दादा भगवान कथित

हुआ सो न्याय

मूल गुजराती संकलन : डॉ. नीरू बहन अमीन

अनुवाद : महात्मागण

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संपादकीय
हुआ सो न्याय

संपादकीय

लाखों लोग बद्री-केदारनाथ की यात्रा में गए और एकाएक हिमपात होने से सैकड़ों लोग दबकर मर गए। ऐसे समाचार सुनकर हर कोई काँप जाता है कि कितने भक्तिभाव से भगवान के दर्शन करने जाते हैं, उन्हें ही भगवान ऐसे मार डालते हैं? भगवान बहुत अन्यायी हैं! दो भाईयों के बीच जायदाद के बँटवारे में एक भाई ज़्यादा हड़प लेता है, दूसरे को कम मिलता है, वहाँ बुद्धि ‘न्याय’ ढूँढती है। अंत में कोर्ट-कचहरी में जाते हैं और सुप्रीम कोर्ट तक लड़ते हैं। परिणाम स्वरूप और अधिक दु:खी होते जाते हैं। निर्दोष व्यक्ति जेल भुगतता है, गुनहगार व्यक्ति मौज उड़ाता है, तब इसमें न्याय क्या रहा? नीति वाले मनुष्य दु:खी होते हैं, अनीति करने वाले बंगले बनाते हैं और गाड़ियों में घूमते हैं, वहाँ न्यायस्वरूप कैसे लगेगा?

ऐसी घटनाएँ तो कदम-कदम पर होती है, जहाँ पर बुद्धि ‘न्याय’ ढूँढने बैठ जाती है और दु:खी-दु:खी हो जाते हैं! परम पूज्य दादाश्री की अद्भुत आध्यात्मिक खोज है कि इस जगत् में कहीं भी अन्याय होता ही नहीं। हुआ सो न्याय! कुदरत कभी भी न्याय से बाहर गई नहीं है। क्योंकि कुदरत यानी कोई व्यक्ति या भगवान नहीं है कि किसी का उस पर ज़ोर चले! कुदरत यानी साइन्टिफिक सरमकस्टेन्शियल एविडेन्सेस। कितने सारे संयोग इकट्ठे होते हैं, तब जाकर एक कार्य होता है। इतने सारे लोग थे, उनमें से कुछ ही क्यों मारे गए?! जिनका मरने का हिसाब था, वे ही शिकार हुए, मृत्यु के और दुर्घटना के! एन इन्सिडेन्ट हैज़ सो मेनि कॉज़ेज़ और एन एक्सिडेन्ट हैज़ टू मेनि कॉज़ेज़! हिसाब के बगैर खुद को एक मच्छर भी नहीं काट सकता। हिसाब है तभी दंड आया है। इसलिए जिसे छूटना है, उसे तो यही बात समझनी है कि खुद के साथ जो जो हुआ वही न्याय है।

‘जो हुआ सो न्याय’ इस ज्ञान का जीवन में जितना उपयोग होगा, उतनी शांति रहेगी और किसी भी प्रतिकूलता में भीतर एक परमाणु मात्र भी नहीं हिलेगा।

- डॉ. नीरू बहन अमीन

(पृ.१)

हुआ सो न्याय

विश्व की विशालता, शब्दातीत....

सभी शास्त्रों में जितना वर्णन है, जगत् उतना ही नहीं है। शास्त्रों में तो कुछ ही अंश है। बाकी, जगत् तो अवक्तव्य और अवर्णनीय है जो ऐसा नहीं है कि शब्दों में उतारा जा सके। तो फिर आप उसे शब्दों से बाहर कहाँ से लाओगे? शब्दों में नहीं उतारा जा सकता तो आप उसका वर्णन शब्दों से बाहर कहाँ से समझोगे? जगत् इतना बड़ा, विशाल है। और मैं देखकर बैठा हूँ। इसलिए मैं आपको बता सकता हूँ कि कैसी विशालता है!

कुदरत तो हमेशा न्यायी ही है

जो कुदरत का न्याय है, उसमें एक क्षण के लिए भी अन्याय नहीं हुआ है। यह कुदरत जो है, वह एक क्षण के लिए भी अन्यायी नहीं हुई है। कोर्ट में हुआ होगा। कोर्टों में सब चलता है लेकिन कुदरत कभी अन्यायी हुई ही नहीं। कुदरत का न्याय कैसा है कि यदि आप साफ इंसान हो और यदि आज आप चोरी करने जाओ तो आपको पहले ही पकड़वा देगी और यदि मैला इंसान होगा तो पहले दिन उसे एन्करेज (प्रोत्साहित) करेगी। कुदरत का ऐसा हिसाब होता है कि पहले वाले को साफ रखना है इसलिए उसे पकड़वा देगी, उसे हेल्प नहीं करेगी और दूसरे वाले को हेल्प करती ही रहेगी और बाद में ऐसी मार मारेगी कि फिर वह ऊपर नहीं उठ पाएगा। वह अधोगति में

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जाएगा। कुदरत एक मिनट के लिए भी अन्यायी नहीं हुई है। लोग मुझसे पूछते हैं कि यह आपके पैर में फ्रेक्चर हुआ है, वह? यह सब कुदरत ने न्याय ही किया है।

यदि कुदरत के न्याय को समझोगे कि ‘हुआ सो न्याय’, तो आप इस जगत् में से मुक्त हो पाओगे वर्ना कुदरत को ज़रा सा भी अन्यायी समझोगे तो वही आपके लिए जगत् में उलझने का कारण है। कुदरत को न्यायी मानना, वही ज्ञान है। ‘जैसा है वैसा’ जानना, वही ज्ञान है और ‘जैसा है वैसा’ नहीं जानना, वही अज्ञान है।

एक आदमी ने दूसरे आदमी का मकान जला दिया, तो उस समय अगर कोई पूछे कि ‘भगवान यह क्या है? इसका मकान इस आदमी ने जला दिया। यह न्याय है या अन्याय?’ तब कहते हैं, ‘न्याय। जला दिया वही न्याय है।’ अब इस पर वह कुढ़ता रहे कि ‘नालायक है और ऐसा है, वैसा है’, तब फिर उसे अन्याय का फल मिलेगा। वह न्याय को ही अन्याय कह रहा है! जगत् बिल्कुल न्यायस्वरूप ही है। एक क्षणभर के लिए भी इसमें अन्याय नहीं होता है।

जगत् में न्याय ढूँढने से ही तो पूरी दुनिया में लड़ाइयाँ हुई हैं। जगत् न्यायस्वरूप ही है। इसलिए इस जगत् में न्याय ढूँढना ही मत। जो हुआ, वही न्याय है। जो हो गया, वही न्याय है। ये कोर्ट आदि सब बने हैं वे इसलिए क्योंकि न्याय ढूँढते हैं! अरे भाई, न्याय होता होगा?! उसके बजाय ‘क्या हुआ’ उसे देख! वही न्याय है।

‘न्याय’ स्वरूप अलग है और अपना यह फलस्वरूप अलग है! न्याय-अन्याय का फल तो हिसाब से आता है और हम उसके साथ न्याय जॉइन्ट करने जाते हैं, फिर कोर्ट में ही जाना पड़ेगा न! और वहाँ जाकर, थककर, आखिर में वापस ही आना है!

आपने किसी को एक गाली दी तो फिर वह आपको दो-तीन

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गालियाँ दे देगा, क्योंकि उसका मन आप पर गुस्सा हो जाता है। तब लोग क्या कहते हैं? तूने तीन गालियाँ क्यों दी, इसने तो एक ही दी थी। तब उसमें क्या न्याय है? उसका हमें तीन ही देने का हिसाब है, पिछला हिसाब चुकाएगा या नहीं?

प्रश्नकर्ता : हाँ, चुकाएगा।

दादाश्री : वसूल करते हैं या नहीं करते? आपने उसके पिताजी को रुपए उधार दिए हों, लेकिन फिर कभी आपको मौका मिले तो वसूल कर लेते हो न? लेकिन वह तो समझेगा कि अन्याय कर रहा है। उसी प्रकार कुदरत का न्याय क्या है? जो पिछला हिसाब होता है, वह सारा इकट्ठा कर देती है। अब यदि कोई स्त्री उसके पति को परेशान करे, तो वह कुदरती न्याय है। उसका पति समझता है कि ‘यह पत्नी बहुत खराब है’ और पत्नी क्या समझती है कि ‘पति खराब है’। लेकिन यह कुदरत का न्याय ही है।

प्रश्नकर्ता : हाँ।

दादाश्री : यदि आप शिकायत करने आते हो तो मैं शिकायत नहीं सुनता। इसका क्या कारण है?

प्रश्नकर्ता : अब पता चला कि यह न्याय है।

बुना हुआ खोले, कुदरत

दादाश्री : यह हमारी खोज हैं न सारी! भुगते उसी की भूल। देखो कितनी अच्छी खोज है! किसी के साथ टकराव में मत आना और व्यवहार में न्याय मत ढूँढना।

नियम कैसा है कि जैसे बुना होगा, वह बुनाई वापस उसी तरह से खुलेगी। अन्यायपूर्वक बुना हुआ होगा तो अन्याय से खुलेगा और न्याय से बुना होगा तो न्याय से खुलेगा। यों यह सारा बुना हुआ खुल

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रहा है और फिर लोग उसमें न्याय ढूँढते हैं। भाई, न्याय क्या ढूँढ रहा है, कोर्ट की तरह? अरे भाई, अन्यायपूर्वक तूने बुना और अब तू न्यायपूर्वक उधेड़ने चला है? वह कैसे संभव है? वह तो नौ से ‘गुणा’ किए हुए में नौ से ‘भाग’ लगाया जाए तभी अपनी मूल जगह पर आएगा। कईं बुनी हुई उलझनें पड़ी हैं। अत: मेरे ये शब्द जिन्होंने पकड़ लिए हैं, उनका काम निकाल देंगे न!

प्रश्नकर्ता : हाँ दादा, ये दो-तीन शब्द पकड़ लिए हों और जिज्ञासु इंसान हो, तो उसका काम हो जाएगा।

दादाश्री : काम हो जाएगा। ज़रूरत से ज़्यादा अक्लमंद नहीं बनेगा तो काम हो जाएगा।

प्रश्नकर्ता : व्यवहार में ‘तू न्याय मत ढूँढना’ और ‘भुगते उसी की भूल’, ये दो सूत्र पकड़े हैं।

दादाश्री : ‘न्याय मत ढूँढना’, यदि यह वाक्य पकड़े रखा तो उसका सब ऑलराइट हो जाएगा। ये न्याय ढूँढते हैं, इसीलिए सब उलझनें खड़ी हो जाती हैं।

पुण्योदय से खूनी भी छूटे निर्दोष...

प्रश्नकर्ता : कोई व्यक्ति किसी का खून करे, तो वह भी न्याय ही कहलाएगा?

दादाश्री : न्याय से बाहर तो कुछ भी नहीं होता। भगवान की भाषा में न्याय ही कहलाता है। सरकारी भाषा में नहीं कहलाता, इस लोकभाषा में नहीं कहलाता। लोकभाषा में तो खून करने वाले को ही पकड़कर ले आते हैं कि यही गुनहगार है। जबकि भगवान की भाषा में क्या कहते हैं? ‘जिसका खून हुआ, वही गुनहगार है।’ यदि पूछें, ‘इस खून करने वाले का गुनाह नहीं है?’ तब कहते हैं, खून करने

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वाला जब पकड़ा जाएगा, तब वह गुनहगार माना जाएगा! अभी तो, वह नहीं पकड़ा गया है और यह पकड़ा गया! आपकी समझ में नहीं आया?

प्रश्नकर्ता : कोर्ट में कोई व्यक्ति खून करके निर्दोष छूट जाता है, वह उसके पूर्वकर्म का बदला लेता है या फिर अपने पुण्य की वजह से वह इस तरह छूट जाता है? वह क्या है?

दादाश्री : पुण्य और पूर्वकर्म का बदला, वह एक ही बात है। उसका पुण्य था, इसलिए छूट गया और किसी ने गुनाह नहीं किया हो तो भी फँस जाता है। जेल जाना पड़ता है। वह तो उसके पाप का उदय है, वहाँ कोई चारा ही नहीं है।

बाकी, यह जो दुनिया है, इसकी कोर्टों में शायद कभी अन्याय हो सकता है, लेकिन कुदरत ने इस दुनिया में कभी अन्याय नहीं किया है। न्याय में ही रहती है। कुदरत न्याय से बाहर कभी गई ही नहीं है। फिर तूफान दो आएँ या एक आए, लेकिन न्याय में ही होती है।

प्रश्नकर्ता : आपकी दृष्टि में, जो विनाश होते हुए दृश्य दिखाई देते हैं, वे हमारे लिए श्रेय ही हैं न?

दादाश्री : विनाश होता हुआ दिखाई दे तो उसे श्रेय कैसे कहेंगे? लेकिन जो विनाश होता है, वह नियम से सही है। कुदरत विनाश करती है, वह भी सही है और कुदरत जिसका पोषण करती है, वह भी सही है। सब रेग्युलर करती है, ऑन द स्टेज! लोग तो खुद के स्वार्थ को लेकर शिकायत करते हैं कि ‘मेरा कपास जल गया’। जबकि छोटे कपास वाले कहते हैं कि ‘हमारे लिए अच्छा हुआ’। अर्थात् लोग तो अपने-अपने स्वार्थ का ही गाते हैं।

प्रश्नकर्ता : आप कहते हैं कि कुदरत न्यायी है, तो फिर ये जो भूकंप आते हैं, तूफान आते हैं, खूब बरसात होती है, वह क्यों?

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दादाश्री : वह सब न्याय ही कर रही है। बारिश होती है, फसल पकती है, यह सब न्याय ही हो रहा है। भूकंप आते हैं, वह भी न्याय ही हो रहा है।

प्रश्नकर्ता : वह कैसे?

दादाश्री : जितने गुनहगार होंगे कुदरत उतनों को ही पकड़ेगी, औरों को नहीं। ये सब गुनहगार को ही पकड़ते हैं! यह जगत् बिल्कुल भी डिस्टर्ब नहीं हुआ है। एक सेकन्ड के लिए भी न्याय से बाहर कुछ भी नहीं गया है।

जगत् में ज़रूरत चोर और साँप की

लोग मुझे पूछते हैं कि ये चोर लोग क्यों आए हैं? इन जेबकतरों की क्या ज़रूरत है? भगवान ने क्यों इन्हें जन्म दिया होगा? अरे, वे नहीं होते तो तुम्हारी जेबें कौन खाली करेगा? क्या भगवान खुद आएँगे? तुम्हारा चोरी का धन कौन पकड़ेगा? तुम्हारा काला धन होगा तो कौन ले जाएगा? वे बेचारे तो निमित्त हैं। अत: इन सभी की ज़रूरत है।

प्रश्नकर्ता : किसी की पसीने की कमाई भी चली जाती है।

दादाश्री : वह तो इस जन्म की पसीने की कमाई है, लेकिन पहले का सारा हिसाब है न! बहीखाते बाकी हैं, इसलिए। वर्ना कोई कभी हमारा कुछ भी नहीं ले सकता। किसी से ले सके, ऐसी शक्ति है ही नहीं। और अगर ले लेता है तो वह हमारा कुछ अगला-पिछला हिसाब है। इस दुनिया में कोई ऐसा पैदा नहीं हुआ जो किसी का कुछ कर सके। इतना नियम वाला जगत् है। बहुत नियम वाला जगत् है। यह पूरा मैदान साँपों से भरा हुआ हो, लेकिन फिर भी साँप हमें छू नहीं सकता, इतना नियम वाला जगत् है। बहुत हिसाब वाला जगत् है। यह जगत् बहुत सुंदर है, न्यायस्वरूप है लेकिन लोगों की समझ में नहीं आता।

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कारण का पता चले, परिणाम पर से

यह सब रिज़ल्ट है। जैसे परीक्षा का रिज़ल्ट आता है न, यह मैथेमैटिक्स (गणित) में सौ में से पचानवे माक्र्स आएँ और इंग्लिश में सौ में से पच्चीस माक्र्स आएँ। तब क्या हमें पता नहीं चलेगा कि इसमें कहाँ पर भूल रह गई है? इस परिणाम पर से वह हमें पता चलेगा न कि किस कारण से भूल हुई? ये सारे संयोग जो इकट्ठे होते हैं, वे सभी परिणाम हैं। और उन परिणामों पर से हमें कॉज़ का पता चल जाता है।

यहाँ रास्ते पर सभी लोग आ-जा रहे हों और बबूल का कांटा ऐसे सीधा पड़ा हुआ हो, बहुत लोग आ-जा रहे हों लेकिन कांटा वैसे का वैसा ही पड़ा रहता है। वैसे तो आप कभी भी बूट-चप्पल पहने बगैर घर से नहीं निकलते लेकिन उस दिन किसी के वहाँ गए और शोर मचा कि ‘चोर आया, चोर आया’, तब आप नंगे पैर दौड़े और कांटा आपके पैर में चुभ गया तो वह आपका हिसाब! वह भी ऐसा कि आरपार निकल जाए, ऐसा चुभता है! अब ये संयोग कौन इकट्ठे कर देता है? ‘व्यवस्थित शक्ति’(साइन्टिफिक सरमकस्टेन्शियल एविडेन्स) इकट्ठे कर देती है।

कुदरत के कानून

मुंबई के फोर्ट एरिया में आपकी सोने की चैन वाली घड़ी खो जाए और आप घर आकर ऐसा मान लेते हो कि ‘भाई, अब वह हमारे हाथ नहीं लगेगी।’ लेकिन दो दिन बाद पेपर में छपता है कि ‘जिसकी घड़ी हो, वह प्रमाण देकर हमसे ले जाए और विज्ञापन के पैसे दे जाए।’ अर्थात् जिसका है, उसे कोई ले नहीं सकता। जिसका नहीं है, उसे मिलने वाला नहीं है। इतना जगत् नियमबद्ध है कि एक परसेन्ट भी आगे-पीछे नहीं किया जा सकता। कोर्ट कैसी भी हो लेकिन वे

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कोर्ट कलियुग के आधार पर हैं, जबकि यह कुदरत नियम के अधीन है। कोर्ट के कानून भंग किए होंगे तो कोर्ट केगुनहगार बनोगे, लेकिन कुदरत के कानून मत तोड़ना।

ये तो हैं खुद के ही प्रोजेक्शन

यह सारा प्रोजेक्शन आपका ही है। लोगों को क्यों दोष दें?

प्रश्नकर्ता : क्रिया की प्रतिक्रिया है यह?

दादाश्री : उसे प्रतिक्रिया नहीं कहते। लेकिन यह सारा आपका प्रोजेक्शन है। अगर प्रतिक्रिया कहोगे तो फिर ‘एक्शन एन्ड रिएक्शन आर ईक्वल एन्ड ऑपोज़िट’ होगा।

यह तो उदाहरण दे रहे हैं, सिमिली दे रहे हैं। आपका ही प्रोजेक्शन है यह। अन्य किसी का हाथ नहीं है इसलिए आपको सावधान रहना चाहिए कि यह सारी ज़िम्मेदारी मुझ पर है। ज़िम्मेदारी समझने के बाद घर में आपका बर्ताव कैसा होना चाहिए?

प्रश्नकर्ता : वैसा बर्ताव करना चाहिए।

दादाश्री : हाँ, खुद की ज़िम्मेदारी समझेगा। वर्ना वह कहेगा कि ‘भगवान की भक्ति करोगे तो सब चला जाएगा।’ पोलम्पोल! लोगों ने भगवान के नाम पर घोटाला चलाया है। ज़िम्मेदारी खुद की है। होल एन्ड सोल रिस्पोन्सिबल। खुद का ही प्रोजेक्शन है न!

कोई दु:ख दे तो जमा कर लेना। तूने पहले जो दिया होगा, वही वापस जमा करना है। क्योंकि यहाँ पर ऐसा कानून ही नहीं है कि बिना वजह कोई किसी को दु:ख पहुँचा सके। उसके पीछे कॉज़ होने चाहिए। इसलिए जमा कर लेना।

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जिसे जगत् में से भाग छूटना है, उसे...

फिर कभी दाल में नमक ज़्यादा डल जाए तो वह भी न्याय है!

प्रश्नकर्ता : आपने ऐसा कहा है कि क्या हो रहा है? उसे देखना है। तब फिर न्याय करने का सवाल ही कहाँ रहा?

दादाश्री : न्याय, मैं ज़रा अलग कहना चाहता हूँ। देखो न, उनके हाथ ज़रा केरोसीन वाले होंगे, उसी हाथ से लोटा उठाया होगा। इसलिए केरोसीन की बदबू आ रही थी। अब मैं तो ज़रा पानी पीने गया, तो मुझे केरोसीन की बदबू आई। ऐसे में हम ‘देखते और जानते हैं’ कि यह क्या हुआ! फिर न्याय क्या होना चाहिए? कि यह हमारे हिस्से में कहाँ से आया? पहले कभी भी नहीं आया था तो आज यह कहाँ से आ गया? यानी ‘यह हमारा ही हिसाब है। इसलिए इस हिसाब को पूरा कर दो।’ लेकिन वह इस तरह पूरा कर देते हैं कि किसी को पता नहीं चले। सुबह उठने के बाद, वे बहन जी आएँ और फिर से वही पानी मँगवाकर दें तो हम फिर से उसे पी जाएँगे। लेकिन कोई जान नहीं पाएगा। अब इस जगह पर अज्ञानी क्या करेगा?

प्रश्नकर्ता : शोर मचा देगा।

दादाश्री : घर के सारे लोग जान जाएँगे कि आज सेठ जी के पानी में केरोसीन था।

प्रश्नकर्ता : पूरा घर हिल जाएगा!

दादाश्री : अरे, सब को पागल कर देगा! और फिर पत्नी तो बेचारी चाय में शक्कर डालना भी भूल जाएगी! एक बार हिल उठे तो फिर क्या होगा? बाकी सभी बातों में भी हिल उठेंगे।

प्रश्नकर्ता : दादा, उसमें वह तो ठीक है कि हम शिकायत न

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करें लेकिन बाद में शांत चित्त से घर वालों से कहना तो चाहिए न कि ‘भाई, पानी में केरोसीन आ गया था। आगे से ध्यान रखना।’

दादाश्री : वह कब कहना चाहिए? जब चाय-नाश्ता कर रहे हों, हँसी मज़ाक कर रहे हों, तब हँसते-हँसते बात कर सकते हैं।

जैसे अभी हमने यह बात ज़ाहिर की न? इसी तरह जब हँसी मज़ाक कर रहे हों तब बात ज़ाहिर कर सकते हैं।

प्रश्नकर्ता : इस तरह कहना है न कि सामने वाले को चोट न पहुँचे?

दादाश्री : हाँ, इस तरह कहा जाए तो वह सामने वाले को हेल्प होगी। लेकिन सब से अच्छा रास्ता तो यही है कि मेरी भी चुप और तेरी भी चुप! उस जैसा तो कुछ भी नहीं है। क्योंकि जिसे इस संसार से छूटना है, वह बिल्कुल भी शिकायत नहीं करेगा।

प्रश्नकर्ता : सलाह के तौर पर भी नहीं कहें? क्या वहाँ चुप रहना चाहिए?

दादाश्री : वह खुद सारा हिसाब लेकर आया है। समझदार बनने का सारा हिसाब भी वह लेकर ही आया है।

हम क्या कहते हैं कि यहाँ से जाना हो तो भाग छूटो। और भाग निकलना है तो कुछ बोलना मत। यदि रात को भाग निकलना है और शोर मचाएँगे तो पकड़ लेंगे न!

भगवान के वहाँ कैसा होता है?

भगवान न्यायस्वरूप नहीं हैं और अन्यायस्वरूप भी नहीं हैं। किसी को दु:ख नहीं हो, वही भगवान की भाषा है। न्याय-अन्याय तो लोकभाषा है।

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चोर, चोरी करने को धर्म मानता है, दानी, दान देने को धर्म मानता है। वह लोकभाषा है, भगवान की भाषा नहीं है। भगवान के वहाँ ऐसा कुछ है ही नहीं। भगवान के वहाँ तो इतना ही है कि ‘किसी जीव को दु:ख नहीं हो, वही हमारी आज्ञा है!’

न्याय-अन्याय तो कुदरत ही देखती है। बाकी, यहाँ दुनिया में जो न्याय-अन्याय हैं, वह दुश्मनों को, गुनहगारों को हेल्प करता है। कहेंगे, ‘होगा बेचारा, जाने दो न!’ तब गुनहगार भी छूट जाता है। कहते हैं, ‘ऐसा ही होता है’। बाकी, कुदरत के न्याय में तो कोई चारा ही नहीं है। उसमें किसी की नहीं चलती!

निजदोष दिखाते हैं अन्याय

सिर्फ खुद के दोषों के कारण पूरी दुनिया अनियम वाली लगती है। एक क्षण के लिए भी अनियम वाली हुई ही नहीं है। बिल्कुल न्याय में ही रहती है। यहाँ की कोर्ट के न्याय में बदल सकता है, वह गलत निकल सकता है लेकिन इस कुदरत के न्याय में बदलाव नहीं होता।

प्रश्नकर्ता : कोर्ट का न्याय भी कुदरत का न्याय है या नहीं?

दादाश्री : वह सब कुदरत ही है। लेकिन कोर्ट में हमें ऐसा लगता है कि इस जज ने ऐसा किया। कुदरत में ऐसा नहीं लगता न? लेकिन वह तो बुद्धि की तकरार है!

प्रश्नकर्ता : आपने कुदरत के न्याय की तुलना कम्प्यूटर से की है लेकिन कम्प्यूटर तो मिकेनिकल होता है।

दादाश्री : समझाने के लिए उस जैसा अन्य कोई साधन नहीं है न, इसलिए मैंने यह सिमिली दी है। बाकी, कम्प्यूटर तो कहने के लिए है कि जैसे कम्प्यूटर में डेटा फीड करते हैं, वैसे ही इसमें खुद

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के भाव डलते हैं। मतलब एक जन्म के भावकर्म डलने के बाद दूसरे जन्म में उसका परिणाम आता है। तब उसका विसर्जन होता है। वह इस ‘व्यवस्थित शक्ति’ के हाथ में है। वह एक्ज़ेक्ट न्याय ही करती है। जैसा न्याय में आया, वैसा ही करती है। बाप अपने बेटे को मार डाले, न्याय में वैसा भी आता है। फिर भी वह न्याय कहलाता है। कुदरत का न्याय तो न्याय ही कहलाता है। क्योंकि जैसा बाप-बेटे का हिसाब था, वैसा ही चुकाया। वह चुक गया। इसमें हिसाब ही चुकते हैं, और कुछ नहीं होता।

कोई गरीब आदमी लॉटरी में एक लाख रुपये जीत जाता है न, वह भी न्याय है और किसी की जेब कटी, वह भी न्याय है।

कुदरत के न्याय का आधार क्या?

प्रश्नकर्ता : कुदरत न्यायी है, इसका आधार क्या है? न्यायी कहने के लिए कोई आधार तो चाहिए न?

दादाश्री : वह न्यायी है, वह तो केवल आपके जानने के लिए ही है। आपको विश्वास होगा कि न्यायी है। लेकिन बाहर के लोगों को (अज्ञानता में) यह कभी भी विश्वास नहीं होगा कि कुदरत न्यायी है। क्योंकि उनके पास दृष्टि नहीं है न! (क्योंकि जिसने आत्मज्ञान प्राप्त नहीं किया है, उसकी दृष्टि सम्यक् नहीं हुई है।)

हम क्या कहना चाहते हैं? आफ्टर ऑल, जगत् क्या है? कि भाई, ऐसा ही है। एक अणु का भी फर्क नहीं हो इतना न्यायस्वरूप है, बिल्कुल न्यायी है।

कुदरत दो चीज़ों से बनी है। एक स्थायी, सनातन वस्तु और दूसरी अस्थायी वस्तु, जो अवस्था रूप है। उसकी अवस्था बदलती रहती है और वह नियमानुसार बदलती रहती है। देखने वाला व्यक्ति

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खुद की एकांतिक बुद्धि से देखता है। अनेकांत बुद्धि से कोई सोचता ही नहीं, लेकिन खुद के स्वार्थ से ही देखता है।

किसी का इकलौता बेटा मर जाए, तो भी न्याय ही है। इसमें किसी ने अन्याय नहीं किया है। इसमें भगवान का, किसी का अन्याय है ही नहीं, न्याय ही है। इसलिए हम कहते हैं न कि जगत् न्यायस्वरूप है। निरंतर न्यायस्वरूप में ही है।

किसी का इकलौता बेटा मर जाए, तब सिर्फ उसके घर वाले ही रोते हैं। दूसरे आसपास वाले क्यों नहीं रोते? वे घर वाले खुद के स्वार्थ से रोते हैं। यदि सनातन वस्तु में (खुद के आत्मस्वरूप में) आ जाए तो कुदरत न्यायी ही है।

क्या इन सब बातों का तालमेल बैठता है? तालमेल बैठे तो समझना कि बात सही है। यदि ज्ञान अमल में लाया जाए तो कितने दु:ख कम हो जाएँगे!

और एक सेकन्ड के लिए भी न्याय में कोई फर्क नहीं होता। यदि अन्यायी होता तो कोई मोक्ष में जाता ही नहीं। ये तो पूछते हैं कि अच्छे लोगों को परेशानियाँ क्यों आती हैं? लेकिन लोग, ऐसी कोई परेशानी पैदा नहीं कर सकते। क्योंकि खुद यदि किसी बात में दखल नहीं करे तो कोई ताकत ऐसी नहीं है जो आपका नाम दे। खुद ने दखल की है इसलिए यह सब खड़ा हो गया है।

प्रैक्टिकल चाहिए, थ्योरी नहीं

अब शास्त्रकार क्या लिखते हैं? ‘हुआ सो न्याय’ नहीं कहते। वे तो कहते हैं, ‘न्याय ही न्याय है’। अरे भाई, तेरी वजह से ही तो हम भटक गए! अर्थात् थ्योरिटिकली ऐसा कहते हैं कि न्याय ही न्याय है। जबकि प्रैक्टिकली क्या कहते हैं कि हुआ सो न्याय। प्रैक्टिकल के

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बिना दुनिया में कोई काम नहीं हो सकता। इसलिए यह थ्योरिटिकली नहीं टिक पाया।

यानी कि जो हुआ, वही न्याय। निर्विकल्पी बनना है तो, हुआ सो न्याय। विकल्पी बनना हो तो न्याय ढूँढ। भगवान बनना हो तो जो हुआ सो न्याय, और भटकना हो तो न्याय ढूँढते हुए निरंतर भटकते रहो।

नुकसान खटकता है लोभी को

यह दुनिया गप्प नहीं है। दुनिया न्यायस्वरूप है। कुदरत ने कभी भी बिल्कुल, अन्याय नहीं किया। कुदरत कहीं पर आदमी को काट देती है, एक्सिडेन्ट हो जाता है, तो वह सब न्यायस्वरूप है। कुदरत न्याय से बाहर गई ही नहीं है। यह बेकार ही नासमझी में कुछ भी कहते रहते हैं और जीवन जीने की कला भी नहीं आती, और देखो चिंता ही चिंता। इसलिए जो हुआ उसे न्याय कहो।

आपने दुकानदार को सौ रुपए का नोट दिया। उसने पाँच रुपए का सामान दिया और पाँच रुपए आपको वापस दिए। शोरगुल में वह नब्बे रुपए वापस करना भूल गया। उसके पास कई सौ-सौ के नोट, कई दस-दस के नोट, बिना गिने हुए पड़े थे। वह भूल गया और आपको पाँच दे रहा था, तब आपने क्या कहा? ‘मैंने आपको सौ का नोट दिया था।’ वह कहता है, ‘नहीं’। उसे वही याद है, वह भी झूठ नहीं बोलता। तब आप क्या करोगे?

प्रश्नकर्ता : लेकिन वह फिर मन में खटकता ही रहता है कि इतने पैसे गए। मन शोर मचाता है।

दादाश्री : वह खटकता है तो जिसे खटकता है, उसे नींद नहीं आएगी। ‘हमें’ (शुद्धात्मा को) क्या? इस शरीर में जिसे खटकेगा, उसे नींद नहीं आएगी। सभी को थोड़े ही खटकेगा? लोभी को खटकेगा!

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तब उस लोभी से कहना, ‘खटक रहा है? तो सो जा न! अब तो पूरी रात सोना ही पड़ेगा!’

प्रश्नकर्ता : उसकी तो नींद भी जाएगी और पैसे भी जाएँगे।

दादाश्री : हाँ, इसलिए वहाँ पर यह ज्ञान हाज़िर रहा कि ‘हुआ सो करेक्ट’, तो अपना कल्याण हो जाएगा।

ऐसा है कि अगर ‘हुआ सो न्याय’ समझेंगे तो पूरा संसार पार हो जाएगा। इस दुनिया में एक सेकन्ड के लिए भी अन्याय नहीं होता। न्याय ही हो रहा है। लेकिन बुद्धि हमें फँसाती है कि इसे न्याय कैसे कह सकते हैं? इसलिए हम मूल बात बताना चाहते हैं कि यह कुदरत का है और बुद्धि से आप अलग हो जाओ। बुद्धि इसमें फँसाती है। एक बार समझ लेने के बाद बुद्धि का मत मानना। हुआ सो न्याय। कोर्ट के न्याय में भूलचूक हो सकती है, उल्टा-सीधा हो जाता है, लेकिन इस न्याय में कोई फर्क नहीं है।

कम-ज़्यादा बँटवारा, वही न्याय

किसी परिवार में पिता की मृत्यु के बाद सभी भाईयों की जमीन बड़े भाई के कब्ज़े में आ जाती है। अब यह जो बड़ा भाई है, वह छोटों को बार-बार धमकाता रहता है और ज़मीन नहीं देता। ढाई सौ बीघा ज़मीन थी। चारों भाईयों को पचास-पचास बीघा देनी थी। तब कोई पच्चीस ले गया, कोई पचास ले गया, कोई चालीस ले गया जबकि किसी के हिस्से में पाँच ही आई।

अब उस समय क्या समझना चाहिए? जगत् का न्याय क्या कहता है कि बड़ा भाई लुच्चा है, झूठा है। कुदरत का न्याय क्या कहता है, बड़ा भाई करेक्ट है। पचास वाले को पचास दी, बीस वाले को बीस दी, चालीस वाले को चालीस और इस पाँच वाले को पाँच ही

(पृ.१६)

दी। बाकी का पिछले जन्म के दूसरे हिसाब में चुकता हो गया। आपको मेरी बात समझ में आती है?

यदि झगड़ा नहीं करना हो तो कुदरत के तरीके से चलना, वर्ना यह दुनिया तो झगड़ा ही है। यहाँ न्याय नहीं हो सकता। न्याय तो देखने के लिए है कि मुझमें कुछ परिवर्तन, कुछ फर्क हुआ है? यदि मुझे न्याय मिलता है तो मैं न्यायी हूँ, यह तय हो गया। न्याय तो अपना एक थर्मामीटर है। बाकी, व्यवहार में न्याय नहीं हो सकता न! न्याय में आ जाए तो मनुष्य पूर्ण हो जाए। तब तक, वह या तो अबव नॉर्मेलिटी में या बिलो नॉर्मेलिटी में ही रहता है!

अत: जब बड़ा भाई उस छोटे को पूरा हिस्सा नहीं देता, पाँच ही बीघा देता है। वहाँ लोग न्याय करने जाते हैं और उस बड़े भाई को बुरा ठहराते हैं। अब यह सब गुनाह है। तू भ्रांति वाला है, इसलिए तूने भ्रांति को ही सच मान लिया। फिर कोई चारा ही नहीं है और सच माना है, यानी कि इस व्यवहार को ही सच माना है तो मार ही खाएगा न! बाकी, कुदरत के न्याय में तो कोई भूलचूक है ही नहीं।

अब वहाँ पर हम ऐसा नहीं कहते कि ‘तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिए, इन्हें इतना करना है।’ वर्ना हम वीतराग नहीं कहलाएँगे। यह तो हम देखते रहते हैं कि पिछला क्या हिसाब है!

यदि हमसे कहे कि ‘आप न्याय कीजिए’। न्याय करने को कहे, तब हम कहेंगे कि भाई, हमारा न्याय अलग तरह का होता है और इस जगत् का न्याय अलग तरह का है। हमारा तो कुदरत का न्याय है। वल्र्ड का रेग्युलेटर है न, वह इसे रेग्युलेशन में ही रखता है। एक क्षण के लिए भी अन्याय नहीं होता। लेकिन लोगों को अन्याय क्यों लगता है? फिर वह न्याय ढूँढता है। क्यों तुझे दो नहीं दिए और पाँच ही दिए? अरे भाई, जो दिया है, वही न्याय है। क्योंकि पहले के

(पृ.१७)

हिसाब हैं सारे, आमने-सामने। उलझा हुआ ही है, हिसाब है। यानी कि न्याय तो थर्मामीटर है। थर्मामीटर से देख लेना चाहिए कि ‘मैंने पहले न्याय नहीं किया था, इसलिए मेरे साथ अन्याय हुआ है। थर्मामीटर का दोष नहीं है।’ आपको क्या लगता है? मेरी यह बात कुछ हेल्प करेगी?

प्रश्नकर्ता : बहुत हेल्प करेगी।

दादाश्री : जगत् में न्याय मत ढूँढना। जो हो रहा है, वही न्याय है। हमें देखना है कि यह क्या हो रहा है। तब कहता है, ‘पचास बीघा के बजाय पाँच बीघा दे रहा है। भाई से कहना, ‘ठीक है। अब आप खुश हो न?’ वह कहे, ‘हाँ’। फिर दूसरे दिन से साथ में खाना-पीना, उठना-बैठना। यही हिसाब है। हिसाब से बाहर तो कोई नहीं है। बाप बेटों से हिसाब लिए बिना नहीं छोड़ता। यह तो हिसाब ही है, रिश्तेदारी नहीं है। आप रिश्तेदार समझ बैठे थे!

कुचल डाला, वह भी न्याय

बस में चढऩे के लिए राइट साइड में एक व्यक्ति खड़ा है, वह रोड के साइड में खड़ा है। रोंग साइड से एक बस आई। वह उस पर चढ़ गई और उसे मार डाला। क्या इसे न्याय कहा जाएगा?

प्रश्नकर्ता : लोग तो ऐसा ही कहेंगे कि ड्राइवर ने कुचल डाला।

दादाश्री : हाँ, उल्टे रास्ते से आकर मारा, गुनाह किया। सीधे रास्ते से आकर मारा होता तो भी गुनाह तो कहा ही जाता। यह तो डबल गुनाह किया। लेकिन कुदरत इसे कहती है कि ‘करेक्ट किया है’। शोरगुल मचाओगे तो व्यर्थ जाएगा। पहले का हिसाब चुका दिया। अब ऐसा समझते नहीं हैं न! पूरी ज़िंदगी तोड़फोड़ में ही बीत जाती है। कोर्ट, वकील और...! और कभी देरी हो जाए, तब वकील भी

(पृ.१८)

गालियाँ देता है कि ‘तुझमें अक़्ल नहीं है, गधे जैसे हो’, गालियाँ खाता है वह! इसके बजाय यदि कुदरत का न्याय समझ ले, दादाजी ने जो कहा है, वही न्याय है। तो हल आ जाएगा न? कोर्ट में जाने में हर्ज नहीं है। कोर्ट में जाना लेकिन उसके (विरोधी के) साथ बैठकर चाय पीना, इस तरह सारा व्यवहार करना (समाधानपूर्वक निपटाना)। यदि वह नहीं माने तो कहना, ‘हमारी चाय पी लेकिन साथ में बैठ।’ कोर्ट जाने में हर्ज नहीं, लेकिन प्रेमपूर्वक निपटाना (भीतर राग-द्वेष नहीं हों, उस तरह)!

प्रश्नकर्ता : इस तरह के लोग हमसे विश्वासघात भी कर सकते हैं न?

दादाश्री : इंसान कुछ नहीं कर सकता। यदि आप प्योर हो, तो आपको कुछ भी नहीं कर सकता, ऐसा इस जगत् का कानून है। प्योर हो तो फिर कोई करने वाला रहेगा ही नहीं। इसलिए भूल सुधारनी हो तो सुधार लेना।

जो आग्रह छोड़ेगा, वह जीतेगा

इस जगत् में तू न्याय देखने जाता है? हुआ सो न्याय। ‘इसने चाँटा मारा तो मुझ पर अन्याय किया’, ऐसा नहीं लेकिन जो हुआ वही न्याय, ऐसा जब समझ में आ जाएगा, तब यह सारा निबेड़ा आएगा।

‘हुआ सो न्याय’ नहीं कहोगे तो बुद्धि उछल-कूद, उछल-कूद करती रहेगी। अनंत जन्मों से यह बुद्धि गड़बड़ करती आ रही है, मतभेद करवाती है। वास्तव में कुछ कहने का मौका ही नहीं आना चाहिए। हमें कुछ कहने का मौका ही नहीं आता। जिसने छोड़ दिया, वह जीत गया। वह खुद की ज़िम्मेदारी पर खींचता है। यह कैसे पता चलेगा कि बुद्धि चली गई है? न्याय ढूँढने मत जाना। ‘जो हुआ उसे न्याय’ कहेंगे, तब ऐसा कहा जाएगा कि बुद्धि चली गई। बुद्धि क्या

(पृ.१९)

करती है? न्याय ढूँढती फिरती है और इसी वजह से यह संसार खड़ा है। अत: न्याय मत ढूँढना।

न्याय ढूँढा जाता होगा? जो हुआ सो करेक्ट, तुरंत तैयार। क्योंकि ‘व्यवस्थित’ के सिवा अन्य कुछ होता ही नहीं है। बेकार की, हाय-हाय! हाय-हाय!!

महारानी ने नहीं, उगाही ने फँसाया

बुद्धि तो तूफान खड़ा कर देती है। बुद्धि ही सब बिगाड़ती है न! बुद्धि क्या है? जो न्याय ढूँढे, वह बुद्धि है। कहेगी, ‘पैसे क्यों नहीं देंगे, माल तो ले गए है न?’ इस तरह ‘क्यों’ पूछा, वह बुद्धि है। अन्याय किया, वही न्याय। आप उगाही के प्रयत्न करते रहना, कहना कि, ‘हमें पैसों की बहुत ज़रूरत है और हमें परेशानी है।’ फिर भी नहीं दे तो वापस आ जाना। लेकिन ‘वह क्यों नहीं देगा?’ कहा, तो फिर वकील ढूँढने जाना पड़ेगा। फिर सत्संग छोड़कर वहाँ जाकर बैठेगा। ‘जो हुआ सो न्याय’ कहेंगे, तो बुद्धि चली जाएगी।

भीतर में ऐसी श्रद्धा रखनी है कि जो हो रहा है, वही न्याय है। फिर भी व्यवहार में आपको पैसों की उगाही करने जाना पड़े तो इस श्रद्धा की वजह से आपका दिमाग़ नहीं बिगड़ेगा। उन पर चिढ़ नहीं मचेगी और व्याकुलता भी नहीं होगी। जैसे नाटक कर रहे हों न, वैसे वहाँ जाकर बैठना। उससे कहना, ‘मैं तो चार बार आया, लेकिन आपसे मिलना नहीं हुआ। इस बार आपका पुण्य है या मेरा पुण्य है, लेकिन हमारा मिलना हो गया।’ ऐसा करके मज़ाक करते-करते उगाही करना। और ‘आप मज़े में हैं न, मैं तो अभी बड़ी मुश्किल में फँसा हूँ।’ जब वह पूछे, ‘आपको क्या मुश्किल है?’ तब कहना कि ‘मेरी मुश्किल तो मैं ही जानता हूँ। आपके पास पैसा नहीं हो तो किसी के पास से मुझे दिलवाइए।’ इस तरह बातें करके काम निकालना।

(पृ.२०)

लोग तो अहंकारी हैं, तो अपना काम निकल जाएगा। अहंकारी नहीं होते तो कुछ चलता ही नहीं। अहंकारी के अहंकार को ज़रा ऊपर चढ़ाया जाए, तो वह सबकुछ कर देता है। अगर कहें ‘पाँच-दस हज़ार दिलवाइए’। तो भी कहेगा ‘हाँ, मैं दिलवाता हूँ’। मतलब झगड़ा नहीं होना चाहिए। राग-द्वेष नहीं होना चाहिए। सौ चक्कर लगाएँ और नहीं दिया तो भी कुछ नहीं। ‘हुआ वही न्याय’, समझ लेना। निरंतर न्याय ही हो रहा है! क्या सिर्फ आपकी ही उगाही बाकी होगी?

प्रश्नकर्ता : नहीं, नहीं। सभी धंधे वालों की होती है।

दादाश्री : जगत् में कोई भी महारानी से नहीं फँसा, उगाही से फँसा है। कईं लोग मुझे कहते हैं कि ‘मेरी दस लाख की उगाही नहीं आ रही है।’ पहले उगाही आती थी। कमाते थे, तब कोई मुझे कहने नहीं आता था। अब कहने आते हैं। उगाही शब्द आपने सुना है क्या?

प्रश्नकर्ता : कोई बुरा शब्द हमें सुना जाए, वह उगाही ही है न?

दादाश्री : हाँ, उगाही ही है न! वह सुनाता है, बराबर की सुनाता है। डिक्शनरी में भी नहीं हों, ऐसे शब्द भी सुनाता है। फिर आप डिक्शनरी में ढूँढते हो कि ‘यह शब्द कहाँ से निकला?’ उसमें ऐसा शब्द नहीं होता, ऐसे सिरफिरे होते हैं! लेकिन उनकी अपनी ज़िम्मेदारी पर बोलते हैं न! उसमें हमारी ज़िम्मेदारी नहीं है न! उतना अच्छा है।

आपको रुपए नहीं लौटाते, वह भी न्याय है। लौटाते हैं, वह भी न्याय है। यह सब हिसाब मैंने बहुत साल पहले निकाल रखा था। कोई रुपया नहीं लौटाए तो उसमें किसी का दोष नहीं है। उसी तरह अगर कोई लौटाने आता है, तो उसमें उसका क्या एहसान? इस जगत् का संचालन तो अलग तरीके से है।

(पृ.२१)

व्यवहार में दु:ख की जड़

न्याय ढूँढते-ढूँढते तो दम निकल गया है। इंसान के मन में ऐसा होता है कि ‘मैंने इसका क्या बिगाड़ा है, जो यह मेरा बिगाड़ रहा है’।

प्रश्नकर्ता : ऐसा होता है। हम किसी पर इल्ज़ाम नहीं लगाते, फिर भी लोग हमें क्यों डंडे मारते हैं?

दादाश्री : हाँ, इसीलिए तो इन कोर्ट, वकीलों का सभी का चल रहा है। ऐसा नहीं होगा तो कोर्ट कैसे चलेंगी? वकील का कोई ग्राहक ही नहीं रहेगा न! लेकिन वकील भी कैसे पुण्यशाली हैं कि मुवक्किल सुबह जल्दी उठकर आते हैं और अगर वकील साहब हजामत बना रहे हों, तो वह बैठा रहता है थोड़ी देर। वकील साहब को घर बैठे रुपया देने आता है। वकील साहब पुण्यशाली हैं न! नोटिस लिखवाकर पचास रुपए दे जाता है! अत: अगर न्याय नहीं ढूँढोगे तो गाड़ी रास्ते पर आएगी। आप न्याय ढूँढते हो, वही परेशानी है।

प्रश्नकर्ता : लेकिन दादा, ऐसा समय आ गया है न कि किसी का भला करें तो वही डंडे मारता है।

दादाश्री : उसका भला किया और फिर वही डंडे मारे, तो वही न्याय है। लेकिन मुँह पर मत कहना। मुँह पर कहोगे तो फिर उसके मन में ऐसा होगा कि ये बेशर्म हो गए हैं।

प्रश्नकर्ता : हम किसी के साथ बिल्कुल सीधे चल रहे हों, फिर भी वह हमें लकड़ी से मारता है।

दादाश्री : लकड़ी से मारता है, वही न्याय है! शांति से नहीं रहने देते?

प्रश्नकर्ता : शर्ट पहनें तो कहेंगे, ‘शर्ट क्यों पहनी?’ और अगर

(पृ.२२)

टीशर्ट पहनी तो कहेंगे, ‘टीशर्ट क्यों पहनी?’ उसे उतार दें तब भी कहेंगे, ‘क्यों उतार दी?’

दादाश्री : उसी को हम न्याय कहते हैं न! और उसमें न्याय ढूँढने गए, उसी वजह से यह सारी मार पड़ती है। इसलिए न्याय मत ढूँढना। यह हमने सीधी और सरल खोज की है। न्याय ढूँढने से तो इन सभी को मार पड़ी है, और फिर भी हुआ तो वही का वही। आखिर में वही का वही आ जाता है। तो फिर पहले से ही क्यों न समझ जाएँ? यह तो केवल अहंकार की दखल है!

हुआ सो न्याय! इसलिए न्याय ढूँढने मत जाना। तेरे पिताजी कहें कि ‘तू ऐसा है, वैसा है।’ वह जो हुआ, वही न्याय है। उन पर दावा मत करना कि आप ऐसा क्यों बोले? यह बात अनुभव की है, वर्ना आखिर में थककर भी न्याय तो स्वीकार करना ही पड़ेगा न! लोग स्वीकार करते होंगे या नहीं? यों ही निरर्थक प्रयत्न करते हैं लेकिन जैसा था वैसे का वैसा ही रहता है। यदि राज़ी खुशी कर लिया होता, तो क्या बुरा था? हाँ, उन्हें मुँह पर कहने की ज़रूरत नहीं है, वर्ना फिर वे वापस उल्टे रास्ते पर चलेंगे। मन में ही समझ लेना कि हुआ सो न्याय।

अब बुद्धि का प्रयोग मत करना। जो होता है, उसे न्याय कहना। ये तो कहेंगे कि ‘तुम्हें किसने कहा था, जो पानी गरम रखा?’ ‘अरे, हुआ सो न्याय।’ यह न्याय समझ में आ जाए तो, ‘अब मैं दावा नहीं करूँगा’ कहेंगे। कहेंगे या नहीं कहेंगे?

कोई भूखा हो, उसे हम भोजन करने बिठाएँ और बाद में वह कहे, ‘आपको भोजन करवाने के लिए किसने कहा था? व्यर्थ ही हमें मुसीबत में डाला, हमारा समय बिगड़ा!’ ऐसा कहे, तब हमें क्या करना चाहिए? विरोध करना चाहिए? यह जो हुआ, वही न्याय है।

(पृ.२३)

घर में, दो में से एक व्यक्ति बुद्धि चलाना बंद कर दे न तो सबकुछ ढंग से चलने लगेगा। वह उसकी बुद्धि चलाए तो फिर क्या होगा? रात को खाना भी नहीं भाएगा फिर।

बरसात नहीं होती तो, वह न्याय है। तब किसान क्या कहता है? ‘भगवान अन्याय कर रहा है।’ वह अपनी नासमझी से कहता है। इससे क्या बरसात होने लगेगी? नहीं बरसती, वही न्याय है। यदि हमेशा बरसात होने लगे न, हर साल बरसात अच्छी होने लगे तो उसमें बरसात को क्या नुकसान होने वाला था? एक जगह बरसात बहुत ज़ोरो से धूम धड़ाका करके खूब पानी डाल देती है और दूसरी जगह अकाल ला देती है। कुदरत ने सब ‘व्यवस्थित’ किया हुआ है। क्या आपको लगता है कि कुदरत की व्यवस्था अच्छी है? कुदरत यह सारा न्याय ही कर रही है।

यानी ये सभी सैद्धांतिक चीज़ें हैं। बुद्धि खाली करने के लिए, यही एक कानून है। जो हो रहा है, उसे न्याय मानोगे तो बुद्धि चली जाएगी। बुद्धि कब तक जीवित रहेगी? जो हो रहा है उसमें न्याय ढूँढने निकले, तो बुद्धि जीवित रहेगी। जबकि इससे तो बुद्धि समझ जाती है, बुद्धि को लाज आती है फिर। उसे भी लाज आती है, अरे! अब तो ये मालिक ही ऐसा कह रहे हैं, इससे अच्छा तो मुझे ठिकाने आना पड़ेगा।

न्याय मत ढूँढना, इसमें

प्रश्नकर्ता : बुद्धि को निकालना ही है, क्योंकि वह बहुत मार खिलाती है।

दादाश्री : इस बुद्धि को निकालना हो तो बुद्धि खुद अपने आप नहीं जाएगी। बुद्धि ‘कार्य’ है, उसके ‘कारण’ निकालेंगे, तो यह ‘कार्य’ चला जाएगा। यह बुद्धि ‘कार्य’ है, उसके ‘कारण’ क्या हैं? वास्तव

(पृ.२४)

में जो हुआ है अगर उसे न्याय कहा जाएगा, तब वह चली जाएगी। जगत् क्या कहता है? वास्तव में जो हो गया है, उसे स्वीकार लेना चाहिए। और न्याय ढूँढते रहेंगे न तो उससे झगड़े चलते रहेंगे।

अत: बुद्धि ऐसे ही नहीं जाएगी। बुद्धि जाने का मार्ग क्या है? उसके कारणों का सेवन नहीं करोगे तो वह ‘कार्य’ नहीं होगा।

प्रश्नकर्ता : आपने कहा न कि बुद्धि ‘कार्य’ है और उसके कारण ढूँढोगे तो, वह कार्य बंद हो जाएगा।

दादाश्री : उसके कारणों में तो, हम जो न्याय ढूँढने निकले, वही उसका कारण है। न्याय ढूँढना बंद कर दोगे तो बुद्धि चली जाएगी। न्याय क्यों ढूँढ रहे हो? तब बहू क्या कहती है कि ‘लेकिन तुम मेरी सास को नहीं पहचानती। जब से मैं आई हूँ, तब से वह दु:ख दे रही है। इसमें मेरा क्या गुनाह है?’

कोई बिना पहचाने दु:ख देता होगा? वह हिसाब जमा होगा, इसलिए तुझे देती रहती है। तब कहे, ‘लेकिन मैंने तो उनका मुँह भी नहीं देखा था।’ ‘अरे, तूने इस जन्म में नहीं देखा लेकिन पूर्वजन्म का हिसाब क्या कह रहा है?’ इसलिए जो हुआ, वही न्याय।

घर में बेटा दादागिरी करता है? वह दादागिरी करता है, वही न्याय है। यह तो बुद्धि दिखाती है, बेटा होकर बाप के सामने दादागिरी? जो हुआ, वही न्याय!

अत: यह ‘अक्रम विज्ञान’ क्या कहता है? देखो यह न्याय! लोग मुझसे पूछते हैं, ‘आपने बुद्धि किस तरह से निकाल दी?’ न्याय नहीं ढूँढा तो बुद्धि चली गई। बुद्धि कब तक रहेगी? जब तक न्याय ढूँढेंगे और न्याय को आधार देंगे तब तक बुद्धि रहेगी। तब फिर बुद्धि कहेगी, ‘अपने पक्ष में हैं भाई साहब।’ और कहेगी, ‘इतनी अच्छी तरह नौकरी की और ये डायरेक्टर किस वजह से उल्टा बोल रहे हैं?’ इस तरह

(पृ.२५)

उसे आधार देते हो? न्याय ढूँढते हो? वे जो कहते हैं, वही करेक्ट है। अब तक क्यों नहीं कह रहे थे? किस वजह से नहीं कह रहे थे? अब कौन से न्याय के आधार पर कह रहे हैं? क्या सोचने पर नहीं लगता कि ये जो कह रहे हैं, वह हिसाब से है? अरे, तनख्वाह नहीं बढ़ाते, वही न्याय है। हम उसे अन्याय कैसे कह सकते हैं?

बुद्धि ढूँढे न्याय

यह सारा तो मोल लिया हुआ दु:ख है और थोड़ा-बहुत जो दु:ख है, वह बुद्धि की वजह से है। सभी में बुद्धि होती है न? वह ‘डेवेलप्ड बुद्धि’ दु:ख करवाती है। जहाँ नहीं होता वहाँ से भी दु:ख ढूँढ निकालती है। डेवेलप्ड होने के बाद मेरी बुद्धि तो चली गई। बुद्धि ही खत्म हो गई! बोलो, मज़ा आएगा या नहीं? बिल्कुल, एक परसेन्ट भी बुद्धि नहीं रही। तब एक आदमी मुझसे पूछता है कि, ‘‘बुद्धि कैसे खत्म हो गई? ‘तू चली जा, तू चली जा’ ऐसा कहने से?’’ मैंने कहा, ‘नहीं भाई, ऐसा नहीं करते। उसने तो अब तक हमारा रौब रखा। दुविधा में होते थे, तब सही वक्त पर उसके लिए सारा मार्गदर्शन दिया ‘क्या करना, क्या नहीं करना? उसे कैसे निकाल सकते हैं?’ फिर मैंने कहा, ‘जो न्याय ढूँढता है न, उसके वहाँ बुद्धि हमेशा के लिए निवास करती है’। ‘हुआ सो न्याय’ ऐसा कहने वाले की बुद्धि चली जाती है। न्याय ढूँढने गए, वह बुद्धि।

प्रश्नकर्ता : लेकिन दादाजी, जीवन में जो भी आए, उसे स्वीकार कर लेना चाहिए?

दादाश्री : मार खाकर स्वीकार करना, उससे अच्छा तो खुशी से स्वीकार लेना चाहिए।

प्रश्नकर्ता : संसार है, बच्चे हैं, बेटे की बहू है, यह है, वह है, इसलिए संबंध तो रखना पड़ेगा।

(पृ.२६)

दादाश्री : हाँ, सभी कुछ रखना।

प्रश्नकर्ता : जब उसमें मार पड़े तो क्या करना चाहिए?

दादाश्री : सभी संबंध रखना और यदि मार पड़े, तो उसे स्वीकार कर लेना है। वर्ना फिर भी अगर मार पड़े तो क्या कर सकते हैं? दूसरा कोई उपाय है?

प्रश्नकर्ता : कुछ नहीं, वकीलों के पास जाना पड़ेगा।

दादाश्री : हाँ, और क्या होगा? वकील रक्षा करेगा या खुद की फीस लेगा?

जहाँ ‘हुआ सो न्याय’, वहाँ बुद्धि ‘आउट’

न्याय ढूँढना शुरू हुआ कि बुद्धि खड़ी हो जाती है। बुद्धि समझती है कि अब मेरे बगैर नहीं चलेगा और यदि हम कहें कि हुआ सो न्याय है, इस पर बुद्धि कहेगी, ‘अब इस घर में अपना रौब नहीं चलेगा’। वह विदाई लेकर चली जाएगी। कोई उसका समर्थक होगा तो वहाँ घुस जाएगी। उसकी आसक्ति वाले तो बहुत लोग हैं न! ऐसी मन्नत मानते हैं, मेरी बुद्धि बढ़े! और उसके सामने वाले पलड़े में उतना ही दु:ख व जलन बढ़ती जाती है। हमेशा बेलेन्स तो चाहिए न? उसके सामने वाले पलड़े में बेलेन्स होना ही चाहिए! हमारी बुद्धि खत्म, इसलिए दु:ख-जलन खत्म!

विकल्पों का अंत, वही मोक्षमार्ग

अत: जो हुआ, उसे न्याय कहोगे न तो निर्विकल्प रहोगे और लोग निर्विकल्पी होने के लिए न्याय ढूँढने निकले हैं। जहाँ विकल्पों का अंत आए, वही मोक्ष का रास्ता! विकल्प खड़े ही न हों, ऐसा है न अपना मार्ग?

(पृ.२७)

मेहनत किए बगैर, अपने अक्रम मार्ग में इंसान आगे बढ़ सकता है। हमारी चाबियाँ ही ऐसी हैं कि मेहनत किए बगैर बढ़ जाता है।

अब बुद्धि जब विकल्प करवाए न, तब कह देना, ‘हुआ सो न्याय’। बुद्धि न्याय ढूँढे कि मुझसे छोटा है, मर्यादा नहीं रखता। मर्यादा रखी, वह भी न्याय और नहीं रखी, वह भी न्याय। बुद्धि जितनी निर्विवाद होगी, उतना ही निर्विकल्पी होगा!

यह विज्ञान क्या कहता है? न्याय तो पूरी दुनिया ढूँढ रही है। उसके बजाय अगर हम स्वीकार कर लें कि हुआ सो न्याय तो फिर जज भी नहीं चाहिए और वकील भी नहीं चाहिए। वर्ना आखिर में मार खाकर भी ऐसा ही रहता है न?

किसी कोर्ट में नहीं मिलता संतोष

मान लो कि अगर किसी व्यक्ति को न्याय चाहिए, तो वह जजमेन्ट के लिए नीचे की कोर्ट में जाता है। वकील लड़े, बाद में जजमेन्ट आया, न्याय हुआ। तब कहता है, ‘नहीं, इस न्याय से मुझे संतोष नहीं है।’ न्याय हुआ फिर भी संतोष नहीं। ‘तो अब क्या करें? ऊपरी कोर्ट में चलो।’ तब डिस्ट्रिक्ट कोर्ट में गए। वहाँ के जजमेन्ट से भी संतोष नहीं हुआ। तब कहता है, ‘अब?’ तो कहे, ‘नहीं, वहाँ हाइकोर्ट में!’ वहाँ भी संतोष नहीं हुआ। फिर सुप्रीम कोर्ट में गए, वहाँ भी संतोष नहीं हुआ। आखिर में प्रेसिडन्ट से कहा। फिर भी, उनके न्याय से भी संतोष नहीं हुआ। मार खाकर मरते हैं! न्याय ढूँढना ही मत कि यह आदमी मुझे गालियाँ क्यों दे गया या मुवक्किल मुझे मेरी वकालत की फीस क्यों नहीं देता? नहीं दे रहा है, वही न्याय है। अगर बाद में दे जाए तो वह भी न्याय है। तू न्याय मत ढूँढना।

न्याय : कुदरती और विकल्पी

दो प्रकार के न्याय हैं। एक विकल्पों को बढ़ाने वाला न्याय

(पृ.२८)

और एक विकल्पों को घटाने वाला न्याय। बिल्कुल सच्चा न्याय विकल्पों को घटाता है कि ‘हुआ सो न्याय ही है।’ अब तुम इस पर दूसरा दावा मत करना। अब तुम अपनी बाकी बातों पर ध्यान दो। तुम इस पर दावा करोगे, तो तुम्हारी बाकी बातें रह जाएँगी।

न्याय ढूँढने निकले तो विकल्प बढ़ते ही जाएँगे और यह कुदरती न्याय विकल्पों को निर्विकल्प बनाता जाता है। जो हो चुका है, वही न्याय है। और इसके बावजूद भी पाँच आदमियों का पंच जो कहे, वह भी अगर उसके विरूद्ध चला जाता है, तब वह उस न्याय को भी नहीं मानता, किसी की बात नहीं मानता। तब फिर विकल्प बढ़ते ही जाते हैं। जो व्यक्ति अपने ही इर्द-गिर्द जाल बुन रहा है, वह आदमी कुछ भी प्राप्त नहीं कर सकता। बहुत दु:खी हो जाता है! इसके बजाय पहले से ही श्रद्धा रखना कि हुआ सो न्याय।

और कुदरत हमेशा न्याय ही करती रहती है। निरंतर न्याय ही कर रही है लेकिन वह प्रमाण नहीं दे सकती। प्रमाण तो ‘ज्ञानी’ देते हैं कि किस प्रकार से यह न्याय है? कैसे हुआ, वह ‘ज्ञानी’ बता देते हैं। जब उसे संतुष्ट कर देते हैं तब निबेड़ा आता है। जब निर्विकल्पी हो जाएगा तब निबेड़ा आएगा।

- जय सच्चिदानंद

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