चुरा लेता है। घर पर गेस्ट आए हों तो उन्हें भी नहीं छोड़ता।

अब उस लड़के को क्या सिखलाते हैं हम? कि तू दादा भगवान से चोरी नहीं करने की शक्ति माँग, इस जन्म में।

अब, इसमें क्या लाभ हुआ उसे? कोई कहेगा, इसमें क्या सिखाया? वह तो शक्तियाँ माँगता रहता है लेकिन फिर से चोरी तो करता है। ‘अरे, भले ही चोरी करे। लेकिन वह शक्तियाँ माँगता रहता है या नहीं?’ हाँ, शक्तियाँ तो माँगता रहता है। तो हम जानते हैं कि यह दवाई क्या काम कर रही है। आपको क्या पता कि दवाई क्या काम कर रही है!

प्रश्नकर्ता : सही बात है। यह नहीं जानते कि दवाई क्या काम रही है। और माँगने से लाभ होता है यानहीं, यह भी नहीं समझते।

दादाश्री : तो इसका भावार्थ क्या है कि एक तो वह लड़का माँगता है कि ‘मुझे चोरी न करने की शक्ति दीजिए।’ यानी एक तो उसने अपना अभिप्राय बदल डाला। ‘चोरी करना गलत है और चोरी नहीं करना अच्छा है।’ ऐसी शक्तियाँ माँगता है। अत: चोरी नहीं करनी चाहिए ऐसे अभिप्राय पर आ गया। सब से बड़ा यह है कि अभिप्राय बदल गया!

और जब से अभिप्राय बदल गया, तभी से वह गुनहगार होने से बच गया।

और दूसरा क्या होता है? भगवान से शक्ति माँगता है, अत: उसका परम विनय प्रकट हुआ। ‘हे भगवान! शक्ति दीजिए।’ कहा तो वे तुरंत शक्ति देंगे। कोई चारा ही नहीं है न! सबको देते हैं। माँगनेवाले चाहिए। इसलिए कहता हूँ न कि माँगते रहो। आप तो कुछ माँगते ही नहीं। कभी कुछ नहीं माँगते।

(पृ.२३)

शक्ति माँगो, यह बात आपकी समझ में आई?

दादा से माफ़ी माँगना, साथ ही साथ जिस चीज़ के लिए माफी माँगते हो, उसके लिए मुझे शक्ति दीजिए, दादा शक्ति दीजिए। माँगकर शक्ति लेना, आप अपनी खुद की शक्ति खर्च मत करना। वर्ना आपके पास खत्म हो जाएगी। और माँगकर खर्च करोगे तो खत्म नहीं होगी और बढ़ेगी। आपकी दुकान में कितना माल होगा?

हर एक बात में, ‘दादा, मुझे शक्ति दीजिए’। हर एक बात में शक्ति माँगकर ले ही लेना। प्रतिक्रमण करना चूक जाओ तो, ‘मुझे ठीक तरह से प्रतिक्रमण करने की शक्ति दीजिए।’ सारी शक्तियाँ माँगकर लेना। हमारे पास तो आप माँग नहीं पाओगे इतनी शक्ति है।

6. रहें फूल, जाएँ काँटे...

प्रकृति क्रमण से खड़ी हो गई है, लेकिन अतिक्रमण से फैलती है, शाखा-प्रशाखाएँ सबकुछ! और प्रतिक्रमण से सारा फैला हुआ कम हो जाता है, फिर उसे भान आता है।

अर्थात् मैं क्या कहना चाहता हूँ कि अगर आप किसी जगह दर्शन करने गए हों, और वहाँ लगे कि मैंने सोचा था होंगे ज्ञानी और यह तो निकले ढोंगी! अब आप वहाँ गए वह तो प्रारब्ध का खेल है, और वहाँ उसके लिए मन में जो बुरे भाव हुए कि ‘अरेरे, ऐसे नालायक के यहाँ क्यों आया?’ वह नेगेटिव पुरुषार्थ आपके भीतर हुआ है, उसका फल आपको भुगतना पड़ेगा। उसे नालायक कहने का फल आपको भुगतना पड़ेगा, पाप भुगतना पड़ेगा। और विचार आना स्वभाविक है, लेकिन तुरंत ही भीतर क्या करना चाहिए फिर? कि ‘अरेरे, मुझे किसलिए ऐसा गुनाह करना चाहिए?’ ऐसा तुरंत ही, सुल्टा विचार करके, आपको साफ कर देना चाहिए।

हाँ, महावीर भगवान को याद करके या किसी को भी याद करके, दादा भगवान को याद करके, प्रतिक्रमण कर लेना चाहिए कि, ‘अरेरे! वह कैसा भी हो, मेरे हाथों क्यों उल्टा हुआ?’ अच्छे को अच्छा

(पृ.२४)

कहने में दोष नहीं है, लेकिन अच्छे को बुरा कहने में दोष है, और बुरे को बुरा कहने में भी भारी दोष है। ज़बरदस्त दोष! क्योंकि वह खुद बुरा नहीं है, उसके प्रारब्ध ने उसे बुरा बनाया है। प्रारब्ध यानी क्या? उसके संयोगों ने उसे बुरा बनाया, उसमें उसका क्या गुनाह?

यहाँ से सभी स्त्रियाँ जा रही हों, कोई आपसे कहे कि, ‘देखो वह वेश्या, यहाँ आई है, कहाँ से घुस गई?’ वह ऐसा कहेगा, इस वजह से आपने भी उसे वेश्या कहा, उसका आपको भयंकर गुनाह लगेगा। वह कहती है कि ‘संयोगवश मेरी यह हालत हुई है, उसमें आप क्यों यह गुनाह सिर पर ले रहे हैं? आप क्यों गुनाह कर रहे हैं?’ मैं तो अपना फल भुगत रही हूँ, लेकिन फिर आप गुनाह कर रहे हैं? वह क्या खुद अपने आप वेश्या बनी है? संयोगों ने बनाया है। किसी जीव को बुरा बनने की इच्छा ही नहीं होती। सब संयोग ही करवाते हैं, और फिर उसकी प्रेक्टिस सी हो जाती है। शुरूआत तो उससे संयोग करवाते हैं।

प्रश्नकर्ता : जिन्हें ज्ञान नहीं हैं, क्या वे कुछ ही प्रकार के दोष देख सकते हैं?

दादाश्री : बस उतना ही। दोष की माफ़ी माँगना सीखो, संक्षेप में ऐसा कह देना। जो दोष आपको दिखते हैं, उन दोषों की माफ़ी माँगना और वह दोष सही है, ऐसा कभी भी नहीं बोलना वर्ना डबल हो जाएँगे। गलत करने के बाद क्षमा माँग लो।

प्रश्नकर्ता : जिन्होंने ज्ञान नहीं लिया है, यदि उन्हें खुद की भूलें दिखें तो उन्हें किस तरह से प्रतिक्रमण करने चाहिए?

दादाश्री : ज्ञान नहीं लिया हो, फिर भी ऐसे कुछ जागृत लोग होते हैं कि जो प्रतिक्रमण को समझते हैं, वे यह करेंगे। अन्य लोगों का काम ही नहीं है यह। लेकिन हमें प्रतिक्रमण शब्द का अर्थ उसे पश्चाताप करने को कहना चाहिए।

प्रतिक्रमण करने से क्या होता है कि आत्मा उसके ‘रिलेटिव’

(पृ.२५)

पर खुद का दबाव डालता है। क्योंकि, अतिक्रमण यानी क्या हुआ कि रियल पर दबाव डालता है। जो कर्म अतिक्रमण है, और अब उसमें इन्टरेस्ट आ गया तो फिर उसका निशान रह जाता है। इसलिए जब तक आप गलत को गलत नहीं समझोगे, तब तक गुनाह है। इसलिए प्रतिक्रमण करवाने की ज़रूरत है।

प्रश्नकर्ता : मुझसे अतिक्रमण हो गया और मैं उसका प्रतिक्रमण कर लूँ, लेकिन अगर सामनेवाला मुझे माफ़ नहीं करे तो?

दादाश्री : सामनेवाले का नहीं देखना है। आपको कोई माफ़ करे या न करे, वह देखने की ज़रूरत नहीं है। आप में से यह अतिक्रमण स्वभाव निकल जाना चाहिए। आप अतिक्रमण के विरोधी हो, ऐसा हो जाना चाहिए।

प्रश्नकर्ता : और सामनेवाले को दु:ख होता रहे तो?

दादाश्री : सामनेवाले का ऐसा कुछ नहीं देखना है। आप अतिक्रमण के विरोधी हो, ऐसा तय हो जाना चाहिए। अतिक्रमण करने की आपकी इच्छा नहीं है। अभी जो हो गया उसके लिए पछतावा होता है। और अब आपको फिर से ऐसा करने की इच्छा नहीं है।

प्रतिक्रमण तो आपको उस अभिप्राय को निकालने के लिए करने हैं। आप उस मत में नहीं हैं, इस प्रकार से निकालने के लिए करने हैं। हम इस मत से विरुद्ध हैं ऐसा दिखाने के लिए प्रतिक्रमण करने हैं। क्या समझ में आया आपको?

प्रश्नकर्ता : यदि वह निकाली है तो फिर प्रतिक्रमण क्यों?

दादाश्री : सबकुछ निकाली ही है, सिर्फ वही नहीं, सबकुछ निकाली है। प्रतिक्रमण तो जितने अतिक्रमण होते हैं उतने ही प्रतिक्रमण करने हैं, और कुछ नहीं। यदि प्रतिक्रमण नहीं करेंगे तो अपना स्वभाव नहीं बदलेगा, वैसे का वैसा ही रहेगा! आपको समझ में आया या नहीं आया?

(पृ.२६)

वर्ना यदि विरोधी के रूप में यदि ज़ाहिर नहीं होगा तो फिर वह मत आपके पास रहेगा। अगर गुस्सा हो जाओ तो आप गुस्से के पक्ष में नहीं हो, उसके लिए प्रतिक्रमण करने हैं। वर्ना गुस्से के पक्ष में हो, ऐसा तय हो जाएगा और प्रतिक्रमण करोगे तो आपको गुस्सा अच्छा नहीं लगता ऐसा जाहिर हो जाएगा। अत: उसमें से आप अलग हो गए। आप मुक्त हो गए, ज़िम्मेदारी कम हो गई। आप उसके विरोधी हो, ऐसा दिखाने के लिए कुछ साधन तो होना चाहिए न? अपने में गुस्सा रखना है या निकाल देना है?

प्रश्नकर्ता : वह तो निकाल देना है।

दादाश्री : यदि निकाल देना हो तो प्रतिक्रमण करो। तब फिर आप गुस्से के विरोधी है, वर्ना यदि प्रतिक्रमण नहीं करते तो गुस्से से सहमत है।

प्रतिक्रमण किसे कहेंगे कि हलका हो जाए, हलकापन महसूस हो, फिर से वैसा ही दोष करते समय उसे बहुत दु:ख लगे। जबकि ये तो दोषों के गुणा करते हैं!!

आपने कोई प्रतिक्रमण, सच्चा प्रतिक्रमण देखा है, एक भी दोष कम हुआ हो ऐसा?

प्रश्नकर्ता : नहीं, यहीं मिला देखने को।

दादाश्री : ज्ञान प्राप्ति के बाद आपको भीतर पता चलता है कि यह दोष हुआ है, तभी प्रतिक्रमण होगा। तब तक प्रतिक्रमण हो नहीं पाएगा न! ज्ञान प्राप्ति के बाद उसकी जागृति रहेगी कि, जैसे ही अतिक्रमण हो जाए तो तुरंत आपको पता चलेगा कि यह भूल हो गई, तब तुरंत ही प्रतिक्रमण कर लेना। अत: उनके नाम से ठीक पद्धति के अनुसार प्रतिक्रमण होता ही रहेगा। और प्रतिक्रमण हो गया तो धुल जाएगा। अगर धुल गया तो सामनेवाले को दंश (वैरभाव) नहीं रहेगा फिर। वर्ना फिर जब हम दुबारा उससे मिलें तो सामनेवाले के साथ भेद पड़ता जाएगा।

(पृ.२७)

प्रश्नकर्ता : हमारे पापकर्मों को अभी किस प्रकार धोना है?

दादाश्री : पापकर्म के तो जितने दाग़ लगे हैं उतने प्रतिक्रमण करने हैं, वह दाग़ अगर पक्का हो तो बार-बार धोते रहना। बार-बार धोते रहना।

प्रश्नकर्ता : वह दाग़ निकल गया या नहीं, इसका पता कैसे चलेगा?

दादाश्री : वह तो भीतर मन स्वच्छ हो जाएगा न, तो पता चल जाएगा। चेहरे पर आनंद छा जाएगा। आपको पता नहीं चलेगा दाग़ निकल ही गया है? कैसे नहीं चलेगा? हर्ज क्या है? और नहीं साफ हुआ तो भी हर्ज नहीं है। तू प्रतिक्रमण कर न। तू साबुन लगाता ही रह न! पाप को तू पहचानता है? पाप को तू पहचानता है क्या?

प्रश्नकर्ता : दादा की आज्ञा का पालन नहीं हुआ यानी पाप।

दादाश्री : नहीं, ऐसा नहीं है। उसे पाप नहीं कहते। यदि सामनेवाले को दु:ख हो गया तो वह पाप है। किसी भी जीव को, वह फिर मनुष्य हो या जानवर हो या पेड़ हो। पेड़ को भी, अगर बिना वज़ह यों पत्ते तोड़ते रहें तो उसे भी दु:ख होता है, अत: वह पाप कहलाता है।

और यदि आज्ञा का पालन नहीं हुआ, उससे तो आपको नुकसान होगा। आपको खुद को ही नुकसान होगा। पापकर्म तो उसे कहते हैं कि जब किसी को दु:ख हो जाए। यानी ज़रा सा भी, किंचित्मात्र दु:ख नहीं हो ऐसा रहना चाहिए।

आप प्रतिक्रमण करोगे तो बहुत अच्छा है। आपके कपड़े साफ हो जाएँगे न? आपके कपड़ों में मैल क्यों रहने दें? दादा ने ऐसा रास्ता दिखाया है तो साफ क्यों नहीं कर दें?!

किसी को आप से किंचित्मात्र भी दु:ख हो जाए, तो समझना कि आपकी भूल है। आपके भीतर के परिणाम विचलित हो जाए, तो भूल आपकी है, ऐसा समझ लेना। सामनेवाला व्यक्ति भुगत रहा है,

(पृ.२८)

इसलिए प्रत्यक्ष रूप से उसकी भूल तो है लेकिन निमित्त आप बन गए। आपने उसे डाँटा इसलिए आपकी भी भूल है। क्यों दादा को भोगवटा (सुख-दु:ख का असर) नहीं आता है? क्योंकि उनकी एक भी भूल नहीं रही है। आपकी भूल से सामनेवाले को कुछ भी असर हो जाए, यदि कुछ उधारी हो जाए तो तुरंत ही मन से माफ़ी माँगकर जमा कर लेना। आपसे भूल हो जाए तो उधारी होगी लेकिन तुरंत ही कैश-नकद प्रतिक्रमण कर लेना। और यदि किसी की वजह से आपसे भूल हो जाए तो भी आलोचना, प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान कर लेना। मन-वचन-काया से, प्रत्यक्ष दादा भगवान की साक्षी में क्षमा माँगते रहना।

प्रश्नकर्ता : क्रमिक के प्रतिक्रमण करते थे, तब दिमाग़ में कुछ बैठता नहीं था और अभी यह कर रहे हैं तो हल्के फूल हो जाते हैं।

दादाश्री : लेकिन वह तो प्रतिक्रमण है ही नहीं न! वे सभी तो आपने नासमझी से खड़े किए हुए प्रतिक्रमण हैं! प्रतिक्रमण यानी तुरंत ही दोष कम होना चाहिए। वह प्रतिक्रमण कहलाता है। आप उल्टे गए थे, वहाँ से वापस लौट आए, वह प्रतिक्रमण कहलाता है। यह तो वापस मुड़े नहीं है और वहीं के वहीं है! बल्कि वहाँ से आगे बढ़े हैं!!! तो फिर उसे प्रतिक्रमण कहेंगे ही कैसे?

जब-जब गुत्थियाँ पड़नेवाली हो, तब-तब ‘दादाजी’ अवश्य याद आ ही जाते हैं और गुत्थियाँ नहीं पड़तीं। हम तो क्या कहते हैं कि गुत्थियाँ मत पड़ने देना, और कभी गुत्थी पड़ जाए तो प्रतिक्रमण करना। यह तो ‘गुत्थी’ शब्द तुरंत ही समझ में आ जाता है। ये लोग सत्य, दया, चोरी मत करो, यह सुन-सुनकर तो थक गए है।

गुत्थी रखकर सो नहीं जाना चाहिए। गुत्थी भीतर उलझी पड़ी हो तो उस गुत्थी को बिना सुलझाए सोना नहीं चाहिए। गुत्थी को सुलझा लेना चाहिए। आखिर में अगर कोई हल नहीं निकले तो भगवान से क्षमा माँगते रहना कि इसके साथ गुत्थी पड़ गई है उसके लिए बार-बार क्षमा माँगता हूँ, उससे भी हल आ जाएगा। क्षमा ही सब से बड़ा शस्त्र है। बाकी दोष तो निरंतर होते ही रहते हैं।

(पृ.२९)

जब सामनेवाले को डाँटते हो उस समय आपको ऐसा ध्यान में क्यों नहीं आता कि आपको डाँट पड़े तो कैसा लगेगा? इतना ध्यान में रखकर डाँटो।

सामनेवाले का ख्याल रखकर प्रत्येक कार्य करना, वह मानव अहंकार कहलाता है और अपना ख्याल रखकर प्रत्येक के साथ वर्तन करना और परेशान करना, तो वह क्या कहलाता है?

प्रश्नकर्ता : पाशवी अहंकार।

दादाश्री : कोई ऐसा कहे कि, ‘तेरी भूल है’ तो आप भी कहना, ‘चंदूभाई, आपकी भूल हुई होगी तभी वे कह रहे होंगे न? वर्ना ऐसे ही कोई कहता होगा?’ क्योंकि ऐसे ही कोई कहेगा नहीं, कुछ न कुछ भूल होनी चाहिए। अत: आपको उसे कहने में क्या हर्ज है? ‘भाई, आपकी कुछ भूल होगी इसलिए कह रहे होंगे। इसलिए क्षमा माँग लो’, और ‘चंदूभाई’ किसी को दु:ख दे रहे हों तो आप कहना कि ‘प्रतिक्रमण कर लो। क्योंकि आपको मोक्ष में जाना हैं। अब कैसे भी कुछ भी करने जाओगे तो वह नहीं चलेगा’

औरों के दोष देखने का अधिकार ही नहीं है। इसलिए उस दोष के लिए माफी, क्षमा माँगना, प्रतिक्रमण करना। परदोष देखने की तो पहले से ही उसे हेबिट थी, उसमें नया क्या है? वह हेबिट एकदम से नहीं छूटेगी। वह तो इस प्रतिक्रमण से छूटेगी फिर। जहाँ दोष दिखाई दिए, वहाँ प्रतिक्रमण करो, शूट ऑन साइट!

प्रश्नकर्ता : जैसे प्रतिक्रमण होने चाहिए, वैसे अभी भी नहीं होते।

दादाश्री : वह तो कुछ भी करना हो न, तो उसका निश्चय करना पड़ता है।

प्रश्नकर्ता : निश्चय करना अर्थात् उसमें करने का अहंकार आया न फिर, वह क्या चीज़ है? इसे समझाइए।

दादाश्री : कहने के लिए है। सिर्फ कहने के लिए है।

(पृ.३०)

प्रश्नकर्ता : महात्माओं में से कई लोग ऐसा समझते हैं कि हमें कुछ भी नहीं करना है, निश्चय भी नहीं करना है।

दादाश्री : नहीं, अगर मुझसे पूछें तो मैं उसे कहूँगा कि यह निश्चय यानी क्या कि डिसाइडेड रूप से करना। डिसाइडेड यानी क्या? यह नहीं और यह है, बस। ऐसा नहीं, वैसा होना चाहिए।

प्रश्नकर्ता : जब भीतर उत्पात हो जाए, तब शूट ऑन साइट उसका निकाल करना नहीं आए, लेकिन शाम को दस-बारह घंटे बाद ऐसा विचार आए कि, यह सब गलत हुआ तो उसका निकाल हो जाएगा क्या? देर से होगा तो?

दादाश्री : हाँ, देर से ही सही लेकिन उसका प्रतिक्रमण करना चाहिए। गलत हो जाने के बाद प्रतिक्रमण करना कि, ‘हे दादा भगवान! मुझसे भूल हो गई। अब फिर से नहीं करूँगा।’

तुरंत नहीं हो तो दो घंटे बाद करो। अरे, रात को करो, रात को याद करके करो। क्या रात को याद करके नहीं हो सकता कि आज किसके साथ टकराव में आए? ऐसा रात में नहीं हो सकता? अरे, सप्ताह के अंत में करो। एक सप्ताह बाद सभी साथ में करो। सप्ताह में जितने अतिक्रमण हुए हों, उन सभी का इकट्ठे हिसाब करो।

प्रश्नकर्ता : लेकिन वह तुरंत होना चाहिए न?

दादाश्री : यदि तुरंत हो जाए तो उसके जैसी तो कोई बात ही नहीं। अपने यहाँ तो सभी लोग काफी कुछ ‘शूट ऑन साइट’ ही करते हैं। देखते ही ठाँय, देखते ही ठाँय।

प्रश्नकर्ता : मैं जब कभी दादा का नाम लेता हूँ या आरती करता हूँ, तब भी मन और कहीं भटकता रहता है। फिर आरती में कुछ और ही गाता हूँ। फिर पंक्तियाँ अलग ही गा लेता हूँ। फिर तन्मयाकार हो जाता हूँ। जो विचार आए, उसमें तन्मयाकार हो जाता हूँ। फिर थोड़ी देर बाद वापस उसी में आ जाता हूँ।

दादाश्री : ऐसा है न, उस दिन प्रतिक्रमण करना। विचार आए

(पृ.३१)

तो उसमें हर्ज नहीं है। जब विचार आए, तब आप ‘चंदूभाई’ को अलग देख सकते हो, कि चंदूभाई को विचार आ रहे हैं। यदि ऐसा सब देख सकते हो तो हम और वह, दोनों अलग ही हैं। लेकिन उस समय थोड़े कच्चे पड़ जाते हैं।

प्रश्नकर्ता : उस समय जागृति ही नहीं रहती।

दादाश्री : तब उसका प्रतिक्रमण कर लेना कि यह जागृति नहीं रही, उसके लिए प्रतिक्रमण करता हूँ। हे दादा भगवान! क्षमा करना।

प्रश्नकर्ता : प्रतिक्रमण करना बहुत देर से याद आता है कि, इस व्यक्ति का प्रतिक्रमण करना था।

दादाश्री : लेकिन याद तो आता है न? सत्संग में और भी ज़्यादा बैठने की ज़रूरत है। बारीकी से सबकुछ पूछ लेना चाहिए। यह तो विज्ञान है। सबकुछ पूछ लेने की ज़रूरत है।

दोष दिखाई देना कोई आसान चीज़ नहीं है! फिर हम तो एकदम अनावृत कर देते हैं, लेकिन उसकी दृष्टि हो कि मुझे देखने हैं तो दिखते रहेंगे। अर्थात् खुद को भोजन की थाली में हाथ तो ऊपर करना पड़ेगा न? ऐसे ही थोड़े कुछ खाना मुँह में चला जाएगा! ऐसी इच्छा रखे तो थोड़े ही चलेगा? प्रयत्न तो करने ही चाहिए न!

इंसान से दोष होना स्वभाविक है। उससे विमुक्त होने का रास्ता क्या? सिर्फ ‘ज्ञानीपुरुष’ ही वह रास्ता दिखाते हैं, ‘प्रतिक्रमण’।

भीतर अपने आप प्रतिक्रमण होते रहते हैं। लोग कहते हैं, ‘अपने आप ही प्रतिक्रमण हो जाते हैं?’ मैंने कहा, ‘हाँ, तब कैसी मशीन मैंने लगा दी है? जिससे प्रतिक्रमण शुरू हो जाते हैं। जब तक तेरी नीयत साफ है, तब तक सब तैयार रहता है।

प्रश्नकर्ता : यह हक़ीकत है दादाजी, प्रतिक्रमण सहज रूप से होते रहते है और दूसरा, यह विज्ञान ऐसा है कि ज़रा सा भी द्वेष नहीं होता।

(पृ.३२)

प्रश्नकर्ता : ये भाई कहते हैं कि मेरे जैसे से प्रतिक्रमण नहीं हो पाते, वह क्या कहलाएगा?

दादाश्री : वह तो भीतर हो जाते होंगे लेकिन ध्यान नहीं रहता। अत: यदि सिर्फ एक बार बोला कि ‘मुझसे नहीं होते’, तो फिर वह बंद हो जाएगा। वह मशीन बंद हो जाएगी। जैसी भजना वैसी भक्ति। वह तो भीतर होते रहते हैं। कुछ समय बाद होंगे।

प्रश्नकर्ता : हमसे किसी को दु:ख हो जाए तो वह हमें अच्छा नहीं लगता। बस इतना ही रहता है। फिर आगे नहीं बढ़ता, प्रतिक्रमण जैसा नहीं होता।

दादाश्री : वह तो भीतर ऐसी मशीन रख दी है, आप जैसा बोलेंगे, वैसी वह चलेगी! जैसी भजना करोगे वैसे हो जाओगे। आप कहोगे कि, ‘मुझसे ऐसा नहीं हो पाता’ तो वैसा होगा। और कहोगे, ‘इतने सारे प्रतिक्रमण होते हैं कि मैं थक जाता हूँ।’ तो भीतर में वह थक जाएगा। अत: प्रतिक्रमण करनेवाला कर रहा है, तू अपने आप चलाता रह न आगे। पाँच सौ-पाँच सौ प्रतिक्रमण हो रहे होते हैं। तू चलाता रह न कि ‘मुझसे प्रतिक्रमण होते हैं।’

हो सके, तब तक ‘शूट ऑन साइट’ रखना चाहिए। दोष होते ही तुरंत प्रतिक्रमण करना चाहिए। और नहीं कर पाओ तो शाम को एक साथ कर लेना। लेकिन एक साथ करने में दो-चार रह जाएँगे। उसे कहाँ रखेंगे?! और कौन रखेगा उसे? अपना तो ‘शूट ऑन साइट’ का धंधा है!

जब से दोष दिखने लगें, तभी से समझ लेना कि मोक्ष में जाने की टिकट मिल गई। खुद का दोष किसी को नहीं दिखाई देता। बड़े-बड़े साधु-आचार्यों को भी खुद के दोष नहीं दिखाई देते। मूलत: सब से बड़ी कमी यह है। और यह विज्ञान ऐसा है कि, यह विज्ञान ही आपको निष्पक्षपात रूप से जजमेन्ट देता है। खुद के सभी दोष बता देता है। भले ही दोष हो जाने के बाद बताता है, लेकिन बता देता

(पृ.३३)

है न? अभी दोष हो गया वह हो गया!! वह तो अलग है, गाड़ी की स्पीड तेज़ हो तो कुचल जाता है न? लेकिन फिर पता चला न?

7. हो जाएगा शुद्ध, व्यापार

प्रश्नकर्ता : इस तरह अगर चंदूभाई को खुला छोड़ देंगे तो वह तो कुछ भी कर सकता है।

दादाश्री : नहीं। इसीलिए मैंने व्यवस्थित कहा है कि इस एक जीवन में एक बाल जितना भी बदलाव करने का अधिकार नहीं है। ‘वन लाइफ’ के लिए!! जिस लाइफ में मैं व्यवस्थित देता हूँ, उस व्यवस्थित में बदलाव हो सके, ऐसा नहीं है। तभी तो मैं आपको खुला छोड़ देता हूँ। अर्थात् यह मैं देखकर कह रहा हूँ। और इसलिए मुझे डाँटना भी नहीं पड़ता, कि घरवाली के साथ क्यों घूम रहे थे? और क्यों ऐसा और वैसा?! मुझे बिल्कुल भी डाँटना नहीं पड़ता। दूसरी लाइफ के लिए नहीं, लेकिन इस एक लाइफ के लिए यू आर नॉट रिस्पोन्सिबल एट ऑल! और वह भी फिर इतना सब कहा है।

प्रश्नकर्ता : ब्याज खा सकते हैं या नहीं खा सकते?

दादाश्री : चंदूभाई को ब्याज खाना हो तो खाए, लेकिन उसे कहना कि बाद में प्रतिक्रमण करना।

इस प्रतिक्रमण से सामनेवाले पर असर पड़ता है और वह पैसे लौटा देता है। सामनेवाले में ऐसी सद्बुद्धि उत्पन्न हो जाती है। प्रतिक्रमण से इस तरह सकारात्मक असर होता है। तो लोग घर जाकर अगर उधारीवाले को गालियाँ दें तो उसका उल्टा असर होता है या नहीं? लोग बल्कि और अधिक उलझा देते हैं। पूरा जगत् असरवाला है।

प्रश्नकर्ता : हम किसी लेनदार का प्रतिक्रमण करें, तब भी वह माँगता तो रहेगा ही न?

दादाश्री : माँगने और न माँगने का सवाल नहीं है, राग-द्वेष नहीं होने चाहिए। उधार तो शायद बाकी रह भी जाए!

(पृ.३४)

कोई कहे, ‘मुझे धर्म नहीं चाहिए। भौतिक सुख चाहिए।’ उसे मैं कहूँगा, ‘प्रामाणिक रहना, नीति का पालन करना।’ मंदिर में जाने को नहीं कहूँगा। दूसरों को तू देता है, वह देवधर्म है। लेकिन अन्य का, अणहक्क (बिना हक़ का) का नहीं लेता, वह मानवधर्म है। अर्थात् प्रामाणिकता, वह सब से बड़ा धर्म है। ‘डिसऑनेस्टी इज़ द बेस्ट फूलीशनेस!!!’ ऑनेस्ट नहीं हो सकता, तो क्या मैं समुद्र में कूद जाऊँ? मेरे ‘दादाजी’ सिखाते हैं कि अगर डिसऑनेस्ट हो जाओ तो उसका प्रतिक्रमण करना। तेरा अगला जन्म उज्जवल हो जाएगा। डिसऑनेस्टी को डिसऑनेस्टी समझ और उसका पश्चाताप कर। इतना निश्चित है कि पश्चाताप करनेवाला व्यक्ति ऑनेस्ट है।

अगर साझेदार के साथ मतभेद हो जाए, तो तुरंत आपको पता चल जाएगा कि, ‘यह ज़रूरत से ज़्यादा बोल दिया’, इसलिए तुरंत उसके नाम का प्रतिक्रमण कर लेना। अपना प्रतिक्रमण कैश पेमेन्ट होना चाहिए। यह बैंक भी कैश कहलाता है और पेमेन्ट भी कैश कहलाता है।

ऑफिस में परमिट लेने गए, लेकिन साहब ने नहीं दिया तब मन में होगा कि, ‘साहब नालायक हैं, ऐसे हैं, वैसे हैं।’ अब इसका फल क्या आएगा, वह आपको मालूम नहीं है। इसलिए यह भाव बदल देना, प्रतिक्रमण कर लेना। इसे हम जागृति कहते हैं।

इस संसार में अंतराय कैसे डलते हैं, वह आपको समझाता हूँ। आप जिस ऑफिस में नौकरी करते हो, वहाँ आपके असिस्टेन्ट को कमअक्ल कहो, तो उससे आपकी अक्ल पर अंतराय पड़ा! बोलो, अब सारा संसार इस अंतराय में फँस-फँसकर इस मनुष्य जन्म को व्यर्थ गँवा रहा है! आपको राइट (अधिकार) ही नहीं है, सामनेवाले को कमअक्ल कहने का। आप ऐसा बोलोगे तो सामनेवाला भी उल्टा बोलेगा, इससे उसे भी अंतराय पड़ेगा! तो अब इस जगत् में अंतराय डालना कैसे बंद होगा? किसी को आप नालायक कहो तो आपकी काबिलियत पर अंतराय पड़ता है! अगर आप इसके तुरंत ही प्रतिक्रमण करो तो वह अंतराय पड़ने से पहले धुल जाएँगे।

(पृ.३५)

प्रश्नकर्ता : नौकरी के फर्ज़ अदा करते समय मैंने बहुत कड़ाई से लोगों के अपमान किए थे, दुत्कार दिया था।

दादाश्री : उन सभी का प्रतिक्रमण करना। उसमें आपका इरादा बुरा नहीं था। अपने खुद के लिए नहीं, वह सरकार के प्रति सिन्सियारिटी थी।

8. ‘ऐसे’ टूटेंगी शृंखला ऋणानुबंध की

प्रश्नकर्ता : पूर्वजन्म के ऋणानुबंध से छूटने के लिए क्या करना चाहिए?

दादाश्री : आपका जिनके साथ पूर्व का ऋणानुबंध हो और वह आपको पसंद ही नहीं हो, उनके साथ रहना अच्छा ही नहीं लगता हो और फिर भी अनिवार्य रूप से उनके साथ रहना पड़े तो क्या करना चाहिए? उनके साथ बाहर का व्यवहार ज़रूर रखना चाहिए, लेकिन भीतर उनके नाम से प्रतिक्रमण करने चाहिए। क्योंकि आपने पिछले जन्म में अतिक्रमण किया था, उसका यह परिणाम है। कॉज़ेज़ क्या किए थे? तब कहे, उसके साथ पूर्वजन्म में अतिक्रमण किया था। उस अतिक्रमण का इस जन्म में फल आया, इसलिए अगर उसका प्रतिक्रमण करेंगे तो प्लस-माइनस हो जाएगा। अत: अंदर ही अंदर आप उससे माफी माँग लो। बार-बार माफी माँगते रहो कि ‘मैंने जो-जो दोष किए हों, उनकी माफ़ी माँगता हूँ।’ किसी भी भगवान की साक्षी में, तो सभी खत्म हो जाएगा।

सहवास पसंद नहीं हो तब फिर क्या होता है? उसे बहुत दोषित देखने से, यदि किसी पुरूष को स्त्री पसंद नहीं हो तो उसके बहुत दोष देखता रहता है, तब फिर तिरस्कार हो जाता है। फिर उससे डर लगता है। जिसके प्रति आपको तिरस्कार होगा न उससे आपको डर लगेगा। उसे देखते ही घबराहट होने लगे तो समझना कि यह तिरस्कार है। इसलिए तिरस्कार छोड़ने के लिए बार-बार माफ़ी माँगते रहो, दो ही दिन में वह तिरस्कार बंद हो जाएगा। भले ही उसे मालूम नहीं हो लेकिन आप अंदर ही अंदर उसका नाम लेकर माफ़ी माँगते रहो।

(पृ.३६)

जिसके प्रति जो भी दोष किए हों तो कहना, ‘हे भगवान! मैं क्षमा माँगता हूँ।’ ये दोषों के परिणाम हैं, आपने किसी भी व्यक्ति के प्रति जो भी दोष किए हों, तो भीतर आप माफ़ी माँगते रहना भगवान से, तो सब धुल जाएगा।

यह तो नाटक है। नाटक में बीबी-बच्चों को हमेशा के लिए खुद के बना लेना क्या उचित होगा? हाँ, जैसे नाटक में बोलते हैं, वैसे बोलने में हर्ज नहीं है कि ‘यह मेरा बड़ा बेटा, शतायु।’ लेकिन सभी ऊपर-ऊपर से, नाटकीय। इन सभी को सही माना उसी के लिए प्रतिक्रमण करने पड़ते हैं। यदि सही नहीं माना होता तो प्रतिक्रमण नहीं करने पड़ते। जहाँ सत्य माना गया है, वहाँ राग और द्वेष शुरू हो जाते हैं और प्रतिक्रमण से ही मोक्ष है। ‘दादाजी’ जो दिखाते हैं, उन आलोचना-प्रतिक्रमण-प्रत्याख्यान से मोक्ष है।

किसी के हाथ में परेशान करने की सत्ता भी नहीं है और किसी के हाथ में सहन करने की सत्ता भी नहीं है। ये जो सब काम कर रहे हैं, ये सभी तो पुतले ही हैं। तो प्रतिक्रमण करने से पुतले अपने-आप सीधे हो जाएँगे।

बाकी, कैसा भी पागल आदमी हो लेकिन वह हमारे प्रतिक्रमण से समझदार हो सकता है।

किसी व्यक्ति के साथ आपकी बिल्कुल भी नहीं पटती हो, उसके आप यदि पूरे दिन प्रतिक्रमण करो, दो-चार दिन तक करते रहो तो पाँचवे दिन तो वह आपको ढूँढता हुआ यहाँ आ पहुँचेगा। आपके अतिक्रमण दोष से ही यह सब रुका हुआ है।

प्रश्नकर्ता : इसमें कभी हमें दु:ख हो जाता है कि मैं इतना कुछ करता हूँ फिर भी यह मेरा अपमान कर रहा है?

दादाश्री : आपको उसका प्रतिक्रमण करना चाहिए। यह तो व्यवहार है। इसमें हर तरह के लोग होते हैं। जो मोक्ष में नहीं जाने देते।

प्रश्नकर्ता : हमें प्रतिक्रमण क्यों करना चाहिए?

(पृ.३७)

दादाश्री : प्रतिक्रमण इसलिए करना चाहिए कि इसमें मेरे कर्म का उदय था और आपको (सामनेवाले को) ऐसा कर्म बाँधना पड़ा। उसके लिए प्रतिक्रमण कर रहा हूँ और फिर से ऐसा नहीं करूँगा ताकि अन्य किसी को मेरे निमित्त से कर्म बाँधना पड़े!

जगत् ऐसा नहीं है कि किसी को मोक्ष में जाने दे। हर तरफ से अँकुड़े यों खींच ही लाएँगे। यदि आप प्रतिक्रमण करोगे तो अँकुड़े छूट जाएँगे। इसलिए महावीर भगवान ने आलोचना, प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान, ये तीन चीज़ें एक ही शब्द में दी हैं। अन्य कोई रास्ता ही नहीं है। अब कोई खुद प्रतिक्रमण कब कर सकता है? खुद को जागृति हो तब, ज्ञानीपुरुष से ज्ञान प्राप्त हो जाए, तब यह जागृति उत्पन्न होगी।

आप तो प्रतिक्रमण कर लेना, ताकि आप ज़िम्मेदारी से मुक्त हो जाओ।

प्रश्नकर्ता : किसी व्यक्ति पर से हमारा विश्वास उठ गया हो, उसने हमारे साथ विश्वासघात किया हो और हमारा विश्वास उठ गया हो। उस विश्वास को पुन: स्थापित करने के लिए क्या करना चाहिए?

दादाश्री : उसके लिए जो भी बुरे विचार किए हों न, उन सभी के लिए पश्चाताप करना चाहिए। विश्वास उठ जाने के बाद हमने जो भी बुरे विचार किए हों, उसके लिए पश्चाताप करना होगा, बाद में ठीक हो जाएगा। इसलिए प्रतिक्रमण करने होंगे।

9. निर्लेपता, अभाव से फाँसी तक

प्रश्नकर्ता : सामनेवाले व्यक्ति को दु:ख हुआ है, यह कैसे पता चलेगा?

दादाश्री : वह तो उसकाचेहरा देखने से पता चल जाता है। चेहरे पर से हास्य चला जाता है। उसका चेहरा उतर जाता है। अत: तुरंत पता चल जाता है न कि सामनेवाले को असर हुआ है, ऐसा पता नहीं चलेगा?

प्रश्नकर्ता : पता चलेगा।

(पृ.३८)

दादाश्री : मनुष्य में इतनी शक्ति तो होती ही है कि सामनेवाले को क्या हुआ है, वह पता चल जाता है!

प्रश्नकर्ता : लेकिन कई ऐसे सयाने होते हैं कि चेहरे पर एक्सप्रेशन नहीं आने देते।

दादाश्री : फिर भी खुद को पता चल जाता है कि ये भारी शब्द निकल गए हैं मेरे, इसलिए उन्हें लगेंगे तो ज़रूर। अत: यह समझकर प्रतिक्रमण कर लेना चाहिए। भारी शब्द निकल गए हों तो खुद को पता नहीं चलेगा कि उन्हें दु:ख हुआ होगा?

प्रश्नकर्ता : पता चलेगा न!

दादाश्री : वह भी उनके लिए नहीं करना है। लेकिन आपका अभिप्राय इसमें नहीं है। यह अपने अभिप्राय से अलग होने के लिए है। प्रतिक्रमण यानी क्या? वह पहले के अभिप्राय से अलग होने के लिए है और प्रतिक्रमण से क्या होता है कि सामनेवाले पर जो असर हो जाता होगा, वह नहीं होगा, बिल्कुल भी नही होगा। मन में तय करो कि मुझे समभाव से निकाल (निपटारा) करना है तो उस पर असर होगा और उसका मन ऐसे सुधरेगा, और आप मन में तय करो कि इसे ऐसा कर दूँगा या वैसा कर दूँगा तो उसके मन में भी वैसा ही रिएक्शन होगा।

प्रश्नकर्ता : किसी भी व्यक्ति को तरछोड़ (तिरस्कार सहित दुत्कार) मारने के बाद पछतावा हो तो वह क्या कहलाएगा?

दादाश्री : पछतावा करने से तरछोड़ मारने की आदत छूट जाएगी, तरछोड़ मारकर फिर कुछ समय तक पछतावा नहीं करे और ऐसा माने कि मैंने कितना अच्छा किया तो वह नर्क में जाने की निशानी है। गलत करने के बाद पछतावा तो करना ही चाहिए।

प्रश्नकर्ता : यदि सामनेवाले का मन तोड़ा हो तो उससे छूटने के लिए क्या करना चाहिए?

दादाश्री : प्रतिक्रमण करने चाहिए और अगर आमने-सामने

(पृ.३९)

मिल जाए तो कहना कि ‘भाई, मैं कमअक्ल हूँ, मुझसे भूल हो गई।’ ऐसा कहना चाहिए, ऐसा कहने से उसके घाव भर जाएँगे।

प्रश्नकर्ता : क्या उपाय करना चाहिए ताकि तरछोड़  के परिणाम भुगतने की बारी ही न आए?

दादाश्री : तरछोड़ के लिए और कोई उपाय नहीं है, बार-बार प्रतिक्रमण करने चाहिए। जब तक सामनेवाले का मन फिर से बदल नहीं जाता, तब तक करने चाहिए। और अगर वह प्रत्यक्ष मिल जाए तो वापस मधुर वाणी बोलकर क्षमा माँग लेनी चाहिए कि ‘भाई, मुझसे तो बहुत बड़ी भूल हो गई, मैं तो मूर्ख हूँ, कमअक्ल हूँ।’ इससे सामनेवाले के घाव भरते जाएँगे। जब आप खुद अपनी ही निंदा करोगे तो सामनेवाले को अच्छा लगेगा, तब उनके घाव भर जाएँगे।

हमें पिछले जन्म के तरछोड़ के परिणाम दिखाई देते हैं। इसीलिए तो मैं कहता हूँ कि किसी को तरछोड़ नहीं लगानी चाहिए। मज़दूर को भी तरछोड़ नहीं लगानी चाहिए। अरे, आखिर में साँप बनकर भी बदला लेगा। तरछोड़ से छुटकारा नहीं मिलता। सिर्फ प्रतिक्रमण बचा सकता है।

प्रश्नकर्ता : किसी को हम दु:ख पहुँचाकर फिर हम प्रतिक्रमण कर लें, लेकिन उसे यदि ज़बरदस्त आघात या ठेस लग गई हो तो क्या उससे हमें कर्मबंधन नहीं होगा?

दादाश्री : आप उनके नाम से प्रतिक्रमण करते रहो, और उन्हें जितना दु:ख हो गया हो उतने प्रतिक्रमण करने चाहिए।

एक जज ने मुझसे पूछा कि, ‘साहब, आपने मुझे ज्ञान तो दिया, और अब मुझे वहाँ कोर्ट में देहांत दंड की सज़ा देनी चाहिए या नहीं?’ तब मैंने उनसे कहा, ‘देहांत दंड की सज़ा नहीं दोगे, तो उसे क्या करोगे?’ उन्होंने कहा, ‘लेकिन मुझे दोष लगेगा।’ मैंने कहा, ‘मैंने आपको ‘चंदूभाई’ बनाया है या ‘शुद्धात्मा’ बनाया है?’ तब उन्होंने कहा, ‘शुद्धात्मा बनाया है।’ तो यदि चंदूभाई कर रहे हैं तो उसके

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लिए आप ज़िम्मेदार नहीं हो। और ज़िम्मेदार होना हो तो आप चंदूभाई होंगे। आप राज़ी-खुशी से साझेदार बनो तो हमें हर्ज नहीं है लेकिन साझेदारी मत रखना। फिर मैंने उन्हें तरीका बताया कि आपको यह कहना है कि, ‘हे भगवान! मेरे हिस्से में यह काम कहाँ से आया’ और उसका प्रतिक्रमण करना और गवर्मेन्ट के कानून के अनुसार कार्य करते रहना। समझ में आया न?

प्रश्नकर्ता : प्रतिक्रमण करने से छूट जाएँगे, ऐसा यदि हम सोचें तो सभी लोगों को स्वच्छंदता का लाइसेन्स मिल जाएगा।

दादाश्री : नहीं, ऐसी समझ मत रखना। बात ऐसी ही है। आपको प्रतिक्रमण करने चाहिए। प्रतिक्रमण किया कि आप मुक्त। आप अपनी ज़िम्मेदारी से मुक्त। बाद में यदि वह व्यक्ति चिंता करके, सिर फोड़कर, मर भी जाए, तो उससे आपको कुछ लेना-देना नहीं है।

हमसे भी किसी-किसी व्यक्ति को दु:ख हो जाता है। हमारी इच्छा नहीं है। अभी तो हमसे ऐसा नहीं ही होता। लेकिन फिर भी किसी व्यक्ति के साथ हो जाता है। अभी तक, पंद्रह-बीस साल में दो-तीन लोगों के साथ हुआ होगा। वह भी निमित्त होगा तभी न? हम बाद में फिर उनके प्रतिक्रमण करके उस पर फिर बाड़ लगा देते हैं ताकि वह गिर न जाए। जितना हमने ऊपर चढ़ाया है वहाँ से वह गिर न जाए, उसके लिए बाड़ लगा देते हैं। उसके रक्षण के लिए सब रख देते हैं।

हम सैद्धांतिक हैं कि भाई, यह पेड़ लगाया, उसे लगाने के बाद नई रोड बनाने में वह बीच में आ रहा हो तो रोड को घुमाएँगे लेकिन पेड़ को कुछ नहीं होने देंगे। हमारे सिद्धांत हैं ये सब। किसी को गिरने नहीं देते।

प्रश्नकर्ता : कोई व्यक्ति गलती करे, फिर हम से क्षमा माँगे, तो हम क्षमा कर देते हैं, नहीं माँगने पर भी मन से क्षमा कर देते हैं, लेकिन बार-बार वह व्यक्ति भूल करता रहे तो हमें क्या करना चाहिए?

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दादाश्री : प्रेम से समझाकर, जितना समझा सकें उतना समझाना। और कोई उपाय नहीं है। आपके हाथ में कोई सत्ता नहीं है। इस जगत् में क्षमा करने के अलावा हमारे पास और कोई चारा ही नहीं है। अगर आप माफ़ नहीं करोगे तो, मार खाकर माफ़ करना पड़ेगा। उपाय ही नहीं है। आपको उसे ऐसा समझाना चाहिए कि वह बार-बार भूल नहीं करे। इस प्रकार भाव परिवर्तन कर दें, तो बहुत हो गया। वह उसका भाव परिवर्तन कर दे कि अब भूल नहीं करनी है। फिर भी यदि हो जाए तो वह अलग बात है।

बेटे को सब्ज़ी लेने भेजें और वह उसमें से पैसा निकाल ले तो वह जानने से क्या फायदा है? वह तो जैसा है उसे वैसा ही चला लेना, उसे थोड़े ही फेंक सकते हैं? क्या दूसरा लेने जा सकते हैं? दूसरा मिलेगा भी नहीं न? कोई बेचेगा नहीं।

10. टकराव के सामने...

प्रश्नकर्ता : कभी कभार ज़्यादा, बढ़-चढ़कर तकरार हो जाए, लंबा बंध पड़ जाए, उसके लिए दो-चार बार या उससे भी ज्यादा प्रतिक्रमण करने पड़ेंगे या फिर एक बार करने से ही सबका हो जाएगा?

दादाश्री : जितना हो सके उतना करना। और फिर सामूहिक कर लेना। प्रतिक्रमण बहुत सारे इकट्ठे हो जाएँ, तो सामूहिक प्रतिक्रमण कर लेना कि ‘हे दादा भगवान! इन सभी का मैं साथ में प्रतिक्रमण करता हूँ’ फिर हो गया।

जिसका किसी से टकराव नहीं होता, मैं उसे तीन जन्म में मोक्ष की गारन्टी देता हूँ। टकराव हो जाए तो प्रतिक्रमण कर लेना चाहिए। टकराव पुद्गल के हैं और पुद्गल से पुद्गल के टकराव प्रतिक्रमण से नष्ट हो जाते हैं।

वह भाग कर रहा हो तो आप गुणा करना, इससे रकम गायब हो जाएगी। सामनेवाले के लिए सोचना कि, ‘उसने मुझे ऐसा कहा, वैसा कहा,’ वही गुनाह है। राह पर चलते समय अगर दीवार टकरा

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जाए तो उसके साथक्यों नहीं झगड़ते? पेड़ को जड़ (निश्चेतन) क्यों कहते हैं? जिनसे चोट लगे, वे सभी हरे पेड़ ही हैं!

प्रश्नकर्ता : स्थूल टकराव का उदाहरण दिया, फिर सूक्ष्म, सूक्ष्मतर और सूक्ष्मतम के उदाहरण दीजिए। सूक्ष्म टकराव कैसा होता है?

दादाश्री : तुझे फादर के साथ जो होता है, वह सारा सूक्ष्म टकराव।

प्रश्नकर्ता : यानी किसे कहते हैं?

दादाश्री : उसमें मार-पीट करते हो?

प्रश्नकर्ता : नहीं।

दादाश्री : वह सूक्ष्म टकराव।

प्रश्नकर्ता : सूक्ष्म यानी मानसिक? वाणी से जो भी होता है वह भी सूक्ष्म में जाता है?

दादाश्री : वह स्थूल में। जो सामनेवाले को मालूम नहीं पड़े, जो दिखाई नहीं दें, वे सभी सूक्ष्म में जाते हैं।

प्रश्नकर्ता : उस सूक्ष्म टकराव को कैसे टालना चाहिए?

दादाश्री : पहले स्थूल, फिर सूक्ष्म, फिर सूक्ष्मतर और बाद में सूक्ष्मतम टकराव टालने चाहिए।

प्रश्नकर्ता : सूक्ष्मतर टकराव किसे कहेंगे?

दादाश्री : तू किसी को मार रहा हो, और ये भाई ज्ञान में रहकर देखें कि मैं शुद्धात्मा हूँ, यह व्यवस्थित मार रहा है। यह सब देखें लेकिन तभी मन से थोड़ा भी दोष देखे, तो वह सूक्ष्मतर टकराव है।

प्रश्नकर्ता : फिर से कहिए, ठीक से समझ में नहीं आया।

दादाश्री : यह जो तू सभी लोगों के दोष देखता है न, वह सूक्ष्मतर टकराव है।

प्रश्नकर्ता : यानी दूसरों के दोष देखना, वह सूक्ष्मतर टकराव है।

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दादाश्री : ऐसा नहीं, खुद ने तय किया हो कि दूसरों में दोष देखने ही नहीं है और फिर भी दोष दिखें तो वह सूक्ष्मतर टकराव है। ऐसे दोष का तुझे पता चलना चाहिए, क्योंकि वह तो शुद्धात्मा है और फिर भी उसके दोष देखता है?

प्रश्नकर्ता : तो वह जो मानसिक टकराव कहा, वह क्या?

दादाश्री : वह सब तो सूक्ष्म में गया।

प्रश्नकर्ता : तो इन दोनों में क्या फर्क है?

दादाश्री : यह तो मन से भी आगे की बात है।

प्रश्नकर्ता : मानसिक टकराव और जो दोष...

दादाश्री : वह मानसिक नहीं है।

प्रश्नकर्ता : अर्थात् यह सूक्ष्मतर टकराव होता है, उस घड़ी सूक्ष्म टकराव भी साथ में रहता ही है न?

दादाश्री : वह आपको नहीं देखना है। सूक्ष्म अलग रहता है और सूक्ष्मतर अलग रहता है। सूक्ष्मतर मतलब तो अंतिम बात।

प्रश्नकर्ता : एक बार सत्संग में ही ऐसी बात की थी कि चंदूभाई के साथ तन्मयाकार होना, वह सूक्ष्मतम टकराव कहलाता है।

दादाश्री : हाँ, सूक्ष्मतम टकराव! उसे टालना चाहिए। गलती से तन्मयाकार हो जाने के बाद पता चलता है न कि यह गलती हो गई।

प्रश्नकर्ता : अब केवल शुद्धात्मानुभव के सिवा इस जगत् की कोई भी विनाशी चीज़ मुझे नहीं चाहिए, फिर भी बार-बार चंदूभाई को तन्मयाकार अवस्था रहती है। तो वह सूक्ष्मतर टकराव हुआ न?

दादाश्री : वह तो सूक्ष्मतम कहलाएगा।

प्रश्नकर्ता : तो इस टकराव को टालने का उपाय सिर्फ प्रतिक्रमण ही है या और कुछ भी है?

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दादाश्री : दूसरा कोई हथियार है ही नहीं।

प्रश्नकर्ता : लेकिन दादा, हमें प्रतिक्रमण करने पड़ें, वह हमारा अहम् नहीं कहलाएगा?

दादाश्री : नहीं। यानी आपको प्रतिक्रमण नहीं करने हैं। चंदूभाई का गुनाह है, शुद्धात्मा तो जानता है। शुद्धात्मा ने तो गुनाह नहीं किया है इसलिए उसे नहीं करना है। सिर्फ जिसने गुनाह किया है उसे, चंदूभाई प्रतिक्रमण करेंगे। और अतिक्रमण से ही संसार खड़ा हो गया है। अतिक्रमण कौन करता है? अहंकार और बुद्धि दोनों साथ में मिलकर।

11. पुरुषार्थ, प्राकृत दुर्गुणों के सामने...

बिना राग के तो लाइफ ही नहीं बीती होगी किसी की। जब तक ज्ञान प्राप्त नहीं होता, तब तक राग और द्वेष दोनों ही करते रहते हैं। तीसरी चीज़ होती ही नहीं।

प्रश्नकर्ता : लेकिन दादा, द्वेष वह तो राग का ही फरज़ंद (बच्चा) है न?

दादाश्री : हाँ, वह उसी का फरज़ंद है, लेकिन उसका परिणाम है, फरज़ंद यानी उसका परिणाम है। राग अधिक मात्रा में हुआ न, जिस पर राग करते हैं न, वह एक्सेस बढ़ जाए, फिर उस पर द्वेष होता है। कोई भी चीज़ उसकी सीमा से बाहर चली जाए न, तो आपको अप्रिय लगने लगेगी और अप्रिय लगे, वही द्वेष! समझ में आया?

प्रश्नकर्ता : हाँ, समझ में आ गया।

दादाश्री : वह तो आपको समझ लेना चाहिए कि आपके ही रिएक्शन आए हैं सभी! आप उसे (सामनेवाले को) मान से बुलाएँ, और आपको उसका मुँह फूला हुआ दिखाई दे तो आपको समझ लेना चाहिए कि यह हमारा ही रिएक्शन है। तो क्या करना चाहिए? प्रतिक्रमण करना। अन्य कोई उपाय नहीं है जगत् में। तब इस जगत् के लोग क्या करते हैं? उस पर वापस मुँह फुलाते हैं! अर्थात् जैसा

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था फिर से वैसा ही खड़ा करता है। आप शुद्धात्मा हो गए, इसलिए समझा-बुझाकर अपनी गलती एक्सेप्ट करके भी छोड़ देना चाहिए। हम तो ज्ञानीपुरुष होने पर भी सारी गलतियाँ एक्सेप्ट करके केस को खत्म कर देते हैं।

प्रश्नकर्ता : जो ईष्र्या होती है वह नहीं हो, उसके लिए क्या करना चाहिए?

दादाश्री : उसके दो उपाय हैं। ईष्र्या हो जाने के बाद पश्चाताप करना चाहिए और दूसरा, जो ईष्र्या होती है वह ईष्र्या आप नहीं करते। ईष्र्या तो पूर्व जन्म के परमाणु भरे हुए हैं, उसे एक्सेप्ट नहीं करोगे, उसमें तन्मयाकार नहीं होंगे तो ईष्र्या उड़ जाएगी। ईष्र्या होने के बाद पश्चाताप कर ले तो उत्तम है।

प्रश्नकर्ता : सामनेवाले पर शंका नहीं करनी है, फिर भी शंका होती है तो उसे कैसे दूर करें?

दादाश्री : वहाँ फिर उसके शुद्धात्मा को याद करके क्षमा माँगनी चाहिए। उसका प्रतिक्रमण करना चाहिए। यह तो पहले गलतियाँ की थी इसलिए शंका होती है।

जंगल में जाएँ और लौकिक ज्ञान के आधार पर अगर ऐसे विचार आएँ कि लुटेरा मिलेगा तो? अथवा शेर मिलेगा तो क्या होगा? ऐसा विचार आए तो उसी समय प्रतिक्रमण कर लेना। शंका हुई तो बिगड़ेगा। शंका नहीं होने देना। किसी भी व्यक्ति पर शंका हो तो प्रतिक्रमण करना। शंका ही दु:खदायी है।

शंका होने पर प्रतिक्रमण करवा लेना। और हम तो इस ब्रह्मांड के मालिक है, हमें शंका क्यों होनी चाहिए?! मनुष्य हैं इसलिए शंका तो होगी। लेकिन भूल हुई तो नकद प्रतिक्रमण कर लेना।

जिसके लिए शंका हुई उसका प्रतिक्रमण करना। वर्ना शंका आपको खा जाएगी।

किसी के लिए ज़रा सा भी उल्टा-सुल्टा विचार आए कि तुरंत

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उसे धो डालना। वह विचार यदि थोड़ी देर के लिए भी रहा न तो वह सामनेवाले को पहुँच जाएगा और फिर अंकुरित होगा। चार घंटे, बारह घंटे या दो दिन बाद भी उसे असर होगा। इसलिए स्पंदन का बहाव उस ओर नहीं जाना चाहिए।

किसी भी बुरे कार्य का पछतावा करो, तो उस कार्य का बारह आने फल नष्ट हो ही जाता है। फिर जली हुई रस्सी होती है न, उसके जैसा फल देगा। उस जली हुई रस्सी को अगले जन्म में ऐसे ही हाथ लगाने पर ही वह उड़ जाएगी। कोई भी क्रिया यों ही व्यर्थ तो जाती ही नहीं है। प्रतिक्रमण करने से वह रस्सी जल जाती है लेकिन डिज़ाइन वैसी की वैसी ही रहती है। लेकिन अगले जन्म में क्या करना पड़ेगा? ऐसे ही झाड़ने से उड़ जाएगी।

12. छूटें व्यसन, ज्ञानी के तरीके से

प्रश्नकर्ता : मुझे सिगरेट पीने की बुरी आदत पड़ गई है।

दादाश्री : तो उसके लिए तू ऐसा रखना कि, ‘यह गलत है, बुरी चीज़ है,’ ऐसा। और यदि कोई कहे कि सिगरेट क्यों पीते हो? तो उसका रक्षण मत करना। बुरा है, ऐसा कहना। या फिर भाई, यह मेरी कमज़ोरी है, ऐसा कहना तो किसी दिन छूटेगी वर्ना नहीं छोड़ेगी वह।

हम भी प्रतिक्रमण करते हैं न, अभिप्राय से मुक्त हो ही जाना चाहिए। अभिप्राय रह जाएँ तो उससे परेशानी है।

जो प्रतिक्रमण करे तो वह इंसान सब से उत्तम चीज़ पा गया। अर्थात् यह टेकनिकली है। साइन्टिफिकली इसमें ज़रूरत नहीं रहती। लेकिन टेकनिकली ज़रूरत है।

प्रश्नकर्ता : साइन्टिफिकली कैसे?

दादाश्री : साइन्टिफिकली वह फिर उसका डिस्चार्ज है, फिर उसे ज़रूरत ही क्या है?! क्योंकि आप अलग हो और वह अलग है। इतनी सारी शक्तियाँ नहीं हैं इन लोगों की! अगर प्रतिक्रमण नहीं

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करोगे तो वह अभिप्राय रह जाएगा और आप प्रतिक्रमण करोगे तो अभिप्राय से अलग हुए, यह बात पक्की है न?!

क्योंकि जितना अभिप्राय रहा, उतना मन रह जाएगा। क्योंकि मन अभिप्राय से बनता है।

हमने क्या कहा कि अभी व्यसनी हो गया है, उसमें मुझे हर्ज नहीं है, लेकिन जिसका व्यसन हुआ हो, उसका भगवान से प्रतिक्रमण करना कि ‘हे भगवान! यह शराब नहीं पीनी चाहिए, फिर भी पी रहा हूँ। उसके लिए माफ़ी माँगता हूँ। फिर से यह नहीं पीऊँ, ऐसी शक्ति दीजिए।’ इतना करना भाई। जबकि लोग तो विरोध करते हैं कि तू शराब क्यों पीता है? अरे, ऐसा करके तू इसे ज़्यादा बिगाड़ रहा है। उसका अहित कर रहा है। मैंने क्या कहा, तू कितना भी बड़ा गुनाह करके आया हो तो इस तरह प्रतिक्रमण करना।

प्रश्नकर्ता : आपने सवेरे चाय पीते समय कहा कि हमने प्रत्याख्यान करने के बाद चाय पी है।

दादाश्री : हाँ, वैसे चाय तो मैं पीता नहीं हूँ, फिर भी पीने के संयोग आ मिलते हैं और अनिवार्य रूप से हो जाए तब क्या करना पड़ता है? यदि प्रत्याख्यान किए बिना पी लूँ तो वह आ चिपकेगी। इसलिए रंगवाला पानी उँडेलना है लेकिन तेल लगाकर। हाँ, हम प्रत्याख्यान रूपी तेल लगाते हैं, उसके बाद हरे रंगवाला पानी उँडेलते हैं, लेकिन भीतर चिपकता नहीं है। इसलिए प्रत्याख्यान करने के बाद चाय पी मैंने!

यह इतना सा ही समझने जैसा है। प्रत्याख्यान करके करो यह सब। प्रतिक्रमण तो जब अतिक्रमण हो तब करना है। चाय पीनी पड़े, वह अतिक्रमण नहीं कहलाता। यदि प्रत्याख्यान नहीं करोगे, तेल नहीं लगाओगे तो थोड़ा चिपक जाएगा। अब तेल लगाकर करना न सब!

हमें अशाता कम होती हैं। देखो न, हमें महीना भर ऐसा आया कि दादाजी को एक्सिडेन्ट का समय आ गया। बाद में यह जो हुआ, मानो दीया बुझनेवाला हो, ऐसा हो गया था।

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प्रश्नकर्ता : ऐसा कुछ नहीं होनेवाला है, दादाजी।

दादाश्री : नहीं, ऐसा नहीं, ‘हीराबा’ (दादाजी की धर्मपत्नी) चली गईं तो क्या ‘ये’ (ए.एम.पटेल) नहीं जाएँगे? यह कौन सा वेदनीय कर्म आया?

प्रश्नकर्ता : अशाता वेदनीय।

दादाश्री : लोग समझते हैं कि हमें वेदनीय है, लेकिन हमें वेदनीय स्पर्श नहीं करता, तीर्थंकरों को भी स्पर्श नहीं करता। हमें हीराबा के जाने का खेद नहीं है। हमें असर ही नहीं होता कुछ, लोगों को ऐसा लगता है कि हमें वेदनीय कर्म आया, अशाता वेदनीय आया। लेकिन हमें तो एक मिनट, एक सेकन्ड भी अशाता ने स्पर्श तक नहीं किया, इन बीस सालों से! और यही विज्ञान मैंने आपको दिया है। और यदि आप कच्चे पड़ जाओगे तो आपका नुकसान है। समझदारी हो तो कच्चे पड़ेंगे ही नहीं न कभी?

प्रश्नकर्ता : अंबालालभाई को तो स्पर्श करता है न? ‘दादा भगवान’ को वेदनीय कर्म स्पर्श नहीं करता।

दादाश्री : नहीं, किसी को भी स्पर्श नहीं करता। ऐसा है यह विज्ञान। यदि स्पर्श करता तो पागल ही हो जाए न? यह तो नासमझी से दु:ख हैं। समझदारी हो तो इस फाइल को भी स्पर्श नहीं करेगा। किसी को भी स्पर्श नहीं करेगा। जो भी दु:ख है वह नासमझी से ही है। इस ज्ञान को यदि समझ ले न, तो दु:ख रहेगा ही कैसे? अशाता भी नहीं होगी और शाता भी नहीं होगी।

13. विमुक्ति, आर्त-रौद्र ध्यान से

प्रश्नकर्ता : आर्तध्यान और रौद्रध्यान प्रतिक्षण होते ही रहते हैं, तो आर्तध्यान किसे कहेंगे और रौद्रध्यान किसे कहेंगे, इसका ज़रा स्पष्टीकरण कर दीजिए।

दादाश्री : खुद, खुद को ही, किसी को भी बीच में नहीं लाए,

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किसी को गोली लगे नहीं, ऐसे संभालकर खुद अपने आप दु:ख झेलता रहे वह आर्तध्यान है और किसी के ऊपर गोली दाग दे, वह रौद्रध्यान है।

आर्तध्यान तो अगर खुद को ज्ञान नहीं हो और ‘मैं चंदूभाई हूँ’ ऐसा हो जाए, और मुझे ऐसा हुआ या होगा तो क्या हो जाएगा? बेटियों की शादी क्या तू करवानेवाला था? चौबीस साल की हो जाए तब शादी करवाना। यह तो पाँच साल की हो तभी से चिंता करने लगता है। इसे आर्तध्यान करना कहते हैं। समझ में आया न?

खुद के लिए उल्टा सोचना, उल्टा करना, खुद की गाड़ी चलेगी या नहीं चलेगी, बीमार हुए और मर जाएँगे तो क्या होगा? यह सब आर्तध्यान कहलाता है।

रौद्रध्यान तो आप दूसरों के लिए कल्पना करो कि इसने मेरा नुकसान किया, तो वह सब रौद्रध्यान कहलाता है।

और दूसरों के लिए विचार करें, दूसरों का कुछ न कुछ नुकसान हो ऐसा विचार आया, तो वह रौद्रध्यान हुआ कहलाएगा। मन में विचार आया कि कपड़ा खींचकर देना। तो खींचकर देना कहा तभी से ग्राहकों के हाथ में कपड़ा कम जाएगा, ऐसी कल्पना की और उसके पैसे ज़्यादा मिलेंगे ऐसी कल्पना की, वह रौद्रध्यान कहलाता है। दूसरों का नुकसान करे ऐसा ध्यान, वह रौद्रध्यान कहलाता है।

अब ज़बरदस्त रौद्रध्यान किया हो, लेकिन प्रतिक्रमण से वह आर्तध्यान में परिवॢतत हो जाता है। दो व्यक्तियों ने एक ही तरह का रौद्रध्यान किया, दोनों ने कहा कि, ‘फलाँ को मैं मार डालूँगा।’ ऐसे दो लोगों ने मारने का भाव किया, वह रौद्रध्यान कहलाता है। लेकिन उनमें से एक को घर जाकर पछतावा हुआ कि ‘मैंने ऐसा भाव क्यों किया?’ इसलिए वह आर्तध्यान बन गया और दूसरे भाई को रौद्रध्यान रहा।

अत: पछतावा करने से रौद्रध्यान भी आर्तध्यान बन जाता है। पछतावा करने से नर्कगति रुक जाती है और तिर्यंच गति होती है।

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और यदि अधिक पछतावा करें तो वह धर्मध्यान बन जाता है। एक बार पछतावा करने से आर्तध्यान बन जाएगा और बार-बार पछतावा करता रहे तो धर्मध्यान बन जाएगा। अर्थात् क्रिया वही की वही है, लेकिन ध्यान बदलता रहता है।

प्रश्नकर्ता : हम खुद अलग रहकर प्रतिक्रमण करवाएँ तो वह क्या कहलाएगा?

दादाश्री : ऐसा है न, आप शुद्धात्मा बन गए, लेकिन इस पुद्गल का छुटकारा होना चाहिए न? जब तक उससे प्रतिक्रमण नहीं करवाओगे तब तक छुटकारा नहीं होगा। अर्थात् जब तक पुद्गल को धर्मध्यान में नहीं रखोगे तब तक छुटकारा नहीं होगा। क्योंकि पुद्गल को शुक्लध्यान नहीं हो सकता। इसलिए पुद्गल को धर्मध्यान में रखो। अत: बार-बार प्रतिक्रमण करवाना। जितनी बार आर्तध्यान हो, उतनी बार प्रतिक्रमण करवाना।

आर्तध्यान होना, वह पूर्व की अज्ञानता है इसलिए हो जाता है। तो ‘आप’ उससे प्रतिक्रमण करवाना।

प्रश्नकर्ता : दूसरों के दोष देखने से आर्तध्यान-रौद्रध्यान होता है?

दादाश्री : हाँ, भीतर वह दूसरों के दोष देखने का माल भरकर लाया है, इसलिए ऐसा देखेगा। फिर भी वह खुद दोष में नहीं आता। उसे प्रतिक्रमण करना चाहिए कि ऐसा क्यों होता है? ऐसा नहीं होना चाहिए। बस इतना ही। वह तो जैसा माल भरा हो न, सब वैसा ही निकलेगा। उसे हम सामान्य भाषा में ‘भरा हुआ माल’ कहते हैं।

अब रात को साढ़े ग्यारह बजे दस-बारह लोग आएँ और ‘चंदूभाई हैं क्या?’ ऐसा कहकर आवाज़ दें। तो आप क्या कहोगे? आपके गाँव से आए हो और उनमें से एक-दो आपके जान-पहचानवाले हो, और बाकी के लोग उनके पहचानवाले हो। रात के साढ़े ग्यारह बजे उनके आवाज़ देने पर क्या कहोगे आप उन लोगों से? दरवाजा खोलोगे या नहीं खोलोगे?

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प्रश्नकर्ता : हाँ, खोलेंगे।

दादाश्री : और फिर क्या कहोगे, उन लोगों से? वापस जाइए ऐसा कहोगे?

प्रश्नकर्ता : नहीं, नहीं, वापस जाइए, ऐसा कैसे कह सकते हैं?

दादाश्री : तब क्या कहोगे?

प्रश्नकर्ता : अंदर बुलाएँगे हम। ‘आइए अंदर’।

दादाश्री : ‘आइए, पधारिए, पधारिए।’ अपने संस्कार हैं न? इसलिए ‘आइए, पधारिए’ कहोगे, सभी को सोफासेट पर बिठाओगे। सोफे पर बच्चा सो रहा हो तो जल्दी-जल्दी उठा लोगे और सोफे पर बिठाओगे। लेकिन मन में ऐसा होगा कि, ‘इस समय कहाँ से आ गए ये?!’

अब यह आर्तध्यान नहीं है, रौद्रध्यान है। सामनेवाले व्यक्ति के प्रति भाव बिगाड़ना। आर्तध्यान का मतलब तो खुद अपनी ही पीड़ा को भुगतना। यह तो दूसरों पर ‘ब्लेम’ (आरोप) लगाया कि, ‘इस समय कहाँ से आ गए?’

फिर भी अब आप क्या कहोगे? आपके संस्कार तो छोड़ेंगे नहीं न? धीरे से कहते हो कि, ‘थोड़ी... थोड़ी... थोड़ी...’ अरे लेकिन क्या? तब कहते हो, ‘थोड़ी-सी चाय...’ तब वे ऐसे खुलकर कहनेवाले होते हैं, वे कहेंगे, ‘चंदूभाई, इस समय चाय रहने दो न, अभी खिचड़ी-कढ़ी बना दोगे तो बहुत हो गया।’ अब देखो आपकी घरवाली की हालत! रसोई घर में क्या हो जाएगा?

अब भगवान की आज्ञा क्या है? जिसे मोक्ष में जाना है उसे क्या करना चाहिए? इस समय कहाँ से आ गए, ऐसा भाव आ ही जाएगा किसी को भी। अब तो इस दुषमकाल का दबाव ऐसा है, वातावरण ऐसा है, अत: उसे ऐसा विचार आ ही जाएगा। कोई रईस होगा, उसे भी आ जाएगा।

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अब तू भीतर क्यों ऐसा चित्रित करता है? बाहर अच्छा करता है और भीतर उल्टा चित्रित करता है। अर्थात् आप यह जो अच्छी तरह से बुलाते हैं वह पिछले जन्म का फल भुगत रहे हैं और अगले जन्म का नया कर्म बाँधते हैं। यह अंदर ‘इस समय कहाँ से आ गए’ सोचकर उल्टा कर्म बाँधते हैं।

अत: तब आप भगवान से क्षमा माँगकर कहना कि, ‘भगवान, मेरी भूल हो गई। इस वातावरण के दबाव से बोल दिया गया लेकिन मेरी ऐसी इच्छा नहीं है। वे भले ही रहें।’ ऐसा कहकर आप साफ कर दो। यह आपका पुरुषार्थ कहलाएगा।

ऐसा होगा तो सही, ऐसा तो बड़े-बड़े संयमधारियों को भी हो जाता है। यह काल ही ऐसा विचित्र है। लेकिन यदि आप साफ कर दोगे तो आपको ऐसा फल मिलेगा।

प्रश्नकर्ता : सामान्यत: एक घंटे में पाँच-पचीस अतिक्रमण हो जाते हैं।

दादाश्री : वे इकट्ठा करके करना, एक साथ भी हो सकते हैं। वे सारे प्रतिक्रमण एक साथ कर रहा हूँ, कहना।

प्रश्नकर्ता : वह कैसे करना है? क्या कहना चाहिए?

दादाश्री : ये बहुत सारे अतिक्रमण हो गए इसलिए इन सभी का सामूहिक प्रतिक्रमण करता हूँ। दोष कहकर कि इस दोष के सामूहिक प्रतिक्रमण करता हूँ, कहना तो हल आ जाएगा। और फिर भी बाकी रह जाए तो उसे धो देना। बाद में धो देना। लेकिन उस पर समय मत गँवाना। समय बिगाड़ने से तो सारा का सारा रह जाएगा। उलझन में पड़ने की ज़रूरत नहीं है।

14. निकालें कषाय की कोठरी में से

प्रश्नकर्ता : किसी पर बहुत गुस्सा आ गया और फिर बोलकर बंद हो गए, बाद में यह जो बोलना हुआ उसके लिए बार-बार जी जलता रहे तो उसमें एक से ज़्यादा प्रतिक्रमण करने होंगे?

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दादाश्री : उसमें दो-तीन बार सच्चे दिल से करें और एकदम अच्छी तरह से हुआ तो फिर खत्म हो जाएगा। ‘हे दादा भगवान! भयंकर परेशानी आ गई। ज़बरदस्त क्रोध हुआ। सामनेवाले को कितना दु:ख हुआ! उसके लिए माफ़ी माँगता हूँ, आपकी साक्षी में बहुत ज़बरदस्त माफ़ी माँगता हूँ।’

प्रश्नकर्ता : किसी के साथ ज़रूरत से ज़्यादा विवाद हो गया हो, तो उससे मन में अंतर बढ़ता जाता है। और किसी के साथ कभी एकाध-दो बार विवाद हो गया हो, तो उसमें दो-चार बार, ऐसे अधिक बार प्रतिक्रमण करने होंगे या एक ही बार करेंगे तो सब का आ जाएगा उसमें?

दादाश्री : जितना हो सके उतना करना और अंत में सामूहिक कर देना। बहुत सारे प्रतिक्रमण इकट्ठे हो जाएँ तो सामूहिक प्रतिक्रमण कर लेना कि इन सभी कर्मों के प्रतिक्रमण मुझसे अलग-अलग नहीं हो रहे हैं। इन सभी का साथ में प्रतिक्रमण कर रहा हूँ। आप दादा भगवान से कह देना, वह पहुँच जाएगा।

प्रश्नकर्ता : हम सामनेवाले पर क्रोध करें, फिर तुरंत ही हम प्रतिक्रमण कर लें, फिर भी हमारे क्रोध का असर सामनेवाले व्यक्ति पर से तुरंत तो नाबूद नहीं होगा न?

दादाश्री : वह नाबूद हो या न हो, यह आपको नहीं देखना है। आपको तो आपके ही कपड़े धोकर स्वच्छ रहना है। आपको भीतर अच्छा नहीं लगता फिर भी हो जाता है न?

प्रश्नकर्ता : क्रोध हो जाता है।

दादाश्री : इसलिए आप उसे नहीं देखना, आप प्रतिक्रमण करना। आप कहना कि, ‘चंदूभाई प्रतिक्रमण करो।’ फिर वह जैसे ही कपड़ा बिगड़ेगा, वैसे ही धो डालेगा! बहुत दुविधा में मत पड़ना। वर्ना फिर से बिगड़ जाएगा।

प्रश्नकर्ता : अब निंदा की, तब भले ही उसे जागृति नहीं हो। निंदा हुई या गुस्सा आए उस समय निंदा हो जाती है।

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दादाश्री : उसी को कषाय कहते हैं। कषाय हुआ यानी दूसरे के अंकुश में आ गया। उस समय भले ही वह बोले, लेकिन फिर भी वह जानता है कि ‘यह गलत हो रहा है।’ कभी पता चलता है और कभी बिल्कुल भी पता नहीं चलता, यों ही चला जाता है। फिर थोड़ी देर बाद पता चलता है, इसका मतलब यह है कि जब हुआ उस घड़ी भी ‘जानता’ था।

प्रश्नकर्ता : हमारे ऑफिस में तीन-चार सेक्रेटरी हैं। उनसे कहें कि ऐसे करना है, एक बार, दो बार, चार बार, पाँच बार कहने पर भी वही की वही गलती करते हैं, तब फिर गुस्सा आ जाता है, तो क्या करें उसके लिए?

दादाश्री : आप तो शुद्धात्मा बन गए हैं। अब आपको कहाँ गुस्सा आता है? गुस्सा तो चंदूभाई को आता है। उस चंदूभाई से फिर आप कहना, ‘अब तो दादाजी मिले हैं, ज़रा गुस्सा कम कीजिए न!’

प्रश्नकर्ता : लेकिन उन सेक्रेटरियों में कुछ इम्प्रूवमेन्ट नहीं होता, तो क्या करें उसके लिए? सेक्रेटरी से कुछ कहना तो पड़ेगा न, वर्ना वे तो वैसी की वैसी भूलें करती रहेंगी, वे काम ठीक से नहीं करतीं।

दादाश्री : वह तो आप चंदूभाई से कहना कि ‘उन्हें ज़रा डाँटो, समभाव से निकाल करके डाँटो।’ यों ही नाटकीय रूप से डाँटना कि ऐसा सब करोगी तो तुम्हारी सर्विस कैसे चलेगी, ऐसा सब कहना।

प्रश्नकर्ता : लेकिन उस समय उसे दु:ख होगा और आपने कहा है कि दूसरों को दु:ख नहीं देना।

दादाश्री : दु:ख नहीं होगा। क्योंकि जब आप नाटकीय रूप से बोलोगे तो उन्हें दु:ख नहीं होगा, सिर्फ उनके मन में जागृति आएगी, उनके निश्चय बदल जाएँगे। आप दु:ख नहीं दे रहे हैं। दु:ख तो कब होगा? यदि आपका हेतु दु:ख देने का होगा न कि उन्हें सीधा कर डालूँ, तो उन्हें दु:ख उत्पन्न होगा।

(पृ.५५)

गुस्से का ज्ञाता-दृष्टा रहे तो गुस्सा साफ होकर चला जाएगा। वे परमाणु शुद्ध होकर चले जाएँगे। उतना ही आपका फर्ज़ है।

प्रश्नकर्ता : क्रोध करने के बाद प्रतिक्रमण करें तो वह पुरुषार्थ कहलाएगा या पराक्रम?

दादाश्री : वह पुरुषार्थ कहलाएगा, पराक्रम नहीं कहलाएगा।

प्रश्नकर्ता : तब फिर पराक्रम किसे कहेंगे?

दादाश्री : पराक्रम तो इस पुरुषार्थ से भी आगे जाता है। और यह पराक्रम नहीं है। यह तो जलन हो रही हो और दवाई लगाएँ, उसमें पराक्रम कहाँ से आया? इन सबको जाने, और उस जाननेवाले को जाने, उसका नाम पराक्रम। और प्रतिक्रमण करना, वह पुरुषार्थ कहलाता है। आखिरकार यह प्रतिक्रमण करते-करते शब्दों का पूरा जंजाल कम होता जाएगा। सब कम होता जाएगा अपने आप। नियम से ही सब कम होता जाएगा। कुदरती रूप से सब बंद हो जाएगा। सब से पहले अहंकार जाएगा, बाद में बाकी सब जाएँगे। सब चले जाएँगे अपने-अपने घर। और भीतर ठंडक है, अब भीतर ठंडक है न?

प्रतिक्रमण से सभी कर्म खत्म हो जाते हैं। कर्ता की गैरहाज़िरी है, इसलिए संपूर्ण रूप से खत्म हो जाते हैं। कर्ता की गैरहाज़िरी में ये फल आप भुगत रहे हैं। कर्ता की गैरहाज़िरी में आप भोक्ता हो, इसलिए ये खत्म हो जाएँगे। और इस संसार में लोग कर्ता की हाज़िरी में भोक्ता हैं। इसलिए यदि प्रतिक्रमण करने से उसका कर्म थोड़ा ढीला हो जाएगा, लेकिन खत्म नहीं होगा। फल दिए बिना नहीं रहेगा और आपका तो वह कर्म खत्म ही हो जाएगा।

किसी के दोष नहीं दिखें तो समझना कि सर्वविरती पद है, संसार में रहने पर भी! ऐसा यह ‘अक्रम विज्ञान’ का सर्वविरती पद अलग तरह का है। संसार में बैठकर, सिर में तेल लगाकर, कान में इत्र का फाहा डालकर घूम रहा हो, लेकिन फिर भी उसे किसी का दोष नहीं दिखता।

(पृ.५६)

जो वीतद्वेष (द्वेषरहित) हो गया, वह एकावतारी कहलाता है। वीतद्वेष में जिसे कच्चा रहा हो, उनके दो-चार जन्म होंगे।

15. भाव अहिंसा की राह पर...

प्रश्नकर्ता : मोक्ष में जाने से पहले, किसी भी जीव के साथ लेन-देन हो तो यदि हम उसके प्रतिक्रमण करते रहेंगे तो हमें छुटकारा मिलेगा?

दादाश्री : हाँ।

प्रश्नकर्ता : लेकिन उसके लिए क्या बोलना है?

दादाश्री : जिन-जिन जीवों को मुझसे कुछ भी दु:ख हुआ हो, वे सभी मुझे क्षमा करें।

प्रश्नकर्ता : जीवमात्र?

दादाश्री : जीवमात्र को।

प्रश्नकर्ता : उसमें फिर वायुकाय, तेउकाय सभी जीव आ जाएँगे?

दादाश्री : सभी बोला, इसलिए उसमें सभी आ जाएँगे।

प्रश्नकर्ता : अनजाने में किसी जीव की हिंसा हो जाए तो क्या करें?

दादाश्री : अनजाने में हिंसा हो जाए लेकिन पता चलने पर आपको तुरंत ही पश्चाताप होना चाहिए कि ऐसा नहीं हो। फिर से ऐसा नहीं हो, उसके लिए जागृति रखना, ऐसा अपना उदेश्य रखना। भगवान ने कहा था, किसी को मारना नहीं है ऐसा दृढ़ भाव रखना। किसी जीव को ज़रा सा भी दु:ख नहीं देना है, ऐसी हररोज़ पाँच बार भावना करना। ‘मन, वचन, काया से किसी जीव को किंचित्मात्र दु:ख न हो’ सुबह में ऐसा पाँच बार बोलकर संसारी प्रक्रिया शुरू करना, तो ज़िम्मेदारी कम हो जाएगी। क्योंकि भाव करने का अधिकार है, क्रिया अपनी सत्ता में नहीं है।

प्रश्नकर्ता : भूल से हो गया हो तो भी पाप लगेगा न?

(पृ.५७)

दादाश्री : भूल से अंगारों पर हाथ रख दिया तो क्या होगा?

प्रश्नकर्ता : जल जाएगा।

दादाश्री : छोटा बच्चा नहीं जलेगा?

प्रश्नकर्ता : जलेगा।

दादाश्री : वह भी जलेगा? अर्थात् कुछ भी छोड़ेगा नहीं। अनजाने में करो या जानबूझकर करो, कुछ भी छोड़ेगा नहीं।

प्रश्नकर्ता : किसी महात्मा को ज्ञान के बाद रात में मच्छर काट रहे हो और वह रात में जागकर मारने लगे, तो वह क्या कहलाएगा?

दादाश्री : वह भाव बिगड़ा कहलाएगा। ज्ञान जागृति नहीं कहलाएगी।

प्रश्नकर्ता : वह हिंसक भाव कहलाएगा?

दादाश्री : हिंसक भाव तो क्या, लेकिन जैसा था वैसा हो गया। लेकिन बाद में प्रतिक्रमण करने से धुल जाएगा।

प्रश्नकर्ता : दूसरे दिन फिर से ऐसा ही करे तो?

दादाश्री : अरे, सौ बार करे तो भी प्रतिक्रमण से धुल जाएगा।

मार देने का तो सोचना भी मत। कोई भी जीव ठीक न लगे तो उसे बाहर छोड़ आना। तीर्थंकरों ने ‘मार’ शब्द ही निकाल देने के लिए कहा था। ‘मार’ शब्द का उच्चारण तक मत करना। ‘मार’ जोखिमवाला शब्द है। इतना अधिक अहिंसावाला, परमाणु इतनी हद तक अहिंसक होने चाहिए।

प्रश्नकर्ता : भावहिंसा और द्रव्यहिंसा का फल एक ही प्रकार का आता है?

दादाश्री : भावहिंसा की फोटो दूसरा कोई नहीं देख सकता और जो सिनेमा की तरह यह जो सिनेमा चलता है न, उसे हम देखते

(पृ.५८)

हैं, वह सब द्रव्यहिंसा है। भावहिंसा सूक्ष्म में रहता है और द्रव्यहिंसा तो दिखाई देती है। प्रत्यक्ष, मन-वचन-काया से जो जगत् में दिखाई देता है, वह द्रव्य हिंसा है। आप कहो कि जीवों को बचाना चाहिए। फिर बचे या न बचे, उसके ज़िम्मेदार आप नहीं हो! आप कहो कि इन जीवों को बचाना चाहिए, आपको सिर्फ इतना ही करना है। फिर हिंसा हो गई, उसके ज़िम्मेदार आप नहीं हो! हिंसा हो गई उसका पछतावा, उसका प्रतिक्रमण करना, फिर सारी ज़िम्मेदारी चली गई।

प्रश्नकर्ता : आपकी किताब में पढ़ा है कि, ‘मन, वचन, काया से किसी जीव को किंचित्मात्र दु:ख नहीं हो’ लेकिन हम तो किसान हैं, इसलिए जब तंबाकू की फसल उगाते हैं, तब हमें प्रत्येक पौधे की कोंपल, यानी उसकी गरदन तोड़नी ही पड़ती है। तो इससे उसे दु:ख तो हुआ न? उसका पाप तो लगेगा ही न? इस तरह लाखों पौधों की गरदनें कुचल देते हैं। तो इस पाप का निवारण किस तरह करें?

दादाश्री : वह तो भीतर मन में ऐसा होना चाहिए कि ऐसा व्यवसाय मेरे हिस्से में कहाँ से आया? बस इतना ही। पौधे की कोंपल निकाल देना लेकिन मन में पश्चाताप होना चाहिए कि ‘ऐसा व्यवसाय मेरे हिस्से में कहाँ से आया। ऐसा नहीं करना चाहिए’, ऐसा मन में होना चाहिए, बस।

प्रश्नकर्ता : लेकिन यह पाप तो है ही न?

दादाश्री : वह तो है ही। वह आपको नहीं देखना है। जो हो रहा है, उस पाप को नहीं देखना। ‘यह नहीं होना चाहिए’, ऐसा आप तय करना, निश्चय करना चाहिए। यह व्यवसाय क्यों मिला? दूसरा अच्छा काम मिला होता तो आप ऐसा नहीं करते। पहले पश्चाताप नहीं होता था। जब तक यह जाना नहीं था, तब तक पश्चाताप नहीं होता था। खुश होकर पौधे को उखाड़कर फेंक देते थे। आपको समझ में आता है? हमारे कहे अनुसार करना न। आपकी सारी ज़िम्मेदारी हमारी। पौधा उखाड़कर फेंक दो, उसमें हर्ज नहीं है, पश्चाताप होना चाहिए कि यह मेरे हिस्से में कहाँ से आया?

(पृ.५९)

खेतीबाड़ी में जीव-जंतु मरते हैं, उसका दोष तो लगेगा न। इसलिए खेतीबाड़ीवालों को प्रतिदिन पाँच-दस मिनट भगवान से प्रार्थना करनी चाहिए कि ‘ये दोष हुए उनके लिए माफ़ी माँगता हूँ।’ किसान से कहते हैं कि तू यह व्यवसाय करता है उसमें जीव मरते हैं, उसके लिए इस तरह प्रतिक्रमण करना। तू जो गलत कर रहा है उसमें मुझे हर्ज नहीं है। लेकिन उसके लिए तू इस तरह प्रतिक्रमण कर।

प्रश्नकर्ता : आपने वह वाक्य कहा था न कि ‘किसी भी जीव को मन, वचन, काया से दु:ख न हो।’ सुबह में इतना बोलें तो चलेगा या नहीं चलेगा?

दादाश्री : वह पाँच बार बोलें, लेकिन वह इस तरह बोलना चाहिए कि पैसे गिनते समय जैसी स्थिति होती है, उस तरह बोलना चाहिए। रुपये गिनते समय जैसा चित्त होता है, जैसा अंत:करण होता है, वैसा बोलते समय रखना पड़ेगा।

16. दु:खदायी बैर की वसूली...

प्रश्नकर्ता : हम प्रतिक्रमण न करें तो फिर कभी सामनेवाले के पास चुकाने के लिए जाना पड़ेगा न?

दादाश्री : नहीं, उसे चुकाना नहीं है। आप बंधन में रहोगे। सामनेवाले से आपको कुछ लेना-देना नहीं है।

प्रश्नकर्ता : लेकिन हमें चुकाना पड़ेगा न?

दादाश्री : अत: आप ही बंधन में है, इसलिए आपको प्रतिक्रमण करना चाहिए। प्रतिक्रमण से मिट जाएगा। इसीलिए तो आपको हथियार दिया है न, प्रतिक्रमण!

प्रश्नकर्ता : हम प्रतिक्रमण करें और बैर छोड़ दें लेकिन सामनेवाला बैर रखे तो?

दादाश्री : भगवान महावीर पर कितने सारे लोग राग करते थे और द्वेष रखते थे, उसमें महावीर को क्या? वीतराग को कुछ भी

(पृ.६०)

स्पर्श नहीं करता। वीतराग यानी शरीर पर तेल लगाए बिना बाहर घूमते हैं और बाकी सब तेल लगाकर घूमते हैं। तेलवालों पर धूल चिपकती है।

प्रश्नकर्ता : दो व्यक्तियों के बीच जो बैर बंधता है, राग-द्वेष होता है, अब उसमें मैं खुद प्रतिक्रमण करके मुक्त हो जाऊँ, लेकिन दूसरा व्यक्ति अगर बैर नहीं छोड़े, तो फिर से वह अगले जन्म में आकर उस राग-द्वेष का हिसाब पूरा करेगा? क्योंकि उसने तो उसका बैर जारी ही रखा है न?

दादाश्री : प्रतिक्रमण से उसका बैर कम हो जाएगा। एक बार में प्याज़ की एक परत जाएगी, दूसरी परत, जितनी परतें होंगी उसकी, उतनी जाएँगी। समझ में आया आपको?

प्रश्नकर्ता : प्रतिक्रमण करते हैं, उसी समय अतिक्रमण होने लगे तब क्या करना चाहिए?

दादाश्री : फिर थोड़ी देर बाद करना। आप आतिशबाज़ी बुझाने गए तभी फिर एक पटाका फूटा तो आप फिर से जाना। वापस थोड़ी देर बाद बुझाना। ये पटाके तो फूटते ही रहेंगे। उसी को संसार कहते हैं।

वह कुछ उल्टा करे, अपमान करे फिर भी हम रक्षा करते हैं। एक भाई मेरा विरोध करने लगे थे। मैंने सभी से कहा, एक अक्षर भी उल्टा मत सोचना। और उल्टा विचार आए तो प्रतिक्रमण करना। वे अच्छे आदमी हैं लेकिन वे लोग किसके अधीन हैं? कषाय के अधीन है। वे आत्मा के अधीन नहीं हैं। जो आत्मा के अधीन ही हो वह इस तरह से सामने नहीं बोलेगा। अत: कषाय के अधीन हो चुका मनुष्य किसी भी तरह का गुनाह करे तो वह माफ करने योग्य है। वह खुद के अधीन ही नहीं है बेचारा! वह कषाय करे उस समय आपको डोरी ढीली छोड़ देनी चाहिए। वर्ना उस घड़ी सब उल्टा ही कर देगा। कषाय के अधीन यानी उदयकर्म के अधीन। जैसा उदय होगा, वैसे ही घूमेगा।

(पृ.६१)

17. वारण, मूल कारण अभिप्राय के लिए

सामनेवाला कैसे भी, अच्छे भाव से या बुरे भाव से आपके पास आया हो, लेकिन उसके साथ कैसा व्यवहार करना वह आपको देखना है। सामनेवाले की प्रकृति टेढ़ी हो तो उस टेढ़ी प्रकृति के साथ माथापच्ची नहीं करनी चाहिए। प्रकृति से ही यदि वह चोर हो, आप दस साल से उसकी चोरी देख रहे हों और वह आकर आपके पैर छूने लगे तो क्या आपको उस पर विश्वास रखना चाहिए? नहीं, चोरी करनेवाले को आप क्षमा कर देना कि तू जा, तुझे छोड़ दिया, हमारे मन में तेरे लिए कुछ नहीं है, लेकिन उस पर विश्वास नहीं रख सकते और उसका फिर संग भी नहीं रख सकते। इसके बावजूद संग रखा और फिर विश्वास नहीं रखोगे तो वह भी गुनाह है। वास्तव में संग रखना ही मत और रखो तो उसके लिए पूर्वग्रह नहीं रहना चाहिए। जो होगा वह सही ऐसा रखना चाहिए।

प्रश्नकर्ता : फिर भी उल्टा अभिप्राय बन जाए तो क्या करना चाहिए?

दादाश्री : हो जाए तो माफ़ी माँग लेना। जिसके लिए उल्टा अभिप्राय बन गया हो, उसी से माफ़ी माँग लेना।

प्रश्नकर्ता : अच्छा अभिप्राय देना चाहिए या नहीं?

दादाश्री : कोई भी अभिप्राय मत देना। और अगर दे दिया तो उसे मिटा देना। मिटाने का साधन हैं आपके पास। आलोचना-प्रतिक्रमण-प्रत्याख्यान का ‘अमोघ शस्त्र’।

प्रश्नकर्र्ता : गाढ़ अभिप्राय कैसे मिटाए?

दादाश्री : जब से तय किया कि मिटाने हैं, तब से वे मिटने शुरू हो जाएँगे। जो बहुत गाढ़ हो उन्हें प्रतिदिन दो-दो घंटे उखाड़ते रहें तो वे मिट जाएँगे। आत्म प्राप्ति के बाद पुरुषार्थ धर्म प्राप्त हुआ कहलाए और पुरुषार्थ धर्म पराक्रम तक पहुँच सके, जो कैसी भी

(पृ.६२)

अटकण (जो बंधनरूप हो जाए, आगे नहीं बढऩे दे) को उखाड़कर फेंक सके। लेकिन एक बार समझ लेना चाहिए कि इस कारण से यह उत्पन्न हुआ है, फिर उसके प्रतिक्रमण करना।

अभिप्राय न बन जाए, इतना ही ज़रा देखना चाहिए। सब से ज़्यादा संभालना है अभिप्राय के लिए। और कोई हर्ज नहीं है। किसी को देखने से पहले ही अभिप्राय बन जाए, यह संसार जागृति इतनी ज़्यादा है कि अभिप्राय बन जाते हैं। अत: अभिप्राय होते ही उसे मिटा देना। अभिप्राय के बारे में बहुत सावधान रहने की ज़रूरत है। अर्थात् अभिप्राय बनेंगे ज़रूर, लेकिन तुरंत आपको मिटा देने चाहिए। प्रकृति अभिप्राय बनाती है और प्रज्ञाशक्ति अभिप्राय से छुड़़वाती रहती है। प्रकृति अभिप्राय बनाती रहेगी, कुछ समय तक बनाती ही रहेगी लेकिन आप उन्हें मिटाते रहना। अभिप्राय बन गए उसी का तो यह सब झंझट है।

प्रश्नकर्ता : अभिप्राय बन जाए तो उसे कैसे मिटाए?

दादाश्री : अभिप्राय मिटाने के लिए आपको क्या करना चाहिए कि, ‘इस व्यक्ति के लिए मेरा ऐसा अभिप्राय बन गया है, यह गलत है, हम ऐसा कैसे मान सकते हैं?’ ऐसा कहने पर अभिप्राय मिट जाएगा। आप जाहिर करो कि ‘यह अभिप्राय गलत है।’ इस व्यक्ति के लिए क्या ऐसा अभिप्राय रखना चाहिए भला? यह आप कैसा कर रहे हो? इस तरह उस अभिप्राय को गलत करार दिया, तो वह मिट जाएगा।

प्रतिक्रमण नहीं करोगे तो आपका अभिप्राय हमेशा बना रहेगा, जिससे आप बंधन में रहें। जो दोष हुआ उसमें आपका अभिप्राय रहा। यह प्रतिक्रमण करोगे तो आपका अभिप्राय टूट गया। अभिप्रायों से ही मन उत्पन्न हुआ है। देखिए, मुझे किसी मनुष्य के लिए कोई भी अभिप्राय नहीं है, क्योंकि एक ही बार देख लेने के बाद मैं अभिप्राय बदलता नहीं हूूँ। कोई मनुष्य संयोगानुसार चोरी करे, और मैं खुद देखूँ तो भी मैं उसे चोर नहीं कहूँगा, क्योंकि संयोगानुसार है। जगत् के

(पृ.६३)

लोग क्या कहते हैं कि जो पकड़ा गया उसे चोर कहते हैं। संयोगानुसार था या हमेशा से चोर था, लोग ऐसी कुछ परवाह नहीं करते। मैं तो, जो हमेशा से चोर है, उसे चोर कहता हूँ। और संजोगानुसारवाले को मैं चोर नहीं कहता। अर्थात् मैं तो, यदि एक अभिप्राय बन जाए, फिर अभिप्राय बदलता ही नहीं। किसी भी व्यक्ति के लिए मैंने आज तक अभिप्राय बदला ही नहीं।

आप शुद्ध हो गए और चंदूभाई को शुद्ध करना, यह आपका फर्ज है। यह पुद्गल क्या कहता है कि भाई, हम शुद्ध ही थे। आपने भाव करके हमें बिगाड़ा और इस स्थिति तक हमें बिगाड़ा। वर्ना हममें लहू, पीब, हड्डियाँ कुछ भी नहीं था। हम शुद्ध थे, आपने हमें बिगाड़ा। इसलिए आपको अगर मोक्ष में जाना हो तो सिर्फ आपही शुद्ध हो गए उससे नहीं चलेगा। हमें शुद्ध करोगे तभी आपका छुटकारा होगा।

18. जो विषय को जीत ले, वह राजाओं का राजा

प्रश्नकर्ता : एक बार विषय का बीज पड़ गया हो, तो वह रूपक में तो आएगा ही न?

दादाश्री : बीज पड़ ही जाता है। वह रूपक में आएगा लेकिन जब तक उसकी जड़ें नहीं जमी हैं, तब तक कम-ज़्यादा हो सकता है। यानी मरने से पहले वह शुद्ध हो सकता है।

इसीलिए हम विषय के दोषवालों से कहते हैं कि विषय के दोष हुए हों, अन्य दोष हुए हों, तो तू इतवार के दिन उपवास करना और पूरे दिन यही सोच-विचार कर उसे बार-बार धोते रहना। ऐसे आज्ञापूर्वक करे न तो कम हो जाएगा।

अभी सिर्फ आँखों को संभाल लेना। पहले तो बहुत सख़्त लोग थे, आँखें फोड़ डालते थे। आपको आँखें नहीं फोड़नी है। वह मूर्खता है। आपको आँखें हटा देनी है। इसके बावजूद देख लिया तो प्रतिक्रमण कर लेना। एक मिनट के लिए भी प्रतिक्रमण मत चूकना। खाने-पीने में उल्टा हो गया होगा तो चलेगा। संसार का सब से बड़ा रोग ही

(पृ.६४)

यह है। इसी वजह से संसार खड़ा रहा है। इसकी जड़ों पर संसार खड़ा है। यही उसकी जड़ है।

हक़ का खाए तो मनुष्य में आएगा, अणहक्क का खाए तो जानवर में जाएगा।

प्रश्नकर्ता : हमने अणहक्क का तो खाया है।

दादाश्री : खाया है तो अब प्रतिक्रमण करो, अभी भी भगवान बचा लेंगे। अभी भी देरासर (मंदिर) में जाकर पश्चाताप करो। अणहक्क का खा लिया हो तो अब पश्चाताप करो, अभी जीवित हो। इस देह में हो तब तक पश्चाताप करो।

प्रश्नकर्ता : एक डर लगा, अभी आपने कहा कि सत्तर प्रतिशत लोग वापस चार पैर में जानेवाले हैं तो अभी भी हमारे पास अवकाश है या नहीं?

दादाश्री : नहीं, नहीं। अवकाश नहीं रहा है, इसलिए अब सावधानी रखो कुछ...

प्रश्नकर्ता : महात्माओं की बात कर रहे हैं।

दादाश्री : महात्मा, यदि मेरी आज्ञा में रहें तो उनका कोई नाम देनेवाला नहीं है इस दुनिया में।

इसलिए लोगों से क्या कहता हूँ कि अभी भी सावधान हो सको तो हो जाओ। अभी भी माफ़ी माँग लोगे तो माफ़ी माँगने का रास्ता है।

किसी रिश्तेदार को हमने इतनी लंबी चिट्ठी लिखी हो, और अंदर हमने बहुत सारी गालियाँ लिखी हों, पूरी चिट्ठी सिर्फ गालियों से ही भरी हो, और फिर नीचे लिखें कि आज वाइफ के साथ झगड़ा हो गया है, इसलिए आपको ऐसा लिख दिया है लेकिन मुझे क्षमा कर देना। तो सारी गालियाँ मिट जाएँंगी या नहीं मिट जाएँगी? अर्थात् पढऩेवाला सारी गालियाँ पढ़ेगा, खुद गालियाँ स्वीकार भी करेगा और फिर माफ़ भी करेगा! यानी ऐसी यह दुनिया है। इसलिए हम तो कहते

(पृ.६५)

हैं न कि माफ़ी माँग लेना, आपके ईष्टदेव से माँग लेना। और नहीं तो मुझसे माँग लेना। मैं आपको माफ़ करवा दूँगा। लेकिन बहुत विचित्र काल आ रहा है और उसमें चंदूभाई भी अपनी मनमानी करते हैं। उसका अर्थ ही नहीं है न! ज़िम्मेदारी से भरा हुआ जीवन! इसलिए सत्तर प्रतिशत तो मैं डरते-डरते कहता हूँ। अभी भी सावधान होना हो तो हो जाना। आपको यह आखिरी भरोसा दे रहे हैं। भयंकर दु:ख! अभी भी प्रतिक्रमण रूपी हथियार दे रहे हैं। प्रतिक्रमण करोगे तो अभी भी बचने का कुछ अवकाश है और हमारी आज्ञा से करोगे तो आपका तुरंत कल्याण हो जाएगा। पाप भुगतने पड़ेंगे लेकिन इतने सारे नहीं।

हज़ारों लोगों की उपस्थिति में कोई कहे कि, ‘चंदूभाई में अक्ल नहीं है।’ तब आपको आशीर्वाद देने का मन हो कि ‘ओहोहो! हम जानते थे कि चंदूभाई में अक्ल नहीं है लेकिन यह तो वे भी जानते हैं’, तब जुदापन रहेगा!

इस चंदूभाई को हम रोज़ बुलाते हैं कि ‘आइए चंदूभाई, आइए!’ और फिर एक दिन नहीं बुलाते, उसका क्या कारण है? उन्हें विचार आएगा कि आज मुझे आगे नहीं बुलाया। हम उसे चढ़ाते हैं, गिराते हैं, चढ़ाते हैं और गिराते हैं, इस तरह करते-करते वह ज्ञान प्राप्त करता है। हमारी प्रत्येक क्रियाएँ ज्ञान प्राप्त करने के लिए हैं। प्रत्येक के साथ अलग-अलग रहती हैं, उसकी प्रकृति निकल ही जानी चाहिए न! प्रकृति तो खत्म करनी ही पड़ेगी। पराई चीज़ कब तक हमारे पास रहेगी?

प्रश्नकर्ता : सच बात है, प्रकृति खत्म किए बिना छुटकारा ही नहीं है।

दादाश्री : हं। हमारी तो कुदरत ने खत्म कर दी, हमारी तो ज्ञान से खत्म हुई। और आपकी तो हम खत्म कर देंगे तभी, निमित्त हैं न!

19. झूठ के आदी को

प्रश्नकर्ता : हमने अगर झूठ बोला हो तो वह भी कर्म बाँधा कहलाएगा न?

(पृ.६६)

दादाश्री : बिल्कुल! लेकिन झूठ बोले हो, उसके बजाय झूठ बोलने का भाव करते हो, वह भारी कर्म कहलाएगा। झूठ बोलना वह तो कर्म फल है। झूठ बोलने का भाव ही, झूठ बोलने का हमारा निश्चय, वह कर्म बाँधता है। आपकी समझ में आया? यह वाक्य आपकी कुछ हेल्प करेगा? क्या हेल्प करेगा?

प्रश्नकर्ता : झूठ बोलने से रुकना चाहिए।

दादाश्री : नहीं, झूठ बोलने का अभिप्राय ही छोड़ देना चाहिए। और झूठ बोल दिया तो पश्चाताप करना चाहिए कि ‘क्या करूँ? ऐसे झूठ नहीं बोलना चाहिए।’ लेकिन झूठ बोलना बंद नहीं होगा, लेकिन वह अभिप्राय बंद हो जाएगा। ‘अब आज से झूठ नहीं बोलूँगा, झूठ बोलना वह महापाप है, महा दु:खदायी है, और झूठ बोलना वही बंधन है।’ ऐसा अभिप्राय यदि आपका हो गया तो आपके झूठ बोलने से संबंधित सभी पाप बंद हो जाएँगे।

रिलेटिव धर्म कैसा होना चाहिए? कि झूठ बोल दिया तो बोलो, लेकिन उसका प्रतिक्रमण करो।

20. जागृति, वाणी निकले तब...

मन की उतनी परेशानी नहीं है, वाणी की परेशानी है। क्योंकि मन तो गुप्त प्रकार से चलता है, लेकिन वाणी तो सामनेवाले की छाती में घाव करती है। इसलिए इस वाणी से जिन-जिन लोगों को दु:ख हुआ हो उन सभी की क्षमा माँगता हूँ, इस तरह प्रतिक्रमण कर सकते हो।

प्रश्नकर्ता : प्रतिक्रमण से वाणी के सारे दोष माफ़ हो जाएँगे न?

दादाश्री : दोषों का अस्तित्व रहेगा, लेकिन जली हुई रस्सी के समान रहेगा। यानी अगले जन्म में यों किया कि सब झड़ जाएँगे, प्रतिक्रमण से। उसमें से सत्व उड़ जाएगा सारा।

कर्ता का आधार रहेगा तो कर्म बंधेंगे। अब आप कर्ता नहीं हो, अब पिछले कर्म जो थे, वे फल देकर जाएँगे। नए कर्म नहीं बंधेगे।

(पृ.६७)

प्रश्नकर्ता : मनुष्य अकुलाकर बोले वह अतिक्रमण नहीं हुआ?

दादाश्री : अतिक्रमण ही कहलाएगा।

प्रश्नकर्ता : किसी को दु:ख हो ऐसी वाणी निकल गई और उसका प्रतिक्रमण नहीं किया तो क्या होगा?

दादाश्री : ऐसी वाणी निकल गई, तब उससे तो सामनेवाले को आघात लगेगा, इससे उसे दु:ख होगा। सामनेवाले को दु:ख हो वह आपको कैसे अच्छा लगेगा?

प्रश्नकर्ता : उससे बंधन होगा?

दादाश्री : यह नियम से विरुद्ध कहलाएगा न? नियम के विरुद्ध है न? नियम के विरुद्ध तो होना ही नहीं चाहिए न? हमारी आज्ञा का पालन करो, वह धर्म कहलाएगा। और प्रतिक्रमण करने में नुकसान क्या है आपको? माफ़ी माँग लो और फिर से ऐसा नहीं करूँगा, ऐसे भाव भी रखना है। बस इतना ही। संक्षेप में कर देना है। उसमें भगवान क्या करें? उसमें न्याय कहाँ देखना होता है? यदि व्यवहार को व्यवहार समझा, तो न्याय समझ गया! पड़ोसी उल्टा क्यों बोल गए? क्योंकि आपका व्यवहार ऐसा था इसलिए। और आपसे उल्टी वाणी निकल जाए तो वह सामनेवाले के व्यवहार के अधीन है। लेकिन हमें तो मोक्ष चाहिए, इसलिए उसका प्रतिक्रमण कर लेना चाहिए।

प्रश्नकर्ता : सामनेवाला उल्टा बोले तब आपके ज्ञान से समाधान रहता है, लेकिन मुख्य सवाल यह है कि, हमसे कडुआ निकलता है, उस समय हम ‘वाणी पर है और पराधीन है’ इस वाक्य का आधार लें तो हमें उल्टा लाइसेन्स मिल जाता है।

दादाश्री : इस वाक्य का आधार ले ही नहीं सकते। उस समय तो आपको प्रतिक्रमण का आधार दिया है। सामनेवाले को दु:ख हो ऐसा बोल दिया हो तो प्रतिक्रमण कर लेना।

और जब सामनेवाला कुछ भी बोले, तब वाणी पर है और

(पृ.६८)

पराधीन है, उसे स्वीकार किया, तो आपको सामनेवाले का दु:ख रहा ही नहीं न?

प्रश्नकर्ता : परमार्थ हेतु थोड़ा झूठ बोले तो उसका दोष लगेगा?

दादाश्री : परमार्थ अर्थात् आत्मा के लिए जो कुछ भी करते हैं, उसमें दोष नहीं लगेगा और देह के लिए जो कुछ भी करते हैं, गलत किया तो दोष लगेगा और अच्छा किया तो गुण लगेगा। आत्मा के लिए जो कुछ भी किया जाए उसमें परेशानी नहीं है। हाँ, आत्महेतु हो, उससे संबंधित जो-जो कार्य हों, उसमें कोई दोष नहीं है। सामनेवाले को आपके निमित्त से दु:ख पहुँचे तो दोष लगता है।

प्रश्नकर्ता : प्रतिक्रमण का असर नहीं होने का क्या कारण है? हमने पूूरे भाव से नहीं किया या सामनेवाले व्यक्ति के आवरण है?

दादाश्री : आपको सामनेवाले व्यक्ति का नहीं देखना है। वह तो शायद पागल भी हो। आपके निमित्त से उसे दु:ख नहीं होना चाहिए, बस!

प्रश्नकर्ता : अर्थात् किसी भी तरह उसे दु:ख हो जाए तो हमें उसका समाधान करने का प्रयत्न करना चाहिए।

दादाश्री : उसे दु:ख हो जाए तो समाधान तो अवश्य करना चाहिए। वह हमारी रिस्पोन्सिबिलिटि है। हाँ, दु:ख नहीं हो उसके लिए तो हमारी लाइफ है।

प्रश्नकर्ता : लेकिन मान लीजिए कि ऐसा करने पर भी सामनेवाले को समाधान नहीं होता हो, तो फिर खुद की ज़िम्मेदारी कितनी?

दादाश्री : यदि हो सके तो रूबरू जाकर आँखों में नरमी दिखाना। फिर भी ऐसे माफ़ी माँगने पर यदि ऊपर से चपत लगाए तो समझ जाना कि यह हल्के वर्ग से है। फिर भी निकाल करना है। माफ़ी माँगने पर अगर चपत लगाए तो समझना कि इसके साथ गलती तो हुई है, लेकिन आदमी है हल्के वर्ग का इसलिए झुकना बंद कर दो।

(पृ.६९)

प्रश्नकर्ता : हेतु अच्छा हो तो फिर प्रतिक्रमण क्यों करना चाहिए?

दादाश्री : प्रतिक्रमण तो करना पड़ेगा, उसे दु:ख होता है न। और व्यवहार में लोग कहेंगे कि ‘देखिए ये बहन अपने पति को कैसे धमका रही है।’ फिर प्रतिक्रमण करना पड़ेगा। जो आँखों से दिखाई दे उसका प्रतिक्रमण करना है। अंदर आपका हेतु सोने जैसा हो, लेकिन किस काम का? नहीं चलेगा वह हेतु। हेतु बिल्कुल सोने जैसा हो फिर भी हमें प्रतिक्रमण करना पड़ेगा। गलती होते ही प्रतिक्रमण करना पड़ेगा। ये सभी महात्माओं की इच्छा हैं। अब जगत् कल्याण करने की भावना है। हेतु अच्छा है लेकिन फिर भी नहीं चलेगा। प्रतिक्रमण तो पहले करना होगा। कपड़ों पर दाग़ लगता है तो धो डालते हो न? उसी तरह ये भी कपड़ों पर लगे हुए दाग़ हैं।

प्रश्नकर्ता : व्यवहार में कोई गलत कर रहा हो तो उसे टोकना पड़ता है। इससे उसे दु:ख होता है, तो कैसे उसका निकाल करना चाहिए?

दादाश्री : व्यवहार में टोकना पड़ता है, लेकिन उसमें अहंकार सहित होता है इसलिए उसका प्रतिक्रमण करना चाहिए।

प्रश्नकर्ता : टोकेंगे नहीं तो वह सिर पर चढ़ जाएँगे?

दादाश्री : टोकना तो पड़ेगा, लेकिन कहना आना चाहिए। कहना नहीं आता, व्यवहार नहीं आता, इसलिए अहंकार सहित टोक देते हैं। इसलिए बाद में उसका प्रतिक्रमण करना है। आप सामनेवाले को टोकोगे तो इससे उसे बुरा तो लगेगा, लेकिन बार-बार उसका प्रतिक्रमण करोगे तो छ: महीने, बारह महीने में वाणी ऐसी निकलेगी कि सामनेवाले को मीठी लगेगी।

अब हम भी किसी का मज़ाक करते हैं तो उसके भी हमें प्रतिक्रमण करने पड़ते हैं। हमारा ऐसे नहीं चल सकता।

प्रश्नकर्ता : वह तो मनोरंजन है। ऐसा तो होता रहता है।

दादाश्री : नहीं, लेकिन फिर भी हमें प्रतिक्रमण करने पड़ते

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हैं। आप नहीं करोगे तो चलेगा। लेकिन हमें तो करने पड़ेंगे। वर्ना हमारा यह ज्ञान, यह टेपरिकॉर्ड बजता है (जो वाणी निकलती है) न, वह फिर धुँधला निकलेगा।

बाकी, मैंने हर तरह के मज़ाक किए थे। हमेशा हर तरह का मज़ाक कौन कर सकता है? बहुत टाइट ब्रेन (तेज दिमाग़) हो, वह कर सकता है। मैं तो मौज में आकर सभी का मज़ाक किया करता था। अच्छे-अच्छे लोगों का, बड़े-बड़े वकीलों का, डॉक्टरों का मज़ाक उड़ाता था। अब, वह सारा अहंकार तो गलत ही था न! वह हमारी बुद्धि का दुरुपयोग किया न! मज़ाक उड़ाना वह बुद्धि की निशानी है।

प्रश्नकर्ता : मज़ाक उड़ाने में क्या-क्या जोखिम है? किस तरह के जोखिम है?

दादाश्री : ऐसा है कि किसी को थप्पड़ मारा हो और इससे जो जोखिम आए उससे अनेक गुना जोखिम मज़ाक उड़ाने में है। उसकी बुद्धि नहीं पहुँच पा रही थी, इसलिए आपने उसे आपकी बुद्धि की लाइट से खुद के क़ब्ज़े में किया।

प्रश्नकर्ता : जिसे नया टेप नहीं करना हो, उसके लिए कौन सा रास्ता है?

दादाश्री : कोई भी स्पंदन मत होने देना। सबकुछ देखते ही रहना। लेकिन ऐसा होता नहीं है न! यह भी मशीन ही है और पराधीन भी है। इसलिए हम दूसरा रास्ता दिखाते हैं कि टेप हो जाए तो तुरंत मिटा दोगे तो चलेगा। यह प्रतिक्रमण तो मिटाने का साधन है। इससे एकाध जन्म में परिवर्तन होने के बाद इस तरह सब बोलना बंद हो जाएगा।

प्रश्नकर्ता : शुद्धात्मा का लक्ष्य होने के बाद निरंतर प्रतिक्रमण चलते ही रहते हैं।

दादाश्री : इसलिए आपकी ज़िम्मेदारी नहीं रहेगी। जो कुछ

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बोलोगे उसका प्रतिक्रमण करोगे तो जिम्मेदारी नहीं रहेगी। कड़ा बोलना लेकिन राग-द्वेष रहित बोलना। कड़ा बोल दिया गया तो तुरंत प्रतिक्रमण कर लेना।

मन-वचन-काया का योग, भावकर्म-द्रव्यकर्म-नोकर्म, चंदूभाई और चंदूभाई के नाम की सर्व माया से भिन्न ऐसे शुद्धात्मा को याद करके कहना, ‘हे शुद्धात्मा भगवान! मैंने ऊँची आवाज में बोल दिया, वह भूल हो गई। इसलिए उसकी माफ़ी माँगता हूँ। और वह भूल अब फिर से नहीं करूँगा ऐसा निश्चय करता हूँ। ऐसी भूल नहीं करने की शक्ति दीजिए।’ शुद्धात्मा को याद किया अथवा दादा को याद किया और कहा कि, यह भूल हो गई यह आलोचना और उस भूल को धो डालना वह प्रतिक्रमण और ऐसी भूल फिर से नहीं करूँगा ऐसा निश्चय करना, वह प्रत्याख्यान है।

प्रश्नकर्ता : प्रतिक्रमण करने के बाद हमारी वाणी बहुत अच्छी हो जाएगी, इसी जन्म में?

दादाश्री : उसके बाद तो, कुछ और ही तरह की होगी। हमारी वाणी सब से उच्च प्रकार की निकलती है, उसका कारण प्रतिक्रमण ही है और निर्विवादी है, उसका कारण भी प्रतिक्रमण ही है। वर्ना विवाद ही होता है। सर्वत्र विवादी वाणी ही होती है। व्यवहारशुद्धि के बगैर स्याद्वाद वाणी निकलेगी ही नहीं। पहले व्यवहारशुद्धि होनी चाहिए।

21. छूटें प्रकृति दोष इस तरह...

इस सत्संग का पोइज़न पीना अच्छा है लेकिन बाहर का अमृत पीना गलत है। क्योंकि यह पोइज़न प्रतिक्रमणवाला है। हम ज़हर के सारे प्याले पीकर महादेवजी बने हैं।

प्रश्नकर्ता : आपके पास आने की बहुत सोचते हैं लेकिन आ नहीं पाते।

दादाश्री : आपके हाथ में सत्ता क्या है? आने की सोचते हो, लेकिन आ नहीं पाते तो उसके लिए मन में खेद रहना चाहिए। आप

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उसे कहना कि चंदूभाई प्रतिक्रमण करो, जल्दी हल निकलेगा। नहीं जा पाते उसके लिए प्रतिक्रमण करो। प्रत्याख्यान करो कि ऐसी भूल-चूक हुई। अब फिर से भूल-चूक नहीं करूँगा।

और अभी जो भाव आते हैं वे भाव क्यों ज़्यादा आते हैं? और कार्य नहीं होता। भाव आने की वजह यह है कि कमिंग इवेन्टस कास्ट देर शेडोज़ बिफोर। ये सभी बातें होनेवाली है।

प्रश्नकर्ता : चिंता हो जाती है। उसका प्रतिक्रमण कैसे करना चाहिए?

दादाश्री : ‘मेरे अहंकार के कारण चिंता होती है। मैं उसका कर्ता थोड़े ही हूँ? इसलिए दादा भगवान! क्षमा कीजिए।’ ऐसा कुछ तो करना पड़ेगा न? उसके बिना चल सकता है क्या?

प्रश्नकर्ता : ‘बहुत ठंड पड़ रही है, बहुत ठंड पड़ रही है’ हम अगर ऐसा कहें तो वह कुदरत के विरुद्ध बोले तो क्या उसका प्रतिक्रमण करना चाहिए?

दादाश्री : नहीं, प्रतिक्रमण तो जहाँ राग-द्वेष हो रहे हों, ‘फाइल’ हो, वहाँ करने हैं। कढ़ी खारी हो तो उसका प्रतिक्रमण नहीं करना है, लेकिन जिसने खारी बनाई, उसका प्रतिक्रमण करना है। प्रतिक्रमण से सामनेवाले की परिणति बदलती है।

कहीं पेशाब करने गया वहाँ एक चींटी बह गई तो मैं प्रतिक्रमण करता हूँ। हम उपयोग नहीं चूकते। बह गई वह ‘डिस्चार्ज’ रूप है लेकिन उस समय अतिक्रमण दोष क्यों हुआ? जागृति मंद क्यों हुई? उसका दोष लगता है।

पढ़ते समय पुस्तक को नमस्कार करके कहना कि, ‘दादाजी, मुझे पढऩे की शक्ति दीजिए।’ और यदि कभी भूल गए तो उपाय करना। दो बार नमस्कार करना और कहना कि ‘दादा भगवान, मेरी इच्छा नहीं थी, फिर भी भूल गया, इसलिए उसकी माफ़ी माँगता हूँ। अब फिर से ऐसा नहीं करूँगा।’

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समय पर विधि करना भूल जाओ और बाद में याद आए तो प्रतिक्रमण करके बाद में करना।

‘डिस्चार्ज’ में जो अतिक्रमण हुए हैं, उसके लिए हम प्रतिक्रमण करते हैं। सामनेवाले को दु:ख पहुँचाए ऐसे ‘डिस्चार्ज’ के प्रतिक्रमण करने हैं। यहाँ महात्माओं का अथवा दादाजी का कुछ भला किया हो तो उसके प्रतिक्रमण नहीं करने हैं। लेकिन बाहर किसी और का भला किया हो तो उसका प्रतिक्रमण करना पड़ेगा क्योंकि उपयोग चूक गए, उसका प्रतिक्रमण करना पड़ेगा।

प्रश्नकर्ता : प्रतिक्रमण करते हैं तो वह सामनेवाले को पहुँचता है?

दादाश्री : सामनेवाले को पहुँचता है, वह नरम होता जाएगा। उसे पता चले या ना भी चले। हमारे प्रति उसका भाव नरम होता जाएगा। हमारे प्रतिक्रमण में तो बहुत असर हैं। यदि एक घंटा सही ढंग से हुए हो तो सामनेवाले में परिवर्तन आ जाता है। जिनका हम प्रतिक्रमण करते हैं, वह अपने दोष तो नहीं देखेगा लेकिन उसे अपने लिए सम्मान उत्पन्न होगा।

प्रश्नकर्ता : प्रतिक्रमण करते हैं तो नया ‘चार्ज’ नहीं करते?

दादाश्री : आत्मा कर्ता होगा तो कर्म बँधेगा। प्रतिक्रमण आत्मा नहीं करता है। चंदूभाई करते हैं और आप उसके ज्ञाता-दृष्टा रहो।

निजस्वरूप की प्राप्ति के बाद सही प्रतिक्रमण होंगे। प्रतिक्रमण करनेवाला होना चाहिए, प्रतिक्रमण करवानेवाला होना चाहिए।

हमारा प्रतिक्रमण यानी क्या? कि गड़ारी खोलते समय जितने भी टुकड़े हों, उन्हें जोड़कर साफ कर दें, वही हमारा प्रतिक्रमण है।

प्रश्नकर्ता : नींद में से जागते ही प्रतिक्रमण शुरू हो जाते हैं।

दादाश्री : यह ‘प्रतिक्रमण आत्मा’ हुआ। शुद्धात्मा तो है लेकिन यह प्रतिष्ठित आत्मा, ‘प्रतिक्रमण आत्मा’ बन गया। लोगों का कषायी आत्मा है। इस वर्ल्ड में कोई एक भी प्रतिक्रमण कर सके, ऐसा नहीं है।

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जैसे-जैसे नकद प्रतिक्रमण होता जाएगा, वैसे-वैसे शुद्ध होता जाएगा। अतिक्रमण के सामने आप नकद प्रतिक्रमण करोगे तो मन और वाणी शुद्ध होते जाएँंगे।

प्रतिक्रमण यानी बीज को भूनकर बोना।

आलोचना-प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान यानी प्रतिदिन का लेखा-जोखा निकालना।

जितने दोष दिखाई दिए उतना कमाए। उतने प्रतिक्रमण करने हैं।

प्रश्नकर्ता : ये जो प्रतिक्रमण नहीं हो पाते, वह प्रकृति दोष है या वह अंतराय कर्म है?

दादाश्री : वह प्रकृति दोष है और यह प्रकृति दोष हर जगह नहीं होता। कुछ जगह दोष होता है और कुछ जगह नहीं होता। प्रकृति दोष में प्रतिक्रमण नहीं हो, तो उसमें हर्ज नहीं है। आपको तो यही देखना है कि आपका भाव क्या है? आपको और कुछ नहीं देखना है। आपकी इच्छा प्रतिक्रमण करने की है न?

प्रश्नकर्ता : हाँ, पूरी तरह से।

दादाश्री : इसके बावजूद भी अगर प्रतिक्रमण नहीं हो पाता, तो वह प्रकृति दोष है। प्रकृति दोष के लिए आप ज़िम्मेदार नहीं हैं। कभी-कभी प्रकृति बोल भी पाती है और नहीं भी बोलती। यह तो बाजे जैसी है, बजे तो बजे, वर्ना न भी बजे। इसे अंतराय नहीं कहते।

प्रश्नकर्ता : ‘समभाव से निकाल’ करने का दृढ़ निश्चय होने के बावजूद झगड़ा हो जाता है, ऐसा क्यों?

दादाश्री : कितनी जगहों पर ऐसा होता है? सौ एक जगह पर?

प्रश्नकर्ता : एक ही जगह पर होता है।

दादाश्री : तो वह निकाचित कर्म है। वह निकाचित कर्म धुलेगा कैसे? आलोचना, प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान से। उससे कर्म हलका

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हो जाएगा। उसके बाद ज्ञाता-द्रष्टा रहा जा सकेगा। उसके लिए तो प्रतिक्रमण निरंतर करने पड़ेंगे। जितने फोर्स से निकाचित हुआ हो, उतने ही फोर्सवाले प्रतिक्रमण से वह धुल पाएगा।

प्रश्नकर्ता : यदि हम तय करें कि भविष्य में ऐसा करना ही नहीं है। ऐसी भूल फिर से करनी ही नहीं है, ऐसा हंड्रेड परसेन्ट भाव सहित तय करें इसके बावजूद भी वापस वैसी ही भूल का होना या न होना, वह क्या खुद के हाथ में है?

दादाश्री : वह तो हो सकती है न फिर से। ऐसा है न, आप एक गेंद यहाँ लाए और मुझे दी। मैं यहाँ से फेंकूँ। मैंने तो एक ही कार्य किया। मैंने तो एक ही बार गेंद फेंकी। अब मैं कहूँ कि अब मेरी इच्छा नहीं है, तू बंद हो जा, तो वह बंद हो जाएगी?

प्रश्नकर्ता : नहीं होगी।

दादाश्री : तब क्या होगा?

प्रश्नकर्ता : वह तो तीन-चार-पाँच बार उछलेगी।

दादाश्री : अर्थात् अपने हाथ से फिर नेचर के हाथ में गई। अब नेचर जब बंद करेगी तब। तो ऐसा है यह सब। हमारी जो गलतियाँ हैं, वे नेचर के हाथ में चली जाती हैं।

प्रश्नकर्ता : नेचर के हाथ में गया, तो फिर प्रतिक्रमण करने से क्या फायदा होता है?

दादाश्री : बहुत असर होता है। प्रतिक्रमण से तो सामनेवाले पर बहुत असर होता है। यदि एक घंटा एक आदमी का प्रतिक्रमण करोगे तो उस आदमी के अंदर कुछ नई तरह का, बहुत ज़बरदस्त परिवर्तन होगा। प्रतिक्रमण करनेवाला यह ज्ञान प्राप्त किया हुआ होना चाहिए। शुद्ध हुआ, ‘मैं शुद्धात्मा हूँ’ ऐसी समझवाला, तो उसके प्रतिक्रमण का बहुत असर होगा। प्रतिक्रमण तो हमारा सब से बड़ा हथियार है।

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यदि ‘ज्ञान’ नहीं लिया हो तो प्रकृति पूरे दिन उल्टी ही चलती रहेगी जबकि अब तो सुलटी ही चलती रहती है। तू सामनेवाले को सुना देगा, लेकिन भीतर कहेगा कि, ‘नहीं, नहीं, ऐसा नहीं करना चाहिए। सुना देने का विचार आया उसका प्रतिक्रमण करो।’ और ज्ञान लेने से पहले तो सुना ही देता था और ऊपर से कहता था कि ‘और सुनाने जैसा था।’

मनुष्यों का स्वभाव कैसा है कि जैसी प्रकृति, खुद वैसा ही बन जाता है। जब प्रकृति में सुधार नहीं होता तब कहता है, ‘छोड़ो न’! अरे, बाहर सुधार नहीं होता तो कोई हर्ज नहीं, तू अंदर सुधार! फिर हमारी रिस्पोन्सिबिलिटी नहीं है!! इतना है यह ‘साइन्स’!!! बाहर कुछ भी हो उसकी रिस्पोन्सिबिलिटी ही नहीं है। इतना समझ ले तो हल आ जाए।

22. निकाल, चिकनी फाइलों का

कई लोग मुझसे कहते हैं कि, ‘दादाजी, समभाव से निकाल करने जाता हूँ, लेकिन होता नहीं है!’ तब मैं कहता हूँ, अरे भाई, निकाल करना नहीं है! तुझे समभाव से निकाल करने का भाव ही रखना है। समभाव से निकाल हो या न भी हो, वह तेरे अधीन नहीं है। तू मेरी आज्ञा में रह न! उससे तेरा बहुत कुछ काम हो जाएगा और नहीं हो पाए तो वह नेचर के अधीन है।

सामनेवाले के दोष दिखाई देने बंद हो जाएँगे तो संसार छूट जाएगा। आपको गालियाँ दें, नुकसान करें, पीटें फिर भी दोष नहीं दिखाई दे, तब संसार छूट जाएगा। वर्ना संसार छूटेगा नहीं।

अब सभी लोगों के दोष दिखाई देने बंद हो गए?

प्रश्नकर्ता : हाँ, दादा। कभी दिखाई दें तो प्रतिक्रमण कर लेता हूँ।

दादाश्री : रास्ता यह है कि दादा की आज्ञा में रहना है, ऐसा

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निश्चय करके दूसरे दिन से शुरू कर दें। और जितना आज्ञा में नहीं रह पाए, उनके प्रतिक्रमण करना है। और घर के हर एक सदस्य को संतुष्ट करना, समभाव से निकाल करके। फिर भी घर के सभी लोग उछलकूद करें तो आप देखते रहना। आपका पिछला हिसाब है इसलिए उछलकूद करेंगे। यह तो आज ही तय किया है। अत: घर के सभी को प्रेम से जीतो। वह तो फिर खुद आपको ही पता चलेगा कि अब सब ठिकाने पर आ रहा है। फिर भी, जब घर के लोग अभिप्राय दें, तभी मानने योग्य है। आखिर में तो उसीके पक्ष में होंगे, घर के लोग।

प्रश्नकर्ता : हम जो प्रतिक्रमण करते हैं उस प्रतिक्रमण का परिणाम इस मूल सिद्धांत पर है कि, हम सामनेवाले के शुद्धात्मा को देखते हैं तो उसके प्रति जो भाव हैं, बुरे भाव हैं, वे कम हो जाएँगे न?

दादाश्री : अपने बुरे भाव टूट जाएँगे। अपने खुद के लिए ही है यह सब। सामनेवाले को लेना-देना नहीं है। सामनेवाले को शुद्धात्मा देखने का हेतु इतना ही है कि हम शुद्ध दशा में, जागृत दशा में हैं।

प्रश्नकर्ता : तो उसे हमारे प्रति जो बुरा भाव होगा, वह कम हो जाएगा न?

दादाश्री : नहीं, कम नहीं होगा। आप प्रतिक्रमण करोगे तो हो जाएगा। शुद्धात्मा देखने से नहीं होगा, लेकिन प्रतिक्रमण करोगे तो हो जाएगा।

प्रश्नकर्ता : हम प्रतिक्रमण करें तो उस आत्मा पर असर होता है या नहीं?

दादाश्री : होता है, असर होता है। शुद्धात्मा देखने से भी फायदा होता है लेकिन तुरंत फायदा नहीं होता। बाद में धीरे, धीरे, धीरे! क्योंकि शुद्धात्मा रूप से किसी ने देखा ही नहीं है। अच्छा आदमी और बुरा आदमी इस रूप से ही देखा है। बाकी शुद्धात्मा रूप से किसी ने नहीं देखा है।

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यदि बाघ के प्रतिक्रमण करें तो बाघ भी अपने कहे अनुसार काम करे। बाघ में और मनुष्य में कोई फर्क नहीं है। फर्क आपके स्पंदन का है, जिसका उस पर असर होता है। जब तक आपके ध्यान में ऐसा होगा कि बाघ हिंसक है, तब तक वह खुद हिंसक ही रहेगा और बाघ शुद्धात्मा है ऐसा ध्यान में रहेगा तो वह शुद्धात्मा ही है और अहिंसक रहेगा। सभीकुछ हो सकता है, ऐसा है।

एक बार आम के पेड़ पर बंदर आ जाए और आम तोड़ डाले तो परिणाम कहाँ तक बिगड़ जाते हैं? कि यह आम का पेड़ काट दिया होता तो अच्छा होता। ऐसा सोच लेता है। अब भगवान की साक्षी में निकली हुई वाणी व्यर्थ थोड़े ही जाएगी? परिणाम नहीं बिगड़ेगा तो कुछ भी नहीं होगा। सबकुछ शांत हो जाएगा, बंद हो जाएगा। ये सभी अपने ही परिणाम हैं। आज से किसी के लिए स्पंदन फेंकना, किंचित्मात्र भी किसी के लिए सोचना बंद कर दो, विचार आए तो प्रतिक्रमण करके धो देना तो पूरा दिन बिना किसी स्पंदन का बीतेगा! इस प्रकार दिन गुज़रा तो बहुत हो गया, यही पुरुषार्थ है।

इस ज्ञान की प्राप्ति के बाद नए पर्याय अशुद्ध नहीं होते, पुराने पर्यायों को शुद्ध करने हैं और समता रखनी है। समता यानी वीतरागता। नए पर्याय नहीं बिगड़ेंगे, नए पर्याय शुद्ध ही रहेंगे। पुराने पर्याय अशुद्ध हुए हैं, उनका शुद्धिकरण करना है। हमारी आज्ञा में रहने से उसका शुद्धिकरण होगा और समता में रहना है।

प्रश्नकर्ता : दादा, ज्ञान प्राप्ति से पहले के इस जीवन के जो पर्याय बन चुके हैं, उसका निराकरण कैसे आएगा?

दादाश्री : जब तक जी रहे हैं, तब तक पश्चाताप करके उन्हें धो डालें, लेकिन वे कुछ ही। पूरा निराकरण नहीं होगा, लेकिन ढीला तो हो ही जाएगा। ढीला पड़ने पर अगले जन्म में हाथ लगाया कि तुरंत गाँठ छूट जाएगी।

(पृ.७९)

प्रश्नकर्ता : आपका ज्ञान प्राप्त होने से पहले नर्क का बंध पड़ गया हो तो नर्क में जाना पड़ेगा?

दादाश्री : ऐसा है कि यह ज्ञान ही ऐसा है कि सारे पाप भस्मीभूत हो जाते हैं, बंध छूट जाते हैं। कोई अगर नर्क में जानेवाला हो, लेकिन जब तक जी रहे हैं उतने समय में, वह प्रतिक्रमण करे, तो उसका धुल जाएगा। चिट्ठी पोस्ट में डालने से पहले आप लिख दो कि उपरोक्त वाक्य लिखते समय मन का ठिकाना नहीं था तो वह मिट जाएगा।

प्रश्नकर्ता : प्रायश्चित से बंध छूट जाएँगे?

दादाश्री : हाँ, छूट जाते हैं। कुछ ही प्रकार के बंध हैं कि, जो कर्मों का प्रायश्चित करने से दोहरी गाँठ में से ढीले हो जाएँगे। अपने प्रतिक्रमण में बहुत शक्ति है। दादा को हाज़िर रखकर करोगे तो काम हो जाएगा।

कर्म के धक्के से जितने जन्म होने होंगे वे होंगे, शायद एक-दो जन्म, लेकिन उसके बाद सीमंधर स्वामी के पास ही जाना है। यह यहाँ का धक्का, पहले के बाँधे हुए हिसाब अनुसार, कुछ चिकना हो गया होगा, वह पूरा हो जाएगा। उसमें कोई चारा ही नहीं है! यह तो रघा सुनार की तराजू है। न्याय, ज़बरदस्त न्याय! शुद्ध न्याय! प्योर न्याय! उसमें नहीं चलती पोलंपोल।

प्रश्नकर्ता : प्रतिक्रमण करने से कर्म के धक्के कम हो जाते हैं?

दादाश्री : कम होते हैं न! और जल्दी हल आ जाता है।

प्रश्नकर्ता : जिससे क्षमा माँगनी है, यदि उस व्यक्ति का देहविलय हो गया हो तो कैसे करना चाहिए?

दादाश्री : देहविलय हो चुका हो, फिर भी आपके पास उसकी फोटो हो, उसका चेहरा याद हो, तो कर सकते हैं। चेहरा ज़रा भी याद नहीं हो और नाम मालूम हो तो नाम लेकर भी कर सकते हैं, तो सब उसे पहुँच जाएगा।

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23. मन मनाए मातम तब...

महात्माओं को भाव-अभाव होता है लेकिन वह निकाली कर्म है। भावकर्म नहीं है। क्रोध-मान-माया-लोभ-राग-द्वेष और भावाभाव, वे सभी निकाली कर्म हैं। उनका समभाव से निकाल करना है। इन कर्मों का निकाल प्रतिक्रमण सहित होगा, यों ही निकाल नहीं होगा।

प्रश्नकर्ता : यदि कभी कोई हमारा अपमान कर दें तो तब मन से प्रतिकार जारी रहता है और वाणी से प्रतिकार शायद नहीं भी होता।

दादाश्री : हमें तो इसमें हर्ज नहीं है कि उस समय क्या हुआ। अरे, देह से भी प्रतिकार हो जाए। फिर भी वह जितनी-जितनी शक्ति होती है, उसके अनुसार व्यवहार होता है। जिसकी संपूर्ण शक्ति उत्पन्न हो चुकी हो, उसका मन का प्रतिकार भी बंद हो जाता है। फिर भी हम क्या कहते हैं? मन से प्रतिकार जारी रहे, वाणी से प्रतिकार हो जाए, अरे! देह से भी प्रतिकार हो जाए। तो तीनों प्रकार की निर्बलताएँ उत्पन्न हो जाएँ, तो वहाँ तीनों तरह का प्रतिक्रमण करना होगा।

प्रश्नकर्ता : विचार के प्रतिक्रमण करने पड़ते हैं?

दादाश्री : विचारों को देखना है। उसके प्रतिक्रमण नहीं होते। अगर किसी के लिए बहुत बुरे विचार हो तो उसके प्रतिक्रमण करने होंगे। लेकिन किसी का नुकसान करनेवाली चीज़ हो तभी। ऐसे ही आए, कुछ भी आए, गाय के, भैंस के, सभी तरह के विचार आएँ, वे तो ज्ञान हाज़िर करके देखने से उड़ जाएँगे। उसे सिर्फ देखना है। उसके प्रतिक्रमण नहीं होते। प्रतिक्रमण तो अगर हमारा तीर किसी को लग जाए तभी करने होंगे।

आप यहाँ सत्संग में आएँ और यहाँ कुछ लोग खड़़े हो तब यदि मन में हो कि ये सब क्यों खड़े हैं? इस तरह मन के भाव बिगड़ जाए, उस भूल के लिए उसका तुरंत ही प्रतिक्रमण करना पड़ेगा।

प्रश्नकर्ता : प्रतिक्रमण कर्मफल के करने हैं या सूक्ष्म के करने हैं?

(पृ.८१)

दादाश्री : सूक्ष्म के होते हैं।

प्रश्नकर्ता : विचार के या भाव के?

दादाश्री : भाव के। विचार के पीछे भाव होते ही हैं। अतिक्रमण हुआ तो उसका प्रतिक्रमण करना ही चाहिए। अतिक्रमण तो मन में बुरा विचार आए, इस बहन के लिए बुरा विचार आया, तब ‘विचार अच्छा होना चाहिए।’ ऐसा कहकर उसे बदल देना चाहिए। मन में ऐसा लगे कि यह नालायक है, तो यह विचार क्यों आया? आपको उसकी लायकी-नालायकी देखने का राइट (अधिकार) नहीं है। और अस्पष्ट रूप से कहना हो तो कहना कि ‘सभी अच्छे हैं, अच्छे है’ कहोगे तो कर्मदोष नहीं लगेगा, लेकिन यदि नालायक कहोगे तो वह अतिक्रमण कहलाएगा, इसलिए उसका प्रतिक्रमण अवश्य करना होगा।

नापसंद चीज़ साफ मन से सहन हो पाएगी, तब वीतराग होंगे।

प्रश्नकर्ता : साफ मन यानी क्या?

दादाश्री : साफ मन यानी सामनेवाले के लिए बुरा विचार नहीं आना, वह। यानी क्या कि निमित्त को काटना मत। शायद सामनेवाले के लिए बुरा विचार आए तो तुरंत ही प्रतिक्रमण करे और उसे धो डाले।

प्रश्नकर्ता : मन साफ हो जाए वह तो अंतिम स्टेज की बात है न? और जब तक पूर्णतया साफ नहीं हुआ, तब तक प्रतिक्रमण करने पड़ेंगे न?

दादाश्री : हाँ। वह सही है, लेकिन कुछ चीज़ों में साफ हो गया हो और कुछ चीज़ों में नहीं हुआ हो, वे सभी स्टेपिंग हैं। जहाँ साफ नहीं हुआ हो वहाँ प्रतिक्रमण करना होगा।

हमें शुद्धात्मा का बहीखाता साफ रखना है। अत: चंदूभाई से रात को कहना कि जिन-जिन के दोष देखे हो, उनके साथ का बहीखाता साफ कर दो। मन के भाव बिगड़ जाएँ तो प्रतिक्रमण से सब स्वच्छ कर लेना चाहिए, और कोई उपाय नहीं है। इन्कमटैक्सवाला

(पृ.८२)

भी दोषित नहीं दिखें ऐसा प्रतिक्रमण करके रात को सो जाना। पूरे जगत् को निर्दोष देखकर फिर चंदूभाई से सो जाने को कहना।

प्रश्नकर्ता : प्रतिक्रमण प्रत्यक्ष होना चाहिए न?

दादाश्री : प्रतिक्रमण बाद में भी हो तो भी हर्ज नहीं है।

प्रश्नकर्ता : मैंने आपकी अवहेलना की हो, अशातना की हो तो मुझे आपके सम्मुख आकर प्रतिक्रमण करना चाहिए न?

दादाश्री : यदि सम्मुख आकर करो तो अच्छी बात है। वह नहीं हो पाए और बाद में करो तब भी वैसा ही फल मिलेगा।

हम क्या कहते हैं, आपको दादा के लिए ऐसे उल्टे विचार आते हैं, इसलिए आप उसका प्रतिक्रमण करते रहो। क्योंकि उस बेचारे का क्या दोष? विराधक स्वभाव है। आज के सभी मनुष्यों का स्वभाव ही विराधक है। दूषमकाल में विराधक जीव ही होते हैं। आराधक जीव सभी चले गए। ये जो बचे हैं, उनमें से सुधार हो सकें, ऐसे भी कई जीव हैं, बहुत ऊँची आत्माएँ हैं अभी भी इसमें!

हमारे लिए उल्टा विचार आए तो प्रतिक्रमण कर लेना। मन तो ‘ज्ञानीपुरुष’ के लिए भी उल्टा सोच सकता है। मन क्या नहीं कर सकता? जला हुआ मन सामनेवाले को जलाता है। जला हुआ मन तो भगवान महावीर को भी जला दे।

प्रश्नकर्ता : ‘जो गए वे किसी का कुछ भला नहीं कर सकते’ तो फिर महावीर का अवर्णवाद उन तक पहुँचता है क्या?

दादाश्री : नहीं, वे स्वीकार नहीं करते। इसलिए रिटर्न विथ थैन्कस डबल होकर आएगा। इसलिए खुद, अपने लिए बार-बार माफ़ी माँगते रहना। आपको जब तक वह शब्द याद नहीं आता, तब तक बार-बार माफ़ी माँगते रहना। महावीर का अवर्णवाद किया हो तो बार-बार माफ़ी माँगते रहना, तो तुरंत मिट जाएगा, बस। उन्हें पहुँचता ज़रूर है, लेकिन वे स्वीकार नहीं करते। छोड़ा हुआ तीर पहुँचता ज़रूर है लेकिन वे स्वीकार नहीं करते।

(पृ.८३)

24. आजीवन बहाव में डूबते हुए को पार उतारे ज्ञान

प्रश्नकर्ता : याद करने से पिछले दोष देखे जा सकते हैं?

दादाश्री : वास्तव में पिछले दोष उपयोग से ही देखे जा सकते हैं, याद करने से नहीं दिखेंगे। याद करने में तो सिर खुजलाना पड़ता है। आवरण आ जाता है इसलिए याद करना पड़ता है न? यदि किसी के साथ झंझट हो जाए तो उसका प्रतिक्रमण करने से वह व्यक्ति (चित्त में) हाज़िर हो ही जाएगा, सिर्फ वैसा उपयोग ही रखना है। अपने मार्ग में याद करना तो है ही नहीं। याद करना तो ‘मेमोरी’ के अधीन है। जो याद आता है वह प्रतिक्रमण करवाने के लिए आता है, साफ करवाने के लिए।

‘इस संसार की कोई भी विनाशी चीज़ मुझे नहीं चाहिए’ ऐसा आपने तय किया है न? फिर भी याद क्यों आता है? इसलिए प्रतिक्रमण करो। प्रतिक्रमण करने के बावजूद भी वापस याद आए तब आप समझना कि अभी भी यह शिकायत है! इसलिए फिर से प्रतिक्रमण ही करना है।

याद राग-द्वेष की वजह से है। यदि याद नहीं आता तो उलझी हुई गुत्थी भूल गए होते। आपको क्यों कोई फोरेनर्स याद नहीं आते और मरे हुए क्यों याद आते हैं? यह हिसाब है और वह राग-द्वेष की वजह से है। उसका प्रतिक्रमण करने से आसक्ति खत्म हो जाएगी। इच्छाएँ होती हैं क्योंकि उनके प्रत्याख्यान नहीं हुए इसलिए। याद आता है क्योंकि प्रतिक्रमण नहीं किए इसलिए।

प्रश्नकर्ता : प्रतिक्रमण मालिकी भाव का होता है न?

दादाश्री : मालिकी भाव का प्रत्याख्यान होता है और दोषों का प्रतिक्रमण होता है।

प्रश्नकर्ता : प्रतिक्रमण करने के बावजूद भी बार-बार वह गुनाह याद आए तो क्या उसकामतलब यह है कि, उसमें से अभी भी मुक्त नहीं हुए हैं?

(पृ.८४)

दादाश्री : यह प्याज़ की एक परत निकल जाए तो दूसरी परत अपने आप आकर खड़ी रहेगी। इसी तरह ये गुनाह कई परतोंवाले हैं। इसलिए एक प्रतिक्रमण करने पर एक परत हटेगी, ऐसा करते-करते सौ प्रतिक्रमण करने पर वह खत्म होगा। कुछ दोषों के पाँच प्रतिक्रमण करेंगे, तब वह खत्म होंगे, कुछ के दस और कुछ के सौ होंगे। उसकी जितनी परतें होगी उतने प्रतिक्रमण होंगे। लंबा चले तो इसका मतलब गुनाह उतना ही लंबा है।

प्रश्नकर्ता : जो याद आए, उसके लिए प्रतिक्रमण करना चाहिए और जिसकी इच्छा हो उसके लिए प्रत्याख्यान करना चाहिए। यह ज़रा समझाइए।

दादाश्री : जब याद आता है तो समझना कि यहाँ पर ज़्यादा गाढ़ है, तो वहाँ प्रतिक्रमण करते रहने से सब छूट जाएगा।

प्रश्नकर्ता : वह जितनी बार याद आए उतनी बार करना है?

दादाश्री : हाँ, उतनी बार करना है। आप करने का भाव रखना। ऐसा है न, याद आने के लिए समय तो चाहिए न! तो इसका समय मिलने पर, रात को क्या याद नहीं आते होंगे?

प्रश्नकर्ता : वह तो यदि कोई संयोग हो तो।

दादाश्री : हाँ, संयोगों की वजह से।

प्रश्नकर्ता : और इच्छाएँ हों तो?

दादाश्री : इच्छा होनी यानी स्थूल वृत्तियाँ होना। पहले हमने जो भाव किए हैं, वे भाव अब अगर फिर से खड़े हों, तो वहाँ पर प्रत्याख्यान करना है।

प्रश्नकर्ता : उस समय आपने कहा था, हर बार ऐसा कहना कि अब यह चीज़ नहीं चाहिए।

दादाश्री : यह चीज़ मेरी नहीं है। समर्पित करता हूँ। अज्ञानतावश

(पृ.८५)

मैंने इन सभी को बुलाया था। लेकिन आज ये मेरी नहीं हैं, इसलिए समर्पित करता हूँ। मन-वचन-काया से समर्पित करता हूँ। अब मुझे कुछ नहीं चाहिए। इस सुख को मैंने अज्ञानदशा में बुलाया था, लेकिन आज यह सुख मेरा नहीं है, इसलिए समर्पित करता हूँ।

इस अक्रम विज्ञान का हेतु ही पूरा शूट ऑन साइट प्रतिक्रमण का है। उसके बेसमेन्ट (नींव) पर खड़ा है। गलती किसी की नहीं है। सामनेवाले को आपके निमित्त से यदि कोई नुकसान हो, तो द्रव्यकर्म-भावकर्म-नोकर्म से मुक्त ऐसे उसके शुद्धात्मा को याद करके प्रतिक्रमण करना चाहिए।

प्रश्नकर्ता : लेकिन हर बार पूरा लंबा बोलना है?

दादाश्री : नहीं, ऐसा कुछ नहीं। शॉर्ट में कर लेना। सामनेवाले के शुद्धात्मा को हाज़िर करके उन्हें फोन लगाना कि ‘यह भूल हो गई, क्षमा करें।’

और दूसरा, घर के लोगों के भी रोज़ाना प्रतिक्रमण करने चाहिए। आपके मदर, फादर, भाई, बहन सभी का। रोज़ाना प्रतिक्रमण करना पड़ेगा। सभी कुटुंबी जनों का, क्योंकि उसके साथ बहुत चीकणी फाइल होती है।

यदि प्रतिक्रमण करोगे न, यदि एक घंटा कुटुंबी जनों के प्रतिक्रमण करोगे न, अपने परिवारवालों को याद करके, नज़दीक से लेकर दूर के सभी, भाईयों, उनकी पत्नियाँ, चाचा, चाचा के बेटे, वे सभी, एक फैमिली (परिवार) हों न, तो दो-तीन-चार पीढिय़ों तक के, उन सभी को याद करके, प्रत्येक के लिए एक-एक घंटा प्रतिक्रमण होगा न, तो भीतर भयंकर पाप भस्मीभूत हो जाएँगे। और आपकी ओर से उन लोगों के मन साफ हो जाएँगे। इसलिए आपके सभी नज़दीकी लोगों को याद कर-करके प्रतिक्रमण करने चाहिए। और यदि रात को नींद नहीं आ रही हो तो उस घड़ी यह सेट किया कि चला। ऐसी सेटिंग नहीं करते? ऐसी यह व्यवस्था, वह फिल्म शुरू हो गई तो उस घड़ी बहुत आनंद आएगा। वह आनंद समाएगा नहीं!

(पृ.८६)

क्योंकि जब प्रतिक्रमण करते हैं न, तब आत्मा का संपूर्ण शुद्ध उपयोग रहता है। यानी बीच में किसी की दख़ल नहीं होती।

प्रतिक्रमण कौन करता है? चंदूभाई करते हैं, किसके करते हैं? तब कहे, इन कुटुंबी जनों को याद कर-करके करते हैं। आत्मा देखनेवाला है, वह देखता ही रहता है। और कोई दखलअंदाज़ी है ही नहीं इसलिए बहुत शुद्ध उपयोग रहता है।

प्रतिक्रमण तो एक बार करवाया था, मेरी उपस्थिति में खुद मैंने ही करवाया था, बहुत साल पहले की बात कर रहा हूँ और वह विषय से संबंधित ही करवाया था। तब वह करते करते सब इतनी गहराई में उतर गए कि, बाद में घर जाने पर भी बंद नहीं हो रहा था। सोते समय भी बंद नहीं हो रहा था। खाते समय भी बंद नहीं हो रहा था। फिर मुझे बंद करवाना पड़ा। स्टोप करवाना पड़ा! फँस गए थे सभी, नहीं?! अपने आप निरंतर प्रतिक्रमण, रात-दिन चलते ही रहे। अब प्रतिक्रमण करने के बाद, ‘बंद करो, अब दो घंटे हो गए’ ऐसा कहने पर भी अपने आप प्रतिक्रमण चलते ही रहे। यदि बंद करने कहे फिर भी बंद नहीं हो रहे थे। पूरी मशीनरी शुरू हो गई इसलिए भीतर चलता ही रहा।

‘चंदूभाई’ से ‘आपको’ इतना कहना पड़ेगा कि ‘प्रतिक्रमण करते रहो’, आपके घर के सभी लोगों के साथ, आपको कुछ न कुछ पहले दु:ख हुआ होगा, उसके आपको प्रतिक्रमण करने हैं। ‘संख्यात या असंख्यात जन्मों में जो राग-द्वेष, विषय, कषाय से दोष किए हों, तो उसके लिए क्षमा माँगता हूँ।’ इस तरह रोज़ाना एक-एक व्यक्ति का, इस तरह घर के प्रत्येक व्यक्ति का करना। उसके बाद उपयोग सहित आसपास के, अड़ोस-पड़ोस के सभी लोगों के लिए यह करते रहना चाहिए। आप करोगे, उसके बाद यह बोझ हलका हो जाएगा। यों ही हलका नहीं होगा। हमने पूरे संसार के साथ इस तरह निवारण किया था। पहले ऐसे निवारण किया था, तभी तो यह छुटकारा हुआ। जब तक आपके मन में हमारे लिए दोष है, तब तक मुझे चैन नहीं पड़ने

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देगा! यानी जब हम इस तरह प्रतिक्रमण करते हैं, तब वहाँ मिट जाता है।

प्रतिक्रमण तो आप बहुत ही करना। जितने आपके सर्कल में यदि पचास-सौ व्यक्ति हों, जिन-जिन को आपने परेशान किया हो, तो जब खाली समय हो तब बैठकर उन सबके एक-एक घंटा, एक-एक को याद कर करके प्रतिक्रमण करना। जितनों को परेशान किया है, वह फिर धोना तो पड़ेगा न? फिर ज्ञान प्रकट होगा।

फिर, ‘इस जन्म, पिछले जन्म, पिछले संख्यात, पिछले असंख्यात जन्मों में, गत अनंत जन्मों में दादा भगवान की साक्षी में, किसी भी धर्म की, साधु-आचार्यों की जो-जो अशातना, विराधना की या करवाई हो तो उसके लिए क्षमा माँगता हूँ। दादा भगवान की साक्षी में क्षमा माँगता हूँ। किंचित्मात्र अपराध नहीं हो ऐसी शक्ति दीजिए।’ इसी तरह से सभी धर्मों का करना।

अरे, उस समय अज्ञान दशा में हमारा अहंकार भारी, ‘फलाँ ऐसे हैं, वैसे हैं’ तब तिरस्कार, तिरस्कार, तिरस्कार ही तिरस्कार.... और किसी की तारीफ़ भी करते थे। इस ओर एक की तारीफ़ करते और दूसरे का तिरस्कार करते थे। फिर 1958 में ज्ञान हुआ तब से ‘ए.एम.पटेल’ से कह दिया कि, ‘ये जो तिरस्कार किए हैं, अब उन्हें साबुन लगाकर धो डालिए’, तब प्रत्येक को याद कर-करके बार-बार सब धोता रहा। इस ओर के पड़ोसी, उस ओर के पड़ोसी, इस ओर के कुटुंबी जन, मामा, चाचा, सभी के साथ तिरस्कार हुए थे, उन सभी का धो डाला।

प्रश्नकर्ता : मन से प्रतिक्रमण किया था, आमने-सामने नहीं?

दादाश्री : मैंने अंबालाल पटेल से कहा कि ‘यह आपने उल्टे काम किए हैं, वे सब मुझे दिख रहे हैं। अब तो उन सभी उल्टे किए हुए कामों को धो डालिए!’ इस पर उन्होंने क्या करना शुरू किया? ‘कैसे धोएँ?’ तब मैंने समझाया कि उन्हें याद करो। नगीनदास को

(पृ.८८)

गालियाँ दी और पूरी ज़िंदगी डाँटा है, तिरस्कार किए हैं, उन सभी का पूरा वर्णन करके, और ‘हे नगीनदास के मन-वचन-काया का योग, द्रव्यकर्म-भावकर्म-नोकर्म से भिन्न प्रकट शुद्धात्मा भगवान! नगीनदास के शुद्धात्मा भगवान! नगीनदास से बार-बार माफ़ी माँगता हूँ, दादा भगवान की साक्षी में माफ़ी माँगता हूँ। फिर से ऐसे दोष नहीं करूँगा।’ अर्थात् आप ऐसा करो। फिर आप सामनेवाले के चेहरे पर परिवर्तन देख लेना। उसका चेहरा बदला हुआ लगेगा। आप प्रतिक्रमण यहाँ करोगे और वहाँ परिवर्तन होगा।

हमने कितना धोया तब बहीखाते के हिसाब चुकते हुए। कितने ही समय से हम धोते आए हैं, तब बहीखाते के हिसाब चुकता हो गए। आपको तो मैंने रास्ता बताया है, इसलिए जल्दी छूट जाएगा। हम तो कितने ही समय से धोते आए थे।

हमें तो प्रतिक्रमण कर लेने हैं ताकि हम ज़िम्मेदारी में से मुक्त हो जाएँ! मुझे शुरू-शुरू में सभी लोग अटैक करते थे न! लेकिन फिर सब थक गए। यदि अपनी तरफ से प्रतिकार होगा तो सामनेवाला नहीं थकेगा। यह जगत् किसी को भी मोक्ष में जाने दे ऐसा नहीं है। इतनी अधिक बुद्धिवाला जगत् है। इसमें सावधान होकर चलें, समेटकर चलें तो मोक्ष में जा पाएगा।

यह प्रतिक्रमण करके तो देखो, फिर आपके घर के सभी लोगों में चेन्ज हो जाएगा, जादुई चेन्ज हो जाएगा। जादुई असर!!

ऐसा है, जब तक सामनेवाले का दोष खुद के मन में है, तब तक चैन नहीं पड़ने देता। प्रतिक्रमण करो तो वह खत्म हो जाएगा। राग-द्वेषवाली हर एक चीकणी फाइल (गाढ़ ऋणानुबंधवाले व्यक्ति अथवा संयोग) को उपयोग रखकर प्रतिक्रमण करके शुद्ध करना है। राग की फाइल हो, उसके तो खास प्रतिक्रमण करने चाहिए।

आप बिस्तर पर सोए हों तो जहाँ-जहाँ कंकड़ चुभें, वहाँ से आप निकाल दोगे या नहीं निकालोगे? यह प्रतिक्रमण तो, जहाँ-जहाँ

(पृ.८९)

चुभ रहा हो वहीं पर करने हैं। आपको जहाँ चुभता है, वहाँ से आप निकाल दोगे और जहाँ इन्हें चुभता है, वहाँ से वे निकाल देंगे! हर एक व्यक्ति के लिए अलग-अलग प्रतिक्रमण होते हैं।

किसी के भी प्रति अतिक्रमण हो गए हों तो, पूरे दिन उसका नाम लेकर प्रतिक्रमण करने होंगे, तभी खुद मुक्त हो पाएगा। यदि दोनों ही आमने-सामने प्रतिक्रमण करें तो जल्दी मुक्त हो जाएँगे। पाँच हज़ार बार आप प्रतिक्रमण करो और पाँच हज़ार बार सामनेवाला प्रतिक्रमण करे तो जल्दी छुटकारा होगा। लेकिन यदि सामनेवाला नहीं करे और आपको छूटना ही हो तो, दस हज़ार बार प्रतिक्रमण करने होंगे।

प्रश्नकर्ता : जब ऐसा कुछ रह जाता है तो मन में बहुत होता रहता है कि यह रह गया।

दादाश्री : ऐसा क्लेश नहीं रखना है फिर। बाद में एक दिन बैठकर सभी का एक साथ प्रतिक्रमण कर देना। जिन-जिनके हो, जान-पहचानवालों के, जिनके साथ ज़्यादा अतिक्रमण होता हो, उनके नाम लेकर एक घंटा प्रतिक्रमण कर लोगे तो सब खत्म हो जाएगा फिर। लेकिन आपको ऐसे बोझा नहीं रखना है।

यह अपूर्व बात है, पहले सुनी न हो, पढ़ी न हो, जानी न हो, यह मेहनत ऐसी बातों को जानने के लिए है।

अपने यहाँ प्रतिक्रमण करवाने के लिए बिठाते हैं उसके बाद क्या होता है? भीतर दो घंटे प्रतिक्रमण करवाते हैं न, कि बचपन से लेकर आज तक जो जो दोष हुए हो उन सभी को याद करके प्रतिक्रमण कर दो, सामनेवाले के शुद्धात्मा को देखकर ऐसा कहते हैं। अब कम उम्र से, जब से समझशक्ति की शुरूआत होती है, तभी से लेकर प्रतिक्रमण करने लगते हैं और अब तक के प्रतिक्रमण करते हैं। जब ऐसा प्रतिक्रमण करते हैं, तब उसके सभी दोषों का बड़ा-बड़ा हिस्सा आ जाता है। वापस फिर से जब प्रतिक्रमण करें, तब फिर छोटे-छोटे दोष भी आ जाते हैं। वापस फिर से प्रतिक्रमण करें, तो उससे भी

(पृ.९०)

छोटे दोष आ जाते हैं, इस तरह उन दोषों का सारा हिस्सा ही पूरी तरह से खत्म कर देते हैं।

दो घंटों के प्रतिक्रमण में पूरी ज़िंदगी के पिछले चिपके हुए दोषों को धो डालना, और ऐसा तय करना कि फिर से कभी ऐसे दोष नहीं करूँगा। अर्थात् प्रत्याख्यान हो गया।

जब आप प्रतिक्रमण करने बैठते हो न, तब अमृत के बिंदु टपकने लगते हैं एक ओर, और हलकापन महसूस होता है। भाई, तुझ से प्रतिक्रमण होते हैं क्या? तब हलकापन महसूस होता है? क्या तुम्हारा प्रतिक्रमण करना शुरू हो गया है? पूरे ज़ोर से चल रहे हैं? सभी दोषों को ढूँढ-ढूँढकर प्रतिक्रमण कर लेना है। खोजने लगोगे तो सब याद भी आता जाएगा। आठ साल पहले किसी को लात मारी हो, वह भी दिखाई देगा। रास्ता दिखाई देगा, लात भी दिखाई देगी। याद कैसे आया यह सब? यों ही याद करने जाए तो कुछ याद नहीं आता और प्रतिक्रमण करने लगें कि तुरंत लिंक में (क्रमानुसार) याद आ जाता है। एकाध बार पूरी ज़िंदगी का किया था आपने?

प्रश्नकर्ता : किया था।

दादाश्री : अभी तो जब मूल गलती समझ में आएगी, तब बहुत आनंद होगा। प्रतिक्रमण से यदि आनंद नहीं होता तो इसका मतलब प्रतिक्रमण करना नहीं आया। अतिक्रमण से यदि दु:ख नहीं होता तो वह मनुष्य, मनुष्य नहीं है।

प्रश्नकर्ता : मूल गलती कौन सी है दादा?

दादाश्री : पहले तो गलती ही दिखाई नहीं देती थी न? अब दिखाई देती है, वह स्थूल दिखाई देती है। अभी तो आगे दिखेगा।

प्रश्नकर्ता : सूक्ष्म, सूक्ष्मतर...

दादाश्री : गलतियाँ दिखाई देंगी।

जब आप पूरी ज़िंदगी के प्रतिक्रमण करते हो, तब आप न तो

(पृ.९१)

मोक्ष में होते हो और न ही संसार में। वैसे तो आप प्रतिक्रमण के समय पिछले दोषों का पूरा विवरण करते हो। मन-बुद्धि-चित्त और अहंकार सभी के फोन-वोन बंद होते हैं। अंत:करण बंद होता है। उस समय सिर्फ प्रज्ञा ही काम करती है। आत्मा भी इसमें कुछ नहीं करता। दोष हुआ फिर ढक जाता है। फिर दूसरी लेयर (परत) आती है। इस तरह लेयर पर लेयर आती जाती है, बाद में मृत्यु के समय अंतिम एक घंटे में इन सभी का पक्का चिट्ठा आता है।

भूतकाल के सभी दोष वर्तमान में दिखाई दें, वह ‘ज्ञानप्रकाश’ है। वह मेमोरी (स्मृति) नहीं है।

प्रश्नकर्ता : प्रतिक्रमण से आत्मा पर इफेक्ट होता है क्या?

दादाश्री : आत्मा को तो कोई भी इफेक्ट स्पर्श नहीं करता। यदि इफेक्ट हो तो संज्ञी कहलाएगा। आत्मा है, यह हंड्रेड परसेन्ट डिसाइडेड है। जहाँ मेमरी नहीं पहुँचती, वहाँ आत्मा के प्रभाव से होता है। आत्मा अनंत शक्तिवाला है, उसकी प्रज्ञाशक्ति पाताल फोड़कर दिखाती है। इस प्रतिक्रमण से तो खुद को पता चलता है कि अब हलका हो गया और बैर छूट जाते हैं, नियम से छूट ही जाते हैं। और प्रतिक्रमण करने के लिए वह व्यक्ति सामने नहीं मिले तो भी हर्ज नहीं। इसमें रूबरू दस्तखत की ज़रूरत नहीं है। जैसे इस कोर्ट में रूबरू दस्तखत की ज़रूरत है, ऐसी ज़रूरत नहीं है क्योंकि ये गुनाह रूबरू नहीं हुए हैं। यह गुनाह तो लोगों की गैरहाज़िरी में हुए हैं। यों लोगों के रूबरू हुए हैं, लेकिन रूबरू दस्तखत नहीं किए है। दस्तखत अंदर के हैं, राग-द्वेष के दस्तखत हैं।

कभी अकेले बैठे हो और प्रतिक्रमण या ऐसा कुछ करते, करते, करते भीतर थोड़ा आत्मा का अनुभव हो जाए। उसका स्वाद आ जाए। वह अनुभव कहलाता है।

जब घर के लोग निर्दोष दिखाई दें, तब समझना कि आपका प्रतिक्रमण सही है। वास्तव में निर्दोष ही हैं, पूरा जगत् निर्दोष ही है।

(पृ.९२)

आप अपने दोष से ही बँधे हो, उनके दोष से नहीं। आपके खुद के दोष से ही बंधे हो। अब, जब ऐसा समझ में आएगा तब कुछ हल आएगा!

प्रश्नकर्ता : निश्चय में तो विश्वास है कि पूरा जगत् निर्दोष है।

दादाश्री : वह तो प्रतीति में आया कहलाएगा। अनुभव में कितना आया? यह बात इतनी आसान नहीं है। वह तो जब खटमल घेर लें, मच्छर घेर लें, साँप घेर लें, उस समय वे निर्दोष लगे, तब सही है। लेकिन प्रतीति में आपको रहना चाहिए कि निर्दोष है। आपको दोषित दिखाई देते हैं वह आपकी गलती है। उसका प्रतिक्रमण करना चाहिए। हमारी प्रतीति में भी निर्दोष हैं और हमारे वर्तन में भी निर्दोष हैं। तुझे तो अभी प्रतीति में भी नहीं आया कि निर्दोष है, तुझे तो दोषित लगते हैं। कोई कुछ करे तो बाद में उसका प्रतिक्रमण करता है यानी शुरूआत में तो दोषित लगते हैं।

प्रश्नकर्ता : शुद्ध उपयोग रहे, तब अतिक्रमण हो सकता है?

दादाश्री : हो सकता है। अतिक्रमण भी हो सकता है और प्रतिक्रमण भी हो सकता है।

आपको ऐसा लगेगा कि यह तो मैं उपयोग चूककर उल्टे रास्ते चला। तब जो उपयोग चूके, उसके लिए प्रतिक्रमण करना पड़ेगा। उल्टा रास्ता यानी वेस्ट ऑफ टाइम एन्ड एनर्जी होता है, फिर भी उसके प्रतिक्रमण नहीं करोगे तो चलेगा। उसमें इतना अधिक नुकसान नहीं है। एक जन्म अभी बाकी है, इसलिए लेट गो किया है लेकिन जिसे उपयोग में अधिक रहना हो उसे उपयोग चूके उसका प्रतिक्रमण करना होगा। प्रतिक्रमण यानी वापस लौटना। कभी वापस लौटा ही नहीं है न!

हम किसी जगह विधि नहीं रखते। औरंगाबाद में हम ऐसी विधि रखते हैं कि अनंत जन्मों के दोष धुल जाए। एक घंटे की प्रतिक्रमण विधि में तो सभी का अहंकार भस्मीभूत हो जाता है! हम

(पृ.९३)

वहाँ औरंगाबाद में तो बारह महीनों में एक बार प्रतिक्रमण करवाते थे। तब दो सौ-तीन सौ लोग रोते करते थे और सभी रोग निकल जाते थे। क्योंकि पति उसकी पत्नी के पैर छूकर वहाँ पर माफ़ी माँगते थे। कितने ही जन्मों का बंधन, उसके लिए माफ़ी माँगते हैं, तब कितना कुछ साफ हो जाता है।

वहाँ हर साल, इसके पीछे हमें बहुत बड़ी विधि करनी पड़ती है, सभी के मन शुद्ध करने के लिए, आत्मा (व्यवहार आत्मा) शुद्ध करने के लिए, बड़ी विधि करके और फिर रख देते हैं कि सभी का साफ हो जाए उस घड़ी। कम्पलीट क्लीयर, खुद का ध्यान भी नहीं रहता कि मैं क्या लिख रहा हूँ, लेकिन सब स्पष्ट लिखकर लाते हैं। फिर क्लीयर हो जाता है। अभेदभाव उत्पन्न हुआ न, एक मिनट के लिए भी मुझे सौंप दिया कि ‘मैं ऐसा हूँ साहब’, वह अभेदभाव हो गया। और उसकी शक्ति बढ़ गई।

और फिर मैं तेरे दोषों को जान लेता हूँ और दोष पर विधि रखता रहता हूँ। यह कलियुग है, कलियुग में क्या-क्या दोष नहीं होते होंगे? किसी का दोष देखना, वही भूल है। कलियुग में दूसरों का दोष देखना, वही खुद की भूल है। किसी का दोष नहीं देखना है। गुण क्या हैं, वह देखने की ज़रूरत है। क्या बचा है उसके पास? कितना बचा है वह देखने की ज़रूरत है। इस काल में पूँजी बची ही नहीं है न! जिनके पास पूँजी बची है, वही महात्मा आगे हैं न!

जो अपने साथ हो, पहले भी थे और आज भी हैं, वे अपने धर्मबंधु कहलाते हैं और खुद के धर्मबंधुओं के ही साथ जन्मोंजन्म का बैर बँधा होता हैं। उनके साथ कुछ बैर बंध गया हो तो, उसके लिए आमने-सामने प्रतिक्रमण कर लो तो सारा हिसाब साफ हो जाएगा। एक भी व्यक्ति का आमने-सामने प्रतिक्रमण करना भूलना मत। ज़्यादातर सहाध्यायी के साथ ही बैर बंधता है, और उनके प्रत्यक्ष प्रतिक्रमण करने से धुल जाएगा। औरंगाबाद में जो प्रतिक्रमण करवाते हैं, ऐसे प्रतिक्रमण तो वर्ल्ड में कहीं भी नहीं होते होंगे।

(पृ.९४)

प्रश्नकर्ता : वहाँ सभी रो रहे थे न! बड़े-बड़े सेठ भी रो रहे थे।

दादाश्री : हाँ, औरंगाबाद का देखो न, सब कितना रो रहे थे! अब ऐसा प्रतिक्रमण पूरी ज़िंदगी में एक बार किया हो तो बहुत हो गया।

प्रश्नकर्ता : बड़े लोगों को रोने की जगह है ही कहाँ? ऐसी जगह कोई ही होती है।

दादाश्री : हाँ, सच है। यहाँ तो बहुत रोए थे सभी।

प्रश्नकर्ता : मैंने तो पहली ही बार देखा ऐसा कि समाज में ऐसे सभी प्रतिष्ठित कहलानेवाले लोग खुले आम वहाँ रो रहे थे!

दादाश्री : खुले आम रो रहे थे और पत्नी के पैरों में पड़कर माफ़ी माँग रहे थे। औरंगाबाद में आप आए होंगे, वहाँ ऐसा नहीं देखा था?

प्रश्नकर्ता : हाँ, और कहीं भी नहीं देखा ऐसा दृश्य!

दादाश्री : हो ही नहीं सकता न! और ऐसा अक्रम विज्ञान नहीं हो सकता, ऐसा प्रतिक्रमण नहीं हो सकता, ऐसा कुछ भी है ही नहीं।

प्रश्नकर्ता : ऐसे ‘दादाजी’ भी नहीं हो सकते!

दादाश्री : हाँ। ऐसे ‘दादाजी’ भी नहीं हो सकते।

सच्ची आलोचना की ही नहीं है किसी ने। वही मोक्ष में जाने में बाधक है। गुनाह हो गया, उसमें हर्ज नहीं। सच्ची आलोचना हो तो कोई हर्ज नहीं है। और आलोचना ग़ज़ब के पुरुष के समक्ष करनी चाहिए। ज़िंदगी में कहीं भी खुद के दोषों की आलोचना की है? किसके पास आलोचना करेगा? और आलोचना किए बिना चारा नहीं है। जब तक आलोचना नहीं करोगे तो इसे माफ़ कौन करवाएगा? ज्ञानीपुरुष जो चाहे सो कर सकते हैं, क्योंकि वे कर्ता नहीं हैं इसलिए।

(पृ.९५)

यदि कर्ता होते तो उन्हें भी कर्मबंधन होता। लेकिन कर्ता नहीं हैं, इसलिए चाहे सो करे।

तब आपको गुरु के समक्ष आलोचना करनी चाहिए। लेकिन आखिरी गुरु ये ‘दादा भगवान’ कहलाते हैं। हमने तो आपको रास्ता बता दिया। अब आखिरी गुरु बता दिए। वे आपको जवाब देते रहेंगे और इसीलिए तो वे ‘दादा भगवान’ हैं। जब तक वे प्रत्यक्ष नहीं हो जाते, तब तक ‘इन दादा भगवान’ को भजना होगा। उनके प्रत्यक्ष हो जाने के बाद अपने आप आते-आते फिर वह मशीन चलनी शुरू हो जाएगी। फिर वह खुद ही ‘दादा भगवान’ बन जाएगा।

ज्ञानीपुरुष से दोष ढकोगे तो खत्म हो गया। लोग खुल्ला करने के लिए ही तो प्रतिक्रमण करते हैं। वह आदमी सब लेकर आया था न? तब बल्कि खुला कर दिया ज्ञानी के समक्ष! वहाँ कोई ढकेगा तो क्या होगा?! दोष ढकने से वे डबल हो जाते हैं।

पत्नी के साथ जितनी जान-पहचान है, उतनी ही जान-पहचान प्रतिक्रमण के साथ होनी चाहिए। जैसे पत्नी को नहीं भूलते, वैसे ही प्रतिक्रमण भी नहीं भूलना चाहिए। पूरे दिन माफ़ी माँगते रहना चाहिए। माफ़ी माँगने की आदत ही पड़ जानी चाहिए। यह तो, दूसरों के दोष देखने की ही दृष्टि हो गई है!

जिसके साथ विशेष रूप से अतिक्रमण हो गया हो, उसके साथ प्रतिक्रमण का यज्ञ शुरू कर देना। अतिक्रमण बहुत किए हैं। प्रतिक्रमण नहीं किए, उसी से यह सब है।

यह प्रतिक्रमण तो हमारी सूक्ष्मातिसूक्ष्म खोज है। यदि इस खोज को समझ जाए तो किसी के साथ कोई झगड़ा ही नहीं रहेगा।

प्रश्नकर्ता : दोषों की लिस्ट तो बहुत लंबी है।

दादाश्री : वह लंबी हो तो, ऐसा मान लो कि एक व्यक्ति के साथ सौ तरह के दोष हो गए हो तो सब का साथ में प्रतिक्रमण कर डालना कि इन सभी दोषों के लिए मैं आप से क्षमा माँगता हूँ!

(पृ.९६)

प्रश्नकर्ता : अब ये ज़िंदगी का ड्रामा जल्दी पूरा हो जाए तो अच्छा!

दादाश्री : ऐसा क्यों बोले?

प्रश्नकर्ता : आप बीस दिन यहाँ थे, लेकिन एक भी जगह नहीं आ सका।

दादाश्री : इसलिए देह खत्म कर देनी चाहिए क्या?

इस देह से ‘दादा भगवान’ को पहचाना। इस देह का तो इतना उपकार है कि कोई भी इलाज करना पड़े तो करना। इस देह से तो ‘दादा भगवान’ को पहचाना। अनंत देह खो दीं पूरी तरह, व्यर्थ गईं। इस देह के माध्यम से पहचाना, इसलिए यह देह मित्र समान हो गया। और यह सेकन्ड मित्र, समझ गए न? अब इस देह का जतन करना। आज प्रतिक्रमण करना, ‘देह जल्दी समाप्त हो जाए ऐसा कहा, उसके लिए माफ़ी माँगता हूँ।’

25. प्रतिक्रमण की सैद्धांतिक समझ

प्रश्नकर्ता : तन्मयाकार हो जाते हैं इसलिए जागृतिपूर्वक पूरा-पूरा निकाल नहीं होता। अब तन्मयाकार हो जाने के बाद पता चलता है, तो फिर उसका प्रतिक्रमण करके निकाल करने का कोई रास्ता है क्या?

दादाश्री : प्रतिक्रमण करने से हलके हो जाएँगे। अगली बार हल्के हो कर आएँगे और अगर प्रतिक्रमण नहीं करें तो वही का वही बोझ फिर से आएगा। फिर से छटक जाएगा वापस चार्ज हुए बिना। इसलिए प्रतिक्रमण से हलके कर-करके निकाल होता रहेगा।

प्रश्नकर्ता : आप कहते हैं कि अतिक्रमण न्यूट्रल ही है, तो फिर प्रतिक्रमण करने का रहा ही कहाँ?

दादाश्री : अतिक्रमण न्यूट्रल ही है। लेकिन उसमें तन्मयाकार हो जाते हो, इसलिए बीज डल जाता है। लेकिन यदि अतिक्रमण में तन्मयाकार नहीं होगा तो बीज नहीं डलेगा। अतिक्रमण कुछ नहीं कर

(पृ.९७)

सकता। और प्रतिक्रमण तो हम तन्मयाकार नहीं होंगे, फिर भी करेगा। चंदूभाई तन्मयाकार हो गए उसे भी आप जानते हो और नहीं हुए उसे भी आप जानते हो। आप तन्मयाकार होते ही नहीं। तन्मयाकार मन-बुद्धि-चित्त और अहंकार होते हैं, आप उन्हें जानते हो।

प्रश्नकर्ता : चंदूभाई तन्मयाकार हो जाए तो चंदूभाई से प्रतिक्रमण करने को कहना पड़ेगा न?

दादाश्री : हाँ, चंदूभाई से कहना है।

प्रश्नकर्ता : सपने में प्रतिक्रमण हो सकते हैं?

दादाश्री : हाँ, बहुत अच्छी तरह हो सकते हैं। सपने में जो प्रतिक्रमण होते हैं, वे तो जो अभी होते हैं, उससे अच्छे होंगे। अभी तो आप तेज़ी से कर लेते हो। सपने में जो काम होता है, वह सारा पद्धति पूर्वक होता है। सपने में जो ‘दादा’ दिखाई देते हैं, वैसे दादा तो जैसे आपने कभी भी नहीं देखे हों, ऐसे ‘दादा’ दिखाई देते हैं। जागृति में वैसे दादा नहीं दिखाई देते, सपने में बहुत अच्छे दिखते हैं। क्योंकि सपना, वह सहज अवस्था है और यह जागृत, वह असहज अवस्था है।

क्रमिक मार्ग में आत्मप्राप्ति के बाद प्रतिक्रमण नहीं करना होता। प्रतिक्रमण पोइज़न माना जाता है। अपने यहाँ भी प्रतिक्रमण नहीं है। प्रतिक्रमण हम ‘चंदूभाई’ से करवाते हैं। क्योंकि यह तो अक्रम है, यहाँ तो सभी माल भरा है।

हम तो सामनेवाले के किस आत्मा की बात करते हैं? प्रतिक्रमण किस से करते हैं, वह जानते हो? प्रतिष्ठित आत्मा से नहीं करते, हम उसके मूल शुद्धात्मा से करते हैं। शुद्धात्मा की उपस्थिति में उसके साथ हुआ, उसके लिए हम प्रतिक्रमण करते हैं। उस शुद्धात्मा से हम क्षमा माँगते हैं। फिर उसके प्रतिष्ठित आत्मा से हमें लेना-देना नहीं है।

प्रतिक्रमण भी अहंकार को ही करना है, लेकिन चेतावनी

(पृ.९८)

किसकी? प्रज्ञा की। प्रज्ञा कहती है, ‘अतिक्रमण क्यों किया? तो प्रतिक्रमण करो।’

सूक्ष्म से सूक्ष्म दोष भी हमारी दृष्टि के बाहर नहीं जाता। सूक्ष्म से सूक्ष्म, अति-अति सूक्ष्म दोष का हमें तुरंत ही पता चल जाता है! आपमें से किसी को भी पता नहीं चलेगा कि मुझसे दोष हुआ है। क्योंकि दोष स्थूल नहीं है।

प्रश्नकर्ता : आपको हमारे भी दोष दिखाई देते हैं?

दादाश्री : सभी दोष दिखाई देते हैं, लेकिन हमारी दृष्टि दोषों की ओर नहीं रहती। हमें तुरंत ही उसका पता चल जाता है। लेकिन हमारी दृष्टि तो आपके शुद्धात्मा की ओर ही रहती है। हमारी दृष्टि आपके उदय कर्म की ओर नहीं रहती। हमें पता चल ही जाता है, सभी के दोषों का हमें पता चल जाता है। दोष दिखाई देते हैं, फिर भी भीतर हमें उससे असर नहीं होता।

हमारे पास तो जितने लोग दंड के योग्य हैं, उनके लिए भी माफ़ी होती है! और माफ़ी भी सहज होती है। सामनेवाले को माफ़ी माँगनी नहीं पड़ती। जहाँ सहज माफ़ किया जाता है, वहाँ लोग स्वच्छ हो जाते हैं। औैर जहाँ कहा जाता है कि, ‘साहब, माफ़ करना।’ वहीं पर मैले हुए हैं। जहाँ सहज क्षमा मिल जाए, वहाँ तो बहुत स्वच्छ हो जाते हैं।

जब तक हम साहजिकता में होते हैं, तब तक हमें प्रतिक्रमण नहीं होता। साहजिकता में आपको भी प्रतिक्रमण नहीं करने पड़ेंगे। साहजिकता में फर्क आया कि प्रतिक्रमण करने पड़ेंगे। आप हमें जब भी देखोगे तब साहजिकता में ही देखोगे। जब देखो तब हम उसी स्वभाव में दिखाई देते हैं। हमारी साहजिकता में फर्क नहीं आता।

हम आपको पाँच आज्ञा देते हैं।क्योंकि ज्ञान तो दिया, लेकिन उसे आप खो बैठोगे। अत: यदि इन पाँच आज्ञा में रहोगे तो मोक्ष में जाओगे। और छठा क्या कहा? कि जहाँ अतिक्रमण हो जाए, वहाँ

(पृ.९९)

प्रतिक्रमण करो। आज्ञा का पालन करना भूल जाओ तो प्रतिक्रमण करना। भूल तो हो ही सकती हैं, इन्सान हैं। लेकिन भूल गए उसका प्रतिक्रमण करना कि ‘हे दादा भगवान! ये दो घंटे भूल गया, आपकी आज्ञा भूल गया। लेकिन मुझे तो आज्ञा का पालन करना है। मुझे क्षमा करें।’ तो पिछला सबकुछ पास, पूरे सौ के सौ अंक।

यह ‘अक्रम विज्ञान’ है। विज्ञान यानी तुरंत फल देनेवाला। जहाँ कर्तापन नहीं है, वह ‘विज्ञान’ और जहाँ कर्तापन है, वह ‘ज्ञान’!

जो विचारशील व्यक्ति है उसे ऐसा तो लगेगा न कि हमने कुछ भी नहीं किया, फिर भी क्या है यह?! यह अक्रम विज्ञान की बलिहारी है। ‘अक्रम’ क्रम-व्रम नहीं।

~ जय सच्चिदानंद

मूल गुजराती शब्दों के समानार्थी शब्द

भोगवटा : सुख-दु:ख का असर

निकाल : निपटारा

अणहक्क : बिना हक़ का

तरछोड़: तिरस्कार सहित दुत्कारना

अटकण : जो बंधनरूप हो जाए, आगे नहीं बढऩे दे

चीकणी फाइल : गाढ़ ऋणानुबंध वाले व्यक्ति अथवा संयोग

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