दादा भगवान कथित

चिंता

मूल गुजराती संकलन : डॉ. नीरू बहन अमीन

अनुवाद : महात्मागण

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संपादकीय
चिंता

संपादकीय

चिंता किसे नहीं होती होगी? जो संसार से सच्चे अर्थ में संपूर्ण विरक्त हो चुके हों, सिर्फ उन्हीं को चिंता नहीं होती। बाकी सभी लोगों को होती है। चिंता क्यों होती है? चिंता का परिणाम क्या है? और चिंता रहित कैसे हो सकते हैं? इसकी यथार्थ समझ और उसे प्राप्त करने की चाबियाँ परम पूज्य दादाश्री ने बताई हैं, जो यहाँ प्रकाशित हो रही हैं।

चिंता अर्थात् प्रकट अग्नि! निरंतर जलाती ही रहती है! रात को सोने भी नहीं देती है। भूख-प्यास हराम कर देती है और कितने ही रोगों को दावत देती है। इतना ही नहीं बल्कि अगला जन्म जानवर गति का बंधवाती है! यह जन्म और अगला जन्म, दोनों ही बिगाड़ देती है।

चिंता तो अहंकार है। किस आधार पर यह सब चल रहा है, इस विज्ञान को नहीं समझने की वजह से खुद अपने सिर लेकर, कर्ता बन बैठता है और भुगतता है। भोगवटा (सुख-दु:ख का असर) केवल अहंकार को है। कर्ता-भोक्तापन अहंकार को ही है।

चिंता करने से वह कार्य बिगड़ते हैं, ऐसा कुदरत का नियम है। चिंता से मुक्त होने पर वह कार्य स्वयं सुधर जाता है!

बड़े लोगों को बड़ी चिंता, एयरकन्डिशन में भी चिंता हैं! मज़दूरों को चिंता नहीं होती, वे चैन से सोते हैं और इन सेठों को तो नींद की गोलियाँ लेनी पड़ती हैं! इन जानवरों को कभी चिंता होती है?

बेटी दस साल की होती है, तभी से उसकी शादी की चिंता शुरू हो जाती है! अरे, उसके लिए दूल्हा पैदा हो गया होगा या पैदा होना बाकी होगा?

चिंता वाले के वहाँ लक्ष्मी नहीं टिकती है। चिंता से अंतराय कर्म बंधता है।

चिंता किसे कहेंगे? विचार करने में हर्ज नहीं लेकिन विचारों का चक्कर चले, तब से चिंता शुरू हो जाती है। विचारों का बवंडर होने लगे, तब वहाँ रुक जाना चाहिए।

वास्तव में ‘कर्ता कौन है’ यह नहीं समझ में आने से चिंता होती है। कर्ता साइन्टिफिक सरकमस्टेन्शियल एविडेन्स है, विश्व में कोई स्वतंत्र कर्ता है ही नहीं। निमित्त मात्र है।

चिंता सदा के लिए कब जाएगी? कर्तापद छूटेगा तब! कर्तापद छूटेगा कब? आत्मज्ञान प्राप्त करेंगे तब।

- डॉ. नीरू बहन अमीन

चिंता

चिंता आती कहाँ से है?

दादाश्री : कभी चिंता की है क्या?

प्रश्नकर्ता : चिंता तो मानव स्वभाव है, इसलिए किसी न किसी रूप में चिंता रहती ही है।

दादाश्री : मनुष्य का स्वभाव कैसा है कि यदि कोई उसे थप्पड़ मारे तो वह वापस उसे थप्पड़ मारता है। लेकिन यदि कोई समझदार होगा तो वह सोचेगा कि ‘मुझे कानून हाथ में नहीं लेना चाहिए’। कुछ लोग कानून हाथ में ले भी लेते हैं। अब चिंता करना वह कानून हाथ में लेने के बराबर है। कायदा हाथ में लेना वह गुनाह कहलाता है। चिंता क्यों करनी चाहिए मनुष्य को? सभी भगवान ऐसा कह गए हैं कि ‘चिंता मत करना’। सारी ज़िम्मेदारी हमें सौंप देना।

प्रश्नकर्ता : लेकिन ऐसा कहना और व्यवहार में लाना, उन दोनों में भारी अंतर है।

दादाश्री : नहीं, मैं व्यवहार में छोड़ने को नहीं कहता। यह

(पृ.२)

तो उसके बारे में बता रहा हूँ। यों ही कहीं चिंता नहीं छूटती। चिंता नहीं करनी है, लेकिन फिर भी सभी को हो जाती है।

अब, जब यह चिंता होती है, तब कौन सी दवाई लगाते हो? क्या चिंता की दवाई नहीं मिलती?

जहाँ चिंता, वहाँ अनुभूति कहाँ से?

प्रश्नकर्ता : चिंता से परे होने के लिए भगवान से आशीर्वाद माँगते हैं कि मैं कब इसमें से छूटु, इसके लिए ‘भगवान, भगवान’ करते हैं। हम इस माध्यम से आगे बढऩा चाहते हैं। फिर भी मुझे अपने अंदर वाले भगवान की अनुभूति नहीं होती।

दादाश्री : अनुभूति कैसे होगी? चिंता में अनुभूति नहीं होती न! चिंता और अनुभूति दोनों साथ में नहीं हो सकते। चिंता बंद होगी तो अनुभूति होगी।

प्रश्नकर्ता : चिंता कैसे मिटेगी?

दादाश्री : यहाँ, सत्संग में रहने से। सत्संग में आए हो कभी?

प्रश्नकर्ता : कहीं और सत्संग में जाता हूँ।

दादाश्री : जिस सत्संग में जाने से चिंता बंद नहीं होती, उस सत्संग को छोड़ देना चाहिए। बाकी, सत्संग में जाने से चिंता बंद होनी ही चाहिए।

प्रश्नकर्ता : जितनी देर वहाँ बैठते हैं, उतनी देर शांति रहती है।

दादाश्री : नहीं, उसे शांति नहीं कहते। उसमें शांति नहीं है। ऐसी शांति तो गप्पें सुनने से भी हो जाती है। सच्ची शांति तो हमेशा के लिए रहनी चाहिए, जानी ही नहीं चाहिए। जहाँ चिंता हो उस

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सत्संग में जाएँ ही क्यों? सत्संग वालों से कह देना कि, ‘भाई, हमें चिंता होती है, इसलिए अब हम यहाँ नहीं आएँगे, या फिर आप कुछ ऐसा इलाज करो कि चिंता नहीं हो।’

प्रश्नकर्ता : ऑफिस जाऊँ या घर आऊँ, कहीं मन नहीं लगता।

दादाश्री : ऑफिस तो हम नौकरी के लिए जाते हैं और तनख्वाह भी तो चाहिए न! घर-गृहस्थी चलानी है इसलिए घर छोड़ नहीं देना है, नौकरी नहीं छोड़नी है। लेकिन जहाँ पर चिंता नहीं मिटती है, सिर्फ वह सत्संग छोड़ देना है। दूसरा नया सत्संग खोजना, तीसरे सत्संग में जाना। सत्संग कई तरह के होते हैं, लेकिन सत्संग से चिंता जानी चाहिए। आप अन्य किसी सत्संग में नहीं गए हैं?

प्रश्नकर्ता : लेकिन हमें ऐसा बताया गया है कि भगवान आपके अंदर ही हैं। शांति आपको अंदर से ही मिलेगी, बाहर भटकना बंद कर दो।

दादाश्री : हाँ, ठीक है।

प्रश्नकर्ता : लेकिन अंदर जो भगवान बैठे हैं, उनका ज़रा सा भी अनुभव नहीं होता।

दादाश्री : चिंता में अनुभव नहीं होता। चिंता होने पर तो जो अनुभव हुआ होगा, वह भी चला जाएगा। चिंता को तो एक प्रकार का अहंकार कहा जाता है। भगवान कहते हैं कि, ‘तू अहंकार करता है? तो चला जा हमारे पास से’। जिसे चलाने का ऐसा अहंकार हो कि ‘यह मैं चलाता हूँ’ वही चिंता करता है न? जिसे भगवान पर ज़रा सा भी विश्वास नहीं है, वही चिंता करता है न?

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प्रश्नकर्ता : भगवान पर तो विश्वास है।

दादाश्री : विश्वास होगा तो ऐसा करेगा ही नहीं न! भगवान के भरोसे छोड़कर, चैन से ओढ़कर सो जाएगा। फिर भला वह चिंता कौन करे? इसलिए भगवान पर भरोसा रखो। भगवान आपका थोड़ा बहुत संभालता होगा या नहीं? खाना खाने के बाद चिंता करते हो? पाचक रस पड़े या नहीं, पित्त पड़ा, ऐसी सारी चिंताएँ नहीं करते? इससे खून बनेगा या नहीं? इसमें से संडास बनेगा या नहीं? क्या ऐसी चिंता करते हो? अर्थात् यह अंदर का बहुत कुछ चलाना है, बाहर का तो क्या चलाना है कि चिंता करते हो? तो फिर भगवान को बुरा ही लगेगा न! अहंकार करोगे तो चिंता होगी। चिंता करने वाला व्यक्ति अहंकारी कहलाता है। एक सप्ताह भगवान को सौंपकर चिंता करना छोड़ दो। फिर यहाँ किसी दिन भगवान से साक्षात्कार करवा देंगे, उससे हमेशा के लिए चिंता मिट जाएगी!

चिंता यानी प्रकट अग्नि

अत: यह सब समझना होगा। यों ही चुपड़ने की दवाई पी जाएँ तो क्या होगा फिर? ये सभी चुपड़ने की दवाई पी गए हैं, वर्ना क्या मनुष्य को चिंता होनी चाहिए? हिंदुस्तान के मनुष्य को चिंता कहीं होती होगी? आपको चिंता करने का शौक है?

प्रश्नकर्ता : नहीं, शांति चाहते हैं।

दादाश्री : चिंता तो अग्नि कहलाती है। ऐसा हो जाएगा और वैसा हो जाएगा। किसी काल में जब कभी संस्कारी मनुष्य होने का सौभाग्य मिलता है और तब अगर चिंता में रहेगा तो मनुष्यपना भी चला जाएगा। कितना बड़ा जोखिम है? अगर आपको शांति चाहिए तो मैं हमेशा के लिए आपकी चिंता बंद कर दूँ।

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जब से चिंता बंद होने लगेगी, तभी से वीतराग भगवान का मोक्षमार्ग कहलाएगा। वीतराग भगवान के दर्शन करते ही चिंता बंद हो जानी चाहिए, लेकिन दर्शन करना भी नहीं आता। दर्शन करना तो ज्ञानी पुरुष सिखलाते हैं कि इस तरह दर्शन करना, तब काम होगा। इस चिंता में तो आग जलती रहती है। शकरकंद देखे हैं? भट्ठी में रखने पर शकरकंद भुनते हैं, उसके जैसा होता है।

ज्ञानी कृपा से चिंता मुक्ति

प्रश्नकर्ता : तो चिंता से मुक्त होने के लिए क्या करना चाहिए?

दादाश्री : आपकी तरह ये भाई भी बहुत जगह गए, लेकिन फायदा नहीं हुआ। तब इन्होंने क्या किया, यह इनसे पूछकर देखो। इन्हें एक भी चिंता है? उनसे पूछो कि, ‘अभी कोई गालियाँ दें तब क्या अशांति होगी?’

प्रश्नकर्ता : लेकिन चिंता बंद करने के लिए मुझे क्या करना चाहिए?

दादाश्री : वह तो ‘ज्ञानी पुरुष’ के पास आकर कृपा ले जाना। फिर चिंता बंद हो जाएगी और संसार चलता रहेगा।

चिंता जाए, तभी से समाधि

चिंता नहीं हो तो सच में उलझन गई। यदि चिंता नहीं हो, वरीज़ नहीं हों और उपाधी (बाहर से आने वाला दु:ख) में समाधि रहे तो समझना कि वास्तव में उलझनें चली गई।

प्रश्नकर्ता : ऐसी समाधि लानी हो, तो भी नहीं आती।

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दादाश्री : वह तो यों लाने से नहीं आएगी। जब ‘ज्ञानी पुरुष’ उलझन सुलझा देंगे, सारा शुद्ध कर देंगे, तब निरंतर समाधि रहेगी।

ऐसी लाइफ हो कि चिंता नहीं रहे, तो वह अच्छी कहलाएगी न?

प्रश्नकर्ता : वह तो अच्छी ही कहलाएगी न!

दादाश्री : हम लाइफ चिंता रहित बना देंगे, फिर आपको चिंता नहीं रहेगी। यह इस काल का एक बड़ा आश्चर्य है। इस काल में ऐसा नहीं होता है, लेकिन देखो यह हुआ है न!

‘खुद’ परमात्मा, फिर चिंता क्यों?

बात को सिर्फ समझना ही है। आप भी परमात्मा है, भगवान ही है, फिर किसलिए वरीज़ करनी? चिंता क्यों करते हो? यह संसार एक क्षणभर भी चिंता करने जैसा नहीं है। अब चिंता से सेफ साइड नहीं रह सकती, क्योंकि जो सेफ साइड नैचुरल थी, उसमें आपने उलझन पैदा की, फिर अब चिंता क्यों करते हो? अगर उलझन आए तो उसका सामना करो और सुलझा दो।

प्रश्नकर्ता : यदि हम प्रतिकूलता का सामना करेंगे, उसका अवरोध करेंगे, प्रतिकार करेंगे, तो उससे अहंकार बढ़ेगा।

दादाश्री : चिंता करने के बजाय सामना करना अच्छा। चिंता के अहंकार की तुलना में सामना करने का अहंकार छोटा है। भगवान ने कहा है कि, ‘ऐसी परिस्थिति में सामना करना, उपाय करना, लेकिन चिंता मत करना।’

चिंता करने वाले को दो दंड

भगवान कहते हैं कि चिंता करने वाले को दो दंड हैं और

(पृ.७)

चिंता नहीं करने वाले को एक ही दंड है। अठारह साल का इकलौता बेटा मर जाए, उसके पीछे जितनी चिंता करता है, जितना दु:ख मनाता है, सिर फोड़ता है, और जो कुछ भी करता है, उसे दो दंड हैं। और यदि ऐसा सब नहीं करे तो एक ही दंड है। बेटा मर गया, उतना ही दंड है और अपना सिर फोड़ा वह अतिरिक्त दंड है। हम ऐसे दोहरे दंड में कभी भी नहीं पड़ते हैं। इसलिए हम ने इन लोगों से कहा है कि जब पाँच हज़ार की जेब कट जाए तब ‘व्यवस्थित (साइन्टिफिक सरकमस्टेन्शियल एविडेन्स) है’ कहकर आगे चल पड़ना और आराम से घर जाना।

यह दंड हमारा खुद का ही हिसाब है, यानी घबराने की कोई वजह नहीं है। इसीलिए मैंने ‘व्यवस्थित’ कहा है, एक्ज़ेक्ट ‘व्यवस्थित’ है। अत: जो हो चुका है, उसे तो ‘हुआ सो करेक्ट’ कहो!

जिसकी चिंता वह कार्य बिगड़े

कुदरत क्या कहती है कि यदि कार्य नहीं हो रहा हो तो प्रयत्न करो, ज़बरदस्त प्रयत्न करो लेकिन चिंता मत करो। क्योंकि चिंता करने से उस कार्य को धक्का लगेगा और चिंता करने वाला खुद लगाम अपने हाथों में लेता है। मानो ‘मैं ही चला रहा हूँ।’ यों लगाम अपने हाथों में ले लेता है। उसका गुनाह लगता है।

परसत्ता के उपयोग से चिंता होती है। विदेश की कमाई विदेश में ही रहेगी। ये मोटर-बंगले मिलें, बीवी-बच्चे सभी यहीं छोड़कर जाना पड़ेगा। उस आखिरी स्टेशन पर तो किसी के बाप का भी चले ऐसा नहीं है न! सिर्फ पुण्य और पाप साथ ले जाने देंगे। दूसरी सरल भाषा में कहूँ तो यहाँ जो-जो गुनाह किए होंगे उसकी धाराएँ साथ में आएँगी। उन गुनाहों की कमाई यहीं रहेगी और फिर मुकदमा

(पृ.८)

चलेगा। तब धाराओं के अनुसार नया शरीर प्राप्त करके, नए सिरे से कमाई करके कर्ज़ चुकाना पड़ेगा। इसलिए भाई! पहले से ही सीधा हो जा न! स्वदेश (आत्मा) में तो बहुत ही सुख है, लेकिन स्वदेश देखा ही नहीं है न!

उगाही याद आए वहाँ...

रात को जब सभी कहें कि, ‘ग्यारह बज गए हैं, अब आप सो जाओ।’ जाड़े का दिन है और आप मच्छरदानी में घुस गए। घर के सभी लोग सो गए हैं। मच्छरदानी में घुसने के बाद आपको याद आया कि, ‘एक आदमी का तीन हज़ार का बिल बाकी है और मुद्दत पूरी हो गई है। यदि आज दस्तखत करवाए होते तो मुद्दत मिल जाती।’ लेकिन आज दस्तखत नहीं करवाए इसके लिए सारी रात चिंता होती रहती है। तो क्या रातों-रात कहीं दस्तखत हो जाएँगे? नहीं होंगे न? तो फिर चैन से सो जाओगे तो आपका क्या बिगड़ेगा?

चिंता का रूट-कॉज़

जी जलता रहे, वैसी चिंता तो काम की ही नहीं है! जो शरीर को नुकसान पहुँचाती है और हमारे पास जो चीज़ आने वाली थी, उसमें विघ्न डालती है। चिंता से ही ऐसे संयोग पैदा हो जाते हैं। अत: कुछ ऐसे सार-असार के विचार करने चाहिए, लेकिन चिंता किसलिए? इसे इगोइज़म (अहंकार) कहा है। वैसा इगोइज़म नहीं होना चाहिए। ‘मैं कुछ हूँ और मैं ही चला रहा हूँ’, इससे उसे चिंता होती है और ‘मैं होऊँगा तभी इस केस का निकाल होगा’, उसी से चिंता होती रहती है। इसलिए इगोइज़म वाले भाग का ऑपरेशन कर देना है, फिर जो सार-असार के विचार रहें, उसमें हर्ज नहीं है। वे फिर भीतर खून नहीं जलाते, वर्ना चिंता तो खून जलाती है, मन जलाती है। जब चिंता हो रही हो, उस समय अगर

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बच्चा कुछ कहने आता है, तो उस पर भी उग्र हो जाता है अर्थात् हर तरह से नुकसान पहुँचाती है। यह अहंकार ऐसी चीज़ है कि पैसे हों या नहीं हों, लेकिन अगर कोई कह दे कि, ‘इस चंदूभाई ने मेरा सब बिगाड़ दिया’, तब बेहद चिंता और बेहद परेशानी हो जाती है। और संसार तो, अगर हमने नहीं बिगाड़ा हो, फिर भी कहता ही है न?

चिंता के परिणाम क्या?

इस संसार में बाइ प्रोडक्ट का अहंकार होता ही है और वह सहज अहंकार है, जिससे संसार आसानी से चले ऐसा है, वहाँ अहंकार का पूरा कारखाना ही खड़ा कर दिया है और अहंकार का विस्तार किया। इतना विस्तार किया कि जिससे चिंता की हद नहीं रही। अहंकार का ही विस्तार किया है। ऐसा है कि सहज अहंकार से, नॉर्मल अहंकार से संसार चले ऐसा है, लेकिन वहाँ अहंकार का विस्तार करके फिर चाचा इतनी उम्र में कहते हैं न कि, ‘मुझे चिंता हो रही है।’ चिंता होती है उसका परिणाम क्या? आगे ‘जानवर गति’ मिलेगी। इसलिए सावधान हो जाओ। अभी सावधान हो जाने जैसा है। मनुष्य में हो तब तक सावधान हो जाओ, वर्ना जहाँ चिंता होगी वहाँ तो फिर फलस्वरूप जानवर का जन्म मिलेगा।

भक्त तो भगवान को भी डाँटता है

भगवान के सच्चे भक्त को तो यदि चिंता हो, तो वह भगवान को भी डाँटता है। ‘हे भगवान! आप मना करते हैं, फिर भी मुझे चिंता क्यों हो रही है?’ जो भगवान को डाँटता नहीं, वह सच्चा भक्त नहीं है। यदि कोई उपाधि आए, तो आपके भीतर भगवान बैठा है, उसे डाँटना-धमकाना। जो भगवान को भी डाँटें, वह सच्चा प्रेम

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कहलाता है। आज तो भगवान का सच्चा भक्त मिलना भी मुश्किल है। सब अपने-अपने मतलब से घूम रहे हैं।

श्री कृष्ण भगवान कहते हैं,

‘जीव तुं शीद ने शोचना करे, कृष्ण ने करवुं होय ते करे।’

(‘जीव तू क्यों सोचना करे, कृष्ण को करना हो वो करे।’)

जबकि ये लोग क्या कहते हैं? कृष्ण भगवान तो कहते हैं, लेकिन यह संसार चलाना है तो चिंता किए बगैर थोड़े ही चलेगा? यों लोगों ने चिंता के कारखाने खोल दिए है! वह माल भी नहीं बिकता। कहाँ से बिकेगा? जहाँ बेचने जाए, वहाँ भी उसका कारखाना तो होता ही है न! इस संसार में एक भी व्यक्ति ऐसा ढूँढ लाओ ‘जिसे चिंता न होती हो’।

एक तरफ कहते हैं कि ‘श्री कृष्ण: शरणं मम्’ और यदि ‘श्री कृष्ण भगवान’ की शरण ली है तो फिर चिंता क्यूँ? महावीर भगवान ने भी चिंता करने को मना किया है। उन्होंने तो एक बार चिंता करने का फल ‘तिर्यंच गति’ बताया है। चिंता तो सब से बड़ा अहंकार है। ‘मैं ही यह सब चला रहा हूँ’ ऐसा ज़बरदस्त रहा करता है न, उसके फलस्वरूप चिंता पैदा होती है।

मिली एक ही बात हर ओर से

चिंता तो आर्तध्यान है। यह शरीर जितना शाता-अशाता का उदय लेकर आया है, उतना भुगते बिना चारा ही नहीं है। इसलिए किसी का दोष मत देखना, किसी के दोष के प्रति दृष्टि मत करना। निजदोष से ही बंधन है, ऐसा समझ जा। तुझसे कुछ बदला नहीं जा सकता।

(पृ.११)

इस पर श्री कृष्ण भगवान ने कहा है कि, ‘जीव तुं शीद ने शोचना करे, कृष्ण ने करवुं होय ते करे।’ तब फिर जैन क्या कहते हैं कि, ‘यह तो कृष्ण भगवान ने कहा है, महावीर भगवान ने ऐसा नहीं कहा है।’ महावीर भगवान ने ऐसा क्या कहा? कि ‘राई मात्र वधघट नहीं, देख्या केवळज्ञान, ए निश्चय कर जाणिए, त्यजीए आर्तध्यान।’ चिंता और आर्तध्यान छोड़ दो लेकिन भगवान का कहा मानना हो तब न? जिसे नहीं मानना हो, उसे हम कैसे डाँट सकते हैं?

जब मुझे ऐसा कहा था, तब मैं तो मान गया था। मैंने कहा, ‘हाँ भाई, लेकिन यह एक ही ऐसी बात है’? इसलिए मैंने दूसरी ओर पता लगाया। जो महावीर भगवान ने कहा है, वही कृष्ण भगवान ने कहा है, तब मैंने कहा, यह ताल-मेल बैठ रहा है, फिर भी शायद किसी से भूल हो रही हो, तो आगे जाँच करो।

तब सहजानंद स्वामी कहते हैं, ‘मारी मरजी विना रे, कोईथी तरणुं ना तोडाय!’ ओहो! आप भी पक्के हैं! ‘आपके बगैर एक तिनका भी नहीं टूटेगा?’ तब कहा, ‘चलिए तीन ताल-मेल हुए।’ तब मैंने कहा, और ताल-मेल बिठाओ।

अब कबीर साहब क्या कहते हैं, ‘प्रारब्ध पहेले बन्या, पीछे बन्या शरीर, कबीर अचंबा ये है, मन नहीं बांधे धीर।’ मन को धीरज नहीं रहता, यही बड़ा आश्चर्य है। ये सभी ताल-मेल बैठाता रहा, सभी से पूछता रहा। आपका क्या कहना है? बोलिए, बता दीजिए।

हाँ, एक व्यक्ति से गलती हो सकती है, लेकिन वीतरागों की बात को तो गलत कह ही नहीं सकते लेकिन लिखने वाले से गलती हो गई हो तो? वीतराग की भूल है, ऐसा तो मैं कभी मानूँगा ही

(पृ.१२)

नहीं। मुझे चाहे कोई कितना भी समझाने आए लेकिन मैंने ऐसा कभी माना ही नहीं कि वीतरागों की भूल है। बचपन से, जन्म से, वैष्णव होने के बावजूद भी मैंने कभी ऐसा नहीं माना कि उनकी भूल है। क्योंकि इतने समझदार पुरुष! जिनके नाम स्तवन करने से कल्याण हो जाता है! और अपनी दशा तो देखो! राई मात्र कम-ज़्यादा नहीं। अरे! एक राई का दाना देखा है आपने? तब कहते हैं, ‘लो! देखा नहीं होगा राई का दाना?’ एक राई के दाने जितना भी फर्क नहीं होने वाला है और देखो, लोग कमर कसकर, जब तक जाग सकें, तब तक जागते रहते हैं। शरीर को खींच-खींचकर जागते हैं और फिर तो हार्टफेल की तैयारी करते हैं!

इनके लिए, कीमत किसकी?

एक बूढ़े चाचा आए थे और मेरे पैरों में पड़कर बहुत रोए। मैंने पूछा, ‘क्या दु:ख है आपको?’ तो बताया, ‘मेरे गहने चोरी हो गए हैं, मिल ही नहीं रहे। अब वापस कब मिलेंगे?’ तब मैंने उनसे कहा, ‘वे गहने क्या आप साथ में ले जाने वाले थे?’ तब बोले, ‘नहीं, साथ में नहीं ले जा सकते। लेकिन मेरे गहने जो चोरी हो गए हैं, वे वापस कब मिलेंगे?’ मैंने कहा, ‘आपके जाने के बाद मिलेंगे।’ गहने गए उसके लिए इतनी हाय, हाय, हाय! अरे, जो गया उसकी चिंता करनी ही नहीं चाहिए। शायद आगे की चिंता, भविष्य की चिंता करें। वह हम समझते हैं कि बुद्धिमान व्यक्ति को चिंता तो होती ही है, लेकिन जो गया उसकी भी चिंता? अपने देश में ऐसी चिंता होती है। क्षणभर पहले जो हो चुका, उसकी क्या चिंता? जिसका उपाय नहीं है, उसकी चिंता क्या? कोई भी बुद्धिमान समझ सकता है कि अब कोई उपाय नहीं रहा, इसलिए उसकी चिंता नहीं करनी चाहिए।

(पृ.१३)

वे चाचा रो रहे थे, लेकिन मैंने उन्हें दो मिनट में ही पलट दिया । फिर तो ‘दादा भगवान के असीम जय जयकार हो’ बोलने लगे। वे आज सवेरे भी वहाँरणछोड़ जी’ के मंदिर में मिले थे। तब भी बोल उठे, ‘दादा भगवान!’ मैंने कहा, ‘हाँ, वही’। फिर बोले, ‘सारी रात मैं तो आपका ही नाम लेता रहा!’ इन्हें तो इधर घुमाओ तो इधर, इन्हें ऐसा कुछ भी नहीं है।

प्रश्नकर्ता : आपने उनसे क्या कहा?

दादाश्री : मैंने कहा, ‘वे गहने वापस मिल सकें ऐसा नहीं हैं, हाँ, लेकिन गहने दूसरी तरह से मिल जाएँगे।’

प्रश्नकर्ता : आप मिल गए अर्थात् बड़ा गहना ही मिल गया न!

दादाश्री : हाँ, यह तो आश्चर्य है! लेकिन यह उसे किस तरह से समझ में आए? उसे तो उन गहनों के सामने इसकी कीमत ही नहीं है न! अरे, उसे चाय पीनी हो और हम कहें कि, ‘मैं हूँ न, तुझे चाय का क्या करना है?’ तब वह कहेगा, ‘मुझे चाय के बिना चैन नहीं आता, आप हों या न हों।’ इनके लिए कीमत किसकी? जिसकी इच्छा है उसकी!

कुदरत के गेस्ट के ठाठ तो देखो

इस वल्र्ड में कोई भी चीज़ जो सब से कीमती होती है, वह फ्री ऑफ कॉस्ट ही होती है। उस पर कोई भी सरकारी कर नहीं लगा सकते। कौन सी चीज़ कीमती है?

प्रश्नकर्ता : हवा, पानी।

दादाश्री : हवा ही, पानी नहीं। हवा पर सरकारी कर बिल्कुल भी नहीं है, कुछ भी नहीं। जहाँ देखो वहाँ, आप जहाँ जाओ एनी

(पृ.१४)

व्हेर, एनी प्लेस, वहाँ आपको वह प्राप्त होगी। कुदरत ने आपका कितना रक्षण किया है। आप कुदरत के गेस्ट हो और गेस्ट होकर आप शोर मचाते हो, चिंता करते हो! इसलिए कुदरत को मन में ऐसा लगता है कि अरे, मेरे गेस्ट बने हैं, लेकिन इस आदमी को गेस्ट बनना भी नहीं आता! फिर वह रसोई घर में जाकर कहेगा, ‘कढ़ी में नमक ज़रा ज़्यादा डालना।’ अरे, गेस्ट होकर रसोई घर में घुसता है! वे जैसा परोसें वैसा खा लेना चाहिए। गेस्ट होकर क्या रसोई घर में जाते हैं? अर्थात् यह अमूल्य हवा फ्री ऑफ कॉस्ट है। उससे सेकन्ड नंबर पर क्या आता है? पानी आता है। पानी थोड़े बहुत पैसों से मिल जाता है और फिर तीसरा अनाज आता है, वह भी थोड़े बहुत पैसों से।

प्रश्नकर्ता : प्रकाश।

दादाश्री : लाइट तो होती ही है न! लाईट तो, सूर्यनारायण जैसे आपकी सेवा में ही बैठे हों, यों साढ़े छ: बजे आकर खड़े हो जाते हैं।

कहीं भी भरोसा ही नहीं?

हमारे हिंदुस्तान के लोग तो इतने चिंता वाले हैं कि ये सूर्यनारायण यदि एक ही दिन की छुट्टी ले लें और कहें कि, ‘अब फिर कभी भी छुट्टी नहीं लूँगा’। ऐसा कहकर छुट्टी ले फिर भी दूसरे दिन इन लोगों को शंका होने लगेगी कि कल सूर्यनारायण आएँगे या नहीं आएँगे? सुबह होगी या नहीं होगी? अर्थात् नेचर पर भी भरोसा नहीं है। खुद अपने आप पर भी भरोसा नहीं है, भगवान पर भी भरोसा नहीं है। किसी चीज़ पर भरोसा नहीं है। खुद की वाइफ पर भी भरोसा नहीं है!

(पृ.१५)

खुद की ही निमंत्रित की हुई चिंता

चिंता करता है, वह भी पड़ोसी का देखकर। पड़ोसी के घर गाड़ी है और हमारे घर पर नहीं। अरे, जीवन यापन के लिए कितना चाहिए? तू एक बार तय कर ले कि इतनी-इतनी मेरी ज़रूरतें हैं। जैसे कि घर में खाने-पीने को पर्याप्त चाहिए, रहने को मकान चाहिए, घर चलाने के लिए लक्ष्मी चाहिए। तो इतना तुझे मिल ही जाएगा। लेकिन यदि बैंक में पड़ोसी के दस हज़ार पड़े हों, तो तुझे मन में खटकता रहता है। इससे तो दु:ख उत्पन्न होते हैं। दु:ख को खुद ही निमंत्रण देता है।

जीने का आधार, अहंकार

व्याकुल तो, जब बहुत पैसे आएँ न, तभी व्याकुल रहता है, चिंतित रहता है। इन अहमदाबाद के मिल वाले सेठों की बात कहूँ तो आपको लगेगा कि ‘हे भगवान! ऐसी दशा एक दिन के लिए भी मत देना’। सारा दिन, जैसे शकरकंद भट्ठी में रखा हो, उस तरह भुनता रहता है। सिर्फ, किस आधार पर जीते हैं? मैंने एक सेठ जी से पूछा, ‘आप किस आधार पर जी रहे हैं?’ तब कहते हैं, ‘यह तो मुझे भी पता नहीं चलता’। तब मैंने कहा, ‘बता दूँ? सब से बड़ा तो मैं ही हूँ न! बस, इस आधार पर जी रहे हैं।’ बाकी, कुछ भी सुख नहीं मिलता।

न करो अप्राप्त की चिंता

अहमदाबाद के कुछ सेठ मिले थे। वे खाने के समय मिल में चले जाते थे, मेरे साथ खाने बैठे थे। तब सेठानी सामने आकर बैठीं। मैंने पूछा, ‘सेठानी जी, आप क्यों सामने आकर बैठ गईं?’ तो कहती हैं, ‘सेठ जी कभी भी ठीक से भोजन नहीं करते हैं।’

(पृ.१६)

इससे मैं समझ गया। जब मैंने सेठ जी से पूछा तो कहते हैं, ‘मेरा पूरा चित्त वहाँ चला जाता है।’ मैंने कहा, ‘ऐसा मत करना। वर्तमान में थाली आई, पहले वह, अर्थात् प्राप्त को भोगो, अप्राप्त की चिंता मत करो। जो प्राप्त वर्तमान है, उसे भोगो।

चिंता होती है तो फिर खाना खाने के लिए रसोई में जाना पड़ता है? फिर बेड रूम में सोने जाना पड़ता है? और ऑफिस में काम पर?

प्रश्नकर्ता : वो भी जाते हैं।

दादाश्री : वे सारे डिपार्टमेन्ट्स हैं। तो अगर एक ही डिपार्टमेन्ट की परेशानी हो तो उसे दूसरे डिपार्टमेन्ट में मत ले जाना। एक डिविज़न में जाओ तब वहाँ का पूरा काम कर लेना लेकिन दूसरे डिविज़न में भोजन करने गए, तो पहले डिविज़न की परेशानी वहीं पर छोड़कर जाना है और भोजन करने बैठो तो टेस्ट से खाना है। बेडरूम में जाओ तब भी पहले वाली परेशानी वहीं पर छोड़कर जाना है। जिसका ऐसा आयोजन नहीं है, वह व्यक्ति मारा जाएगा। जब खाना खाने बैठता है तब चिंता करता है कि ‘ऑफिस में साहब डाँटेंगे तब क्या करूँगा?’ अरे, जब डाँटेंगे तब देख लेंगे! अभी खा न आराम से!

भगवान ने क्या कहा था कि, ‘प्राप्त को भोगो, अप्राप्त की चिंता मत करो।’ अर्थात् क्या कि, ‘जो प्राप्त है उसे भोगो न!’

एयरकन्डिशन में भी चिंता

प्रश्नकर्ता : और भी चिंताएँ होती हैं न दिमाग़ में।

दादाश्री : खाना खाते समय भी चिंता रहती ही है। अर्थात् वह घंटा लटक ही रहा है ऊपर, कि ‘कब गिर जाए, कब गिर

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जाए, कब गिर जाए!’ अब बोलो! ऐसे भय के संग्रहस्थान के नीचे यह सभी भोगना है! अत: यह सब कैसे पुसाएगा? फिर भी लोग निर्लज्ज होकर भोगते भी हैं। जो होना होगा, वह होगा, लेकिन भोगो। इस संसार में भोगने योग्य कुछ है क्या?

विदेश में ऐसा सब नहीं होता। किसी देश में ऐसा नहीं होता। यह सब तो यहीं पर है। बुद्धि का भंडार, थोक में बुद्धि, चिंता भी थोक में, कारखाने खोलते हैं, सभी। ये बड़े-बड़े कारखाने, ज़बरदस्त पंखे घूमते हैं फिर, सभी कुछ घूमता है। चिंता भी करते हैं और उपाय भी करते हैं। फिर वह जो ठंडा करता है, क्या कहते हैं उसे?

प्रश्नकर्ता : एयरकन्डिशन।

दादाश्री : हाँ, एयरकन्डिशन। हिन्दुस्तान में आश्चर्य ही है न!

प्रश्नकर्ता : अभी सभी चिंताएँ एयरकन्डिशन में ही होती हैं।

दादाश्री : हाँ, अर्थात् वे साथ में ही होती हैं। इन चिंताओं के साथ एयरकन्डिशन! हम सब को एयरकन्डिशन की ज़रूरत नहीं पड़ती।

इन अमरीकनों की लड़कियाँ चली जाती हैं, उसकी उन्हें बहुत चिंता नहीं होती और ये लोग? क्योंकि हर एक की मान्यता अलग है।

आयुष्य का एक्सटेन्शन मिला?

आप इस दुनिया में अभी दो सौ साल तो रहोगे न? एक्सटेन्शन नहीं लिया?

प्रश्नकर्ता : एक्सटेन्शन मिलेगा किस तरह? अपने हाथ में तो कुछ भी नहीं है। मुझे तो नहीं लगता।

(पृ.१८)

दादाश्री : क्या बात कर रहे हो?! यदि जीना हाथ में होता तो मरता ही नहीं। यह तो ज़बरदस्ती ले जाते हैं। यदि आयुष्य का एक्सटेन्शन नहीं मिलता तो क्यों चिंता करता है? जो मिला है, उसी को आराम से भोग न!

मनुष्य स्वभाव, चिंता मोल ले

चिंता से तो काम बिगड़ता है। जो चिंता है वह काम को सौ प्रतिशत के बजाय सत्तर प्रतिशत कर देती है। चिंता काम को ऑब्स्ट्रक्ट (विघ्न डालती) करती है। यदि चिंता नहीं होगी तो बहुत सुंदर परिणाम आएगा।

जैसे कि सभी यह जानते हैं कि ‘हम मरने वाले हैं’। लेकिन जब मृत्यु याद आती है तब क्या करते हैं लोग? याद आए, तब क्या करते हैं? उसे धक्का मार देते हैं। ‘हमें कुछ हो जाएगा तो?’ याद आते ही धक्का मार देते हैं। उसी प्रकार जब अंदर चिंता होने लगे, तब धक्का मार देना कि ‘यहाँ नहीं भाई!’

चिंता से हमेशा सब बिगड़ता है। चिंता में यदि मोटर चलाओगे तो टकरा जाएगी। चिंता से व्यापार करे तो, वहाँ काम उलट देती है। चिंता से ही यह सब बिगड़ा है, संसार में।

यह संसार चिंता करने जैसा है ही नहीं। इस संसार में चिंता करना बेस्ट फूलिशनेस है। संसार चिंता करने के लिए है ही नहीं। यह इट सेल्फ क्रिएशन (स्वयंभू उत्पत्ति) है। यह क्रिएशन भगवान का नहीं है। इसलिए यह क्रिएशन चिंता करने के लिए नहीं है। चिंता सिर्फ ये मनुष्य ही करते हैं, अन्य कोई जीव चिंता नहीं करते। अन्य चौरासी लाख योनियाँ हैं, लेकिन कोई भी चिंता-वरीज़ नहीं करता। ये मनुष्य नामक जीव ज़रूरत से ज़्यादा अक्ल वाले हैं, वे ही सारे दिन चिंता में जलते रहते हैं।

(पृ.१९)

चिंता तो प्योर इगोइज़म है। कोई भी जानवर चिंता नहीं करता और इन मनुष्यों को चिंता है? ओहोहोहो! अनंत जानवर हैं, किसी को चिंता नहीं है और सिर्फ ये मनुष्य ही जड़ जैसे हैं कि पूरे दिन चिंता में जलते रहते हैं।

प्रश्नकर्ता : जानवर से भी गए-गुजरे हैं न ये?

दादाश्री : जानवर तो बहुत अच्छे हैं। जानवर को तो भगवान ने आश्रित कहा है। इस संसार में यदि कोई निराश्रित है, तो सिर्फ ये मनुष्य ही हैं और उनमें भी हिंदुस्तान के मनुष्य ही शत प्रतिशत निराश्रित हैं, फिर इन्हें दु:ख ही होगा न! कि जिन्हें किसी प्रकार का आसरा ही नहीं है!

मज़दूर चिंता नहीं करते और सेठ लोग चिंता करते हैं। मज़दूर एक भी चिंता नहीं करते, क्योंकि मज़दूर उच्च गति में जाने वाले हैं और सेठ लोग नीची गति में जाने वाले हैं। चिंता से नीची गति मिलती है, इसलिए चिंता नहीं होनी चाहिए।

सिर्फ वरीज़, वरीज़, वरीज़। जैसे शकरकंद भठ्ठी में भुनते हैं, वैसे ही जगत् भुन रहा है! मछलियाँ तेल में तली जाएँ, वैसी तड़फड़ाहट-तड़फड़ाहट हो रही है! इसे लाइफ कैसे कह सकते हैं?

‘मैं कर रहा हूँ’, इसी से चिंता

प्रश्नकर्ता : ऐसा भान रहना कि चिंता नहीं होनी चाहिए, क्या वह चिंता का दूसरा रूप नहीं है?

दादाश्री : नहीं। चिंता तो सिर्फ इगोइज़म है, इगोइज़म। अपने स्वरूप से अलग होकर वह इगोइज़म करता है कि, ‘मैं ही चलाता

(पृ.२०)

हूँ’। संडास जाने की शक्ति नहीं है और ऐसा कहता है कि ‘मैं चला रहा हूँ’।

चिंता ही अहंकार है। इस बच्चे को चिंता क्यों नहीं होती? क्योंकि वह जानता है कि ‘मैं नहीं चला रहा हूँ’। कौन चला रहा है, उसकी उसे पड़ी ही नहीं है।

‘मैं कर रहा हूँ, मैं कर रहा हूँ’ ऐसा करता रहता है, इसलिए चिंता होती है।

चिंता ही सब से बड़ा अहंकार

प्रश्नकर्ता : चिंता, वह अहंकार की निशानी है, इसे ज़रा समझाने के लिए बिनती है।

दादाश्री : चिंता अहंकार की निशानी क्यों कहलाती है? क्योंकि उसके मन में ऐसा लगता है कि ‘मैं ही इसे चला रहा हूँ’। इससे उसे चिंता होती है। ‘इसका चलाने वाला मैं ही हूँ’, यानी वह चिंता खुद अपने सिर ले लेता है कि, ‘बेटी का क्या होगा? बेटे का क्या होगा? यों कार्य पूरा नहीं हुआ तो क्या होगा?’ खुद अपने आपको कर्ता मानता है कि ‘मैं ही मालिक हूँ और मैं ही कर रहा हूँ।’ लेकिन वह खुद कर्ता है ही नहीं और व्यर्थ चिंताएँ मोल लेता है।

संसार में रहकर चिंता में ही रहे और वह चिंता नहीं मिटे तो फिर उसे कितने ही जन्म लेने होंगे! क्योंकि चिंता से ही जन्म बंधते हैं।

यह छोटी सी बात आपको बता देता हूँ, यह सूक्ष्म बात आपको बता देता हूँ कि ‘इस संसार में ऐसा कोई इंसान पैदा नहीं

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हुआ है कि जिसे संडास जाने की स्वतंत्र शक्ति हो’। तब फिर इन लोगों को इगोइज़म करने का क्या अर्थ है? यह दूसरी शक्ति काम कर रही है। अब, वह शक्ति अपनी नहीं है, वह पर-शक्ति है और स्व-शक्ति को जानता नहीं है, इसलिए खुद भी पर-शक्ति के अधीन है, और सिर्फ अधीन ही नहीं लेकिन पराधीन भी है। पूरा जन्म ही पराधीन है।

बेटी की शादी की चिंता

ऐसा है, कि यहाँ तो बेटी तीन साल की हो तभी से सोचने लगते हैं कि ‘यह बड़ी हो गई, यह बड़ी हो गई’। शादी तो बीसवें साल में होती है, लेकिन छोटी हो तभी से चिंता करना शुरू कर देता है! कब से बेटी की शादी की चिंता शुरू करनी चाहिए, ऐसा कौन से शास्त्र में लिखा है? वैसे भी बीसवें साल में शादी करनी है तो हमें चिंता कब से शुरू करनी चाहिए? दो-तीन साल की हो, तब से?

प्रश्नकर्ता : बेटी जब चौदह-पंद्रह साल की हो जाए, तब तो माँ-बाप सोचते हैं न!

दादाश्री : नहीं, तब भी फिर पाँच साल तो रहे न! उन पाँच सालों में चिंता करने वाला मर जाएगा या जिसकी चिंता कर रहा है, वह मर जाएगी, इसका क्या पता? पाँच साल बाकी रहे, उससे पहले चिंता कैसे कर सकते हैं?

‘वह भी फिर देखा-देखी से कि फलाने भाई को तो देखो, बेटी की शादी करने की कितनी चिंता करते हैं और मुझे तो चिंता है ही नहीं।’ फिर चिंता ही चिंता में तरबूजे जैसा हो जाता है! और बेटी की शादी करने का समय आए, तब हाथ में चार आने भी नहीं होते। चिंता वाला रुपये लाएगा कहाँ से?

(पृ.२२)

आपको चिंता कब करनी है? कि जब आसपास के लोग कहने लगें कि, ‘बेटी का कुछ किया?’ तब आप समझना कि अब सोचने का वक्त आ गया है और तब से उसके लिए प्रयत्न शुरू करना। यह तो, आसपास वाले कुछ कहते नहीं और उससे पहले, पंद्रह साल पहले से चिंता करने लगता है! फिर अपनी बीवी से भी कहता है कि, ‘तुझे याद है कि हमारी बेटी बड़ी हो रही है और उसकी शादी करवानी है?’ अरे! अब बीवी को क्यों चिंता करवा रहा है?

कुसमय की चिंता

सत्रह साल पहले से बेटी की शादी की चिंता कर रहा है, तो मरने की चिंता क्यों नहीं करता? तब कहेगा कि, ‘नहीं, मरने की तो याद ही मत दिलाना।’ तब मैंने पूछा कि, ‘मृत्यु को याद करने में क्या हर्ज है? आप नहीं मरने वाले क्या?’ तब कहा कि, ‘यदि मरने की याद दिलाओगे न, तो आज का सुख चला जाएगा और आज का हमारा सारा स्वाद बिगड़ जाएगा।’ ‘तब फिर बेटी की शादी को क्यों याद कर रहा है? तब भी तेरा स्वाद चला जाएगा न? और बेटी अपनी शादी का सबकुछ लेकर आई है। माँ-बाप तो इसमें निमित्त हैं।’ बेटी अपनी शादी के सभी साधन लेकर आई है। बैंक बैलेन्स, पैसे, सभी लेकर आई है। कम या ज़्यादा जितना खर्च हो वह एक्ज़ेक्टली सबकुछ लेकर आई है।

बेटी की चिंता आपको नहीं करनी है। आप बेटी के पालक हो। बेटी अपने लिए लड़का भी लेकर आई होती है। हमें किसी से कहने नहीं जाना पड़ता कि ‘लड़का पैदा करना। हमारी बेटी है, उसके लिए लड़का पैदा करना।’ ऐसा कहने जाना पड़ता है क्या? अर्थात् सारा सामान तैयार लेकर आई है। तब बाप कहेगा, ‘यह

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पच्चीस साल की हो गई है, अभी तक उसका कोई ठिकाना नहीं पड़ रहा है। ऐसा है, वैसा है।’ वह सारा दिन गाता रहता है। ‘अरे, वहाँ पर लड़का सत्ताईस साल का हो चुका है, लेकिन तुझे मिल नहीं पा रहा है, तो शोर क्यों मचा रहा है? सो जा न चुपचाप। वह लड़की अपना टाइमिंग वगैरह सब सेट करके आई है।

जो आपकी सत्ता में नहीं है, उसका चित्रण मत करो। पिछले जन्म की दो-तीन छोटी बेटियाँ थी, बेटे थे, उन सभी को इतने छोटे-छोटे छोड़कर आ गए थे, तो उन सब की कुछ चिंता करते हो? क्यों? और यों मरते समय तो बहुत चिंता होती है न कि ‘छोटी बेटी का क्या होगा?’ लेकिन यहाँ फिर नया जन्म लेता है, तब पिछले जन्म की कुछ चिंता ही नहीं रहती न! खत-वत कुछ भी नहीं! यानी यह सारी परसत्ता है, उसमें हाथ ही नहीं डालना चाहिए। अर्थात् जो कुछ हो रहा है वह, व्यवस्थित में हो तो भले ही हो, और नहीं हो तो भले ही न हो।

चिंता करने केबजाय धर्म की ओर मोड़ो

प्रश्नकर्ता : घर का जो प्रमुख व्यक्ति है, उसे जो चिंता होती है, उसे कैसे दूर करें?

दादाश्री : कृष्ण भगवान ने क्या कहा है कि ‘जीव तुं शीदने शोचना करे, कृष्ण ने करवुं होय ते करे।’ ऐसा पढ़ा है? तो फिर चिंता करने की क्या ज़रूरत है?

बच्चों को लेकर क्लेश क्यों करते हो? धर्म के रास्ते पर मोड़ दो उन्हें, सुधर जाएँगे।

कुछ लोग तो व्यवसाय को लेकर चिंता करते ही रहते हैं। वे किसलिए चिंता करते हैं? मन में ऐसा लगता है कि, ‘मैं ही

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चला रहा हूँ’, इसलिए चिंता होती है। ‘वह चलाने वाला कौन है’ ऐसा कुछ साधारण भी, किसी भी तरह का अवलंबन नहीं लेता। भले ही, तू ज्ञान से नहीं जानता, लेकिन और किसी प्रकार का अवलंबन तो ले! क्योंकि तू नहीं चलाता है, ऐसा थोड़ा-बहुत तुझे अनुभव तो हुआ है। चिंता तो सब से बड़ा ‘इगोइज़म’ है।

अधिक चिंता वाले कौन?

प्रश्नकर्ता : जिसे दो वक्त की रोटी भी नहीं मिलती, उसे तो रोज़ की चिंता होती है न कि, ‘कल क्या करेंगे? कल क्या खाएँगे?’

दादाश्री : नहीं, नहीं, वह ऐसा है न, सरप्लस की चिंता रहती है, खाने की चिंता किसी को भी नहीं रहती। सरप्लस की ही चिंता रहती है। यह कुदरत ऐसी व्यवस्थित है कि, छोटे से छोटा पौधा, चाहे कहीं भी उगे, वह वहाँ जाकर पानी छिड़क आती है। इतनी सारी तो व्यवस्था है। यह ‘रेग्युलेटर ऑफ द वल्र्ड’ है, वह वल्र्ड को निरंतर रेग्युलेशन में ही रखता है। यह ऐसी कोई गप्प नहीं है, यानी कि ‘सरप्लस की ही चिंता है। उसे भोजन की चिंता नहीं है’।

प्रश्नकर्ता : आपको सभी ऐसे सरप्लस वाले ही मिले लगते हैं जिन्हें कुछ चिंता है ही। लगता है डेफिसिट वाले कोई मिले ही नहीं हैं।

दादाश्री : नहीं, ऐसा नहीं है, डेफिसिट वाले भी बहुत मिले हैं, लेकिन उन्हें चिंता नहीं है। उन्हें मन में ज़रा ऐसा लगता है कि आज इतना लाना है। वह ले आते हैं। अर्थात् जो चिंता-विंता करें वे तो कोई और होंगे जबकि ये तो भगवान के सिर पर डालते हैं।

(पृ.२५)

‘उन्हें अच्छा लगे वही ठीक’ ऐसा करके चलने देते हैं। और इनके लिए तो भगवान नहीं हैं, ये तो खुद कर्ता हैं न! कर्म का कर्ता मैं और भोक्ता भी मैं, इसलिए फिर चिंता सिर पर लेता है।

जहाँ चिंता, वहाँ लक्ष्मी टिकेगी?

प्रश्नकर्ता : अगर ऐसा हो तब तो फिर लोग कमाने ही नहीं जाएँगे और चिंता ही नहीं करेंगे।

दादाश्री : नहीं, कमाने जाना भी उनके हाथ में नहीं है न! वे लट्टू हैं। ये सभी कुदरत के घुमाने से घूमते हैं और अहंकार करते हैं कि ‘मैं कमाने गया था।’ और बिना बात के चिंता करते हैं। चिंता वाला रुपया लाए कहाँ से? लक्ष्मी जी का स्वभाव कैसा है? जो आनंदी होते हैं उनके वहाँ लक्ष्मी मुकाम करती है। बाकी, लक्ष्मी चिंता वाले के यहाँ मुकाम नहीं करती। जो आनंदी होते हैं, जो भगवान को याद करते हैं, लक्ष्मी जी उनके वहाँ जाती हैं।

चिंता से धंधे की मौत

प्रश्नकर्ता : धंधे की चिंता होती है, बहुत अड़चनें आती हैं।

दादाश्री : चिंता होने लगे तो समझना कि कार्य अधिक बिगड़ने वाला है। चिंता नहीं हो तो समझना कि कार्य नहीं बिगड़ेगा। चिंता कार्य के लिए अवरोधक है। चिंता से तो धंधे की मौत आती है। जो चढ़े-उतरे उसी को धंधा कहते हैं, पूरण-गलन (भरना-खाली होना) है वह। जिसका पूरण हुआ उसका गलन हुए बिना रहेगा ही नहीं। इस पूरण-गलन में आपकी कोई मिल्कियत नहीं है और जो आपकी मिल्कियत है, उसमें से कुछ भी पूरण-गलन नहीं होता। ऐसा शुद्घ व्यवहार है। आपके घर में आपके बीवी-बच्चे सभी पार्टनर्स हैं न?

(पृ.२६)

प्रश्नकर्ता : सुख-दु:ख के भोगवटे (सुख या दु:ख का असर, भुगतना) में हैं।

दादाश्री : आप अपने बीवी-बच्चों के अभिभावक कहलाते हो। सिर्फ अभिभावक को ही चिंता क्यों करनी चाहिए? बल्कि घर वाले तो कहते हैं कि ‘आप हमारी चिंता मत करना’। चिंता से कुछ बढ़ जाता है क्या?

प्रश्नकर्ता : नहीं बढ़ता।

दादाश्री : नहीं बढ़ता? तो फिर वह गलत व्यापार कौन करे? यदि चिंता से बढ़ जाता हो तो करना।

उस समझ से चिंता गई...

व्यापार करने के लिए बहुत बड़ी छाती चाहिए। छाती बैठ जाए तो व्यापार ठप्प हो जाएगा।

पहले एक बार हमारी कंपनी में घाटा हुआ था, ज्ञान होने से पहले। तब हमें सारी रात नींद नहीं आई थी, चिंता होती रही। तब भीतर से उत्तर मिला कि अभी इस घाटे की चिंता कौन-कौन कर रहा होगा? मुझे लगा कि मेरे पार्टनर तो शायद चिंता नहीं भी कर रहे हों। सिर्फ मैं अकेला ही चिंता कर रहा हूँ। और बीवी-बच्चे सभी पार्टनर्स हैं, तो वे तो कुछ जानते ही नहीं हैं। अब वे सब नहीं जानते फिर भी उनका चल रहा है, तो मैं अकेला ही कम अक्ल हूँ कि ये सारी चिंताएँ करूँ! तब फिर मुझे अक्ल आ गई। क्योंकि वे सभी चिंता नहीं कर रहे हैं। सभी पार्टनर हैं, फिर भी चिंता नहीं कर रहे हैं तो क्या मैं अकेला ही चिंता करूँ?

सोचो लेकिन चिंता मत करो

चिंता क्या है? यह समझ लेना चाहिए कि यह मन में ऐसा

(पृ.२७)

विचार उठ रहा है। हमें किसी भी बारे में, व्यापार की बात में, अन्य किसी भी बात में, या कोई बीमारी हो और उसके लिए विचार आया, कुछ हद तक पहुँचने के बाद वह विचार हमें चक्कर में डाल देता है। यदि चक्कर में डाल दे तो समझना कि यह उलटे रास्ते चला है, यानी बिगड़ गया। वहाँ से फिर चिंता शुरू हो जाती है।

विचार करने में हर्ज नहीं है। लेकिन ‘विचार’ क्या है? विचार शुरू हुआ और कुछ हद से आगे गया, तो वह चिंता कहलाती है। हद तक विचार करना चाहिए। विचारों की नॉर्मेलिटी कितनी? जब तक अंदर बवंडर नहीं उठे, तब तक। बवंडर उठने लगे तब बंद कर देना। बवंडर उठने के बाद चिंता शुरू हो जाती है। यह हमारी खोज है।

चिंता करने का अधिकार नहीं है। विचार करने का अधिकार है, कि ‘भाई, यहाँ तक विचार करना, और विचार जब चिंता में परिणामित होने लगे तब बंद कर देना चाहिए’। इन अबव नॉर्मल विचारों को चिंता कहते हैं। इसलिए हम विचार तो करते हैं, लेकिन यदि अबव नॉर्मल हो जाए और अंदर उलझने लगे, तब बंद कर देते हैं।

प्रश्नकर्ता : आम तौर पर भीतर देखते रहे, तब तक विचार कहलाता है और भीतर चिंता होने लगी तो क्या ऐसा कहेंगे कि लपेट में आ गया?

दादाश्री : चिंता होने लगे तो लपेट में ही आ गया न! चिंता होने का मतलब यह है कि वह समझता है कि मेरे कारण ही चल रहा है। ऐसा मान बैठता है। चिंता करना अर्थात् क्या कि सब मेरे कारण ही चल रहा है। अत: उन सब पचड़ों में पड़ने जैसा है ही

(पृ.२८)

नहीं और है भी ऐसा ही। ये तो सभी लोगों में यह रोग घुस गया है। अब जल्दी कैसे निकले? जल्दी से निकलेगा नहीं न! आदत हो गई है, वह जाएगी नहीं न! हेबिच्यूएटेड।

प्रश्नकर्ता : आपके पास आने पर निकल जाएगी न?

दादाश्री : हाँ, निकल जाएगी, लेकिन धीरे-धीरे निकलेगी। फिर एकदम से जाती भी नहीं है न!

परसत्ता हाथ में ले, वहाँ पर चिंता होती है

आपका कैसा है? कभी परेशानी होती है? चिंता हो जाती है?

प्रश्नकर्ता : हमारी बड़ी बेटी की सगाई तय नहीं हो रही है, इसलिए परेशानी हो जाती है।

दादाश्री : आपके हाथ में हो तो परेशान रहो न! लेकिन यह बात क्या आपके हाथ में है? नहीं? तो फिर क्यों परेशान होते हैं? तब क्या इन सेठ जी के हाथ में है? इस बहन के हाथ में है?

प्रश्नकर्ता : नहीं।

दादाश्री : तब किसके हाथ में है, वह जाने बगैर आप परेशान रहो तो वह किसके समान है कि ताँगा चल रहा है, उस पर हम दस आदमी बैठे हैं, बड़ी दो घोड़ों वाली घोड़ागाड़ी हो, अब उसे चलाने वाला चला रहा है और अंदर आप शोर मचाओ कि, ‘एय, ऐसे चला, एय, ऐसे चला’ तो क्या होगा? जो चला रहा है, उसे देखते रहो न! अगर यह जान जाएँ कि ‘चलाने वाला कौन है’ तो हमें चिंता नहीं होगी। ऐसे ही ‘यह जगत् कौन चला रहा है’ यह जान जाएँ तो हमें चिंता नहीं होगी। आप रात-दिन चिंता करती हो? कब तक करोगी? उसका अंत कब आएगा? यह मुझे बताओ!

(पृ.२९)

बेटी तो अपना लेकर आई है, क्या आप अपना लेकर नहीं आई थीं? ये सेठ जी आपको मिल गए या नहीं मिले? यदि सेठ जी आपको मिल गए थे, तो इस बेटी को कोई क्यों नहीं मिलेगा? आप ज़रा धीरज तो रखो। अत: वीतराग मार्ग में हो और ऐसी धीरज नहीं धरोगी तो उससे तो आर्तध्यान होगा, रौद्रध्यान होगा।

प्रश्नकर्ता : ऐसा नहीं, लेकिन स्वाभाविक फिक्र तो होती ही है न!

दादाश्री : वह स्वाभाविक फिक्र, वही आर्तध्यान और रौद्रध्यान कहलाती है, भीतर आत्मा को पीड़ा पहुँचाई हमने। किसी और को पीड़ा नहीं पहुँचा रहे हों वह तो ठीक है, लेकिन यह तो आत्मा को पीड़ा पहुँचाई।

चिंता से बंधें, अंतराय कर्म

चिंता करने से तो अंतराय कर्म डलता है और काम देर से होता है। आपसे किसी ने कहा हो कि फलाँ जगह लड़का है, तो आप प्रयत्न करो। भगवान ने चिंता करने को मना किया है। चिंता करने से तो और अधिक अंतराय आते हैं और वीतराग भगवान ने क्या कहा है कि, ‘भाई, यदि आप चिंता करते हो तो क्या आप ही मालिक हो? क्या आप ही दुनिया चलाते हो?’ इसे यों देखने जाए तो मालूम पड़ेगा कि खुद की संडास जाने की भी स्वतंत्र शक्ति नहीं है। वह तो जब बंद हो जाए तब डॉक्टर बुलाना पड़ता है। तब तक हमें ऐसा लगता है कि ‘वह शक्ति हमारी है’। लेकिन वह शक्ति अपनी नहीं है। वह शक्ति किसके अधीन है, ऐसी सब जानकारी नहीं रखनी चाहिए क्या?

इसका चलाने वाला कौन होगा? बहन, आप तो जानती होंगी? यह सेठ जी जानते होंगे? कोई चलाने वाला होगा या आप चलाते हो?

(पृ.३०)

चलाने वाले संयोग...

कर्ता कौन है? ये संयोग कर्ता हैं। ये सारे संयोग, साइन्टिफिक सरकमस्टेन्शियल एविडेन्स मिलने पर कार्य होता है। अर्थात् आपके हाथ में सत्ता नहीं है। आपको तो संयोगों को देखते रहना है कि संयोग कैसे हैं। संयोग इकट्ठे हो जाएँ तो कार्य हो ही जाता है। कोई व्यक्ति मार्च महीने में बरसात की आशा रखे तो वह गलत कहलाएगा और जून की पंद्रह तारीख आई कि संयोग इकट्ठे हो जाएँगे। काल का संयोग मिल जाए लेकिन अगर बादलों का संयोग नहीं मिले, तो बिन बादल बरसात कैसे होगी? लेकिन अगर बादल जमा हुए, काल आ मिला, फिर बीजलियाँ कड़कीं, अन्य एविडेन्स इकट्ठे हो गए, तो बरसात होगी ही। अर्थात् संयोग मिलने चाहिए। मनुष्य संयोगाधीन है, लेकिन खुद ऐसा मानता है कि, ‘मैं कुछ करता हूँ’। लेकिन उसका कर्ता होना भी संयोगाधीन है। यदि एक भी संयोग बिखर जाएगा तो उससे वह कार्य नहीं हो पाएगा।

‘मैं कौन हूँ’ यह जानने पर हमेशा के लिए हल

वास्तव में तो यह जानना चाहिए न कि ‘मैं कौन हूँ?’ खुद अपने आप पर बिज़नेस करेंगे, तो साथ में आएगा। नाम पर बिज़नेस करेगें तो हमारे हाथ में कुछ नहीं रहेगा। थोड़ा-बहुत समझना पड़ेगा या नहीं? ‘मैं कौन हूँ’ यह जानना पड़ेगा न?

यहाँ आपको हल ला देते हैं, उसके बाद कभी भी चिंता-वरीज़ वगैरह कुछ भी नहीं होगा। चिंता होती है, वह पसंद है? क्यों नहीं पसंद?

अनंत काल से भटक रहे हैं ये जीव, अनंत काल से! तब

(पृ.३१)

किसी समय कभी ऐसे प्रकाश स्वरूप ज्ञानी पुरुष मिल जाते हैं, तब छुटकारा दिलवा देते हैं।

टेन्शन अलग! चिंता अलग

प्रश्नकर्ता : तो उस चिंता के साथ अहंकार किस तरह है?

दादाश्री : उसे ऐसा लगता है कि मैं नहीं होऊँगा तो नहीं चलेगा। ‘यह मैं ही कर रहा हूँ। मैं नहीं करूँ तो नहीं होगा। अब यह हो पाएगा क्या? सुबह क्या होगा?’ ऐसा करकेचिंता करता है।

प्रश्नकर्ता : चिंता किसे कहते हैं?

दादाश्री : किसी भी चीज़ को सर्वस्व मानकर उसका चिंतन करना, उसे चिंता कहते हैं। पत्नी बीमार हो जाए, अब पैसे से भी ज़्यादा अगर पत्नी ही सर्वस्व लगती हो, तो वहीं से उसे चिंता होने लगेगी। उसे सब से ज़्यादा माना है, इसलिए चिंता घुस जाएगी और जिसके लिए आत्मा ही सर्वस्व है, उसे फिर किसकी चिंता होगी?

प्रश्नकर्ता : टेन्शन क्या है? चिंता तो समझ में आ गई, अब टेन्शन की परिभाषा बताइए कि टेन्शन किसे कहते हैं?

दादाश्री : टेन्शन उसके जैसा ही भाग है। लेकिन उसमें सर्वस्व नहीं है, सभी तरह के तनाव रहते हैं। नौकरी का ठिकाना नहीं पड़ेगा? क्या होगा? एक तरफ बीवी बीमार है, उसका क्या होगा? लड़का ठीक से स्कूल नहीं जाता, उसका क्या? इन सभी तनावों को टेन्शन कहते हैं। हमने तो सत्ताइस सालों से टेन्शन देखा ही नहीं है न!

अब सावधानी और चिंता में बहुत फर्क है। सावधानी तो जागृति है और चिंता का मतलब है जी जलाते रहना।

(पृ.३२)

नॉर्मेलिटी से मुक्ति

प्रश्नकर्ता : परवशता और चिंता दोनों एक नहीं हैं?

दादाश्री : चिंता तो अबव नॉर्मल इगोइज़म है और परवशता इगोइज़म नहीं है। परवशता तो लाचारी है और चिंता वह अबव नॉर्मल इगोइज़म है। इगोइज़म अबव नॉर्मल होगा तो चिंता होगी वर्ना नहीं होगी। रात को घर में किसे नींद नहीं आती? जिसे इगोइज़म ज़्यादा है उसे।

इगोइज़म इस्तेमाल करने को कहा है, अबव नॉर्मल इगोइज़म इस्तेमाल करने को नहीं कहा है। अर्थात् चिंता करना गुनाह है और उसका परिणाम जानवर गति है।

प्रश्नकर्ता : चिंता न हो, उसके लिए क्या उपाय है?

दादाश्री : वापस लौटना चाहिए। इगोइज़म बिल्कुल खत्म कर देना चाहिए या फिर उसे कम करके भी वापस लौटना चाहिए। ज्ञानी पुरुष हों, ज्ञानी पुरुष ‘ज्ञान’ दें, तब सब हो जाता है।

चिंता किस तरह जाए?

प्रश्नकर्ता : चिंता क्यों नहीं छूटती? चिंता से मुक्त होने के लिए क्या करें?

दादाश्री : जिसकी चिंता बंद हो गई हो, ऐसा व्यक्ति मिलेगा ही नहीं। कृष्ण भगवान के भक्त की भी चिंता बंद नहीं होती न! और चिंता से सारा ज्ञान अंधा हो जाता है, फ्रेक्चर हो जाता है।

संसार में एक व्यक्ति ऐसा नहीं है कि जिसे चिंता नहीं होती है। साधु-साध्वी सभी को कभी न कभी तो चिंता होती ही है। साधु

(पृ.३३)

को इन्कम टैक्स नहीं होता है, सेल्स टैक्स नहीं होता है, न भाड़ा होता है, न नाड़ा होता है फिर भी कभी न कभी चिंता हो जाती है। शिष्य के साथ झंझट हो जाए तो भी चिंता हो जाती है। आत्मज्ञान के बगैर चिंता नहीं जा सकती।

एक घंटे में तो तेरी सारी चिंताएँ मैं ले लेता हूँ और गारन्टी देता हूँ कि ‘यदि एक भी चिंता हो तो वकील करके अदालत में मुझ पर केस चलाना’। ऐसे हज़ारों लोगों को हमने चिंता रहित कर दिया है। अरे माँग! जो माँगे वह दूँ ऐसा हूँ, लेकिन ज़रा ठीक माँगना, ऐसा माँगना कि जो कभी तेरे पास से जाए नहीं। ये नाशवंत चीज़ें मत माँगना। शाश्वत सुख माँग लेना।

हमारी आज्ञा में रहे और एक भी चिंता हो तो फिर दावा करने की छूट दी है। हमारी आज्ञा में रहना। यहाँ पर सबकुछ मिले, ऐसा है। इन सभी से क्या शर्त रखी है, जानते हो तुम? एक चिंता हो तो मुझ पर दो लाख का दावा करना।

प्रश्नकर्ता : आपसे ज्ञान पाया, मन-वचन-काया आपको अर्पण किए, उसके बाद चिंता होती ही नहीं है।

दादाश्री : होगी ही नहीं।

चिंता गई, उसी को कहते हैं ‘समाधि’। उससे फिर पहले से भी ज़्यादा काम होगा, क्योंकि फिर उलझन रही ही नहीं न! ऑफिस जाकर बैठे कि काम होता रहता है। घर के विचार नहीं आते हैं, बाहर के विचार नहीं आते हैं, और किसी प्रकार के विचार ही नहीं आते हैं और संपूर्ण एकाग्रता रहती है।

वर्तमान में बर्ते वह सही

लोगों को तीन साल की इकलौती बेटी हो तो, मन में ऐसा

(पृ.३४)

होता है कि यह बड़ी होगी तो इसकी शादी करनी होगी, उसमें खर्च होगा। ऐसी चिंता करने को मना किया है। क्योंकि जब उसका टाइमिंग मिलेगा, तब सारे ऐविडन्स (संयोग) इकट्ठे हो जाएँगे। इसलिए टाइमिंग आने तक आप उसमें हाथ मत डालना। आप अपने आप बेटी को खिलाओ-पिलाओ, पढ़ाओ-लिखाओ लेकिन आगे की सारी चिंता मत करो, आज के दिन की, वर्तमान की ही करो! भूतकाल तो बीत गया। जो आपका भूतकाल है, उसे क्यों उखाड़ते हो? नहीं उखाड़ते न! जो भूतकाल बीत गया हो, उसे तो कोई मूर्ख भी नहीं उखाड़ता। भविष्य व्यवस्थित के हाथों में है, फिर हमें वर्तमान में ही रहना चाहिए। अभी चाय पी रहे हो तो आराम से चाय पीना, क्योंकि भविष्य व्यवस्थित के हाथों में है। हमें क्या झंझट? यानी वर्तमान में ही रहना चाहिए। जब खाना खाते हो, उस घड़ी खाने में पूर्ण चित्त रखकर खाना चाहिए। पकोड़े किसके बने हैं, यह सब आराम से जानना। ‘वर्तमान में रहना’, इसका अर्थ क्या कि बहीखाता लिखो तो बिल्कुल एक्युरेट, उसी में चित्त रखना चाहिए। क्योंकि यदि चित्त भविष्यकाल में जाएगा तो उससे आज का बहीखाता बिगड़ जाएगा। क्योंकि भविष्य के विचार किच-किच करते हैं, जिससे आज का बहीखाता बिगड़ जाता है। भूलचूक हो जाती है। लेकिन जो वर्तमान में रहता है, उसकी एक भी भूल नहीं होती है, उसे चिंता नहीं होती है।

चिंता, नहीं है डिस्चार्ज

प्रश्नकर्ता : क्या चिंता डिस्चार्ज है?

दादाश्री : चिंता डिस्चार्ज नहीं है, क्योंकि उसमें ‘करने वाला’ होता है।

जो चिंता चार्ज रूप में थी, अब वह डिस्चार्ज रूप में होती

(पृ.३५)

है, उसे हम सफोकेशन कहते हैं। क्योंकि भीतर छूने नहीं देते न! आत्मा अहंकार से अलग बरतता है न! जब एकाकार होते थे, तब वह चिंता थी।

अब जो सफोकेशन है, वह चार्ज हुई चिंता है। उसके डिस्चार्ज होते वक्त तो सफोकेशन होता है। जैसे क्रोध चार्ज हुआ था लेकिन आत्मा अलग हो जाने की वजह से डिस्चार्ज होते समय वह गुस्सा बन गया। उसी प्रकार, जिसमें आत्मा जुदापन से बर्ते वह सब जुदा ही है।

अर्थात् यह ज्ञान प्राप्त करने के बाद चिंता होती ही नहीं है, वह सफोकेशन है सिर्फ! चिंता वाला चेहरा पता चल जाता है। यह जो होता है, वह तो सफोकेशन, घुटन होती है।

अगर आपको रास्ता बनाकर दिया हो और उसे समझने में आपसे गलती हो गई, तो फिर आपको उलझन होगी, उसे चिंता नहीं कहते, वह घुटन कहलाती है। अर्थात् चिंताएँ नहीं होंगी। चिंताओं में तो तड़-तड़ करके खून जलता रहता है!

‘व्यवस्थित’ का ज्ञान, वहाँ चिंता गायब

प्रश्नकर्ता : ‘व्यवस्थित’ यदि ठीक से समझ में आ जाएऌ, तो चिंता या टेन्शन कुछ भी नहीं रहेगा?

दादाश्री : ज़रा सा भी नहीं रहेगा। ‘व्यवस्थित’ यानी साइन्टिफिक सरकमस्टेन्शियल एविडेन्स। तब तक ‘व्यवस्थित’ समझते जाना है कि जब तक अंतिम ‘व्यवस्थित’ ‘केवलज्ञान’ उत्पन्न करे और व्यवस्थित समझ में आ जाएगा तो केवलज्ञान समझ में आ जाएगा। यह मेरी ‘व्यवस्थित’ की खोज इतनी सुंदर है! यह ऌ$ऌग़ज़ब की खोज है!

(पृ.३६)

अनंत जन्मों से संसार कौन खड़ा कर रहा था? कर्ता बन बैठे थे, उसकी चिंता!

प्रश्नकर्ता : इस ‘ज्ञान’ से अब मुझे भविष्य की चिंता नहीं रहती है।

दादाश्री : आप तो ऐसा कह देते हो न कि ‘यह व्यवस्थित है’! ‘व्यवस्थित’ आपकी समझ में आ गया है न! कोई परिवर्तन होने वाला नहीं है। सारी रात जागकर दो साल बाद का सोचोगे न, तो वे विचार यूज़लेस हैं। ‘वेस्ट ऑफ टाइम एन्ड एनर्जी’ है।

प्रश्नकर्ता : आपने जो ‘रियल’ और ‘रिलेटिव’ समझाया, उसके बाद चिंता गई।

दादाश्री : बाद में तो चिंता होती ही नहीं न! इस ज्ञान के बाद चिंता हो, ऐसा है ही नहीं। यह मार्ग संपूर्ण वीतराग मार्ग है। संपूर्ण वीतराग मार्ग यानी क्या, कि ‘चिंता ही नहीं हो’। यह तमाम आत्मज्ञानियों का, चौबीस तीर्थंकरों का मार्ग है, यह और किसी का मार्ग नहीं है।

- जय सच्चिदानंद।

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