दादा भगवान कथित

एडजस्ट एवरीव्हेर

मूल गुजराती संकलन : डॉ. नीरू बहन अमीन

अनुवाद : महात्मागण

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संपादकीय
एडजस्ट एवरीव्हेर

संपादकीय

जीवन में हर एक अवसर पर हम खुद ही समझदारी से सामने वाले के साथ एडजस्ट नहीं होंगे तो भयानक टकराव होता ही रहेगा। जीवन विषमय हो जाएगा और आखिर में तो जगत् ज़बरदस्ती हमारे पास एडजस्टमेन्ट करवाएगा ही। इच्छा हो या अनिच्छा, हमें जहाँ-तहाँ एडजस्ट तो होना ही पड़ेगा। तो फिर समझ-बूझकर ही क्यों नहीं एडजस्ट हों ताकि टकराव टाल सकें और सुख-शांति स्थापित हो।

लाइफ़ इज़ नथिंग बट एडजस्टमेन्ट (जीवन एडजस्टमेन्ट के सिवा और कुछ भी नहीं!) जन्म से मृत्यु तक एडजस्टमेन्ट्स लेने होंगे। फिर चाहे रोकर लें या हँसकर ! पढ़ाई पसंद हो या नहीं हो, लेकिन एडजस्ट होकर पढऩा ही होगा ! शादी के समय शायद खुशी-खुशी ब्याहें, लेकिन शादी के बाद सारा जीवन पति-पत्नी को पारस्परिक एडजस्टमेन्ट्स लेने ही होंगे। दो भिन्न प्रकृतियों को सारा जीवन साथ रहकर, जो पाला पड़ा हो उसे निभाना पड़ता है। इसमें एक-दूसरें से सारा जीवन पूर्णतया एडजस्ट होकर रहें, ऐसे कितने पुण्यवंत लोग होंगे इस काल में? अरे, रामचंद्रजी और सीताजी को भी कई बार डिसएडजस्टमेन्ट नहीं हुए थे? स्वर्णमृग, अग्नि परीक्षा और सगर्भा होते हुए भी बनवास? उन्होंने कैसे-कैसे एडजस्टमेन्ट लिए होंगे?

माता-पिता और संतानों के साथ तो क़दम-क़दम पर एडजस्टमेन्ट्स नहीं लेने पड़ते क्या? यदि समझदारी से एडजस्ट हो जाएँ तो शांति रहेगी और कर्म नहीं बँधेंगे। परिवार में मित्रों के साथ, धंधे में बॉस के साथ, व्यापारी या दलालों के साथ, तेजी-मंदी की हवा के साथ, सभी जगह यदि हम एडजस्टमेन्ट नहीं लेंगे तो कितने सारे दु:खों का ढेर लग जाएगा!

इसलिए ‘एडजस्ट एवरीव्हेर’ की ‘मास्टर की’ लेकर जो मनुष्य जीवन व्यतीत करेगा, उसके जीवन का कोई ताला नहीं खुले, ऐसा नहीं होगा। ज्ञानीपुरुष परम पूजनीय दादाश्री का स्वर्णिम सूत्र ‘एडजस्ट एवरीव्हेर’ जीवन में आत्मसात कर लें तो संसार सुखमय हो जाए!

डॉ. नीरू बहन अमीन

एडजस्ट एवरीव्हेर

पचाओ एक ही शब्द

प्रश्नकर्ता : अब तो जीवन में शांति का सरल मार्ग चाहते हैं।

दादाश्री : एक ही शब्द जीवन में उतारोगे, ठीक से, एक्ज़ेक्ट?

प्रश्नकर्ता : एक्ज़ेक्ट! हाँ।

दादाश्री : ‘एडजस्ट एवरीव्हेर’ इतना ही शब्द यदि आप जीवन में उतार लोगे तो बहुत हो गया। आपको अपने आप शांति प्राप्त होगी। शुरुआत में छ: महीनों तक अड़चनें आएँगी, बाद में अपने आप ही शांति हो जाएगी। पहले छ: महीनों तक पिछले रिएक्शन आएँगे, देर से शुरुआत करने की वजह से। इसलिए ‘एडजस्ट एवरीव्हेर’! इस कलियुग के ऐसे भयंकर काल में यदि एडजस्ट नहीं हुए न, तो खत्म हो जाओगे!

संसार में और कुछ करना नहीं आए तो हर्ज नहीं लेकिन एडजस्ट होना तो आना ही चाहिए। सामने वाला ‘डिसएडजस्ट’ होता रहे, पर आप एडजस्ट होते रहोगे तो संसार-सागर तैरकर पार उतर जाओगे। जिसे दूसरों के साथ अनुकूल होना आ जाता है, उसे कोई दु:ख ही नहीं रहता। ‘एडजस्ट एवरीव्हेर’! प्रत्येक के साथ एडजस्टमेन्ट हो जाए, यही सब से बड़ा धर्म है। इस काल में तो भिन्न-भिन्न प्रकृतियाँ, तो फिर एडजस्ट हुए बिना कैसे चलेगा?

(पृ.२)

बखेड़ा मत करना, एडजस्ट हो जाना

संसार का अर्थ ही है समसरण मार्ग, इसलिए निरंतर परिवर्तन होता ही रहता है। जबकि ये बुज़ुर्ग पुराने ज़माने को ही पकड़े रहते हैं। अरे, ज़माने के साथ चल, वर्ना मार खाकर मर जाएगा! ज़माने के अनुसार एडजस्टमेन्ट लेना होगा। मेरा तो चोर के साथ, जेबकतरे के साथ, सब के साथ एडजस्टमेन्ट हो जाता है। यदि हम चोर के साथ बात करें तो वह भी जान जाता है कि ये करुणा वाले हैं। हम उसे ऐसा नहीं कहते कि ‘तू गलत है’। क्योंकि वह उसका ‘व्यू पोइन्ट’ (दृष्टिबिन्दु) है। जबकि लोग उसे ‘नालायक’ कहकर गालियाँ देते हैं। क्या ये वकील झूठे नहीं हैं? ‘बिल्कुल झूठा केस जितवा दूँगा’ जो ऐसा कहते हैं, क्या वे ठग नहीं कहलाएँगे? जो चोर को ‘लुच्चा’ कहते हैं और बिल्कुल झूठे केस को ‘सच्चा’ कहते हैं, उनका संसार में विश्वास कैसे कर सकते हैं? फिर भी, उनका भी चलता है न? किसी को भी हम झूठा नहीं कहते। वह अपने ‘व्यू पोइन्ट’ से करेक्ट ही है। लेकिन उसे सही बात समझाएँ कि ‘तू यह जो चोरी करता है, उसका तुझे क्या फल मिलेगा!’

ये बुज़ुर्ग लोग घर में घुसते ही कहते हैं, ‘यह लोहे की अलमारी? यह रेडियो? यह ऐसा क्यों? वैसा क्यों?’ ऐसे बखेड़ा करते हैं। अरे, किसी जवान से दोस्ती कर। यह युग तो बदलता ही रहेगा। इनके बगैर ये जीएँगे कैसे? कुछ नया देखा कि मोह हो जाता है। नवीन नहीं होगा तो जीएँगे किस तरह? ऐसा नवीन तो अनंत बार आया और गया, उसमें आपको बखेड़ा नहीं करना चाहिए। काफी सोच लिया था कि यह संसार उल्टा हो रहा है या सीधा हो रहा है और यह भी समझ में आ गया कि, इस संसार को बदलने की सत्ता किसी के पास है ही नहीं। फिर भी हम क्या कहते हैं कि ज़माने के अनुसार एडजस्ट हो जाओ। बेटा नई टोपी पहनकर आए, तब ऐसा मत कहना कि,

(पृ.३)

‘ऐसी कहाँ से ले आया?’ उसके बजाय एडजस्ट हो जाना कि,‘इतनी अच्छी टोपी कहाँ से लाया? कितने में लाया? बहुत सस्ती मिली?’ इस प्रकार एडजस्ट हो जाना।

अपना धर्म क्या कहता है कि असुविधा में सुविधा देखो। रात को मुझे विचार आया कि, ‘यह चद्दर मैली है।’ लेकिन फिर एडजस्टमेन्ट ले लिया तो फिर इतनी अच्छी हुई कि न पूछो। पंचेन्द्रिय ज्ञान असुविधा दिखाता है और आत्मज्ञान सुविधा दिखाता है। इसलिए आत्मा में रहो।

दुर्गंध के साथ एडजस्टमेन्ट

अगर बांद्रा (मुंबई में एक जगह) की खाड़ी में से दुर्गंध आए, तो उसके साथ क्या लड़ने जाएँगे? इसी प्रकार ये मनुष्य भी दुर्गंध फैलाते हैं, तो क्या उन्हें कुछ कहने जाएँगे? जो दुर्गंध फैलाते हैं वे सभी खाड़ियाँ कहलाती हैं और जिनमें से सुगंध आती है वे बाग़ कहलाते हैं। जो-जो दुर्गंध देते हैं, वे सभी कहते हैं कि ‘आप हमारे प्रति वीतराग रहो!’

यह तो, अच्छा-बुरा कहने से वे हमें सताते हैं। हमें तो दोनों को समान कर देना है। इसे ‘अच्छा’ कहा, इसलिए वह ‘बुरा’ हुआ। तब फिर वह सताता है। लेकिन दोनों का ‘मिक्स्चर’ कर देंगे, तो फिर असर नहीं रहेगा। हमने ‘एडजस्ट एवरीव्हेर’ की खोजबीन की है। सच बोल रहा हो उसके साथ भी और कोई झूठ बोल रहा हो उसके साथ भी ‘एडजस्ट’ हो जा। हमें कोई कहे कि ‘आपमें अक़्ल नहीं है।’ तब हम तुरंत उसके साथ एडजस्ट हो जाएँगे और उसे कहेंगे कि, ‘वह तो पहले से ही नहीं थी। आज तू कहाँ से खोजने आया है? तुझे तो आज मालूम हुआ, लेकिन मैं तो यह बचपन से ही जानता हूँ।’ ऐसा कहेंगे तो झंझट ही मिट जाएगी न? फिर वह अपने पास अक़्ल खोजने आएगा ही नहीं। ऐसा नहीं करेंगे तो ‘अपने घर’ (मोक्ष) कब पहुँचेंगे?

(पृ.४)

पत्नी के साथ एडजस्टमेन्ट

प्रश्नकर्ता : एडजस्ट कैसे होना चाहिए? यह ज़रा समझाइए।

दादाश्री : मान लो आपको किसी कारणवश देर हो गई, और पत्नी कुछ उल्टा-सुल्टा बोलने लगे कि, ‘इतनी देर से आए हो? मुझे ऐसा नहीं चलेगा।’ और जैसा-तैसा कहे... उसका दिमाग़ फिर जाए। तब आप कहना कि ‘हाँ, तेरी बात सही है, तू कहे तो वापस चला जाऊँ और तू कहे तो अंदर आकर बैठूँ।’ तब वह कहेगी, ‘नहीं, वापस मत जाना। यहाँ सो जाओ चुपचाप।’ लेकिन फिर पूछो, ‘तू कहे तो खाऊँ, वर्ना सो जाऊँ।’ तब यदि वह कहे, ‘नहीं, खा लो।’ तब आपको उसका कहा मानकर खा लेना चाहिए। अर्थात् एडजस्ट हो गए। फिर सुबह फस्र्ट क्लास चाय देगी और अगर धमकाया तो फिर चाय का कप मुँह फुलाकर देगी और तीन दिन तक वही सिलसिला जारी रहेगा।

खाओ खिचड़ी या होटल के पिज्ज़ा?

एडजस्ट होना नहीं आए तो क्या करते हैं? लोग वाइफ के साथ झगड़ा करते हैं न?

प्रश्नकर्ता : हाँ।

दादाश्री : ऐसा?! क्या बँटवारे के लिए? वाइफ के साथ क्या बाँटना है? जायदाद तो साझेदारी में है।

प्रश्नकर्ता : पति को गुलाबजामुन खाने हों और बीवी खिचड़ी बनाए, तो फिर झगड़ा हो जाता है।

(पृ.५)

दादाश्री : फिर झगड़ा करने के बाद क्या वह गुलाबजामुन बनाएगी? नहीं। बाद में भी खिचड़ी ही खानी पड़ती है!

प्रश्नकर्ता : फिर होटल से पिज्ज़ा मँगवाते हैं।

दादाश्री : ऐसा?! अर्थात् यह भी गया और वह भी गया। पिज्ज़ा आ जाते हैं, नहीं?! लेकिन हमारे गुलाबजामुन तो गए न? उसके बजाय अगर आपने वाइफ से कहा होता कि, ‘तुम्हें जो ठीक लगे वह बनाओ।’ उसे भी किसी दिन खिलाने की भावना तो होगी न! वह खाना नहीं खाएगी? तब आप कहना, ‘तुम्हें ठीक लगे वह बनाना।’ तब वह कहेगी, ‘नहीं, आपको जो ठीक लगे, वह बनाना है।’ तब आप कहना कि, ‘गुलाबजामुन बनाओ।’ और अगर आप पहले से ही गुलाबजामुन बनाने को कहो तो वह कहेगी, ‘नहीं, मैं तो खिचड़ी बनाऊँगी।’

प्रश्नकर्ता : ऐसे मतभेद बंद करने के लिए आप कौन सा रास्ता बताते हैं?

दादाश्री : मैं तो यही रास्ता बताता हूँ कि, ‘एडजस्ट एवरीव्हेर’। वह कहे कि, ‘खिचड़ी बनानी है’, तो आप ‘एडजस्ट’ हो जाना। और आप कहो कि, ‘नहीं, अभी हमें बाहर जाना है, सत्संग में जाना है’, तो उसे ‘एडजस्ट’ हो जाना चाहिए। जो पहले बोले, उसके साथ एडजस्ट हो जाओ।

प्रश्नकर्ता : तब तो पहले बोलने के लिए झगड़े होंगे।

दादाश्री : हाँ, ऐसा करना। ऐसा करना लेकिन उससे ‘एडजस्ट’ हो जाना। क्योंकि तेरे हाथ में सत्ता नहीं है। वह सत्ता किसके हाथ में है, वह मैं जानता हूँ। तो फिर इसमें ‘एडजस्ट’ हो जाने में कोई हर्ज है भाई ?

(पृ.६)

प्रश्नकर्ता : नहीं, बिल्कुल भी नहीं।

दादाश्री : बहन जी, आपको हर्ज है?

प्रश्नकर्ता : नहीं।

दादाश्री : तब फिर उसका निकाल कर दो न! ‘एडजस्ट एवरीव्हेर’! इसमें कोई हर्ज है?

प्रश्नकर्ता : नहीं, बिल्कुल भी नहीं।

दादाश्री : अगर वह पहले कहे कि, ‘आज प्याज के पकौड़े, लड्डू, सब्ज़ी सब बनाओ’, तब आप एडजस्ट हो जाना और अगर आप कहो कि ‘आज जल्दी सो जाना है’ तो उन्हें एडजस्ट हो जाना चाहिए (पति से)। आपको किसी दोस्त के वहाँ जाना हो, फिर भी मुल्तवी करके जल्दी सो जाना। क्योंकि दोस्त के साथ झमेला होगा तो देखा जाएगा, लेकिन यहाँ घर में मत होने देना। लोग दोस्त के साथ अच्छा रखने के लिए घर में झंझट करते हैं, ऐसा नहीं होना चाहिए। अर्थात् अगर वह पहले बोले तो आपको एडजस्ट हो जाना चाहिए।

प्रश्नकर्ता : लेकिन पति को आठ बजे कहीं मीटिंग में जाना हो और पत्नी कहे कि, ‘अब सो जाइए’, तब फिर वह क्या करे?

दादाश्री : ऐसी कल्पनाएँ नहीं करनी हैं। कुदरत का नियम ऐसा है कि ‘व्हेर देयर इज़ ए विल, देयर इज़ ए वे’ (जहाँ चाह, वहाँ राह!) कल्पना करोगे तो बिगड़ेगा। उस दिन वे ही कहेंगी कि ‘आप जल्दी जाओ’, खुद गैरेज तक छोड़ने आएँगी, कल्पना करने से सब बिगड़ता है। इसीलिए एक पुस्तक में लिखा है, ‘व्हेर देयर इज़ विल, देयर इज़ वे’ इतना पालन करोगे तो बहुत हो गया। पालन करोगे न?

प्रश्नकर्ता : हाँ, जी।

(पृ.७)

दादाश्री : लो, प्रोमिस दो। अरे वाह! इसे कहते हैं शूरवीर! प्रोमिस दिया!

भोजन में एडजस्टमेन्ट

व्यवहार निभाना किसे कहेंगे कि जो ‘एडजस्ट एवरीव्हेर’ हो जाए! अब डेवेलपमेन्ट का ज़माना आया है। मतभेद नहीं होने देना। इसलिए अभी लोगों को मैंने सूत्र दिया है, ‘एडजस्ट एवरीव्हेर’! एडजस्ट, एडजस्ट, एडजस्ट। अगर कढ़ी खारी बनी तो समझ लेना कि दादा जी ने एडजस्टमेन्ट लेने को कहा है। फिर थोड़ी सी कढ़ी खा लेना। हाँ, अचार याद आए तो फिर मँगवा लेना कि ‘थोड़ा सा अचार ले आओ।’ लेकिन झगड़ा नहीं, घर में झगड़ा नहीं होना चाहिए। खुद अगर किसी जगह मुसीबत में फँस जाए, तब वहाँ खुद ही एडजस्टमेन्ट कर ले, तो भी संसार सुंदर लगेगा।

नहीं भाए तब भी निभाओ

तेरे साथ जो-जो डिसएडजस्ट होने आए, उसके साथ तू एडजस्ट हो जा। दैनिक जीवन में यदि सास-बहू के बीच या देवरानी-जेठानी के बीच डिसएडजस्टमेन्ट होता हो, तो जिसे इस संसार के घटनाचक्र से छूटना हो उसे एडजस्ट हो ही जाना चाहिए। पति-पत्नी में से यदि कोई एक दरार डाले, तो दूसरे को जोड़ लेना चाहिए, तभी संबंध निभेगा और शांति रहेगी। जिसे एडजस्टमेन्ट लेना नहीं आता, उसे लोग मेन्टल कहते हैं। इस रिलेटिव सत्य में आग्रह, ज़िद करने की ज़रा सी भी ज़रूरत नहीं है। ‘मनुष्य’ तो कौन है कि ‘जो एवरीव्हेर एडजस्टेबल हो जाए।’ चोर के साथ भी एडजस्ट हो जाना चाहिए।

सुधारें या एडजस्ट हो जाएँ?

अगर हर बात में हम सामने वाले के साथ एडजस्ट हो जाएँ

(पृ.८)

तो कितना सरल हो जाएगा! हमें साथ में क्या ले जाना है? कोई कहेगा कि, ‘भाई, बीवी को सीधा कर दो।’ ‘अरे, उसे सीधी करने जाएगा तो तू टेढ़ा हो जाएगा।’ इसलिए वाइफको सीधी करने मत बैठना, जैसी भी हो उसे करेक्ट कहना। उसके साथ आपका सदा का लेन-देन हो तो अलग बात है, यह तो एक जन्म, फिर न जाने कहाँ खो जाएगी। दोनों के मृत्युकाल अलग, दोनों के कर्म अलग! कुछ लेना भी नहीं है और देना भी नहीं! यहाँ से वह किसके पास जाएगी, उसका क्या ठिकाना? आप उसे सीधी करो और अगले जन्म में जाएगी किसी और के हिस्से में!

इसलिए न तो आप उसे सीधी करो और न ही वह आपको सीधा करे। जैसा भी मिला है, सोने जैसा है। प्रकृति किसी की कभी भी सीधी नहीं हो सकती। कुत्ते की दुम टेढ़ी की टेढ़ी ही रहती है। इसलिए आप सावधान रहकर चलो। जैसी है वैसी ठीक है, ‘एडजस्ट एवरीव्हेर’।

पत्नी तो है ‘काउन्टर वेट’

प्रश्नकर्ता : मैं वाइफ के साथ एडजस्ट होने की बहुत कोशिश करता हूँ, लेकिन एडजस्ट नहीं हो पाता।

दादाश्री : यह सब हिसाब के अनुसार है! टेढ़ा बोल्ट और टेढ़ी नट, वहाँ चाकी सीधी घुमाने से कैसे चलेगा? आपको ऐसा होता होगा कि ‘यह स्त्री जाति ऐसी क्यों है?’ लेकिन स्त्री जाति तो आपका ‘काउन्टर वेट’ है। जितना आपका दोष, उतनी वह टेढ़ी, इसीलिए तो हमने ऐसा कहा है न कि सब ‘व्यवस्थित’ है।

प्रश्नकर्ता : सभी हमें सीधा करने आए हैं, ऐसा लगता है।

दादाश्री : आपको सीधा तो करना ही चाहिए। सीधे हुए बगैर

(पृ.९)

दुनिया चलती नहीं न? अगर सीधा नहीं होगा तो फिर बाप कैसे बनेगा? जब सीधा होगा तभी बाप बनेगा। स्त्री जाति कुछ ऐसी है कि ‘वह नहीं बदलेगी, इसलिए हमें बदलना होगा। वह सहज जाति है, वह ऐसी नहीं है कि बदल जाए।’ ‘वाइफ’, वह क्या चीज़ है?

प्रश्नकर्ता : आप बताइए।

दादाश्री : वाइफ इज़ द काउन्टर वेट ऑफ मेन। यदि वह काउन्टर वेट नहीं होगा तो इंसान लुढ़क जाएगा।

प्रश्नकर्ता : यह समझ में नहीं आया।

दादाश्री : इंजन में काउन्टर वेट रखा जाता है, वर्ना इंजन चलते चलते लुढ़क जाएगा। इसी तरह मनुष्य का काउन्टर वेट स्त्री है। यानी स्त्री होगी तो लुढ़केगा नहीं। वर्ना दौड़-धूप करके भी कोई ठिकाना नहीं रहता। आज यहाँ तो कल कहाँ से कहाँ निकल गया होता। यह स्त्री है इसलिए वह घर लौटता है, वर्ना वह घर आता क्या?

प्रश्नकर्ता : नहीं आता।

दादाश्री : ‘स्त्री’ उसका काउन्टर वेट है।

टकराव, आखिर में अंत वाले

प्रश्नकर्ता : सुबह वाला टकराव दोपहर को भूल जाते हैं और शाम को फिर नया होता है।

दादाश्री : हम यह जानते हैं, कि टकराव किस शक्ति से होते हैं। वह उल्टा बोलती है, उसमें कौन सी शक्ति काम कर रही है? बोलने के बाद फिर ‘एडजस्ट’ हो जाते हैं, वह सब ज्ञान से समझ में आ सकता है। फिर भी संसार में ‘एडजस्ट’ होना है। क्योंकि प्रत्येक चीज़ अंत वाली होती है। और मान लो वह चीज़ लंबे अरसे तक

(पृ.१०)

चले फिर भी आप उसे ‘हेल्प’ नहीं करते, बल्कि ज़्यादा नुकसान पहुँचाते हो। आप अपना खुद का और सामने वाले का भी नुकसान कर रहे हो।

वर्ना प्रार्थना का ‘एडजस्टमेन्ट’

प्रश्नकर्ता : सामने वाले को समझाने के लिए मैंने अपना पुरुषार्थ किया, फिर वह समझे ना समझे, वह उसका पुरुषार्थ?

दादाश्री : अपनी ज़िम्मेदारी इतनी ही है कि हम उसे समझाएँ। फिर अगर वह नहीं समझे तो उसका उपाय नहीं है। फिर आप इतना कहना कि, ‘हे दादा भगवान! इसे सद्बुद्धि दीजिए’ इतना कहना चाहिए। उसे बीच में नहीं लटका सकते। यह कोई गप्प नहीं है। यह ‘दादा जी’ का ‘एडजस्टमेन्ट’ का विज्ञान है, ग़ज़ब का है यह ‘एडजस्टमेन्ट’। और जहाँ ‘एडजस्ट’ नहीं होते हो, वहाँ उसका स्वाद तो आता ही होगा आपको? ‘डिसएडजस्टमेन्ट’ ही मूर्खता है। क्योंकि वह समझता है कि ‘मैं अपना स्वामित्व नहीं छोडूँगा और मेरा ही वर्चस्व रहना चाहिए।’ ऐसा मानने पर सारी ज़िंदगी भूखा मरेगा और एक दिन थाली में ‘पोइज़न’ आ गिरेगा! सहजरूप से जो चलता है, उसे चलने दो! यह तो कलियुग है। वातावरण ही कैसा है?! इसलिए जब बीवी कहे कि, ‘आप नालायक हैं।’ तो कहना, ‘बहुत अच्छे’।

टेढ़ों के साथ एडजस्ट हो जाओ

प्रश्नकर्ता : व्यवहार में रहना है, इसलिए ‘एडजस्टमेन्ट’ एक पक्षीय तो नहीं होना चाहिए न?

दादाश्री : व्यवहार तो उसी को कहेंगे कि, एडजस्ट हो जाएँ ताकि पड़ोसी भी कहें कि ‘सभी घरों में झगड़े होते हैं, लेकिन इस

(पृ.११)

घर में झगड़ा नहीं है।’ उसका व्यवहार सर्वोत्तम कहलाएगा। जिसके साथ रास न आए, वहीं पर शक्तियाँ विकसित करनी हैं। अनुकूल है, वहाँ तो शक्ति है ही। प्रतिकूल लगना, वह तो कमज़ोरी है। मुझे सब के साथ क्यों अनुकूलता रहती है? जितने एडजस्टमेन्ट लोगे, उतनी शक्तियाँ बढ़ेंगी और अशक्तियाँ टूट जाएँगी। सही समझ तो तभी आएगी, जब सभी प्रकार की उल्टी समझ को ताला लग जाएगा।

नरम स्वभाव वालों के साथ तो हर कोई एडजस्ट होगा लेकिन अगर टेढ़े, कठोर, गर्म मिज़ाज लोगों के साथ, सभी के साथ एडजस्ट होना आ जाएगा तो काम बन जाएगा। कितना ही नंगा-लुच्चा इंसान क्यों न हो, फिर भी उसके साथ एडजस्ट होना आ जाए, दिमाग़ फिरे नहीं, तो वह काम का है। भड़क जाओगे तो नहीं चलेगा। संसार की कोई चीज़ हमें ‘फिट’ नहीं होगी, हम ही उसे ‘फिट’ हो जाएँ तो दुनिया सुंदर है और यदि उसे ‘फिट’ करने गए तो दुनिया टेढ़ी है। इसलिए ‘एडजस्ट एवरीव्हेर!’ आप उसे ‘फिट’ हो जाओ तो कोई हर्ज नहीं है।

डोन्ट सी लॉ, सेटल !

सामने वाला टेढ़ा हो फिर भी ‘ज्ञानी’ तो उसके साथ एडजस्ट हो जाते हैं। ‘ज्ञानीपुरुष’ को देखकर चलेगा तो सभी तरह के एडजस्टमेन्ट लेना सीख जाएगा। इसके पीछे का साइन्स क्या कहता है कि ‘वीतराग बन जाओ, राग-द्वेष मत करो।’ यह तो भीतर थोड़ी आसक्ति रह जाती है, इसलिए मार पड़ती है। व्यवहार में जो एकपक्षीय-निस्पृह हो चुके हों, वे टेढ़े कहलाते हैं। जब आपको ज़रूरत हो, तब सामने वाला यदि टेढ़ा हो, फिर भी उसे मना लेना चाहिए। स्टेशन पर मज़दूर की ज़रूरत हो और वह आनाकानी करे, फिर भी उसे चार आने ज़्यादा देकर मना लेना होगा और अगर नहीं मनाएँगे तो वह बैग हमें खुद ही उठाना पड़ेगा न!

(पृ.१२)

डोन्ट सी लॉज़, प्लीज़ सेटल। सामने वाले को सेटलमेन्ट लेने को कहना कि ‘आप ऐसा करो, वैसा करो’, ऐसा कहने के लिए वक्त ही कहाँ है? सामने वाले की सौ भूलें हों, फिर भी आपको तो यह कहकर आगे बढ़ जाना है कि ‘मेरी ही भूल है’। इस काल में लॉ थोड़े ही देखा जाता है? यह तो आखिरी हद तक पहुँच चुका है। जहाँ देखें वहाँ भागदौड़, भागम्भाग! लोग उलझ गए हैं। घर जाए तो वाइफकी शिकायतें, बच्चों की शिकायतें, नौकरी पर जाए तो सेठ जी की शिकायतें, रेल में जाए तो भीड़ में धक्के खाता है। कहीं भी चैन नहीं। चैन तो होना चाहिए न? कोई लड़ पड़े तो उस पर दया आनी चाहिए कि ‘अरे, इसे कितना तनाव होगा कि लड़ पड़ा!’ जो चिढ़ जाएँ, वे सभी कमज़ोर हैं।

शिकायत? नहीं, ‘एडजस्ट’

ऐसा है न, घर में भी ‘एडजस्ट’ होना आना चाहिए। आप सत्संग से देर से घर जाओ तो घर वाले क्या कहेंगे? ‘थोड़ा-बहुत तो समय का ध्यान रखना चाहिए न?’ तब हम जल्दी घर जाएँ तो उसमें क्या गलत है? जब बैल नहीं चलते हैं तब तेली उसे आर चुभोता है, इसके बजाय तो वह आगे चलता रहे तो तेली उसे आर नहीं चुभोएगा न! वर्ना तेली आर चुभोएगा और इसे चलना पड़ेगा। चलना तो पड़ेगा न? आपने देखा है ऐसा? आर जिसमें आगे कील होती है, वह चुभोते हैं, गूंगा प्राणी क्या करे? वह किससे शिकायत करे?

इन लोगों को यदि कोई आर चुभो दे तो उन्हें बचाने दूसरे लोग निकल आएँगे, लेकिन वह गूंगा प्राणी किसे शिकायत करे? अब उसे ऐसा मार खाने का वक्त क्यों आया? क्योंकि पहले बहुत शिकायतें की थीं। उसका यह परिणाम आया है। उस समय जब सत्ता में आया था, तब शिकायतें ही शिकायतें की थीं। अब सत्ता में नहीं है, इसलिए शिकायत किए बगैर रहना है। इसलिए अब

(पृ.१३)

‘प्लस-माइनस’ कर दो। इसके बजाय फरियादी ही मत बनना। उसमें क्या गलत है? फरियादी बनेंगे तभी मुजरिम बनने का वक्त आएगा न? हमें तो मुजरिम भी नहीं बनना है और फरियादी भी नहीं बनना है न! सामने वाला गाली दे, तो उसे जमा कर लेना। फरियादी बनना ही नहीं है न! आपको क्या लगता है? फरियादी बनना ठीक है? लेकिन उसके बजाय पहले से ही ‘एडजस्ट’ हो जाएँ, तो क्या गलत है?

उल्टा बोल लेने के बाद

व्यवहार में ‘एडजस्टमेन्ट’ लेना, उसे इस काल में ‘ज्ञान’ कहा है। हाँ, एडजस्टमेन्ट लेना, एडजस्टमेन्ट टूट रहा हो तब भी एडजस्ट कर लेना। आपने उसे भला-बुरा बोल दिया। अब बोलना, यह आपके बस की बात नहीं है। आपके मुँह से कभी निकल जाता है या नहीं? बोल तो दिया,लेकिन बाद में तुरंत ही पता तो चल जाता है कि ‘गलती हो गई।’ पता चले बगैर नहीं रहता, लेकिन उस समय हम एडजस्ट करने नहीं जाते। बाद में तुरंत उसके पास जाकर कहना चाहिए कि, ‘भाई, मेरे मुँह से उस वक्त भला-बुरा निकल गया था, मेरी भूल हो गई, इसलिए क्षमा करना!’ तो एडजस्टमेन्ट हो गया। इसमें कोई हर्ज है?

प्रश्नकर्ता : नहीं, कोई हर्ज नहीं है।

हर जगह एडजस्टमेन्ट

प्रश्नकर्ता : कई बार ऐसा होता है कि एक ही समय में दो व्यक्तियों के साथ एक ही बात पर ‘एडजस्टमेन्ट’ लेना हो, तो उस समय दोनों के साथ कैसे एडजस्टमेन्ट ले पाएँ?

दादाश्री : दोनों के साथ (एडजस्टमेन्ट) ले सकते हैं। अरे, सात लोगों के साथ लेना हो तो भी लिया जा सकता है। जब एक

(पृ.१४)

पूछे कि, ‘मेरा क्या किया?’ तब कहो, ‘हाँ, भाई, आपके कहे मुताबिक करूँगा।’ दूसरे को भी ऐसा कहना कि, ‘आप कहेंगे वैसा ही करेंगे।’ ‘व्यवस्थित’ से बाहर होने वाला नहीं है। इसलिए कुछ भी करके झगड़ा मत होने देना। मुख्य चीज़ ‘एडजस्टमेन्ट’ है। ‘हाँ’ से मुक्ति है। हमने ‘हाँ’ कहा, फिर भी ‘व्यवस्थित’ से बाहर कुछ होने वाला है? लेकिन ‘नहीं’ कहा तो महा-उपाधि!

घर में पति-पत्नी दोनों निश्चय करें कि मुझे ‘एडजस्ट’ होना है, तो दोनों का हल आ जाएगा। वह ज़्यादा खींचतान करे, तब हम ‘एडजस्ट’ हो जाएँगे तो हल निकल आएगा। एक आदमी का हाथ दु:ख रहा था, लेकिन उसने किसी को नहीं बताया, और दूसरे हाथ से उस हाथ को दबाकर ‘एडजस्ट’ कर लिया! इस प्रकार ‘एडजस्ट’ हो जाएँगे तो हल आएगा। यदि ‘एडजस्ट एवरीव्हेर’ नहीं हुए तो सभी पागल हो जाओगे। सामने वालों को छेड़ते रहे, इसी वजह से पागल हुए हैं। कुत्ते को एक बार छेड़ें, दो बार, तीन बार छेड़ें, तब तक वह हमारा लिहाज करेगा, लेकिन फिर बार-बार छेड़ते रहेंगे तो वह भी हमें काट लेगा। वह भी समझ जाएगा कि ‘यह रोज़ाना छेड़ता है, यह नालायक है, बेहया है।’ यह समझने जैसा है। ज़रा सी भी झंझट ही नहीं करनी है, ‘एडजस्ट एवरीव्हेर’।

जिसे ‘एडजस्ट’ होने की कला आ गई, वह दुनिया से ‘मोक्ष’ की ओर मुड़ गया। ‘एडजस्टमेन्ट’ हो गया, वही ज्ञान है। जो ‘एडजस्टमेन्ट’ सीख गया, वह पार उतर गया। जो भुगतना है, वह तो भुगतना ही है। लेकिन जिसे ‘एडजस्टमेन्ट’ लेना आ जाएगा, उसे तकलीफ नहीं होगी, हिसाब साफ हो जाएगा। कभी लुटेरे मिल जाएँ, तब उनके साथ डिसएडजस्ट होंगे तो वे मारेंगे। उसके बजाय हम तय करें कि उनसे ‘एडजस्ट’ होकर काम लेना है। फिर उनसे पूछें कि, ‘भाई, तुम्हारी क्या इच्छा है? देख भाई, हम तो यात्रा पर निकले हैं।’ (इस प्रकार) उनके साथ ‘एडजस्ट’ हो जाना है।

(पृ.१५)

पत्नी ने खाना बनाया हो और अगर उसमें गलती निकाले तो वह ब्लन्डर है। ऐसी गलती नहीं निकालनी चाहिए। ऐसे बात करता है मानो खुद कभी गलती ही नहीं करता है। हाउ टू एडजस्ट? एडजस्टमेन्ट लेना चाहिए। जिसके साथ हमेशा रहना है, क्या उसके साथ एडजस्टमेन्ट नहीं लेना चाहिए? अगर खुद से किसी को दु:ख पहुँचे, तो वह भगवान महावीर का धर्म कैसे कहलाएगा? और घर के लोगों को तो कभी भी दु:ख होना ही नहीं चाहिए।

घर एक बग़ीचा

एक व्यक्ति मुझसे कहने लगा कि, ‘दादा जी, मेरी बीवी घर में ऐसा करती है, वैसा करती है।’ तब मैंने उसे कहा कि आपकी पत्नी से पूछेंगे तो वह क्या कहेगी कि ‘मेरा पति ही कमअक़्ल है।’ अब इसमें आप सिर्फ अपने लिए ही न्याय क्यों खोजते हो? तब उस व्यक्ति ने कहा कि, ‘मेरा घर तो बिल्कुल बिगड़ गया है, बच्चे बिगड़ गए हैं, बीवी बिगड़ गई है।’ मैंने कहा, ‘कुछ भी नहीं बिगड़ा है।’ आपको वह ‘देखना’ नहीं आता है। आपको अपना घर ‘देखना’ आना चाहिए। हर एक की प्रकृति को पहचानना आना चाहिए।

घर में एडजस्टमेन्ट नहीं हो पाता, उसकी वजह क्या है? परिवार में ज़्यादा सदस्य हों, उन सब के साथ ताल-मेल नहीं रहता। फिर बात का बतंगड़ बन जाता है। वह किसलिए? लोगों का स्वभाव, एक जैसा नहीं होता। जैसा युग होता है, वैसा स्वभाव हो जाता है। सतयुग में आपसी मेल होता था। घर में सौ सदस्य हों, फिर भी सब दादा जी के कहे अनुसार चलते थे और इस कलियुग में तो अगर दादा जी

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कुछ कहें तो उन्हें बड़ी-बड़ी गालियाँ सुनाते हैं। पिता कुछ कहे तो पिता को भी वैसा ही सुनाते हैं।

अब इंसान तो इंसान ही है, लेकिन आपको पहचानना नहीं आता। घर में पचास लोग हों, लेकिन आपको पहचानना नहीं आया, इसलिए बखेड़ा होता रहता है। उन्हें पहचानना तो चाहिए न! अगर घर में एक व्यक्ति किच-किच करता रहता है तो वह तो उसका स्वभाव ही है। इसलिए आपको एक बार में समझ लेना चाहिए कि ‘यह ऐसा है’। आप सचमुच पहचान जाते हो कि ‘यह ऐसा ही है?’ फिर आगे उसमें कुछ जाँच करने की ज़रूरत है क्या? पहचान ने के बाद आपको जाँच करने की कोई ज़रूरत नहीं रहती। कुछ लोगों को रात को देर से सोने की आदत होती है और कुछ लोगों को जल्दी सोने की आदत होती है, तो उन दोनों का मेल कैसे बैठेगा? और अगर परिवार में सभी सदस्य साथ रहते हों तो क्या होगा? घर में एक व्यक्ति ऐसा कहने वाला निकले कि ‘आप कमअक़्ल हैं’, तब आपको ऐसा समझ लेना चाहिए कि यह ऐसा ही कहेगा। इसलिए आपको एडजस्ट हो जाना चाहिए। इसके बजाय अगर आप उसे जवाब दोगे तो थक जाओगे। क्योंकि वह तो आप से टकराया, लेकिन आप भी उससे टकराएँगे तो ऐसा प्रमाणित हो जाएगा न कि आपकी भी आँखे नहीं है? मैं कहना चाहता हूँ कि ‘प्रकृति का साइन्स जानो’। बाकी, आत्मा तो अलग वस्तु है।

अलग-अलग हैं, बगीचे के फूलों के रंग व सुगंध

आपका घर तो बगीचा है। सतयुग, त्रेता और द्वापर युग में घर खेतों के समान होते थे। किसी खेत में सिर्फ गुलाब ही होते थे तो किसी खेत में सिर्फ चंपा। आजकल घर एक बगीचे जैसा हो गया है। इसलिए क्या हमें ऐसी जाँच नहीं करनी चाहिए कि यह मोगरा है या

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गुलाब? सतयुग में क्या था कि एक घर में अगर एक गुलाब है तो सभी गुलाब और दूसरे घर में एक मोगरा है तो घर के सभी मोगरे। ऐसा था। एक परिवार में सभी गुलाब के पौधे, एक खेत की तरह, इसलिए दिक्कत नहीं होती थी और आजकल तो बगीचे जैसा हो गया है। एक ही घर में एक गुलाब जैसा, दूसरा मोगरे जैसा। इसलिए गुलाब चिल्लाता है कि ‘तू मेरे जैसा क्यों नहीं है? तेरा रंग देख कैसा सफेद, मेरा रंग कितना सुंदर है!’ तब मोगरा कहता है कि ‘तुझमें तो सिर्फ काँटे हैं’। अब अगर गुलाब है तो काँटे होंगे और मोगरा होगा तो काँटे नहीं होंगे। मोगरे का फूल सफेद होगा, गुलाब का फूल गुलाबी होगा, लाल होगा। इस कलियुग में एक ही घर में अलग-अलग पौधे होते हैं। यानी कि घर बगीचे जैसा हो गया है। लेकिन अगर देखना ही नहीं आता तो उसका क्या हो सकता है? उससे दु:ख ही होगा न! जगत् के पास यह देखने की दृष्टि ही नहीं है। बाकी, कोई भी खराब नहीं है। ये मतभेद तो खुद के अहंकार की वजह से हैं। जिन्हें देखना नहीं आता है, उन्हें अहंकार है। मुझे अहंकार नहीं है, इसलिए मुझे सारे संसार में किसी से मतभेद ही नहीं होता है। मुझे देखना आता है कि यह ‘गुलाब’ है, यह ‘मोगरा’ है, यह ‘धतूरा’ है, यह कड़वी ‘कुँदरू’ का फूल है। ऐसा सब मैं पहचानता हूँ। यानी बगीचे जैसा हो गया है। यह तो तारीफ के लायक हुआ न? आपको क्या लगता है?

प्रश्नकर्ता : ठीक है।

दादाश्री : ऐसा है न कि प्रकृति नहीं बदलती। वह तो वही का वही माल है, वह नहीं बदलती है। हम प्रत्येक प्रकृति को जान चुके हैं, इसलिए तुरंत पहचान लेते हैं। इसलिए हम हर एक के साथ उसकी प्रकृति के अनुसार रहते हैं। अगर हम सूर्य के साथ दोपहर बारह बजे दोस्ती करेंगे तो क्या होगा? इस प्रकार यदि हम समझ लेंगे

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कि यह ग्रीष्म का सूर्य है, यह जाड़े का सूर्य है, ऐसा सब समझ लेंगे तो क्या फिर कठिनाई होगी?

हम प्रकृति को पहचानते हैं, इसलिए आप टकराना चाहो तो भी मैं टकराने नहीं दूँगा, मैं खिसक जाऊँगा। वर्ना दोनों का एक्सिडेन्ट हो जाएगा और दोनों के स्पेयरपार्टस टूट जाएँगे। किसी का बंपर टूट जाए तो भीतर बैठे हुए की क्या हालत होगी? बैठने वाले की तो दुर्दशा हो जाएगी न! इसलिए प्रकृति को पहचानो। घर में सभी की प्रकृतियों को पहचान लेना है।

इस कलियुग में प्रकृति खेत जैसी नहीं है, बगीचे जैसी है। एक चंपा, दूसरा गुलाब, मोगरा, चमेली वगैरह। इसलिए सभी फूल लड़ते हैं। एक कहेगा कि मेरा ऐसा है, तो दूसरा कहेगा कि मेरा ऐसा है। तब एक कहेगा कि ‘तुझमें काँटे हैं, चला जा, तेरे साथ कौन खड़ा रहेगा?’ ऐसे झगड़े चलते रहते हैं।

काउन्टरपुली की करामात

हमें पहले अपना मत नहीं रखना चाहिए। सामने वाले से पूछना चाहिए कि इसके बारे में आप क्या कहना चाहते हैं? अगर सामने वाला अपनी बात पर अड़ा रहे, तो मैं अपनी बात छोड़ देता हूँ। हमें तो यही देखना है कि कैसे भी करके सामने वाले को दु:ख न हो। अपना अभिप्राय सामने वाले पर नहीं थोपना है। हमें सामने वाले का अभिप्राय लेना चाहिए। हम तो सभी के अभिप्राय लेकर ‘ज्ञानी’ बने हैं। यदि मैं अपना अभिप्राय किसी पर थोपने जाऊँगा तो मैं ही कच्चा पड़ जाऊँगा। अपने अभिप्राय से किसी को दु:ख नहीं होना चाहिए।

आपके ‘रिवोल्यूशन’ अठारह सौ हों और सामने वाले के छ: सौ हों और अगर आप अपना अभिप्राय उस पर थोप दोगे, तो उसका ‘इंजन’ टूट जाएगा। उसके सारे ‘गीयर’ बदलने पड़ेंगे।

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प्रश्नकर्ता : ‘रिवोल्यूशन’ का मतलब क्या है?

दादाश्री : यह जो सोचने की स्पीड है, वह हर एक की अलग-अलग होती है। कुछ घटित हो जाए तो मन एक मिनट में तो कितना ही दिखा देता है, उसके सारे पर्याय ‘एट ए टाइम’ दिखा देता है। इन बड़े-बड़े प्रेसिडन्ट के एक मिनट के बारह सौ ‘रिवोल्यूशन’ घूमते हैं, हमारे पाँच हजार घूमते हैं और भगवान महावीर के लाख ‘रिवोल्यूशन’ घूमते थे!

मतभेद होने का कारण क्या है? आपकी पत्नी के सौ ‘रिवोल्यूशन’ हों और आपके पाँच सौ ‘रिवोल्यूशन’ हों और आपको बीच में ‘काउन्टर पुली’ डालना नहीं आता है, इसलिए चिनगारियाँ निकलती हैं और झगड़े होते हैं। अरे! कभी-कभी तो ‘इंजन’ भी टूट जाता है। ‘रिवोल्यूशन’ समझे आप? आप इस मज़दूर से बात करते हो तो आपकी बात उस तक नहीं पहुँचती क्योंकि उसके ‘रिवोल्यूशन’ पचास और आपके पाँच सौ हैं। किसी के हज़ार होते हैं, किसी के बारह सौ होते हैं, जैसा जिसका डेवेलपमेन्ट होता है, उसके अनुसार ‘रिवोल्यूशन’ होते हैं। जब आप बीच में ‘काउन्टर पुली’ डालोगे, तभी आपकी बात उस तक पहुँचेगी। ‘काउन्टर पुली’ यानी आपको बीच में पट्टा डालकर आपके रिवोल्यूशन घटाने पड़ेंगे। मैं हर एक व्यक्ति के साथ ‘काउन्टर पुली’ डाल देता हूँ। ऐसा नहीं है कि सिर्फ अहंकार निकाल देने से ही काम हो जाएगा। ‘काउन्टर पुली’ भी हर एक के साथ डालनी पड़ती है। इसी कारण मेरा किसी से मतभेद ही नहीं होता न! मैं जानता हूँ कि इस भाई के इतने ही ‘रिवोल्यूशन’ हैं। इसलिए उसके अनुसार मैं ‘काउन्टर पुली’ डाल देता हूँ। मेरा तो छोटे बच्चे के साथ भी बहुत जमता है। क्योंकि मैं उसके साथ चालीस रिवोल्यूशन लगाकर बात करता हूँ। इससे मेरी बात उस तक पहुँचती है, वर्ना वह ‘मशीन’ टूट जाएगी।

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प्रश्नकर्ता : कोई भी सामने वाले के लेवल पर आ जाए, तभी बात हो सकती है?

दादाश्री : हाँ, जब उसके रिवोल्यूशन पर आ जाएगा तभी बात हो सकेगी। आपके साथ बातचीत करते हुए हमारे रिवोल्यूशन कहाँ से कहाँ तक घूम आए! सारी दुनिया घूम आते हैं! आपको ‘काउन्टर पुली’ डालना नहीं आता, उसमें कम ‘रिवोल्यूशन’ वाले इंजन का क्या दोष है? वह तो आपका दोष है कि आपको ‘काउन्टर पुली’ डालना नहीं आया!

सीखो फ्यूज़ लगाना

इतना ही पहचान लेना है कि यह ‘मशीनरी’ कैसी है! उसका ‘फ्यूज़’ उड़ जाए तो किस प्रकार फ्यूज़ लगाना है। सामने वाले की प्रकृति से ‘एडजस्ट’ होना आना चाहिए। अगर सामने वाले का ‘फ्यूज़’ उड़ जाता है, तब भी हमारा तो एडजस्टमेन्ट रहता है। लेकिन अगर सामने वाले का ‘एडजस्टमेन्ट’ टूट जाएगा तो क्या होगा? ‘फ्यूज़’ उड़ गया, फिर तो वह दीवार से टकराएगा, दरवाज़े से टकराएगा, लेकिन तार नहीं टूटा है, कनेक्शन नहीं टूटा है। इसलिए अगर कोई फ्यूज़ लगा दे तो फिर सब ठीक हो जाएगा, वर्ना तब तक वह उलझता रहेगा।

जीवन छोटा और धांधली ज़्यादा

सब से बड़ा दु:ख क्या है? ‘डिसएडजस्टमेन्ट’। वहाँ ‘एडजस्ट एवरीव्हेर’ कर लें तो क्या हर्ज है?

प्रश्नकर्ता : उसमें तो पुरुषार्थ चाहिए।

दादाश्री : कोई पुरुषार्थ नहीं चाहिए। अगर मेरी आज्ञा का पालन करेगा कि दादा जी ने कहा है कि ‘एडजस्ट एवरीव्हेर’, तो ‘एडजस्ट’ होता रहेगा। बीवी कहे कि, ‘तुम चोर हो’। तो कहना कि ‘यू आर करेक्ट।’ अगर बीवी डेढ़ सौ की साड़ी लाने को कहे, तो आप पच्चीस रुपए ज़्यादा देना तो फिर छ: महीने तक तो चलेगा!

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ऐसा है, ब्रह्माजी के एक दिन जितनी हमारी सारी ज़िंदगी है! ब्रह्माजी के एक दिन के बराबर जीवन और यह क्या धांधली? यदि हमें ब्रह्माजी के सौ साल जीना होता तब तो समझे कि, ‘ठीक है। एडजस्ट क्यों हों?’ कहेंगे कि ‘दावा कर’। लेकिन यह तो जल्दी निपटाना है, इसमें क्या करना चाहिए? ‘एडजस्ट’ हो जाएँगे या फिर कहेंगे ‘दावा कर’? लेकिन यह तो एक ही दिन है, यह तो जल्दी निपटाना है। जो कार्य जल्दी निपटाना हो, उसके लिए क्या करना पड़ेगा? ‘एडजस्ट’ होकर छोटा कर देना, वर्ना बढ़ता जाएगा या नही? बीवी के साथ लड़ने के बाद रात को नींद आएगी क्या? और सुबह अच्छा नाश्ता भी नहीं मिलेगा।

अपनाओ ज्ञानी की ज्ञानकला!

किसी दिन वाइफ कहे, ‘मुझे वह साड़ी नहीं दिलवाओगे? मुझे वह साड़ी दिलवानी पड़ेगी।’ तब पति पूछता है, ‘तूने किस क़ीमत की साड़ी देखी थी?’ तब वाइफ कहती है, ‘बाईस सौ की है, ज़्यादा नहीं है।’ तब वह कहता है, ‘तुम बाईस सौ की कहती हो लेकिन मैं अभी रुपए लाऊँ कैसे? अभी पैसों का जुगाड़ नहीं है, दो सौ-तीन सौ की होती तो दिलवा देता, लेकिन तुम बाईस सौ कह रही हो।’ वह रूठकर बैठी रहेगी। अब क्या दशा होगी फिर! मन में ऐसा भी होता है कि ‘अरे, इससे तो शादी नहीं की होती तो अच्छा था।’ शादी के बाद पछताएँ, तो वह किस काम का? अर्थात् ऐसे दु:ख हैं।

प्रश्नकर्ता : आप ऐसा कहना चाहते हैं कि बीवी को बाईस सौ की साड़ी दिलवा देनी चाहिए?

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दादाश्री : दिलवाना या नहीं दिलवाना, वह आप पर निर्भर करता है। रूठकर अगर रोज़ रात को कहे कि ‘खाना नहीं बनाऊँगी’, तब आप क्या करोगे? बावर्ची कहाँ से लाओगे? तो फिर कर्ज़ लेकर भी साड़ी दिलवानी पड़ेगी न?

आप कुछ ऐसा कर दो कि वह खुद ही साड़ी नहीं लाए। यदि आपको महीने के आठ हज़ार रुपए मिलते हैं, तो आप हज़ार रुपए अपने जेबखर्च के लिए रखकर सात हज़ार रुपए उन्हें दे देना। फिर क्या वह हमसे कहेगी कि साड़ी दिलवाइए? बल्कि कभी आप मज़ाक करना कि ‘वह साड़ी बहुत अच्छी है, क्यों नहीं लातीं?’ उसका प्रबंध उसे खुद ही करना होगा। यदि हमें प्रबंध करना हो, तब वह हम पर ज़ोर चलाएगी। यह सारी कला मैंने ‘ज्ञान’ होने से पहले सीख ली थी। बाद में ‘ज्ञानी’ बना। सभी कलाएँ मेरे पास आ गईं, तब मुझे ‘ज्ञान’ हुआ। अब बोलो, यह कला नहीं है, इसीलिए ये दु:ख हैं न! आपको क्या लगता है?

प्रश्नकर्ता : हाँ, ठीक है।

दादाश्री : यह आपकी समझ में आया? इसमें भूल तो हमारी ही है न? कला आती, इसी वजह से न! कला सीखने की ज़रूरत है।

क्लेश का मूल कारण : अज्ञानता

प्रश्नकर्ता : लेकिन क्लेश होने का कारण क्या है? स्वभाव नहीं मिलता, इसलिए?

दादाश्री : अज्ञानता की वजह से। संसार का मतलब ही यह है कि ‘किसी का स्वभाव किसी से मिलता ही नहीं।’ यह ज्ञान मिले, उसके लिए एक ही रास्ता है, ‘एडजस्ट एवरीव्हेर’! अगर कोई आपको मारे तो भी आप उसे ‘एडजस्ट’ हो जाना।

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हम यह सरल और सीधा रास्ता बता देते हैं। और यह टकराव क्या रोज़-रोज़ होते हैं? वे तो जब अपने कर्मों का उदय होता है, तभी होते हैं, उस समय हमें ‘एडजस्ट’ हो जाना है। घर में पत्नी के साथ झगड़ा हो जाए तो उसके बाद उसे होटल ले जाकर, खाना खिलाकर खुश कर देना। अब तंत नहीं रहना चाहिए।

दादा जी, पूर्णत : एडजस्टेबल

एक बार कढ़ी अच्छी बनी थी लेकिन नमक थोड़ा ज़्यादा था। फिर मुझे लगा कि इसमें नमक थोड़ा ज़्यादा है, लेकिन ज़रा सी खानी तो पड़ेगी ही न! इसलिए फिर जब हीराबा (दादा जी की पत्नी) अंदर गए, तब मैंने थोड़ा पानी मिला दिया। उन्होंने वह देख लिया उन्होंने कहा, ‘यह क्या किया?’ मैंने कहा, ‘आप चूल्हे पर रखकर पानी डालती हैं, मैंने यहाँ नीचे रखकर डाल दिया।’ तब उन्होंने कहा, ‘लेकिन मैं तो पानी डालकर उसे उबाल देती हूँ’। मैंने कहा, ‘मेरे लिए दोनों समान हैं।’ मुझे तो काम से काम है न!

अगर आप ग्यारह बजे मुझसे कहते हैं कि, ‘आपको भोजन कर लेना होगा।’ मैं कहूँ कि, ‘थोड़ी देर के बाद खाऊँगा तो नहीं चलेगा?’ तब अगर आप कहो कि, ‘नहीं, भोजन कर लोगे, तो काम पूरा हो जाएगा।’ तो मैं तुरंत ही भोजन करने बैठ जाऊँगा। मैं आपसे ‘एडजस्ट’ हो जाऊँगा।

जो भी थाली में आए वह खा लेना। जो सामने आया, वह संयोग है और भगवान ने कहा है कि ‘यदि संयोग को धक्का मारेगा तो वह धक्का तुझे लगेगा।’ इसलिए यदि हमारी थाली में हमें नहीं भातीं, ऐसी चीज़ें रखी हों, तो भी उनमें से दो चीज़ें खा लेते हैं। नहीं खाएँगे, तो दो के साथ झगड़ा होगा। एक तो, जिसने पकाया हो उसके साथ झंझट होगी, तिरस्कार होगा और दूसरा, खाने की चीज़ के साथ। खाने की चीज़ कहेगी कि, ‘मैंने क्या गुनाह किया है? मैं तेरे पास आई हूँ, तू मेरा अपमान क्यों कर रहा है? तुझे ठीक लगे उतना ले,

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लेकिन मेरा अपमान मत करना।’ अब क्या हमें उसे मान नहीं देना चाहिए? हमें तो अगर कोई ऐसी चीज़ दे जाए जो नहीं भाती हो, तब भी हम उसे मान देते हैं। क्योंकि एक तो, यों ही कुछ नहीं मिलता, और यदि मिले तो उसे मान देना पड़ता है। आपको कोई खाने की चीज़ दी और आप उसमें दोष निकालो तो उससे सुख घटेगा या बढ़ेगा? जिससे सुख घटता हो ऐसा व्यापार ही नहीं करना चाहिए न! कई बार सब्ज़ी मेरी रुचि की नहीं होती, फिर भी मैं तो खा लेता हूँ और ऊपर से तारीफ करता हूँ कि आज की सब्ज़ी बहुत अच्छी है। अरे, कई बार तो चाय में शक्कर नहीं होती थी न, फिर भी हमने कुछ नहीं कहा। तब लोग कहते थे कि, ‘ऐसा करेंगे न, तो घर में सबकुछ बिगड़ जाएगा।’ मैंने कहा कि, ‘आप कल देखना न! क्या होता है?’ तब फिर दूसरे दिन उन्होंने (हीरा बा) कहा कि, ‘कल चाय में शक्कर नहीं थी, फिर भी आपने हमें बताया नहीं?’ मैंने कहा कि, ‘मुझे बताने की क्या ज़रूरत थी? आपको पता चलेगा न! आप नहीं पीतीं तो मुझे कहने की ज़रूरत पड़ती। आप पीती हो तो फिर मुझे कहने की क्या ज़रूरत?!’

प्रश्नकर्ता : लेकिन कितनी जागृति रखनी पड़ती है, प्रति क्षण!

दादाश्री : प्रति क्षण, चौबीसों घंटे जागृति, उसके बाद इस ‘ज्ञान’ की शुरुआत हुई। यह ‘ज्ञान’ यों ही नहीं हो गया! अर्थात् पहले से ही इस प्रकार से सब ‘एडजस्टमेन्ट’ लिए थे। हो सके, तब तक क्लेश नहीं होने दिया।

एक बार जब हम नहाने गए, तब गिलास रखना भूल गए थे। अब यदि एडजस्टमेन्ट नहीं करें तो हम ज्ञानी कैसे? हम एडजस्ट कर लेते हैं। हाथ डाला तो पानी बहुत गरम! नल खोला तो टँकी खाली! फिर हम तो धीरे-धीरे हाथ से पानी चुपड़-चुपड़कर ठंडा करके नहाए। सभी महात्माओं ने कहा कि, ‘आज दादा जी को नहाने में बड़ी देर

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लगी।’ तो क्या करते? पानी ठंडा होता तब न? हम किसी से भी ऐसा नहीं कहते हैं कि ‘यह लाओ और वह लाओ’। एडजस्ट हो जाते हैं। एडजस्ट हो जाना, वही धर्म है। इस दुनिया में तो प्लस-माइनस का एडजस्टमेन्ट करना पड़ता है। माइनस हो वहाँ प्लस और प्लस हो वहाँ माइनस करना पड़ता है। यदि कोई हमारी समझदारी को भी पागलपन कहे तो हम कहेंगे, ‘हाँ, ठीक है।’ तुरंत उसे माइनस कर देते हैं।

जिसे एडजस्ट होना नहीं आया, उस इंसान को इंसान कैसे कहेंगे? जो संयोगों के वश होकर एडजस्ट हो जाएगा, उस घर में कुछ भी झंझट नहीं होगी। हम भी हीराबा से एडजस्ट होते आए थे न! उनसे लाभ उठाना हो तो एडजस्ट हो जाओ। यह तो फायदा भी किसी चीज़ का नहीं और बैर बाँधेगे, वह अलग। क्योंकि प्रत्येक जीव स्वतंत्र है और खुद सुख खोजने आया है। वह दूसरों को सुख देने नहीं आया है। अब, उसे सुख के बजाय दु:ख मिले तो बैर बाँधता है। फिर चाहे वह बीवी हो या बेटा हो।

प्रश्नकर्ता : सुख खोजने आए और दु:ख मिले तो फिर बैर बाँधता है?

दादाश्री : हाँ, वह तो फिर भाई हो या बाप हो, लेकिन अंदर ही अंदर उस बात का बैर बाँधता है। यह सारी दुनिया ऐसी है, बैर ही बाँधती है! स्वधर्म में किसी से बैर नहीं होता है।

प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में कुछ प्रिन्सिपल (सिद्धांत) तो होने ही चाहिए। फिर भी संयोगानुसार वर्तन करना चाहिए। जो संयोगों के साथ एडजस्ट हो जाए, वही मनुष्य कहलाता है। यदि प्रत्येक संयोग में एडजस्टमेन्ट लेना आ जाए तो यह ऐसा ग़ज़ब का हथियार है कि ठेठ मोक्ष में पहुँचा जा सकता है।

ये दादा जी सूक्ष्म सूझ-बूझ वाले भी हैं, किफायती भी हैं और

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उदार भी हैं। पूर्णतया उदार हैं। फिर भी ‘कम्प्लीट एडजस्टेबल’ हैं। दूसरों के लिए उदार, खुद के लिए किफायती और उपदेश के लिए सूक्ष्म सूझ-बूझ वाले। इसलिए सामने वाले को हमारा व्यवहार गहरी सूझ-बूझ वाला दिखाई देता है। हमारी इकॉनोमी एडजस्टेबल होती है, टॉपमोस्ट होती हैं। हम तो पानी का उपयोग भी किफायत से करते हैं। हमारे प्राकृत गुण सहज भाव वाले हैं।

वर्ना व्यवहार की गुत्थी अटकाएगी

पहले व्यवहार सीखना है। व्यवहार की समझ के बिना तो लोग तरह-तरह की मार खाते हैं।

प्रश्नकर्ता : आपकी अध्यात्म से संबंधित बातों के बारे में तो क्या कहना, लेकिन व्यवहार में भी आपकी बातें ‘टॉप’ की है।

दादाश्री : ऐसा है न, कि व्यवहार में ‘टॉप’ का समझे बिना कोई मोक्ष में नहीं गया। कितना भी क़ीमती, बारह लाख का आत्मज्ञान हो, लेकिन व्यवहार छोड़ देगा क्या?! वह नहीं छोड़ेगा तो आप क्या करोगे? आप तो ‘शुद्धात्मा’ हो ही, लेकिन व्यवहार छोड़े तब न? आप व्यवहार को उलझाते रहते हो। झटपट हल लाओ न?

अगर इनसे कहा हो कि, ‘जा, दुकान से आइस्क्रीम ले आ।’ लेकिन आधे रास्ते से वापस आता है। हम पूछें, ‘क्यों?’ तो वह कहता है कि, ‘रास्ते में गधा मिल गया, अपशकुन हो गए!’ अब, उसे ऐसा उल्टा ज्ञान हो गया है, वह हमें निकाल देना चाहिए न? उसे समझाना चाहिए कि ‘भाई, गधे में भी भगवान विराजे हुए हैं, इसलिए कोई अपशकुन नहीं है। तू गधे का तिरस्कार करेगा तो वह उसके भीतर विराजे भगवान को पहुँचेगा। तुझे इसका भारी दोष लगेगा। फिर से ऐसा नहीं होना चाहिए।’ इस प्रकार उल्टा ज्ञान हुआ है, उसकी वजह से लोग एडजस्ट नहीं हो पाते हैं।

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उल्टे को सुल्टाए, वह समकिती

समकिती की निशानी क्या है? वह यह है कि, घर के सभी लोग कुछ भी उल्टा कर दें, फिर भी वह सही कर देता है। प्रत्येक बात में सीधा ही करना, यह समकिती की निशानी है। हमने इस संसार की बहुत सूक्ष्म खोजबीन की है। अंतिम प्रकार की खोजबीन के पश्चात् हम ये सब बातें कर रहे हैं। व्यवहार में कैसे रहना चाहिए, वह भी देते हैं और मोक्ष में कैसे जा सकते हैं, यह भी देते हैं। आपकी अड़चनें किस प्रकार कम हों, यही हमारा हेतु है।

अपनी बात सामने वाले को ‘एडजस्ट’ होनी ही चाहिए। अपनी बात सामने वाले को ‘एडजस्ट’ नहीं हो तो वह अपनी ही भूल है। भूल सुधरेगी तो अपनी बात ‘एडजस्ट’ होगी। वीतरागों की बात ‘एवरीव्हेर एडजस्टमेन्ट’ की है।

प्रश्नकर्ता : दादा जी, यह जो आपने कहा है ‘एडजस्ट एवरीव्हेर’, उससे तो अच्छे अच्छों की उलझनों का हल आ जाएगा!

दादाश्री : सभी का हल आ जाएगा। हमारे ये जो एक-एक शब्द हैं, वे सभी का शीघ्र हल ले आएँगे। वे ठेठ मोक्ष तक ले जाएँगे। इसलिए ‘एडजस्ट एवरीव्हेर’!

प्रश्नकर्ता : अभी तक जहाँ अच्छा लगता था, वहाँ सभी एडजस्ट होते थे और आपकी बातों से तो ऐसा लगता है कि ‘जहाँ अच्छा न लगे, वहाँ तू पहले एडजस्ट हो जा।’

दादाश्री : ‘एवरीव्हेर एडजस्ट’ होना है।

दादा जी का ग़ज़ब का विज्ञान

प्रश्नकर्ता : ‘एडजस्टमेन्ट’ की जो बात है, उसके पीछे क्या भाव है? कहाँ तक ‘एडजस्टमेन्ट’ लेना चाहिए?

(पृ.२८)

दादाश्री : भाव शांति का है, हेतु शांति का है। अशांति पैदा नहीं होने देने की तरकीब है। ‘दादा जी’ का विज्ञान ‘एडजस्टमेन्ट’ का है। ग़ज़ब का ‘एडजस्टमेन्ट’ है यह। और जहाँ ‘एडजस्ट’ नहीं होते, वहाँ आपको उसका स्वाद तो आता ही होगा न?! ‘डिसएडजस्टमेन्ट’ ही मूर्खता है। ‘एडजस्टमेन्ट’ को हम न्याय कहते हैं। आग्रह-दुराग्रह न्याय नहीं कहलाता। किसी भी प्रकार का आग्रह, न्याय नहीं है। हम किसी भी बात पर अड़े नहीं रहते। जिस पानी से मूँग पकते हों, उसमें पका लेते हैं। अंत में गटर के पानी से भी पका लेते हैं!

अभी तक एक भी व्यक्ति हमसे डिसएडजस्ट नहीं हुआ है। जबकि इन लोगों के साथ तो घर के चार सदस्य भी एडजस्ट नहीं हो पाते। अब एडजस्ट होना आएगा या नहीं? ऐसा हो सकेगा या नहीं? हम जैसा देखें ऐसा तो हमें आ जाता है न? इस संसार का नियम क्या है कि जैसा आप देखोगे उतना तो आपको आ ही जाएगा। उसमें कुछ सीखने जैसा नहीं रहता। क्या नहीं आएगा? अगर मैं आपको केवल उपदेश देता रहूँ, तो वह नहीं आएगा। लेकिन आप मेरा आचरण देखोगे तो आसानी से आ जाएगा।

यहाँ घर पर ‘एडजस्ट’ होना नहीं आता और आत्मज्ञान के शास्त्र पढऩे बैठते हैं! छोड़ न! पहले ‘यह’ सीख न! घर में ‘एडजस्ट’ होना तो आता नहीं है। ऐसा है यह संसार।

संसार में और कुछ भले ही न आए, तो कोई हर्ज नही है। व्यवसाय करना कम आए तो हर्ज नहीं है लेकिन एडजस्ट होना आना चाहिए। अर्थात्, वस्तुस्थिति में एडजस्ट होना सीख जाना चाहिए। इस काल में एडजस्ट होना नहीं आया तो मारा जाएगा। इसलिए ‘एडजस्ट एवरीव्हेर’ होकर काम निकाल लेने जैसा है।

- जय सच्चिदानंद

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