दादा भगवान प्ररुपित

क्लेश रहित जीवन

मूल गुजराती संकलन : डॉ. नीरू बहन अमीन

अनुवाद : महात्मागण

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व्यवहार और धर्म सिखलाया जगत् को
संपादकीय
क्लेश रहित जीवन

व्यवहार और धर्म सिखलाया जगत् को

एक पुस्तक व्यवहारिक ज्ञान की बनाओ। इससे लोगों का व्यवहार सुधरे तब भी बहुत हो गया। और मेरे शब्द हैं उससे उनका मन बदल जाएगा। शब्द मेरे ही रखना। शब्दों में बदलाव मत करना। वचनबल वाले शब्द हैं, मालिकी बिना के शब्द हैं। परंतु उन्हें सुव्यवस्थित करके रखना है आपको।

मेरा यह जो व्यावहारिक ज्ञान है न, वह तो ऑल ऑवर वल्र्ड में हर एक को काम में आएगा। पूरी मनुष्यजाति के काम आएगा।

हमारा व्यवहार बहुत ऊँचा था। वह व्यवहार सिखलाता हूँ और धर्म भी सिखलाता हूँ। स्थूल वालों को स्थूल, सूक्ष्म वालों को सूक्ष्म परंतु हर एक को काम में आएगा। इसलिए ऐसा कुछ करो कि लोगों को हैल्पफुल हो। मैंने बहुत पुस्तकें पढ़ी हैं, इन लोगों को मदद हो ऐसीं। परंतु कुछ भला हो ऐसा नहीं था। थोड़ी-बहुत हैल्प होगी। बाकी जीवन सुधारे ऐसा होता ही नहीं! क्योंकि वह तो मन का, डॉक्टर ऑफ माइन्ड हो तभी होता है! वह, आई एम द फुल डॉक्टर ऑफ माइन्ड!

- दादाश्री

संपादकीय

जीवन तो जी लिया जाता है हर किसी से, परंतु सही जीवन उसका जिया हुआ कहलाता है कि जो जीवन क्लेश रहित हो!

कलियुग में तो घर-घर रोज़ सुबह पहले ही, चाय-नाश्ता ही क्लेश से होता है! फिर पूरे दिन में क्लेश के भोजन और फाँकने की बात ही क्या करनी? अरे, सतयुग, द्वापर और त्रेता में भी बड़े-बड़े पुरुषों के जीवन में क्लेश आया ही करते थे। सात्विक पांडवों की सारी ज़िंदगी कौरवों के साथ मुकाबला करने की व्यूह रचना में ही गई! रामचंद्रजी जैसों को वनवास और सीता के हरण से लेकर अंत में अश्वमेघ यज्ञ हुआ, वहाँ तक संघर्ष ही रहा! हाँ, आध्यात्मिक समझ से वे इन सब को समताभाव से पार कर गए, वह उनकी महान सिद्धि मानी जाएगी!

यह, जीवन क्लेशमय बीते तो उसका मुख्य कारण नासमझी ही है! ‘तमाम दु:खों का मूल तू खुद ही है!’ परम पूज्य दादाश्री का यह विधान कितनी गहनता से दु:खों के मूल कारण को खुला करता है, जो कभी भी किसी के दिमाग़ में ही नहीं आता है!

जीवन नैया किस गाँव पहुँचानी है वह निश्चित किए बिना, दिशा जाने बिना उसे चलाते ही जाते हैं, चलाते ही जाते हैं तो मंज़िल कहाँ से मिले? पतवार घुमा-घुमाकर थक जाते हैं, हार जाते हैं, और अंत में बीच समुद्र में डूब जाते हैं! इसलिए जीवन का ध्येय निश्चित करना अति-अति आवश्यक है। ध्येय बिना का जीवन पट्टा लगाए बगैर इंजन चलाते रहने जैसा है! यदि अंतिम ध्येय चाहिए तो वह मोक्ष का है और बीच का चाहिए तो जीवन सुखमय नहीं हो तो कोई बात नहीं, परंतु क्लेशमय तो होना ही नहीं चाहिए।

हररोज़ सुबह दिल से पाँच बार प्रार्थना करनी चाहिए कि ‘प्राप्त मन-वचन-काया से इस जगत् में किसी भी जीव को किंचित् मात्र भी दु:ख न हो, न हो, न हो!’ और उसके बावजूद भी किसी को भूल से दु:ख दे दिया जाए तो उसका हृदयपूर्वक पछतावा करके प्रतिक्रमण-प्रत्याख्यान करके धो डालने से जीवन वास्तव में शांतिमय जाता है।

घर में माँ-बाप-बच्चों के बीच की किच-किच का अंत समझ से ही आएगा। इसमें मुख्य तो माँ-बाप को ही समझना है। अतिशय भावुकता, मोह, ममता मार अवश्य खिलाते हैं और स्व-पर का अहित करके ही रहते हैं। ‘फ़र्ज़ पूरे करने हैं, लेकिन भावुकता के हिंडोले में झूलना और फिर गिरना नहीं है।’ परम पूज्य दादाश्री ने माँ-बाप और बच्चों के व्यवहार की बहुत ही गहरी समझ दोनों के गहरे मानस को समझकर खुली की है, जिससे लाखों के जीवन सुधर गए हैं!

पति-पत्नी अति-अति प्रेम वाले होने के बावजूद दोनों के ही जीवन में अति-अति क्लेश देखने को मिलता है। एक-दूसरे की हूँफ से इतने अधिक बंधे हुए हैं कि अंदर सदा क्लेश हो, फिर भी बाहर पति-पत्नी की तरह पूरा जीवन जी लेते हैं। पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार किस प्रकार हो, उसका मार्गदर्शन संपूज्य श्री दादाश्री ने हँसते-हँसाते दे दिया है।

सास-बहू का व्यवहार, व्यवसाय में सेठ-नौकर या व्यापारी-व्यापारी या पार्टनरों के साथ के व्यवहार को भी क्लेश रहित कैसे जीना उसकी चाबियाँ दी हैं।

केवल आत्मा-आत्मा करके व्यवहार की पूर्ण उपेक्षा करके आगे बढऩे वाले साधक ज्ञानीपद को प्राप्त नहीं कर सकते। क्योंकि उनका ज्ञान बाँझ ज्ञान माना जाता है। असल ज्ञानी जैसे कि परम पूज्य दादाश्री ने व्यवहार और निश्चय के दो पंखों को समानांतर करके मोक्षगगन में विहार किया है और लाखों को करवाया है और व्यवहार ज्ञान और आत्मज्ञान शिखर पर की समझ देकर जागृत कर दिया है।

प्रस्तुत पुस्तिका में जीवन जीने की कला, जो परम पूज्य दादाश्री के श्रीमुख से निकली हुई बोधकला को संक्षिप्त में संकलित किया गया है। विस्तारपूर्वक अधिक जानने के लिए प्रत्येक व्यक्ति के साथ के व्यवहार के सॉल्यूशन के लिए बड़े ग्रंथ प्राप्त करके अधिक गहरी समझ सुज्ञ पाठक को प्राप्त कर लेनी ज़रूरी है। माँ-बाप-बच्चों का व्यवहार, पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार, वाणी का व्यवहार, पैसों का व्यवहार इत्यादि व्यवहार ज्ञान के ग्रंथों का आराधन करके क्लेश रहित जीवन जिया जा सकता है।

- डॉ. नीरू बहन अमीन के जय सच्चिदानंद

(पृ.१)

क्लेश रहित जीवन

[1] जीवन जीने की कला

ऐसी ‘लाइफ’ में क्या सार?

इस जीवन का हेतु क्या होगा, वह समझ में आता है? कोई हेतु तो होगा न? छोटे थे, फिर बूढ़े होते हैं और फिर अर्थी निकालते हैं। जब अर्थी निकालते हैं, तब दिया हुआ नाम ले लेते हैं। यहाँ आए कि तुरंत ही नाम दिया जाता है, व्यवहार चलाने के लिए! जैसे ड्रामे में भर्तृहरि नाम देते हैं न? ‘ड्रामा’ पूरा तब फिर नाम पूरा। इस प्रकार ये व्यवहार चलाने के लिए नाम देते हैं, और उस नाम पर बंगला, मोटर, पैसे रखते हैं और अर्थी निकालते हैं, तब वह सब ज़ब्त हो जाता है। लोग जीवन गुज़ारते हैं और फिर गुज़र जाते हैं? ये शब्द ही ‘इटसेल्फ’ कहते हैं कि ये सब अवस्थाएँ हैं। गुज़ारा का मतलब ही राहखर्च! अब इस जीवन का हेतु मौज-मज़े करना होगा या फिर परोपकार के लिए होगा? या फिर शादी करके घर चलाना, वह हेतु है? यह शादी तो अनिवार्य होती है। किसी को शादी अनिवार्य न हो तो शादी नहीं होती है। परंतु मजबूरन शादी होती है न?! यह सब क्या नाम कमाने का हेतु है? पहले सीता और ऐसी सतियाँ हो गई हैं, जिनका नाम हो गया। परंतु नाम तो यहीं का यहीं रहने वाला है। लेकिन साथ में क्या ले जाना है? आपकी गुत्थियाँ!

आपको मोक्ष में जाना हो तो जाना, और नहीं जाना हो तो मत जाना। परंतु यहाँ आपकी गुत्थियों के सभी खुलासे कर जाओ। यहाँ तो हर एक प्रकार के खुलासे होते हैं। ये व्यवहारिक खुलासे होते हैं तो भी वकील पैसे लेते हैं! लेकिन यह तो अमूल्य खुलासा, उसका

(पृ.२)

मूल्य नहीं होता है। यह सब उलझा हुआ है! और वह आपको अकेले को ही है, ऐसा नहीं है, पूरे जगत् को है। ‘द वर्ल्ड इज़ द पज़ल इटसेल्फ।’ यह ‘वर्ल्ड’ इटसेल्फ पज़ल हो गया है।

धर्म वस्तु तो बाद में करना है, परंतु पहले जीवन जीने की कला जानो और शादी करने से पहले बाप होने का योग्यतापत्र प्राप्त करो। एक इंजन लाकर उसमें पेट्रोल डालें और उसे चलाते रहें, लेकिन वह मीनिंगलेस जीवन किस काम का? जीवन तो हेतु सहित होना चाहिए। यह तो इंजन चलता रहता है, चलता ही रहता है, वह निरर्थक नहीं होना चाहिए। उससे पट्टा जोड़ दें, तब कुछ पीसा जा सकेगा। लेकिन यह तो सारी ज़िंदगी पूरी हो जाए, फिर भी कुछ भी पीसा नहीं जाता और ऊपर से अगले भव के गुनाह खड़े करता है।

यह तो लाइफ पूरी फ्रेक्चर हो गई है। किसलिए जी रहे हैं, उसका भान भी नहीं रहा कि यह मनुष्यसार निकालने के लिए मैं जी रहा हूँ! मनुष्यसार क्या है? तब कहे, जिस गति में जाना हो, वह गति मिले या फिर मोक्ष में जाना हो तो मोक्ष में जाया जा सके। ऐसे मनुष्यसार का किसी को भान ही नहीं है, इसलिए भटकते रहते हैं।

परंतु वह कला कौन सिखलाए?

आज जगत् को हिताहित का भान ही नहीं है, संसार के हिताहित का कुछ लोगों को भान होता है, क्योंकि वह बुद्धि के आधार पर कितनों ने निश्चित किया होता है। लेकिन वह संसारी भान कहलाता है कि संसार में किस तरह मैं सुखी होऊँ? असल में तो यह भी करेक्ट नहीं है। करेक्टनेस तो कब कहलाती है कि जीवन जीने की कला सीखा हो तब। यह वकील हुआ, फिर भी कोई जीवन जीने की कला आई नहीं। तब डॉक्टर बना फिर भी वह कला नहीं आई। यह आप आर्टिस्ट की कला सीख लाए या दूसरी कोई भी कला सीख लाए, वह कोई जीवन जीने की कला नहीं कहलाती। जीवन जीने की कला तो, कोई मनुष्य अच्छा जीवन जी रहा हो, उसे आप कहो कि आप यह किस तरह जीवन जीते हो, ऐसा कुछ मुझे सिखाओ। मैं किस तरह चलूँ, तो वह

(पृ.३)

कला सीख सकता हूँ? उसके कलाधर चाहिए, उसका कलाधर होना चाहिए, उसका गुरु होना चाहिए। लेकिन इसकी तो किसी को पड़ी ही नहीं है न! जीवन जीने की कला की तो बात ही खत्म कर दी है न? हमारे पास जो कोई रहे तो उसे यह कला मिल जाए। फिर भी, पूरे जगत् को यह कला नहीं आती ऐसा हम से नहीं कहा जा सकता। परंतु यदि कम्पलीट जीवन जीने की कला सीखे हुए हों न तो लाइफ इज़ी रहे, परंतु धर्म तो साथ में चाहिए ही। जीवन जीने की कला में धर्म मुख्य वस्तु है। और धर्म में भी अन्य कुछ नहीं, मोक्षधर्म की भी बात नहीं, मात्र भगवान के आज्ञारूपी धर्म का पालन करना है। महावीर भगवान या कृष्ण भगवान या जिस किसी भगवान को आप मानते हों, उनकी आज्ञाएँ क्या कहना चाहती हैं, वे समझकर पालो। अब सभी नहीं पाली जा सकें तो जितनी पाली जा सकें, उतनी ठीक। अब आज्ञा में ऐसा हो कि ‘ब्रह्मचर्य पालना’ और आप शादी कर लो तो वह विरोधाभास हुआ कहलाएगा। असल में वे ऐसा नहीं कहते कि आप ऐसा विरोधाभास वाला करना। वे तो ऐसा कहते हैं कि ‘हमारी जितनी आज्ञाएँ तुझ से एडजस्ट हो पाएँ, उतनी एडजस्ट कर।’ आप से दो आज्ञाएँ एडजस्ट नहीं हुई तो क्या सभी आज्ञाएँ रख देनी चाहिए? आपसे नहीं हो पाता, इसीलिए क्या छोड़ देना चाहिए? आपको कैसा लगता है? दो नहीं हो सकें लेकिन दूसरी दो आज्ञाएँ पाल सकें, तो भी बहुत हो गया।

लोगों को व्यवहारधर्म भी इतना ऊँचा मिलना चाहिए कि जिससे लोगों को जीवन जीने की कला आए। जीवन जीने की कला आए, उसे ही व्यवहारधर्म कहा है। कोई तप, त्याग करने से वह कला नहीं आती। यह तो अजीर्ण हुआ हो, तो कुछ उपवास जैसा करना। जिसे जीवन जीने की कला आ गई उसे तो पूरा व्यवहारधर्म आ गया, और निश्चयधर्म तो डेवेलप होकर आए हों, तो प्राप्त होता है और इस अक्रम मार्ग में तो निश्चयधर्म ज्ञानी की कृपा से ही प्राप्त हो जाता है! ‘ज्ञानी पुरुष’ के पास तो अनंत ज्ञानकलाएँ होती हैं और अनंत प्रकार की बोधकलाएँ होती हैं! वे कलाएँ इतनी सुंदर होती हैं कि सर्व प्रकार के दु:खों से मुक्त करती हैं।

(पृ.४)

समझ कैसी? कि दु:खमय जीवन जिया

‘यह’ ज्ञान ही ऐसा है कि जो सीधा कर दे, और जगत् के लोग तो ऐसे हैं कि आपने सीधा डाला हो, फिर भी उल्टा कर देते हैं। क्योंकि समझ उल्टी है। उल्टी समझ है, इसीलिए उल्टा करते हैं, नहीं तो इस हिंदुस्तान में किसी जगह पर दु:ख नहीं हैं। ये जो दु:ख हैं वे नासमझी के दु:ख हैं और लोग सरकार को कोसते हैं, भगवान को कोसते हैं कि ‘ये हमें दु:ख देते हैं!’ लोग तो बस कोसने का धंधा ही सीखे हैं।

अभी कोई नासमझी से, भूल से खटमल मारने की दवाई पी जाए तो क्या वह दवाई उसे छोड़ देगी?

प्रश्नकर्ता : नहीं छोड़ेगी।

दादाश्री : क्यों, भूल से पी ली थी न? जान-बूझकर नहीं पी, फिर भी वह नहीं छोड़ेगी?

प्रश्नकर्ता : नहीं। उसका असर नहीं छोड़ेगा।

दादाश्री : अब उसे कौन मारता है? वह खटमल मारने की दवाई उसे मारती है, भगवान नहीं मारते, यह दु:ख देना या अन्य कोई चीज़, वह भगवान नहीं करते, पुद्गल (अहंकार) ही दु:ख देता है। यह खटमल की दवाई भी पुद्गल ही है न? आपको इसका अनुभव होता है या नहीं होता? इस काल के जीव पूर्वविराधक वृत्तियों वाले हैं, पूर्वविराधक कहलाते हैं। पहले के काल के लोग तो खाने-पीने का नहीं हो, कपड़े-लत्ते नहीं हों, फिर भी चला लेते थे, और अभी तो कोई भी कमी नहीं, फिर भी इतनी अधिक कलह ही कलह! उसमें भी पति को इन्कम टैक्स, सेल्स टैक्स के लफड़े होते हैं, इसीलिए वहाँ के साहब से वे डरते हैं और घर पर बाईसाहब को पूछें कि आप क्यों डरती हो? तब वह कहती है कि मेरे पति सख्त हैं।

चार वस्तुएँ मिली हों और कलह करें, वे सब मूर्ख, फूलिश

(पृ.५)

कहलाते हैं। टाइम पर खाना मिलता है या नहीं मिलता? फिर चाहे जैसा हो, घी वाला या बिना घी का, लेकिन मिलता है न? टाइम पर चाय मिलती है या नहीं मिलती? फिर दो टाइम हो या एक टाइम, लेकिन चाय मिलती है या नहीं मिलती? और कपड़े मिलते हैं या नहीं मिलते? कमीज़-पेन्ट, सर्दी में, ठंड में पहनने को कपड़े मिलते हैं या नहीं मिलते? पड़े रहने के लिए कोठड़ी है या नहीं? इतनी चार वस्तुएँ मिलने पर भी शोर मचाएँ, उन सभी को जेल में डाल देना चाहिए! फिर भी उसे शिकायत रहती हो तो उसे शादी कर लेनी चाहिए। शादी की शिकायत के लिए जेल में नहीं डाला जा सकता। इन चार वस्तुओं के साथ इसकी ज़रूरत है। उमर हो जाए, उसे शादी के लिए मना नहीं कर सकते। लेकिन इसमें भी, कितने ही शादी होने के बाद उसे तोड़ डालते हैं, और फिर अकेले रहते हैं और दु:ख मोल लेते हैं। हो चुकी शादी को तोड़ डालते हैं, किस तरह की पब्लिक है यह?! ये चार-पाँच वस्तुएँ न हों तो हम समझें कि इसे ज़रा अड़चन पड़ रही है। वह भी दु:ख नहीं कहलाता, अड़चन कहलाती है। यह तो सारा दिन दु:ख में निकालता है, सारा दिन तरंग (शेखचिल्ली जैसी कल्पनाएँ) करता ही रहता है। तरह-तरह के तरंग करता रहता है!

एक व्यक्ति का मुँह ज़रा हिटलर जैसा था, उसका नाक उससे ज़रा मिलता-जुलता था। वह अपने आपको मन में खुद मान बैठा था कि मैं तो हिटलर जैसा हूँ! घनचक्कर! कहाँ हिटलर और कहाँ तू? क्या मान बैठा है? हिटलर तो यों ही आवाज़ दे, तो सारी दुनिया हिल उठे! अब इन लोगों के तरंगों का कहाँ पार आए?

इसलिए वस्तु की कोई ज़रूरत नहीं है, यह तो अज्ञानता का दु:ख है। हम ‘स्वरूपज्ञान’ देते हैं, फिर दु:ख नहीं रहते। हमारे पाँच वाक्यों में आप कहाँ नहीं रहते, उतना ही बस देखते रहना है! अपने टाइम पर खाना खाने का सब मिलता रहेगा। और वह फिर ‘व्यवस्थित’ है। यदि दाढ़ी अपने आप उगती है तो क्या तुझे खाने-पीने का नहीं मिलेगा?

(पृ.६)

इस दाढ़ी की इच्छा नहीं है, फिर भी वह बढ़ती है न! अब आपको अधिक वस्तुओं की ज़रूरत नहीं है न? अधिक वस्तुओं की देखो न कितनी सारी परेशानी है! आपको स्वरूपज्ञान मिलने से पहले तरंगें आती थीं न? तरंगो को आप पहचानते हो न?

प्रश्नकर्ता : जी हाँ, तरंगें आती थीं।

दादाश्री : भीतर तरह-तरह की तरंगें आया करती हैं, उन तरंगों को भगवान ने आकाशी फूल कहा है। आकाशी फूल कैसा था और कैसा नहीं था? उसके जैसी बात! सभी तरंग में और अनंग में, दो में ही पड़े हुए हैं। ऐसे, सीधे थप्पड़ नहीं मारते हैं। सीधे थप्पड़ मारें वह तो पद्धतिपूर्वक का कहलाता है लेकिन भीतर ‘एक थप्पड़ लगा दूँगा’ इस तरह अनंग थप्पड़ मारता रहता है। जगत् तरंगी भूतों में तड़पता रहता है। ऐसा होगा तो, ऐसा होगा और वैसा होगा।

ऐसे शौक की कहाँ ज़रूरत है?

जगत् पूरा ‘अन्नेसेसरी’ परिग्रह के सागर में डूब गया है। ‘नेसेसरी’ को भगवान परिग्रह नहीं कहते हैं। इसलिए हर एक को खुद की नेसेसिटी कितनी है, यह निश्चित कर लेना चाहिए। इस देह को मुख्य किसकी ज़रूरत है? मुख्य तो हवा की। वह उसे हर क्षण फ्री ऑफ कॉस्ट मिलती ही रहती है। दूसरा, पानी की ज़रूरत है। वह भी उसे फ्री ऑफ कॉस्ट मिलता ही रहता है। फिर ज़रूरत खाने की है। भूख लगी यानी क्या कि फायर हुई, इसीलिए उसे बुझाओ। इस फायर को बुझाने के लिए क्या चाहिए? तब ये लोग कहते हैं कि ‘श्रीखंड, बासुंदी!’ अरे नहीं, जो हो वह डाल दे न अंदर। खिचड़ी-कढ़ी डाली हो तब भी वह बुझ जाती है। फिर सेकन्डरी स्टेज की ज़रूरत में पहनने का, पड़े रहने का वह है। जीने के लिए क्या मान की ज़रूरत है? यह तो मान को ढूँढता है और मूर्छित होकर फिरता है। यह सब ‘ज्ञानी पुरुष’ के पास से जान लेना चाहिए न?

एक दिन यदि नल में चीनी डाला हुआ पानी आए तो लोग

(पृ.७)

ऊब जाएँ। अरे! ऊब गए? तो कहे, ‘हाँ, हमें तो सादा पानी ही चाहिए।’ ऐसा यदि हो न तो उसे सच्चे की क़ीमत समझ में आए। ये लोग तो फेन्टा और कोकाकोला खोजते हैं। अरे, तुझे किसकी ज़रूरत है वह जान ले न! शुद्ध हवा, शुद्ध पानी और रात को खिचड़ी मिल गई तो यह देह शोर मचाता है? नहीं मचाता। इसलिए ज़रूरतें क्या है, इतना निश्चित कर लो। जबकि ये लोग खास प्रकार की आइस्क्रीम ढूँढेंगे। कबीर साहब क्या कहते  हैं?

‘तेरा बैरी कोई नहीं, तेरा बैरी फ़ेल।’

अन्नेसेसरी के लिए बेकार ही भागदौड़ करता है, वही ‘फ़ेल’ कहलाता है। तू हिन्दुस्तान में रहता है और नहाने के लिए पानी माँगे तो हम तुझे फ़ेल नहीं कहेंगे?

‘अपने फ़ेल मिटा दे, फिर गली-गली में फिर।’

इस देह की ज़रूरतें कितनी? शुद्ध घी, दूध चाहिए। जबकि वे शुद्ध नहीं देते और पेट में कचरा डालते हैं। वे फ़ेल किस काम के? ये सिर में क्या डालते हैं? शेम्पू, साबुन जैसा नहीं दिखता और पानी जैसा दिखता है, ऐसा सिर में डालेंगे। इन अक्ल के खज़ानो ने ऐसी खोज की कि जो फ़ेल नहीं थे वे भी फ़ेल हो गए! इससे अंतरसुख घट गया! भगवान ने क्या कहा था कि बाह्यसुख और अंतरसुख के बीच में पाँच-दस प्रतिशत फर्क होगा तो चलेगा, लेकिन यह नब्बे प्रतिशत का फर्क हो तब तो नहीं चलेगा। इतना बड़ा होने के बाद फिर वह फ़ेल होता है, मरना पड़ेगा? लेकिन ऐसे नहीं मरा जाता और सहन करना पड़ता है। ये तो केवल फ़ेल ही हैं, अन्नेसेसरी ज़रूरतें खड़ी करी हैं।

एक घंटा बज़ार बंद हो जाए तो लोगों को चिंता हो जाती है! अरे, तुझे क्या चाहिए कि तुझे चिंता होती है? तो कहे कि, मुझे ज़रा आइस्क्रीम चाहिए, सिगरेट चाहिए। यह तो फ़ेल ही बढ़ाया न? यह अंदर सुख नहीं है, इसीलिए लोग बाहर ढूँढते रहते हैं। भीतर अंतरसुख

(पृ.८)

की जो सिलक थी, वह भी आज चली गई है। अंतरसुख का बैलेन्स मत तोड़ना। यह तो जैसे अच्छा लगे वैसे सिलक (राहखर्च, पूँजी) खर्च कर डाली। तो फिर अंतरसुख का बैलेन्स ही किस तरह रहेगा? नकल करके जीना अच्छा या असल? ये बच्चे एक-दूसरे की नकल करते हैं। हमें नकल कैसी? ये फॉरिन के लोग अपनी नकल कर जाते हैं। लेकिन ये तो फॉरिन के थोड़े हिप्पी यहाँ आए और यहाँ के लोगों ने उनकी नकल कर डाली। इसे जीवन कहा ही कैसे जाए?

लोग ‘गुड़ मिलता नहीं, चीनी मिलती नहीं’ ऐसे शोर मचाते रहते हैं। खाने की चीज़ों के लिए क्या शोर मचाना चाहिए? खाने की चीज़ों को तो तुच्छ माना गया है। खाने का तो, पेट है तो मिल ही जाता है। दाँत है उतने कौर मिल ही जाते हैं। दाँत भी कैसे हैं! चीरने के, फाड़ने के, चबाने के, अलग-अलग। ये आँखें कितनी अच्छी हैं? करोड़ रुपये दें तब भी ऐसी आँखें मिलेंगी? नहीं मिलेंगी। अरे, लाख रुपये हों तब भी अभागा कहेगा, ‘मैं दु:खी हूँ’। अपने पास इतनी सारी क़ीमती वस्तुएँ हैं, उनकी क़ीमत समझता नहीं है। अगर सिर्फ आँख की ही क़ीमत समझे, तब भी सुख लगे।

ये दाँत भी अंत में तो दिवालिया निकालने वाले हैं, लेकिन आजकल बनावटी दाँत डालकर उन्हें पहले जैसे बना देते हैं। लेकिन वह भूत जैसा लगता है। कुदरत को नये दाँत देने होते तो वह नहीं देती? छोटे बच्चे को नये दाँत देती है न?

इस देह को गेहूँ खिलाए, दाल खिलाई, फिर भी अंत में अर्थी! सब की अर्थी! अंत में तो यह अर्थी ही निकलने वाली है। अर्थी यानी कुदरत की ज़ब्ती। सब यहीं रखकर जाना है और साथ में क्या ले जाना है? घर वालों के साथ की, ग्राहकों के साथ की, व्यापारियों के साथ की गुत्थियाँ! भगवान ने कहा है कि ‘हे जीवों! समझो, समझो, समझो। मनुष्यपन फिर से मिलना महादुर्लभ है।’

जीवन जीने की कला इस काल में है ही नहीं। मोक्ष का मार्ग तो जाने दो, लेकिन जीवन जीना तो आना चाहिए न?

(पृ.९)

किसमें हित? निश्चित करना पड़ेगा

हमारे पास व्यवहार जागृति तो निरंतर होती है! कोई घड़ी की कंपनी मेरे पास से पैसे नहीं ले गई है। किसी रेडियो वाले की कंपनी मेरे पास से पैसे नहीं ले गई है। हमने तो खरीदा ही नहीं। इन सब का अर्थ ही क्या है? मीनिंगलेस है। जिस घड़ी ने मुझे परेशान किया, जिसे देखते ही अंदर अत्यंत दु:ख लगे, वह किस काम का? काफी कुछ लोगों को बाप को देखने से अंदर द्वेष और चिढ़ होती है। खुद पढ़ता नहीं हो, किताब एक तरफ रखकर खेल में पड़ा हो, और अचानक बाप को देखे तो उसे द्वेष और चिढ़ होती है, वैसे ही इस घड़ी को देखते ही चिढ़ होती है तो फिर रखो घड़ी को एक तरफ। और यह दूसरा सब, रेडियो, टी.वी. तो प्रत्यक्ष पागलपन है, प्रत्यक्ष ‘मेडनेस’ है।

प्रश्नकर्ता : रेडियो तो घर-घर में हैं।

दादाश्री : वह बात अलग है। जहाँ ज्ञान ही नहीं, वहाँ पर क्या हो? उसे ही मोह कहते हैं न? मोह किसे कहते हैं? बिना ज़रूरत की चीज़ को लाना और ज़रूरत की चीज़ में कमी करना, उसी को मोह कहते हैं।

यह किसके जैसा है, वह कहूँ? कोई प्याज़ को चीनी की चाशनी में डालकर दे तो ले आए, उसके जैसा है। अरे, तुझे प्याज़ खाना है या चाशनी खानी है, वह पहले पक्का तो कर। प्याज़ वह प्याज़ होना चाहिए। नहीं तो प्याज़ खाने का अर्थ ही क्या है? यह तो सारा पागलपन है। खुद का कोई डिसीज़न नहीं, खुद की सूझ नहीं और कुछ भान ही नहीं है! किसी को प्याज़ को चीनी की चाशनी में खाते हुए देखे तो खुद भी खाता है! प्याज़ ऐसी वस्तु है कि चीनी की चाशनी में डाला कि वह यूज़लेस हो जाता है। यानी किसी को भान नहीं है, बिल्कुल भान रहित है। खुद अपने आप को मन में मानता है कि मैं कुछ हूँ और उसे ना भी कैसे कहा जाए हम से?

(पृ.१०)

ये आदिवासी भी मन में समझते हैं कि मैं कुछ हूँ। क्योंकि उसे ऐसा लगता है कि इन दो गायों और इन दो बैलों का मैं ऊपरी (बॉस, वरिष्ठ मालिक) हूँ! और उन चार जनों का वह ऊपरी ही माना जाएगा न? जब उन्हें मारना हो, तब वह मार सकता है, उसका अधिकार है उसे। और किसी का ऊपरी न हो तो अंत में पत्नी का तो ऊपरी होगा ही। इसे कैसे पहुँच सकेंगे? जहाँ विवेक नहीं, सार-असार का भान नहीं, वहाँ क्या हो? मोक्ष की बात तो जाने दो, लेकिन सांसारिक हिताहित का भी भान नहीं है।

संसार क्या कहता है कि यदि रेशमी चादर मुफ्त में मिल रही हो तब भी उसे लाकर मत बिछाओ और कॉटन पैसे देकर मिल रही हो तब भी लाओ। अब आप पूछोगे कि इसमें क्या फायदा! तो कहे, यह मुफ्त लाने की आदत पड़ने के बाद यदि कभी नहीं मिलेगा तो मुश्किल में पड़ जाओगे। इसलिए ऐसी आदत रखना कि हमेशा मिलता रहे। इसलिए कॉटन की खरीदकर लाना। नहीं तो आदत पड़ने के बाद मुश्किल लगेगा। यह जगत् ही सारा ऐसा हो गया है, उपयोग नाम मात्र भी नहीं मिलता। बड़े-बड़े आचार्य महाराजों को कहें कि साहब आज इन चार गद्दों पर सो जाइए। तो उन्हें महाउपाधि (बाहर से आने वाले दु:ख) लगेगी, नींद ही नहीं आएगी सारी रात! क्योंकि दरी पर सोने की आदत पड़ी हुई है न! इन्हें दरी की आदत हो गई है और ये चार गद्दो की आदत वाले हैं। भगवान को तो दोनों ही कबूल नहीं हैं। साधु के तप को या गृहस्थी के विलास को भगवान कबूल नहीं करते। वे तो कहते हैं कि यदि आपका उपयोगपूर्वक होगा तो वह सच्चा। उपयोग नहीं और ऐसे ही आदत पड़ जाए तो सब मीनिंगलेस कहलाता है।

बातें ही समझनी हैं कि इस रास्ते पर ऐसा है और इस रास्ते पर ऐसा है। फिर निश्चित करना है कि कौन-से रास्ते जाना चाहिए! नहीं समझ में आए तो ‘दादा’ से पूछना। तब दादा आपको बताएँगे कि ये तीन रास्ते जोखिम वाले हैं और यह रास्ता बिना जोखिम का है, उस रास्ते पर हमारे आशीर्वाद लेकर चलना।

(पृ.११)

और ऐसी व्यवस्था से सुख आता है

एक व्यक्ति मुझे कहता है कि, ‘मुझे कुछ समझ नहीं पड़ती है। मुझे कुछ आशीर्वाद दीजिए।’ उसके सिर पर हाथ रखकर मैंने कहा, ‘जा, आज से सुख की दुकान खोल। अभी तेरे पास जो है वह दुकान खाली कर डाल।’ सुख की दुकान मतलब क्या? सुबह से उठे तब से दूसरे को सुख देना, दूसरा व्यापार नहीं करना। अब उस व्यक्ति को तो यह बहुत अच्छी तरह से समझ में आ गया। उसने तो बस यह शुरू कर दिया, इसलिए वह तो खूब आनंद में आ गया! सुख की दुकान खोलेगा न, तब फिर तेरे भाग में सुख ही रहेगा और लोगों के भाग में भी सुख ही जाएगा। यदि हमारी हलवाई की दुकान हो तो फिर किसी के वहाँ जलेबी मोल लेने जाना पड़ेगा? जब खानी हो तब खा सकते हैं। दुकान ही हलवाई की हो वहाँ फिर क्या? इसलिए तू सुख की ही दुकान खोलना। फिर कोई परेशानी ही नहीं।

आपको जिसकी दुकान खोलनी हो उसकी खोली जा सकती है। यदि हररोज़ न खोली जा सके तो सप्ताह में एक दिन रविवार के दिन तो खोलो! आज रविवार है, ‘दादा’ ने कहा है कि सुख की दुकान खोलनी है। आपको सुख के ग्राहक मिल जाएँगे। ‘व्यवस्थित’ का नियम ही ऐसा है कि ग्राहक मिलवा देता है। व्यवस्थित का नियम यह है कि तूने जो निश्चित किया हो, उस अनुसार तुझे ग्राहक भिजवा देता है।

जिसे जो भाता हो, उसे उसकी दुकान खोलनी चाहिए। कितने तो उकसाते ही रहते हैं। उसमें से उन्हें क्या मिलता है? किसी को हलवाई का शौक हो तो वह किसकी दुकान खोलेगा? हलवाई की ही न। लोगों को किसका शौक है? सुख का। तो सुख की ही दुकान खोल, ताकि लोग भी सुख पाएँ और खुद के घर वाले भी सुख भोगें। खाओ, पीओ और मज़े करो। आने वाले दु:ख के फोटो मत उतारो। सिर्फ नाम सुना कि मगन भाई आने वाले हैं, अभी तक आए नहीं हैं, सिर्फ पत्र ही आया है, तब से ही उसके फोटो खींचने शुरू कर देते हैं।

(पृ.१२)

ये ‘दादा’ तो ‘ज्ञानी पुरुष’, उनकी दुकान कैसी चलती है? पूरा दिन! यह दादा की सुख की दुकान, उसमें किसी ने पत्थर डाला हो, फिर भी उसे गुलाबजामुन खिलाते हैं। सामने वाले को थोड़े ही पता है कि यह सुख की दुकान है, इसलिए यहाँ पत्थर नहीं मारा जाए? वह तो, निशाना लगाए बिना जहाँ मन में आया वहाँ मारता है।

‘हमें किसी को दु:ख नहीं देना है’, ऐसा निश्चित किया फिर भी देने वाला तो दे ही जाएगा न? तब क्या करेगा तू? देख मैं तुझे एक रास्ता बताऊँ। तुझे सप्ताह में एक दिन ‘पोस्ट ऑफिस’ बंद रखना है। उस दिन किसी का मनीऑर्डर स्वीकारना नहीं है और किसी को मनीऑर्डर करना भी नहीं है। और यदि कोई भेजे तो उसे एक तरफ रख देना और कहना कि आज पोस्ट ऑफिस बंद है, कल बात करेंगे। हमारा तो पोस्ट ऑफिस हमेशा बंद ही होता है।

ये दिपावली के दिन सब किसलिए समझदार हो जाते हैं? उनकी ‘बिलीफ़’ बदल जाती है, इसलिए। आज दिवाली का दिन है, आनंद में जाने देना है ऐसा निश्चित करते हैं, इसलिए उनकी बिलीफ़ बदल जाती है, इसलिए आनंद में रहते हैं। ‘हम’ मालिक हैं, इसलिए सेटिंग कर सकते हैं। तूने निश्चित किया हो कि आज मुझे असभ्यता नहीं करनी है। तो तुझसे असभ्यता नहीं होगी। इस हफ्ते में एक दिन हमें नियम में रहना है, एक दिन पोस्ट ऑफिस बंद करके बैठना है। फिर चाहे लोग चिल्लाएँ कि आज पोस्ट ऑफिस बंद है?

बैर खपे और आनंद भी रहे

इस जगत् में किसी भी जीव को किंचित् मात्र दु:ख नहीं देने की भावना हो, तभी कमाई कहलाती है। ऐसी भावना रोज़ सुबह करनी चाहिए। कोई गाली दे, वह आपको पसंद नहीं हो तो भी उसे जमा ही करना चाहिए, पता नहीं लगाना है कि ‘मैंने उसे कब दी थी।’ आपको तो तुरंत ही जमा कर लेनी चाहिए कि हिसाब पूरा हो गया। और यदि चार वापस दे दीं तो बहीखाता चलता ही रहेगा, उसे ऋणानुबंध कहते हैं। बही बंद की यानी खाता बंद। ये लोग तो क्या

(पृ.१३)

करते हैं कि उसने एक गाली दी हो तो यह ऊपर से चार देता है! भगवान ने क्या कहा है कि जो रकम तुझे अच्छी लगती हो, वह उधार दे और अच्छी नहीं लगती हो, तो उधार मत देना। कोई व्यक्ति कहे कि आप बहुत अच्छे हो तो कहना कि, ‘भाई आप भी बहुत अच्छे हो।’ ऐसी अच्छी लगने वाली बातें उधार दो तो चलेगा।

यह संसार, पूरा हिसाब चुकाने का कारखाना है। बैर तो सास बनकर, बहू बनकर, बेटा बनकर, अंत में बैल बनकर भी चुकाना पड़ता है। बैल लेने के बाद, रुपये बारह सौ चुकाने के बाद, फिर दूसरे दिन वह मर जाता है! ऐसा है यह जगत्!! अनंत जन्म बैर में ही गए हैं! यह जगत् बैर से खड़ा है! ये हिन्दू तो घर में बैर बाँधते हैं और इन मुस्लिमों को देखो तो वे घर में बैर नहीं बाँधते हैं, बाहर झगड़ा कर आते हैं। वे जानते हैं कि ‘हमें तो इसी के इसी कमरे में और इसी के साथ ही रात को पड़े रहना है, वहाँ झगड़ा करना कैसे पुसाए?’ जीवन जीने की कला क्या है कि संसार में बैर न बंधे और छूट जाएँ। तो ये साधु-संन्यासी भी भाग जाते हैं न? भागना नहीं चाहिए। यह तो जीवन संग्राम है, जन्म से ही संग्राम शुरू! वहाँ लोग मौज-मज़े में पड़ गए हैं!

घर के सभी लोगों के साथ, आसपास, ऑफिस में सब लोगों के साथ समभाव से निकाल करना। घर में नहीं भाए, ऐसा भोजन थाली में आए, वहाँ समभाव से निकाल करना। किसी को परेशान मत करना, जो थाली में आए, वह खाना। जो सामने आया वह संयोग है और भगवान ने कहा है कि संयोग को धक्का मारेगा तो वह धक्का तुझे लगेगा! इसलिए हमें नहीं भाए, ऐसी चीज़ परोसी हो, फिर भी हम उसमें से दो चीज़ें खा लेते हैं। नहीं खाएँ, तो दो लोगों के साथ झगड़े होंगे। एक तो जो लाया, जिसने बनाया, उसके साथ झंझट होगी, उसे तिरस्कार लगेगा, और दूसरी तरफ खाने की चीज़ के साथ। खाने की चीज़ कहती है कि ‘मैंने क्या गुनाह किया? मैं तेरे पास आई हूँ, और तू मेरा अपमान किसलिए करता है? तुझे ठीक लगे उतना ले, लेकिन

(पृ.१४)

अपमान मत करना मेरा।’ अब क्या उसे हमें मान नहीं देना चाहिए? हमें तो कोई दे जाए, तब भी हम उसे मान देते हैं। क्योंकि एक तो मिलता नहीं है और मिल जाए तो मान देना पड़ता है। यह खाने की चीज़ दी और उसकी आपने कमी निकाली तो इससे सुख घटेगा या बढ़ेगा?

प्रश्नकर्ता : घटेगा।

दादाश्री : जिसमें घटे वह व्यापार तो नहीं करोगे न? जिससे सुख घटे ऐसा व्यापार ही नहीं करना चाहिए न? मुझे तो बहुत बार नहीं भाती हो ऐसी सब्ज़ी हो, वह खा लेता हूँ और ऊपर से कहता हूँ कि आज की सब्ज़ी बहुत अच्छी है।

प्रश्नकर्ता : वह द्रोह नहीं कहलाता? न भाता हो और हम कहें कि भाता है, तो वह गलत तरह से मन को मनाना नहीं हुआ?

दादाश्री : गलत तरह से मन को मनाना नहीं है। एक तो ‘भाता है’ ऐसा कहें तो अपने गले उतरेगा। ‘नहीं भाता’ कहा तो फिर सब्ज़ी को गुस्सा चढ़ेगा। बनाने वाले को गुस्सा चढ़ेगा। और घर के बच्चे क्या समझेंगे कि ये दख़ल वाले व्यक्ति हमेशा ऐसा ही किया करते हैं? घर के बच्चे अपनी इज्जत(?) देख लेते हैं।

हमारे घर में भी कोई नहीं जानता कि ‘दादा’ को यह नहीं भाता या भाता है। यह भोजन बनाना क्या बनाने वाले के हाथ का खेल है? वह तो खाने वाले के व्यवस्थित के हिसाब से थाली में आता है, उसमें दख़ल नहीं करनी चाहिए।

साहिबी, फिर भी भोगते नहीं

जब होटल में खाते हैं तो बाद में पेट में मरोड़ उठते हैं। होटल में खाता है फिर बाद में धीरे-धीरे ऐसे इकट्ठा होता जाता है और एक तरफ पड़ा रहता है। फिर वह जब परिपाक होता है, तब मरोड़ उठते हैं। ऐंठन होती है, वह कितने ही वर्षों के बाद परिपाक होता है। हमें तो जब से यह अनुभव हुआ, उसके बाद सब से कहते कि

(पृ.१५)

होटल का नहीं खाना चाहिए। हम एक बार मिठाई की दुकान पर खाने गए थे। वह मिठाई बना रहा था उसमें पसीना टपक रहा था, कचरा गिर रहा था! आजकल तो घर पर भी जो भोजन बनाते हैं, वह कहाँ शुद्ध होता है? आटा गुँधते हैं, तब हाथ नहीं धोए होते, नाखून में मैल भरा होता है। आजकल नाखून काटते नहीं न? यहाँ कितने ही आते हैं, उनके नाखून लंबे होते हैं, तब मुझे उन्हें कहना पड़ता है, ‘बहन, इससे आपको लाभ है क्या? लाभ हो तो नाखून रहने देना। तुझे कोई ड्रॉइंग का काम करना हो तो रहने देना।’ तब वह कहती है कि ‘नहीं, कल काटकर आऊँगी।’ इन लोगों को कोई सेन्स ही नहीं है! नाखून बढ़ाते हैं और कान के पास रेडियो लेकर फिरते हैं! खुद का सुख किसमें है वह भान ही नहीं है, और खुद का भी भान कहाँ है? वह तो लोगों ने जो भान दिया, वही भान है।

बाहर भोगने के लिए कितने सारे ऐशो-आराम हैं! ये लाख रुपये की डबलडेकर बस में आठ आने दें तो यहाँ से ठेठ चर्चगेट तक बैठकर जाने को मिलता है! उसमें भी फिर गद्दी कितनी अच्छी! अरे! खुद के घर पर भी ऐसी नहीं होती! अब इतने अच्छे पुण्य मिले हैं फिर भी भोगना नहीं आता, नहीं तो हिन्दुस्तान के मनुष्य के भाग्य में लाख रुपये की बस कहाँ से हो? यह मोटर में जाते हो तो कहीं धूल उड़ती है? ना। वह तो रास्ते बगैर धूल के हैं। चलो तो पैरों पर भी धूल नहीं चढ़ती। बादशाह के लिए भी उसके समय में रास्ते धूल वाले थे, वह बाहर जाकर आता तो धूल से भर जाता था! और इन्हें तो बादशाह से भी ज़्यादा साहिबी है, परंतु भोगना ही नहीं आता न? यह बस में बैठा हो तब भी अंदर चक्कर चलता रहता है!

संसार सहज ही चले, वहाँ...

कुछ दु:ख जैसा है ही नहीं और जो है वे नासमझी के दु:ख हैं। इस दुनिया में कितने सारे जीव हैं? असंख्य जीव हैं! परंतु किसी की पुकार नहीं है कि हमारे यहाँ अकाल पड़ा है! और ये मूर्ख हर साल शोर मचाया करते हैं! इस समुद्र में कोई जीव भूखा मर गया हो,

(पृ.१६)

ऐसा है? ये कौए वगैरह भूखे मर जाएँ, ऐसा है? ना, वे भूख से नहीं मरने वाले, वह तो कहीं टकरा गए हों, एक्सिडेन्ट हो गया हो, या फिर आयुष्य पूरा हो गया हो, तब मरते हैं। कोई कौआ आपको दु:खी दिखा है? कोई सूखकर दुबला हो गया हो, ऐसा कौआ देखा है आपने? इन कुत्तों को कभी नींद की गोलियाँ खानी पड़ती हैं? वे तो कितने आराम से सो जाते हैं। ये अभागे ही सोने के लिए बीस-बीस गोलियाँ खाते हैं! नींद तो कुदरत की भेंट है, नींद में तो सचमुच का आनंद होता है! और ये डॉक्टर तो बेहोश होने की दवाईयाँ देते हैं। गोलियाँ खाकर बेहोश होना, वह तो शराब पीते हैं, उसके जैसा है। कोई ब्लडप्रेशर वाला कौआ देखा है आपने! यह मनुष्य नाम का जीव अकेला ही दु:खी है। इस मनुष्य अकेले को ही कॉलेज की ज़रूरत है।

ये चिड़ियाँ सुंदर घोंसला बनाती हैं, तो उन्हें कौन सिखाने गया था? ये संसार चलाना तो अपने आप ही आ जाए, ऐसा है। हाँ, ‘स्वरूपज्ञान’ प्राप्त करने के लिए पुरुषार्थ करने की ज़रूरत है। संसार को चलाने के लिए कुछ भी करने की ज़रूरत नहीं है। ये मनुष्य अकेले ही ज़रूरत से ज़्यादा अक्ल वाले हैं। इन पशु-पक्षियों के क्या बीवी-बच्चे नहीं हैं? उन्हें शादी करवानी पड़ती है? यह तो, मनुष्यों के ही पत्नी-बच्चे हुए हैं। मनुष्य ही शादी करवाने में पड़े हुए हैं। पैसे इकट्ठे करने में पड़े हुए हैं। अरे, आत्मा जानने के पीछे मेहनत कर न! दूसरे किसी के लिए मेहनत-मज़दूरी करने जैसी है ही नहीं। अभी तक जो कुछ किया है, वह दु:ख मनाने जैसा किया है। इन बच्चों को चोरी करना कौन सिखाता है? सब बीज में ही मौजूद है। यह नीम हर एक पत्ते में कड़वा क्यों है? उसके बीज में ही कड़वाहट मौजूद है। ये मनुष्य अकेले ही दु:खी-दु:खी हैं, परंतु उसमें उनका कोई दोष नहीं। क्योंकि चौथे आरे तक सुख था, और यह तो पाँचवाँ आरा, इस आरे (कालचक्र का बारहवाँ हिस्सा) का नाम ही दूषमकाल! इसलिए महादु:ख उठाकर भी समता उत्पन्न नहीं होती है। काल का नाम ही दूषम!! फिर सुषम ढूँढना वह भूल है न?

*****

(पृ.१७)

[2] योग-उपयोग परोपकाराय

जीवन में, महत् कार्य ही ये दो!

मनुष्य का जन्म किसलिए है? खुद का यह बंधन, हमेशा का बंधन टूटे इस हेतु के लिए है, ‘एब्सोल्यूट’ होने के लिए है और यदि यह ‘एब्सोल्यूट’ होने का ज्ञान प्राप्त नहीं हो पाए, तो तू दूसरों के लिए जीना। ये दो ही कार्य करने के लिए हिन्दुस्तान में जन्म है। ये दो कार्य लोग करते होंगे? लोगों ने तो मिलावट करके मनुष्य में से जानवर में जाने की कला खोज निकाली है।

परोपकार से पुण्य साथ में

जब तक मोक्ष नहीं मिले, तब तक सिर्फ पुण्य ही मित्र समान काम करता है और पाप दुश्मन के समान काम करता है। अब आपको दुश्मन रखना है या मित्र रखना है? वह आपको जो अच्छा लगे, उसके अनुसार निश्चित करना है। और मित्र का संयोग कैसे हो, वह पूछ लेना और दुश्मन का संयोग कैसे जाए, वह भी पूछ लेना और यदि दुश्मन पसंद हो तो उसका संयोग कैसे हो वह पूछे, तो हम उसे कहेंगे कि जितना चाहे उतना उधार करके घी पीना, चाहे जहाँ भटकना, और जैसे तुझे ठीक लगे वैसे मज़े करना, फिर आगे जो होगा देखा जाएगा! और पुण्यरूपी मित्र चाहिए तो हम बता दें कि भाई इस पेड़ के पास से सीख ले। कोई वृक्ष क्या अपना फल खुद खा जाता है? कोई गुलाब अपना फूल खा जाता होगा? थोड़ा-सा तो खाता होगा, नहीं? जब हम नहीं हों, तब रात को खा जाता होगा, नहीं? नहीं खाता?

(पृ.१८)

प्रश्नकर्ता : नहीं खाता।

दादाश्री : ये पेड़-पौधे तो मनुष्यों को फल देने के लिए मनुष्यों की सेवा में हैं। अब पेड़ों को क्या मिलता है? उनकी ऊर्ध्वगति होती है और मनुष्य आगे बढ़ते हैं, उनकी हेल्प लेकर! ऐसा मानो न कि, आपने आम खाया, उससे आम के पेड़ का क्या गया? और आपको क्या मिला? आपने आम खाया, इसलिए आपको आनंद हुआ। उससे आपकी वृत्तियाँ जो बदलीं, उससे आप सौ रुपये जितना अध्यात्म में कमाते हो। अब आम खाया, इसलिए उसमें से पाँच प्रतिशत आम के पेड़ को आपके हिस्से में से जाता है और पँचानवे प्रतिशत आपके हिस्से में रहता है। यानी वे पेड़ आपके हिस्से में से पाँच प्रतिशत ले लेते हैं और वे बेचारे ऊर्ध्वगति में जाते हैं और आपकी अधोगति नहीं होती, आप भी आगे बढ़ते हो। इसलिए ये पेड़ कहते हैं कि ‘हमारा सबकुछ भोगो, हर एक प्रकार के फल-फूल  भोगो।’

इसलिए, यह संसार यदि आपको पुसाता हो, संसार आपको पसंद हो, संसार की चीज़ों की इच्छा हो, संसार के विषयों की लालसा हो तो इतना करो, ‘योग-उपयोग परोपकाराय।’ योग यानी इस मन-वचन-काया का योग, और उपयोग यानी बुद्धि का उपयोग, मन का उपयोग करना, चित्त का उपयोग करना, इन सभी का दूसरों के लिए उपयोग करना और अगर दूसरों के लिए नहीं खर्च करते, फिर भी लोग आख़िर में घर वालों के लिए भी खर्च तो करते हैं न? इस कुतिया को खाने का क्यों मिलता है? इन बच्चों के भीतर भगवान रहते हैं। उन बच्चों की वह सेवा करती है। इसलिए उसे सब मिल जाता है। इस आधार पर सारा संसार चल रहा है। इस पेड़ को खुराक कहाँ से मिलती है? इन पेड़ों ने कोई पुरुषार्थ किया है? वे तो ज़रा भी ‘इमोशनल’ नहीं हैं। वे कभी ‘इमोशनल’ होते हैं? वे तो कभी आगे-पीछे होते ही नहीं। उन्हें कभी ऐसा होता नहीं कि यहाँ से एक मील दूर विश्वामित्री नदी है, तो वहाँ जाकर पानी पी आऊँ!

(पृ.१९)

परोपकार, परिणाम में लाभ ही

प्रश्नकर्ता : इस संसार में अच्छे कृत्य कौन-से कहलाते हैं? उसकी परिभाषा दी जा सकती है?

दादाश्री : हाँ, अच्छे कृत्य तो ये सभी पेड़ भी करते हैं। और वे बिल्कुल अच्छे कृत्य ही करते हैं। लेकिन वे खुद कर्ता भाव में नहीं हैं। ये पेड़ जीवित हैं। सभी दूसरों के लिए अपने फल देते हैं। आप अपने फल दूसरों को दे दो। आपको अपने फल मिलते रहेंगे। आपके जो फल उत्पन्न हों-दैहिक फल, मानसिक फल, वाचिक फल, ‘फ्री ऑफ कॉस्ट’ लोगों को देते रहो तो आपको आपकी हरएक वस्तु मिल जाएगी। आपके जीवन की ज़रूरतों में किंचित् मात्र अड़चन नहीं आएगी और जब वे फल आप अपने आप खा जाओगे तो अड़चन आएगी। यदि आम का पेड़ अपने फल खुद खा जाए तो उसका जो मालिक होगा, वह क्या करेगा? उसे काट देगा न? इसी तरह ये लोग अपने फल खुद खा जाते हैं। इतना ही नहीं, बल्कि ऊपर से फ़ीस माँगते हैं। एक अर्ज़ी लिखने के बाईस रुपये माँगते हैं! जिस देश में ‘फ्री ऑफ कॉस्ट’ वकालत करते थे और ऊपर से अपने घर भोजन कराकर वकालत करते थे, वहाँ यह दशा हुई है। यदि गाँव में झगड़ा हुआ हो, तो नगरसेठ उन दो झगड़ने वालों से कहता, ‘भैया मगनलाल आज साढ़े दस बजे आप घर आना और नगीनदास, आप भी उसी समय घर आना।’ और नगीनदास की जगह यदि कोई मज़दूर होता या किसान होता, जो लड़ रहे होते तो उनको घर बुला लेता। दोनों को बिठाकर, दोनों की सुलह करवा देता। जिसके पैसे चुकाने हों, उसे थोड़े नक़द दिलवाकर, बाकी के किश्तों में देने की व्यवस्था करवा देता। फिर दोनों से कहता, ‘चलो, मेरे साथ भोजन करने बैठ जाओ।’ दोनों को खाना खिलाकर घर भेज देता। हैं आज ऐसे वकील? इसलिए समझो और समय को पहचानकर चलो। और यदि खुद, खुद के लिए ही करे, तो मरते समय दु:खी होगा। जीव निकलता नहीं और बंगले-मोटर छोड़कर जा नहीं पाता!

(पृ.२०)

और यह लाइफ यदि परोपकार के लिए जाएगी तो आपको कोई भी कमी नहीं रहेगी। किसी तरह की आपको अड़चन नहीं आएगी। आपकी जो-जो इच्छाएँ हैं, वे सभी पूरी होंगी और ऐसे उछल-कूद करोगे, तो एक भी इच्छा पूरी नहीं होगी। क्योंकि वह रीति, आपको नींद ही नहीं आने देगी। इन सेठों को तो नींद ही नहीं आती, तीन-तीन, चार-चार दिन तक सो ही नहीं पाते, क्योंकि लूटपाट ही की है, जिस-तिस की।

प्रश्नकर्ता : परोपकारी मनुष्य लोगों के भले के लिए कहे, तो भी लोग वह समझने के लिए तैयार ही नहीं हैं, उसका क्या?

दादाश्री : ऐसा है कि यदि परोपकार करने वाला सामने वाले की समझ देखे तो वह वकालत कहलाती है। इसलिए सामने वाले की समझ देखनी ही नहीं चाहिए। यह आम का पेड़ है, वह फल देता है। तब वह आम का पेड़ अपने कितने आम खाता होगा?

प्रश्नकर्ता : एक भी नहीं।

दादाश्री : तो वे सारे आम किसके लिए हैं?

प्रश्नकर्ता : दूसरों के लिए।

दादाश्री : हाँ, तब वह आम का पेड़ देखता है कि यह मेरे आम खाने वाला बुरा है या भला है, ऐसा देखता है? जो आकर ले जाए, उसके वे आम, मेरे नहीं। परोपकारी जीवन तो वह जीता है।

प्रश्नकर्ता : लेकिन जो उपकार करे, उसके ऊपर ही लोग दोषारोपण करते हैं, फिर भी उपकार करना चाहिए?

दादाश्री : हाँ, वही देखना है न! अपकार पर उपकार करे वही सच्चा है। ऐसी समझ लोग कहाँ से लाएँ? ऐसी समझ हो तब तो फिर काम ही हो गया! परोपकारी की तो बहुत ऊँची स्थिति है, यही सारे मनुष्य जीवन का ध्येय है। और हिन्दुस्तान में दूसरा ध्येय, अंतिम ध्येय मोक्ष प्राप्ति  का है।

(पृ.२१)

प्रश्नकर्ता : परोपकार के साथ ‘इगोइज़म’ की संगति होती है?

दादाश्री : हमेशा जो परोपकार करता है, उसका ‘इगोइज़म’ नॉर्मल ही होता है, उसका वास्तविक ‘इगोइज़म’ होता है और जो कोर्ट में डेढ़ सौ रुपये फ़ीस लेकर दूसरों का काम करें, उनका ‘इगोइज़म’ बहुत बढ़ा हुआ होता है। अर्थात् जिसे ‘इगोइज़म’ नहीं बढ़ाना है, उसका ‘इगोइज़म’ बहुत बढ़ गया होता है।

इस जगत् का कुदरती नियम क्या है कि आप अपने फल दूसरों को दोगे तो कुदरत आपका चला लेगी। यही गुह्य साइन्स है। यह परोक्ष धर्म है। बाद में प्रत्यक्ष धर्म आता है, आत्मधर्म अंत में आता है। मनुष्य जीवन का हिसाब इतना ही है! अर्क़ इतना ही है कि मन-वचन-काया का उपयोग दूसरों के लिए करो।

*****

(पृ.२२)

[3] दु:ख वास्तव में है?

‘राइट बिलीफ़’ वहाँ दु:ख नहीं

प्रश्नकर्ता : दादा, दु:ख के विषय में कुछ बताइए। यह दु:ख किसमें से उत्पन्न होता है?

दादाश्री : आप यदि आत्मा हो तो आत्मा को दु:ख होगा ही नहीं कभी भी और आप चंदूलाल हो तो दु:ख है। यदि आप आत्मा हो तो दु:ख है ही नहीं, बल्कि जो दु:ख हो, वह भी खत्म हो जाता है। ‘मैं चंदूलाल हूँ’ वह ‘रोंग बिलीफ़’ है। यह मेरी वाइफ है, ये मेरी मदर हैं, फादर हैं, चाचा हैं, या मैं एक्सपोर्ट-इम्पोर्ट का व्यापारी हूँ, ये सभी तरह-तरह की रोंग बिलीफ़ हैं। इन सभी रोंग बिलीफ़ों के कारण दु:ख उत्पन्न होता है। यदि रोंग बिलीफ़ चली जाएँ और राइट बिलीफ़ बैठ जाए तो जगत् में कोई दु:ख है ही नहीं। और आप जैसे लोगों (खाते-पीते सुखी घर के) को दु:ख है नहीं। यह तो, सब बिना काम के नासमझी के दु:ख  हैं।

दु:ख तो कब माना जाता है?

दु:ख किसे कहते हैं? इस शरीर को भूख लगे, तब फिर खाने का आठ घंटे-बारह घंटे न मिले, तब दु:ख माना जाता है। प्यास लगने के बाद दो-तीन घंटे पानी नहीं मिले तो वह दु:ख जैसा लगता है। संडास लगने के बाद संडास में जाने नहीं दे, तो फिर उसे दु:ख होगा या नहीं होगा? संडास से भी अधिक, ये पेशाबघर हैं. वे सब बंद कर दें न, तो सभी लोग शोर मचाकर रख दें। इन पेशाबघरों का तो महान दु:ख है लोगों को। इन सभी दु:खों को दु:ख कहा जाता है।

(पृ.२३)

प्रश्नकर्ता : यह सब ठीक है, परंतु अभी संसार में देखें तो दस में से नौ लोगों को दु:ख है।

दादाश्री : दस में से नौ नहीं, हज़ार में से दो लोग सुखी होंगे, थोड़े-बहुत शांति में होंगे। बाकी सब रात-दिन जलते ही रहते हैं। शक्करकंद भट्ठी में रखे हों, तो कितनी तरफ से सिकते हैं?

प्रश्नकर्ता : यह दु:ख जो कायम है, उसमें से फायदा किस तरह उठाना चाहिए?

दादाश्री : इस दु:ख पर विचार करने लगोगे तो दु:ख जैसा नहीं लगेगा। दु:ख का यदि यथार्थ प्रतिक्रमण करोगे तो दु:ख जैसा नहीं लगेगा। यह बिना सोचे ठोकमठोक किया है कि यह दु:ख है, यह दु:ख है! ऐसा मानो न, कि आपके वहाँ बहुत पुराना सोफासेट है। अब आपके मित्र के घर पर सोफासेट है ही नहीं, इसलिए वह आज नयी तरह का सोफासेट लाया। वह आपकी पत्नी देखकर आईं। फिर घर आकर आपसे कहे कि आपके मित्र के घर पर कितना सुंदर सोफासेट है और अपने यहाँ खराब हो गए हैं। तो यह दु:ख आया! घर में दु:ख नहीं था वह देखने गए, वहाँ से दु:ख लेकर आए।

आपने बंगला नहीं बनवाया और आपके मित्र ने बंगला बनवाया और आपकी वाइफ वहाँ जाए, देखे, और कहे कि ‘उन्होंने कितना अच्छा बंगला बनवाया और हम तो बिना बंगले के हैं!’ वह दु:ख आया!!! इसीसे ये सब दु:ख खड़े किए हुए हैं।

मैं न्यायाधीश होऊँ तो सब को सुखी करके सज़ा करूँ। किसी को उसके गुनाह के लिए सज़ा देने का मौका आए, तो पहले तो मैं उसे ‘पाँच वर्ष से कम सज़ा हो सके ऐसा नहीं है’, ऐसी बात करूँ। फिर वकील कम करने का कहे, तब मैं चार वर्ष, फिर तीन वर्ष, दो वर्ष, ऐसे करते-करते अंत में छह महीने की सज़ा दूँ। इससे वह जेल में तो जाएगा, लेकिन सुखी होगा। मन में सुखी होगा कि छह महीने में ही पूरा हो गया, यह तो मान्यता का ही दु:ख है। यदि उसे पहले से ही ऐसा कहा जाए कि छह महीने की सज़ा होगी तो उसे वह बहुत ज़्यादा लगेगा।

(पृ.२४)

‘पेमेन्ट’ में तो समता रखनी चाहिए

यह आपको गद्दी पर बैठे हों वैसा सुख है, फिर भी भोगना नहीं आए तब क्या हो? अस्सी रुपये मन के भाव वाले बासमती चावल में रेती डालते हैं। यदि दु:ख आए तो उसे ज़रा कहना तो चाहिए न, ‘यहाँ क्यों आए हो? हम तो दादा के हैं। आपको यहाँ नहीं आना है। आप जाओ दूसरी जगह। यहाँ कहाँ आए आप? आप घर भूल गए।’ इतना उनसे कहें तो वे चले जाते हैं। यह तो आपने बिल्कुल अहिंसा की! दु:ख आएँ तो उन्हें भी घुसने दें? उन्हें तो निकाल देना चाहिए, उसमें अहिंसा टूटती नहीं है। दु:ख का अपमान करें तो वे चले जाते हैं। आप तो उसका अपमान भी नहीं करते। इतने अधिक अहिंसक नहीं होना चाहिए।

प्रश्नकर्ता : दु:ख को मनाएँ तो नहीं जाएगा?

दादाश्री : ना। उसे मनाना नहीं चाहिए। उसे पटाएँ तो वह पटाया जा सके, ऐसा नहीं है। उसे तो आँखें दिखानी पड़ती हैं। वह नपुंसक जाति है। यानी उस जाति का स्वभाव ही ऐसा है। उसे अटाने-पटाने जाएँ तो वह ज़्यादा तालियाँ बजाता है और अपने पास ही पास आता जाता है।

‘वारस अहो महावीरना, शूरवीरता रेलावजो,

कायर बनो ना कोई दी, कष्टो सदा कंपावजो।’

आप घर में बैठे हों, और कष्ट आएँ, तो वे आपको देखकर काँप जाने चाहिए और उन्हें लगे कि ‘हम यहाँ कहाँ आ फँसे! हम घर भूल गए लगते हैं!’ ये कष्ट आपके मालिक नहीं, वे तो नौकर हैं।

यदि कष्ट आपसे काँपे नहीं तो आप ‘दादा के’ कैसे? कष्ट से कहें कि, ‘दो ही क्यों आए? पाँच होकर आओ। अब तुम्हारे सभी पेमेन्ट कर दूँगा।’ कोई आपको गालियाँ दे तो अपना ज्ञान उसे क्या कहता है? ‘‘वह तो ‘तुझे’ पहचानता ही नहीं।’’ उल्टे ‘तुझे’ ‘उसे’ कहना है कि ‘भाई कोई भूल हुई होगी, इसीलिए गालियाँ दे गया। इसलिए शांति रखना।’ इतना किया कि तेरा ‘पेमेन्ट’ हो गया! ये लोग

(पृ.२५)

तो कष्ट आते हैं तो शोर मचा देते हैं कि ‘मैं मर गया!’ ऐसा बोलते हैं। मरना तो एक ही बार है और बोलते हैं सौ-सौ बार कि ‘मैं मर गया?’ अरे जीवित है और किसलिए ‘मर गया हूँ’, ऐसा बोलता है? मरने के बाद बोलना न कि मैं मर गया। ज़िन्दा कभी मर जाता है? ‘मैं मर गया’ यह वाक्य तो ज़िंदगीभर बोलना नहीं है। सच्चे दु:ख को जानना चाहिए कि दु:ख किसे कहते हैं?

इस बच्चे को अगर मैं मारूँ तो भी वह रोता नहीं बल्कि हँसता है, उसका क्या कारण है? और आप उसे सिर्फ एक चपत लगाओ तो वह रोने लगेगा, उसका क्या कारण है? उसे लगी इसलिए? ना, उसे लगने का दु:ख नहीं है। उसका अपमान किया उसका उसे दु:ख है।

इसे दु:ख कहें ही कैसे? दु:ख तो किसे कहते हैं कि खाने को न मिले, संडास जाने को न मिले, पेशाब करने को न मिले, वह दु:ख कहलाता है। यह तो सरकार ने घर-घर में संडास बनवा दिए हैं, नहीं तो पहले गाँव में लोटा लेकर जंगल में जाना पड़ता था। अब तो बेडरूम में से उठे कि ये रहा संडास! पहले के ठाकुर के वहाँ भी जो नहीं थी, ऐसी सुविधा आज के मनुष्य भोग रहे हैं। ठाकुर को भी संडास जाने के लिए लोटा लेकर जाना पड़ता था। उसने जुलाब लिया हो तो ठाकुर भी दौड़ता था। और सारे दिन ऐसा हो गया और वैसा हो गया, ऐसे शोर मचाते रहते हैं। अरे, क्या हो गया पर? यह गिर गया, वह गिर गया, क्या गिर गया? बिना बात के किसलिए शोर मचाते रहते हो?

ये दु:ख हैं, वे उल्टी समझ के हैं। यदि सही समझ फिट करें तो दु:ख जैसा है ही नहीं। यदि पैर पक गया हो तो आपको पता लगाना चाहिए कि मेरे जैसा दु:ख लोगों को है या नहीं? अस्पताल में देखकर आएँ तब पता चलेगा कि अहोहो! दु:ख तो यहीं पर है। मेरे पैर में ज़रा-सा ही लगा है और मैं नाहक दु:खी हो रहा हूँ। यह जाँच तो करनी पड़ेगी न? बिना जाँच किए दु:ख मान लें तो फिर क्या होगा? आप सभी पुण्यवानों को दु:ख हो ही कैसे सकता है? आप पुण्यवान के घर में जन्मे हैं। थोड़ी ही मेहनत से सारे दिन का खाना-पीना मिल जाता है।

(पृ.२६)

प्रश्नकर्ता : सब को खुद का दु:ख बड़ा लगता है न?

दादाश्री : वह तो खुद खड़ा किया हुआ है, इसलिए जितना बड़ा करना हो उतना हो सकता है, चालीस गुना करना हो तो उतना हो जाएगा!

...निश्चित करने जैसा ‘प्रोजेक्ट’

इन मनुष्यों को जीवन जीना ही नहीं आया, जीवन जीने की चाबी ही खो गई है। चाबी बिल्कुल खो गई थी, तो अब वापस कुछ अच्छा हुआ है। इन अंगे्रज़ों के आने के बाद लोग खुद के कट्टर संस्कारों में से ढीले पड़े हैं, इसलिए दूसरों में दख़ल नहीं देते, और मेहनत करते रहते हैं। पहले तो सिर्फ दख़ल ही देते थे।

ये लोग फिज़ूल मार खाते रहते हैं। इस जगत् में आपका कोई बाप भी ऊपरी नहीं है। आप संपूर्ण स्वतंत्र हो। आपका प्रोजेक्ट भी स्वतंत्र है, लेकिन आपका प्रोजेक्ट ऐसा होना चाहिए कि किसी जीव को आपसे किंचित् मात्र दु:ख न हो। आपका प्रोजेक्ट बहुत बड़ा करो, सारी दुनिया जितना करो।

प्रश्नकर्ता : ऐसा संभव है?

दादाश्री : हाँ, मेरा बहुत बड़ा है। किसी भी जीव को दु:ख न हो उस तरह से मैं रहता हूँ।

प्रश्नकर्ता : लेकिन दूसरों के लिए तो वह संभव नहीं है न?

दादाश्री : संभव नहीं, लेकिन उसका अर्थ ऐसा नहीं कि सब जीवों को दु:ख देकर अपना प्रोजेक्ट करो।

ऐसा कोई नियम तो रखना चाहिए न कि किसी को कम से कम दु:ख हो, ऐसा प्रोजेक्ट कर सकते हैं न? मैं आपको जो बिल्कुल असंभव है, वह करने को तो नहीं कहता न!

...मात्र भावना ही करनी है!

प्रश्नकर्ता : किसी को दु:ख ही नहीं, तो फिर हम दूसरों को दु:ख दें तो उसे दु:ख किस प्रकार से होता है?

(पृ.२७)

दादाश्री : दु:ख उसकी मान्यता में से गया नहीं न? आप मुझे थप्पड़ मारो तो मुझे दु:ख नहीं होगा, परंतु किसी और को तो उसकी मान्यता में थप्पड़ से दु:ख है, इसलिए उसे मारोगे तो उसे दु:ख होगा ही। रोंग बिलीफ़ अभी तक गई नहीं है। ‘कोई मुझे थप्पड़ मारे तो मुझे दु:ख होगा’, उस लेवल से देखना चाहिए। किसी को थप्पड़ मारते समय मन में आना चाहिए कि ‘मुझे कोई थप्पड़ मारे तो क्या होगा?’

आप किसी के पास से दस हज़ार रुपये उधार ले आओ, फिर आपके संजोग पलट गए, तो मन में विचार आए कि पैसे वापस नहीं दूँ तो क्या होने वाला है? उस घड़ी आपको न्यायपूर्वक जाँच करनी चाहिए कि ‘मेरे यहाँ से कोई पैसे ले गया हो और मुझे वापस न दे तो मुझे क्या होगा?’ ऐसी न्यायबुद्धि चाहिए। ऐसा हो तो मुझे बहुत ही दु:ख होगा। उसी प्रकार सामने वाले को भी दु:ख होगा। इसलिए मुझे पैसे वापस देने ही हैं।’ ऐसा निश्चित करना चाहिए और ऐसा निश्चित करोगे तो फिर दे सकोगे।

प्रश्नकर्ता : मन में ऐसा होता है कि ये दस करोड़ का आसामी है, तो हम उसे दस हज़ार नहीं दें तो उसे कोई तकलीफ़ नहीं होगी।

दादाश्री : उसे तकलीफ़ नहीं होगी, ऐसा आपको भले ही लगता हो, लेकिन वैसा है नहीं। वह करोड़पति, उसके बेटे के लिए एक रुपये की वस्तु लानी हो तब भी सोच-समझकर लाता है। किसी करोड़पति के घर आपने पैसे इधर-उधर रखे हुए देखे हैं? पैसा हर एक को जान की तरह प्यारा होता है।

अपने भाव ऐसे होने चाहिए कि इस जगत् में अपने मन-वचन-काया से किसी जीव को किंचित् मात्र दु:ख न हो।

प्रश्नकर्ता : लेकिन उस तरह से अनुसरण करना सामान्य मनुष्य को मुश्किल लगता है न?

दादाश्री : मैं आपको आज ही उस प्रकार का वर्तन करने को नहीं कहता हूँ। मात्र भावना ही करने को कहता हूँ। भावना अर्थात् आपका निश्चय।

*****

(पृ.२८)

[4] फैमिलि आर्गेनाइज़ेशन

यह तो कैसी ‘लाइफ’?!

‘फैमिलि आर्गेनाइज़ेशन’ का ज्ञान है आपके पास? हमारे हिन्दुस्तान में ‘हाउ टु ऑर्गेनाइज़ फैमिलि’ वह ज्ञान ही कम है। फॉरिन वाले तो फैमिलि जैसा कुछ समझते ही नहीं। वे तो जैसे ही जेम्स बीस साल का हुआ, तब उसके माँ-बाप विलियम और मेरी, जेम्स से कहेंगे कि ‘तू अलग और हम दो तोता-मैना अलग!’ उन्हें फैमिलि आर्गेनाइज़ करने की बहुत आदत ही नहीं न? और उनकी फैमिलि तो साफ-साफ ही कह देती है। मेरी के साथ विलियम को नहीं जमा, तब फिर डायवोर्स की ही बात! और हमारे यहाँ तो कहाँ डायवोर्स की बात? अपने यहाँ तो साथ-साथ ही रहना है, कलह करना और वापस सोना भी वहीं पर, उसी रूम में ही!

यह जीवन जीने का रास्ता नहीं है। यह फैमिलि लाइफ नहीं कहलाती। अरे! अपने यहाँ की बुढिय़ाओं से जीवन जीने का तरीक़ा पूछा होता तो कहतीं कि आराम से खाओ-पीओ, जल्दबाज़ी क्यों करते हो? इन्सान को किस चीज़ की नेसेसिटी है, उसकी पहले जाँच करनी चाहिए। बाकी की सब अन्नेसेसिटी। वे अननेसेसिटी की वस्तुएँ मनुष्य को उलझाती हैं, फिर नींद की गोलियाँ खानी पड़ती हैं।

ये घर में किसलिए लड़ाइयाँ होती हैं? बच्चों के साथ क्यों बोलाचाली हो जाती है? वह सब जानना तो पड़ेगा न? यदि लड़का सामने बोले और उसके लिए डॉक्टर को पूछें कि ‘कुछ बताइए’, लेकिन वह क्या दवाई बताएगा? उसकी ही पत्नी उसके सामने बोलती है न!

यह तो सारी ज़िंदगी रूई का सर्वे करता है, कोई लौंग का सर्वे करता है, कुछ न कुछ सर्वे करते हैं, लेकिन अंदर का सर्वे कभी भी नहीं किया।

(पृ.२९)

सेठ आपकी सुगंध आपके घर में आती है?

प्रश्नकर्ता : सुगंध मतलब क्या?

दादाश्री : आपके घर के सब लोगों को आप राज़ी रखते हो? घर में कलह नहीं होती न?

प्रश्नकर्ता : कलह तो होती है। रोज़ होती है।

दादाश्री : तब ये किस तरह के पैदा हुए आप कि पत्नी को शांति नहीं दी, बच्चों को शांति नहीं दी, अरे! आपने खुद को भी शांति नहीं दी! आपको मोक्ष में जाना हो तो मुझे आपको डाँटना पड़ेगा और आपको देवगति में जाना हो तो दूसरा सरल रास्ता आपको लिख दूँ। फिर तो मैं आपको ‘आइए सेठ, पधारिए’ ऐसा कहूँगा। मुझे दोनों भाषाएँ आती हैं। यह भ्रांति की भाषा मैं भूल नहीं गया हूँ। पहले ‘तुंडे तुंडे मतिर्भिन्ना’ थी, वह अभी तुमडे तुमडे मतिर्भिन्न हो गई है! तुंड गए और तुमडे रहे! संसार के हिताहित का भी कोई भान नहीं है।

ऐसा संस्कार सिंचन शोभा देता है?

माँ-बाप के तौर पर किस तरह रहना उसका भी भान नहीं है। एक भाई थे, वे खुद की पत्नी को बुलाते हैं, ‘अरे, मुन्ने की मम्मी कहाँ गई?’ तब मुन्ने की मम्मी अंदर से बोलती है, ‘क्यों, क्या है?’ तब भाई कहें, ‘यहाँ आ, जल्दी जल्दी यहाँ आ, देख, देख तेरे बच्चे को! कैसा पराक्रम करना आता है, अरे देख तो सही!! मुन्ने ने पैर ऊँचे करके मेरी जेब में से कैसे दस रुपये निकाले! कैसा होशियार हो गया है मुन्ना!!’

घनचक्कर, ऐसे कैसे पैदा हुए? ये बाप बन बैठे! शरम नहीं आती? इस बच्चे को कैसा प्रोत्साहन मिला, वह समझ में आता है? बच्चा देखता रहा कि मैंने बहुत बड़ा पराक्रम किया! ऐसा तो शोभा देता है? कुछ नियम वाला होना चाहिए न? यह हिन्दुस्तान का मनुष्यपन इस तरह लुट जाए, वह क्या शोभा देता है हमें? क्या बोलने से बच्चे को अच्छा एन्करेजमेन्ट मिलता है और क्या बोलने से उसे नुकसान होता है, उसका भान तो होना चाहिए न? यह तो अनटेस्टेड फादर

(पृ.३०)

और अनटेस्टेड मदर हैं। बाप मूली और माँ गाजर, फिर बोलो बच्चे कैसे बनेंगे? वे थोड़े ही सेब बनेंगे?

प्रेममय डीलिंग - बच्चे सुधरेंगे ही

एक बाप ने अपने बच्चे को थोड़ा-सा ही हिलाया और बच्चा फट पड़ा, और बाप से कहने लगा कि मेरा और आपका नहीं जमेगा। फिर बाप बच्चे से कहने लगा कि भाई मैंने तुझे कुछ भी खराब नहीं कहा, फिर तू क्यों गुस्सा हो रहा है? तब मैंने बाप से कहा कि, ‘अब क्यों कमरा धो रहे हो? पहले हिलाया ही किसलिए?’ किसी को हिलाना मत, ये पके हुए फ्रूट (ककड़ी जैसा फल) हैं। कुछ बोलना मत। मेरी भी चुप और तेरी भी चुप। खा-पीकर मज़े करो।

प्रश्नकर्ता : यह बच्चा खराब लाइन पर चढ़ जाए तो माँ-बाप का फ़र्ज़ है न कि उसे वापस मोड़ना चाहिए?

दादाश्री : ऐसा है न, कि माँ-बाप होकर उसे कहना चाहिए, लेकिन माँ-बाप हैं ही कहाँ आजकल?

प्रश्नकर्ता : माँ-बाप किन्हें कहेंगे?

दादाश्री : माँ-बाप तो वे कहलाते हैं कि बच्चा खराब लाइन पर चला गया हो, फिर भी एक दिन माँ-बाप कहेंगे, ‘भाई, यह हमें शोभा नहीं देता, यह तूने क्या किया?’ तो दूसरे दिन से उसका बंद हो जाए! ऐसा प्रेम ही कहाँ है? ये तो बगैर प्रेम वाले माँ-बाप। यह जगत् प्रेम से ही वश में होता है। इन माँ-बाप को बच्चों पर कितना प्रेम है? जितना गुलाब के पौधे पर माली का प्रेम होता है उतना! इन्हें माँ-बाप ही कैसे कहा जाए? अन्सर्टिफाइड फादर और अन्सर्टिफाइड मदर। फिर बच्चे की क्या स्थिति होगी? असल में तो पहले टेस्टिंग करवाकर सर्टिफिकेट प्राप्त करने के बाद ही शादी करने की छूट होनी चाहिए। परीक्षा में पास हुए बिना, सर्टिफिकेट के बिना गवर्नमेन्ट में भी नौकरी पर नहीं लेते हैं, तो इसमें सर्टिफिकेट बगैर शादी कैसे कर सकते हैं? यह माँ और बाप बनने की ज़िम्मेदारी देश के

(पृ.३१)

प्रधानमंत्री की ज़िम्मेदारी से भी अधिक है। प्रधानमंत्री से भी ऊँचा पद है।

प्रश्नकर्ता : सर्टिफाइड फादर-मदर की परिभाषा क्या है?

दादाश्री : अन्सर्टिफाइड माँ-बाप यानी उनके खुद के बच्चे उनके कहे अनुसार चलते नहीं, खुद के ही बच्चे उन पर भाव रखते नहीं, परेशान करते हैं! वे माँ-बाप अन्सर्टिफाइड ही कहलाएँगे न?

...नहीं तो मौन रखकर ‘देखते’ रहो

एक सिंधी भाई आए थे, वे कहने लगे कि, एक बेटा ऐसा करता है और एक वैसा करता है, उनको कैसे सुधारना चाहिए? मैंने कहा, ‘आप ऐसे बच्चे क्यों लाए? आपको छाँटकर अच्छे बच्चे नहीं लाने चाहिए थे?’ ये हाफूज़ के आम सब एक ही तरह के होते हैं, वे सब मीठे देखकर, चखकर लाते हैं। लेकिन आप दो खट्टे ले आए, दो बिगड़े हुए लाए, कसैले लाए, दो मीठे लाए, फिर उसके रस में कोई बरकत आएगी क्या? बाद में लड़ाई-झगड़ा करें उसका क्या अर्थ? खट्टा आम लेकर आए फिर खट्टे को खट्टा जानना उसका नाम ज्ञान। खट्टा स्वाद आया, उसे देखते रहना है। ऐसे ही इस प्रकृति को देखते रहना है। किसी के हाथ में सत्ता नहीं है। अवस्था मात्र कुदरती रचना है। उसमें किसी का कुछ चलता नहीं, बदलता नहीं और वापस व्यवस्थित है।

प्रश्नकर्ता : मारने से बच्चे सुधरते हैं या नहीं?

दादाश्री : कभी भी नहीं सुधरते, मारने से कुछ नहीं सुधरता। इस मशीन को मारकर देखो तो? वह टूट जाएगी। वैसे ही ये बच्चे भी टूट जाएँगे। ऊपर से अच्छे खासे दिखते हैं, लेकिन अंदर से टूट जाते हैं। किसी को एन्करेज करना नहीं आता तो फिर मौन रहो न, चाय पीकर चुपचाप। सब के मुँह देखता जा, ये दो पुतले कलह कर रहे हैं, उन्हें देखता जा। यह अपने काबू में नहीं है। हम तो इसके जानकार ही हैं।

(पृ.३२)

जिसे संसार बढ़ाना हो उसे इस संसार में लड़ाई-झगड़ा करना चाहिए, सबकुछ करना चाहिए। जिसे मोक्ष में जाना हो उसे हम, ‘क्या हो रहा है’ उसे ‘देखो’, ऐसा कहते हैं।

इस संसार में डाँटने से कुछ भी सुधरने वाला नहीं है। उल्टे मन में अहंकार करता है कि मैंने बहुत डाँटा। डाँटने के बाद अगर देखो तो माल जैसा था, वैसा ही होता है, पीतल का हो वह पीतल का और काँसे का हो तो काँसे का ही रहता है। पीतल को मारते रहो तो क्या उसे जंग चढ़े बगैर रहेगा ? नहीं रहेगा। कारण क्या है? तब कहे, जंग चढऩे का स्वभाव है उसका। इसलिए मौन रहना चाहिए। जैसे कि सिनेमा में नापसंद सीन आए तो उससे क्या हम जाकर परदा तोड़ डालते हैं? नहीं, उसे भी देखना है। सभी सीन, पसंद हों ऐसे आते हैं क्या? कुछ तो सिनेमा में कुर्सी पर बैठे-बैठे शोर मचाते हैं कि ‘अरे! मार डालेगा, मार डालेगा!’ ये बड़े दया के डिब्बे देख लो। यह सब तो सिर्फ देखना है। खाओ, पीओ, देखो और मज़े करो!

...खुद को ही सुधारने की ज़रूरत

प्रश्नकर्ता : ये बच्चे शिक्षक के सामने बोलते हैं, वे कब सुधरेंगे?

दादाश्री : जो भूल का परिणाम भुगतता है उसकी भूल है। ये गुरु ही घनचक्कर पैदा हुए हैं कि शिष्य उनके सामने बोलते हैं। ये बच्चे तो समझदार ही हैं, लेकिन गुरु और माँ-बाप घनचक्कर पैदा हुए हैं! और बड़े-बूढ़े पुरानी बातें पकड़कर रखते हैं, फिर बच्चे सामने बोलेंगे ही न? आजकल माँ-बाप का चारित्र ऐसा नहीं होता कि बच्चे उनका विरोध नहीं करें। ये तो बड़े-बूढ़ों का चारित्र कम हो गया है, इसीलिए बच्चे सामने बोलते हैं। आचार, विचार और उच्चार में सकारात्मक (सुलटा) बदलाव होता जाए तो खुद परमात्मा बन सकता है और उल्टा बदलाव हो तो राक्षस भी बन सकता है।

लोग सामने वाले को सुधारने के लिए सब फ्रेक्चर कर डालते हैं। पहले खुद सुधरें तो वे दूसरों को सुधार सकेंगे। लेकिन खुद के

(पृ.३३)

सुधरे बिना सामने वाला किस तरह सुधरेगा? इसीलिए पहले आपका खुद का बगीचा सँभालो, फिर दूसरों का देखने जाओ। खुद का सँभालोगे तभी फल-फूल मिलेंगे।

दख़ल नहीं, ‘एडजस्ट’ होने जैसा है

संसार का मतलब ही समसरण मार्ग, इसलिए निरंतर परिवर्तन होता ही रहता है। जबकि ये बड़े-बूढ़े पुराने ज़माने को ही पकड़े रहते हैं। अरे! ज़माने के अनुसार कर, नहीं तो मार खाकर मर जाएगा। ज़माने के अनुसार एडजस्टमेन्ट लेना चाहिए। मेरा तो चोर के साथ, जेब काटने वाले के साथ, सब के साथ एडजस्टमेन्ट हो जाता है। चोर के साथ हम बात करें तो वह भी समझ जाता है कि ये करुणा वाले हैं। हम चोर को ‘तू गलत है’ ऐसा नहीं कहते, क्योंकि वह उसका ‘व्यू पोइन्ट’ है। जबकि लोग उसे नालायक कहकर गालियाँ देते हैं। तब ये वकील क्या झूठे नहीं है? ‘बिल्कुल झूठा केस भी जिता दूँगा’, ऐसा कहते हैं, तो वे ठग नहीं कहलाएँगे? चोर को बुरा कहते हैं और इस बिल्कुल झूठे केस को सच्चा कहता है, उसका संसार में विश्वास किस तरह किया जाए? फिर भी उसका चलता है न? किसी को हम गलत नहीं कहते। वह उसके व्यू पोइन्ट से करेक्ट ही है। लेकिन उसे सच्ची बात समझाते हैं कि तू यह चोरी करता है, उसका फल क्या आएगा।

ये बूढ़े लोग घर में आएँ तो कहते हैं, ‘यह लोहे की अलमारी? यह रेडियो? यह ऐसा क्यों है? वैसा क्यों है?’ ऐसे दख़ल करते हैं। अरे, किसी युवक से दोस्ती कर। यह युग तो बदलता ही रहेगा। उसके बिना ये जिएँगे किस तरह? कुछ नया देखें, तो मोह होता है। नया नहीं हो तो जिएँगे ही कैसे? ऐसा नया अनंत आया और गया, उसमें आपको दख़ल नहीं करनी है। आपको ठीक नहीं लगे तो आप वह मत करना। यह आइस्क्रीम ऐसा नहीं कहती आप से कि ‘हम से भागो। हमें नहीं खाना हो तो नहीं खाओ।’ यह तो बूढ़े लोग उन पर चिढ़ते रहते हैं। ये मतभेद तो ज़माना बदला उसके हैं। ये बच्चे तो ज़माने के अनुसार करते हैं। मोह यानी नया-नया उत्पन्न होता है और

(पृ.३४)

नया ही नया दिखता है। हमने बचपन से ही बुद्धि से बहुत सोच लिया है कि यह जगत् उल्टा हो रहा है या सीधा हो रहा है, और यह भी समझा कि किसी को सत्ता ही नहीं है इस जगत् को बदलने की। फिर भी हम क्या कहते हैं कि ज़माने के अनुसार एडजस्ट हो जाओ! बेटा नई ही टोपी पहनकर आए तो ऐसा नहीं कहना कि ऐसी कहाँ से ले आया? इससे तो, एडजस्ट हो जाना कि इतनी अच्छी टोपी? कहाँ से लाया? कितने की आई? बहुत सस्ती मिली? ऐसे एडजस्ट हो जाना।

ये बच्चे सारा दिन कान पर रेडियो लगाकर नहीं रखते? क्योंकि यह रस नया-नया उदय में आया है बेचारे को! यह उसका नया डेवेलपमेन्ट है। यदि डेवेलप हो गया होता, तो कान पर रेडियो लगाता ही नहीं। एकबार देख लेने के बाद वापस छुआता ही नहीं। नवीन वस्तु को एक बार देखना होता है, उसका हमेशा के लिए अनुभव नहीं लेना होता। यह तो कान की नई ही इन्द्रिय आई है, इसलिए सारा दिन रेडियो सुनता रहता है! मनुष्यपन की उसकी शुरूआत हो रही है। मनुष्यपन में हज़ारों बार आया हुआ मनुष्य ऐसा-वैसा नहीं करता।

प्रश्नकर्ता : बच्चों को घूमने-फिरने का बहुत होता है।

दादाश्री : बच्चे कोई आप से बँधे हुए नहीं हैं। सब अपने-अपने बंधन में हैं, आपको तो इतना ही कहना है कि ‘जल्दी आना।’ फिर जब आएँ तब ‘व्यवस्थित’। व्यवहार सब करना, लेकिन कषाय रहित करना। व्यवहार कषाय रहित हुआ तो मोक्ष, और कषाय सहित व्यवहार-वह संसार।

प्रश्नकर्ता : हमारा भतीजा रोज़ नौ बजे उठता है, कुछ काम नहीं हो पाता।

दादाश्री : हम उसे ओढ़ाकर कहें कि आराम से सो जा भाई। उसकी प्रकृति अलग है, इसलिए देर से उठता है और काम अधिक करता है। और कोई मूर्ख चार बजे से उठ गया हो, फिर भी कुछ नहीं करता। मैं भी हर एक काम में हमेशा लेट होता था। स्कूल में घंटी बजने के बाद ही घर से बाहर निकलता और हमेशा मास्टरजी

(पृ.३५)

की डाँट सुनता था। अब मास्टरजी को क्या पता कि मेरी प्रकृति क्या है? हर एक का ‘रस्टन’ अलग और ‘पिस्टन’ अलग-अलग होता है।

प्रश्नकर्ता : लेकिन देर से उठने में डिसिप्लिन नहीं रहता है न?

दादाश्री : यह देर से उठता है इसलिए आप कलह करो, वही डिसिप्लिन नहीं है। इसीलिए आप कलह करना बंद कर दो। आपको जो-जो शक्तियाँ माँगनी हों, वे इन दादा के पास से रोज़ सौ-सौ बार माँगना, सब मिलेंगी।

अब इन भाईसाब को समझ में आया इसलिए उन्होंने तो हमारी आज्ञा का पालन करके भतीजे को घर में सभी ने कुछ भी कहना बंद कर दिया। हफ्ते के बाद परिणाम यह आया कि भतीजा अपने आप ही सात बजे उठने लग गया और घर में सब से ज़्यादा अच्छी तरह काम करने लग गया।

सुधारने के लिए ‘कहना’ बंद करो

इस काल में कम बोलना, उसके जैसा कुछ भी नहीं है। इस काल में तो बोल पत्थर जैसे लगें, ऐसे निकलते हैं, और हर एक का ऐसा ही होता है। इसलिए बोलना कम कर देना अच्छा। किसी से कुछ भी कहने जैसा नहीं है। कहने से अधिक बिगड़ता है। उसे कहें कि गाड़ी पर जल्दी जा, तो वह देर से जाता है और कुछ न कहें तो टाइम पर जाता है। हम नहीं हों, तो भी सब चले ऐसा है। यह तो खुद का झूठा अहंकार है। जिस दिन से आप बच्चों के साथ किच-किच करना बंद करोगे, उस दिन से बच्चे सुधरने लगेंगे। आपके बोल अच्छे नहीं निकलते, उससे सामने वाला चिढ़ता है। आपके बोल वह स्वीकार नहीं करता, बल्कि वे बोल वापस आते हैं। आप तो बच्चे को खाने-पीने का बनाकर दो और अपना फ़र्ज़ पूरा करों, अन्य कुछ कहने जैसा नहीं है। कहने से फायदा नहीं, ऐसा आपका सार निकलता है न? बच्चे बड़े हो गए हैं, वे क्या सीढिय़ों पर से गिर जाएँगे? आप अपना आत्मधर्म क्यों चूकते हो? ये बच्चों के साथ का तो रिलेटिव

(पृ.३६)

धर्म है। वहाँ बेकार माथाकूट करने जैसा नहीं है। कलह करते हो, इसके बजाय मौन रहोगे तो अधिक अच्छा रहेगा। कलह से तो खुद का दिमाग बिगड़ जाता है और सामने वाले का भी बिगड़ जाता है।

प्रश्नकर्ता : बच्चे उनकी ज़िम्मेदारी समझकर नहीं रहते।

दादाश्री : ज़िम्मेदारी ‘व्यवस्थित’ की है, वह तो उसकी ज़िम्मेदारी समझा हुआ ही है। आपको उसे कहना नहीं आया, इसीलिए गड़बड़ होती है। सामने वाला माने, तब हमारा कहा हुआ काम का। यह तो माँ-बाप बोलते हैं पागल जैसा, फिर बच्चे भी पागलपन ही करेंगे न!

प्रश्नकर्ता : बच्चे तुच्छता से बोलते हैं।

दादाश्री : हाँ, लेकिन वह आप किस तरह बंद करोगे? यह तो आपस में बंद हो जाए न, तो सब का अच्छा होगा।

एक बार मन विषैला हो गया, फिर उसकी लिंक शुरू हो जाती है। फिर मन में उसके लिए अभिप्राय बन जाता है कि ‘यह आदमी ऐसा है।’ तब आपको मौन लेकर सामने वाले को विश्वास में लेने जैसा है। बोलते रहने से किसी का नहीं सुधरता। सुधरना तो, ‘ज्ञानी पुरुष’ की वाणी से सुधरता है। बच्चों के लिए तो माँ-बाप की जोखिमदारी है। आप नहीं बोलोगे, तो नहीं चलेगा? चलेगा। इसलिए भगवान ने कहा है कि जीते जी ही मरे हुए जैसे रहो। बिगड़ा हुआ सुधर सकता है। बिगड़े हुए को काटना नहीं चाहिए। बिगड़े हुए को सुधारना वह हम से हो सकता है, आपको नहीं करना है। आपको हमारी आज्ञा के अनुसार चलना है। वह तो जो सुधरा हुआ हो वही दूसरों को सुधार सकता है। खुद ही नहीं सुधरे हों, तो दूसरों को किस तरह सुधार सकेंगे?

बच्चों को सुधारना हो तो हमारी इस आज्ञा के अनुसार चलो। घर में छह महीने का मौन लो। बच्चे पूछें तभी बोलना और उसके लिए भी उन्हें कह देना कि मुझे न पूछो तो अच्छा। और बच्चों के लिए उल्टा विचार आए तो उसका तुरंत ही प्रतिक्रमण कर देना चाहिए।

(पृ.३७)

‘रिलेटिव’ समझकर उपलक रहना

बच्चों को तो नौ महीने पेट में रखना, फिर चलाना, घुमाना, छोटे हों तब तक। फिर छोड़ देना। ये गाय-भैंस भी छोड़ देते हैं न? बच्चों को पाँच वर्ष तक टोकना पड़ता है, फिर टोकना भी नहीं चाहिए और बीस साल के बाद तो उसकी पत्नी ही उसे सुधारेगी। आपको नहीं सुधारना है।

बच्चों के साथ उपलक (नाटकीय, ऊपर ऊपर से) रहना है। असल में तो खुद का कोई है ही नहीं। इस देह के आधार पर मेरे हैं। देह जल जाए तो कोई साथ में आता है? यह तो जो मेरा कहकर छाती से चिपकाते हैं, उन्हें बहुत उपाधि है। बहुत भावुकता वाले विचार काम नहीं आते। बेटा व्यवहार से है। अगर बेटा जल जाए तो इलाज करवाना, लेकिन आपने क्या रोने की शर्त रखी है?

सौतेले बच्चे हों तो गोद में बिठाकर दूध पिलाते हैं? ना! वैसा रखना। यह कलियुग है। ‘रिलेटिव’ संबंध है। रिलेटिव को रिलेटिव रखना चाहिए, ‘रियल’ नहीं करना चाहिए। यह रियल संबंध होता तो बच्चे से कहते कि ‘तू सुधरे नहीं तब तक अलग रह।’ लेकिन यह तो रिलेटिव संबंध है इसलिए - एडजस्ट एवरीव्हेर। यह आप सुधारने नहीं आए हो, आप कर्मों के शिकंजे में से छूटने के लिए आए हो। सुधारने के बदले तो अच्छी भावना करो। बाकी कोई किसी को सुधार नहीं सकता। वह तो ज्ञानी पुरुष सुधरे हुए होते हैं, वे दूसरों को सुधार सकते हैं। इसलिए उनके पास ले जाओ। ये बिगड़ते क्यों हैं? उकसाने से। सारे वर्ल्ड का काम उकसाने से बिगड़ा है। इस कुत्ते को भी छेड़ो तो काट खाता है, काट लेता है। इसलिए लोग कुत्ते को छेड़ते नहीं है। इन मनुष्यों को छेड़ेंगे तो क्या होगा? वे भी काट खाएँगे। इसीलिए मत छेड़ना।

हमारे इस एक-एक शब्द में अनंत-अनंत शास्त्र समाए हुए हैं! इसे समझे और सीधा चले तो काम ही निकाल दे! एकावतारी हो सकें, ऐसा यह विज्ञान है! लाखों जन्म कम हो जाएँगे! इस विज्ञान से तो राग भी उड़ जाएँगे और द्वेष भी उड़ जाएँगे और वीतराग होते

(पृ.३८)

जाएँगे। अगुरु-लघु स्वभाव वाला हो जाएगा, इसलिए इस विज्ञान का जितना लाभ उठाया जाए, उतना कम है।

सलाह देना, परंतु देनी ही पड़े तब

हमारी तरह ‘अबुध’ हो गया तो काम ही हो गया। बुद्धि काम में ली तो संसार खड़ा हो गया वापस। घर के लोग पूछें, तभी ज़वाब देना चाहिए आपको, और उस समय मन में होना चाहिए कि ये नहीं पूछें तो अच्छा, ऐसी मन्नत माननी चाहिए। क्योंकि नहीं पूछेंगे तो आपको यह दिमाग़ चलाना नहीं पड़ेगा। ऐसा है न, कि हमारे ये पुराने संस्कार सारे खत्म हो गए हैं। यह दूषमकाल ज़बरदस्त फैला हुआ है, संस्कारमात्र खत्म हो गए हैं। मनुष्य को किसी को समझाना नहीं आता। बाप बेटे से कुछ कहें तो बेटा कहेगा कि मुझे आपकी सलाह नहीं सुननी है। तब सलाह देने वाला कैसा और लेने वाला कैसा? किस तरह के लोग इकट्ठे हुए हो? ये लोग आपकी बात क्यों नहीं सुनते? सच्ची नहीं है, इसलिए। सच्ची होगी, तो सुनेंगे या नहीं सुनेंगे? ये लोग ऐसा क्यों कहते हैं? आसक्ति के कारण कहते हैं। इस आसक्ति के लिए तो लोग खुद के जन्म बिगाड़ते हैं।

अब, इस भव में तो सँभाल लें

सब ‘व्यवस्थित’ चलाता है, कुछ भी बोलने जैसा नहीं है। ‘खुद का’ धर्म कर लेने जैसा है। पहले तो ऐसा समझते थे कि ‘हम चलाते हैं, इसलिए हमें बुझाना पड़ेगा।’ अब तो आपको नहीं चलाना है न? अब तो यह भी लट्टू और वह भी लट्टू! छोड़ो न पीड़ा यहीं से। प्याला फूटे, कढ़ी ढुल जाए, पत्नी बच्चे को डाँट रही हो, तब भी आप इस तरह करवट बदलकर आराम से बैठ जाना। आप देखोगे तब वे कहेंगी न कि आप देख रहे थे और क्यों नहीं बोले? और न हो तो हाथ में माला लेकर फेरने लगना, तब वह कहेगी कि ये तो माला में है। छोड़ो न! आपको क्या लेना-देना? शमशान में नहीं जाना हो तो किच-किच करो! यानी कि कुछ बोलने जैसा नहीं है। यह तो गायें-भैंसें भी उनके बच्चों के साथ उनके तरीके से भों-भों करते हैं,

(पृ.३९)

अधिक नहीं बोलते! और ये मनुष्य तो ठेठ तक बोलते ही रहते हैं। जो बोले, वह मूर्ख कहलाता है, सारे घर को खत्म कर डालता है। उसका कब अंत आएगा? अनंत जन्मों से संसार में भटके हैं। न किसी का भला किया, न खुद का भला किया। जो मनुष्य खुद का भला करे वही दूसरों का भला कर सकता है।

सच्ची सगाई या पराई पीड़ा?

बेटा बीमार हो तो आप इलाज सब करना, लेकिन सबकुछ उपलक अपने बच्चों को कैसे मानने चाहिए? सौतेले। बच्चों को मेरे बच्चे कहा और बच्चा भी मेरी माँ कहता है, लेकिन अंदर लम्बा संबंध नहीं है। इसीलिए इस काल में सौतेले संबंध रखना, नहीं तो मारे गए समझो। बच्चे किसी को मोक्ष में ले जाने वाले नहीं है। यदि आप समझदार होंगे, तो बच्चे समझदार होंगे। बच्चों के साथ कहीं लाड़-प्यार किया जाता होगा? यह लाड़-प्यार तो गोली मारता है। लाड़-प्यार द्वेष में बदल जाता है। खींच-तानकर प्रीत करके चला लेना चाहिए। बाहर ‘अच्छा लगता है’ ऐसा कहना चाहिए। लेकिन अंदर समझना कि ज़बरदस्ती प्रीति कर रहे हैं, यह सच्चा संबंध नहीं है। बेटे के संबंध का कब पता चलेगा? कि जब आप एक घंटा उसे मारें, गालियाँ दें, तब वह कलदार है या नहीं, उसका पता चल जाएगा। यदि आपका सच्चा बेटा हो, तो आपके मारने के बाद भी वह आपको आपके पैर छूकर कहेगा कि बापूजी, आपका हाथ बहुत दु:ख रहा होगा! ऐसा कहने वाला हो तो सच्चे संबंध रखना। लेकिन यह तो एक घंटा बेटे को डाँटें तो बेटा मारने दौड़ेगा! यह तो मोह को लेकर आसक्ति होती है। ‘रियल बेटा’ किसे कहा जाता है? कि बाप मर जाए तो बेटा भी शमशान में जाकर कहे कि ‘मुझे मर जाना है।’ कोई बेटा बाप के साथ मरता है आपकी मुंबई में?

यह तो सब पराई पीड़ा है। बेटा ऐसा नहीं कहता कि मुझ पर सब लुटा दो, लेकिन यह तो बाप ही बेटे पर सब लुटा देता है। यह अपनी ही भूल है। आपको बाप की तरह सभी फ़र्ज़ निभाने हैं। जितने उचित हों उतने सभी फ़र्ज़ निभाने हैं। एक बाप अपने बेटे को छाती

(पृ.४०)

से लगाकर ऐसे दबा रहा था, उसने खूब दबाया, तो बेटे ने बाप को काट लिया! कोई आत्मा किसी का पिता या पुत्र हो ही नहीं सकता। इस कलियुग में तो माँगने वाले, लेनदार ही बेटे बनकर आए होते हैं! हम ग्राहक से कहें कि मुझे तेरे बिना अच्छा नहीं लगता, तेरे बिना अच्छा नहीं लगता तो ग्राहक क्या करेगा? मारेगा। यह तो रिलेटिव सगाईयाँ हैं, इसमें से कषाय खड़े होते हैं। इस राग कषाय में से द्वेष कषाय खड़ा होता है। खुशी में उछलना ही नहीं है। यह खीर उफने, तब चूल्हें में से लकड़ी निकाल लेनी पड़ती है, उसके जैसा है।

...फिर भी उचित व्यवहार कितना?

प्रश्नकर्ता : बच्चों के बारे में क्या उचित है और क्या अनुचित, वह समझ में नहीं आता।

दादाश्री : जितना सामने चलकर करते हैं, वह सब ज़रूरत से ज़्यादा अक्लमंदी है। वह पाँच वर्ष तक ही करना होता है। फिर तो बेटा कहे कि बापूजी मुझे फ़ीस दो। तब कहना कि ‘भाई पैसा यहाँ नल में नहीं आता। मुझे दो दिन पहले से कहना चाहिए था। मुझे उधार लेकर आने पड़ते हैं।’ ऐसा कहकर दूसरे दिन देने चाहिए। बच्चे तो ऐसा समझ बैठे होते हैं कि जैसे नल में पानी आता है वैसे बापूजी पानी ही देते हैं। इसलिए बच्चों के साथ ऐसा व्यवहार रखना कि उनसे सगाई बनी रहे और वे सिर पर न चढ़ बैठे, बिगड़ें नहीं। यह तो बेटे को इतना अधिक लाड़ करते हैं कि बेटा बिगड़ जाता है। अतिशय लाड़ तो होता होगा? इस बकरी के ऊपर प्यार आता है? बकरी में और बच्चें में क्या फर्क है? दोनों ही आत्मा हैं। अतिशय लाड़ नहीं और नि:स्पृह भी नहीं हो जाना चाहिए। बेटे से कहना चाहिए कि कोई कामकाज हो तो पूछना। जब तक मैं बैठा हूँ तब तक कोई अड़चन हो तो पूछना। अड़चन हो तभी, नहीं तो हाथ मत डालना। यह तो बेटे की जेब में से पैसे नीचे गिर रहे हों तो बाप शोर मचा देता है, ‘अरे चंदू, अरे चंदू।’ आप क्यों शोर मचाते हैं? अपने आप पूछेगा तब पता चलेगा। इसमें आप क्यों कलह करते हो? और अगर आप नहीं होते तो क्या होता? ‘व्यवस्थित’ के ताबे में है। और बिना काम के दख़ल

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करते हैं। संडास भी व्यवस्थित के ताबे है, और आपका आपके पास है। खुद के स्वरूप में खुद हो, वहाँ पुरुषार्थ है। और खुद की स्वसत्ता है। इस पुद्गल में पुरुषार्थ है ही नहीं। पुद्गल प्रकृति के अधीन है।

बच्चों का अहंकार जागने के बाद उसे कुछ नहीं कह सकते और आप क्यों कहें? ठोकर लगेगी तो सीखेंगे। बच्चे पाँच वर्ष के हों तब तक कहने की छूट है और पाँच से सोलह वर्ष वाले को कभी दो चपत मारनी भी पड़े। लेकिन बीस वर्ष का जवान होने के बाद उसका नाम तक नहीं ले सकते, एक अक्षर भी नहीं बोल सकते, बोलना वह गुनाह कहलाएगा। नहीं तो किसी दिन बंदूक़ मार देगा।

प्रश्नकर्ता : ये ‘अन्सर्टिफाइड फादर’ और ‘मदर’ बन गए हैं इसलिए यह पज़ल खड़ा हो गया है?

दादाश्री : हाँ, नहीं तो बच्चे ऐसे होते ही नहीं, बच्चे कहे अनुसार चलें, ऐसे होते। यह तो माँ-बाप ही बगैर ठिकाने के हैं। ज़मीन ऐसी है, बीज ऐसा है, माल बेकार है! ऊपर से कहते हैं कि मेरा बेटा महावीर बनेगा! महावीर तो होते होंगे? महावीर की माँ तो कैसी होती है? बाप ज़रा टेढ़ा-मेढ़ा हो तो चले लेकिन माँ कैसी होती है?

प्रश्नकर्ता : बच्चों को गढऩे के लिए या संस्कार के लिए हमें कुछ सोचना ही नहीं चाहिए?

दादाश्री : विचार करने में कोई परेशानी नहीं है।

प्रश्नकर्ता : पढ़ाई तो स्कूल में होती है लेकिन गढऩे का क्या?

दादाश्री : गढऩे का काम सुनार को सौंप देना चाहिए, उनके गढऩे वाले होते हैं वे गढ़ेंगे। बेटा पंद्रह वर्ष का हो, तब तक उसे कहना (टोकना) चाहिए, तब तक जैसे आप हो, वैसा ही उसे गढ़ देना। फिर उसे उसकी पत्नी ही गढ़ देगी। यह गढऩा नहीं आता, फिर भी लोग गढ़ते ही हैं न? इसलिए गढ़ाई अच्छी नहीं होती। मूर्ति अच्छी नहीं बनती। नाक ढाई इंच का होना चाहिए, वहाँ साढ़े चार इंच का कर देते हैं। फिर उसकी वाइफ आएगी तो काटकर ठीक करने जाएगी। फिर वह भी उसे काटेगा और कहेगा, ‘आ जा।’

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फ़र्ज़ में नाटकीय रहो

यह नाटक है! नाटक में बीवी-बच्चों को हमेशा के लिए खुद के बना लें तो क्या चल सकेगा? हाँ, नाटक में बोलते हैं, वैसे बोलने में परेशानी नहीं है। ‘यह मेरा बड़ा बेटा, शतायु (सौ वर्ष) हो।’ लेकिन सब उपलक, सुपरफ्लुअस, नाटकीय। इन सब को सच्चा माना उसके ही प्रतिक्रमण करने पड़ते हैं। यदि सच्चा न माना होता तो प्रतिक्रमण करने ही नहीं पड़ते, जहाँ सत्य मानने में आया वहाँ राग और द्वेष शुरू हो जाते हैं, और प्रतिक्रमण से ही मोक्ष है। ये दादाजी जो दिखाते हैं, उस आलोचना-प्रतिक्रमण-प्रत्याख्यान से मोक्ष है।

यह संसार तो तायफ़ा (फज़ीता, तमासा) है बिल्कुल, मज़ाक जैसा है। एक घंटे यदि बेटे के साथ लड़ें तो बेटा क्या कहेगा? ‘आपको यहाँ रहना हो तो मैं नहीं रहूँगा।’ बाप कहे, ‘मैं तुझे जायदाद नहीं दूँगा।’ तो बेटा कहे, ‘आप नहीं देने वाले कौन?’ यह तो मार-ठोककर लें, ऐसे हैं। अरे! कोर्ट में एक बेटे ने वकील से कहा कि, ‘मेरे बाप की नाक कटे ऐसा करो तो मैं तुम्हें तीन सौ रुपये ज़्यादा दूँगा।’ बाप बेटे से कहता है कि, ‘तुझे ऐसा जाना होता, तो जन्म होते ही तुझे मार डाला होता!’ तब बेटा कहे कि, ‘आपने मार नहीं डाला, वही तो आश्चर्य है न!’ ऐसा नाटक होने वाला हो तो किस तरह मारोगे! ऐसे-ऐसे नाटक अनंत प्रकार के हो चुके हैं, अरे! सुनते ही कान के परदे फट जाएँ। अरे! इससे भी तरह-तरह का बहुत कुछ जग में हुआ है इसलिए चेतो जगत् से। अब ‘खुद के’ देश की ओर मुड़ो, ‘स्वदेश’ में चलो। परदेश में तो भूत ही भूत है। जहाँ जाओ वहाँ।

कुतिया बच्चों को दूध पिलाती है वह ज़रूरी है, वह कोई उपकार नहीं करती। भैंस का बछड़ा दो दिन भैंस का दूध नहीं पीए तो भैंस को बहुत दु:ख होता है। यह तो खुद की ग़रज़ से दूध पिलाते हैं। बाप बेटे को बड़ा करता है वह खुद की ग़रज़ से, उसमें नया क्या किया? वह तो फ़र्ज़ है।

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बच्चों के साथ ‘ग्लास विद केयर’

प्रश्नकर्ता : दादा, घर में बेटे-बेटियाँ सुनते नहीं हैं, मैं खूब डाँटता हूँ फिर भी कोई असर नहीं होता।

दादाश्री : यह रेलवे के पार्सल पर लेबल लगाया हुआ आपने देखा है? ‘ग्लास विद केयर’, ऐसा होता है न? वैसे ही घर में भी ‘ग्लास विद केयर’ रखना चाहिए। अब ग्लास हो और उसे आप हथौड़े मारते रहो तो क्या होगा? वैसे ही घर के लोगों को काँच की तरह सँभालना चाहिए। आपको उस बंडल पर चाहे जितनी भी चिढ़ चढ़ी हो, फिर भी उसे नीचे फेंकोगे? तुरन्त पढ़ लोगे कि ‘ग्लास विद केयर’! घर में क्या होता है कि कुछ भी हुआ तो आप तुरंत ही बेटी को कहने लग जाते हो, ‘क्यों ये पर्स खो डाला? कहाँ गई थी? पर्स किस तरह खो गया?’ यह आप हथौड़े मारते रहते हो। यह ‘ग्लास विद केयर’ समझ जाए तो फिर स्वरूपज्ञान नहीं दिया हो, फिर भी समझ जाएगा।

इस जगत् को सुधारने का रास्ता ही प्रेम है। जगत् जिसे प्रेम कहता है वह प्रेम नहीं है, वह तो आसक्ति है। बेटी से प्रेम करते हो, लेकिन वह प्याला फोड़ दे, तब प्रेम रहता है? तब तो चिढ़ जाते हैं। मतलब, वह आसक्ति है।

बेटे-बेटियाँ हैं, आपको उनके संरक्षक की तरह, ट्रस्टी की तरह रहना है। उनकी शादी करने की चिंता नहीं करनी होती है। घर में जो हो जाए उसे ‘करेक्ट’ कहना, ‘इन्करेक्ट’ कहोगे तो कोई फायदा नहीं होगा। गलत देखने वाले को संताप होगा। इकलौता बेटा मर गया तो करेक्ट है, ऐसा किसी से नहीं कह सकते। वहाँ तो ऐसा ही कहना पड़ेगा कि, बहुत गलत हो गया। दिखावा करना पड़ेगा। ड्रामेटिक करना पड़ेगा। बाकी अंदर तो करेक्ट ही है, ऐसा करके चलना। प्याला जब तक हाथ में है तब तक प्याला है! फिर गिर पड़े और फूट जाए तो करेक्ट है ऐसा कहना चाहिए। बेटी से कहना कि सँभालकर धीरे से लेना लेकिन अंदर करेक्ट है, ऐसे कहना। यदि क्रोध भरी वाणी नहीं निकले तब फिर सामने वाले को नहीं लगेगी। मुँह पर बोल देना, केवल उसी को क्रोध नहीं

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कहते, अंदर-अंदर कुढऩा भी क्रोध कहलाता है। सहन करना, वह तो डबल क्रोध है। सहन करना यानी दबाते रहना, वह तो जब एक दिन स्प्रिंग की तरह उछलेगा तब पता चलेगा। सहन क्यों करना है? इसका तो ज्ञान से हल ला देना है। चूहे ने मूछें काटी वह ‘देखना’ है और ‘जानना’ है, उसमें रोना किसलिए? यह जगत् देखने-जानने के लिए है।

घर, एक बगीचा

एक भाई मुझे कहते हैं कि, ‘दादा, घर में मेरी पत्नी ऐसा करती है, वैसा करती है।’ तब मैंने कहा कि, ‘पत्नी से पूछो कि वह क्या कहती है?’ वह कहती है कि मेरा पति ऐसा बेकार है। बिना अक्ल का है। अब इसमें आप सिर्फ खुद के लिए न्याय क्यों खोजते हो? तब वे भाई कहते हैं कि मेरा तो घर बिगड़ गया है। बच्चे बिगड़ गए हैं। बीवी बिगड़ गई है। मैंने कहा, ‘कुछ भी नहीं बिगड़ा। आपको उसका ध्यान रखना नहीं आता। आपको अपने घर का ध्यान रखना आना चाहिए।’ आपका घर तो बगीचा है। सत्युग, त्रेता और द्वापरयुग में घर खेत जैसे होते थे। किसी खेत में केवल गुलाब ही, किसी खेत में केवल चंपा, किसी में केवड़ा, ऐसा था। अब इस कलियुग में खेत नहीं रहे, बगीचे बन गए हैं। इसलिए एक गुलाब, एक मोगरा और एक चमेली! अब आप घर में बुज़ुर्ग, गुलाब हों और घर में सब को गुलाब बनाना चाहते हो, दूसरे फूलों से कहते हो कि मेरे जैसा तू नहीं है। तू तो सफेद है। तेरा सफेद फूल क्यों आया? गुलाबी फूल ला। ऐसे सामने वाले को मारते रहते हो! अरे! फूल को देखना तो सीखो। आपको इतना ही करना है कि यह कैसी प्रकृति है? किस प्रकार का फूल है? फल-फूल आए, तब तक पौधे को देखते रहना है कि यह कैसा पौधा है? मुझमें काँटे हैं और इसमें नहीं हैं। मेरा गुलाब का पौधा है, इसका गुलाब का नहीं है। फिर फूल आएँ, तब आप जानो कि ‘ओहोहो! यह तो मोगरा है!’ तब उसकेसाथ मोगरे जैसा व्यवहार रखना चाहिए। चमेली हो तो उस अनुसार वर्तन रखना चाहिए। सामने वाले की प्रकृति के अनुसार वर्तन रखना चाहिए। पहले तो घर में बूढ़े होते थे तो उनके कहे अनुसार बच्चे चलते थे, बहुएँ चलती थीं। जबकि कलियुग में

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अलग-अलग प्रकृतियाँ हैं, वे किसी से मेल नहीं खाती, इसलिए इस काल में तो घर में सब की प्रकृति के स्वभाव के साथ एडजस्ट होकर ही काम लेना चाहिए। वह एडजस्ट नहीं होगा तो रिलेशन बिगड़ जाएँगे। इसीलिए बगीचे को सँभालो और गार्डनर बन जाओ। वाइफ की प्रकृति अलग होती है, बेटों की अलग, बेटियों की अलग-अलग प्रकृति होती हैं। यानी कि हर एक की प्रकृति का लाभ उठाओ। यह तो रिलेटिव संबंध हैं, वाइफ भी रिलेटिव है। अरे! यह देह ही रिलेटिव है न! रिलेटिव मतलब यदि उनके साथ बिगाड़ोगे तो वे अलग हो जाएँगे!

किसी को सुधारने की शक्ति इस काल में खत्म हो गई है। इसलिए सुधारने की आशा छोड़ दो, क्योंकि मन-वचन-काया की एकात्मवृत्ति हो तभी सामने वाला सुधर सकता है, मन में जैसा हो, वैसा वाणी में निकले और वैसा ही वर्तन में हो तभी सामने वाला सुधरेगा। अभी तो ऐसा है नहीं। घर में हर एक के साथ कैसा रवैया रखना है, उसकी नोर्मेलिटी ले आओ।

उसमें मूर्छित होने जैसा है ही क्या?

कुछ लोग तो, बच्चे ‘दादा, दादा’ कहें, तब दादाजी अंदर खुश होते हैं! अरे! बच्चे ‘दादा, दादा’ न करे तो क्या ‘मामा, मामा’ करेंगे? ये बच्चे ‘दादा, दादा’ करते हैं, लेकिन अंदर समझते हैं कि ‘दादा यानी थोड़े समय में मर जाने वाले हैं वे, जो आम अब बेकार हो गए हैं, फेंकने जैसे हैं, उनका नाम दादा!’ और दादा अंदर खुश होता है कि मैं दादा बन गया! ऐसा जगत् है।

अरे! पापा से भी यदि बच्चा जाकर मीठी भाषा में कहे कि ‘पापा, चलो, मम्मी चाय पीने बुला रही है।’ तो पापा अंदर ऐसा गद्गद हो जाता है, ऐसा गद्गद हो जाता है, जैसे साँड मुस्कुराया। एक तो बालभाषा, और मीठी-तोतली भाषा, उसमें भी जब पापा कहे... तब वहाँ तो प्राइम मिनिस्टर हो तो उसका भी कोई हिसाब नहीं। ये तो मन में न जाने क्या मान बैठा है कि मेरे अलावा कोई पापा है ही नहीं। अरे पागल! ये कुत्ते, गधे, बिल्ली, निरे पापा ही है न। कौन पापा नहीं है? ये सब कलह उसी की है न?

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समझ-बूझकर कोई पापा न बने, ऐसा कोई चारित्र किसी के उदय में आए तो उसकी तो आरती उतारनी पड़ेगी। बाकी सभी पापा ही बनते हैं न? बॉस ने ऑफिस में डाँटा हो, और घर पर बेटा ‘पापा, पापा’ करे तब उस घड़ी सब भूल जाता है और आनंद होता है। क्योंकि यह भी एक प्रकार की मदिरा ही है, जो सबकुछ भुला देती है!

कोई बच्चा न हो और बच्चे का जन्म हो तो वह हँसाता है, पिता को बहुत आनंद करवाता है। जब वह जाता है, तब रुलाता भी उतना ही है। इसलिए आपको इतना जान लेना है कि जो आए हैं वे जब जाएँगे, तब क्या-क्या होगा? इसीलिए आज से हँसना ही नहीं। फिर झंझट ही नहीं न! यह तो किस जन्म में बच्चे नहीं थे? कुत्ते, बिल्ली, सब जगह बच्चे-बच्चे और बच्चे ही सीने से लगाए हैं। इस बिल्ली को भी बेटियाँ ही होती हैं न?

व्यवहार नोर्मेलिटीपूर्वक होना चाहिए

इसलिए हर एक में नोर्मेलिटी ला दो। एक आँख में प्रेम और एक आँख में कठोरता रखना। सख्ती से सामने वाले को बहुत नुकसान नहीं होता, क्रोध करने से बहुत नुकसान होता है। सख्ती यानी क्रोध नहीं, लेकिन फुफकार। हम भी काम पर जाते हैं तब फुफकार मारते हैं। क्यों ऐसा करते हो? क्यों काम नहीं करते? व्यवहार में जिस जगह जिस भाव की ज़रूरत हो, वहाँ वह भाव उत्पन्न न हो तो वह व्यवहार बिगड़ा हुआ कहलाएगा।

एक व्यक्ति मेरे पास आया। वह बैंक का मेनेजर था। वह मुझसे कहता है कि मेरे घर में मेरी वाइफ को और बच्चों को मैं एक अक्षर भी नहीं कहता। मैं बिल्कुल ठंडा रहता हूँ। मैंने उनसे कहा, ‘आप सब से निम्नस्तर के बेकार मनुष्य हो। इस दुनिया में किसी काम के नहीं हो आप।’ वह व्यक्ति मन में समझा कि मैं ऐसा कहूँगा, तब फिर ये दादा मुझे बड़ा इनाम देंगे। अरे बेवकूफ, इसका इनाम होता होगा? बेटा उल्टा कर रहा हो, तब उसे ‘क्यों ऐसा किया? अब ऐसा मत करना।’ ऐसे नाटकीय बोलना चाहिए। नहीं तो बेटा ऐसा ही समझेगा कि मैं जो कुछ कर रहा हूँ वह करेक्ट ही है क्योंकि पिताजी ने एक्सेप्ट किया

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है। ऐसा नहीं बोले, इसलिए तो सिर पर सवार हो गए हैं। बोलना सब है लेकिन नाटकीय! बच्चों को रात को बैठाकर समझाएँ, बातचीत करें, घर के सभी कोनों में कचरा तो साफ करना पड़ेगा न? बच्चों को ज़रा-सा हिलाने की ही ज़रूरत होती है। वैसे संस्कार तो होते हैं, लेकिन हिलाने की ज़रूरत होती है। उन्हें हिलाने में कोई गुनाह है?

प्रश्नकर्ता : दादा, मेरा बेटा पंद्रह सौ रुपये महीने कमाता है, मैं रिटायर्ड हूँ, उसके साथ रहता हूँ। अब बेटा और बहू मुझे टोकते रहते हैं कि आप ऐसा क्यों करते हो? बाहर क्यों जाते हो? इसलिए मैं उनसे कहने वाला हूँ कि मैं घर में से चला जाऊँगा।

दादाश्री : खिलाते-पिलाते हैं अच्छी तरह से?

प्रश्नकर्ता : हाँ, दादा।

दादाश्री : तब फिर ‘चला जाऊँगा’ ऐसा नहीं बोलते। और कभी कहने के बाद में नहीं जा पाएँ, तो अपने बोल खुद को ही निगलने पड़ेंगे।

प्रश्नकर्ता : तो फिर मुझे उन्हें कुछ भी नहीं कहना चाहिए?

दादाश्री : बहुत हुआ तो धीरे से कहना कि ऐसा करो तो अच्छा, फिर मानना न मानना आपकी मरज़ी की बात है। आपका थप्पड़ सामने वाले को लगे ऐसा हो और उससे सामने वाले में बदलाव होता हो तभी थप्पड़ मारना और यदि वह पोली थप्पड़ मारोगे तो वह उल्टा बिफरेगा। उससे बेहतर तो थप्पड़ नहीं मारना है।

घर में चार बच्चे हों, उनमें से दो की कोई भूल नहीं हो तब भी बाप उन्हें डाँटता रहता है और दूसरे दो भूल करते ही रहते हों, फिर भी उन्हें कुछ नहीं कहता। यह सब उसके पूर्व के रूटकॉज़ के कारण है।

उसकी तो आशा ही मत रखना

प्रश्नकर्ता : बच्चों को चिरंजीवी क्यों कहते होंगे?

दादाश्री : चिरंजीवी नहीं लिखें तो दूसरे शब्द घुस जाएँगे। यह

(पृ.४८)

बेटा बड़ा हो और सुखी हो, हमारी अर्थी उठने से पहले उसे सुखी देखें ऐसी भावना है न? फिर भी अंदर मन में ऐसी आशा है कि यह बुढ़ापे में सेवा करे। ये आम के पेड़ क्यों उगाते हैं? आम खाने के लिए। लेकिन आज के बच्चे, वे आम के पेड़ कैसे हैं? उनमें दो ही आम आएँगे और बाप के पास से दूसरे दो आम माँगेंगे। इसलिए आशा मत रखना।

एक भाई कहते हैं कि मेरा बेटा कहता है कि आपको महीने के सौ रुपये भेजूँ? तब वे भाई कहते हैं कि मैंने तो उसे कह दिया कि भाई, मुझे तेरे बासमती की ज़रूरत नहीं है, मेरे यहाँ बाजरा उगता है। उससे पेट भर जाता है। यह नया व्यापार कहाँ शुरू करें? जो है उसमें संतोष है।

‘मित्रता’, वह भी ‘एडजस्टमेन्ट’

प्रश्नकर्ता : बच्चों को मेहमान मानें?

दादाश्री : मेहमान मानने की ज़रूरत नहीं है। इन बच्चों को सुधारने के लिए एक रास्ता है, उनके साथ मित्रता करो। हमने तो बचपन से ही यह रास्ता चुना था। इसलिए इतने छोटे बच्चे के साथ भी मित्रता है और पचासी साल के बूढ़े के साथ भी मित्रता! बच्चों के साथ मित्रता का सेवन करना चाहिए। बच्चे प्रेम ढूँढते हैं, लेकिन प्रेम उन्हें मिलता नहीं। इसलिए फिर उनकी मुश्किलें वे ही जानें, कह भी नहीं सकते और सह भी नहीं सकते। आज के युवाओं के लिए रास्ता, हमारे पास है। इस जहाज की पतवार किस तरफ लेनी है, वह हमें अंदर से ही रास्ता मिलता है। मेरे पास ऐसा प्रेम उत्पन्न हुआ है कि जो बढ़ता नहीं और घटता भी नहीं। बढ़ता-घटता है वह आसक्ति कहलाती है। जो बढ़े-घटे नहीं वह परमात्म प्रेम है। इसीलिए कोई भी मनुष्य वश में हो जाता है। मुझे किसी को वश में नहीं करना है, फिर भी प्रेम से हरकोई वश में रहता है, हम तो निमित्त हैं।

खरा धर्मोदय ही अब

प्रश्नकर्ता : इस नयी प्रजा में से धर्म का लोप किसलिए होता जा रहा है?

(पृ.४९)

दादाश्री : धर्म का लोप तो हो ही गया है, लोप होना बाकी ही नहीं रहा। अब तो धर्म का उदय हो रहा है। जब लोप हो जाता है, तब उदय की शुरूआत होती है। जैसे इस सागर में भाटा पूरा हो, तब आधे घंटे में ज्वार की शुरूआत होती है। उसी तरह यह जगत् चलता रहता है। ज्वार-भाटा नियम के अनुसार। धर्म के बिना तो मनुष्य जी ही नहीं सकता। धर्म के अलावा दूसरा आधार ही क्या है मनुष्य को?

ये बच्चे तो दर्पण हैं। बच्चों के आधार पर पता चलता है कि हम में कितनी भूल है।

बाप रातभर सोए नहीं और बेटा आराम से सोता है, उसमें बाप की भूल है। मैंने बाप से कहा कि, ‘इसमें तेरी ही भूल है। तूने ही पिछले जन्म में बेटे को सिर पर चढ़ाया था, बहकाया था, और वह भी तेरी किसी लालच की खातिर।’ यह तो समझने जैसा है। इन अन्सर्टिफाइड फादर और अन्सर्टिफाइड मदर की कोख से बच्चे जन्मे हैं, उसमें वे क्या करें? बीस-पच्चीस वर्ष के होते हैं, तब बाप बन जाते हैं। अभी तक उनका ही बाप उन पर चिल्ला रहा होता है! यह तो रामभरोसे फादर बन जाते हैं। इसमें बच्चों का क्या दोष? ये बच्चे हमारे पास सारी भूलें कबूल करते हैं, चोरी की हो, तब भी कबूल कर लेते हैं। आलोचना तो गज़ब का पुरुष हो वहीं पर होती है। हिन्दुस्तान का किसी अद्भुत स्टेज में बदलाव हो जाएगा।

संस्कार प्राप्त करवाए, ऐसा चारित्र चाहिए

प्रश्नकर्ता : दादा, घरसंसार पूरा शांतिमय रहे और अंतरात्मा का जतन हो ऐसा कर दीजिए।

दादाश्री : घरसंसार शांतिमय रहे उतना ही नहीं, मगर बच्चे भी हमारा देखकर अधिक संस्कारी बनेंगे, ऐसा है। यह तो सब माँ-बाप का पागलपन देखकर बच्चे भी पागल हो गए हैं, क्योंकि माँ-बाप के आचार-विचार योग्य नहीं है। पति-पत्नी भी जब बच्चे बैठे हों तभी छेडख़ानी करते हैं, तब फिर बच्चे बिगड़ेंगे नहीं तो और क्या होगा?

(पृ.५०)

बच्चों में कैसे संस्कार पड़ते हैं? मर्यादा तो रखनी चाहिए न? इन अंगारों का कैसा प्रभाव लगता है? छोटा बच्चा अंगारो का प्रभाव रखता है न? माँ-बाप के मन फ्रेक्चर हो गए हैं, मन विह्वल हो गए हैं। कैसी भी वाणी बोलते हैं। सामने वाले को दु:खदायी हो जाए वैसी वाणी बोलते हैं, इसीलिए बच्चे बिगड़ जाते हैं। आप ऐसा बोलते हैं कि पति को दु:ख होता है और पति ऐसा बोलता है कि आपको दु:ख होता है। यह तो सारी पज़ल खड़ी हो गई है। हिन्दुस्तान में ऐसा नहीं होता परंतु यह कलियुग निमित्त है, इसलिए ऐसा ही है। उसमें भी यह एक गज़ब का विज्ञान निकला है। वह जिसे मिलेगा उसका काम निकल जाएगा।

...इसलिए सद्भावना की ओर मोड़ो

प्रश्नकर्ता : बच्चे टेढ़े चलें, तो क्या करना चाहिए?

दादाश्री : बच्चे टेढ़े रास्ते जाएँ, तब भी आपको उसे देखते रहना है और जानते रहना है। और मन में भाव तय करना है और प्रभु से प्रार्थना करनी चाहिए कि इस पर कृपा करो।

आपको तो जो हुआ वही करेक्ट कहना चाहिए। जो भुगते उसी की भूल है। हुआ वही करेक्ट कहकर चलो तो हल आएगा। भगवान ने कहा, ‘तू सुधर तो तेरी हाज़िरी से सब सुधरेगा।’

छोटे बेटे-बेटियों को समझाना चाहिए कि सुबह नहा-धोकर सूर्यपूजा करें और रोज़ संक्षेप में बोलें कि मुझे तथा जगत् को सद्बुद्धि दो, जगत् का कल्याण करो। इतना ही बोलेंगे तो उन्हें संस्कार मिले हैं, ऐसा कहा जाएगा और माँ-बाप का कर्मबंधन छूट जाएगा। यह तो सब अनिवार्य है। माँ-बाप ने पाँच हज़ार का उधार लेकर बेटे को पढ़ाया हो, फिर भी किसी दिन बेटा उद्दंडता करे तो बोलकर बताना नहीं चाहिए कि ‘हमने तुझे पढ़ाया।’ वह तो आप ‘ड्यूटी बाउन्ड’ थे, फ़र्ज़ था। फ़र्ज़ था, वह किया। आपको अपना फ़र्ज़ निभाना है।

*****

(पृ.५१)

[5] समझ से सोहे गृहसंसार

मतभेद में समाधान किस प्रकार?

काल विचित्र आ रहा है। आँधियों पर आँधियाँ आने वाली हैं! इसलिए सावधान रहना। ये जैसे पवन की आँधियाँ आती हैं न वैसे कुदरत की आँधी आ रही है। मनुष्यों के सिर पर भारी मुश्किलें हैं। शकरकंद भट्ठी में भुनता है, वैसे लोग भुन रहे हैं। किसके आधार पर जी रहे हैं, उसकी खुद को समझ नहीं है। अपने आपमें से श्रद्धा भी चली गई है! अब क्या हो? घर में वाइफ के साथ मतभेद हो जाए तो उसका समाधान करना नहीं आता, बच्चों के साथ मतभेद खड़ा हो जाए तो उसका समाधान करना आता नहीं और उलझन में रहता है।

प्रश्नकर्ता : पति तो ऐसा ही कहता है न कि वाइफ समाधान करे, मैं नहीं करूँगा।

दादाश्री : हं... यानी कि लिमिट पूरी हो गई। वाइफ समाधान करे और आप समाधान न करो तो आपकी लिमिट हो गई पूरी। खरा पुरुष हो न तो वह ऐसा बोले कि वाइफ खुश हो जाए और ऐसे करके गाड़ी आगे बढ़ाए। और आप तो पंद्रह-पंद्रह दिनों तक, महीनों तक गाड़ी खड़ी रखते हो, ऐसा नहीं चलेगा। जब तक सामने वाले के मन का समाधान नहीं होगा तब तक आपको मुश्किल है। इसीलिए समाधान करना चाहिए।

प्रश्नकर्ता : सामने वाले का समाधान हो गया, ऐसा किस तरह कहा जाएगा? सामने वाले का समाधान हो जाए, लेकिन उसमें उसका अहित हो तो?

(पृ.५२)

दादाश्री : वह आपको देखना नहीं है। यदि सामने वाले का अहित हो, तो वह सामने वाले को देखना है। आपको सामने वाले का हिताहित देखना है, लेकिन आप, हित देखने वाले में, आप में शक्ति क्या है? आप अपना ही हित नहीं देख सकते, फिर दूसरे का हित क्या देखते हो? सब अपनी-अपनी शक्ति के अनुसार हित देखते हैं, उतना हित देखना चाहिए। लेकिन सामने वाले के हित की खातिर टकराव खड़ा हो, ऐसा नहीं होना चाहिए।

प्रश्नकर्ता : सामने वाले का समाधान करने का हम प्रयत्न करें, लेकिन उसमें परिणाम अलग ही आने वाला है, ऐसा हमें पता हो तो उसका क्या करना चाहिए?

दादाश्री : परिणाम कुछ भी आए, आपको तो ‘सामने वाले का समाधान करना है’ इतना निश्चित रखना है। समभाव से निकाल करने का निश्चित करो, फिर निकाल हो या न हो वह पहले से देखना नहीं है। और निकाल होगा। आज नहीं तो दूसरे दिन होगा, तीसरे दिन होगा, गाढ़ा हो तो दो वर्ष में, तीन वर्ष में या पाँच वर्ष में भी होगा। वाइफ के ऋणानुबंध बहुत गाढ़ होते हैं, बच्चों के गाढ़ होते हैं, माँ-बाप के गाढ़ होते हैं, वहाँ ज़रा ज़्यादा समय लगता है। ये सब अपने साथ में ही होते हैं, वहाँ निकाल धीरे-धीरे होता है। लेकिन हमने निश्चित किया है कि कभी न कभी ‘हमें समभाव से निकाल करना ही है’, इसलिए एक दिन उसका निकाल होकर रहेगा, उसका अंत आएगा। जहाँ गाढ़ ऋणानुबंध हों, वहाँ बहुत जागृति रखनी पड़ती है, इतना छोटा-सा साँप हो लेकिन सावधान, और सावधान ही रहना पड़ता है। और यदि बेखबर रहेंगे, अजागृत रहेंगे तो समाधान नहीं होगा। सामने वाला व्यक्ति बोल जाए और आप भी बोलो, बोल लिया उसमें भी हर्ज नहीं है परंतु बोलने के पीछे ऐसा निश्चय है कि ‘समभाव से निकाल करना है’ इसलिए आपको द्वेष नहीं रहता। बोला जाना, वह पुद्गल का है और द्वेष रहना, उसके पीछे खुद का आधार रहता है। इसलिए ‘हमें तो समभाव से निकाल करना है’, ऐसे निश्चित करके काम करते जाओ, हिसाब चुकता हो ही जाएँगे। और आज माँगने

(पृ.५३)

वाले को नहीं दे पाए तो कल दिया जाएगा, होली पर दिया जाएगा, नहीं तो दिपावली पर दिया जाएगा। लेकिन माँगने वाला ले ही जाएगा।

इस जगत् के लोग हिसाब चुकाने के बाद अर्थी में जाते हैं। इस जन्म के तो चुका ही देता है, किसी भी तरह से, और फिर नये बाँधता है वे अलग। अब हम नये बाँधते नहीं है और पुराने इस भव में चुकता हो ही जाने वाले हैं। सारा हिसाब चुकता हो गया इसलिए भाई चले अर्थी लेकर! जहाँ किसी भी खाते में बाकी रहा हो, वहाँ थोड़े दिन अधिक रहना पड़ेगा। इस भव का इस देह के आधार पर सब चुकता हो ही जाता है। फिर यहाँ जितनी गुत्थियाँ उलझायी हों, वे साथ में ले जाता है और फिर वापस नया हिसाब शुरू होता है।

...इसलिए टकराव टालो

इसलिए जहाँ हो वहाँ से टकराव को टालो। यह टकराव करके इस लोक का तो बिगाड़ते हैं परंतु परलोक भी बिगाड़ते हैं! जो इस लोक का बिगाड़ता है, वह परलोक का बिगाड़े बिना रहता ही नहीं! जिसका यह लोक सुधरे, उसका परलोक सुधरता है। इस भव में आपको किसी भी प्रकार की अड़चन नहीं आई तो समझना कि परभव में भी अड़चन है ही नहीं और अगर यहाँ अड़चन खड़ी की तो वे सब वहीं पर आने वाली हैं।

प्रश्नकर्ता : टकराव में टकराव करें तो क्या होता है?

दादाश्री : सिर फूट जाता है! एक व्यक्ति मुझे संसार पार करने का रास्ता पूछ रहा था। उसे मैंने कहा कि टकराव टालना। मुझे पूछा कि ‘टकराव टालना मतलब क्या?’ तब मैंने कहा कि ‘आप सीधे चल रहे हों और बीच में खंभा आए तो हमें घूमकर जाना चाहिए या खंभे के साथ टकराना चाहिए?’ तब उसने कहा, ‘ना! टकराएँगे तो सिर फूट जाएगा।’

यह पत्थर ऐसे बीच में पड़ा हुआ हो तो क्या करना चाहिए?

(पृ.५४)

घूमकर जाना चाहिए। यह भैंस का भाई रास्ते में बीच में आए तो क्या करोगे? भैंस के भाई को पहचानते हो न आप? वह आ रहा हो तो घूमकर जाना पड़ेगा, नहीं तो सिर मारकर सब तोड़ डालेगा। वैसे ही यदि कोई ऐसे मनुष्य भी आ रहे हों तो घूमकर जाना पड़ता है। वैसा ही टकराव का है। कोई मनुष्य डाँटने आए, शब्द बमगोले जैसे आ रहे हों तब आप समझ जाना कि ‘टकराव टालना है।’ आपके मन पर असर बिल्कुल नहीं हो, फिर भी अचानक कुछ असर हो गया, तब आप समझना कि सामने वाले के मन का असर आप पर पड़ा, तब आपको खिसक जाना चाहिए। वे सब टकराव हैं। इसे जैसे-जैसे समझते जाओगे, वैसे-वैसे टकराव को टालते जाओगे, टकराव टालने से मोक्ष होता है। यह जगत् टकराव ही है, स्पंदन स्वरूप है।

एक व्यक्ति को सन् इक्यावन में यह एक शब्द दिया था। ‘टकराव टाल’ कहा था और इस तरह उसको समझाया था। मैं शास्त्र पढ़ रहा था, तब उसने मुझे आकर कहा कि दादा, मुझे कुछ दीजिए। वह मेरे यहाँ नौकरी करता था, तब मैंने उससे कहा, ‘तुझे क्या दें? तू सारी दुनिया के साथ लड़कर आता है, मारपीट करके आता है।’ रेल्वे में भी लड़ाई-झगड़ा करता है, यों तो पैसों का पानी करता है और रेल्वे में जो नियमानुसार भरना है, वह भी नहीं भरता और ऊपर से झगड़ा करता है, यह सब मैं जानता था। इसलिए मैंने उसे कहा कि तू टकराव टाल। दूसरा कुछ तुझे सीखने की ज़रूरत नहीं है। वह आज तक अभी भी पालन कर रहा है। अभी आप उसके साथ टकराव करने के नये-नये तरीके ढूँढ निकालो, तरह-तरह की गालियाँ दो, फिर भी वह ऐसे खिसक जाएगा।

इसलिए टकराव टालो, टकराव से यह जगत् उत्पन्न हुआ है। उसे भगवान ने ‘बैर से उत्पन्न हुआ है’, ऐसा कहा है। हर एक मनुष्य, अरे जीव मात्र बैर रखता है। ज़्यादा कुछ हुआ कि बैर रखे बगैर रहता नहीं है। वह फिर साँप हो, बिच्छू हो, बैल हो या भैंसा हो, कोई भी हो, परंतु बैर रखता है। क्योंकि सब में आत्मा है। आत्मशक्ति

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सभी में एक-सी है। क्योंकि यह पुद्गल की कमज़ोरी के कारण सहन करना पड़ता है। परंतु सहन करने के साथ ही वह बैर रखे बगैर रहता नहीं है और अगले जन्म में वह उसका बैर वसूलता है वापस!

सहन? नहीं, सॉल्यूशन लाओ

प्रश्नकर्ता : दादा, आपने जो ‘टकराव टालना’ कहा है, मतलब सहन करना ऐसा अर्थ होता है न?

दादाश्री : टकराव टालने का मतलब सहन करना नहीं है। सहन करोगे तो कितना करोगे? सहना करना और स्प्रिंग दबाना, वह दोनों एक जैसा है। स्प्रिंग दबाई हुई कितने दिन रहेगी? इसलिए सहन करना तो सीखना ही मत, सॉल्यूशन लाना सीखो।

अज्ञान दशा में तो सहन ही करना होता है। फिर एक दिन स्प्रिंग उछलेगी तो सब गिरा देगी, लेकिन वह तो कुदरत का नियम ही ऐसा है।

जगत् का ऐसा नियम ही नहीं है कि किसी के कारण आपको सहन करना पड़े। दूसरों के निमित्त से जो कुछ सहन करना पड़ता है, वह आपका ही हिसाब होता है। परंतु आपको पता नहीं चलता कि यह कौन-से खाते का, कहाँ का माल है? इसीलिए आप ऐसा समझते हैं कि ‘इसने नया माल उधार देना शुरू किया।’ नया कोई देता ही नहीं, दिया हुआ ही वापस आता है। अपने ज्ञान में सहन नहीं करना होता। ज्ञान से जाँच लेना चाहिए कि सामने वाला ‘शुद्धात्मा’ है। यह जो आया है वह मेरे ही कर्म के उदय से आया है, सामने वाला तो निमित्त है। फिर यह ज्ञान इटसेल्फ ही पज़ल सॉल्व कर देगा।

प्रश्नकर्ता : उसका अर्थ ऐसा हुआ कि मन में समाधान करना चाहिए कि यह माल था वह वापस आया ऐसा न?

दादाश्री : वह खुद शुद्धात्मा है और यह उसकी प्रकृति है। प्रकृति यह फल देती है। हम शुद्धात्मा हैं, वह भी शुद्धात्मा हैं। अब

(पृ.५६)

दोनों को ‘वायर’ कहाँ लागू पड़ता है? वह प्रकृति और यह प्रकृति, दोनों आमने-सामने सब हिसाब चुका रहे हैं। उसमें इस प्रकृति के कर्म का उदय है इसलिए वह कुछ देता है। इसीलिए आपको कहना चाहिए कि यह अपने ही कर्म का उदय है और सामने वाला निमित्त है, वह दे गया इसलिए अपना हिसाब शुद्ध हो गया। जहाँ यह सॉल्यूशन हो, वहाँ फिर सहन करने का रहता ही नहीं न?

सहन करने से क्या होगा? ऐसा स्पष्ट नहीं समझाओगे तो एक दिन वह स्प्रिंग कूदेगी। कूदी हुई स्प्रिंग आपने देखी है? मेरी स्प्रिंग बहुत कूदती थी। कई दिनों तक मैं बहुत सहन कर लेता था और फिर एक दिन स्प्रिंग उछलती तो सभी उड़ाकर रख देता। यह सब अज्ञान दशा का, मुझे उसका खयाल है। वह मेरे लक्ष्य में है। इसलिए तो कह देता हूँ न कि सहन करना मत सीखना। वह तो अज्ञानदशा में सहन करने का होता है। अपने यहाँ तो स्पष्टीकरण कर देना है कि इसका परिणाम क्या, उसका कारण क्या, खाते में अच्छी तरह से देख लेना चाहिए, कोई वस्तु खाते के बाहर की नहीं होती।

हिसाब चुके या ‘कॉज़ेज़’ पड़े?

प्रश्नकर्ता : नया लेन-देन न हो वह किस तरह होगा?

दादाश्री : नया लेन-देन किसे कहते हैं? कॉज़ेज़ को नया लेन-देन कहते हैं, यह तो इफेक्ट ही है सिर्फ! यहाँ जो-जो होता है वह सब इफेक्ट ही है और कॉज़ेज़ अदर्शनीय है। इन्द्रियों से कॉज़ेज़ दिखते नहीं हैं, जो दिखते हैं वे सब इफेक्ट हैं। इसलिए हमें समझना चाहिए कि हिसाब चुक गया। नया जो होता है, वह तो अंदर हो रहा है, वह अभी नहीं दिखेगा, वह तो जब परिणाम आएगा तब। अभी वह तो हिसाब में नहीं लिखा गया है, अभी तो वह कच्चे हिसाब में से बहीखाते में आएगा।

प्रश्नकर्ता : पिछली पक्की बही का हिसाब अभी आता है?

दादाश्री : हाँ।

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प्रश्नकर्ता : यह टकराव होता है, वह ‘व्यवस्थित’ के आधार पर ही होता होगा न?

दादाश्री : हाँ, टकराव है वह ‘व्यवस्थित’ के आधार पर है, परंतु ऐसा कब कहलाएगा? टकराव हो जाने के बाद। ‘मुझे टकराव नहीं करना है’, ऐसा आपका निश्चय है और सामने खंभा दिखे, तब फिर आप समझ जाते हो कि खंभा आ रहा है, घूमकर जाना पड़ेगा, टकराना तो नहीं है। लेकिन इसके बावजूद भी टकरा गए, तो कहना चाहिए कि व्यवस्थित है। पहले से ही ‘व्यवस्थित है’ ऐसा मानकर चलोगे, तब तो ‘व्यवस्थित’ का दुरुपयोग हुआ कहलाएगा।

‘न्याय स्वरूप’, वहाँ उपाय तप

प्रश्नकर्ता : टकराव टालने की, समभाव से निकाल करने की हमारी वृत्ति होती है, फिर भी सामने वाला व्यक्ति हमें परेशान करे, अपमान करे, तो क्या करना चाहिए हमें?

दादाश्री : कुछ नहीं। वह अपना हिसाब है, तो ‘उसका समभाव से निकाल करना है’ आपको ऐसा निश्चित रखना चाहिए। आपको अपने नियम में ही रहना चाहिए, और अपने आप अपना पज़ल सॉल्व करते रहना चाहिए।

प्रश्नकर्ता : सामने वाला व्यक्ति अपना अपमान करे और हमें अपमान लगे, उसका कारण अपना अहंकार है?

दादाश्री : सच में तो सामने वाला अपमान करता है, तब आपका अहंकार पिघला देता है, और वह भी ड्रामेटिक अहंकार। जितना एक्सेस अहंकार होता है वह पिघलता है, उसमें क्या बिगड़ जाने वाला है? ये कर्म छूटने नहीं देते हैं। हमें तो, छोटा बच्चा सामने हो तो भी कहना चाहिए, ‘अब छुटकारा कर।’

आपके साथ किसी ने अन्याय किया और आपको ऐसा हो कि मेरे साथ यह अन्याय क्यों किया, तो आपको कर्म बँधेगा। क्योंकि आपकी भूल को लेकर सामने वाले को अन्याय करना पड़ता है। अब

(पृ.५८)

यहाँ कहाँ मति पहुँचे? जगत् तो कलह करके रख देता है! भगवान की भाषा में कोई न्याय भी नहीं करता और अन्याय भी नहीं करता। करेक्ट करता है। अब इन लोगों की मति कहाँ से पहुँचे? घर में मतभेद कम हों, क्लेश कम हों, आसपास वालों का प्रेम बढ़े तो समझना कि बात समझ में आ गई। नहीं तो बात समझ में आई ही नहीं।

ज्ञान कहता है कि तू न्याय खोजेगा तो तू मूर्ख है! इसलिए उसका उपाय है, तप!

किसी ने आपके साथ अन्याय किया हो तो वह भगवान की भाषा में करेक्ट हैं, जिसे संसार की भाषा में गलत किया, ऐसा कहेंगे।

यह जगत् न्यायस्वरूप है, गप्प नहीं है। एक मच्छर भी यों ही आपको छू जाए, ऐसा नहीं है। मच्छर ने छुआ यानी आपका कोई कारण है। बाकी यों ही एक स्पंदन भी आपको छुए ऐसा नहीं है। आप संपूर्ण स्वतंत्र हो। किसी की दख़ल आपमें नहीं है।

प्रश्नकर्ता : टकराव में मौन हितकारी है या नहीं?

दादाश्री : मौन तो बहुत हितकारी कहलाता है।

प्रश्नकर्ता : परंतु दादा, बाहर मौन होता है, परंतु अंदर तो बहुत घमासान चल रहा होता है, उसका क्या होगा?

दादाश्री : वह काम का नहीं है। मौन तो सब से पहले मन का चाहिए।

उत्तम तो, एडजस्ट एवरीव्हेर

प्रश्नकर्ता : जीवन में स्वभाव नहीं मिलते इसीलिए टकराव होता है न?

दादाश्री : टकराव होता है, उसी का नाम संसार है!

प्रश्नकर्ता : टकराव होने का कारण क्या है?

दादाश्री : अज्ञानता।

(पृ.५९)

प्रश्नकर्ता : सिर्फ सेठ के साथ ही टकराव होता है ऐसा नहीं है, सब के साथ होता है, उसका क्या?

दादाश्री : हाँ, सब के साथ होता है। अरे! इस दीवार के साथ भी होता है।

प्रश्नकर्ता : उसका रास्ता क्या होगा?

दादाश्री : हम बताते हैं, फिर दीवार के साथ भी टकराव नहीं होगा। इस दीवार के साथ टकराता है उसमें किसका दोष? जिसे लगा उसका दोष। उसमें दीवार को क्या? चिकनी मिट्टी आए और आप फिसल जाएँ उसमें भूल आपकी है। चिकनी मिट्टी तो निमित्त है। आपको निमित्त को समझकर अंदर उँगलियाँ गड़ा देनी पड़ेंगी। चिकनी मिट्टी तो होती ही है, और फिसला देना, वह तो उसका स्वभाव ही है।

प्रश्नकर्ता : लेकिन कलह खड़ा होने का कारण क्या है? स्वभाव नहीं मिलता, इसलिए?

दादाश्री : अज्ञानता है इसलिए। संसार उसका नाम कि किसी का किसी से स्वभाव मिलता ही नहीं। यह ‘ज्ञान’ मिले उसका एक ही रास्ता है, ‘एडजस्ट एवरीव्हेर’। कोई तुझे मारे फिर भी तुझे उसके साथ एडजस्ट हो जाना है।

प्रश्नकर्ता : वाइफ के साथ कई बार टकराव हो जाता है। मुझे ऊब भी होती है।

दादाश्री : ऊब हो उतना ही नहीं, लेकिन कुछ तो जाकर समुद्र में डूब मरते हैं, ब्राँडी पीकर आते हैं।

सब से बड़ा दु:ख किसका है? डिसएडजस्टमेन्ट का, वहाँ एडजस्ट एवरीव्हेर करें, तो क्या हर्ज है?!

प्रश्नकर्ता : उसमें तो पुरुषार्थ चाहिए।

दादाश्री : कुछ भी पुरुषार्थ नहीं, मेरी आज्ञा पालनी है कि ‘दादा’ ने कहा है कि एडजस्ट एवरीव्हेर। तो एडजस्ट होता रहेगा।

(पृ.६०)

बीवी कहे कि ‘आप चोर हो।’ तो कहना कि ‘यु आर करेक्ट।’ और थोड़ी देर बाद वह कहे कि ‘नहीं, आपने चोरी नहीं की।’ तब भी, ‘यु आर करेक्ट’ कहना।

ऐसा है, जितना ब्रह्मा का एक दिन, उतनी अपनी पूरी ज़िंदगी है! ब्रह्मा के एक दिन के बराबर जीना है और यह क्या धाँधली? शायद यदि ब्रह्मा के सौ वर्ष जीने के होते तब तो समझो कि ठीक है, एडजस्ट क्यों हों? ‘दावा कर’ कहेंगे। लेकिन यह तो जल्दी पूरा करना हो उसके लिए क्या करना पड़ेगा? एडजस्ट हो जाओगे या दावा दायर करो, कहोगे? लेकिन यह तो एक दिन ही है, यह तो जल्दी पूरा करना है। जो काम जल्दी पूरा करना हो उसे क्या करना पड़ता है? एडजस्ट होकर छोटा कर देना चाहिए, नहीं तो खिंचता ही जाएगा या नहीं खिंचेगा?

बीवी के साथ लड़ें तो रात को नींद आएगी क्या? और सुबह नाश्ता भी अच्छा नहीं मिलेगा।

हमने इस संसार की बहुत सूक्ष्म खोज की है। अंतिम प्रकार की खोज करके हम ये सब बातें कर रहे हैं। व्यवहार में किस तरह रहना चाहिए, वह भी देते हैं और मोक्ष में किस तरह जा सकते हैं, वह भी देते हैं। आपकी अड़चनें किस तरह से कम हों, वही हमारा हेतु है।

घर में चलण छोड़ना तो पड़ेगा न?

घर में आपको अपना चलण (वर्चस्व, सत्ता) नहीं रखना चाहिए, जो व्यक्ति चलण रखता है उसे भटकना पड़ता है। हमने भी हीराबा से कह दिया था कि ‘हम खोटा सिक्का हैं। हमें भटकना नहीं पुसाता न!’ नहीं चलने वाला सिक्का हो उसका क्या करते हैं? उसे भगवान के पास बैठे रहना होता है। घर में आपका चलण चलाने जाओगे, तो टकराव होगा न? अब तो समभाव से निकाल करना है। घर में पत्नी के साथ ‘फ्रेन्ड’ की तरह रहना चाहिए। वे आपकी ‘फ्रेन्ड’ और आप उनके ‘फ्रेन्ड’। और यहाँ कोई नोंध (अत्यंत राग अथवा द्वेष सहित लम्बे समय तक याद रखना, नोट करना) नहीं करता कि चलण तेरा

(पृ.६१)

था या उनका था। म्युनिसिपालिटी में नोट नहीं करते और भगवान के वहाँ भी नोट नहीं होता। आपको नाश्ते से लेना-देना है या चलण से? इसलिए किस रास्ते नाश्ता अच्छा मिलेगा वह ढूँढ निकालो। यदि म्युनिसिपालिटी वाले नोट करके रखते कि घर में किसका चलण है, तो मैं भी एडजस्ट नहीं होता। यह तो कोई बाप भी नोट नहीं करता।

आपके पैर दु:खते हों और बीवी पैर दबा रही हो, उस समय कोई आए और यह देखकर कहे कि ओहोहो! आपका तो घर में चलण बहुत अच्छा है। तब आप कहना कि, ‘ना, चलण उनका ही है।’ और यदि आप कहो कि हाँ, हमारा ही चलण है, तो वह पैर दबाना छोड़ देगी। उससे बेहतर तो आप कहना कि ‘ना, उनका ही चलण है।’

प्रश्नकर्ता : उसे मक्खन लगाना नहीं कहेंगे?

दादाश्री : ना, वह स्ट्रेट वे कहलाता है, और दूसरे सब टेढ़े-मेढ़े रास्ते कहलाते हैं। इस दूषमकाल में सुखी होने का जो मैं कहता हूँ वह, अलग रास्ता है। मैं इस काल के लिए कह रहा हूँ। आप अपना नाश्ता क्यों बिगाड़ें? सुबह में नाश्ता बिगड़े, दोपहर में नाश्ता बिगड़े, सारा दिन बिगड़ेगा।

रिएक्शनरी प्रयत्न नहीं ही किए जाएँ

प्रश्नकर्ता : दोपहर को वापस सुबह का टकराव भूल भी जाते हैं और शाम को वापस नया हो जाता है।

दादाश्री : वह हम जानते हैं, टकराव किस शक्ति से होता है। वह टेढ़ा बोलती है उसमें कौन-सी शक्ति काम कर रही है। बोलकर वापस एडजस्ट हो जाते हैं। वह सब ज्ञान से समझ में आए ऐसा है, फिर भी एडजस्ट होना चाहिए जगत् में। क्योंकि हर एक वस्तु एन्ड वाली होती है। और शायद वह लम्बे समय तक चले, फिर भी आप उसे हेल्प नहीं करते, अधिक नुकसान करते हो। अपने आपको नुकसान करते हो और सामने वाले का भी नुकसान होता है! उसे कौन सुधार

(पृ.६२)

सकेगा? जो सुधरा हुआ हो वही सुधार सकेगा। जिसका खुद का ही ठिकाना नहीं हो वह सामने वाले को किस तरह सुधार सकेगा?

प्रश्नकर्ता : हम सुधरे हुए हों तो सुधार सकेंगे न?

दादाश्री : हाँ, सुधार सकोगे।

प्रश्नकर्ता : सुधरे हुए की परिभाषा क्या है?

दादाश्री : सामने वाले मनुष्य को आप डाँट रहे हों तब भी उसे उसमें प्रेम दिखे। आप उलाहना दो, तब भी उसे आपमें प्रेम ही दिखे कि अहोहो! मेरे फादर का मुझ पर कितना प्रेम है! उलाहना दो, परंतु प्रेम से दोगे तो सुधरेंगे। ये कॉलेज में यदि प्रोफेसर उलाहना देने जाएँ तो प्रोफेसरों को सब मारेंगे।

सामने वाला सुधरे, उसके लिए आपके प्रयत्न रहने चाहिए। लेकिन यदि प्रयत्न रिएक्शनरी हों, वैसे प्रयत्नो में नहीं पड़ना चाहिए। आप उसे झिड़कें और उसे खराब लगे वह प्रयत्न नहीं कहलाता। प्रयत्न अंदर करने चाहिए, सूक्ष्म प्रकार से! स्थूल तरीके से यदि आपको नहीं करना आता तो सूक्ष्म प्रकार से प्रयत्न करने चाहिए। अधिक उलाहना नहीं देना हो तो थोड़े में ही कह देना चाहिए कि हमें यह शोभा नहीं देता । बस इतना ही कहकर बंद रखना चाहिए। कहना तो पड़ता है लेकिन कहने का तरीका होता है।

...नहीं तो प्रार्थना का एडजस्टमेन्ट

प्रश्नकर्ता : सामने वाले को समझाने के लिए मैंने अपना पुरुषार्थ किया, फिर वह समझे या नहीं समझे, वह उसका पुरुषार्थ?

दादाश्री : इतनी ही आपकी ज़िम्मेदारी है कि आप उसे समझा सकते हो। फिर वह नहीं समझे तो उसका उपाय नहीं है। फिर आपको इतना कहना है कि ‘दादा भगवान! इनको सद्बुद्धि देना।’ इतना कहना पड़ेगा। कुछ उसे ऊपर नहीं लटका सकते, गप्प नहीं है। यह ‘दादा’ के एडजस्टमेन्ट का विज्ञान है, आश्चर्यकारी एडजस्टमेन्ट है यह। और

(पृ.६३)

जहाँ एडजस्ट नहीं हो पाए, वहाँ उसका स्वाद तो आता ही रहेगा न आपको? यह डिसएडजस्टमेन्ट ही मूर्खता है। क्योंकि वह जाने कि अपना स्वामित्व मैं छोडूँगा नहीं, और मेरा ही चलण रहना चाहिए। तो सारी ज़िंदगी भूखा मरेगा और एक दिन ‘पोइज़न’ पड़ेगा थाली में। सहज चलता है, उसे चलने दो न! यह तो कलियुग है! वातावरण ही कैसा है? इसलिए बीवी कहे कि आप नालायक हो, तो कहना ‘बहुत अच्छा।’

प्रश्नकर्ता : हमें बीवी ‘नालायक’ कहे, वह तो उकसाया हो ऐसा लगता है।

दादाश्री : तो फिर आपको क्या उपाय करना चाहिए? तू दो बार नालायक है, उसे ऐसा कहना है? और उससे कुछ आपकी नालायकी मिट गई? आप पर मुहर लगी, मतलब आप दो बार मुहर लगाएँगे? और फिर नाश्ता बिगड़ेगा, सारा दिन बिगड़ेगा।

प्रश्नकर्ता : एडजस्टमेन्ट की बात है, उसके पीछे भाव क्या है, फिर कहाँ पहुँचना है?

दादाश्री : भाव शांति का है, शांति का हेतु है। अशांति पैदा नहीं करने की युक्ति है।

‘ज्ञानी’ के पास से एडजस्टमेन्ट सीखें

एक भाई थे। वे रात को दो बजे न जाने क्या-क्या करके घर आते होंगे, उसका वर्णन करने जैसा नहीं है। आप समझ जाओ। तब फिर घर में सब ने निश्चय किया कि इनको डाँटें या घर में नहीं घुसने दें? क्या उपाय करें? वे उसका अनुभव कर आए। बड़े भाई कहने गए तो उसने बड़े भाई से कहा कि, ‘आपको मारे बगैर छोडूँगा नहीं।’ फिर घर वाले सभी मुझे पूछने आए कि, ‘इसका क्या करें? यह तो ऐसा बोलता है।’ तब मैंने घर वालों को कह दिया कि किसी को उसे एक अक्षर भी नहीं कहना है। आप बोलोगे तो वह ज़्यादा उद्दंड हो जाएगा, और घर में घुसने नहीं दोगे तो वह विद्रोह करेगा। उसे जब आना हो, तब आए और जब जाना हो, तब जाए। आपको राइट

(पृ.६४)

भी नहीं बोलना है और रोंग भी नहीं बोलना है, राग भी नहीं रखना है और द्वेष भी नहीं रखना है, समता रखनी है, करुणा रखनी है। तब तीन-चार वर्षों बाद वह भाई सुधर गया। आज वह भाई धंधे में बहुत मदद करता है। जगत् निकम्मा नहीं है, परंतु काम लेना आना चाहिए। सभी भगवान हैं, और हर कोई अलग-अलग काम लेकर बैठे हैं, इसलिए नापसंद जैसा रखना मत।

आश्रित को कुचलना, घोर अन्याय

प्रश्नकर्ता : मेरी पत्नी के साथ मेरी बिल्कुल नहीं बनती। चाहे जितनी निर्दोष बात करूँ, मेरा सच हो फिर भी वह उल्टा समझती है। बाहर का जीवनसंघर्ष तो चलता है, लेकिन यह व्यक्तिसंघर्ष क्या होगा?

दादाश्री : ऐसा है, मनुष्य खुद के हाथ के नीचे वाले मनुष्यों को इतना अधिक कुचलता है, इतना अधिक कुचलता है कि कुछ बाकी ही नहीं रखता। खुद के हाथ के नीचे कोई मनुष्य आया हो, फिर वह स्त्री के रूप में हो या पुरुष के रूप में हो, खुद की सत्ता में आया उसे कुचलने में कुछ बाकी ही नहीं रखते।

घर के लोगों के साथ कलह कभी भी नहीं करना चाहिए। जब उसी कमरे में पड़े रहना है वहाँ कलह किस काम का? किसी को परेशान करके खुद सुखी हो जाएँ, ऐसा कभी भी नहीं होता, और हमें तो सुख देकर सुख लेना है। हम घर में सुख दें तो ही सुख मिलेगा और चाय-पानी भी ठीक से बनाकर देंगे, नहीं तो चाय भी बिगाड़कर देंगे। कमज़ोर पति पत्नी पर सूरमा। जो अपने संरक्षण में हों, उनका भक्षण किस तरह किया जाए? जो खुद के हाथ के नीचे आया हो उसका रक्षण करना, वही सब से बड़ा ध्येय होना चाहिए। उससे गुनाह हुआ हो तो भी उसका रक्षण करना चाहिए। ये पाकिस्तानी सैनिक अभी सब यहाँ कैदी हैं, फिर भी उन्हें कैसा रक्षण देते हैं! तब ये तो घर के ही हैं न! ये तो बाहर वालों के सामने म्याऊँ हो जाते हैं, वहाँ झगड़ा नहीं करते और घर पर ही सब करते हैं। जो खुद की सत्ता के नीचे हो, उसे कुचलते रहते हैं और ऊपरी को साहब-साहब करते हैं। अभी

(पृ.६५)

यह पुलिस वाला डाँटे तो साहब-साहब कहेगा और घर पर वाइफ सच्ची बात कहती हो, तब उसे सहन नहीं होता और उसे डाँटता है, ‘मेरे चाय के कप में चींटी कहाँ से आई?’ ऐसा करके घर वालों को डराता है। उसके बदले तो शांति से चींटी निकाल ले न! घर वालों को डराता है और पुलिस वाले के सामने काँपता है! अब यह घोर अन्याय कहलाता है। हमें यह शोभा नहीं देता। स्त्री तो खुद की साझेदार कहलाती है। साझेदार के साथ क्लेश? यह तो क्लेश होता हो वहाँ कोई रास्ता निकालना पड़ता है, समझाना पड़ता है। घर में रहना है तो क्लेश किसलिए?

साइन्स, समझने जैसा

प्रश्नकर्ता : हमें क्लेश नहीं करना हो, परंतु सामने वाला आकर झगड़े तो क्या करें? उसमें एक जागृत हो परंतु सामने वाला क्लेश करे तो वहाँ तो क्लेश होगा ही न?

दादाश्री : इस दीवार के साथ लड़े, तो कितने समय तक लड़ सकेगा? इस दीवार से कभी सिर टकरा जाए तो हमें उसके साथ क्या करना चाहिए? सिर टकराया यानी हमारा दीवार के साथ में झगड़ा हो गया, तो क्या हमें दीवार को मारना चाहिए? उसी तरह ये जो खूब क्लेश करवाते हैं, तो वे सब दीवारें हैं! इसमें सामने वाले को क्या देखना? हमें अपने आप समझ जाना चाहिए कि यह दीवार जैसी है, ऐसा समझना चाहिए। फिर कोई मुश्किल नहीं।

प्रश्नकर्ता : हम मौन रहें तो सामने वाले पर उल्टा असर होता है कि इनका ही दोष है, और वे अधिक क्लेश करते हैं।

दादाश्री : यह तो आपने मान लिया है कि मैं मौन रहा इसलिए ऐसा हुआ। रात को मनुष्य उठा और बाथरूम में जाते समय अंधेरे में दीवार के साथ टकरा गया, तो वहाँ पर आप मौन रहे, क्या इसलिए वह टकराई?

मौन रहो या बोलो, उसे स्पर्श नहीं करता है, कोई लेना-देना नहीं है। आपके मौन रहने से सामने वाले पर असर होता है, ऐसा

(पृ.६६)

कुछ नहीं होता, या अपने बोलने से सामने वाले पर असर होता है ऐसा भी कुछ नहीं होता। ओन्ली साइन्टिफिक सरकमस्टेन्शियल एविडेन्स, मात्र वैज्ञानिक सांयोगिक प्रमाण हैं। किसी की इतनी-सी भी सत्ता नहीं है। इतनी-सी भी सत्ता के बगैर यह जगत् है, उसमें कोई क्या करने वाला है? इस दीवार के पास यदि सत्ता होती तो इन्हें भी सत्ता होती! इस दीवार को आपसे झगड़ने की सत्ता है? उसी तरह सामने वाले के लिए चीखने-चिल्लाने का क्या अर्थ? उसके हाथ में सत्ता ही नहीं है, वहाँ! इसीलिए आप दीवार जैसे बन जाओ न! आप पत्नी को झिड़कते रहो, तो उसके अंदर जो भगवान बैठे हैं, वे नोंध करते हैं कि यह मुझे झिड़कता है। और जब वह आपको झिड़के तब आप दीवार जैसे हो जाओगे तो आपके अंदर बैठे भगवान आपको हेल्प करेंगे।

जो भुगते उसी की भूल

प्रश्नकर्ता : कुछ ऐसे होते हैं कि हम कितना भी अच्छा व्यवहार करें, फिर भी वे समझते नहीं है।

दादाश्री : वे न समझते हों तो उसमें आपकी ही भूल है कि वह समझदार क्यों नहीं मिला आपको? उसका संयोग आपको ही क्यों मिला? जब-जब हमें कुछ भी भुगतना पड़ता है, तो वह भुगतना अपनी ही भूल का परिणाम है।

प्रश्नकर्ता : तो हमें ऐसा समझना चाहिए कि मेरे कर्म ही ऐसे हैं?

दादाश्री : बेशक। अपनी भूल के बिना हमें भुगतना नहीं पड़ता। इस जगत् में ऐसा कोई नहीं कि जो हमें थोड़ा भी, किंचित् मात्र दु:ख दे और यदि कोई दु:ख देने वाला है तो वह अपनी ही भूल है। तत्त्व का दोष नहीं है, वह तो निमित्त है। इसलिए भुगते उसकी भूल।

कोई स्त्री और पुरुष दोनों खूब झगड़ रहे हों और फिर उन दोनों के सो जाने के बाद चुपचाप देखने जाओ तो वह स्त्री तो गहरी नींद सो रही होती है और पुरुष ऐसे इधर-उधर करवटें बदल रहा होता है तो समझ जाना कि ‘इस पुरुष की ही भूल है सारी, यह स्त्री

(पृ.६७)

नहीं भुगत रही।’ जिसकी भूल हो वही भुगतता है। और उस घड़ी यदि पुरुष सो रहा हो और स्त्री जाग रही हो तो समझना कि स्त्री की भूल है। ‘भुगते उसकी भूल।’

यह विज्ञान तो बहुत बड़ा साइन्स है। मैं जो कहता हूँ, वह बहुत सूक्ष्म साइन्स है। जगत् सारा निमित्त को ही काटने दौड़ता है।

मियाँ-बीवी

बहुत बड़ा, विशाल जगत् है, परंतु यह जगत् खुद के रूम के अंदर है इतना ही मान लिया है और वहाँ भी यदि जगत् मान रहा होता तो अच्छा था। लेकिन वहाँ भी वाइफ के साथ लट्ठबाज़ी करता है! अरे! यह नहीं है तेरा पाकिस्तान!

पत्नी और पति दोनों पड़ोसी के साथ लड़ रहे हों, तब दोनों एकमत और एकजुट होते हैं। पड़ोसी को कहते हैं कि ‘आप ऐसे और आप वैसे।’ हम समझें कि यह मियाँ-बीवी की टोली अभेद टोली है, नमस्कार करने जैसी है। फिर घर में जाएँ तो बहन से ज़रा चाय में चीनी कम पड़ी हो, तब फिर वह कहेगा कि मैं तुझे रोज़ कहता हूँ कि चाय में चीनी ज़रा ज़्यादा डाल। लेकिन तेरा दिमाग़ ठिकाने नहीं रहता। यह दिमाग़ के ठिकाने वाला घनचक्कर! तेरे ही दिमाग़ का ठिकाना नहीं है न! अरे, किस तरह का है तू? रोज़ जिसके साथ सौदेबाज़ी करनी होती है, वहाँ कलह करना चाहिए?

आपका किसी के साथ मतभेद होता है?

प्रश्नकर्ता : हाँ, होता है बहुत बार।

दादाश्री : वाइफ के साथ मतभेद होता है?

प्रश्नकर्ता : हाँ, बहुत बार होता है।

दादाश्री : वाइफ के साथ भी मतभेद होता है? वहाँ भी एकता न रहे तो फिर और कहाँ रखोगे? एकता यानी क्या कि कभी भी मतभेद न पड़े। इस एक व्यक्ति के साथ निश्चित करना है कि आपमें और मुझमें मतभेद नहीं पड़े। इतनी एकता करनी चाहिए। ऐसी एकता की है आपने?

(पृ.६८)

प्रश्नकर्ता : ऐसा कभी सोचा ही नहीं। यह पहली बार सोच रहा हूँ।

दादाश्री : हाँ, वह सोचना तो पड़ेगा न? भगवान कितना सोच-सोचकर मोक्ष में गए! मतभेद पसंद है?

प्रश्नकर्ता : ना।

दादाश्री : जब मतभेद हों तब झगड़े होते हैं, चिंता होती है। इस मतभेद में ऐसा होता है तो मनभेद में क्या होगा? मनभेद हो तब डायवोर्स लेते हैं और तनभेद हो, तब अर्थी निकलती है।

झगड़ा करो, लेकिन बगीचे में

क्लेश आपको करना हो तो बाहर जाकर कर आना चाहिए। घर में यदि झगड़ा करना हो, तब उस दिन बगीचे में जाकर खूब लड़कर घर आना चाहिए। परंतु घर में ‘अपने रूम में नहीं लड़ना है’, ऐसा नियम बनाना। किसी दिन आपको लड़ने का शौक हो जाए तो बीवी से आप कहना कि चलो, आज बगीचे में खूब नाश्ता-पानी करके, वहाँ पर खूब झगड़ा करें। लोग रोकने आएँ वैसे झगड़ा करना चाहिए। लेकिन घर में झगड़ा नहीं होना चाहिए। जहाँ क्लेश होता है वहाँ भगवान नहीं रहते। भगवान चले जाते हैं। भगवान ने क्या कहा है? भक्त के वहाँ क्लेश नहीं होना चाहिए। परोक्ष भक्ति करने वाले को भक्त कहा है और प्रत्यक्ष भक्ति करने वाले को भगवान ने ‘ज्ञानी’ कहा है, वहाँ तो क्लेश हो ही कहाँ से? लेकिन समाधि होती है!

इसलिए किसी दिन लड़ने की भावना हो, तब आप पतिराज से कहना कि ‘चलो हम बगीचे में जाएँ।’ बच्चों को किसी को सौंप देना। फिर पतिराज को पहले से ही कह देना कि मैं आपको पब्लिक में दो थप्पड़ मारूँ तो आप हँसना। लोग भले ही हमारी हँसी-मज़ाक देखें।’ लोग तो आबरू नोट करने वाले हैं, वे समझेंगे कि कभी इनकी आबरू नहीं गई तो आज गई। आबरू तो किसी की होती होगी? यह तो ढँक-ढँककर आबरू रखते हैं बेचारे!

(पृ.६९)

...यह तो कैसा मोह?

आबरू तो उसे कहते हैं कि नंगा फिरे तब भी सुंदर ही दिखे! यह तो कपड़े पहनते हैं, तब भी सुंदर नहीं दिखते। जेकेट, कोट, नेकटाई पहने, फिर भी बैल जैसा लगता है! न जाने क्या मान बैठे हैं अपने आपको! किसी दूसरे से पूछता भी नहीं है। पत्नी से भी नहीं पूछता कि यह नेकटाई पहनने के बाद मैं कैसा लगता हूँ! आईने में देखकर खुद ही खुद का न्याय करता है कि बहुत अच्छा है, बहुत अच्छा है। ऐसे-ऐसे करके बाल सँवारता जाता है। और स्त्रियाँ भी बिंदी लगाकर आईने में खुद ही खुद के नखरे करती हैं। यह क्या तरीक़ा है? कैसी लाइफ? भगवान जैसा भगवान होकर यह क्या धाँधली मचाई है? खुद भगवान स्वरूप है।

कान में लौंग डालते हैं, वे खुद को दिखते हैं क्या? ये तो लोग हीरा देखें, इसलिए पहनते हैं। ऐसी जँजाल में फँसे हैं, तब भी हीरा दिखाने फिरते हैं! अरे, जँजाल में फँसे हुए मनुष्य को शौक होता होगा? झटपट हल लाओ न! पति कहे तो पति को अच्छा दिखाने के लिए पहनो। सेठ दो हज़ार के हीरे के लौंग लाए हों और पैंतीस हज़ार का बिल लाए तो सेठानी खुश हो जाती है। लौंग खुद को तो दिखते नहीं। सेठानी से मैंने पूछा कि रात को सो जाते हो तब कान के लौंग नींद में भी दिखते हैं या नहीं? यह तो माना हुआ सुख है, रोंग मान्यताएँ हैं, इसलिए अंतर शांति नहीं रहती। भारतीय नारी किसे कहते हैं? घर में दो हज़ार की साड़ी आकर पड़ी हुई हो, तो पहनती है। यह तो पति-पत्नी बाज़ार में घूमने गए हों और दुकान में हज़ार की साड़ी रखी हुई हो तो साड़ी स्त्री को खींचती है और घर आए, तब भी मुँह चढ़ा हुआ होता है और कलह करती है। उसे भारतीय नारी कैसे कहा जाए?

...ऐसा करके भी क्लेश टाला

हिन्दू तो मूल से ही क्लेशी स्वभाव के हैं। इसलिए कहते हैं न कि हिन्दू बिताते हैं जीवन क्लेश में! लेकिन मुसलमान तो ऐसे पक्के कि बाहर झगड़कर आएँ, लेकिन घर में बीवी के साथ झगड़ा नहीं

(पृ.७०)

करते। अब तो कई मुस्लिम लोग भी हिन्दू के साथ रहकर बिगड़ गए हैं। लेकिन हिन्दू से भी ज़्यादा इस बारे में मुझे तो वे लोग समझदार लगे। अरे कुछ मुस्लिम तो बीबी को झूला भी झुलाते हैं। हमारा कॉन्ट्रैक्ट का व्यवसाय, उसमें हमें मुसलमान के घर भी जाने का होता था, हम उसकी चाय भी पीते थे! हमें किसी के साथ जुदाई नहीं होती। एक दिन वहाँ गए हुए थे, तब मियाँभाई बीबी को झूला डालने लगा। तब मैंने उससे पूछा कि आप ऐसा करते हो तो वह आपके ऊपर चढ़ नहीं बैठती? तब वह कहने लगा कि वह क्या चढ़ बैठने वाली थी? उसके पास हथियार नहीं, कुछ नहीं। मैंने कहा कि हमारे हिन्दूओं को तो डर लगता है कि बीवी चढ़ बैठेगी तो क्या होगा? इसीलिए ऐसे झूला नहीं डालते। तब मियाँभाई बोलते हैं कि यह झूला डालने का कारण आप जानते हैं? मेरे तो ये दो ही कमरे हैं। मेरे पास कोई बंगला नहीं, ये तो दो ही कमरे हैं और उसमें बीवी के साथ लड़ाई हो तो मैं कहाँ सोऊँगा? मेरी सारी रात बिगड़ेगी। इसलिए मैं बाहर सब के साथ लड़ आता हूँ लेकिन बीवी के साथ क्लियर रखता हूँ। बीवी मियाँ से कहेगी कि सुबह गोश्त लाने का कह रहे थे, तो क्यों नहीं लाए? तब मियाँभाई नक़द ज़वाब देता है कि कल लाऊँगा। दूसरे दिन सुबह कहता है, ‘आज तो किधर से भी ले आऊँगा।’ और शाम को खाली हाथ वापस आता है, तब बीवी खूब अकुलाती है लेकिन मियाँभाई खूब पक्के, तो ऐसा बोलते हैं, ‘यार मेरी हालत मैं जानता हूँ!’ वह ऐसे बीवी को खुश कर देता है, झगड़ा नहीं करता। और हमारे लोग तो क्या कहते हैं, ‘तू मुझ पर दबाव डालती है? जा, नहीं लाने वाला।’ अरे, ऐसा नहीं बोलते। उल्टे तेरा वजन टूटता है। ऐसा तू बोलता है, इसलिए तू ही दबा हुआ है। अरे, वह तुझे किस तरह दबा सकती है? वह बोले, तब शांत रहना, लेकिन कमज़ोर बहुत चिड़चिड़े होते हैं। इसीलिए वह चिढ़े, तब तुझे चुप रहकर उसकी रिकार्ड सुननी चाहिए।

जिस घर में झगड़ा नहीं होता, वह घर उत्तम है। अरे झगड़ा हो लेकिन वापस उसे मना ले, तब भी उत्तम कहलाएगा! मियाँभाई को एक दिन खाने में टेस्ट नहीं आए तो मियाँ चिढ़ते हैं कि तू ऐसी

(पृ.७१)

है, वैसी है और सामने यदि पत्नी चिढ़े तो खुद चुप हो जाता है और समझ जाता है कि इससे विस्फोट होगा। इसीलिए खुद अपने में और वह उसमें। और हिन्दू तो विस्फोट करके ही रहते हैं।

बनिये की पगड़ी अलग, दक्षिणी की अलग और गुजराती की अलग, सुवर्णकार की अलग, ब्राह्मण की अलग, हर किसी की पगड़ी अलग। चूल्हे-चूल्हे का धरम अलग। सभी के व्यू पोइन्ट अलग ही हैं, मेल ही नहीं खाते। लेकिन झगड़ा न करें तो अच्छा।

मतभेद से पहले ही सावधानी

अपने में कलुषित भाव रहा ही न हो, उसके कारण सामने वाले को भी कलुषित भाव नहीं होगा। यदि आप नहीं चिढ़ोगे, तब वे भी ठंडे हो जाएँगे। दीवार जैसा हो जाना चाहिए, ताकि सुनाई नहीं दे। हमें पचास साल हो गए लेकिन कभी भी मतभेद ही नहीं हुआ। हीराबा के हाथ से घी ढुल रहा हो, तब भी मैं देखता ही रहता हूँ। हमें तो उस समय ज्ञान हाज़िर रहता है कि वे घी ढोल ही नहीं सकतीं। मैं कहूँ कि ढोलो तब भी नहीं ढोलें। जान-बूझकर कोई घी ढोलता होगा? ना। फिर भी घी ढुलता है, वह देखने जैसा है, इसलिए देखो! हमें मतभेद होने से पहले ज्ञान ऑन द मोमेन्ट हाज़िर रहता है।

‘मेरी हालत मैं ही जानता हूँ बोले, तो बीवी खुश हो जाती है और हमारे लोग तो हालत या कुछ भी कहते नहीं हैं। अरे तेरी हालत कह तो सही कि अच्छी नहीं है। इसलिए खुश रहना।’

सब की हाज़िरी में, सूर्यनारायण की साक्षी में, पुरोहित की साक्षी में शादी की थी, तब पुरोहित ने सौदा किया कि ‘समय वर्ते सावधान’ तो तुझे सावधान रहना भी नहीं आता? समय के अनुसार सावधान रहना चाहिए। पुरोहित बोलते है ‘समय वर्ते सावधान’ वह तो पुरोहित समझे, शादी करने वाला क्या समझे? सावधान का अर्थ क्या है? तब कहे, ‘बीवी उग्र हो गई हो, वहाँ तू ठंडा हो जाना, सावधान हो जाना।’ अब दोनों जने झगड़ें तब पड़ोसी देखने आएँगे या नहीं आएँगे? फिर तमाशा होगा या नहीं होगा? और फिर वापस इकट्ठे नहीं होना हो तो लड़ो।

(पृ.७२)

अरे, बँटवारा ही कर डालो। तब कहें, ‘ना, कहाँ जाएँगे?’ यदि वापस एक होना है तो फिर क्यों लड़ते हो! आपको ऐसे सावधान नहीं हो जाना चाहिए? स्त्री अर्थात् ऐसी जाति है कि बदलेगी नहीं, इसीलिए आपको बदलना पड़ेगा। वह सहज जाति है, वह बदले ऐसी नहीं है।

पत्नी चिढ़े और कहे, ‘मैं आपकी थाली लेकर नहीं आने वाली, आप खुद आओ। अब आपकी तबियत अच्छी हो गई है और चलने लगे हो। ऐसे तो लोगों के साथ बातें करते हो, घूमते-फिरते हो, बीड़ियाँ पीते हो और ऊपर से टाइम हो तब थाली माँगते हो। मैं नहीं आने वाली!’ तब आप धीरे से कहना, ‘आप नीचे थाली में निकालो मैं आ रहा हूँ।’ वह कहती है, ‘नहीं आने वाली।’ उससे पहले ही आप कह दो कि मैं आ रहा हूँ, मेरी भूल हो गई लो। ऐसा करो तो रात कुछ अच्छी बीतेगी। नहीं तो रात बिगड़ेगी। पति टिटकारी मारते यहाँ सो गए हो और पत्नी यहाँ टिटकारी मारती है। दोनों को नींद नहीं आती। सुबह वापस जब चाय-पानी होता है, तब चाय का प्याला पटककर रखते हुए, टिटकारी करती है या नहीं करती? वह तो यह पति भी तुरंत समझ जाता है कि टिटकारी की। यह कलह का जीवन है। सारे विश्व में ये हिन्दू क्लेश में जीवन बिताते हैं।

क्लेश बगैर का घर, मंदिर जैसा

जहाँ क्लेश हो, वहाँ भगवान का वास नहीं रहता है। इसलिए आप भगवान से कहना ‘साहब, आप मंदिर में रहना, मेरे घर नहीं आइएगा!’ हम और अधिक मंदिर बनवाएँगे, परंतु घर मत आइएगा!’ जहाँ क्लेश न हो, वहाँ भगवान का वास निश्चित है। उसकी मैं आपको गारन्टी देता हूँ और क्लेश तो बुद्धि और समझ से खत्म किया जा सके ऐसा है। मतभेद टले उतनी जागृति तो प्राकृतिक गुण से भी आ सकती है, उतनी बुद्धि भी आ सके ऐसा है। जान लिया, उसका नाम कि किसी के साथ मतभेद न पड़े। मति पहुँचती नहीं, इसलिए मतभेद होते हैं। मति फुल पहुँचे, तो मतभेद नहीं होंगे। मतभेद, वे टकराव हैं। वीकनेस हैं।

(पृ.७३)

कोई झंझट हो गई हो तो आप थोड़ी देर चित्त को स्थिर करो और विचार करो तो आपको सूझ पड़ेगी। क्लेश हुआ तो भगवान तो चले जाएँगे या नहीं चले जाएँगे?

प्रश्नकर्ता : चले जाएँगे।

दादाश्री : भगवान कुछ लोगों के यहाँ से जाते ही नहीं, परंतु क्लेश हो रहा हो, तब कहते हैं, ‘चलो यहाँ से, हमें यहाँ अच्छा नहीं लगेगा।’ इस कलह में मुझे अच्छा नहीं लगेगा, इसलिए देरासर और मंदिरों में जाते हैं। इन मंदिरों में भी फिर क्लेश करते हैं। मुकट, ज़ेवर ले जाते हैं तब भगवान कहते हैं कि यहाँ से भी चलो अब। तो भगवान भी तंग आ गए हैं।

अपने घर में क्लेश रहित जीवन जीना चाहिए। इतनी तो आप में कुशलता होनी चाहिए। दूसरा कुछ नहीं आए तो हमें उसे समझाना चाहिए कि क्लेश होगा तो अपने घर में से भगवान चले जाएँगे, इसलिए तू निश्चय कर कि ‘हमें क्लेश नहीं करना है।’ और आप निश्चित करना कि क्लेश नहीं करना है। निश्चित करने के बाद क्लेश हो जाए तो समझना कि यह आपकी सत्ता के बाहर हुआ है। इसीलिए वह क्लेश कर रहा हो तब भी आपको ओढ़कर सो जाना चाहिए। वह भी थोड़ी देर बाद सो जाएगा, लेकिन आप भी सामने ज़वाब देने लगें तो?

उल्टी कमाई, क्लेश कराए

मुंबई में एक ऊँचे संस्कारी कुटुंब की बहन को मैंने पूछा कि घर में क्लेश तो नहीं होता न? तब उस बहन ने कहा, ‘रोज़ सुबह क्लेश के नाश्ते ही होते हैं!’ मैंने कहा, ‘तब तो आपके नाश्ते के पैसे बचे, नहीं?’ बहन ने कहा, ‘नहीं, वह भी वापस ब्रेड निकालनी, और ब्रेड पर मक्खन चुपड़ते जाना।’ मतलब फिर क्लेश भी चलता है और नाश्ता भी चलता है! अरे, किस तरह के जीव हो?

प्रश्नकर्ता : कुछ लोगों के घर में लक्ष्मी ही उस प्रकार की होगी इसलिए क्लेश होता होगा?

(पृ.७४)

दादाश्री : यह लक्ष्मी के कारण ही ऐसा होता है। यदि लक्ष्मी हमेशा निर्मल हो, तो सब अच्छा रहता है, मन अच्छा रहता है। यह लक्ष्मी अनिष्ट वाली घर में घुसी है, उससे क्लेश होता है। हमने बचपन में ही निश्चित कर लिया था कि हो सके तब तक खोटी लक्ष्मी घुसने ही नहीं देनी है। फिर भी संजोगाधीन घुस जाए तो उसे धंधे में ही रहने देना है, घर में नहीं घुसने देना है, इसलिए आज छियासठ वर्ष हुए लेकिन खोटी लक्ष्मी घुसने नहीं दी है, और घर में कभी भी क्लेश खड़ा हुआ ही नहीं है। घर में निश्चित किया हुआ था कि इतने पैसे से घर चलाना है। व्यापार लाखों रुपया कमाता है, परंतु यह पटेल सर्विस करने जाएँ तो क्या तन्ख्वाह मिलेगी? बहुत हुआ तो छ: सौ-सात सौ रुपये मिलेंगे। व्यापार, वह तो पुण्य का खेल है। मुझे नौकरी में जितने मिलते, उतने ही पैसे घर में खर्च कर सकते हैं, दूसरे तो व्यापार में ही रहने देने चाहिए। इन्कम टैक्स वाले की चिट्ठी आए तो आपको कहना चाहिए कि, ‘वह जो रक़म थी वह भर दो।’ कब कौन-सा ‘अटैक’ हो उसका कोई ठिकाना नहीं और यदि वे पैसे खर्च कर दिए तो वहाँ इन्कम टैक्स वालों का ‘अटैक’ आया तो आपके यहाँ वो वाला ‘अटैक’ आएगा! सभी जगह अटैक घुस गए हैं न! यह जीवन कैसे कहलाए? आपको क्या लगता है? भूल लगती है या नहीं लगती? वह हमें भूल मिटानी है।

प्रयोग तो करके देखो

क्लेश न हो ऐसा निश्चित करो न! तीन दिन के लिए तो निश्चित करके देखो न! प्रयोग करने में क्या परेशानी है? तीन दिन के उपवास करते हैं न, तबियत के लिए? वैसे ही यह भी निश्चित तो करके देखो। घर में आप सब लोग इकट्ठे होकर निश्चित करो कि ‘दादा बात करते थे, वह बात मुझे पसंद आई है, तो आज से हम क्लेश मिटाएँ।’ फिर देखो।

धर्म किया फिर भी क्लेश?

जहाँ क्लेश नहीं वहाँ यथार्थ जैन, यथार्थ वैष्णव, यथार्थ शैव धर्म हैं। जहाँ धर्म की यथार्थता है, वहाँ क्लेश नहीं होता। ये घर-घर क्लेश होते हैं तो वे धर्म कहाँ गए?

(पृ.७५)

संसार चलाने के लिए जिस धर्म की आवश्यकता है कि क्या करने से क्लेश नहीं हो, उतना ही यदि आ जाए तो भी, धर्म प्राप्त किया, ऐसा माना जाएगा।

क्लेश रहित जीवन जीना, वही धर्म है। हिन्दुस्तान में, यहाँ संसार में ही खुद का घर स्वर्ग बनेगा तो मोक्ष की बात करनी चाहिए, नहीं तो मोक्ष की बात करनी नहीं, स्वर्ग नहीं तो स्वर्ग के नज़दीक का तो होना ही चाहिए न? क्लेश रहित होना चाहिए, इसलिए शास्त्रकारों ने कहा है कि, ‘जहाँ किंचित् मात्र क्लेश है वहाँ धर्म नहीं है।’ जेल की अवस्था हो वहाँ डिप्रेशन नहीं, और महल की अवस्था हो वहाँ एलिवेशन नहीं, ऐसा होना चाहिए। क्लेश रहित जीवन हुआ इसलिए मोक्ष के नज़दीक आया, वह इस भव में सुखी होगा ही। मोक्ष हर एक को चाहिए। क्योंकि बंधन किसी को पसंद नहीं है। परंतु क्लेश रहित हुआ, तब समझना कि अब नज़दीक में अपना स्टेशन है मोक्ष का।

...तब भी हम सुल्टा करें

एक बनिये से मैंने पूछा, ‘आपके घर में झगड़े होते हैं?’ तब उसने कहा, ‘बहुत होते हैं।’ मैंने पूछा, ‘उसका तू क्या उपाय करता है?’ बनिये ने कहा, ‘पहले तो मैं दरवाज़े बंद कर आता हूँ।’ मैंने पूछा, ‘पहले दरवाज़े बंद करने का क्या हेतु है?’ बनिये ने कहा, ‘लोग घुस जाएँ तो उल्टा झगड़ा बढ़ाते हैं। घर में झगड़ने के बाद अपने आप ठंडा पड़ जाता है।’ इसकी बुद्धि सही है, मुझे यह पसंद आया। थोड़ी भी अक्ल वाली बात हो तो उसे हमें एक्सेप्ट करना चाहिए। कोई भोला मनुष्य तो बल्कि दरवाज़ा बंद हो तो खोल आए और लोगों से कहे, ‘आओ, देखो हमारे यहाँ!’ अरे, यह तो तायफ़ा किया!

ये लट्ठबाजी करते हैं उसमें किसी की ज़िम्मेदारी नहीं, अपनी खुद की ही जोखिमदारी है। इसे तो खुद ही अलग करना पड़ेगा। यदि तू खरा समझदार पुरुष होगा तो लोग उल्टा डालते रहें और तू सुल्टा करता रहेगा तो तेरा हल आएगा। लोगों का स्वभाव ही है उल्टा डालना! तू समकिती है तो लोग अगर उल्टा डालें तो तू सीधा कर

(पृ.७६)

दें, तू तो उल्टा डालना ही मत। बाकी, जगत् तो सारी रात नल खुला रखे और मटका उल्टा रखे, ऐसा है! खुद का ही सर्वस्व बिगाड़ रहे हैं। वे समझते हैं कि मैं लोगों का बिगाड़ रहा हूँ। लोगों का तो कोई बिगाड़ सके ऐसा है ही नहीं, कोई ऐसा जन्मा ही नहीं।

हिन्दुस्तान में प्रकृति नापी नहीं जा सकती, यहाँ तो भगवान भी भुलावे में आ जाएँ। फॉरिन में तो एक दिन उसकी वाइफ के साथ सच्चा रहा तो सारी ज़िंदगी सच्चा ही रहता है! और यहाँ तो सारा दिन प्रकृति को देखते रहें, फिर भी प्रकृति नापी नहीं जा सकती। यह तो कर्म के उदय घाटा करवाते हैं, नहीं तो ये लोग घाटा उठाएँगे? अरे, मरें फिर भी घाटा नहीं होने दें, आत्मा को एक तरफ थोड़ी देर बैठाकर फिर मरें।

‘पलटकर’ मतभेद टाला

दादाश्री : भोजन के समय टेबल पर मतभेद होता है?

प्रश्नकर्ता : वह तो होता है न?

दादाश्री : क्यों, शादी करते समय ऐसा क़रार किया था?

प्रश्नकर्ता : ना।

दादाश्री : उस समय तो क़रार यह किया था कि ‘समय वर्ते सावधान।’ घर में वाइफ के साथ ‘तुम्हारा और मेरा’ ऐसी वाणी नहीं होनी चाहिए। वाणी विभक्त नहीं होनी चाहिए, वाणी अविभक्त होनी चाहिए, आप अविभक्त कुटुंब के हैं न?

हमें हीराबा के साथ कभी भी मतभेद पड़ा नहीं, कभी भी वाणी में ‘मेरा-तेरा’ हुआ नहीं। लेकिन एक बार हमारे बीच मतभेद पड़ गया था। उनके भाई के वहाँ पहली बेटी की शादी थी। उन्होंने मुझसे पूछा कि, ‘उन्हें क्या देना है?’ तब मैंने उन्हें कहा कि, ‘जो आपको ठीक लगे वह, लेकिन घर में ये तैयार चाँदी के बरतन पड़े हुए हैं, वे दे दीजिए! नया मत बनवाना।’ तब उन्होंने कहा कि, ‘आपके ननिहाल में

(पृ.७७)

तो मामा की बेटी की शादी हो तो बड़े-बड़े थाल बनवाकर देते हैं!’ उन्होंने मेरे और आपके शब्द बोले तब से ही मैं समझ गया कि आज आबरू गई अपनी। हम एक के एक, वहाँ मेरा-तेरा होता होगा? मैं तुरंत ही समझ गया और मैं तुरंत ही पलट गया, मुझे जो कहना था उस पर से पूरा ही मैं पलट गया, मैंने उनसे कहा, मैं ऐसा नहीं कहना चाहता हूँ। आप चाँदी के बरतन देना और ऊपर से पाँच सौ एक रुपये देना, उन्हें काम आएँगे।’ ‘हं... इतने सारे रुपये तो कभी दिए जाते होंगे? आप तो जब देखो तब भोले के भोले ही रहते हो, जिस किसी को देते ही रहते हो।’ मैंने कहा, ‘वास्तव में मुझे तो कुछ आता ही नहीं।

देखो, यह मेरा मतभेद पड़ रहा था, लेकिन किस तरह से सँभाल लिया पलटकर! अंत में मतभेद नहीं पड़ने दिया। पिछले तीस-पैंतीस वर्षों से हमारे बीच नाम मात्र का भी मतभेद नहीं हुआ है। बा (हीरा बा) भी देवी जैसे हैं। मतभेद किसी जगह पर हम पड़ने ही नहीं देते। मतभेद पड़ने से पहले ही हम समझ जाते हैं कि यहाँ से पलट डालो, और आप तो सिर्फ दाएँ और बाएँ, दो तरफ से ही बदलना जानते हो कि ऐसे पेच चढ़ेंगे या ऐसे पेच चढ़ेंगे। हमें तो सत्रह लाख तरह के पेच घुमाने आते हैं। परंतु गाड़ी रास्ते पर ला देते हैं, मतभेद नहीं होने देते। अपने सत्संग में बीसेक हज़ार लोग और चारेक हज़ार महात्मा हैं, लेकिन हमारा किसी के साथ एक भी मतभेद नहीं है। जुदाई मानी ही नहीं मैंने किसी के साथ!

जहाँ मतभेद है वहाँ अंशज्ञान है और जहाँ मतभेद ही नहीं, वहाँ विज्ञान है। जहाँ विज्ञान है, वहाँ सर्वांशज्ञान है। सेन्टर में बैठें, तभी मतभेद नहीं रहते। तभी मोक्ष होता है। लेकिन डिग्री ऊपर बैठो और ‘हमारा-तुम्हारा’ रहे तो उसका मोक्ष नहीं होता। निष्पक्षपाती का मोक्ष होता है।

समकिती की निशानी क्या? तब कहे, घर में सब लोग उल्टा कर डालें फिर भी खुद सीधा कर डाले। सभी बातों में सीधा करना वह समकिती की निशानी है। इतना ही पहचानना है कि यह मशीनरी

(पृ.७८)

कैसी है, उसका ‘फ्यूज़’ उड़ जाए तो किस तरह से ‘फ्यूज़’ ठीक करना है। सामने वाले की प्रकृति के साथ एडजस्ट होना आना चाहिए। हमें तो, सामने वाले का ‘फ्यूज़’ उड़ जाए, तब भी हमारा एडजस्टमेन्ट होता है। लेकिन सामने वाले का एडजस्टमेन्ट टूटे तो क्या होगा? ‘फ्यूज़’ गया। इसलिए फिर तो वह दीवार से टकराता है, दरवाज़ों से टकराता है, लेकिन वायर नहीं टूटता। इसीलिए यदि कोई फ्यूज़ डाल दे तो वापस रास्ते पर आएगा, नहीं तो तब तक वह उलझता रहेगा।

संसार है इसीलिए घाव तो पड़ने वाले ही हैं न? और पत्नी भी कहेगी कि अब घाव भरेंगे नहीं। परंतु संसार में पड़े हैं, इसीलिए वापस घाव भर जाते हैं। मूर्छा है न? मोह के कारण मूर्छा है। मोह के कारण घाव भर जाते हैं। यदि घाव नहीं भरते, तब तो वैराग्य ही आ जाता न?! मोह किसे कहते हैं? सभी, अनुभव बहुत हुए हों परंतु भूल जाता है। डायवोर्स लेते समय निश्चित करता है कि अब किसी स्त्री से शादी नहीं करनी, फिर भी वापस साहस करता है।

...यह तो कैसा फँसाव?

शादी नहीं करोगे तो जगत् का बैलेन्स किस तरह रहेगा? शादी कर न। भले ही शादी करे! ‘दादा’ को उसमें हर्ज नहीं है, परंतु हर्ज नासमझी का है। हम क्या कहना चाहते हैं कि सब करो, परंतु बात को समझो कि हकीकत क्या है।

भरत राजा ने तेरह सौ रानियों के साथ पूरी ज़िंदगी निकाली और उसी भव में मोक्ष प्राप्त किया! तेरह सौ रानियों के साथ!!! इसलिए बात को समझना है। समझकर संसार में रहो, साधु होने की ज़रूरत नहीं है। यदि यह नहीं समझ में आया तो साधु होकर एक कोने में पड़े रहो। साधु तो, जिसे स्त्री के साथ संसार में रास नहीं आता हो, वह बनता है। और स्त्री से दूर रहा जा सकता है या नहीं ऐसी शक्ति साधने के लिए वह एक कसरत है।

संसार तो टेस्ट एक्ज़ामिनेशन है। वहाँ टेस्टेड होना है। लोहा भी बगैर टेस्ट किया हुआ नहीं चलता तो मोक्ष में अनटेस्टेड चलता होगा?

(पृ.७९)

इसलिए मूच्र्छित होने जैसा यह जगत् नहीं है। मूर्छा के कारण जगत् ऐसा दिखता है और मार खा-खाकर मर जाते हैं! भरत राजा की तेरह सौ रानियाँ थीं, तब उनकी क्या दशा हुई होगी? यहाँ घर में एक रानी हो तब भी फजीता करवाती रहती है, तब तेरह सौ रानियों में कब पार आए? अरे, एक रानी को जीतना हो तो महामुश्किल हो जाता है! जीती ही नहीं जाती। क्योंकि मतभेद पड़े कि वापस गड़बड़ हो जाती है! भरत राजा को तो तेरह सौ रानियों के साथ निभाना होता था। रनिवास से गुज़रें, तो पचास रानियों के मुँह चढ़े हुए होते। अरे, कितनी तो राजा का काम तमाम कर देने के लिए घूमती थीं! मन में सोचती कि फलानी रानियाँ उनकी खुद की हैं और ये पराई इसलिए कुछ रास्ता करें। कुछ करें, उस राजा को मारने के लिए, परंतु उन रानियों को प्रभावहीन करने के लिए। राजा के ऊपर द्वेष नहीं, परंतु उन दूसरी रानियों पर द्वेष है। परंतु उसमें राजा तो गया और तू भी तो विधवा हो जाएगी न? तब कहे कि ‘मैं विधवा हो जाऊँगी लेकिन उसे भी विधवा कर दूँ, तब सही!’

यह हमें तो सारा ताद्रश्य दिखता है। ये भरत राजा की रानी का ताद्रश्य हमें दिखता है कि उन दिनों कैसे मुँह चढ़ा हुआ होगा! राजा कैसा फँसा हुआ होगा? राजा के मन में कैसी चिंताएँ होंगी, वह सब दिखता है! एक रानी का यदि तेरह सौ राजाओं के साथ विवाह हुआ हो तो राजाओं का मुँह नहीं चढ़ेगा। पुरुष को मुँह चढ़ाना आता ही नहीं।

आक्षेप, कितने दु:खदायी!

सबकुछ तैयार है, परंतु भोगना नहीं आता, भोगने का तरीक़ा नहीं आता। मुंबई के सेठ बड़े टेबल पर खाना खाने बैठते हैं, लेकिन खाना खाने के बाद, आपने ऐसा किया, आपने वैसा किया, मेरा दिल तू जलाती रहती है बिना काम के। अरे बगैर काम के तो कोई जलाता होगा? न्यायपूर्वक जलाता है। बिना न्याय के तो कोई जलाता ही नहीं। इन लकड़ियों को लोग जलाते हैं, लेकिन लकड़ी की अलमारी को कोई जलाता है? जो जलाने का हो उसे ही जलाते हैं। ऐसे आक्षेप देते हैं। यह तो भान ही नहीं है। मनुष्यता मूर्छित हो गई है, नहीं तो

(पृ.८०)

घर में तो आक्षेप दिए जाते होंगे? पहले के समय में घर के व्यक्ति एक-दूसरे पर आक्षेप नहीं लगाते थे। अरे, लगाना हो तब भी नहीं लगाते थे। मन में ऐसा समझते थे कि आक्षेप लगाऊँगा तो सामने वाले को दु:ख होगा, और कलियुग में तो चपेट में लेने को घूमते हैं। घर में मतभेद क्यों होना चाहिए?

खड़कने में, जोखिमदारी खुद की ही

प्रश्नकर्ता : मतभेद होने का कारण क्या है?

दादाश्री : भयंकर अज्ञानता! उसे संसार में जीना नहीं आता, बेटे का बाप होना नहीं आता, पत्नी का पति होना नहीं आता। जीवन जीने की कला ही आती नहीं। ये तो सुख होने पर भी सुख भोग नहीं सकते हैं।

प्रश्नकर्ता : परंतु बरतन तो घर में खड़केंगे ही न?

दादाश्री : बरतन रोज़-रोज़ खड़काना किसे रास आएगा? यह तो समझता नहीं, इसीलिए रास आता है। जो जागृत हो, उसे तो एक मतभेद पड़े तो सारी रात नींद ही नहीं आएगी! इन बरतनों को (मनुष्यों को) स्पंदन हैं, इसलिए रात को सोते-सोते भी स्पंदन करते रहते हैं, ‘ये तो ऐसे हैं, टेढ़े हैं, उल्टे हैं, नालायक हैं, निकाल देने जैसे हैं!’ और उन बरतनों को कोई स्पंदन है? लोग समझे बिना हाँ में हाँ मिलाते हैं कि ‘दो बरतन साथ में होंगे तो खड़केंगे!’ घनचक्कर, हम लोग क्या बरतन हैं? तो क्या हमें खड़कना चाहिए? इन ‘दादा’ को किसी ने कभी भी खड़कते हुए नहीं देखा होगा! सपना भी नहीं आया होगा ऐसा!! खड़कना किसलिए? यह खड़कना तो अपनी खुद की जोखिमदारी पर है। खड़कना क्या किसी और की जोखिमदारी पर है? चाय जल्दी नहीं आई हो, और आप टेबल को तीन बार ठोकें तो जोखिमदारी किसकी? इसके बदले तो आप बुद्धू बनकर बैठे रहो। चाय मिली तो ठीक, नहीं तो जाएँगे ऑफिस में। क्या बुरा है? चाय का भी कोई काल तो होगा न? यह जगत् नियम से बाहर तो नहीं होगा न? इसलिए हमने कहा है कि ‘व्यवस्थित’। उसका टाइम होगा तब चाय मिलेगी, आपको ठोकना

(पृ.८१)

नहीं पड़ेगा। आप स्पंदन खड़े नहीं करोगे तो वह आकर रहेगी, और स्पंदन खड़े करोगे तब भी आएगी। परंतु स्पंदन के, वापस वाइफ के खाते में हिसाब जमा होगा कि आप उस दिन टेबल ठोक रहे थे न!

प्रकृति पहचानकर सावधानी रखना

पुरुष घटनाओं को भूल जाते हैं और स्त्रियों की नोंध सारी ज़िंदगी रहती है, पुरुष भोले होते हैं, बड़े मन के होते हैं, भद्रिक होते हैं, वे भूल जाते हैं बेचारे। स्त्रियाँ तो बोल भी जाती हैं कि उस दिन आप ऐसा बोले थे, वह मेरे कलेजे में घाव लगा हुआ है। अरे बीस वर्ष हुए फिर भी नोंध ताज़ी? बेटा बीस वर्ष का हो गया, शादी के लायक हो गया, फिर भी अभी तक वह बात रखी हुई है? सभी चीज़ें सड़ जाएँ, लेकिन इनकी चीज़ नहीं सड़ी। स्त्री को आपने कुछ दिया हो तो वह असल जगह पर रख छोड़ती है, कलेजे के अंदर, इसीलिए देना-करना नहीं। देने जैसी चीज़ नहीं है यह। सावधान रहने जैसा है।

इसलिए शास्त्रों में भी लिखा है कि, ‘रमा रमाड़वी सहेल छे, विफरे महामुश्केल छे’ (स्त्री को खेल खिलाना आसान है, बिफरे तब महामुश्किल है।’) बिफरे तो वह क्या-क्या कल्पना नहीं करेगी, वह कहा नहीं जा सकता। इसलिए स्त्री को बार-बार नीचा नहीं दिखाना चाहिए। सब्ज़ी ठंडी क्यों हो गई? दाल में बघार ठीक से नहीं किया, ऐसी किच-किच किसलिए करता है? बारह महीने में एकाध दिन एकाध शब्द हो तो ठीक है, यह तो रोज़! ‘भाभो भारमां तो वहु लाजमां’ (ससुर गरिमा में तो बहू शर्म में), आपको गरिमा में रहना चाहिए। दाल अच्छी नहीं बनी हो, सब्ज़ी ठंडी हो गई हो, तो वह नियम के अधीन होता है। और बहुत हो जाए तब धीमे रहकर बात करनी हो तो करना किसी समय, कि यह सब्ज़ी रोज़ गरम होती है, तब बहुत अच्छी लगती है। ऐसी बात करो तो वह उस टकोर को समझ जाएगी।

डीलिंग नहीं आए, तो दोष किसका?

अठारह सौ रुपये की घोड़ी ले, फिर भाई ऊपर बैठ जाए। भाई

(पृ.८२)

को बैठना नहीं आए और उसे छेड़ने जाए, तब घोड़ी ने कभी भी वैसी छेडख़ानी देखी नहीं हो इसलिए खड़ी हो जाती है। तब मूर्ख गिर जाता है। ऊपर से वह लोगों से कहता क्या है कि ‘घोड़ी ने मुझे गिरा दिया।’ और वह घोड़ी खुद का न्याय किसे कहने जाए? घोड़ी पर बैठना तुझे नहीं आता, उसमें तेरी भूल है या घोड़ी की? और घोड़ी भी बैठने के साथ ही समझ जाती है कि यह तो जंगली जानवर बैठा, इसे बैठना नहीं आता! वैसे ही ये हिन्दुस्तानी स्त्रियाँ, यानी आर्य नारियाँ, उनके साथ काम लेना नहीं आए तो फिर वे गिरा ही देंगी न? एक बार पति यदि स्त्री के आमने-सामने हो जाए तो उसका प्रभाव ही नहीं रहता। आपका घर अच्छी तरह चलता हो, बच्चे पढ़ रहे हों अच्छी तरह, कोई झंझट नहीं हो, और आपको उसमें उल्टा दिखा और बिना काम के आमने-सामने हो गए, तो फिर अपनी अक्ल का नाप स्त्री समझ जाती है कि ‘इसमें बरकत नहीं है।’

यदि आपका प्रभाव नहीं हो तो घोड़ी को सहलाने पर भी उसका प्रेम आपको मिलेगा। पहले प्रभाव पड़ना चाहिए। वाइफ की कुछ भूलें आप सहन करो तो उस पर प्रभाव पड़ता है। यह तो बिना भूल के भूल निकाले तो क्या होगा? कुछ पुरुष स्त्री के संबंध में शोर मचाते हैं, वह सारा गलत शोर होता है। कुछ साहब ऐसे होते हैं कि ऑफिस में कर्मचारियों के साथ दख़ल करते रहते हैं। सब कर्मचारी भी समझते हैं कि साहब में बरकत नहीं है, लेकिन करें क्या? पुण्य ने उसे बॉस की तरह बैठाया है वहाँ। घर पर तो बीवी के साथ पंद्रह-पंद्रह दिन से केस पेन्डिंग पड़ा होता है। साहब से पूछें, ‘क्यों?’ तो कहें कि उसमें अक्ल नहीं है। और ये अक्ल का बोरा! बेचें तो चार आने भी नहीं आएँ। साहब की वाइफ से पूछें तो वे कहेंगी कि जाने दो न उनकी बात। कोई बरकत ही नहीं है उनमें।

स्त्रियाँ, मानभंग हो उसे सारी ज़िंदगी भूलती नहीं हैं। ठेठ अर्थी उठने तक वह रीस साबुत होती है। वह रीस यदि भुलाई जाती हो तो जगत् सारा कब का ही पूरा हो गया होता। नहीं भुलाया जाए ऐसा है, इसलिए सावधान रहना। सारा सावधानी से काम करने जैसा है।

(पृ.८३)

स्त्रीचरित्र कहलाता है न? वह समझ में आ सके ऐसा नहीं है। फिर स्त्रियाँ देवियाँ भी हैं! इसलिए ऐसा है कि उन्हें देवियों की तरह देखोगे तो आप देवता बनोगे। बाकी आप तो मुर्गे जैसे रहोगे, हाथी और मुर्गे जैसे! हाथीभाई आए और मुर्गाभाई आए! यह तो लोगों को राम होना नहीं है और घर में सीताजी को खोजते हैं। पगले, राम तो तुझे नौकरी पर भी नहीं रखें। इसमें इनका भी दोष नहीं है। आपको स्त्रियों के साथ डीलिंग करना नहीं आता है। आपको व्यापारियों को ग्राहकों के साथ डीलिंग करना नहीं आएगा तो वह आपके पास नहीं आएँगे। इसलिए अपने लोग नहीं कहते कि सेल्समेन अच्छा रखो? अच्छा, सुंदर, होशियार सेल्समेन हो तो लोग थोड़ा भाव भी ज़्यादा दे देते हैं। उसी प्रकार आपको स्त्री के साथ डीलिंग करना आना चाहिए।

स्त्री को तो एक आँख से देवी की तरह देखो और दूसरी आँख से उसका स्त्री चरित्र देखो। एक आँख में प्रेम और दूसरी आँख में कड़काई रखो, तभी बेलेन्स रह पाएगा। अकेली देवी की तरह देखोगे और आरती उतारोगे तो वह उलटी पटरी पर चढ़ जाएगी, इसलिए बेलेन्स में रखना।

‘व्यवहार’ को ‘इस’ तरह से समझने जैसा है

पुरुष को स्त्री की बात में हाथ नहीं डालना चाहिए और स्त्री को पुरुष की बात में हाथ नहीं डालना चाहिए। हर एक को अपने-अपने डिपार्टमेन्ट में ही रहना चाहिए।

प्रश्नकर्ता : स्त्री का डिपार्टमेन्ट कौन-सा? किस-किसमें पुरुषों को हाथ नहीं डालना चाहिए?

दादाश्री : ऐसा है, खाने का क्या करना, घर कैसे चलाना, वह सब स्त्री का डिपार्टमेन्ट है। गेहूँ कहाँ से लाती है, कहाँ से नहीं लाती, आपको वह जानने की क्या ज़रूरत है? वह यदि आप से कहती हों कि गेहूँ लाने में मुझे अड़चन पड़ रही है तो वह बात अलग है। परंतु यदि वह आपको कहती न हों, राशन बताती नहीं हों, तो आपको उस

(पृ.८४)

डिपार्टमेन्ट में हाथ डालने की ज़रूरत ही क्या है? आज खीर बनाना, आज जलेबी बनाना, आपको वह भी कहने की ज़रूरत क्या है? टाइम आएगा तब वह रखेगी। उनका डिपार्टमेन्ट, वह उनका स्वतंत्र है। कभी बहुत इच्छा हुई हो तो कहना कि, ‘आज लड्डू बनाना।’ कहने के लिए मना नहीं करता परंतु दूसरा उल्टा-सीधा, बेकार का शोर मचाएँ कि कढ़ी खारी हो गई, खारी हो गई, वह सब नासमझी है।

यह रेलवेलाइन चलती है, उसमें कितनी सारी कार्यवाही होती है! कितनी जगहों से टिप्पणियाँ आती हैं, खबरें आती हैं, उनका पूरा डिपार्टमेन्ट ही अलग। अब उसमें भी खामी तो आती ही है न? वैसे ही वाइफ के डिपार्टमेन्ट में कभी खामी भी आ सकती है। अब आप यदि उनकी खामी निकालने जाएँ तो फिर वे आपकी खामी निकालेंगी, आप ऐसा नहीं करते, आप वैसा नहीं करते। ऐसा खत आया और वैसा किया आपने। यानी कि वह बैर वसूलती है। मैं आपकी कमी निकालूँ तो आप भी मेरी कमी निकालने के लिए बेताब रहते हैं! इसलिए खरा मनुष्य तो घर की बाबतों में हाथ ही न डाले। वह पुरुष कहलाता है। नहीं तो स्त्री जैसा होता है। कुछ लोग तो घर में जाकर मिर्ची के डिब्बे में देखते हैं कि दो महीने हुए मिर्ची लाए थे, वह इतनी ही देर में पूरी हो गई? अरे, मिर्ची देखता है तो कब पार आएगा? वह जिसका डिपार्टमेन्ट हो उसे चिंता नहीं होती? क्योंकि वस्तु तो खर्च होती रहती है और खरीदी भी जाती है। लेकिन यह तो बिना काम के ज़्यादा अक्लमंद बनने जाता है! फिर पत्नी भी समझती है कि इनकी चवन्नी गिर गई है। माल कैसा है, वह स्त्री समझ जाती है। घोड़ी समझ जाती है कि ऊपर बैठने वाला कैसा है, वैसे ही स्त्री सब समझ जाती है। इसके बदले तो ‘भाभो भारमां तो वहु लाजमां’ पुरुष गरिमा में नहीं रहे तो स्त्री किस तरह लाज में रहे? नियम और मर्यादा से ही व्यवहार शोभा देगा। मर्यादा पार मत करना और निर्मल रहना।

प्रश्नकर्ता : स्त्री को पुरुष की कौन-सी बात में हाथ नहीं डालना चाहिए?

दादाश्री : पुरुष की किसी भी बात में दख़ल नहीं डालना

(पृ.८५)

चाहिए। दुकान में कितना माल आया? कितना गया? आज देर से क्यों आए? उसे फिर कहना पड़ता है कि आज नौ बजे की गाड़ी चूक गया। तब पत्नी कहेगी कि ऐसे कैसे घूमते हो कि गाड़ी चूक जाते हो? तब फिर पति चिढ़ जाता है। उसके मन में होता है कि भगवान भी ऐसा पूछते तो उन्हें मारता। लेकिन यहाँ क्या करे अब? यानी बिना काम के दख़ल करते हैं। बासमती के चावल अच्छे पकाते हैं और फिर अंदर कंकड़ डालकर खाते हैं! उसमें क्या स्वाद आएगा? स्त्री-पुरुष को एक-दूसरे को हेल्प करनी चाहिए। पति को चिंता-वरीज़ रहती हों, तो उसे किस प्रकार वह न हो, स्त्री को इस तरह से बोलना चाहिए। वैसे ही पति को भी पत्नी मुश्किल में न पड़े, ऐसा देखना चाहिए। पति को भी समझना चाहिए कि स्त्री को बच्चे घर पर कितना परेशान करते होंगे! घर में टूट-फूट हो तो पुरुष को चिल्लाना नहीं चाहिए। लेकिन फिर भी लोग चिल्लाते हैं कि पिछली बार सब से अच्छे एक दर्जन कप-रकाबी लेकर आया था, आपने वे सब क्यों फोड़ डाले? सब खत्म कर दिया। इससे पत्नी के मन में लगता है कि ‘मैंने तोड़ डाले? मुझे क्या वे खा जाने थे? टूट गए तो टूट गए, उसमें मैं क्या करूँ? मी काय करूँ?’ कहेगी। अब वहाँ भी लड़ाई-झगड़ा। जहाँ कुछ लेना नहीं और देना नहीं। जहाँ लड़ने का कोई कारण ही नहीं, वहाँ भी लड़ना?

हमारे और हीराबा के बीच कोई मतभेद ही नहीं पड़ता था। हमने उनके काम में हाथ ही नहीं डाला कभी भी। उनके हाथ से पैसे गिर गए हों, हमने देखे हों, फिर भी हम ऐसा नहीं कहते थे कि आपके पैसे गिर गए। वह देखा या नहीं देखा? घर की किसी बात में हम हस्तक्षेप नहीं करते थे। वे भी हमारी किसी बात में दख़ल नहीं करती थीं। हम कितने बजे उठते हैं, कितने बजे नहाते हैं, कब आते हैं, कब जाते हैं, ऐसी हमारी किसी बात में कभी भी वे हमें नहीं पूछती थी। और किसी दिन हमें कहें कि आज जल्दी नहा लेना। तो हम तुरंत धोती मँगवाकर नहा लेते थे। अरे, अपने आप ही तौलिया लेकर नहा लेते थे। क्योंकि हम समझते थे कि ये ‘लाल झंडी’ दिखा

(पृ.८६)

रही हैं, इसलिए कोई डर होगा। पानी नहीं आने वाला हो या ऐसा कुछ हो तभी वे हमें जल्दी नहा लेने को कहेंगी, यानी हम समझ जाते। इसलिए थोड़ा-थोड़ा व्यवहार में आप भी समझ लो न, कि किसी को किसी के काम में हाथ डालने जैसा नहीं है।

फौज़दार पकड़कर आपको ले जाए फिर वह जैसा कहे वैसा आप नहीं करेंगे? जहाँ बिठाए वहाँ आप नहीं बैठेंगे? आप समझते हो कि यहाँ हूँ तब तक इस झंझट में हूँ, ऐसे यह संसार भी फौज़दारी ही है। इसलिए उसमें भी सरल हो जाना चाहिए।

घर पर भोजन की थाली आती है या नहीं आती?

प्रश्नकर्ता : आती है।

दादाश्री : भोजन चाहिए वह मिलता है, पलंग चाहिए तो बिछा देते हैं, फिर क्या? और खटिया न बिछाकर दें तो वह भी आप बिछा लेना और हल लाना। शांति से बात समझानी पड़ती है। आपके संसार के हिताहित की बात क्या गीता में लिखी होती है? वह तो खुद ही समझनी पड़ेगी न?

हसबैन्ड मतलब वाइफ की भी वाइफ (पति यानी पत्नी की पत्नी) यह तो लोग पति ही बन बैठे हैं! अरे, वाइफ क्या पति बन बैठने वाली है? हसबैन्ड यानी वाइफ की वाइफ। अपने घर में ज़ोर से आवाज़ नहीं होनी चाहिए। यह क्या लाउड स्पीकर है? यह तो यहाँ चिल्लाता है तो गली के नुक्कड़ तक सुनाई देता है। घर में गेस्ट की तरह रहो। हम भी घर में गेस्ट की तरह रहते हैं। कुदरत के गेस्ट की तरह यदि आपको सुख न आए तो ससुराल में क्या सुख आने वाला है?

‘मार’ का फिर बदला लेती है

प्रश्नकर्ता : दादा, मेरा मिजाज़ हट जाता है, तब कितनी ही बार मेरा हाथ पत्नी पर उठ जाता है।

दादाश्री : स्त्री को कभी भी मारना नहीं चाहिए। जब तक

(पृ.८७)

आपका शरीर मज़बूत होगा, तब तक वह चुप रहेगी, फिर वह आप पर चढ़ बैठेगी। स्त्री को और मन को मारना वह तो संसार में भटकने के दो साधन है। इन दोनों को मारना नहीं चाहिए। उनके पास से तो समझाकर काम लेना पड़ता है।

हमारा एक मित्र था। उसे मैं जब देखूँ तब पत्नी को एक तमाचा लगा देता था, उसकी ज़रा-सी भूल दिखे तो मार देता था। फिर मैं उसे अकेले में समझाता कि ये तमाचा तूने उसे मारा लेकिन उसकी वह नोंध रखेगी। तू नोंध नहीं रखता लेकिन वह तो नोंध रखेगी ही। अरे, ये तेरे छोटे-छोटे बच्चे, तू तमाचा मारता है तब तुझे टुकुर-टुकुर देखते रहते हैं, वे भी नोंध रखेंगे। और वे वापस, माँ और बच्चे इकट्ठे मिलकर इसका बदला लेंगे। वे कब बदला लेंगे? तेरा शरीर ढीला पड़ेगा तब। इसलिए स्त्री को मारने जैसा नहीं है। मारने से तो उल्टे तुम्हें ही नुकसानदायक, अंतरायरूप हो जाते हैं।

आश्रित किसे कहा जाता है? खूंटे से बंधी गाय हो, उसे मारोगे तो वह कहाँ जाएगी? घर के लोग खूंटे से बाँधे हुए जैसे हैं, उन्हें मारोगे तो आप नालायक कहलाओगे। उन्हें छोड़ दे और फिर मार, तो वे तुझे मारेंगे या फिर भाग जाएँगे। बाँधे हुए को मारना, वह शूरवीर का काम कैसे कहलाएगा? वह तो निर्बलों का काम कहलाएगा।

घर के मनुष्य को तो तनिक भी दु:ख दिया ही नहीं जाना चाहिए। जिनमें समझ न हो, वे घर वालों को दु:ख देते हैं।

फरियाद नहीं, निकाल लाना है

प्रश्नकर्ता : दादा, मेरी फरियाद कौन सुने?

दादाश्री : तू फरियाद करेगा तो तू फरियादी बन जाएगा। मैं तो जो फरियाद करने आए, उसे ही गुनहगार मानता हूँ। तुझे फरियाद करने का समय ही क्यों आया? फरियाद करने वाला ज़्यादातर गुनहगार ही होता है। खुद गुनहगार होता है तो फरियाद करने आता है। तू फरियाद करेगा तो तू फरियादी बन जाएगा और सामने वाला आरोपी

(पृ.८८)

बन जाएगा। इसलिए उसकी दृष्टि में आरोपी तू ठहरेगा। इसीलिए किसी के विरुद्ध फरियाद नहीं करनी चाहिए।

प्रश्नकर्ता : तो मुझे क्या करना चाहिए?

दादाश्री : ‘वे’ उल्टे दिखें तो कहना कि वे तो सब से अच्छे इन्सान है, तू ही गलत है। ऐसे, गुणा हो गया हो तो भाग कर देना चाहिए और भाग हो गया हो तो गुणा कर देना चाहिए। यह गुणा-भाग किसलिए सिखाते हैं? संसार में निबेड़ा लाने के लिए।

वह भाग करे तो आप गुणा करना, ताकि रकम उड़ जाए। सामने वाले व्यक्ति के लिए विचार करना कि उसने मुझे ऐसा कहा, वैसा कहा, वही गुनाह है। यह रास्ते में जाते समय दीवार से टकराएँ तो उसे क्यों नहीं डाँटते? पेड़ को जड़ क्यों कहा जाता है? जिससे चोट लगती है वे सब हरे पेड़ ही हैं! गाय का पैर अपने ऊपर पड़े तो क्या आप कुछ कहते हो? ऐसा ही इन सब लोगों का है। ज्ञानी पुरुष सब को किस तरह माफ कर देते हैं? वे समझते हैं कि ये बेचारे समझते नहीं हैं, पेड़ जैसे हैं। और समझदार को तो कहना ही नहीं पड़ता, वह तो अंदर तुरंत प्रतिक्रमण कर डालता है।

सामने वाले का दोष देखना ही नहीं, नहीं तो उससे तो संसार बिगड़ जाता है। खुद के ही दोष देखते रहने चाहिए। अपने ही कर्म के उदय का फल है यह! इसलिए कुछ कहने का ही नहीं रहा न?

सब अन्योन्य दोष देते हैं कि आप ऐसे हो, आप वैसे हो और साथ में बैठकर टेबल पर भोजन करते हैं। ऐसे अंदर बैर बंधता है, इसी बैर से दुनिया खड़ी रही है। इसीलिए तो हमने कहा है कि समभाव से निकाल करना। उससे बैर बंद होते हैं।

सुख लेने में फँसाव बढ़ा

संसारी मिठाई में क्या है? कोई ऐसी मिठाई है कि जो घड़ीभर भी टिके? अधिक खाई हो तो अजीर्ण होता है, कम खाई हो तो अंदर लालच पैठता है। अधिक खाए तो अंदर तरफड़ाहट होती है।

(पृ.८९)

सुख ऐसा होना चाहिए कि तरफड़ाहट न हो। देखो न, इन दादा को है न ऐसा सनातन सुख!

सुख मिले, उसके लिए लोग शादी करते हैं, तब उल्टा अधिक फँसाव लगता है। मुझे कोई हेल्पर मिले, संसार अच्छा चले, ऐसा कोई पार्टनर मिले इसलिए शादी करते हैं न?

संसार ऐसे आकर्षक लगता है परंतु अंदर घुसने के बाद उलझन होती है, फिर निकला नहीं जाता। लक्कड़ का लड्डू जो खाए वह भी पछताए, जो न खाए वह भी पछताए।

शादी करके पछताते हैं, मगर पछताने से ज्ञान होता है। अनुभवज्ञान होना चाहिए न? यों ही किताब पढ़ें तो क्या अनुभवज्ञान होता है? किताब पढ़कर क्या वैराग्य आता है? वैराग्य तो पछतावा हो तब होता है।

इस तरह शादी निश्चित होती है

एक लड़की को शादी ही नहीं करनी थी, उसके घर वाले मेरे पास उसे लेकर आए। तब मैंने उसे समझाया, शादी किए बिना चले, ऐसा नहीं है, और शादी करके पछताए बिना चले, ऐसा नहीं है। इसलिए यह सब रोना-धोना रहने दे और मैं कहता हूँ उसके अनुसार तू शादी कर ले। जैसा वर मिले वैसा, परंतु वर तो मिला न। किसी भी प्रकार का दूल्हा चाहिए, ताकि लोगों का उँगली उठाना टल जाए न! और किस आधार पर दूल्हा मिलता है वह मैंने उसे समझाया। वह लड़की समझ गई, और मेरे कहे अनुसार शादी कर ली। फिर पति ज़रा देखने में अच्छा नहीं लगा, परंतु उसने कहा कि मुझे दादाजी ने कहा है इसलिए शादी करनी ही है। उस लड़की को शादी करने से पहले ज्ञान दिया, और फिर तो उसने मेरे एक भी शब्द का उल्लंघन नहीं किया और वह लड़की एकदम सुखी हो गई।

लड़के लड़की को पसंद करने से पहले बहुत मीनमेख निकालते हैं। बहुत ऊँची है, बहुत नीची है, बहुत मोटी है, बहुत पतली है, ज़रा काली है। घनचक्कर, यह क्या भैंस है? लड़कों को समझाओ

(पृ.९०)

कि शादी करने का तरीका क्या होता है! तुझे जाकर लड़की को देखना है और आँख से आकर्षण हो वहाँ आपकी शादी निश्चित ही है और आकर्षण न हो तो आप बंद रखना।

‘जगत्’ बैर वसूलता ही है

यह तो ‘ऐसे फिर, वैसे फिर’ करता है! एक लड़का ऐसे बोल रहा था, उसे मैंने तो बहुत डाँटा। मैंने कहा, ‘तेरी मदर भी बहू बनी थी। तू किस तरह का आदमी है?’ स्त्रियों का इतना अधिक घोर अपमान! आज लड़कियाँ बढ़ गई हैं, इसलिए स्त्रियों का अपमान होता है। पहले तो इन बेवकूफों का घोर अपमान होता था। उसका ये बदला ले रहे हैं। पहले तो पाँच सौ बेवकूफ-राजा लाइन में खड़े रहते थे और एक राजकुमारी वरमाला पहनाने निकलती थी, और वे बेवकूफ गरदन आगे रखकर खड़े रहते थे! राजकुमारी आगे खिसक जाती तब उसे काटो तो खून भी न निकले! कितना घोर अपमान! अरे, छोड़ो यह शादी करना! उससे तो शादी नहीं की हो, वह अच्छा!

और आजकल तो लड़कियाँ भी कहने लगी हैं कि ज़रा ऐसे घूमो तो? आप ज़रा कैसे दिखते हो? देखो, आपने इस तरह देखने का ‘सिस्टम’ निकाला तो यह हाल हुआ है न आपका? इससे तो सिस्टम ही नहीं बनाते तो क्या बुरा था? यह आपने लफड़ा डाला तो आपका वह लफड़ा बढ़ा।

इस काल में ही, पिछले पाँचेक हज़ार वर्षों से ही पुरुष कन्या लेने जाता है। उससे पहले तो बाप स्वयंवर रचाते थे और उसमें वे सौ बेवकूफ आए हुए होते थे! उसमें से कन्या एक बेवकूफ को पास करती थी! इस तरह पास होकर शादी करनी हो, उससे तो शादी नहीं करना अच्छा। ये सभी बेवकूफ लाइन में खड़े रहते थे, उसमें से कन्या वरमाला लेकर निकलती थी। सब के मन में लाखों आशाएँ होती थीं, वे गरदन आगे बढ़ाते रहते! इस तरह अपनी पसंदगी पत्नी करें, उससे तो जन्म ही न लेना अच्छा! इसीसे आज वे बेवकूफ स्त्रियों का भयंकर अपमान करके बैर वसूल रहे हैं! स्त्री को देखने जाता है तब कहता है, ‘ऐसे घूम, वैसे घूम।’

(पृ.९१)

‘कॉमनसेन्स’ से ‘सॉल्यूशन’ आता है

मैं सब से ऐसा नहीं कहता कि आप सब मोक्ष में चलो। मैं तो ऐसा कहता हूँ कि जीवन जीने की कला सीखो। ‘कॉमनसेन्स’ थोड़ा-बहुत तो सीखो लोगों के पास से! तब सेठलोग मुझे कहते हैं कि हम में कॉमनसेन्स तो है। तब मैंने कहा, ‘कॉमनसेन्स होता तो ऐसा होता ही नहीं। तू तो मूर्ख है।’ सेठ ने पूछा, ‘कॉमनसेन्स मतलब क्या?’ मैंने कहा, ‘कॉमनसेन्स यानी एवरीव्हेर एप्लिकेबल-थ्योरिटिकली एज़ वेल एज़ प्रेक्टिकली।’ चाहे जैसा ताला हो, जंग लगा हुआ हो या कैसा भी हो लेकिन चाबी डालें कि तुरंत खुल जाए, वह कॉमनसेन्स है। आपके ताले तो खुलते नहीं, झगड़े करते हो और ताले तोड़ते हो! अरे, ऊपर बड़ा हथौड़ा मारते हो!

आपमें मतभेद पड़ता है? मतभेद मतलब क्या? ताला खोलना नहीं आया, वैसा कॉमनसेन्स कहाँ से लाए? मेरा कहना यह है कि पूरी तीन सौ साठ डिग्री का कॉमनसेन्स नहीं होता परंतु चालीस डिग्री, पचास डिग्री का तो आता है न? वैसा ध्यान में रखा हो तो? एक शुभ विचारणा पर चढ़ा हो तो उसे वह विचारणा याद आएगी और वह जागृत हो जाएगा। शुभ विचारणा के बीज पड़ें, तो फिर वह विचारणा शुरू हो जाती है। लेकिन यह सेठ तो सारे दिन लक्ष्मी के और सिर्फ लक्ष्मी के विचारों में ही घूमता रहता है! इसलिए मुझे सेठ से कहना पड़ता है, ‘सेठ आप लक्ष्मी के पीछे पड़े हो? घर पूरा तहस-नहस हो गया है। बेटियाँ मोटर लेकर इधर जाती हैं, बेटे उधर जाते हैं और सेठानी इस तरफ जाती है। ‘सेठ, आप तो हर तरह से लुट गए हैं!’ तब सेठ ने पूछा, ‘मुझे क्या करना चाहिए?’ मैंने कहा, ‘बात को समझो न। किस तरह जीवन जीना यह समझो। सिर्फ पैसों के ही पीछे मत पड़ो। शरीर का ध्यान रखो, नहीं तो हार्ट फेल होगा।’ शरीर का ध्यान, पैसों का ध्यान, बेटियों के संस्कार का ध्यान, सब कोने बुहारने (साफ करने) हैं। एक कोना आप बुहारते रहते हो, अब बंगले में एक ही कोना बुहारते रहें और बाकी सब तरफ कचरा पड़ा हो तो कैसा लगेगा? सभी कोने बुहारने हैं। इस तरह तो जीवन कैसे जी पाएँगे?

(पृ.९२)

कॉमनसेन्स वाला घर में मतभेद होने ही नहीं देता। वह कॉमनसेन्स कहाँ से लाए? वह तो ‘ज्ञानी पुरुष’ के पास बैठे, ‘ज्ञानी पुरुष’ के चरणों का सेवन करे, तब कॉमनसेन्स उत्पन्न होगा। कॉमनसेन्स वाला घर में या बाहर कहीं भी झगड़ा होने ही नहीं देता। इस मुंबई में मतभेदरहित घर कितने? मतभेद होता है, वहाँ कॉमनसेन्स कैसे कहलाएगा?

घर में ‘वाइफ’ कहे कि अभी दिन है तो आप ‘ना, अभी रात है’ कहकर झगड़ने लगो तो उसका कब पार आएगा? आप उसे कहो कि ‘मैं तुझसे विनती करता हूँ कि रात है, ज़रा बाहर जाँच ले न!’ तब भी वह कहे कि ‘ना, दिन ही है।’ तब आप कहना, ‘यू आर करेक्ट। मुझसे भूल हो गई।’ तो आपकी प्रगति शुरू होगी, नहीं तो इसका पार आए, ऐसा नहीं है। ये तो ‘बाइपासर’ (राहगीर) हैं सभी। ‘वाइफ’ भी ‘बाइपासर’ है।

रिलेटिव, अंत में दगा समझ में आता है

ये सभी ‘रिलेटिव’ सगाइयाँ हैं। इसमें कोई ‘रियल’ सगाई है ही नहीं। अरे, यह देह ही रिलेटिव है न! यह देह ही दगा है, तो उस दगे के सगे कितने होंगे? इस देह को हम रोज़ नहलाते-धुलाते हैं, फिर भी पेट में दु:खे तो ऐसा कहना कि ‘रोज़ तेरा इतना ध्यान रखता हूँ, तो आज ज़रा शांत रह न!’ फिर भी वह घड़ीभर भी शांत नहीं रहता। वह तो आबरू ले लेता है। अरे, इन बत्तीस दाँतों में से एक दु:ख रहा हो न तब भी वह चीखें मरवाएगा। सारा घर भर जाए उतने तो सारी ज़िंदगी में दातुन किए होंगे, रोज़ दातुन घिसते रहे होंगे, फिर भी मुँह साफ नहीं होता। वह तो, था वैसे का वैसा ही वापस। यानी यह तो दग़ा है। इसलिए मनुष्य जन्म और हिन्दुस्तान में जन्म हो, ऊँची जाति में जन्म हो, और यदि मोक्ष का काम नहीं निकाल लिया तो तू भटक मरा। जा तेरा सबकुछ ही बेकार गया!

कुछ समझना तो पड़ेगा न?

भले मोक्ष की ज़रूरत सबको नहीं हो, लेकिन कॉमनसेन्स की

(पृ.९३)

ज़रूरत तो सभी को है। यह तो कॉमनसेन्स नहीं होने से घर का खा-पीकर भी टकराव होते हैं। सब क्या कालाबाज़ार करते हैं? फिर भी घर के तीन लोगों में शाम तक तैंतीस मतभेद पड़ जाते हैं। इसमें क्या सुख मिला? फिर ढीठ बनकर जीता है। ऐसा स्वमानरहित जीवन किस काम का? उसमें भी मजिस्ट्रेट साहब कोर्ट में सात वर्ष की सजा ठोककर आए होते हैं, लेकिन घर में पंद्रह-पंद्रह दिन से केस पेन्डिंग पड़ा होता है। पत्नी के साथ अबोला होता है! तब अपने मजिस्ट्रेट साहब से पूछें कि ‘क्यों साहब?’ तब साहब कहते हैं कि पत्नी बहुत खराब है, बिल्कुल जंगली है। अब पत्नी से पूछें, ‘क्यों, साहब तो बहुत अच्छे आदमी हैं न?’ तब पत्नी कहेगी, ‘जाने दो न। रॉटन (सड़ा हुआ) आदमी है।’ अब ऐसा सुने तब से ही नहीं समझ जाएँ कि यह सारा पोलम्पोल है जगत्? इसमें करेक्टनेस जैसा कुछ भी नहीं है।

वाईफ यदि सब्ज़ी महँगे दाम की लाई हो तो सब्ज़ी देखकर मूर्ख चिल्लाता है, ‘इतने महंगे भाव की सब्ज़ी तो ली जाती होगी? तब पत्नी कहेगी, ‘यह आपने मुझ पर अटैक किया।’ ऐसा कहकर पत्नी डबल अटैक करती है। अब उसका पार कैसे आए? वाइफ यदि महँगे भाव की सब्ज़ी ले आई हो तो आप कहना, ‘बहुत अच्छा किया, मेरे धन्यभाग!’, बाकी मेरे जैसे लोभी से इतना महँगा नहीं लाया जाता।’

हम एक व्यक्ति के यहाँ ठहरे थे। तब उनकी पत्नी दूर से पटककर चाय रख गई। मैं समझ गया कि इन दोनों के बीच कोई खटपट हुई है। मैंने उन बहनजी को बुलाकर पूछा, ‘पटका क्यों?’ तो वे कहती है कि ना, ऐसा कुछ नहीं है। मैंने उसे कहा, ‘तेरे पेट में क्या बात है यह मैं समझ गया हूँ। मेरे पास छुपाती है? तूने पटककर रखा तो तेरा पति भी मन में समझ गया कि क्या हकीकत है। सिर्फ यह कपट छोड़ दे चुपचाप, यदि सुखी होना हो तो।’

पुरुष तो भोले होते हैं और ये स्त्रियाँ तो चालीस वर्ष पहले भी यदि पाँच-पच्चीस गालियाँ दी हों, तो वे कहकर बताती हैं कि आप उस दिन ऐसा कह रहे थे। इसीलिए सँभालकर स्त्री के साथ

(पृ.९४)

काम निकाल लेने जैसा है। स्त्री तो आपसे काम निकलवा लेगी। लेकिन आपको नहीं आता।

स्त्री डेढ़ सौ रुपये की साड़ी लाने को कहे तो आप पच्चीस अधिक देना। वह छह महीनों तक तो चलेगा! समझना पड़ेगा। लाइफ तो एक कला है! यह तो जीवन जीने की कला नहीं है और पत्नी लाने जाता है! बिना सर्टिफिकेट के पति बनने गया, पति बनने की योग्यता का सर्टिफिकेट होना चाहिए, तभी बाप बनने का अधिकार प्राप्त होता है। यह तो बिना अधिकार के बाप बन गए और वापस दादा भी बनते हैं! इसका कब पार आएगा? कुछ समझना चाहिए।

रिलेटिव में, तो जोड़ना

ये तो ‘रिलेटिव’ सगाईयाँ हैं। यदि ‘रियल’ सगाई हो न, तब तो हमारा ज़िद पर अड़े रहना काम का है कि जब तक तू नहीं सुधरेगी, तब तक मैं अपनी ज़िद पर अड़ा रहूँगा। लेकिन यह तो रिलेटिव! रिलेटिव मतलब एक घंटा यदि पत्नी के साथ जमकर लड़ाई हो जाए तो दोनों को डायवोर्स का विचार आ जाता है, फिर उस विचारबीज का पेड़ बनता है। आपको यदि वाइफ की ज़रूरत हो तो जब वह फाड़ने लगे तो आपको सिलते जाना है। तभी यह रिलेटिव संबंध टिकेगा, नहीं तो टूट जाएगा। बाप के साथ भी रिलेटिव संबंध है। लोग तो रियल सगाई मानकर बाप के साथ ज़िद पर अड़ जाते हैं। वह सुधरे नहीं, तब तक क्या ज़िद पर अड़े रहें? घनचक्कर, ऐसे करते-करते, सुधरते-सुधरते तो बूढ़ा मर जाएगा। उसके बदले तो उसकी सेवा कर, और बेचारा बैर बाँधकर जाए उससे अच्छा तो उसे शांति से मरने दे न! उसके सींग उसे भारी। किसी के बीस-बीस फुट लंबे सींग होते हैं। उसमें आपको क्या भार? जिसके हों उसे भार।

आपको अपना फ़र्ज़ निभाना है इसीलिए ज़िद पर मत अड़ना, तुरंत बात का हल ला देना। इसके बावजूद भी सामने वाला व्यक्ति बहुत लड़े तो कहना कि मैं तो पहले से ही बेवकूफ हूँ, मुझे तो ऐसा

(पृ.९५)

आता ही नहीं है। ऐसा कह दिया तो वह आपको छोड़ देगा। चाहे जिस रास्ते छूट जाओ और मन में ऐसा मत मान बैठना कि सब चढ़ बैठेंगे तो क्या करूँगा? वे क्या चढ़ बैठेंगे? चढ़ बैठने की किसी के पास शक्ति ही नहीं है। ये सब कर्म के उदय से लट्टू नाच रहे हैं। इसलिए जैसे-तैसे करके आज का शुक्रवार बिना क्लेश किए बिता दो, कल की बात कल देख लेंगे। दूसरे दिन कोई पटाखा फूटने का हुआ तो कैसे भी उसे ढँक देना, फिर देख लेंगे। ऐसे दिन बिताने चाहिए।

वह सुधरा हुआ कब तक टिकेगा?

हर एक बात में हम सामने वाले के साथ एडजस्ट हो जाएँ तो कितना आसान हो जाएगा। हमें साथ में क्या ले जाना है? कोई कहेगा कि भाई उसे सीधा करो। अरे, उसे सीधा करने जाएगा तो तू टेढ़ा हो जाएगा। इसलिए वाइफ को सीधा करने मत जाना, जैसी हो उसे करेक्ट कहना। आपका उसके साथ हमेशा का साथ हो तो अलग बात है। यह तो एक जन्म के बाद जाने कहाँ बिखर जाएँगे। दोनों के मरणकाल अलग, दोनों के कर्म अलग। कुछ लेना भी नहीं और देना भी नहीं! यहाँ से तो किसके यहाँ जाएगी, उसकी क्या खबर? आप सीधी करो और अगले जन्म में जाएगी किसी और के भाग्य में!

प्रश्नकर्ता : उसके साथ कर्म बंधे होंगे तो दूसरे जन्म में मिलेंगे तो सही न?

दादाश्री : मिलेंगे, लेकिन दूसरी तरह से मिलेंगे। किसी की औरत बनकर हमारे यहाँ बात करने आएगी। कर्म के नियम हैं न! यह तो ठौर नहीं और ठिकाना भी नहीं। कोई ही पुण्यशाली मनुष्य ऐसे होते हैं कि जो कुछ जन्म साथ में रहें। देखो न, नेमिनाथ भगवान, राजुल के साथ नौ जन्मों तक साथ ही साथ थे न! ऐसा हो तो बात अलग है। यह तो दूसरे जन्म का ही ठिकाना नहीं है। अरे, इस जन्म में ही चले जाते हैं न! उसे डायवोर्स कहते हैं न? इसी जन्म में दो पति करती है, तीन पति करती है!

(पृ.९६)

एडजस्ट हो जाएँ, तब भी सुधरे

इसलिए आपको उन्हें सीधा नहीं करना है। वे आपको सीधा न करें। जैसा मिला वही सोने का। प्रकृति किसी की, कभी भी सीधी नहीं हो सकती। कुत्ते की दुम टेढ़ी की टेढ़ी ही रहती है, इसलिए आप सँभलकर चलना। जैसी हो वैसी भले ही हो, ‘एडजस्ट एवरीव्हेर’।

धमकाने की जगह पर आप नहीं धमकाओ, तो वाइफ अधिक सीधी रहती है। जो गुस्सा नहीं करता उसका ताप बहुत सख्त होता है। ये हम किसी को कभी भी डाँटते नहीं हैं, फिर भी हमारा ताप बहुत लगता है।

प्रश्नकर्ता : तो फिर वह सीधी हो जाएगी?

दादाश्री : सीधा होने का मार्ग पहले से यही है। वह कलियुग में लोगों को पुसाता नहीं हैं, लेकिन उसके बगैर छुटकारा भी नहीं है।

प्रश्नकर्ता : मगर वह मुश्किल बहुत है।

दादाश्री : ना, ना। वह मुश्किल नहीं है, वही आसान है। गाय के सींग गाय को भारी।

प्रश्नकर्ता : हमें भी वह मारती है न?

दादाश्री : किसी दिन हमें लग जाता है। सींग लगने वाला हो तो हम ऐसे खिसक जाते हैं, वैसे यहाँ पर भी खिसक जाना है! यह तो मुश्किल कहाँ आती है? मेरी शादी की हुई और मेरी वाइफ। अरे, नहीं है वाइफ और ये हसबैन्ड ही नहीं है तो फिर वाइफ होती होगी? ये तो अनाड़ी के खेल हैं! आर्यप्रजा कहाँ रही है आजकल?

सुधारने के बदले सुधरने की ज़रूरत

प्रश्नकर्ता : ‘खुद की भूल है’ ऐसा स्वीकारकर पत्नी को सुधार नहीं सकते?

दादाश्री : सुधारने के लिए खुद ही सुधरने की ज़रूरत है।

(पृ.९७)

किसी को सुधारा ही नहीं जा सकता है। जो सुधारने के प्रयत्न वाले हैं, वे सब अहंकारी हैं। खुद सुधरा मतलब सामने वाला सुधर ही जाएगा। मैंने ऐसे भी देखे हैं कि जो बाहर सब सुधारने निकले होते हैं और घर में उनकी वाइफ के सामने आबरू नहीं होती। मदर के सामने आबरू नहीं होती। ये किस तरह के लोग हैं? पहले तू सुधर। मैं सुधारूँ, मैं सुधारूँ वह गलत इगोइज़म है। अरे! तेरा ही ठिकाना नहीं, फिर तू क्या सुधारने वाला है? पहले खुद समझदार होने की ज़रूरत है। ‘भगवान महावीर’ महावीर होने का ही प्रयत्न करते थे और उसका इतना अधिक प्रभाव पड़ा है! पच्चीस सौ साल होने पर भी उनका प्रभाव जाता नहीं है। हम किसी को सुधारते नहीं हैं।

किसे सुधारने का अधिकार?

आपको सुधारने का अधिकार कितना है? जिसमें चैतन्य है, उसे सुधारने का आपको क्या अधिकार है? यह कपड़ा मैला हो गया हो तो उसे हमें साफ करने का अधिकार है। क्योंकि वहाँ सामने से किसी भी तरह का रिएक्शन नहीं है। और जिसमें चैतन्य है, वह तो रिएक्शन वाला है, उसे आप क्या सुधारोगे? जहाँ खुद की ही प्रकृति नहीं सुधरती, वहाँ दूसरे की क्या सुधरेगी? खुद ही लट्टू है। ये सब टोप्स हैं। क्योंकि वे प्रकृति के अधीन हैं। पुरुष हुआ नहीं। पुरुष होने के बाद ही पुरुषार्थ उत्पन्न होता है। यह तो पुरुषार्थ देखा ही नहीं है।

व्यवहार का हल लाना, एडजस्ट होकर

प्रश्नकर्ता : व्यवहार में रहना है तो ‘एडजस्टमेन्ट’ एकपक्षीय तो नहीं होना चाहिए न?

दादाश्री : व्यवहार तो उसे कहते हैं कि ‘एडजस्ट’ हो जाएँ यानी कि पड़ोसी भी कहें कि, ‘सब घर में झगड़े हैं, परंतु इस घर में झगड़ा नहीं है।’ उसका व्यवहार सब से अच्छा माना जाता है। जिसके साथ रास नहीं आए, वहीं पर शक्ति विकसित करनी है, रास आए वहाँ तो शक्ति है ही। नहीं रास आए वह तो कमज़ोरी है। मुझे

(पृ.९८)

सब के साथ कैसे रास आ जाता है? जितने एडजस्टमेन्ट्स लेंगे उतनी शक्तियाँ बढ़ेंगी और अशक्तियाँ टूटती जाएँगी। सच्ची समझ तो, दूसरी सभी समझ को ताले लगेंगे तभी आएगी।

‘ज्ञानी’ तो, यदि सामने वाला टेढ़ा हो तब भी उसके साथ ‘एडजस्ट’ हो जाते हैं। ‘ज्ञानी पुरुष’ को देखकर चलो तो सभी तरह के ‘एडजस्टमेन्ट्स’ करने आ जाएँगे। उसके पीछे साइन्स क्या कहता है कि वीतराग हो जाओ, राग-द्वेष मत करो। यह तो अंदर कुछ आसक्ति रह जाती है, इसलिए मार पड़ती है। इस व्यवहार में एकपक्षीय, नि:स्पृह हो गए हों वे तो टेढ़े कहलाते हैं। हमें ज़रूरत हो, तो सामने वाला टेढ़ा हो फिर भी उसे मना लेना पड़ता है। स्टेशन पर मज़दूर चाहिए तो वह आनाकानी कर रहा हो, तब भी उसे चार आने कम-ज़्यादा करके भी मना लेना पड़ता है, और नहीं मनाओगे तो वह बैग आपके सिर पर ही डालेगा न?

‘डोन्ट सी लॉज़, प्लीज़ सेटल’ (कानून मत देखना, कृपया समाधान करो), सामने वाले को ‘सेटलमेन्ट’ लेने के लिए कहना, ‘आप ऐसा करो, वैसा करो’, ऐसा कहने के लिए टाइम ही कहाँ होता है? सामने वाले की सौ भूलें हों, तब भी हमें तो खुद की ही भूल कहकर आगे निकल जाना है। इस काल में लॉ (कानून) तो देखा जाता होगा? यह तो अंतिम स्तर पर आ गया है। जहाँ देखो वहाँ दौड़ादौड़ और भागम्भाग। लोग उलझ गए हैं। घर जाए तो वाइफ चिल्लाती है, बच्चे चिल्लाते हैं, नौकरी पर जाए तो सेठ चिल्लाता है, गाड़ी में जाए तो भीड़ में धक्के खाता है, कहीं भी चैन नहीं है। चैन तो चाहिए न? कोई लड़ने लगे तो हमें उसके ऊपर दया रखनी चाहिए कि अहोहो! इसे कितनी अधिक बेचैनी होगी कि वह लड़ पड़ता है! बेचैन हो जाते हैं, वे सब कमज़ोर हैं।

प्रश्नकर्ता : बहुत बार ऐसा होता है कि एक समय में दो लोगों के साथ एक ही बात पर ‘एडजस्टमेन्ट’ लेना होता है, तो एक ही समय में सभी ओर किस तरह ले सकते हैं?

दादाश्री : दोनों के साथ लिया जा सकता है। अरे, सात लोगों

(पृ.९९)

के साथ भी लेना हो, तब भी लिया जा सकता है। एक पूछे, ‘मेरा क्या किया?’ तब कहें, ‘हाँ भाई, तेरे कहे अनुसार करूँगा। दूसरे को भी ऐसा कहेंगे, ‘आप कहोगे वैसा करूँगा।’ ‘व्यवस्थित’ के बाहर होने वाला नहीं है, इसलिए किसी भी तरह से झगड़ा खड़ा मत करना।’

यह तो सही-गलत कहने से भूत परेशान करते हैं। हमें तो दोनों को एक जैसा कर देना है। इसे अच्छा कहा इसलिए दूसरा गलत हो गया, इसलिए फिर वह परेशान करता है। पर दोनों का मिक्स्चर कर डालें इससे फिर असर नहीं रहेगा। ‘एडजस्ट ऐवरीव्हेर’ की हमने खोज की है। सही कह रहा हो उसके साथ भी और गलत कह रहा हो उसके साथ भी एडजस्ट हो जाओ। हमें कोई कहे, ‘आपमें अक्ल नहीं है’, तो हम उसके साथ तुरंत एडजस्ट हो जाएँगे और उसे कहेंगे कि ‘यह तो पहले से ही नहीं थी! तू अभी कहाँ खोजने आया है? तुझे तो आज उसका पता चला, लेकिन मैं तो बचपन से ही जानता हूँ।’ ऐसा कहें तो झंझट मिट गई न? फिर वह हमारे पास अक्ल ढूँढने आएगा ही नहीं। ऐसा नहीं करेंगे तो ‘अपने घर’ कब पहुँच पाएँगे?

हम यह सरल और सीधा रास्ता बता देते हैं और ये टकराव क्या रोज़-रोज़ होते हैं? वे तो जब अपने कर्म का उदय हो तब होते हैं, उतना ही हमें एडजस्ट करना है। घर में पत्नी के साथ झगड़ा हुआ हो तो झगड़ा होने के बाद पत्नी को होटल में ले जाकर, खाना खिलाकर खुश कर देना, अब ताँता नहीं रहना चाहिए।

एडजस्टमेन्ट को हम न्याय कहते हैं। आग्रह-दुराग्रह, वह कोई न्याय नहीं कहलाता। किसी भी प्रकार का आग्रह न्याय नहीं है। हम किसी का आग्रह नहीं पकड़ते। जिस पानी से मूँग गलें उससे गला लें, अंत में गटर के पानी से भी गला लें!!

डाकू मिल जाए और उनके साथ डिसएडजस्ट होंगे तो वे मारेंगे। उसके बदले हम निश्चित करें कि उसके साथ एडजस्ट होकर काम लेना है। फिर उसे पूछें कि भाई तेरी क्या इच्छा है? देख भाई हम तो यात्रा करने निकले हैं। ऐसे उसके साथ एडजस्ट हो जाना चाहिए।

(पृ.१००)

यह बाँद्रा की खाड़ी बदबू मारे तो उसे क्या लड़ने जाते हैं? वैसे ही ये मनुष्य बदबू मारते हैं, उन्हें कुछ कहने जाना चाहिए? बदबू मारने वाले सभी खाड़ियाँ कहलाते हैं और सुगंधी आए वे बाग़ कहलाते हैं। जो-जो बदबू मारते हैं, वे सब कहते हैं कि आप हमारे प्रति वीतराग रहो।

एडजस्ट एवरीव्हेर नहीं होंगे तो पागल हो जाओगे सब। सामने वाले को छेड़ते रहोगे, उससे ही वे पागल होते हैं। इस कुत्ते को एक बार छेड़ें, दूसरी बार, तीसरी बार छेड़ें तब तक वह हमारी आबरू रखता है, लेकिन फिर बहुत छेड़छाड़ करें तो वह भी काट लेता है। वह भी समझ जाता है कि यह रोज़ छेड़ता है, यह नालायक है, बेशर्म है। यह बात समझने जैसी है। कुछ भी झंझट करना नहीं है, एडजस्ट एवरीव्हेर।

नहीं तो व्यवहार की गुत्थियाँ रोकती हैं

पहले यह व्यवहार सीखना है। व्यवहार की समझ के बिना तो लोग तरह-तरह की मार खाते हैं।

प्रश्नकर्ता : अध्यात्म में तो आपकी बात के बारे में कुछ कहना ही नहीं है। परंतु व्यवहार में भी आपकी बात टॉप की बात है।

दादाश्री : ऐसा है न, कि व्यवहार में टोप का समझे बिना कोई मोक्ष में गया नहीं है, चाहे जितना बारह लाख का आत्मज्ञान हो, लेकिन व्यवहार समझे बिना कोई मोक्ष में गया नहीं। क्योंकि व्यवहार छोड़ने वाला है न? वह न छोड़े तो आप क्या करोगे? आप शुद्धात्मा हो ही, परंतु व्यवहार छोड़े तब न? आप व्यवहार को उलझाते रहते हो। झटपट निबेड़ा लाओ न!

इन भैया से कहा हो कि ‘जा, दुकान से आइस्क्रीम ले आ।’ लेकिन वह आधे रास्ते से ही वापस आ जाए। आप पूछो, ‘क्यों?’ तो वह कहे, ‘रास्ते में गधा मिल गया इसलिए, अपशुकन हो गया।’ अब इसे ऐसा उल्टा ज्ञान जो हुआ है उसे आपको निकाल देना चाहिए न? उसे समझाना चाहिए कि ‘भाई, गधे में भगवान रहे हुए हैं, इसलिए

(पृ.१०१)

कोई अपशुकन नहीं होता। तू गधे का तिरस्कार करेगा तो उसमें रहे हुए भगवान को पहुँचता है, उससे तुझे भयंकर दोष लगता है। वापस ऐसा नहीं होना चाहिए।’ इस तरह से यह उल्टा ज्ञान हुआ है। उसके आधार पर एडजस्ट नहीं हो सकते।

काउन्टर पुली - एडजस्टमेन्ट की रीति

हमें पहले अपना मत नहीं रखना चाहिए। सामने वाले से पूछना चाहिए कि इस बारे में आपका क्या कहना है? सामने वाला अपना पकड़कर रखे तो हम अपना छोड़ देते हैं। हमें तो इतना ही देखना है कि किस रास्ते सामने वाले को दु:ख न हो। अपना अभिप्राय सामने वाले पर थोपना नहीं है। सामने वाले का अभिप्राय हमें लेना है। हम तो सब के अभिप्राय लेकर ‘ज्ञानी’ हुए हैं। मैं मेरा अभिप्राय किसी पर थोपने जाऊँ तो मैं ही कच्चा पड़ जाऊँगा। अपने अभिप्राय से किसी को दु:ख नहीं होना चाहिए। तेरे रिवॉल्यूशन अठारह सौ हों और सामने वाले के छह सौ हों, और तू तेरा अभिप्राय उस पर थोपने जाए तो सामने वाले का इंजन टूट जाएगा। उसके सभी गियर बदलने पड़ेंगे।

प्रश्नकर्ता : रिवॉल्यूशन मतलब क्या?

दादाश्री : यह विचारों की जो स्पीड है, वह हर एक की अलग होती है। कुछ हुआ हो तब वह एक मिनट में तो कितना ही दिखा देता है, उसके सभी पर्याय एट-ए-टाइम दिखा देता है। इन बड़े-बड़े प्रेसिडेन्टों को मिनट के बारह सौ-बारह सौ रिवॉल्यूशन्स घूमते हैं। तब हमारे पाँच हज़ार होते हैं। भगवान महावीर के लाख रिवॉल्यूशन्स घूमते थे।

यह मतभेद पड़ने का कारण क्या है? आपकी वाइफ के सौ रिवॉल्यूशन्स हों और आपके पाँच सौ रिवॉल्यूशन्स हों और आपको बीच में काउन्टर पुली डालना नहीं आता इसलिए चिनगारियाँ उड़ती हैं, झगड़े होते हैं। अरे! कईं बार तो इंजन भी टूट जाता है। रिवॉल्यूशन समझे आप? अगर मज़दूर से आप बात करो तो आपकी बात उसे पहुँचेगी नहीं। उसके

(पृ.१०२)

रिवॉल्यूशन पचास होते हैं और आपके पाँच सौ होते हैं, किसी के हज़ार होते हैं, किसी के बारह सौ होते हैं। जैसा जिसका डेवेलपमेन्ट हो उस अनुसार रिवॉल्यूशन्स होते हैं। बीच में काउन्टर पुली डालो तभी उसे आपकी बात पहुँचेगी। काउन्टर पुली मतलब आपको बीच में पट्टा डालकर अपने रिवॉल्यूशन्स कम कर देने पड़ेंगे। मैं हर एक व्यक्ति के साथ काउन्टर पुली डाल देता हूँ। सिर्फ अहंकार निकाल देने से काम हो जाएगा ऐसा नहीं है, काउन्टर पुली भी हर एक के साथ डालनी पड़ती है। इसीलिए तो हमारा किसी के साथ मतभेद ही नहीं होता न! हम समझते हैं कि इस व्यक्ति के इतने ही रिवॉल्यूशन्स हैं। इसलिए उस अनुसार मैं काउन्टर पुली लगा देता हूँ। हमें तो छोटे बच्चों के साथ भी बहुत रास आता है। क्योंकि हम उनके साथ चालीस रिवॉल्यूशन्स कर देते हैं इसलिए उसे मेरी बात पहुँचती है, नहीं तो वह मशीन टूट जाए।

प्रश्नकर्ता : कोई भी, सामने वाले के लेवल पर आए तभी बात होती है?

दादाश्री : हाँ, उसके रिवॉल्यूशन पर आए तभी बात होती है। यह आपके साथ बातचीत करते हुए हमारे रिवॉल्यूशन कहीं के कहीं जाकर आते हैं! पूरे वर्ल्ड में घूम आते हैं। आपको काउन्टर पुली डालना नहीं आता, तो उसमें कम रिवॉल्यूशन वाले इंजन का क्या दोष? वह तो आपका दोष कि आपको ‘काउन्टर पुली’ डालना नहीं आया।

उल्टा कहने से कलह हुई...

प्रश्नकर्ता : पति का भय, भविष्य का भय, एडजस्टमेन्ट लेने नहीं देता है। वहाँ पर ‘हम उसे सुधारने वाले कौन?’ वह याद नहीं रहता, और सामने वाले को चेतावनी के रूप में बोल देते हैं।

दादाश्री : वह तो ‘व्यवस्थित’ का उपयोग करे, ‘व्यवस्थित’ फिट हो जाए तो कोई परेशानी हो ऐसा नहीं है। फिर कुछ पूछने जैसा ही नहीं रहेगा। पति आए तब थाली और पाटा रखकर कहना कि चलिए भोजन के लिए। उनकी प्रकृति बदलने वाली नहीं है। जो

(पृ.१०३)

प्रकृति आप देखकर, पसंद करके, शादी करके लाईं, वह प्रकृति अंत तक देखनी है। तब क्या पहले दिन नहीं जानती थीं कि यह प्रकृति ऐसी ही है? उसी दिन अलग हो जाना था न? मुँह क्यों लगाया अधिक?

इस किच-किच से संसार में कोई फायदा नहीं होता, नुकसान ही होता है। किच-किच यानी कलह, इसलिए भगवान ने उसे कषाय कहा है।

जैसे-जैसे आप दोनों के बीच में प्रोब्लम बढ़ते हैं, वैसे-वैसे अलग होता जाता है। प्रोब्लम सोल्व हो जाएँ फिर अलग नहीं रहता। जुदाई से दु:ख है। और सभी को प्रोब्लम खड़े होते हैं। आपको अकेले को होते हैं ऐसा नहीं है। जितनों ने शादी की है उन्हें प्रोब्लम खड़े हुए बगैर रहते नहीं।

कर्म के उदय से झगड़े चलते रहते हैं, मगर जीभ से उल्टा बोलना बंद करो। बात पेट में ही रखो, घर में या बाहर बोलना बंद कर दो।

अहो! व्यवहार का मतलब ही...

प्रश्नकर्ता : प्रकृति न सुधरे, परंतु व्यवहार तो सुधरना चाहिए न?

दादाश्री : व्यवहार तो लोगों को आता ही नहीं। व्यवहार कभी आया होता न, अरे, आधे घंटे के लिए भी आया होता तो भी बहुत हो गया! व्यवहार तो समझे ही नहीं हैं। व्यवहार मतलब क्या? उपलक (सतही, ऊपर ऊपर से)! व्यवहार का मतलब सत्य नहीं है। यह तो व्यवहार को सत्य ही मान लिया है। व्यवहार में सत्य मतलब रिलेटिव सत्य। यहाँ के नोट सच्चे हों या झूठे हों दोनों ‘वहाँ’ के स्टेशन पर काम नहीं आते। इसलिए छोड़ न इसे, और ‘अपना’ काम निकाल ले। व्यवहार मतलब दिया हुआ वापस करना, वह। अभी कोई कहे कि, ‘चंदूलाल में अक्ल नहीं है।’ तो आप समझ जाना कि यह दिया हुआ ही वापस आया! यदि यह समझोगे तो वह व्यवहार कहलाएगा। आजकल व्यवहार किसी में है ही नहीं। जिसके लिए व्यवहार, व्यवहार है; उसका निश्चय, निश्चय है।

(पृ.१०४)

...और सम्यक् कहने से कलह शांत हो जाता है

प्रश्नकर्ता : किसी ने जान-बूझकर यह वस्तु फेंक दी, तो वहाँ पर क्या एडजस्टमेन्ट लेना चाहिए?

दादाश्री : यह तो फेंक दिया, लेकिन बच्चा फेंक दे तब भी आपको ‘देखते’ रहना है। बाप बच्चे को फेंक दे तो आपको देखते रहना है। तब क्या आपको पति को फेंक देना चाहिए? एक को तो अस्पताल जाना पड़ा, अब वापस दो अस्पताल खड़े करने हैं? और फिर जब उसे अवसर मिलेगा तब वह हमें पछाड़ देगा, फिर तीन अस्पताल खड़े हो जाएँगे।

प्रश्नकर्ता : तो फिर कुछ कहना ही नहीं चाहिए?

दादाश्री : कहो, लेकिन सम्यक् कहना, यदि बोलना आए तो। नहीं तो कुत्ते की तरह भौंकते रहने का अर्थ क्या? इसलिए सम्यक् कहना चाहिए।

प्रश्नकर्ता : सम्यक् मतलब किस तरह का?

दादाश्री : ‘ओहोहो! आपने इस बच्चो को क्यों फेंका? क्या कारण है उसका?’ तब वह कहे कि, ‘जान-बूझकर मैं कोई थोड़े फेंकूँगा? वह तो मेरे हाथ में से छटक गया और गिर पड़ा।’

प्रश्नकर्ता : वह तो, उसने गलत बोला न?

दादाश्री : वे झूठ बोलें, वह आपको नहीं देखना है। झूठ बोलें या सच बोलें वह उनके अधीन है, वह आपके अधीन नहीं है। वह उनकी मरज़ी में आए वैसा करें। उसे झूठ बोलना हो या आपको खत्म करना हो, वह उसके ताबे में है। रात को आपकी मटकी में ज़हर डाल दे तो आप तो खत्म ही हो जाओगी न! इसलिए जो हमारे ताबे में नहीं है वह हमें नहीं देखना है। सम्यक् कहना आए तो काम का है कि भाई इससे आपको क्या फायदा हुआ? तो वह अपने आप कबूल करेगा। सम्यक् कहना आता नहीं और आप पाँच सेर का दोगे तो वह दस सेर का देगा!

(पृ.१०५)

प्रश्नकर्ता : कहना नहीं आए तो फिर क्या करना चाहिए? चुप बैठना चाहिए?

दादाश्री : मौन रहो और देखती रहो कि क्या हो रहा है? सिनेमा में बच्चों को पटकते हैं, तब क्या करती हो आप? कहने का अधिकार है सब का, लेकिन कलह नहीं बढ़े उस तरह से कहने का अधिकार है। बाकी, जो कहने से कलह बढ़े वह तो मूर्ख का काम है।

टकोर, अहंकारपूर्वक नहीं करते

प्रश्नकर्ता : व्यवहार में कोई गलत कर रहा हो उसे टकोर तो करनी पड़ती है। उससे उसे दु:ख होता है, तो किस तरह उसका निकाल करें?

दादाश्री : व्यवहार में टकोर करनी पड़ती है, परंतु उसमें अहंकार सहित होती है, इसलिए उसका प्रतिक्रमण करना चाहिए।

प्रश्नकर्ता : टकोर नहीं करें तो वह सिर पर चढ़ता है?

दादाश्री : टोकना तो पड़ता है, लेकिन कहना आना चाहिए। कहना नहीं आए, व्यवहार नहीं आए, तब अहंकार सहित टकोर होती है। इसलिए बाद में उसका प्रतिक्रमण करना चाहिए। आप सामने वाले को टोको तब सामने वाले को बुरा तो लगेगा, परंतु उसका प्रतिक्रमण करते रहोगे तब फिर छह महीने, बारह महीने में वाणी ऐसी निकलेगी कि सामने वाले को मीठी लगेगी। अभी तो टेस्टेड वाणी चाहिए, अन्टेस्टेड वाणी बोलने का अधिकार नहीं है। इस तरह से प्रतिक्रमण करोगे तो चाहे कैसा भी होगा, फिर भी सीधा हो जाएगा।

यह अबोला तो बोझा बढ़ाए

प्रश्नकर्ता : अबोला रखकर, बात को टालने से उसका निकाल हो सकता है?

दादाश्री : नहीं हो सकता। आपको तो सामने वाला मिले तो ‘कैसे हो? कैसे नहीं?’, ऐसा कहना चाहिए। सामने वाला ज़रा शोर मचाए तो

(पृ.१०६)

आपको ज़रा धीरे रहकर समभाव से निकाल करना चाहिए। उसका निकाल तो करना ही पड़ेगा न, कभी न कभी? बोलना बंद करोगे उससे क्या निकाल हो गया? उससे निकाल नहीं होता है, इसीलिए तो अबोला खड़ा होता है। अबोला मतलब बोझा, जिसका निकाल नहीं हुआ उसका बोझा। हमें तो तुरंत उसे खड़ा रखकर कहना चाहिए, ‘ठहरिए न, मेरी कोई भूल हो तो मुझे कहो। मेरी बहुत भूलें होती हैं। आप तो बहुत होशियार, पढ़े-लिखे, इसलिए आपकी नहीं होतीं, लेकिन मैं पढ़ा-लिखा कम हूँ इसलिए मेरी बहुत भूलें होती हैं।’ ऐसा कहने पर वह खुश हो जाएगा।

प्रश्नकर्ता : ऐसा करने से भी वह नरम नहीं पड़े तो क्या करें?

दादाश्री : नरम नहीं पड़ें तो आपको क्या करना है? आपको तो कहकर छूट जाना है, फिर क्या उपाय? कभी न कभी किसी दिन नरम पड़ेगा। डाँटकर नरम करो तो वह उससे कुछ नरम होगा नहीं। आज नरम दिखेगा, लेकिन वह मन में नोंध रख छोड़ेगा और जब आप नरम होंगे उस दिन वह सब वापस निकालेगा। यानी जगत् बैर वाला है। नियम ऐसा है कि बैर रखे, अंदर परमाणु संग्रह करके रखे, इसलिए आपको पूरा केस ही हल कर देना है।

प्रकृति के अनुसार एडजस्टमेन्ट...

प्रश्नकर्ता : हम सामने वाले को अबोला तोड़ने के लिए कहें कि ‘मेरी भूल हो गई, अब माफ़ी माँगता हूँ।’ फिर भी उसका दिमाग़ अधिक चढ़े तो क्या करें?

दादाश्री : तब आप कहना बंद कर देना। उसे ऐसा कोई उल्टा ज्ञान हो चुका है कि ‘बहुत नमे नादान’। वहाँ फिर दूर रहना चाहिए। फिर जो हिसाब हो, वही ठीक। परंतु जितने सरल हों न, वहाँ तो हल ला देना चाहिए। घर में कौन-कौन सरल हैं और कौन-कौन टेढ़े हैं। क्या आप इतना नहीं समझते?

प्रश्नकर्ता : सामने वाला सरल नहीं हो तो उसके साथ हमें व्यवहार तोड़ डालना चाहिए?

(पृ.१०७)

दादाश्री : नहीं तोड़ना चाहिए। व्यवहार तोड़ने से टूटता नहीं है। व्यवहार तोड़ने से टूटे ऐसा है भी नहीं। इसलिए वहाँ आपको मौन रहना चाहिए कि किसी दिन चिढ़े तब फिर अपना हिसाब पूरा हो जाएगा। आप मौन रखें तब किसी दिन वह चिढ़े और खुद ही बोले कि आप बोलते नहीं, कितने दिनों से चुपचाप फिरते हो! ऐसे चिढ़े यानी हमारा काम हो जाएगा। अब क्या करें फिर? यह तो तरह-तरह का लोहा होता है, हमें सब पहचान में आते हैं। कुछ को बहुत गरम करें तो मुड़ जाते हैं। कुछ को भट्ठी में रखना पड़ता है फिर जल्दी से दो हथौड़े मारे कि सीधा हो जाता है। ये तो तरह-तरह के लोहे हैं! इसमें आत्मा, वह आत्मा है, परमात्मा है और लोहा, वह लोहा है। ये सभी धातु हैं।

सरलता से भी सुलझ जाए

प्रश्नकर्ता : हमें घर में किसी वस्तु का ध्यान नहीं रहता हो, घर वाले हमें ध्यान रखो, ध्यान रखो कहते हों, फिर भी न रहे तो उस समय क्या करें?

दादाश्री : कुछ भी नहीं, घर वाले कहें, ‘ध्यान रखो, ध्यान रखो।’ तब आप कहना कि ‘हाँ, रखूँगा।’ आपको ध्यान रखने का निश्चय करना है। फिर भी ध्यान नहीं रहा और कुत्ता घुस गया, तब कहो कि ‘मुझे ध्यान नहीं रहता।’ उसका हल तो लाना पड़ेगा न? हमें खुद को भी किसी ने ध्यान रखने का सौंपा हो और हम ध्यान रखें, फिर भी नहीं रहा तो कह देते हैं कि ‘भाई यह नहीं रह सका हम से।’

ऐसा है न, ‘हम बड़ी उम्र के हैं’, ऐसा ध्यान नहीं रहे तब काम होगा। बालक जैसी अवस्था हो तो समभाव से निकाल अच्छा होता है। हम तो बालक जैसे हैं, इसलिए जैसा होता है हम वैसा कह देते हैं, ऐसे भी कह देते हैं और वैसे भी कह देते हैं, बहुत बड़प्पन क्या करना?

जिसे कसौटी हो, वे पुण्यवान कहलाते हैं! इसलिए हल लाना, झक नहीं पकड़नी है। आपको अपने आप अपना दोष कह देना चाहिए। नहीं

(पृ.१०८)

तो वे कहते हो तब आपको खुश होना चाहिए कि ‘ओहोहो! आप मेरा दोष जान गए! बहुत अच्छा किया! आपकी बुद्धि हम नहीं जानते थे।’

...सामने वाले का समाधान कराओ न?

कोई भूल होगी, तो सामने वाला कहता होगा न? इसलिए भूल खत्म कर डालो न! इस जगत् में कोई जीव किसी को तकलीफ़ नहीं दे सकता, ऐसा स्वतंत्र है, और तकलीफ़ देता है वह पूर्व की दख़ल की हुई थी इसलिए। उस भूल को मिटा दो फिर हिसाब रहेगा नहीं।

कोई ‘लाल झंडी’ दिखाए तो समझ जाना कि इसमें आपकी ही कोई भूल है। यानी आपको उसे पूछना चाहिए कि भाई ‘लाल झंडी’ क्यों दिखा रहे हो? तब वह कहेगा कि, ‘आपने ऐसा क्यों किया था?’ तब आप उससे माफ़ी माँग लेना और कहना कि ‘अब तू हरी झंडी दिखाएगा न?’ तब वह हाँ कहेगा।

हमें कोई लाल झंडी दिखाता ही नहीं। हम तो सभी की हरी झंडी देखते हैं, उसके बाद आगे चलते हैं। कोई एक व्यक्ति भी निकलते समय यदि लाल झंडी दिखाए तो उसे पूछते हैं कि, ‘भाई तू क्यों लाल झंडी दिखा रहा है?’ तब वह कहेगा कि आप तो उस तारीख को जाने वाले थे, लेकिन पहले क्यों जा रहे हैं? तब हम उसे समझाते हैं कि, ‘यह काम आ पड़ा इसीलिए मजबूरन जाना पड़ रहा है!’ तब वह सामने से कहेगा कि, ‘तब तो आप जाओ, जाओ, कोई परेशानी नहीं है।’

यह तो तेरी ही भूल के कारण लोग लाल झंडी दिखाते हैं। लेकिन यदि तू उसका खुलासा करे तो जाने देंगे। लेकिन यह तो कोई लाल झंडी दिखाए तब फिर मूर्ख शोर मचा देता है, ‘जंगली, जंगली, बेअक्ल, लाल झंडी दिखाता है?’ ऐसे डाँटता है। अरे, यह तो तूने नया खड़ा किया। कोई लाल झंडी दिखाता है अर्थात् ‘देयर इज़ समथिंग रोंग।’ कोई ऐसे ही लाल झंडी नहीं दिखाता।

झगड़ा, रोज़ तो कैसे पुसाए?

दादाश्री : घर में झगड़े होते हैं?

(पृ.१०९)

प्रश्नकर्ता : हाँ।

दादाश्री : माइल्ड होते हैं या सचमुच में होते हैं?

प्रश्नकर्ता : सचमुच में भी होते हैं, परंतु दूसरे दिन भूल जाते हैं।

दादाश्री : भूल नहीं जाओगे तो करोगे क्या? भूल जाएँ तो ही वापस झगड़ा होता है न? यदि भूलते नहीं तो वापस झगड़ा कौन करता? बड़े-बड़े बंगलों में रहते हैं, पाँच लोग रहते हैं, फिर भी झगड़ा करते हैं। कुदरत खाने-पीने का देती है, तब भी लोग झगड़ा करते हैं! ये लोग झगड़े, क्लेश, कलह करने में सूरमा हैं।

जहाँ लड़ाई-झगड़े हैं, वह अन्डरडेवेलप्ड प्रजा है। सार निकालना आता नहीं, इसलिए लड़ाई-झगड़े होते हैं।

जितने मनुष्य हैं उतने अलग-अलग धर्म हैं। लेकिन खुद के धर्म का मंदिर बनाए किस तरह? बाकी, धर्म तो हर एक के अलग हैं। उपाश्रय में सामायिक करते हैं, वह भी हर एक की अलग-अलग होती हैं। अरे, कितने तो पीछे बैठे-बैठे कंकड़ मारा करते हैं, वे भी उनकी सामायिक ही करते हैं न? इसमें धर्म रहा नहीं, मर्म रहा नहीं। यदि धर्म भी रहा होता तो घर में झगड़े नहीं होते। होते तो भी महीने में एकाध बार होते। अमावस महीने में एक दिन ही आती है न?

प्रश्नकर्ता : हाँ।

दादाश्री : ये तो तीसों दिन अमावस। झगड़े में क्या मिलता होगा?

प्रश्नकर्ता : नुकसान मिलता है।

दादाश्री : घाटे का व्यापार तो कोई करता ही नहीं न? कोई नहीं कहता कि नुकसान का व्यापार करो! कुछ तो नफा कमाते होंगे न?

प्रश्नकर्ता : झगड़े में आनंद आता होगा!

दादाश्री : यह दूषमकाल है इसलिए शांति रहती नहीं है, वह जला हुआ दूसरे को जलाए तब उसे शांति होती है। कोई आनंद में

(पृ.११०)

हो, वह उसे अच्छा नहीं लगता, इसलिए वह पलीता दाग़कर जाए, तब उसे शांति होती है। ऐसा जगत् का स्वभाव है। बाकी, जानवर भी विवेक वाले होते हैं, वे झगड़ते नहीं हैं। कुत्ते भी खुद के मुहल्ले वाले हों उनके साथ अंदर-अंदर नहीं झगड़ते हैं। बाहर के मुहल्ले वाले आएँ तब सब साथ मिलकर उनके साथ लड़ते हैं। जबकि ये मूर्ख अंदर-अंदर लड़ते हैं। ये लोग विवेकशून्य हो गए हैं।

‘झगड़ाप्रूफ’ हो जाने जैसा है

प्रश्नकर्ता : हमें झगड़ा नहीं करना हो, हम कभी भी झगड़ा ही नहीं करते हों फिर भी घर में सब सामने से रोज़ झगड़े करते रहें तो वहाँ क्या करना चाहिए?

दादाश्री : आपको झगड़ाप्रूफ हो जाना चाहिए। झगड़ाप्रूफ होंगे तभी इस संसार में रह पाएँगे। हम आपको झगड़ाप्रूफ बना देंगे। झगड़ा करने वाला भी ऊब जाए, ऐसा हमारा स्वरूप होना चाहिए। वर्ल्ड में कोई भी हमें डिप्रेस न कर सके ऐसा होना चाहिए। हमारे झगड़ाप्रूफ हो जाने के बाद झंझट ही नहीं न? लोगों को झगड़े करने हों, गालियाँ देनी हो तब भी हर्ज नहीं और फिर भी बेशर्म नहीं कहलाएँगे, बल्कि जागृति बहुत बढ़ेगी।

बैरबीज में से झगड़ों का उद्भव

पहले जो झगड़े किए थे, उनके बैर बँधते हैं और वे आज झगड़े के रूप में चुकाए जाते हैं। झगड़ा हो, उसी घड़ी बैर का बीज पड़ जाता है, वह अगले भव में उगेगा।

प्रश्नकर्ता : तो वह बीज किस तरह से दूर हो?

दादाश्री : धीरे-धीरे समभाव से निकाल करते रहो तो दूर होगा। बहुत भारी बीज पड़ा हो तो देर लगेगी, शांति रखनी पड़ेगी। अपना कुछ भी कोई ले नहीं लेता। खाने का दो टाइम मिलता है, कपड़े मिलते हैं, फिर क्या चाहिए?

भले ही कमरे को ताला लगाकर चला जाए, लेकिन आपको

(पृ.१११)

दो टाइम खाने का मिलता है या नहीं मिलता, उतना ही देखना है। आपको बंद करके जाए, फिर भी कुछ नहीं, आप सो जाना। पूर्वभव के बैर ऐसे बँधे हुए होते हैं कि आपको ताले में बंद करके जाता है। बैर और वह भी नासमझी से बँधा हुआ। समझ वाला हो तो हम समझ जाएँ कि यह समझ वाला है, तब भी हल आ जाएगा। अब नासमझी वाला हो वहाँ किस तरह हल आएगा? इसलिए वहाँ बात छोड़ देनी चाहिए।

ज्ञान से, बैरबीज छूटे

अब बैर सब छोड़ देने हैं। इसीलिए कभी ‘हमारे’ पास से स्वरूपज्ञान प्राप्त कर लेना ताकि सभी बैर छूट जाएँ। इसी भव में ही सब बैर छोड़ देने हैं, हम आपको रास्ता दिखाएँगे। संसार में लोग ऊबकर मौत क्यों ढूँढते हैं? ये परेशानियाँ पसंद नहीं हैं, इसलिए। बात तो समझनी पड़ेगी न? कब तक मुश्किल में पड़े रहोगे? यह तो कीड़े-मकोड़ों जैसा जीवन हो गया है। निरी तड़फड़ाहट, तड़फड़ाहट और तड़फड़ाहट। मनुष्य में आने के बाद फिर तड़फड़ाहट क्यों हो? जो ब्रह्मांड का मालिक कहलाए उसकी यह दशा! सारा जगत् तड़फड़ाहट में है और तड़फड़ाहट में न हो तो मूर्छा में होता है। इन दोनों के अलावा बाहर जगत् नहीं है। और तू ज्ञानघन आत्मा हो गया तो दख़ल गया।

जैसा अभिप्राय वैसा असर

प्रश्नकर्ता : ढोल बज रहा हो तो, चिढऩे वाले को चिढ़ क्यों होती है?

दादाश्री : वह तो माना कि ‘पसंद नहीं है’ इसलिए। यह ढोल बज रहा हो तो आप कहना कि ‘अहोहो! ढोल बहुत अच्छा बज रहा है!’ इसलिए फिर अंदर कुछ नहीं होगा। ‘यह खराब है’ ऐसा अभिप्राय दिया तो अंदर सारी मशीनरी बिगड़ जाती है। अपने को तो नाटकीय भाषा में कहना है कि ‘बहुत अच्छा ढोल बजाया।’ जिससे कि अंदर असर नहीं होगा।

(पृ.११२)

यह ‘ज्ञान’ मिला है इसलिए सब ‘पेमेन्ट’ किया जा सकता है। विकट संयोगों में तो ज्ञान बहुत हितकारी है, ज्ञान का ‘टेस्टिंग’ हो जाता है। ज्ञान की रोज़ ‘प्रैक्टिस’ करने जाएँ तो कुछ ‘टेस्टिंग’ नहीं होता। वह तो एकबार विकट संयोग आ जाए तो सब ‘टेस्टेड’ हो जाता है।

यह सद्विचारणा, कितनी अच्छी

हम तो इतना जानते हैं कि झगड़ने के बाद वाइफ के साथ व्यवहार ही नहीं रखना हो तो अलग बात है। परंतु वापस बोलना है तो फिर बीच की सारी ही भाषा गलत है। हमें तो यह लक्ष्य में ही होता है कि दो घंटे बाद वापस बोलना है, इसलिए उसके साथ किच-किच नहीं करें। यह तो, यदि आपको अभिप्राय वापस बदलना नहीं हो तो अलग बात है। यदि अपना अभिप्राय नहीं बदलें तो अपना किया हुआ खरा है। वापस यदि वाइफ के साथ बैठने वाले ही न हों तो झगड़ना ठीक है। लेकिन यह तो कल वापस साथ में बैठकर भोजन करने वाले हो, तो फिर कल नाटक किया उसका क्या? वह विचार करना पड़ेगा न? ये लोग तिल सेक-सेककर बोते हैं, इसलिए सारी मेहनत बेकार जाती है। जब झगड़े हो रहे हों, तब लक्ष्य में रहना चाहिए कि ये कर्म नाच नचा रहे हैं। फिर उस ‘नाच’ का ज्ञानपूर्वक हल लाना चाहिए।

प्रश्नकर्ता : दादा, यह तो झगड़ा करने वाले दोनों व्यक्तियों को समझना चाहिए न?

दादाश्री : ना, यह तो ‘सब अपना-अपना सँभालो।’ आप सुधरेंगे तो सामने वाला सुधरेगा। यह तो विचारणा है, और एक घड़ी बाद साथ में बैठना है तो कलह क्यों? शादी की है तो कलह क्यों? आप बीते कल को भुला चुके हो और हमें तो सभी वस्तु ‘ज्ञान’ में हाज़िर होती हैं। जबकि यह तो सद्विचारणा है और ‘ज्ञान’ न हो उसे भी काम आती है। यह अज्ञान से मानता है कि वह चढ़ बैठेगी। कोई हमें पूछे तो हम कहेंगे कि ‘तू भी लट्टू और वह भी लट्टू तो किस तरह चढ़ बैठेगी? वह कोई उसके बस में है?’ वह तो ‘व्यवस्थित’ के बस में है और वाइफ चढ़कर कहाँ ऊपर बैठने वाली है? आप

(पृ.११३)

ज़रा झुक जाओ तो उस बेचारी के मन का अरमान भी पूरा हो जाएगा कि अब पति मेरे काबू में है। यानी संतोष होगा उसे।

शंका, वह भी लड़ाई-झगड़े का कारण

घर में अधिकतर लड़ाई-झगड़े अभी शंका से खड़े हो जाते हैं। यह कैसा है कि शंका से स्पंदन उठते हैं और उन स्पंदनों के विस्फोट होते हैं। और यदि नि:शंक हो जाए न तो विस्फोट अपने आप शांत हो जाएँगे। पति-पत्नी दोनों शंका वाले हो जाएँ तो फिर विस्फोट किस तरह शांत होंगे? एक को तो नि:शंक होना ही पड़ेगा। माँ-बाप के लड़ाई-झगड़ों से बच्चों के संस्कार बिगड़ते हैं। बच्चों के संस्कार नहीं बिगड़ें, इसलिए दोनों को समझकर समाधान लाना चाहिए। यह शंका निकालेगा कौन? अपना ‘ज्ञान’ तो संपूर्ण नि:शंक बनाए ऐसा है। आत्मा की अनंत शक्तियाँ हैं।

ऐसी वाणी को निबाह लें

यह तिपाई लगे तो आप उसे गुनहगार नहीं मानते, लेकिन दूसरा कोई मारे तो उसे गुनहगार मानते हैं। कुत्ता काटे नहीं और खाली भौंकता रहे तो हम उसे चला लेते हैं न! यदि मनुष्य हाथ नहीं उठाए और केवल भौंके तो निभा नहीं लेना चाहिए? भौंकना यानी ‘टु स्पीक’। ‘बार्क’ यानी भौंकना। ‘यह पत्नी बहुत भौंकती रहती है’ ऐसा बोलते हैं न? ये वकील भी कोर्ट में नहीं भौंकते? वह जज दोनों को भौंकते हुए देखता रहता है। ये वकील निर्लेपता से भौंकते हैं न? कोर्ट में तो आमने-सामने ‘आप ऐसे हो, आप वैसे हो, आप हमारे मुवक्किल पर ऐसे झूठे आरोप लगा रहे हो’ ऐसे भौंकते हैं। हमें ऐसा लगता है कि ये दोनों बाहर निकलकर मारामारी करेंगे, परंतु बाहर निकलने के बाद देखें तो दोनों साथ में बैठकर आराम से चाय पी रहे होते हैं!

प्रश्नकर्ता : वह ड्रामेटिक लड़ना कहलाएगा न?

दादाश्री : ना। वह तोतामस्ती कहलाती है। ड्रामेटिक तो ‘ज्ञानी पुरुष’ के अलावा किसी को आता नहीं है। तोते मस्ती करते हैं तो

(पृ.११४)

हम घबरा जाते हैं कि ये अभी मर जाएँगे, लेकिन नहीं मरते। वे तो यों ही चोंच मारा करते हैं। किसी को लगे नहीं ऐसे चोंच मारते हैं।

हम वाणी को रिकार्ड कहते हैं न? रिकार्ड बजा करती हो कि, ‘चंदू में अक्ल नहीं, चंदू में अक्ल नहीं।’ तब आप भी गाने लगना कि चंदू में अक्ल नहीं है।

ममता के पेच खोलें किस तरह?

पूरे दिन काम करते-करते भी पति के प्रतिक्रमण करते रहना चाहिए। एक दिन में छह महीने का बैर धुल जाएगा और आधा दिन हो तो मानो न तीन महीने तो कम हो जाएँगे। शादी से पहले पति के साथ ममता थी? ना। तो ममता कब से बंधी? शादी के समय मंडप में आमने-सामने बैठे, तब आपने निश्चित किया कि ये मेरे पति आए। ज़रा मोटे हैं, और काले हैं। इसके बाद उन्होंने भी निश्चित किया कि ये मेरी पत्नी आई। तब से ‘मेरा-मेरा’ के जो पेच घुमाए, वे चक्कर घूमते ही रहते हैं। पंद्रह वर्षों की यह फिल्म है, उसे ‘नहीं हैं मेरे, नहीं हैं मेरे’ करोगी तब वे पेच खुलेंगे और ममता टूटेगी। यह तो शादी हुई तब से अभिप्राय खड़े हुए, प्रेजुडिस खड़ा हुआ कि ‘ये ऐसे हैं, वैसे हैं।’ उससे पहले कुछ था? अब तो आपको मन में निश्चित करना है कि, ‘जो है, वो यही है।’ और आप खुद पसंद करके लाए हैं। अब क्या पति बदला जा सकता है?

सभी जगह फँसाव! कहाँ जाएँ?

जिसका कोई रास्ता नहीं उसे क्या कहा जाए? जिसका रास्ता नहीं हो उसके पीछे रोना-धोना नहीं करते। यह अनिवार्य जगत् है। घर में पत्नी का क्लेश वाला स्वभाव पसंद नहीं हो, बड़े भाई का स्वभाव पसंद नहीं हो, इस तरफ पिताजी का स्वभाव पसंद नहीं हो, इस तरह के संग में मनुष्य फँस जाए तब भी रहना पड़ता है। कहाँ जाए पर? इस फँसाव से चिढ़ मचती है, लेकिन जाए कहाँ? चारों तरफ बाड़ है। समाज की बाड़ होती है। ‘समाज मुझे क्या कहेगा?’ सरकार की भी

(पृ.११५)

बाड़ें होती हैं। यदि परेशान होकर जलसमाधि लेने जुहू के किनारे जाए तो पुलिस वाले पकड़ेंगे। ‘अरे भाई, मुझे आत्महत्या करने दे न चैन से, मरने दे न चैन से।’ तब वह कहेगा, ‘ना, मरने भी नहीं दिया जा सकता। यहाँ तूने आत्महत्या करने के प्रयास का गुनाह किया इसलिए तुझे जेल में डालते हैं।’ मरने भी नहीं देते और जीने भी नहीं देते, इसका नाम संसार! इसलिए रहो न चैन से... और आराम से सो नहीं जाएँ? ऐसा यह अनिवार्यता वाला जगत्! मरने भी नहीं दे और जीने भी नहीं दे।

इसलिए जैसे-तैसे करके एडजस्ट होकर टाइम बिता देना चाहिए ताकि उधार चुक जाए। किसी का पच्चीस वर्ष का, किसी का पंद्रह वर्ष का, किसी का तीस वर्ष का, ज़बरदस्ती ही सही हमें उधार पूरा करना पड़ता है। नहीं पसंद हो तब भी उसी के उसी कमरे में साथ में रहना पड़ता है। यहाँ बिस्तर मेमसाहब का और यहाँ बिस्तर भाईसाहब का। मुँह टेढ़े फिराकर सो जाएँ तब भी विचार में तो मेमसाहब को भाईसाहब ही आते हैं न? चारा ही नहीं है। यह जगत् ही ऐसा है। उसमें भी सिर्फ आपको ही वे पसंद नहीं हैं ऐसा नहीं है, उन्हें भी आप पसंद नहीं होते! इसलिए इसमें मज़े लेने जैसा नहीं है।

इस संसार के झंझट में विचारशील को पुसाता नहीं है। जो विचारशील नहीं है, उसे तो यह झंझट है उसका भी पता नहीं चलता। वह मोटा बहीखाता कहलाता है। जैसे कि कोई कान से बहरा आदमी हो, उसके सामने उसकी चाहे जितनी गुप्त बातें करें, उसमें क्या परेशानी है? ऐसा अंदर भी बहरा होता है सब इसलिए उसे यह जंजाल पुसाता है, बाकी जगत् में मज़े ढूँढने जाता है तो इसमें तो भाई कोई मज़ा होता होगा?

पोलम्पोल कब तक ढँकनी?

यह तो सारा बनावटी जगत् है! और घर में कलह करके, रोकर और फिर मुँह धोकर बाहर निकलता है!! हम पूछें, ‘कैसे हो चंदूभाई?’ तब वह कहेगा, ‘बहुत अच्छा हूँ।’ अरे, तेरी आँख में तो पानी है, मुँह धोकर आया होता है। लेकिन आँख तो लाल दिखती है न? इसके बजाय

(पृ.११६)

तो कह डाल न कि मेरे यहाँ यह दु:ख है। ये तो सभी ऐसा समझते हैं कि दूसरे के वहाँ दु:ख नहीं है। मेरे यहाँ ही दु:ख है। ना, अरे सभी रोए हैं। हर कोई घर से रोकर मुँह धोकर बाहर निकले हैं। यह भी एक आश्चर्य है! मुँह धोकर क्यों निकलते हो? धोए बगैर निकलो तो लोगों को पता चले कि इस संसार में कितना सुख है! मैं रोता हुआ बाहर निकलूँ, तू रोता हुआ बाहर निकले, सभी रोते हुए बाहर निकलें तब फिर पता चल जाएगा कि यह जगत् पोल ही है। छोटी उम्र में पिताजी मर गए तो शमशान में रोते-रोते गए! वापस आकर नहाए, फिर कुछ भी नहीं!! नहाने का इन लोगों ने सिखलाया। नहला-धुलाकर चोखा कर देते हैं! ऐसा यह जगत् है! सभी मुँह धोकर बाहर निकले हुए हैं, सब पक्के ठग। उसके बदले तो खुला किया होता तो अच्छा रहता।

हमारे ‘महात्माओं’ में से कुछ ही महात्मा खुला कर देते हैं कि ‘दादा, आज तो पत्नी ने मुझे मारा।’ इतनी अधिक सरलता किस कारण से आई? अपने ज्ञान के कारण आई। ‘दादा’ को तो सारी ही बातें कही जा सकती हैं। ऐसी सरलता आई, वहीं से ही मोक्ष जाने की निशानी हुई। ऐसी सरलता होती नहीं है न? मोक्ष में जाने के लिए सरल ही होना है। यह बाहर तो पति छीट्-छीट् किया करता है। पत्नी की मार खुद खा रहा हो, फिर भी बाहर कहता है कि, ‘ना, ना, वह तो मेरी बेटी को मार रही थी!’ अरे, मैंने खुद तुझे मार खाते हुए देखा था न? उसका क्या अर्थ? मीनिंगलेस। इससे तो सच सच कह दे न! आत्मा को कहाँ मारने वाली है? हम आत्मा हैं, मारेगी तो देह को मारेगी। अपने आत्मा का तो कोई अपमान ही नहीं कर सकता। क्योंकि ‘आपको’ वह देखेगी तो अपमान करेगी न? देखे बिना किस तरह अपमान करेगी? देह को तो यह भैंस नहीं मार जाती? वहाँ नहीं कहते कि इस भैंस ने मुझे मारा? उस भैंस से तो घर की पत्नी बड़ी नहीं है? उसमें क्या? किस की आबरू जाने वाली है? आबरू है ही कहाँ? इस जगत् में कितने जीव रहते हैं? कोई कपड़े पहनता है? आबरू वाले कपड़े पहनते ही नहीं। जिसकी आबरू नहीं है, वे कपड़े पहनकर आबरू ढँका करते हैं, जहाँ से फटे, वहाँ सिलते रहते हैं। कोई

(पृ.११७)

देख जाएगा, कोई देख जाएगा! अरे, सिल-सिलकर कितने दिन तक आबरू रखेगा? सिली हुई आबरू रहती नहीं है। आबरू तो जहाँ नीति है, प्रमाणिकता है, दया है, लगाव है, ऑब्लाइजिंग नेचर है, वहाँ है।

...यों फँसाव बढ़ता गया

यह रोटी और सब्ज़ी के लिए शादी की। पति समझे कि मैं कमाकर लाऊँगा, लेकिन यह खाना कौन बनाकर देगा? पत्नी समझती है कि मैं रोटी तो बना दूँ, लेकिन कमाकर कौन देगा? ऐसा करके दोनों ने शादी की, और सहकारी मंडली बनाई। फिर बच्चे भी होंगे ही। एक लौकी का बीज बोया, फिर लौकी लगती रहती है या नहीं लगती रहती? बेल के पत्ते-पत्ते पर लौकी लगती है। वैसे ही ये मनुष्य भी लौकी की तरह उगते रहते हैं। लौकी की बेल ऐसा नहीं बोलती कि ये मेरी लौकियाँ हैं। ये मनुष्य अकेले ही बोलते हैं कि ये मेरी लौकियाँ हैं। यह बुद्धि का दुरुपयोग किया, बुद्धि पर निर्भर रही इसलिए मनुष्य जाति निराश्रित कहलाई। दूसरे कोई जीव बुद्धि पर निर्भर नहीं हैं। इसलिए वे सब आश्रित कहलाते हैं। आश्रित को दु:ख नहीं होता। इन्हें ही सारा दु:ख होता है।

ये विकल्पी सुखों के लिए भटका करते हैं, लेकिन पत्नी सामना करे तब उस सुख का पता चलता है कि यह संसार भोगने जैसा नहीं है। लेकिन यह तो तुरंत ही मूर्छित हो जाता है। मोह का इतना सारा मार खाता है, उसका भान भी नहीं रहता।

बीवी रूठी हुई हो तब तक ‘या अल्लाह परवरदिगार’ करता है और बीवी बोलने आई तब फिर मियाँभाई तैयार! फिर अल्लाह और बाकी सब एक तरफ रह जाता है! कितनी उलझन! ऐसे कोई दु:ख मिट जाने वाले हैं? घड़ीभर तू अल्लाह के पास जाए तो क्या दु:ख मिट जाएगा? जितना समय वहाँ रहेगा उतना समय अंदर सुलगता बंद हो जाएगा ज़रा, लेकिन फिर वापस कायम की सिगड़ी सुलगती ही रहेगी। निरंतर प्रकट अग्नि कहलाती है, घड़ीभर भी सुख नहीं होता! जब तक शुद्धात्मा स्वरूप प्राप्त नहीं होता, खुद की दृष्टि में ‘मैं

(पृ.११८)

शुद्ध स्वरूप हूँ’, ऐसा भान नहीं होता तब तक सिगड़ी सुलगती ही रहेगी। शादी में भी बेटी का ब्याह करवा रहे हों तब भी अंदर सुलग रहा होता है! निरंतर संताप रहा करता है। संसार यानी क्या? जंजाल। यह देह लिपटा हुआ है, वह भी जंजाल है! जंजाल का तो भला शौक होता होगा? उसका शौक होता है, वह भी आश्चर्य है न! मछली पकड़ने का जाल अलग और यह जाल अलग! मछली के जाल में से काट-कूटकर निकला भी जा सकता है, लेकिन इसमें से निकला ही नहीं जा सकता। अंत में अर्थी निकलती है तब निकला जाता है।

...उसे तो ‘लटकती सलाम!’

इसमें सुख नहीं, वह समझना तो पड़ेगा न? भाई अपमान करें, मेमसाहब भी अपमान करें, बच्चे अपमान करें! यह तो सारा नाटकीय व्यवहार है, बाकी इनमें से कोई साथ में थोड़े ही आने वाला है?

आप खुद शुद्धात्मा और ये सारे व्यवहार उपलक हैं यानी कि सुपरफ्लुअस करने हैं। खुद ‘होम डिपार्टमेन्ट’ में रहना है और ‘फॉरिन’ में ‘सुपरफ्लुअस’ रहना है। ‘सुपरफ्लुअस’ यानी तन्मयाकार वृत्ति नहीं, ड्रामेटिक, वह। सिर्फ यह ‘ड्रामा’ ही अदा करना है। ‘ड्रामा’ में नुकसान हुआ तब भी हँसना और नफा हुआ तब भी हँसना। ‘ड्रामा’ में दिखावा भी करना पड़ता है, नुकसान हुआ हो तो उसका दिखावा करना पड़ता है। मुँह पर बोलते भी हैं कि बहुत नुकसान हुआ, लेकिन भीतर तन्मयाकार नहीं होना है। हमें ‘लटकती सलाम’ रखनी है। कई लोग नहीं कहते कि भाई, मुझे तो इसके साथ ‘लटकती सलाम’ जैसा संबंध है। उसी तरह सारे जगत् के साथ रहना है। जिसे ‘लटकती सलाम’ पूरे जगत् के साथ आ गई, वह ज्ञानी हो गया। इस देह के साथ भी ‘लटकती सलाम’! हम निरंतर सभी के साथ ‘लटकती सलाम’ रखते हैं, फिर भी सब कहते हैं कि, ‘आप हम पर बहुत अच्छा भाव रखते हैं।’ मैं व्यवहार सभी करता हूँ लेकिन आत्मा में रहकर।

प्रश्नकर्ता : बहुत बार बड़ा लड़ाई-झगड़ा घर में हो जाता है। तब क्या करें?

(पृ.११९)

दादाश्री : समझदार मनुष्य हो न तो लाख रुपये दें तब भी लड़ाई-झगड़ा नहीं करे, और यह तो बिना पैसे लड़ाई-झगड़ा करता है, तो वह अनाड़ी नहीं तो क्या है? भगवान महावीर को कर्म खपाने के लिए साठ मील चलकर अनार्य क्षेत्र में जाना पड़ा था, और आज के लोग पुण्यवान इसलिए घर बैठे अनार्य क्षेत्र है! कैसे धन्य भाग्य! यह तो अत्यंत लाभदायक है कर्म खपाने के लिए, यदि सीधा रहे तो।

एक घंटे का गुनाह, दंड पूरी ज़िंदगी

एक घंटे नौकर को, बच्चे को या पत्नी को झिड़का हो-धमकाया हो, तो वह फिर पति बनकर या सास बनकर आपको सारी ज़िंदगी कुचलते रहेंगे! न्याय तो चाहिए या नहीं चाहिए? यह भुगतने का है। आप किसी को दु:ख दोगे तो दु:ख आपके लिए पूरी ज़िंदगी का आएगा। एक ही घंटा दु:ख दो तो उसका फल पूरी ज़िंदगी मिलेगा। फिर शोर मचाते हो कि, ‘पत्नी मुझे ऐसा क्यों करती है?’ पत्नी को ऐसा होता है कि, ‘पति के साथ मुझसे ऐसा क्यों होता है?’ उसे भी दु:ख होता है, लेकिन क्या हो? फिर मैंने उनसे पूछा कि ‘पत्नी आपको ढूँढ लाई थी या आप पत्नी को ढूँढ लाए थे?’ तब वह कहता है कि ‘मैं ढूँढ लाया था।’ तब उसका क्या दोष बेचारी का? ले आने के बाद उल्टा निकले, उसमें वह क्या करे? कहाँ जाए फिर? कुछ पत्नियाँ तो पति को मारती भी हैं। पतिव्रता स्त्री को तो ऐसा सुनने से भी पाप लगता है कि पत्नी ऐसे पति को मारती है।

प्रश्नकर्ता : जो पुरुष मार खाए तो वह नामर्द कहलाएगा न?

दादाश्री : ऐसा है, मार खाना कोई पुरुष की कमज़ोरी नहीं है। लेकिन उसके ये ऋणानुबंध ऐसे होते हैं, पत्नी दु:ख देने के लिए ही आई होती है, वह हिसाब चुकाएगी ही।

पगला अहंकार, तो लड़ाई-झगड़ा करवाए

संसार में लड़ाई-झगड़े की बात ही नहीं करनी, वह तो रोग कहलाता है। लड़ना वह अहंकार है, खुला अहंकार है, वह पागल

(पृ.१२०)

अहंकार कहलाता है। मन में ऐसा मानता है कि ‘मेरे बिना चलेगा नहीं।’ किसी को डाँटने में तो अपने को उल्टा बोझा लगता है, निरा सिर पक जाता है। लड़ने का किसी को शौक होता होगा?

घर में सामने वाला पूछे, सलाह माँगे तो ही ज़वाब देना चाहिए। यदि बिना पूछे सलाह देने बैठ जाए तो उसे भगवान ने अहंकार कहा है। पति पूछे कि ‘ये प्याले कहाँ रखने हैं?’ तो पत्नी ज़वाब देती है कि ‘फलानी जगह पर रख दो।’ तो आप वहाँ रख देना। अगर उसके बजाय कहो कि ‘तुझे अक्ल नहीं, तू कहाँ रखने को कह रही है?’ उस पर पत्नी कहेगी कि ‘अपनी अक्ल से रखो।’ अब इसका कहाँ पार आएगा? यह संयोगों का टकराव है। इसलिए लट्टू, खाते समय, उठते समय टकराया ही करते हैं। फिर लट्टू टकराते हैं, छिल जाते हैं और खून निकलता है। यह तो मानसिक खून निकलता है न! वो खून निकलता हो तब तो अच्छा, पट्टी लगाएँ तो रुक जाता है। इस मानसिक घाव पर तो पट्टियाँ भी नहीं लगतीं कोई।

ऐसी वाणी बोलने जैसी नहीं है

घर में किसी से कुछ कहना, अहंकार का यह सब से बड़ा रोग है। अपना-अपना हिसाब लेकर ही आए हैं सभी! हर एक की अपनी दाढ़ी उगती है, हमें किसी से कहना नहीं पड़ता कि दाढ़ी क्यों नहीं उगाता? वह तो उसे उगती ही है। सब अपनी आँखों से देखते हैं, सब अपने कानों से सुनते हैं। यह दख़ल करने की क्या ज़रूरत है? एक अक्षर भी बोलना मत। इसलिए हम यह ‘व्यवस्थित’ का ज्ञान देते हैं। अव्यवस्थित कभी भी होता ही नहीं है। जो अव्यवस्थित दिखता है, वह भी ‘व्यवस्थित’ ही है। इसलिए बात ही समझनी है। कभी कभार पतंग गोता खाए तब डोरी खींच लेनी है। डोरी अब अपने हाथ में है। जिसके हाथ में डोरी नहीं है उसकी पतंग गोता खाए, तो क्या होगा? डोरी हाथ में है नहीं और शोर मचाता है कि मेरी पतंग ने गोता खाया।

घर में एक अक्षर भी बोलना बंद कर दो। ‘ज्ञानी’ के अलावा अन्य किसी को एक शब्द भी नहीं बोलना चाहिए। क्योंकि ‘ज्ञानी’ की

(पृ.१२१)

वाणी कैसी होती है? परेच्छानुसार होती है, दूसरों की इच्छा के आधार पर वे बोलते हैं। उन्हें किसलिए बोलना पड़ता है? उनकी वाणी तो दूसरों की इच्छा पूर्ण होने के लिए निकलती है। और दूसरे तो बोलें उससे पहले तो सब का अदंर से हिल जाता है, भयंकर पाप लगता है, ज़रा-सा भी बोलना नहीं चाहिए। ज़रा-सा भी बोले तो वह किच-किच कहलाता है। बोल तो किसे कहते हैं कि सुनते रहने का मन हो, डाँटें तब भी वह सुनना अच्छा लगे। ये तो ज़रा बोले, उससे पहले ही बच्चे कहते हैं कि ‘चाचा अब किच-किच करनी रहने दो। बिना काम के दख़ल कर रहे हो।’ डाँटा हुआ कब काम का? पूर्वग्रह नहीं हो तो। पूर्वग्रह मतलब मन में याद होता ही है कि कल इसने ऐसा किया था और ऐसे झगड़ा था, इसलिए यह ऐसा ही है। घर में झगड़े उसे भगवान ने मूर्ख कहा है। किसी को दु:ख दें, तो भी नर्क जाने की निशानी है।

संसार निभाने के संस्कार कहाँ?

मनुष्य के अलावा दूसरा कोई पतिपना नहीं करता। अरे, आजकल तो डायवॉर्स लेते हैं न? वकील से कहते हैं कि, ‘तुझे हज़ार, दो हज़ार रुपये दूँगा, मुझे डायवॉर्स दिलवा दे।’ तब वकील कहेगा कि ‘हाँ, दिलवा दूँगा।’ अरे! तू ले ले न डायवॉर्स, दूसरों को क्या दिलवाने निकला है?

पहले के समय की एक बुढिय़ा की बात है। वे चाचाजी की तेरहवीं कर रही थीं। ‘तेरे चाचा को यह भाता था, वह भाता था।’ ऐसा कर-करके चारपाई पर वस्तुएँ रखती जाती थी। तब मैंने कहा, ‘चाची! आप तो चाचा के साथ रोज़ लड़ती थीं। चाचा भी आपको बहुत बार मारते थे। तब यह क्या?’ तब चाची ने कहा, ‘लेकिन तेरे चाचा जैसे पति मुझे फिर नहीं मिलेंगे।’ ये अपने हिन्दुस्तान के संस्कार!

पति किसे कहा जाता है? संसार को निभाए उसे। पत्नी किसे कहा जाता है? संसार को निभाए उसे। संसार को तोड़ डाले उसे पत्नी या पति कैसे कहा जाए? उसने तो अपने गुणधर्म ही खो दिए, ऐसा कहलाएगा न? वाइफ पर गुस्सा आए तो यह मटकी थोड़े ही

(पृ.१२२)

फेंक दोगे? कुछ तो कप-रकाबी फेंक देते हैं और फिर नये ले आते हैं! अरे, नये लाने थे तो फोड़े किसलिए? क्रोध में अंध बन जाता है और हिताहित का भान भी खो देता है।

ये लोग तो पति बन बैठे हैं। पति तो ऐसा होना चाहिए कि पत्नी सारा दिन पति का मुँह देखती रहे।

प्रश्नकर्ता : शादी से पहले बहुत देखते हैं।

दादाश्री : वह तो जाल डालती है। मछली ऐसा समझती है कि यह बहुत अच्छे दयालु व्यक्ति है, इसलिए मेरा काम हो गया। लेकिन एक बार खाकर तो देख, काँटा फँस जाएगा। यह तो फँसाव वाला है सब।

इसमें प्रेम जैसा कहाँ रहा?

घर वालों के साथ नफा हुआ कब कहलाता है कि घर वालों को अपने ऊपर प्रेम आए, अपने बिना अच्छा नहीं लगे और कब आएँगे, कब आएँगे? ऐसा रहा करे।

लोग शादी करते हैं लेकिन प्रेम नहीं है। यह तो मात्र विषयासक्ति है। प्रेम हो तो चाहे जितना भी आपस में विरोधाभास आए, फिर भी प्रेम नहीं जाता। जहाँ प्रेम नहीं होता, वह आसक्ति कहलाती है। आसक्ति मतलब संडास! प्रेम तो पहले इतना अधिक था कि पति परदेश गया हो और वह वापस न आए तो सारी ज़िंदगी उसका चित्त उसी में रहता, दूसरा कोई याद ही नहीं आता था। आज तो दो साल पति न आए तो दूसरा पति कर लेती है, इसे प्रेम कहेंगे? यह तो संडास है। जैसे संडास बदलते हैं वैसे! जो गलन है, वह संडास कहलाता है। प्रेम में तो अर्पणता होती है।

प्रेम मतलब लगनी लगे वह और वह सारा दिन याद आया करे। शादी दो रूप में परिणमित होती है, कभी आबादी में जाती है तो कभी बरबादी में जाती है। जो प्रेम बहुत उफने, वह फिर बैठ जाता है। जो उफनता है, वह आसक्ति है। इसीलिए जहाँ उफान हो, उससे दूर रहना।

(पृ.१२३)

लगनी तो आंतरिक होनी चाहिए। बाहर का बक्सा बिगड़ जाए, सड़ जाए फिर भी प्रेम उतने का उतना ही रहे। यह तो हाथ जल गया हो और आप कहो कि, ‘ज़रा धुलवा दो।’ तो पति कहेगा कि ‘ना, मुझसे नहीं देखा जाता।’ अरे, उन दिनों तो हाथ सहलाया करता था, और आज क्यों ऐसा? यह घृणा कैसे चले? जहाँ प्रेम है वहाँ घृणा नहीं, और जहाँ घृणा है वहाँ प्रेम नहीं। संसारी प्रेम भी ऐसा होना चाहिए कि जो एकदम कम न हो जाए और एकदम बढ़ भी न जाए। नोर्मेलिटी में होना चाहिए। ज्ञानी का प्रेम तो कभी कम-ज़्यादा नहीं होता। वह प्रेम तो अलग ही होता है। उसे परमात्मप्रेम कहा जाता है।

नोर्मेलिटी, सीखने जैसी

प्रश्नकर्ता : व्यवहार में ‘नोर्मेलिटी’ की पहचान क्या है?

दादाश्री : सब कहते हों कि, ‘तू देर से उठती है, देर से उठती है’, तो आपको नहीं समझ जाना चाहिए कि यह नोर्मेलिटी खो गई है? रात को ढाई बजे उठकर तू घूमने लगे तो सब नहीं कहेंगे कि ‘इतनी जल्दी क्यों उठती है?’ इसे भी नोर्मेलिटी खो डाली कहेंगे। नोर्मेलिटी तो, सभी के साथ एडजस्ट हो जाए, ऐसी है। खाने में भी नोर्मेलिटी चाहिए, यदि पेट में अधिक डाला हो तो नींद आती रहती है। हमारी खाने-पीने की सारी नोर्मेलिटी आप देखना। सोने की, उठने की, सब में ही हमारी नोर्मेलिटी होती है। खाने बैठते हैं और थाली में पीछे से दूसरी मिठाई रख जाएँ तो मैं अब उसमें से थोड़ा-सा ले लेता हूँ। मैं मात्रा नहीं बदलने देता। मैं जानता हूँ कि यह दूसरा आया, इसलिए सब्ज़ी निकाल डालो। आपको इतना सब करने की ज़रूरत नहीं है। यदि देर से उठ पाती हो तो आपको तो बोलते रहना है कि ‘नोर्मेलिटी में नहीं रहा जाता।’ इसलिए आपको तो अंदर खुद को ही टोकना है कि ‘जल्दी उठना चाहिए।’ वह टोकना फायदा करेगा। इसे ही पुरुषार्थ कहा है। रात को रटती रहो कि ‘जल्दी उठना है, जल्दी उठना है।’ अगर ज़बरदस्ती जल्दी उठने का प्रयत्न करे, उससे तो दिमाग बिगड़ेगा।

(पृ.१२४)

...शक्तियाँ कितनी ‘डाउन’ गई?

प्रश्नकर्ता : ‘पति ही परमात्मा है’ वह क्या गलत है?

दादाश्री : आज के पतियों को परमात्मा मानें तो वे पागल होकर घूमें ऐसे हैं!

एक पति अपनी पत्नी से कहता है, ‘तेरे सिर पर अँगारे रखकर उस पर रोटियाँ सेक।’ मूल तो बंदर छाप और ऊपर से दारू पिलाओ, तो उसकी क्या दशा होगी?

पुरुष तो कैसा होता है? ऐसे तेजस्वी पुरुष होते हैं कि जिनसे हज़ारों स्त्रियाँ काँपें। ऐसे देखते ही काँप उठें। आज तो पति ऐसे हो गए हैं कि कोई उसकी पत्नी का हाथ पकड़े तो उसे विनती करता है ‘अरे, छोड़ दे। मेरी बीवी है, बीवी है।’ ‘घनचक्कर, इसमें तू उससे विनती कर रहा है? कैसा घनचक्कर पैदा हुआ है तू?’ उसे तो मार, उसका गला पकड़ और विरोध कर। ऐसे उसके पैर पड़ रहा है! वह कोई छोड़ दे, ऐसी जात नहीं है। तब वह, ‘पुलिस, पुलिस, बचाओ, बचाओ।’ करता है। ‘अरे! तू पति होकर ‘पुलिस, पुलिस’ क्या कर रहा है? पुलिस का क्या करेगा? तू जीवित है या मरा हुआ है? पुलिस की मदद लेनी हो तो तू पति मत बनना।

घर का मालिक ‘हाफ राउन्ड’ चलेगा ही नहीं, वह तो ‘ऑल राउन्ड’ चाहिए। कलम, कड़छी, बरछी, तैरना, तस्करी और विवाद करना ये छहों। छ: कलाएँ नहीं आतीं तो वह मनुष्य नहीं। चाहे जितना गया-बीता मनुष्य हो तब भी उसके साथ एडजस्ट होना आए, दिमाग खिसके नहीं, तब काम का! भड़कने से चलेगा नहीं।

जिसे खुद अपने पर विश्वास है उसे इस जगत् में सभी कुछ मिले ऐसा है, लेकिन यह विश्वास ही नहीं आता न! कुछ लोगों को तो यह भी विश्वास उड़ गया होता है कि ‘यह वाइफ साथ में रहेगी या नहीं रहेगी? पाँच साल निभेगा या नहीं निभेगा?’ ‘अरे, यह भी विश्वास नहीं?’ विश्वास टूटा मतलब खत्म। विश्वास में तो अनंत शक्ति

(पृ.१२५)

है। भले ही अज्ञानता में विश्वास हो। ‘मेरा क्या होगा?’ हुआ कि खत्म! इस काल में लोग हकबका गए हैं और कोई दौड़ता-दौड़ता आ रहा हो और उसे पूछें कि, ‘तेरा नाम क्या है?’ तो वह हकबका जाता है।

टेढ़ापन के अनुसार टेढ़ा मिले

प्रश्नकर्ता : मैं वाइफ के साथ बहुत एडजस्ट होने जाता हूँ, लेकिन हुआ नहीं जाता।

दादाश्री : सब हिसाब वाला है! टेढ़े पेच और टेढ़ा नट, वहाँ सीधा नट घुमाएँ तो किस तरह चलेगा? आपको ऐसा होता है कि यह स्त्री जाति ऐसी क्यों है? लेकिन स्त्री जाति तो आपका ‘काउन्टर वेट’ है। जितना अपना टेढ़ापन उतनी टेढ़ी। इसीलिए तो सब ‘व्यवस्थित’ है, ऐसा कहा है न?

प्रश्नकर्ता : सभी हमें सीधा करने आए हों, ऐसा लगता है।

दादाश्री : तो सीधा करना ही चाहिए आपको। सीधा हुए बिना दुनिया चलेगी नहीं न? सीधे नहीं होंगे तो बाप किस तरह बनोगे? सीधा होगा तो बाप बनेगा।

शक्तियाँ खिलाने वाला चाहिए

यानी स्त्रियों का दोष नहीं है, स्त्रियाँ तो देवियों जैसी हैं। स्त्रियों और पुरुषों में, वे तो आत्मा ही हैं, केवल पेकिंग का फर्क है। डिफरन्स ऑफ पेकिंग। स्त्री, वह एक प्रकार का ‘इफेक्ट’ है, इसलिए आत्मा पर स्त्री का ‘इफेक्ट’ बरतता है। उसका ‘इफेक्ट’ अपने ऊपर नहीं पड़े, तब सही है। स्त्री, वह तो शक्ति है। इस देश में कैसी-कैसी स्त्रियाँ राजनीति में हो चुकी हैं! और इस धर्मक्षेत्र में जो स्त्री पड़ी, वह तो कैसी होती है? इस क्षेत्र से जगत् का कल्याण ही कर डाले। स्त्री में तो जगत् कल्याण की शक्ति भरी पड़ी है। उसमें खुद का कल्याण करके और दूसरों का कल्याण करने की शक्ति है।

(पृ.१२६)

प्रतिक्रमण से, हिसाब सब छूटें

प्रश्नकर्ता : कुछ लोग स्त्री से ऊबकर घर से भाग छूटते हैं, वह कैसा है?

दादाश्री : ना, भगोड़े क्यों बनें? आप परमात्मा हैं। आपको भगोड़ा बनने की क्या ज़रूरत है? आपको उसका समभाव से निकाल कर देना है।

प्रश्नकर्ता : निकाल करना है, तो किस तरह से होता है? मन में भाव करना कि यह पूर्व का आया है?

दादाश्री : इतने से निकाल नहीं होता। निकाल मतलब तो सामने वाले को फोन करना पड़ता है, उसके आत्मा को खबर देनी पड़ती है। उस आत्मा के पास, हमने भूल की है ऐसा कबूल-एक्सेप्ट करना पड़ता है। मतलब बड़ा प्रतिक्रमण करना पड़ता है।

प्रश्नकर्ता : सामने वाला व्यक्ति अपना अपमान करे तब भी हमें उसका प्रतिक्रमण करना चाहिए?

दादाश्री : अपमान करे तो ही प्रतिक्रमण करना है, आपको मान दे तब नहीं करना है। प्रतिक्रमण करोगे तो सामने वाले पर द्वेषभाव तो होगा ही नहीं, ऊपर से उस पर आपका अच्छा असर पड़ेगा। आपके साथ द्वेषभाव नहीं होगा, वह तो समझो कि पहला स्टेप है, लेकिन फिर उसे खबर भी पहुँचती है।

प्रश्नकर्ता : उसके आत्मा को पहुँचता है?

दादाश्री : हाँ, ज़रूर पहुँचता है। फिर वह आत्मा उसके पुद्गल को भी धकेलता है कि, ‘भाई, फोन आया तेरा।’ यह जो अपना प्रतिक्रमण है, वह अतिक्रमण के ऊपर है, क्रमण पर नहीं।

प्रश्नकर्ता : बहुत प्रतिक्रमण करने पड़ेंगे?

दादाश्री : जितनी स्पीड में आपको मकान बनाना हो उतने

(पृ.१२७)

कारीगर बढ़ाना। ऐसा है न, कि इन बाहर के लोगों के साथ आपके प्रतिक्रमण नहीं होंगे तो चलेगा, लेकिन अपने आसपास के और नज़दीक के, घर के लोग हैं, उनके प्रतिक्रमण अधिक करने हैं। घर वालों के लिए मन में भाव रखना है कि ‘मेरे साथ जन्म लिया है, साथ में रहते हैं तो किसी दिन ये मोक्षमार्ग पर आएँ।’

...तो संसार अस्त हो

जिसे ‘एडजस्ट’ होने की कला आ गई, वह दुनिया में से मोक्ष की ओर मुड़ा। ‘एडजस्टमेन्ट’ हुआ उसका नाम ज्ञान। जो ‘एडजस्टमेन्ट’ सीख गया वह पार हो गया। जो भुगतना है वह तो भुगतना ही होगा, लेकिन ‘एडजस्टमेन्ट’ आता हो उसे परेशानी नहीं आती, हिसाब साफ हो जाता है। सीधे के साथ तो हरकोई एडजस्ट हो जाता है, लेकिन टेढ़े-कठिन-कड़क के साथ में, सब के ही साथ एडजस्ट होना आया तो काम हो गया। मुख्य वस्तु एडजस्टमेन्ट है। ‘हाँ’ से मुक्ति है। हमने ‘हाँ’ कहा फिर भी ‘व्यवस्थित’ के बाहर कुछ होने वाला है? लेकिन ‘ना’ कहा तो महाउपाधि

घर में पति-पत्नी दोनों निश्चय करें कि मुझे ‘एडजस्ट’ होना है तो दोनों का हल आएगा। वे ज़्यादा खींचे तो ‘आपको’ एडजस्ट हो जाना है, तो हल आएगा। एक व्यक्ति का हाथ दु:खता था, लेकिन वह दूसरे को नहीं बताता था, लेकिन दूसरे हाथ से हाथ दबाकर, दूसरे हाथ से एडजस्ट किया। ऐसे एडजस्ट हो जाएँगे तो हल आएगा। मतभेद से तो हल नहीं आता। मतभेद पसंद नहीं, फिर भी मतभेद पड़ जाते हैं न? सामने वाला अधिक खींचा-तानी करे तो आप छोड़ देना और ओढ़कर सो जाना, यदि नहीं छोड़ेंगे, दोनों खींचते रहेंगे तो दोनों को ही नींद नहीं आएगी और सारी रात बिगड़ेगी। व्यवहार में, व्यापार में, भागीदारी में कैसा सँभालते हैं, तो इस संसार की भागीदारी में हमें नहीं सँभाल लेना चाहिए? संसार तो झगड़े का संग्रहस्थान है। किसी के यहाँ दो आने, किसी के यहाँ चवन्नी और किसी के यहाँ सवा रुपये तक पहुँच जाता है।

(पृ.१२८)

यहाँ घर पर ‘एडजस्ट’ होना आता नहीं और आत्मज्ञान के शास्त्र पढऩे बैठते हैं! अरे रख न एक तरफ! पहले यह सीख ले न। घर में ‘एडजस्ट’ होना तो कुछ आता नहीं है। ऐसा है यह जगत्! इसलिए काम निकाल लेने जैसा है।

‘ज्ञानी’ छुड़वाएँ, संसारजाल से

प्रश्नकर्ता : इस संसार के सभी बहीखाते खोट वाले लगते हैं, फिर भी किसी समय नफे वाले क्यों लगते हैं?

दादाश्री : जो बहीखाते खोट वाले लगते हैं, उनमें से कभी यदि नफे वाला लगे तो बाकी कर लेना। यह संसार दूसरे किसी से खड़ा नहीं हुआ है। गुणा ही हुए हैं। मैं जो रकम आपको दिखाऊँ उससे भाग कर डालोगे तो, फिर कुछ बाकी नहीं रहेगा। इस तरह से पढ़ाई की जा सके तो पढ़ो, नहीं तो ‘दादा की आज्ञा मुझे पालनी ही है, संसार का भाग (डिवाइड) लगाना ही है।’ ऐसा निश्चित किया कि तबसे भाग हुआ ही समझो।

बाकी ये दिन किस तरह गुज़ारने वह भी मुश्किल हो गया है। पति आए और कहे कि ‘मेरे हार्ट में दु:ख रहा है।’ बच्चे आएँ और कहें कि ‘मैं नापास हो गया हूँ।’ ‘पति को हार्ट में दु:ख रहा है’ ऐसा उसे कहें तो उसे विचार आता है कि ‘हार्ट फेल’ हो गया तो क्या होगा? चारों ओर से विचार घेर लेते हैं, चैन नहीं लेने देते।

‘ज्ञानी पुरुष’ इस संसारजाल से छूटने का रास्ता दिखाते हैं, मोक्ष का मार्ग दिखाते हैं और रास्ते पर चढ़ा देते हैं और आपको लगता है कि ‘हम इस उपाधि में से छूट गए!’

ऐसी भावना से छुड़वाने वाले मिलते ही हैं

यह सब परसत्ता है। खाते हैं, पीते हैं, बच्चों की शादियाँ करवाते हैं वह सब परसत्ता है। अपनी सत्ता नहीं है। ये सभी कषाय अंदर बैठे हैं। उनकी सत्ता है। ‘ज्ञानी पुरुष’ ‘मैं कौन हूँ?’ उसका ज्ञान देते हैं तब इन कषायों से, इस जंजाल में से छुटकारा होता है। यह संसार

(पृ.१२९)

छोड़ने से या धक्के मारने से छूटे ऐसा नहीं है, इसलिए ऐसी कोई भावना करो कि इस संसार में से छूटा जाए तो अच्छा। अनंत जन्मों से छूटने की भावना हुई है, लेकिन मार्ग का जानकार चाहिए या नहीं चाहिए? मार्ग दिखाने वाले ‘ज्ञानी पुरुष’ चाहिए।

जैसे चिकनी पट्टी शरीर पर चिपकाई हो, तो उसे उखाड़ें फिर भी वह उखड़ती नहीं। बाल को साथ में खींचकर उखड़ती है, उसी तरह यह संसार चिकना है। ‘ज्ञानी पुरुष’ दवाई दिखाएँ तब वह उखड़ता है। यह संसार छोड़ने से छूटे ऐसा नहीं है। जिसने संसार छोड़ा है, त्याग लिया है, वह उसके कर्म के उदय ने छुड़वाया है। हर किसी को उसके उदयकर्म के आधार पर त्यागधर्म या गृहस्थधर्म मिला होता है। समकित प्राप्त हो, तभी से सिद्धदशा प्राप्त होती है।

यह सब आप चलाते नहीं हैं। क्रोध-मान-माया-लोभ कषाय चलाते हैं। कषायों का ही राज है। ‘खुद कौन है?’ उसका भान हो तब कषाय जाते हैं। क्रोध हो तब पछतावा होता है, लेकिन भगवान का बताया हुआ प्रतिक्रमण करना नहीं आए तो क्या फायदा होगा? प्रतिक्रमण करने आएँ तो छुटकारा होगा।

ये कषाय चैन से घड़ीभर भी बैठने नहीं देते। बेटे की शादी के समय मोह ने घेर लिया हुआ होता है। तब मूर्छा होती है। बाकी कलेजा तो सारा दिन चाय की तरह उबल रहा होता है! तब भी मन में होता है कि ‘मैं’ तो जेठानी हूँ न! यह तो व्यवहार है, नाटक अदा करना है। यह देह छूटी इसलिए दूसरी जगह नाटक अदा करना है। ये रिश्ते सच्चे नहीं हैं, ये तो संसारी ऋणानुबंध हैं। हिसाब पूरा हो जाने के बाद बेटा माँ-बाप के साथ नहीं जाता है।

‘इसने मेरा अपमान किया!’ छोड़ो न! अपमान तो निगल जाने जैसा है। पति अपमान करे तब याद आना चाहिए कि यह तो मेरे ही कर्म का उदय है और पति तो निमित्त है, निर्दोष है। और मेरे कर्म के उदय बदलें, तब पति ‘आओ-आओ’ करता है। इसलिए आपको मन में समता रखकर निबेड़ा ला देना है। यदि मन में हो कि ‘मेरा

(पृ.१३०)

दोष नहीं है फिर भी मुझे ऐसा क्यों कहा?’ इससे फिर रात को तीन घंटे जगती है और फिर थककर सो जाती है।

जो भगवान के ऊपरी हुए, उनका काम हो गया और पत्नी के ऊपरी बन बैठे, वे सब मार खाकर मर गए। ऊपरी बने, तभी मार खाता है। लेकिन भगवान क्या कहते हैं? ‘हमारा ऊपरी बने तो हम खुश होते हैं। हमने तो बहुत दिन ऊपरीपन भोगा, अब आप हमारे ऊपरी बनो तो अच्छा।’

‘ज्ञानी पुरुष’ जो समझ देते हैं, उस समझ से छुटकारा होता है। समझ के बिना क्या हो सकता है? वीतराग धर्म ही सर्व दु:खों से मुक्ति देता है।

घर में तो सुंदर व्यवहार कर डालना चाहिए। ‘वाइफ’ के मन में ऐसा होना चाहिए कि ऐसा पति नहीं मिलेगा कभी और पति के मन में ऐसा होना चाहिए कि ऐसी ‘वाइफ’ भी कभी नहीं मिलेगी!! ऐसा हिसाब ला दें तब आप सही!!!

*****

(पृ.१३१)

[6] व्यापार, धर्म समेत

जीवन किसलिए खर्च हुए?

दादाश्री : यह व्यापार किसलिए करते हो?

प्रश्नकर्ता : पैसे कमाने के लिए।

दादाश्री : पैसा किसलिए?

प्रश्नकर्ता : उसकी खबर नहीं।

दादाश्री : यह किसके जैसी बात है? मनुष्य सारा दिन इंजन चलाया करे, लेकिन किसलिए? कुछ नहीं। इंजन को पट्टा नहीं दें, उसके जैसा है। जीवन किसलिए जीना है? केवल कमाने के लिए ही? जीव मात्र सुख को ढूँढता है। ‘सर्व दु:खों से मुक्ति कैसे हो’, यह जानने के लिए ही जीना है।

विचारणा करनी, चिंता नहीं

प्रश्नकर्ता : व्यापार की चिंता होती है, बहुत अड़चनें आती हैं।

दादाश्री : चिंता होने लगे कि समझना कि कार्य बिगड़ने वाला है। ज़्यादा चिंता नहीं हो तो समझना कि कार्य बिगड़ने वाला नहीं है। चिंता कार्य के लिए अवरोधक है। चिंता से तो व्यापार की मौत आती है। जिसमें चढ़ाव-उतार हो उसका नाम ही व्यापार, पूरण-गलन है वह। पूरण हुआ उसका गलन हुए बगैर रहता ही नहीं। इस पूरण-गलन में अपनी कोई मिल्कियत नहीं है और जो अपनी मिल्कियत है, उसमें से कुछ भी पूरण-गलन होता नहीं है, ऐसा साफ व्यवहार है। यह आपके घर में आपके बीवी-बच्चे सभी पार्टनर्स हैं न?

(पृ.१३२)

प्रश्नकर्ता : सुख-दु:ख भुगतने में तो हैं।

दादाश्री : आप अपने बीवी-बच्चों के अभिभावक कहलाते हो। सिर्फ अभिभावक को ही क्यों चिंता करनी चाहिए? और घर वाले तो बल्कि कहते हैं कि आप हमारी चिंता मत करना।

प्रश्नकर्ता : चिंता का स्वरूप क्या है? जन्म हुआ तब तो थी नहीं और आई कहाँ से?

दादाश्री : जैसे-जैसे बुद्धि बढ़ती है वैसे-वैसे संताप बढ़ता है। जब जन्म होता है तब बुद्धि होती है? व्यापार के लिए सोचने की ज़रूरत है। लेकिन उससे आगे गए तो बिगड़ जाता है। व्यापार के बारे में दस-पंद्रह मिनट सोचना होता है, फिर उससे आगे जाओ और विचारों का चक्कर चलने लगे, वह नोर्मेलिटी से बाहर गया कहलाता है, तब उसे छोड़ देना। व्यापार के विचार तो आते हैं, लेकिन उन विचारों में तन्मयाकार होकर वे विचार लम्बे चलें तो फिर उसका ध्यान उत्पन्न होता है और उससे चिंता होती है। वह बहुत नुकसान करती है।

चुकाने की नीयत में शुद्ध रहो

प्रश्नकर्ता : व्यापार में बहुत घाटा हुआ है तो क्या करूँ? व्यापार बंद करूँ या दूसरा करूँ? क़र्ज़ बहुत हो गया है।

दादाश्री : रूई बाज़ार का नुकसान, कभी किराने की दुकान लगाने से पूरा नहीं होता। व्यापार में से हुआ नुकसान व्यापार में से ही पूरा होता है, नौकरी में से नहीं होता। कॉन्ट्रैक्ट का नुकसान, कभी पान की दुकान से पूरा होता है? जिस बाज़ार में घाव लगा हो, उस बाज़ार में ही घाव भरता है, वहाँ पर ही उसकी दवाई होती है।

हमें भाव ऐसा रखना चाहिए कि मुझसे किसी भी जीव को किंचित् मात्र भी दु:ख न हो। बस हमें भाव शुद्ध रखना चाहिए कि सभी उधार चुका देना है, ऐसी यदि चोखी नीयत होगी तो सारा उधार देर-सवेर चुकता हो जाएगा। लक्ष्मी तो ग्यारहवाँ प्राण है। इसलिए

(पृ.१३३)

किसी की लक्ष्मी अपने पास नहीं रहनी चाहिए। अपनी लक्ष्मी किसी के पास रहे तो उसमें परेशानी नहीं है। परंतु ध्येय निरंतर वही रहना चाहिए कि मुझे पाई-पाई चुका देनी है, ध्येय लक्ष्य में रखकर फिर आप खेल खेलो। खेल खेलो लेकिन खिलाड़ी मत बन जाना, खिलाड़ी बने कि आप खत्म हो जाओगे।

...जोखिम समझकर, निर्भय रहना

हर एक व्यापार उदय-अस्त वाला होता है। मच्छर बहुत हों तब भी सारी रात सोने नहीं देते और दो हों तब भी सारी रात सोने नहीं देते! इसलिए आप कहना, ‘हे मच्छरमय दुनिया! दो ही सोने नहीं देते तो सभी आओ न!’ ये सब जो नफा-नुकसान हैं, वे मच्छर कहलाते हैं।

नियम कैसा रखना? हो सके तब तक समुद्र में उतरना नहीं, परंतु उतरने की बारी आ गई तो फिर डरना मत। जब तक डरेगा नहीं तब तक अल्लाह तेरे पास हैं। तू डरा कि अल्लाह कहेंगे कि ‘जा औलिया के पास!’ भगवान के वहाँ रेसकॉर्स या कपड़े की दुकान में फर्क नहीं है, लेकिन आपको यदि मोक्ष में जाना हो तो इस जोखिम में मत उतरना। इस समुद्र में प्रवेश करने के बाद निकल जाना अच्छा।

हम व्यापार किस तरह करते हैं, वह पता है? व्यापार की स्टीमर को समुद्र में तैरने के लिए छोड़ने से पहले पूजाविधि करवाकर स्टीमर के कान में फूँक मारते हैं, ‘तुझे जब डूबना हो तब डूबना, हमारी इच्छा नहीं है।’ फिर छह महीने में डूबे या दो वर्ष में डूबे, तब हम ‘एडजस्टमेन्ट’ ले लेते हैं कि छह महीनें तो चला। व्यापार मतलब इस पार या उस पार। आशा के महल निराशा लाए बगैर रहते नहीं हैं। संसार में वीतराग रहना बहुत मुश्किल है। वह तो हमारी ज्ञानकला और बुद्धिकला ज़बरदस्त हैं, उससे रहा जा सकता है।

ग्राहकी के भी नियम हैं

प्रश्नकर्ता : दुकान में ग्राहक आएँ, इसलिए मैं दुकान जल्दी खोलता हूँ और देर से बंद करता हूँ, यह ठीक है न?

(पृ.१३४)

दादाश्री : आप ग्राहक को आकर्षित करने वाले कौन? आपको तो दुकान जिस समय लोग खोलते हों, उसी समय खोलनी चाहिए। लोग सात बजे खोलते हों, और आप साढ़े नौ बजे खोलें तो वह गलत कहलाएगा। लोग जब बंद करें तब आपको भी बंद करके घर चले जाना चाहिए। व्यवहार क्या कहता है कि लोग क्या करते हैं, वह देखो। लोग सो जाएँ तब आप भी सो जाओ। रात को दो बजे तक अंदर घमासान मचाते रहो, वह किसके जैसी बात! खाना खाने के बाद सोचते हो कि किस तरह पचेगा? उसका फल सुबह मिल ही जाता है न? ऐसा ही सब जगह व्यपार में है।

प्रश्नकर्ता : दादा, अभी दुकान में ग्राहकी बिल्कुल नहीं है तो क्या करूँ?

दादाश्री : यह ‘इलेक्ट्रिसिटी’ जाए, तब आप ‘इलेक्ट्रिसिटी कब आएगी, कब आएगी’ ऐसा करो तो जल्दी आ जाती है? वहाँ आप क्या करते हो?

प्रश्नकर्ता : एक-दो बार फोन करते हैं या खुद कहने जाते हैं।

दादाश्री : सौ बार फोन नहीं करते?

प्रश्नकर्ता : ना।

दादाश्री : जब यह लाइट गई तब हम तो चैन से गा रहे थे और फिर अपने आप ही आ गई न?

प्रश्नकर्ता : मतलब हमें नि:स्पृह हो जाना है?

दादाश्री : नि:स्पृह होना भी गुनाह है और सस्पृह होना भी गुनाह है। ‘लाइट आए तो अच्छा’, ऐसा रखना है, सस्पृह-नि:स्पृह रहने को कहा है। ‘ग्राहक आएँ तो अच्छा’, ऐसा रखना है, बेकार भाग-दौड़ मत करना। रेग्युलारिटी और भाव नहीं बिगाड़ना, वह ‘रिलेटिव’ पुरुषार्थ है। ग्राहक नहीं आएँ तो अकुलाना नहीं और एक दिन ग्राहकों के झुंड पर झुंड आएँ तब सब को संतोष देना। यह तो

(पृ.१३५)

एक दिन ग्राहक नहीं आएँ तो नौकरों को सेठ डाँटता रहता है। तब अगर आप उनकी जगह पर होंगे तो क्या होगा? वह बेचारा नौकरी करने आता है और आप उसे डाँटते हो, तो वह बैर बाँधकर सहन कर लेगा। नौकर को डाँटना मत, वह भी मनुष्यजाति है। उसे घर पर बेचारे को दु:ख और यहाँ आप सेठ बनकर डाँटो तो वह बेचारा कहाँ जाए? बेचारे पर ज़रा दयाभाव तो रखो न!

यह तो ग्राहक आए तो शांति से और प्रेम से उसे माल देना। ग्राहक नहीं हों, तब भगवान का नाम लेना। यह तो ग्राहक नहीं हों, तब इधर देखता है और उधर देखता है। अंदर अकुलाता रहता है, ‘आज खर्च सिर पर पड़ेगा। इतना नुकसान हो गया’, ऐसा चक्कर चलाता है, चिढ़ता है और नौकर को डाँटता भी है। ऐसे आर्तध्यान और रौद्रध्यान करता रहता है! जो ग्राहक आते हैं, वह ‘व्यवस्थित’ के हिसाब से जो ग्राहक आने वाला हो वही आता है, उसमें अंदर चक्कर मत चलाना। दुकान में ग्राहक आए तो पैसे का लेन-देन करना, लेकिन कषाय का उपयोग मत करना, पटाकर काम करना है। यदि पत्थर के नीचे हाथ आ जाए तो हथौड़ा मारते हो? ना, वहाँ तो अगर दब जाए तो पटाकर निकाल लेते हो। उसमें कषाय का उपयोग करो तो बैर बँधेगा और एक बैर में से अनंत हो जाते हैं। इस बैर से ही जगत् खड़ा है, यही मूल कारण है।

प्रामाणिकता, भगवान का लाइसेन्स

प्रश्नकर्ता : आजकल प्रामाणिकता से व्यापार करने जाएँ तो ज़्यादा मुश्किलें आती हैं, ऐसा क्यों?

दादाश्री : प्रामाणिकता से काम किया तो एक ही मुश्किल आएगी, परंतु अप्रामाणिक रूप से काम करोगे तो दो प्रकार की मुश्किलें आएँगी। प्रामाणिकता की मुश्किल में से तो छूटा जा सकेगा, परंतु अप्रामाणिकता में से छूटना मुश्किल है। प्रामाणिकता, वह तो भगवान का बड़ा ‘लाइसेन्स’ है, उस पर कोई ऊँगली नहीं उठा सकता। आपको वह ‘लाइसेन्स’ फाड़ डालने का विचार आता है?

(पृ.१३६)

...नफा-नुकसान में, हर्ष-शोक क्या?

व्यापार में मन बिगड़े तब भी नफा 66,616 होगा और मन नहीं बिगड़े तब भी नफा 66,616 ही रहेगा, तो कौन-सा व्यापार करना चाहिए?

हमारे बड़े-बड़े व्यापार चलते हैं, लेकिन व्यापार का कागज़ ‘हमारे’ ऊपर नहीं आता। क्योंकि व्यापार का नफा व्यापार के खाते में और व्यापार का नुकसान भी हम व्यापार के खाते में ही डालते हैं। यदि मैं नौकरी कर रहा होता और जितनी पगार मिलती, तो उतने ही पैसे मैं घर में देता हूँ। बाकी का नफा भी व्यापार का और नुकसान भी व्यापार के खाते में।

पैसों का बोझा रखने जैसा नहीं है। बैंक में जमा हुए तब चैन की साँस ली, फिर जाएँ तब दु:ख होता है। इस जगत् में कहीं भी चैन की साँस लेने जैसा नहीं है। क्योंकि ‘टेम्परेरी’ है।

व्यापार में हिताहित

व्यापार कौन-सा अच्छा कि जिसमें हिंसा न समाती हो, किसी को अपने व्यापार से दु:ख न हो। यह तो किराने का व्यापार हो तो एक सेर में से थोड़ा निकाल लेते हैं। आजकल तो मिलावट करना सीख गए हैं। उसमें भी खाने की वस्तुओं में मिलावट करे तो जानवर में, चौपायों में जाएगा। चार पैर वाला हो जाए, फिर गिरे तो नहीं न? व्यापार में धर्म रखना, नहीं तो अधर्म प्रवेश कर जाएगा।

प्रश्नकर्ता : अब व्यापार कितना बढ़ाना चाहिए?

दादाश्री : व्यापार इतना करना कि आराम से नींद आए, आप जब उसे धकेलना चाहें तब वह धकेला जा सके, ऐसा होना चाहिए। जो आती न हो, उस परेशानी को बुलाना नहीं चाहिए।

ब्याज लेने में आपत्ति?

प्रश्नकर्ता : शास्त्रों में ब्याज लेने का निषेध नहीं है न?

(पृ.१३७)

दादाश्री : हमारे शास्त्रों ने ब्याज पर आपत्ति नहीं उठाई है, परंतु सूदखोर हो गया तो नुकसानदायक है। सामने वाले को दु:ख न हो तब तक ब्याज लेने में परेशानी नहीं है।

किफ़ायत, तो ‘नोबल’ रखनी

घर में किफ़ायत कैसी चाहिए? बाहर खराब न दिखे, ऐसी मितव्ययता होनी चाहिए। किफ़ायत रसोई में नहीं घुसनी चाहिए, उदार किफ़ायत होनी चाहिए। रसोई में किफ़ायत घुसे तो मन बिगड़ जाता है, कोई मेहमान आए तो भी मन बिगड़ जाता है कि चावल खर्च हो जाएँगे! कोई बहुत उड़ाऊ हो तो उसे हम कहते हैं कि ‘नोबल’ किफ़ायत करो।

*****

(पृ.१३८)

[7] ऊपरी का व्यवहार

अन्डरहैन्ड की तो रक्षा करनी चाहिए

प्रश्नकर्ता : दादा, सेठ मुझसे बहुत काम लेते हैं और तनख्वाह बहुत कम देते हैं और ऊपर से डाँटते हैं।

दादाश्री : ये हिन्दुस्तान के सेठ, ये तो पत्नी को भी धोखा देते हैं। परंतु अंत में अर्थी निकलती है, तब तो वे ही धोखा खाते हैं। हिन्दुस्तान के सेठ नौकर का तेल निकालते रहते हैं, चैन से खाने भी नहीं देते, नौकर की तनख्वाह काट लेते हैं। वे इन्कम टैक्स वाले काट लेते हैं तब वहाँ ये सीधे हो जाते हैं, लेकिन आज तो इन्कम टैक्स वाले का भी ये लोग काट लेते हैं!

जगत् तो प्यादों को, अन्डरहैन्ड को डाँटे ऐसा है। अरे, साहब को डाँट न, वहाँ आप जीत जाओ तो काम का! जगत् का ऐसा व्यवहार है। जबकि भगवान ने एक ही व्यवहार कहा था कि तेरे ‘अन्डर’ में जो आया उसका तू रक्षण करना। जिन्होंने अन्डरहैन्ड का रक्षण किया, वे भगवान बने हैं। मैं छोटा था तब से ही अन्डरहैन्ड का रक्षण करता था।

अभी यहाँ कोई नौकर चाय की ट्रे लेकर आए और वह गिर जाए तब सेठ उसे डाँटते हैं कि ‘तेरे हाथ टूटे हुए हैं? दिखता नहीं है?’ अब वह तो नौकर रहा बेचारा। वास्तव में नौकर कभी कुछ तोड़ता नहीं है, वह तो ‘रोंग बिलीफ़’ से ऐसा लगता है कि नौकर ने तोड़ा। वास्तव में तोड़ने वाला दूसरा ही है। अब वहाँ निर्दोष को दोषी ठहराते हैं, नौकर फिर उसका फल देता है, किसी भी जन्म में।

(पृ.१३९)

प्रश्नकर्ता : तो उस समय तोड़ने वाला कौन हो सकता है?

दादाश्री : हम जब ‘ज्ञान’ देते हैं उस समय वे सारे खुलासे कर देते हैं। यह तोड़ने वाला कौन, चलाने वाला कौन, वह सब ‘सॉल्व’ कर देते हैं। अब वहाँ वास्तव में क्या करना चाहिए? भ्राँति में भी क्या अवलंबन लेना चाहिए? नौकर तो ‘सिन्सियर’ है, वह तोड़े ऐसा नहीं है।

प्रश्नकर्ता : चाहे कितना भी ‘सिन्सियर’ हो, लेकिन नौकर के हाथों टूट गया तो परोक्ष रूप से वह ज़िम्मेदार नहीं है?

दादाश्री : ज़िम्मेदार है! लेकिन वह कितना ज़िम्मेदार है, वह समझ लेना चाहिए। सब से पहले उसे पूछना चाहिए कि ‘तू जला तो नहीं न?’ जल गया हो तो दवाई लगाना। फिर धीरे से कहना चाहिए कि अब तेज़ी से मत चलना आगे से।

सत्ता का दुरुपयोग, तो...

यह तो सत्ता वाला अपने से नीचे वालों को कुचलता रहता है। जो सत्ता का दुरुपयोग करता है, वह सत्ता चली जाती है और ऊपर से मनुष्य जन्म नहीं आता। एक घंटा ही यदि अपनी सत्ता में आए हुए व्यक्ति को डाँटा-फटकारा जाए तो सारी ज़िंदगी का आयुष्य बंध जाता है। विरोध करने वाले को डाँटे-फटकारें तो बात अलग है।

प्रश्नकर्ता : सामने वाला टेढ़ा हो तो जैसे के साथ वैसा ही नहीं होना चाहिए?

दादाश्री : सामने वाले व्यक्ति का हमें नहीं देखना चाहिए, वह उसकी ज़िम्मेदारी है, यदि लुटेरे सामने आ जाएँ और आप लुटेरे बनो तो ठीक है, लेकिन वहाँ तो सबकुछ दे देते हो न? निर्बल के आगे सबल बनो उसमें क्या है? सबल होकर निर्बल के आगे निर्बल हो जाओ तो सही।

ये ऑफिसर घर पर पत्नी के साथ लड़कर आते हैं और ऑफिस

(पृ.१४०)

में असिस्टेन्ट का तेल निकाल देते हैं। अरे, असिस्टेन्ट तो गलत हस्ताक्षर करवाकर ले जाएगा तो तेरी क्या दशा होगी? असिस्टेन्ट की तो खास ज़रूरत है।

हम असिस्टेन्ट को बहुत सँभालते हैं क्योंकि उसके कारण तो अपना सब काम चलता है। कुछ तो सर्विस में, सेठ को आगे लाने के लिए खुद को समझदार दिखलाते हैं। सेठ कहें कि बीस प्रतिशत लेना। तब सेठ के सामने समझदार दिखने के लिए पच्चीस प्रतिशत लेता है। किसलिए ये पाप की गठरियाँ बाँधता है?

*****

(पृ.१४१)

[8] कुदरत के वहाँ गेस्ट

कुदरत, जन्म से ही हितकारी

इस संसार में जितने भी जीव हैं वे कुदरत के गेस्ट हैं, प्रत्येक चीज़ कुदरत आपके पास तैयार करके भेजती है। यह तो आपको कढ़ापा (कुढऩ, क्लेश)-अजंपा (बेचैनी, अशांति) रहा करता है, क्योंकि सही समझ नहीं है और ऐसा लगता है कि ‘मैं करता हूँ’। यह भ्राँति है। बाकी किसी से इतना सा भी नहीं हो सकता।

यहाँ जन्म होने से पहले, हमारे बाहर निकलने से पहले लोग सारी तैयारियाँ करके रखते हैं! भगवान की सवारी आ रही है! जन्म लेने से पहले बालक को चिंता करनी पड़ती है कि बाहर निकलने के बाद मेरे दूध का क्या होगा? वह तो दूध की कुँडियाँ आदि सब तैयार ही होता है। डॉक्टर, दाईयाँ तैयार होते हैं। और दाई न हो तो नाईन तो होती ही है। लेकिन कुछ न कुछ तैयारी तो होती ही है, फिर जैसे ‘गेस्ट’ हों! ‘फस्र्ट क्लास’ के हों उसकी तैयारियाँ अलग, ‘सेकिन्ड क्लास’ की अलग और ‘थर्ड क्लास’ की अलग, सब क्लास तो हैं न? यानी कि आप सभी तैयारियों के साथ आए हैं। तो फिर हाय-तौबा किसलिए करते हो?

जिनके ‘गेस्ट’ हों, उनके वहाँ पर विनय कैसा होना चाहिए? मैं आपके यहाँ ‘गेस्ट’ होऊँ तो मुझे ‘गेस्ट’ की तरह विनय नहीं रखना चाहिए? आप कहो कि ‘आपको यहाँ नहीं सोना है, वहाँ सोना है’, तो मुझे वहाँ सो जाना चाहिए। दो बजे खाना आए तो भी शांति से खा लेना चाहिए। जो परोसे वह आराम से खा लेना पड़ता है, वहाँ

(पृ.१४२)

शोर नहीं मचा सकते। क्योंकि ‘गेस्ट’ हूँ। अब यदि ‘गेस्ट’ रसोई में जाकर कढ़ी हिलाने लगे तो कैसा कहलाएगा? घर में दख़ल करने जाओगे तो आपको कौन खड़ा रखेगा? बासुंदी तेरी थाली में रखे तो खा लेना, वहाँ ऐसा मत कहना कि ‘हम मीठा नहीं खाते।’ जितना परोसा जाए उतना आराम से खाना। खारा परोसे तो खारा खा लेना। ज़्यादा नहीं भाए तो थोड़ा खाना, परंतु खाना ज़रूर! ‘गेस्ट’ के सभी नियम पालना। ‘गेस्ट’ को राग-द्वेष नहीं करने होते हैं, ‘गेस्ट’ राग-द्वेष कर सकते हैं? वे तो विनय में ही रहते हैं न?

हम तो ‘गेस्ट’ के तौर पर ही रहते हैं, हमारे लिए सभी वस्तुएँ आती हैं। जिनके वहाँ ‘गेस्ट’ के तौर पर रहे हों, उन्हें परेशान नहीं करना चाहिए। हमें सारी चीज़ें घर बैठे मिल जाती हैं, याद करते ही हाज़िर हो जाती हैं और हाज़िर नहीं हो तो हमें परेशानी भी नहीं हैं। क्योंकि वहाँ ‘गेस्ट’ बने हैं। किसके वहाँ? कुदरत के घर पर! कुदरत की मर्ज़ी न हो तो हम समझें कि हमारे हित में है और मर्ज़ी उसकी हो तो भी हमारे हित में है। हमारे हाथ में करने की सत्ता हो, तो एक तरफ दाढ़ी उगे और दूसरी तरफ दाढ़ी नहीं उगे तो हम क्या करेंगे? हमारे हाथ में करने का होता तो सब घोटाला ही हो जाता। यह तो कुदरत के हाथों में है। उसकी कहीं भी भूल नहीं होती, सबकुछ पद्धति अनुसार ही होता है। देखो चबाने के दाँत अलग, छीलने के दाँत अलग, खाने के दाँत अलग। देखो, कितनी सुंदर व्यवस्था है! जन्म लेते ही पूरा शरीर मिलता है, हाथ, पैर, नाक, कान, आँखें सबकुछ मिलता है, लेकिन मुँह में हाथ डालो तो दाँत नहीं मिलते हैं, तब कोई भूल हो गई होगी कुदरत की? ना, कुदरत समझती है कि जन्म लेकर तुरंत उसे दूध पीना है, दूसरा आहार पचेगा नहीं, माँ का दूध पीना है, यदि दाँत देंगे तो वह काट लेगा! देखो कितनी सुंदर व्यवस्था की हुई है! जैसे-जैसे ज़रूरत पड़ती है, वैसे-वैसे दाँत निकलते जाते हैं। पहले चार आते हैं, फिर धीरे-धीरे दूसरे आते हैं और इन बूढ़ों के दाँत गिर जाते हैं तो फिर वापस नहीं आते हैं।

(पृ.१४३)

कुदरत सभी तरह से रक्षण करती है। राजा की तरह रखती है। परंतु अभागे को रहना नहीं आता, तब क्या हो?

पर दख़लंदाज़ी से दु:ख मोल लिए

रात को हाँडवा (गुजराती व्यंजन) पेट में डालकर सो जाता है न? फिर खर्राटें गरड़-गरड़ बुलवाता है! घनचक्कर, अंदर पता लगा न, क्या चल रहा है? तब कहे कि, ‘उसमें मी काय करूँ?’ और कुदरत का कैसा है? पेट में पाचक रस, ‘बाइल’ पड़ता है, दूसरी चीज़ें पड़ती है, सुबह ‘ब्लड’ ‘ब्लड’ की जगह, ‘यूरिन’ ‘यूरिन’ की जगह, ‘संडास’ ‘संडास’ के स्थान पर पहुँच जाता है। कैसी पद्धति अनुसार सुंदर व्यवस्था की हुई है! कुदरत अंदर कितना बड़ा काम करती है! यदि डॉक्टर को एक दिन यह अंदर का पचाने का काम सौंपा हो तो वह मनुष्य को मार डाले! अंदर में पाचक रस डालना, ‘बाइल’ डालना, आदि डॉक्टर को सौंपा हो तो डॉक्टर क्या करेगा? भूख नहीं लगती इसलिए आज ज़रा पाचक रस ज़्यादा डालने दो। अब कुदरत का नियम कैसा है कि पाचक रस ठेठ मरते दम तक चलें उस अनुसार डालती है। अब ये उस दिन, रविवार के दिन पाचकरस ज़्यादा डाल देता है, इसलिए बुधवार को अंदर बिल्कुल पचेगा ही नहीं, क्योंकि बुधवार के हिस्से का भी रविवार को डाल दिया।

कुदरत के हाथ में कितनी अच्छी बाज़ी है! और एक आपके हाथ में व्यापार आया, और उसमें भी व्यापार आपके हाथ में तो है ही नहीं। आप सिर्फ मान बैठे हो कि मैं व्यापार करता हूँ, इसलिए झूठी हाय-तौबा, हाय-तौबा करते हो। दादर से सेन्ट्रल टेक्सी में जाना हुआ, तब वह मन में टकरा जाएगी-टकरा जाएगी करके डर जाता है। अरे! कोई बाप भी टकराने वाला नहीं है। तू अपनी तरह से आगे देखकर चल। तेरा फ़र्ज़ कितना? तुझे आगे देखकर चलना है, इतना ही। वास्तव में तो वह भी तेरा फ़र्ज़ नहीं है। कुदरत तेरे पास से वह भी करवाती है। लेकिन आगे देखता नहीं है और दख़ल करता है।

(पृ.१४४)

कुदरत तो इतनी अच्छी है! यह अंदर इतना बड़ा कारखाना चलता है तो बाहर नहीं चलेगा? बाहर तो कुछ चलाने को है ही नहीं। क्या चलाना है?

प्रश्नकर्ता : कोई जीव उल्टा करे, तो वह भी उसके हाथ में सत्ता नहीं है?

दादाश्री : ना, सत्ता नहीं है, लेकिन उल्टा हो वैसा भी नहीं है, लेकिन उसने उल्टे-सुल्टे भाव किए इसलिए यह उल्टा हो गया। खुद ने कुदरत के इस संचालन में दख़ल दी है, नहीं तो ये कौए, कुत्ते ये जानवर कैसे हैं? अस्पताल नहीं चाहिए, कोर्ट नहीं चाहिए, वे लोग झगड़े कैसे सुलझा देते हैं? दो साँड लड़ते हैं, बहुत लड़ते हैं, लेकिन अलग होने के बाद वे क्या कोर्ट ढूँढने जाते हैं? दूसरे दिन देखें तो आराम से दोनों घूम रहे होते हैं! और इन मूर्खों के लिए कोर्ट होते हैं, अस्पताल होते हैं, तब भी वे दु:खी, दु:खी और दु:खी! ये लोग रोज़ अपना रोना रोते हैं, इन्हें अकर्मी कहें या सकर्मी कहें? ये चिड़िया, कबूतर, कुत्ते सब कितने सुंदर दिखते हैं! वे क्या सर्दी में वसाणुं (जड़ी-बूटी डालकर बनाई गई मिठाई) खाते होंगे? और ये मूर्ख वसाणुं खाकर भी सुंदर नहीं दिखते, बदसूरत दिखते हैं। इस अहंकार के कारण सुंदर व्यक्ति भी बदसूरत दिखता है। इसीलिए कोई भूल रह जाती है, ऐसा विचार नहीं करना चाहिए?

...फिर भी कुदरत, सदा मदद में रही

प्रश्नकर्ता : शुभ रास्ते पर जाने के विचार आते हैं, लेकिन वे टिकते नहीं और फिर अशुभ विचार आते हैं, वे क्या हैं?

दादाश्री : विचार क्या हैं? आगे जाना हो, तो भी विचार काम करते हैं और पीछे जाना हो तो भी विचार काम करते हैं। खुदा की तरफ जाने के रास्ते पर आगे जाते हो और वापस मुड़ते हो, उसके जैसा होता है। एक मील आगे जाओ और एक मील पीछे जाओ, एक मील आगे जाओ और वापस मोड़ो... एक ही तरह के विचार

(पृ.१४५)

रखना अच्छा। पीछे जाना है मतलब पीछे जाना और आगे जाना है मतलब आगे जाना। आगे जाना हो उसे भी कुदरत ‘हेल्प’ करती है और पीछे जाना हो उसे भी कुदरत ‘हेल्प’ करती है। ‘नेचर’ क्या कहती है? ‘आई विल हेल्प यू’। तुझे जो काम करना हो, चोरी करनी हो तो ‘आई विल हेल्प यू’। कुदरत की तो बहुत बड़ी ‘हेल्प’ है, कुदरत की ‘हेल्प’ से तो यह सब चलता है! लेकिन तू निश्चित नहीं करता कि मुझे क्या करना है? यदि तू निश्चित करे तो कुदरत तुझे ‘हेल्प’ करने के लिए तैयार ही है। ‘फस्र्ट डिसाइड’ कि मुझे इतना करना है, फिर उसे निश्चयपूर्वक सुबह में पहले याद करना चाहिए। आपके निश्चय के प्रति आपको ‘सिन्सियर’ रहना चाहिए, तो कुदरत आपके पक्ष में ‘हेल्प’ करेगी। आप कुदरत के ‘गेस्ट’ हो।

इसलिए बात को समझो। कुदरत तो ‘आई विल हेल्प यू’ कहती है। भगवान कुछ आपकी ‘हेल्प’ नहीं करते। भगवान बेकार नहीं बैठे हैं। यह तो कुदरत की सब रचना है और वह भगवान की सिर्फ हाज़िरी से ही रचा गया है।

प्रश्नकर्ता : हम कुदरत के ‘गेस्ट’ हैं या ‘पार्ट ऑफ नेचर’ हैं?

दादाश्री : ‘पार्ट ऑफ नेचर’ भी हैं और ‘गेस्ट’ भी हैं। हम भी ‘गेस्ट’ के तौर पर रहना पसंद करते हैं। चाहे जहाँ बैठो, तब भी आपको हवा मिलती रहेगी, पानी मिलता रहेगा और वह भी ‘फ्री ऑफ कॉस्ट’! जो अधिक क़ीमती है, वह ‘फ्री ऑफ कॉस्ट’ मिलता रहता है। कुदरत को जिसकी क़ीमत है, उसकी इन मनुष्यों को क़ीमत नहीं है। और जिसकी कुदरत के पास क़ीमत नहीं (जैसे कि हीरे), उसकी हमारे लोगों को बहुत क़ीमत है।

*****

(पृ.१४६)

[9] मनुष्यपन की क़ीमत

क़ीमत तो, सिन्सियारिटी और मॉरेलिटी की

पूरे जगत् का ‘बेसमेन्ट’ ‘सिन्सियारिटी’ और ‘मॉरेलिटी’ दो ही है। वे दोनों सड़ जाएँ तो सब गिर जाता है। इस काल में यदि ‘सिन्सियारिटी’ और ‘मॉरेलिटी’ हों, तो वह बहुत बड़ा धन कहलाता है। हिन्दुस्तान में वह धन ढेरों था, लेकिन अब इन लोगों ने वह सब फॉरिन में एक्सपोर्ट कर दिया है, और फॉरिन से बदले में क्या इम्पोर्ट किया, वह आप जानते हो? वे ये एटिकेट के भूत घुस गए! उसके कारण ही इन बेचारों को चैन नहीं पड़ता। हमें उस एटिकेट के भूत की क्या ज़रूरत है? जिनमें नूर नहीं हैं, उनके लिए वह है। हम तो तीर्थंकरी नूर वाले लोग हैं, ऋषिमुनियों की संतान हैं! तेरे फटे हुए कपड़े हों, फिर भी तेरा नूर तुझे कह देगा कि ‘तू कौन है?’

प्रश्नकर्ता : ‘सिन्सियारिटी’ और ‘मॉरेलिटी’ का एक्ज़ेक्ट अर्थ समझाइए।

दादाश्री : ‘मॉरेलिटी’ का अर्थ क्या है? खुद के हक़ का और सहज मिल जाए, वह सभी भोगने की छूट है। यह मॉरेलिटी का सब से अंतिम अर्थ है। मॉरेलिटी तो बहुत गूढ़ है, उस पर तो शास्त्र के शास्त्र लिखे जा सकते हैं। लेकिन इस अंतिम अर्थ पर से आप समझ जाओ।

और ‘सिन्सियारिटी’ तो जो मनुष्य दूसरों के प्रति ‘सिन्सियर’ नहीं रहता, वह खुद अपने लिए ‘सिन्सियर’ नहीं रहता। किसी को

(पृ.१४७)

थोड़ा भी ‘इनसिन्सियर’ नहीं होना चाहिए, उससे खुद की ‘सिन्सियारिटी’ टूटती है।

‘सिन्सियारिटी’ और ‘मॉरेलिटी’ - इस काल में ये दो वस्तुएँ हों तो बहुत हो गया। अरे! एक हो फिर भी वह ठेठ मोक्ष तक ले जाएगी। परंतु उसे पकड़ लेना चाहिए। और जब-जब अड़चन पड़े, तब-तब ‘ज्ञानी पुरुष’ के पास आकर खुलासा कर जाना चाहिए कि यह ‘मॉरेलिटी’ है या यह ‘मॉरेलिटी’ नहीं है।

‘ज्ञानी पुरुष का राजीपा (गुरुजनों की कृपा)’ और खुद की ‘सिन्सियारिटी’ इन दोनों के गुणा से सारे कार्य सफल हो सकें, ऐसा है।

‘इनसिन्सियारिटी’ से भी मोक्ष

कोई बीस प्रतिशत ‘सिन्सियारिटी’ और अस्सी प्रतिशत ‘इनसिन्सियारिटी’ वाला मेरे पास आए और पूछे कि ‘मुझे मोक्ष में जाना है और मुझमें तो यह माल है तो क्या करना चाहिए?’ तब मैं उसे कहूँगा कि, ‘सौ प्रतिशत ‘इनसिन्सियर’ हो जा, फिर मैं तुझे दूसरा रास्ता दिखाऊँगा कि जो तुझे मोक्ष में ले जाएगा।’ यह अस्सी प्रतिशत का कर्ज़ है, इसकी कब भरपाई करेगा? इससे तो फिर एक बार दिवाला निकाल दे। ‘ज्ञानी पुरुष’ का एक ही वाक्य पकड़े तब भी वह मोक्ष में जाएगा। पूरे ‘वर्ल्ड’ के साथ ‘इनसिन्सियर’ रहा होगा उसका मुझे एतराज नहीं है, लेकिन एक यहाँ ‘सिन्सियर’ रहा तो वह तुझे मोक्ष में ले जाएगा! सौ प्रतिशत ‘इनसिन्सियारिटी’, वह भी एक बड़ा गुण है, वह मोक्ष में ले जाएगा, क्योंकि भगवान का संपूर्ण विरोधी हो गया। भगवान के संपूर्ण विरोधी को मोक्ष में ले जाए बिना छुटकारा ही नहीं! या तो भगवान का भक्त मोक्ष में जाता है या तो भगवान का संपूर्ण विरोधी मोक्ष में जाता है! इसीलिए मैं नादार को तो दिखाता हूँ कि सौ प्रतिशत ‘इनसिन्सियर’ हो जा, फिर मैं तुझे दूसरा दिखाऊँगा, जो तुझे ठेठ मोक्ष तक ले जाएगा। दूसरा पकड़ाऊँगा तभी काम होगा। केवल ‘इनसिन्सियर’ हो गया तब तो नहीं जी सकता।

*****

(पृ.१४८)

[10] आदर्श व्यवहार

अंत में, व्यवहार आदर्श चाहिए

आदर्श व्यवहार के बिना कोई मोक्ष में नहीं गया। जैन व्यवहार, वह आदर्श व्यवहार नहीं है। वैष्णव व्यवहार, वह आदर्श व्यवहार नहीं है। मोक्ष में जाने के लिए आदर्श व्यवहार की ज़रूरत पड़ेगी।

आदर्श व्यवहार मतलब किसी जीव को किंचित् मात्र दु:ख नहीं हो, वह। घर वाले, बाहर वाले, अड़ोसी-पड़ोसी किसी को भी आप से दु:ख नहीं हो वह आदर्श व्यवहार कहलाता है।

जैन व्यवहार का अभिनिवेश (अपने मत को सही मानकर पकड़े रखना) करने जैसा नहीं है। वैष्णव व्यवहार का अभिनिवेश करने जैसा नहीं है। सारा अभिनिवेश व्यवहार है। भगवान महावीर का आदर्श व्यवहार होता था। आदर्श व्यवहार हो मतलब जो दुश्मन को भी नहीं अखरे। आदर्श व्यवहार मतलब मोक्ष में जाने की निशानी। जैन या वैष्णव गच्छ में से मोक्ष नहीं है। हमारी आज्ञाएँ आपको आदर्श व्यवहार की तरफ ले जाती हैं। वे संपूर्ण समाधि में रखें वैसी हैं। आधि-व्याधि-उपाधि में समाधि रहे ऐसा है। बाहर सारा ‘रिलेटिव’ व्यवहार है और यह तो ‘साइन्स’ है। साइन्स मतलब रियल!

आदर्श व्यवहार से अपने से किसी को भी दु:ख नहीं हो, उतना ही देखना है। फिर भी अपने से किसी को दु:ख हो जाए तो तुरंत ही प्रतिक्रमण कर लेना। हम से कोई उनकी भाषा में नहीं जाया जा सकता। यह जो व्यवहार में पैसों के लेन-देन आदि व्यवहार हैं, वह

(पृ.१४९)

तो सामान्य रिवाज है, उसे हम व्यवहार नहीं कहते, किसी को दु:ख नहीं होना चाहिए, यह देखना है, और दु:ख हुआ हो तो प्रतिक्रमण कर लेना, उसका नाम आदर्श व्यवहार।

हमारा आदर्श व्यवहार होता है। हम से किसी को अड़चन हुई हो, ऐसा नहीं होता। किसी के खाते में हमारी अड़चन जमा नहीं मिलेगी। हमें कोई अड़चन दे और हम भी अड़चन दें तो हम में और आपमें फर्क क्या? हम सरल हैं, सामने वाले को समझकर भी सरल रहते हैं। इसलिए सामने वाला समझता है कि, ‘दादा अभी कच्चे हैं।’ हाँ, कच्चे होकर छूट जाना बेहतर, परंतु पक्के होकर उसकी जेल में जाना गलत, ऐसा तो किया जाता होगा? हमें हमारे भागीदार ने कहा कि, ‘आप बहुत भोले हैं।’ तब मैंने कहा कि, ‘मुझे भोला कहने वाला ही भोला है।’ तब उन्होंने कहा कि, ‘आपको बहुत लोग छल जाते हैं।’ तब मैंने कहा कि, ‘हम जान-बूझकर छले जाते हैं।’

हमारा संपूर्ण आदर्श व्यवहार होता है। जिनके व्यवहार में कोई भी कमी होगी, वह मोक्ष के लिए पूरा लायक हुआ नहीं कहा जाएगा।

प्रश्नकर्ता : ज्ञानी के व्यवहार में दो व्यक्तियों के बीच भेद होता है?

दादाश्री : उनकी दृष्टि में भेद ही नहीं होता, वीतरागता होती है। उनके व्यवहार में भेद होता है। एक मिलमालिक और उसका ड्राइवर यहाँ आए, तो सेठ को सामने बिठाऊँगा और ड्राइवर को मेरे पास बिठाऊँगा, इससे सेठ का पारा उतर जाएगा! और प्रधानमंत्री आएँ तो मैं खड़ा होकर उनका स्वागत करूँगा और उन्हें बिठाऊँगा, उनका व्यवहार नहीं चूकूँगा। उन्हें तो विनयपूर्वक ऊपर बिठाऊँगा, और उन्हें यदि मेरे पास से ज्ञान ग्रहण करना हो, तो मेरे सामने नीचे बिठाऊँगा, नहीं तो ऊँचे बिठाऊँगा। लोकमान्य को व्यवहार कहा है और मोक्षमान्य को निश्चय कहा है। इसलिए लोकमान्य व्यवहार को उसी रूप में एक्सेप्ट करना पड़ता है। हम उठकर उन्हें नहीं बुलाएँ तो उन्हें दु:ख होगा, उसकी जोखिमदारी हमारी कहलाएगी।

(पृ.१५०)

प्रश्नकर्ता : जो बड़े हों, उन्हें पूज्य मानना चाहिए?

दादाश्री : बड़े मतलब उम्र में बड़े हों ऐसा नहीं, फिर भी माँजी बड़े हों तो उनका विनय रखना चाहिए और जो ज्ञानवृद्ध हुए हों, वे पूज्य माने जाते हैं।

सत्संग में से हम घर समय पर जाते हैं। यदि रात को बारह बजे दरवाज़ा खटखटाएँ तो वह कैसा दिखेगा? घर वाले मुँह पर बोलेंगे कि ‘कभी भी आएँगे तो चलेगा।’ परंतु उनका मन तो छोड़ेगा नहीं न? वह तो तरह-तरह का दिखाएगा। हम से उन्हें ज़रा-सा भी दु:ख कैसे दिया जाए? यह तो नियम कहलाता है और नियम के अधीन तो रहना ही पड़ेगा। इसी तरह दो बजे उठकर ‘रियल’ की भक्ति करें तो कोई कुछ बोलता है? ना, कोई नहीं पूछता।

शुद्ध व्यवहार : सद्व्यवहार

प्रश्नकर्ता : शुद्ध व्यवहार किसे कहना चाहिए? सद्व्यवहार किसे कहना चाहिए?

दादाश्री : ‘स्वरूप’ का ज्ञान प्राप्त होने के बाद ही शुद्ध व्यवहार शुरू होता है, तब तक सद्व्यवहार होता है।

प्रश्नकर्ता : शुद्ध व्यवहार और सद्व्यवहार में फर्क क्या है?

दादाश्री : सद्व्यवहार अहंकार सहित होता है और शुद्ध व्यवहार निरहंकारी होता है। शुद्ध व्यवहार संपूर्ण धर्मध्यान देता है और सद्व्यवहार अल्प अंश में धर्मध्यान देता है।

जितना शुद्ध व्यवहार होता है, उतना शुद्ध उपयोग रहता है। शुद्ध उपयोग मतलब ‘खुद’ ज्ञाता-दृष्टा होता है, लेकिन देखें क्या? तब कहे, शुद्ध व्यवहार को देखो। शुद्ध व्यवहार में निश्चय, शुद्ध उपयोग होता है।

कृपालुदेव ने कहा है: ‘गच्छमत नी जे कल्पना ते नहीं सद्व्यवहार।

(पृ.१५१)

सभी संप्रदाय, वे कल्पित बातें हैं। उनमें सद्व्यवहार भी नहीं है तो फिर वहाँ शुद्ध व्यवहार की बात ही क्या करनी? शुद्ध व्यवहार, वह निरहंकारी पद है, शुद्ध व्यवहार स्पर्धा रहित है। हम यदि स्पर्धा में उतरें तो राग-द्वेष होंगे। हम तो सभी से कहते हैं कि आप जहाँ हो वहीं ठीक हो। और आपको कोई कमी हो तो यहाँ हमारे पास आओ। हमारे यहाँ तो प्रेम की ही बरसात होती है। कोई द्वेष करता हुआ आए फिर भी प्रेम देंगे।

क्रमिक मार्ग मतलब शुद्ध व्यवहार वाले होकर शुद्धात्मा बनो और अक्रम मार्ग मतलब पहले शुद्धात्मा बनकर फिर शुद्ध व्यवहार करो। शुद्ध व्यवहार में व्यवहार सभी होता है, लेकिन उसमें वीतरागता होती है। एक-दो जन्मों में मोक्ष जाने वाले हों, वहाँ से शुद्ध व्यवहार की शुरूआत होती है।

शुद्ध व्यवहार स्पर्श नहीं करे, उसका नाम ‘निश्चय’। व्यवहार उतना पूरा करना कि निश्चय को स्पर्श नहीं करे, फिर व्यवहार चाहे किसी भी प्रकार का हो।

स्वच्छ (निर्मल) व्यवहार और शुद्ध व्यवहार में फर्क है। व्यवहार स्वच्छ (निर्मल) रखे वह मानवधर्म कहलाता है और शुद्ध व्यवहार तो मोक्ष में ले जाता है। बाहर या घर में लड़ाई-झगड़ा न करे वह स्वच्छ (निर्मल) व्यवहार कहलाता है। और आदर्श व्यवहार किसे कहा जाता है? खुद की सुगंधी फैलाए वह।

आदर्श व्यवहार और निर्विकल्प पद, वे दोनों प्राप्त हो जाएँ तो फिर बचा क्या? इतना तो पूरे ब्रह्मांड को बदलकर रख दे।

आदर्श व्यवहार से मोक्षार्थ सधे

दादाश्री : तेरा व्यवहार कैसा करना चाहता है?

प्रश्नकर्ता : संपूर्ण आदर्श।

(पृ.१५२)

दादाश्री : बूढ़ा होने के बाद आदर्श व्यवहार हो, वह किस काम का? आदर्श व्यवहार तो जीवन की शुरूआत से होना चाहिए।

‘वर्ल्ड’ में एक ही मनुष्य आदर्श व्यवहार वाला हो तो उससे पूरा ‘वर्ल्ड’ बदल जाए, ऐसा है।

प्रश्नकर्ता : आदर्श व्यवहार किस तरह होता है?

दादाश्री : आपको (महात्माओं को) जो निर्विकल्प पद प्राप्त हुआ है तो उसमें रहने से आदर्श व्यवहार अपने आप आएगा। निर्विकल्प पद प्राप्त होने के बाद कोई दख़ल होती नहीं है, फिर भी आपसे दख़ल हो जाए तो आप मेरी आज्ञा में नहीं हैं, हमारी पाँच आज्ञा आपको भगवान महावीर जैसी स्थिति में रखें, ऐसी हैं। व्यवहार में हमारी आज्ञा आपको बाधक नहीं है, आदर्श व्यवहार में रखें, ऐसी है। ‘यह’ ज्ञान तो व्यवहार को कम्प्लीट आदर्श बनाए, ऐसा है। मोक्ष किसका होगा? आदर्श व्यवहार वाले का। और ‘दादा’ की आज्ञा वह आदर्श व्यवहार लाती है। ज़रा-सी भी किसी की भूल आए तो वह आदर्श व्यवहार नहीं है। मोक्ष कोई ‘गप्प’ नहीं है, वह हकीकत स्वरूप है। मोक्ष कोई वकीलों का खोजा हुआ नहीं है। वकील तो ‘गप्प’ में से खोज लें, वैसा यह नहीं है, यह तो हकीकत स्वरूप है।

एक भाई मुझे एक बड़े आश्रम में मिले। मैंने उनसे पूछा कि, ‘आप यहाँ कैसे?’ तब उन्होंने कहा कि, ‘मैं इस आश्रम में पिछले दस सालों से रह रहा हूँ।’ तब मैंने उनसे कहा कि, ‘आपके माँ-बाप गाँव में बहुत गरीब हालत में अंतिम अवस्था में दु:खी हो रहे हैं।’ तब उन्होंने कहा कि, ‘उसमें मैं क्या करूँ? मैं उनका करने जाऊँ तो मेरा धर्म करने का रह जाएगा।’ इसे धर्म कैसे कहा जाए? धर्म तो उसका नाम कि जो माँ-बाप, भाई, सब के साथ व्यवहार रखे। व्यवहार आदर्श होना चाहिए। जो व्यवहार खुद के धर्म का तिरस्कार करें, माँ-बाप के संबंध को ठुकराए, उसे धर्म कैसे कहा जाएगा? अरे! मन में दी गई गाली या अँधेरे में किए गए कृत्य, वे सब भयंकर गुनाह हैं! वह समझता है कि, ‘मुझे कौन देखने वाला है, और कौन

(पृ.१५३)

इसे जानने वाला है?’ अरे, यह नहीं है पोपाबाई का राज! यह तो भयंकर गुनाह है। इन सब को अँधेरे की भूलें ही परेशान करती हैं।

व्यवहार आदर्श होना चाहिए। यदि व्यवहार में अत्यधिक सतर्क हुए तो कषायी हो जाते हैं। यह संसार तो नाव है, और नाव में चाय-नाश्ता सब करना है, लेकिन समझना है कि इससे किनारे तक जाना है।

इसलिए बात को समझो। ‘ज्ञानी पुरुष’ के पास तो बात को केवल समझनी ही है, करना कुछ भी नहीं है। और जो समझकर उसमें समा गया वह हो गया वीतराग!

जय सच्चिदानंद

मूल गुजराती शब्दों के समानार्थी शब्द

पोतापणुं : मैं हूँ और मेरा है-ऐसा आरोपण, मेरापन

शाता : सुख-परिणाम

अशाता : दु:ख-परिणाम

पुद्गल : जो पूरण और गलन होता है

पूरण-गलन : चार्ज होना-डिस्चार्ज होना

निकाल : निपटारा

भोगवटा : सुख-दु:ख का असर

उपाधि : बाहर से आनेवाले दु:ख

संवरपूर्वक निर्जरा : दोबारा कर्म बीज नहीं डलें और कर्म फल पूरा हो जाए

आँटी : गाँठ पड़ जाए उस तरह से उलझा हुआ

ऊपरी : बॉस, वरिष्ठ मालिक

कल्प : कालचक्र

नोंध : अत्यंत राग अथवा द्वेष सहित लम्बे समय तक याद रखना, नोट करना

नियाणां : अपना सारा पुण्य लगाकर किसी एक वस्तु की कामना करना

सिलक : राहखर्च, जमापूंजी

तायफ़ा : फज़ीता

उपलक : सतही, ऊपर ऊपर से, सुपरफ्लुअस

तरंग : शेखचिल्ली जैसी कल्पनाएँ

चलण : वर्चस्व, सत्ता

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प्रतिक्रमण विधि

प्रत्यक्ष ‘दादा भगवान’ की साक्षी में, देहधारी ................. (जिसके प्रति दोष हुआ हो, उस व्यक्ति का नाम) के मन-वचन-काया के योग, भावकर्म-द्रव्यकर्म-नोकर्म से भिन्न, ऐसे हे शुद्धात्मा भगवान ! आपकी साक्षी में, आज तक मुझसे जो जो .....* .... दोष हुए हैं, उनके लिए मैं क्षमा माँगता हूँ, हृदयपूर्वक बहुत पश्चाताप करता हूँ। मुझे क्षमा कीजिए और फिर से ऐसे दोष कभी भी नहीं करुँ, ऐसा द्रढ़ निश्चय करता हूँ। उसके लिए मुझे परम शक्ति दीजिए।

* क्रोध-मान-माया-लोभ, विषय-विकार, कषाय आदि से उस व्यक्ति को जो भी दु:ख पहुँचाया हो, उन दोषों को मन में याद करें।

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