दादा भगवान प्ररुपित

कर्म का सिद्धांत

मूल गुजराती संकलन : डॉ. नीरू बहन अमीन

अनुवाद : महात्मागण

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संपादकीय
कर्म का सिद्धांत

संपादकीय

जीवन में ऐसे कितने ही अवसर आते हैं, जब अपने मन को समाधान नहीं मिलता कि ऐसा क्यों हुआ? भूकंप में कितने सारे लोग मर गए, बद्री-केदार की यात्रा करने वाले बर्फमें दब गए, निर्दोष बच्चा जन्म लेते ही अपंग हो गया, किसी की एक्सिडेन्ट में मृत्यु हो गई... तो यह किस वजह से? फिर ये कर्म का फल है, ऐसा समाधान कर लेते हैं। लेकिन कर्म क्या है? कर्म का फल कैसे भुगतना पड़ता है? इसका रहस्य समझ में नहीं आता।

वे लोग कर्म किसे कहते हैं ? नौकरी-धंधा, सत्कार्य, धर्म, पूजा-पाठ वगैरह पूरे दिन जो भी करते हैं, उसे कर्म कहते हैं। लेकिन ज्ञानियों की दृष्टि से यह कर्म नहीं है, बल्कि कर्मफल है। जो पाँच इन्द्रियों से अनुभव में आते हैं, वे सब कर्मफल हैं। और कर्म का बीज तो बहुत सूक्ष्म है। वह, अज्ञानता से ‘मैंने किया’, ऐसे कर्ताभाव से कर्म चार्जिंग होता है।

कोई व्यक्ति क्रोध करता है लेकिन भीतर में पश्चाताप करता है, और कोई व्यक्ति क्रोध करके भीतर में खुश होता है कि मैंने क्रोध किया वह ठीक ही किया, तभी यह सुधरेगा। ज्ञानी की दृष्टि में क्रोध करना तो पूर्व कर्म का फल है, लेकिन आज पुन: नए कर्मबीज भीतर में डाल देता है। भीतर में खुशी होती है तो बुरा बीज डाल दिया और पश्चाताप हो तो नया बीज अच्छा डाल रहा है और जो क्रोध करता है, वह सूक्ष्म कर्म है, उसके फलस्वरूप कोई उसे मारेगा-पीटेगा। उस कर्मफल का परिणाम यहीं पर मिल जाता है। आज जो क्रोध हुआ, वह पूर्व कर्म का फल आया है।

कर्म का ‘चार्जिंग’ कैसे होता है? कर्ताभाव से कर्म ‘चार्ज’ होते हैं। कर्ताभाव किसे कहते हैं? कर रहा है अन्य कोई और ‘मैंने किया’, ऐसा मान लेते हैं, वही कर्ताभाव है।

कर्ताभाव क्यों हो जाता है? अहंकार से। अहंकार किसे कहते हैं? जो ‘खुद’ नहीं है फिर भी वहाँ ‘मैं हूँ’ ऐसा मान लेता है, ‘खुद’ करता नहीं, फिर भी ‘मैंने किया’, ऐसा मान लेता है, वही अहंकार है। ‘खुद’ देह स्वरूप नहीं है, वाणी स्वरूप नहीं है, मन स्वरूप नहीं है, नाम स्वरूप नहीं है, फिर भी यह सब ‘मैं ही हूँ’ खुद ऐसा मान लेता है, वही अहंकार है। यानी अज्ञानता से अहंकार खड़ा हो गया है। और उसी से कर्म बंधन निरंतर होता ही रहता है।

ज्ञानी पुरुष मिल जाएँ तो अज्ञानता ‘फ्रेक्चर’ कर देते हैं और ‘खुद कौन है’, उसका ज्ञान देते हैं और ‘यह सब कौन कर रहा है’, वह ज्ञान भी देते हैं। उसके बाद अहंकार चला जाता है। नया कर्म चार्ज होना बंद हो जाता है, फिर डिस्चार्ज कर्म ही बाकी रहते हैं। उनका समभाव से निकाल (निपटारा) करने के बाद मुक्ति हो जाती है।

परम पूज्य दादाजी के पास दो ही घंटों में ज्ञान प्राप्ति हो जाती थी।

कर्म के बीज जीव पूर्व जन्म में डालता है और आज इस जन्म में कर्म फल भुगतने पड़ते हैं। तो यहाँ कर्म का फल देने वाला कौन? इस रहस्य को पूज्य दादाजी ने समझाया कि, ‘ओन्ली साइन्टिफिक सरकमस्टेन्शियल एविडेन्सिस’ से यह फल आता है। फल भुगतते समय अज्ञानता से राग-द्वेष करता है, ‘मैंने किया’ ऐसा मानता है, जिससे नया कर्म चार्ज होता है। ज्ञानी पुरुष नया कर्म चार्ज नहीं हो, ऐसा विज्ञान दे देते हैं, जिससे पिछले जन्मों के फल पूरे हो जाते हैं और नया कर्म चार्ज नहीं होगा तो फिर मुक्ति हो जाती है।

इस पुस्तिका में, परम पूज्य दादा भगवान ने अपने ज्ञान में अवलोकन करके दुनिया को जो कर्म का सिद्धांत दिया वह प्रस्तुत किया गया है। वह दादाजी की वाणी में संकलित हुआ है। वह बहुत संक्षिप्त में है, फिर भी वाचक को कर्म का सिद्धांत समझ में आ जाएगा और जीवन के प्रत्येक प्रसंग में समाधान प्राप्त होगा।

- डॉ. नीरू बहन अमीन के जय सच्चिदानंद

(पृ.१)

कर्म का सिद्धांत

रिस्पॉन्सिबल कौन?

प्रश्नकर्ता : जब दूसरी शक्ति हम से करवाती है तो ये कर्म जो हम गलत करते हैं, उस कर्म के बंधन मुझे क्यों होते हैं? मुझसे तो करवाया गया था?

दादाश्री : क्योंकि आप ज़िम्मेदारी स्वीकारते हैं कि ‘ये मैंने किया।’ और हम ये जोखिमदारी नहीं लेते हैं, तो हम को कोई गुनहगारी नहीं है। आप तो कर्ता हैं। ‘मैंने ये किया, वो किया, खाना खाया, पानी पीया, ये सब का मैं कर्ता हूँ’, ऐसा बोलता है न आप? इससे कर्म बंधते हैं। कर्ता के आधार से कर्म बंधता है। कर्ता ‘खुद’ नहीं है। कोई आदमी कोई चीज़ में कर्ता नहीं है। वो तो खाली इगोइज़म करता है कि ‘मैंने किया’। दुनिया ऐसे ही चल रही है। ‘हमने ये किया, हमने लड़के की शादी की’ ऐसी बात करने में हरकत नहीं। बात तो करना चाहिए, लेकिन ये तो इगोइज़म करता है।

‘आप चंदूभाई हैं’, वो गलत बात नहीं है। वो सच बात है। लेकिन रिलेटिव सच है, नॉट रियल। और आप रियल हैं। रिलेटिव सापेक्ष है और रियल निरपेक्ष है। आप ‘खुद’ निरपेक्ष हैं और बोलते हो, कि ‘मैं चंदूभाई हूँ’। फिर आप ‘रिलेटिव’ हो गए। ऑल दिज़ रिलेटिव आर टेम्परेरी एडजस्टमेन्ट्स। कोई चोरी करता है, दान देता है, वो सब भी परसत्ता करवाती है और वो खुद ऐसा मानता है कि ‘मैंने किया’ तो फिर इसकी गुनहगारी लगती है। पूरी ज़िंदगी में आप जो भी कुछ करते हो, उसका ज़िम्मेदार कोई नहीं है। जन्म से लेकर

(पृ.२)

‘लास्ट स्टेशन’ तक जो कुछ किया, उसकी ज़िम्मेदारी तुम्हारी है ही नहीं। लेकिन तुम खुद ही ज़िम्मेदारी लेते हो कि, ‘ये मैंने किया, ये मैंने किया, मैंने खराब किया, मैंने अच्छा किया।’ ऐसे खुद ही जोोखिमदारी लेता है।

प्रश्नकर्ता : कोई श्रीमंत होता है, कोई गरीब होता है, कोई अनपढ़ होता है, ऐसा उसका होना, उसका कारण क्या है?

दादाश्री : नोबडी इज़ रिस्पॉन्सिबल।

वो कर्म का कितना जोखिमदार है? वो ‘मैंने किया’ ऐसा बोलता है, इतना ही जोखिमदार है, दूसरा कुछ नहीं। ‘मैंने किया’ ऐसा इगोइज़म करता है, इतना जोखिमदार है। ये जो जानवर हैं, वो जोखिमदार हैं ही नहीं, क्योंकि वो इगोइज़म ही नहीं करते।

ये बाघ है न, वो इतने सारे जानवर मार डालता है, खा जाता है लेकिन उसको जोखिमदारी नहीं है। बिल्कुल, नो रिस्पॉन्सिबिलिटी। ये आदमी तो, ‘मैंने ये किया, मैंने वो किया’ कहता है, ‘मैंने बुरा किया, मैंने अच्छा किया’ ऐसा इगोइज़म करता है और सब ज़िम्मेदारी सिर पर लेता है। बिल्ली इतने चूहे खा जाती है, लेकिन उसको जोखिमदारी नहीं। नोबडी इज़ रिस्पॉन्सिबल एक्सेप्ट मैनकाइन्ड। देवलोक भी रिस्पॉन्सिबल नहीं है।

इधर आपको संपूर्ण सत्य जानने मिलेगा। ये गिल्ट सत्य नहीं है, कम्प्लीट सत्य है। हम ‘जैसा है वैसा’ ही बोलते हैं।

दुनिया ऐसे ही चल रही है। वो इगोइज़म करता है, इसलिए कर्म बाँधता है।

कर्मबंध, कर्तव्य से या कर्ताभाव से?

प्रश्नकर्ता : लेकिन ऐसे कहा है न कि कर्म और कर्तव्य से ही मोक्ष है न?

दादाश्री : आप जो कर्म करते हैं, वो कर्म आप खुद नहीं करते

(पृ.३)

लेकिन आपको ऐसा लगता है कि, ‘मैं करता हूँ।’ इसका कर्ता कौन है? ‘चंदूभाई’ है। ‘आप’ अगर ‘चंदूभाई’ हैं, तो ‘आप’ कर्म के कर्ता हैं और ‘आप’ अगर ‘आत्मा’ हो गए, तो फिर ‘आप’ कर्म के कर्ता नहीं हैं। फिर आपको कर्म लगता ही नहीं। आप ‘मैं चंदूभाई हूँ’ बोलकर करते हैं। हकीकत में आप चंदूभाई हैं ही नहीं, इसलिए कर्म लगता है।

प्रश्नकर्ता : चंदूभाई तो लोगों के लिए हैं लेकिन आत्मा जो होता है, वो कर्म करवाता है न?

दादाश्री : नहीं। आत्मा कुछ नहीं करवाता, वो तो इसमें हाथ ही नहीं डालता। ओन्ली साइन्टिफिक सरकमस्टेन्शियल एविडेन्स सब करता है। आत्मा, वही भगवान है। आप आत्मा को पिछानो (पहचानो) तो फिर आप भगवान हो गए, लेकिन आपको आत्मा की पहचान हुई नहीं है न! इसके लिए आत्मा का ज्ञान होना चाहिए।

प्रश्नकर्ता : उसके लिए, आत्मा की पहचान होने के लिए टाइम लगता है, स्टडी करनी पड़ती है न?

दादाश्री : नहीं, वो लाखों जन्म स्टडी करने से भी नहीं होता है। ‘ज्ञानी पुरुष’ मिले तो आपको आत्मा की पहचान हो जाएगी।

‘मैंने किया’ बोला कि कर्मबंध हो जाता है। ‘ये मैंने किया’, इसमें ‘इगोइज़म’ है और ‘इगोइज़म’ से कर्म बंधता है। जहाँ इगोइज़म ही नहीं, ‘मैंने किया’ ऐसा नहीं है, वहाँ कर्म नहीं होता। खाना भी चंदूभाई खाता है, आप खुद नहीं खाते। सब बोलते हैं कि, ‘मैंने खाया’, वो सब गलत बात है।

प्रश्नकर्ता : वो चंदूभाई सब करता है?

दादाश्री : हाँ, चंदूभाई सब खाता है और चंदूभाई ही पुद्गल (जो पूरण और गलन होता है) है, वो आत्मा नहीं है। बात समझ में आती है न? आपका सब कौन चलाता है? धंधा कौन करता है?

(पृ.४)

प्रश्नकर्ता : हम ही चलाते हैं।

दादाश्री : अरे, तुम कौन है चलाने वाला? आपको संडास जाने की शक्ति है? किसी डॉक्टर को होगी?

प्रश्नकर्ता : किसी को नहीं है।

दादाश्री : हमने बड़ौदा में फॉरेन रिटर्न सब डॉक्टर्स को बुलाया और बोला कि, ‘तुम्हारे किसी में संडास जाने की शक्ति है?’ तब वो कहने लगे, ‘अरे, हम तो बहुत पेशन्ट को करा देते हैं।’ फिर हमने बताया कि भई, जब तुम्हारा संडास बंद हो जाएगा, तब तुमको मालूम हो जाएगा कि वो हमारी शक्ति नहीं थी, तब दूसरे डॉक्टर की ज़रूर पड़ेगी। खुद को संडास जाने की भी स्वतंत्र शक्ति नहीं है और ये लोग कहते हैं कि, ‘हम आया, हम गया, हम सो गया, हमने ये किया, वो किया, हमने शादी की।’ शादी करने वाला तू घनचक्कर कौन है?! शादी तो हो गई थी। पूर्व योजना हो गई थी, उसका आज रूपक में आया। वो भी तुमने नहीं किया, वो कुदरत ने किया है। सब लोग ‘इगोइज़म’ करता है कि, ‘मैंने ये किया, मैंने वो किया।’ लेकिन तुमने क्या किया? संडास जाने की तो शक्ति नहीं है। ये सब कुदरत की शक्ति है। बाकी भ्रांति है। दूसरी शक्ति आपके पास करवाती है और आप खुद मानते हैं कि, ‘मैंने ये किया।’

कर्म, कर्मफल का साइन्स!

दादाश्री : आपका सबकुछ कौन चलाता है?

प्रश्नकर्ता : सब कर्मानुसार चल रहा है। हर आदमी कर्म में बंधा हुआ है।

दादाश्री : वो कर्म कौन करवाता है?

प्रश्नकर्ता : आपका यह सवाल बहुत कठिन है। कई जन्मों से कर्म का चक्कर चल रहा है। कर्म की थ्योरी समझाइए।

दादाश्री : रात को ग्यारह बजे आपके घर कोई गेस्ट आए,

(पृ.५)

चार-पाँच आदमी, तो आप क्या बोलते हैं कि, ‘आइए, आइए, इधर बैठिए’ और अंदर क्या चलता है, ‘ये अभी कहाँ से आ गए, इतनी रात को’, ऐसा नहीं होता? आपको पसंद नहीं हो तो भी आप खुश होते हो न?

प्रश्नकर्ता : नहीं, मन में उस पर गुस्सा आता है।

दादाश्री : और बाहर से अच्छा रखते हो?! हाँ, तो वो ही कर्म है। बाहर जो रखते हो, वो कर्म नहीं है। अंदर जो होता है, वो ही कर्म है। वो कॉज़ है, उसकी इफेक्ट आएगी। कभी ऐसा होता है कि तुम्हारी सास पर गुस्सा आता है?

प्रश्नकर्ता : मन में तो ऐसा बहुत होता है।

दादाश्री : वो ही कर्म है। वो अंदर जो होता है न, वो ही कर्म है। कर्म को दूसरा कोई नहीं देख सकता है। और जो दूसरा देख सकता है, तो वो कर्मफल है। लेकिन दुनिया के लोग तो, जो आँख से दिखता है कि तुमने गुस्सा किया, उसको ही कर्म बोलते हैं। तुमने गुस्सा किया, इसलिए तुमको सास ने मार दिया, उसको ये लोग कर्म का फल आया, ऐसा बोलते हैं न।

प्रश्नकर्ता : इस जन्म में जो भी राग-द्वेष होते हैं, उसका फल इस जन्म में ही भुगतना पड़ता है या अगले जन्म में भुगतना पड़ता है? जो भी हम अच्छे कर्म करते हैं, बुरे कर्म करते हैं, उसका इस जन्म में ही फल मिलता है या अगले जन्म में फल मिलता है?

दादाश्री : ऐसा है, अच्छा किया, बुरा किया, वो (स्थूल) कर्म है। उसका फल तो इस जन्म में ही भुगतना पड़ता है। सब लोग देखते हैं कि इसने ये बुरा कर्म किया, ये चोरी किया, इसने लुच्चाई किया, इसने दग़ा किया, वो सब (स्थूल) कर्म है। जिसको लोग देख सकते हैं, वो कर्म का फल इधर ही भुगतना पड़ता है। और वो कर्म करने के टाइम जो राग-द्वेष उत्पन्न होता है, वो अगले भव में भुगतना पड़ता है। राग-द्वेष हैं, वो सूक्ष्म बात है, वो ही योजना है। फिर योजना

(पृ.६)

रूपक में आ जाएगी, जो कागज़ पर है, नक्शा है, वो रूपक में आ जाएगी और रूपक में जो आया वो (स्थूल) कर्म है। जो दूसरा आदमी देख सकता है कि इसने गाली दी, इसने मारा, इसने पैसा नहीं दिया, वो सभी इधर का इधर ही भुगतने का। देखो, मैं तुमको बात बताऊँ कि ये किस तरह से चलता है!

एक तेरह साल का लड़का है। उसका फादर बोले कि, ‘तुम होटल में खाने को क्यों जाता है? तुम्हारी तबियत खराब हो जाएगी। तुमको कुसंग मिला है, तुमको ये करना अच्छा नहीं।’ ऐसा बाप बेटे को बहुत डाँटता है। लड़के को भी अंदर बहुत पश्चाताप हो जाता है और निश्चय करता है कि अभी होटल में नहीं जाऊँगा। लेकिन वो कुसंग वाला आदमी मिलता है, तब सब भूल जाता है या तो होटल देखी कि होटल में घूस जाता है। वो उसकी मर्ज़ी से नहीं करता। वो उसके कर्म का उदय है। अपने लोग क्या बोलते हैं कि खराब खाता है। अरे, ये क्या करेगा बिचारा! उसके कर्म के उदय से ये बिचारे को होता है। आप उसे बोलने का छोड़ मत देना। ड्रामेटिक बोलने का कि ‘बाबा, ऐसा मत करो, तुम्हारी तबियत खराब हो जाएगी।’ लेकिन वहाँ तो सच्चा बोलता है कि ‘नालायक है, बदमाश है’ और मारता है। ऐसा मत करना। इससे तो यू आर अनफिट टु बी अ फादर। फिट तो होना चाहिए न? वो अन्क्वालिफाइड फादर ऐन्ड मदर क्या चलते हैं? क्वालिफाइड नहीं होना चाहिए?

ये बच्चा जो खाता है, उसको अपने लोग बोलते हैं, कि ‘उसने कर्म बाँधा।’ अपने लोगों को आगे की बात समझ में नहीं आती। सच में तो, बच्चे से उसकी इच्छा के विरुद्घ हो जाता है। लेकिन ये लोग उसको कर्म बोलते हैं। उसका जो फल आता है, उसको पेचिश, डिसन्टेरी होता है, तो बोलते हैं कि, ‘तुमने ये कर्म खराब किया था, कि होटल में खाना खाता था, इसलिए ऐसा हुआ।’ वो कर्म का परिणाम है। ये जन्म में जो काम किया, उसका परिणाम इधर ही भुगतना पड़ता है।

प्रश्नकर्ता : इस जन्म में हम नया कर्म कैसे बाँधेंगे? जबकि

(पृ.७)

हम पिछले जन्म का कर्म भुगत रहे हैं, जो पीछे का हिसाब भुगत रहे हैं, वह कैसे नया आगे बनाएगा?

दादाश्री : ये ‘सरदार जी’ है, वो पिछला कर्म भुगत रहा है, उस वक्तअंदर नया कर्म बाँध रहा है। आप खाना खाते हो, तो क्या बोलते हैं कि, ‘बहुत अच्छा हुआ है’ और फिर अंदर पत्थर आया तो फिर आपको क्या होगा?

प्रश्नकर्ता : दिमाग़ घूम जाता है।

दादाश्री : जो मिठाई खाता है, वो पिछले जन्म का है और अभी वो अच्छी लगती है, खुश होकर खाता है, घर वालों पर खुश हो जाता है, इससे उसको राग होता है। और फिर खाते समय पत्थर निकला तो नाखुश हो जाता है। खुश और नाखुश होता है, उससे नए जन्म का कर्म बंध गया। नहीं तो खाना खाने में कोई हरकत नहीं। हलवा खाओ, कुछ भी खाओ लेकिन खुश-नाखुश नहीं होना चाहिए। जो हो वो खा लिया।

प्रश्नकर्ता : वो तो ठीक है, लेकिन वो जो पिछला बुरा कर्म भुगत रहा है, फिर नया जन्म अच्छा कैसे होगा?

दादाश्री : देखो, अभी कोई आदमी ने तुम्हारा अपमान किया, तो वो पिछले जन्म का फल आया। उस अपमान को सहन कर ले, बिल्कुल शांत रहे और उस वक्त ज्ञान हाज़िर हो जाए कि, ‘गाली देता है, वो तो निमित्त है और हमारा जो कर्म है, उसका ही फल देता है, उसमें उसका क्या गुनाह है।’ तो फिर आगे का अच्छा कर्म बाँधता है और दूसरा आदमी है, उसका अपमान हो गया तो वो दूसरे को कुछ न कुछ अपमान कर देता है, इससे बुरा कर्म बाँधता है।

प्रश्नकर्ता : आप तो लोगों को ज्ञान देते हैं, तो आप अच्छा कर्म बाँधते हैं?

दादाश्री : हम को कभी कर्म बंधता ही नहीं है और हमने जिसको ज्ञान दिया है, वो भी कर्म बाँधता नहीं है। लेकिन जहाँ तक

(पृ.८)

ज्ञान नहीं मिला, वहाँ तक हमने बताया, वैसा करना चाहिए, इससे अच्छा फल मिलता है। जिधर पाप बंधता था, उधर ही पुण्य बाँधता है और वो धर्म बोला जाता है।

प्रश्नकर्ता : हम दान-पुण्य करते हैं, तो उसका फल अगले जन्म में मिले इसलिए करते हैं? ये सत्य है क्या?

दादाश्री : हाँ, सत्य है, अच्छा करोगे तो अच्छा फल मिलेगा, बुरा करोगे तो बुरा फल मिलेगा। इसमें दूसरा किसी का अब्स्ट्रक्शन नहीं है। दूसरा कोई भगवान या दूसरा कोई जीव तुम्हारे में अब्स्ट्रैक्ट नहीं कर सकता। आपका ही अब्स्ट्रक्शन है। आपका ही कर्म का परिणाम है। आपने जो किया है, ऐसा ही आपको मिल गया है। अच्छा-बुरा इसका पूरा अर्थ ऐसा होता है, देखो, आपने पाँच हज़ार रुपये भगवान के मंदिर के लिए दिए और ये भाई ने भी पाँच हज़ार रुपये मंदिर के लिए दिए। तो इसका फल अलग-अलग ही मिलता है। आपके मन में बहुत इच्छा थी कि, ‘मैं भगवान के मंदिर में कुछ दूँ, अपने पास पैसा है, तो सच्चे रस्ते में चले जाए’, ऐसा करने का विचार था। और ये तुम्हारे मित्र ने पैसा दिया, बाद में वो क्या बोलने लगा कि, ‘ये तो मेयर ने ज़बरदस्ती किया, इसके लिए देना पड़ा, नहीं तो मैं देने वाला ऐसा आदमी ही नहीं।’ तो इसका फल अच्छा नहीं मिलता। जैसा भाव बताता है, ऐसा ही फल मिलता है। और आपको पूरेपूरा फल मिलेगा।

प्रश्नकर्ता : नाम का लालच नहीं करना चाहिए।

दादाश्री : नाम, वो तो फल है। आपने पाँच हज़ार रुपये अपनी कीर्ति के लिए दिए तो जितनी कीर्ति मिल गई, इतना फल कम हो गया। कीर्ति नहीं मिले तो पूरा फल मिल जाएगा। वहाँ तो चेक विद इन्टरेस्ट, बोनस पूरा मिल जाएगा। नहीं तो, आधा फल तो कीर्ति में ही चले गया, फिर बोनस आधा हो जाएगा। कीर्ति तो आपको इधर ही मिल जाती है। सब लोग बोलते हैं कि, ‘ये सेठ ने पाँच हज़ार दिया, पाँच हज़ार दिया’ और आप खुश हो जाते हैं। इसलिए दान

(पृ.९)

गुप्त रखना चाहिए। देखा देखी में दान करे, स्पर्धा में आकर दान करे तो उसका पूरा फल नहीं मिलता। भगवान के यहाँ एक भी रुपया गुप्त रूप से दिया, और दूसरे सब ने 20 हज़ार देकर तख्ती लगवाया, तो उसका उसको इधर ही फल मिल गया। इधर ही उसको यश, कीर्ति, वाह-वाह मिल गई। उसका पेमेन्ट तख्ती से हो गया। फिर पेमेन्ट बाकी नहीं रहा। नहीं तो एक रुपया दो, लेकिन कोई जाने नहीं, ऐसे देना। तख्ती नहीं लगाए, तो बहुत ऊँचा फल मिलता है। तख्ती तो मंदिरों में सारी दिवारों पर तख्ती ही लगी हुई है। इसका कोई मीनिंग है? उसको कौन पढ़ेगा? कोई बाप भी नहीं पढ़ेगा।

दान यानी दूसरे कोई भी जीव को सुख देना। मनुष्य हो या दूसरा कोई भी जानवर हो, वो सब को सुख देना, उसका नाम दान है। दूसरों को सुख दिया तो उसके रिएक्शन में अपने को सुख मिलता है और दु:ख दिया तो फिर दु:ख आएगा। इस तरह आपको सुख-दु:ख घर बैठे आएगा। कुछ न दे सके तो उसको खाना दो, पुराने कपड़े देना। उससे उसको शांति मिलेगी। किसी के मन को सुख दिया तो अपने मन को सुख प्राप्त होगा, ये सब व्यवहार है। क्योंकि जीवमात्र के अंदर भगवान है, इसलिए उसके बाहर के काम को हमें नहीं देखना चाहिए, उसको हेल्प करना चाहिए। उसको हेल्प की तो वो हेल्प का परिणाम अपने यहाँ सुख आएगा और दु:ख दिया तो दु:ख का परिणाम अपने यहाँ दु:ख आएगा। इसलिए रोज़ सुबह में नक्की करना चाहिए कि, ‘मेरे मन-वचन-काया से कोई भी जीव को किंचित्मात्र दु:ख न हो, न हो, न हो।’ और कोई अपने को दु:ख दे जाए तो उसको अपने बहीखाता में जमा कर देना। नंदलाल ने दो गाली आपको दिया तो उसको नंदलाल के खाते में जमा कर देना, क्योंकि पिछले अवतार में आपने उधार दिया था। आपने दो गाली दिया था तो दो वापस आ गया। आज पाँच गाली फिर से दो तो वो फिर से पाँच देगा। अगर आपको ऐसा व्यापार करना पसंद नहीं है, तो उधार देना बंद कर दो।

कोई नुकसान करता है, जेब काटता है, तो वो सब तुम्हारा ही परिणाम है। वो जितना दिया था, उतना ही आता है। वो कायदेसर

(पृ.१०)

ही है सब, कायदे की बाहर दुनिया में कुछ नहीं है। ज़िम्मेदारी खुद की है। यू आर होल ऐन्ड सोल रिस्पॉन्सिबल फॉर यॉर लाइफ! वो एक लाइफ के लिए नहीं, अनंत अवतार की लाइफ के लिए। इसलिए लाइफ में बहुत ज़िम्मेदारीपूर्वक रहना चाहिए। फादर के साथ, मदर के साथ, वाइफ के साथ, बच्चों के साथ, सब के साथ ज़िम्मेदारी है आपकी। और ये सब के साथ तुम्हारा क्या संबंध है? घराक का व्यापारी के साथ संबंध रहता है, वैसा ही संबंध है।

प्रश्नकर्ता : अभी मैं कोई कार्य करूँ तो उसका फल मुझे इसी जन्म में मिलेगा या आगे के जन्म में मिलेगा?

दादाश्री : देखो, जितना कर्म आँख से दिखता है, इसका फल तो इधर ही ये जन्म में मिलेगा और जो आँख से दिखता नहीं, अंदर हो जाता है, वो कर्म का फल आगे के जन्म में मिलेगा।

एक आदमी मुस्लिम है, उसको पाँच लड़के हैं और दो लड़की हैं। उसके पास पैसा भी नहीं है। उसकी औरत किसीदिन बोलती है कि अपने बच्चों को गोश्त खिलाओ। तो वो बोलता है कि, ‘मेरे पास पैसा नहीं, कहाँ से लाऊँ।’ तो फिर उसने विचार किया कि जंगल में हिरण होता है तो एक हिरण को मारकर लाएगा और बच्चे को खिलाएगा। फिर उसने ऐसा एक हिरण मारकर लाया और बच्चे को खिलाया। एक शिकारी आदमी था। वो शिकार का शौक वाला था। वो जंगल में गया और उसने भी हिरण को मार दिया। फिर खुश होने लगा कि देखो, एक ही दफे में हमने इसको मार दिया।

वो मुस्लिम को, बच्चों को खाने को नहीं था, तो हिरण को मार दिया लेकिन उसको अंदर ये ठीक नहीं लगता है, तो उसका गुनाह 20% है। 100% नॉर्मल है, तो मुस्लिम को 20% गुनाह लगा और वो शिकारी शौक करता है, उसको 150% गुनाह हो गया। क्रिया एक ही प्रकार की है, लेकिन उसका गुनाह अलग-अलग है।

प्रश्नकर्ता : किसी को दु:ख देकरजो प्रसन्न होता है, वो 150%' गुनाह करता है?

(पृ.११)

दादाश्री : वो शिकारी खुश हुआ, इससे 50% ज़्यादा हो गया। खुश नहीं होता तो 100% गुनाह था और ये उसने पश्चाताप किया तो 80% कम हो गया। जो कर्ता नहीं है, उसको गुनाह लगता ही नहीं। जो कर्ता है, उसको ही गुनाह लगता है।

प्रश्नकर्ता : तो अनजाने में पाप हो गया हो तो वो पाप नहीं है?

दादाश्री : नहीं, अनजाने में भी पाप तो इतना ही है। देखो, वो अग्नि है, उसमें एक बच्चे का हाथ ऐसे गलती से पड़ा, तो कुछ फल देता है?

प्रश्नकर्ता : हाँ, जल जाता है।

दादाश्री : फल तो सरीखा ही है। अनजाने करो या जानकर करो, फल तो सरीखा ही है। लेकिन उसके भुगतने का टाइम हिसाब अलग होता है। जब भुगतने का टाइम आया तो जिसने जान-बूझकर किया है, उसको जान-बूझकर भुगतना पड़ता है और जिसने अनजाने किया, उसको अनजाने भुगतना पड़ता है। तीन साल का बच्चा है, उसकी मदर मर गई और बाईस साल का लड़का है, उसकी मदर मर गई तो मदर तो दोनों की मर गई लेकिन बच्चे को अनजानपूर्वक का फल मिला और वो लड़के को जानपूर्वक का फल मिला।

प्रश्नकर्ता : आदमी इस जीवन में जो भी काम करता है, कुछ गलत भी करता है तो उसका फल उसको कैसे मिलता है?

दादाश्री : कोई आदमी चोरी करता है, इस पर भगवान को कोई हरकत नहीं है। लेकिन चोरी करने के टाइम उसको ऐसा लगे कि, ‘इतना बुरा काम मेरे हिस्से कहाँ से आया। मुझे ऐसा काम नहीं चाहिए, लेकिन ये काम करना पड़ता है। मेरे को ये काम करने का विचार नहीं है, लेकिन करना पड़ता है।’ और अंदर के भगवान के पास ऐसी प्रार्थना करे तो उसको चोरी का फल नहीं मिलता। जो गुनाह दिखता है, वो गुनाह करने के टाइम अंदर क्या कर रहा है, वो देखने की ज़रूरत है। वो टाइम ऐसी प्रार्थना करता है, तो वो गुनाह,

(पृ.१२)

गुनाह नहीं रहता है, वो छूट जाता है। यू आर होल ऐन्ड सोल रिस्पॉन्सिबल फॉर यॉर डीड्ज़! अभी जैसा करेगा, वैसा ही फल आगे आ जाएगा। वो तुम्हारा ही कर्म का फल है।

प्रश्नकर्ता : अभी अच्छा किया तो अगले जन्म में अच्छा ही मिलेगा या इस जन्म में अच्छा मिलता है?

दादाश्री : हा, इस जन्म में भी अच्छा मिलता है। आपको अभी उसका ट्राइल लेना है? उसका ट्राइल लेना हो तो एक आदमी को दो- चार थप्पड़ मारकर, दो-चार गाली देकरघर जाना तो क्या होगा?

प्रश्नकर्ता : कुछ न कुछ तो रिज़ल्ट निकलेगा।

दादाश्री : नहीं, फिर तो नींद भी नहीं आती है। जिसको गाली दिया, थप्पड़ मारा उसको तो नींद नहीं आती है, लेकिन अपने को भी नींद नहीं आती है। अगर आप उसको कुछ न कुछ आनंद करवाकर घर गए तो आपको भी आनंद होता है। दो प्रकार के फल मिलते हैं। अच्छा किया तो मीठा फल मिलता है और किसी को बुरा बोला तो उसका कड़वा फल मिलता है। किसी का बुरा मत बोलो, क्योंकि जीवमात्र में भगवान ही हैं।

प्रश्नकर्ता : लेकिन अच्छा किया उसका फल इस जन्म में तो नहीं मिलता?

दादाश्री : वो अच्छा किया न, उसका फल तो अभी ही मिलता है। लेकिन अच्छा किया, वो भी फल है। आप तो भ्रांति से बोलते हैं कि ‘मैंने अच्छा किया।’ पिछले जन्म में अच्छा करने का विचार किया था, उसके फलस्वरूप अभी अच्छा करता है। जन्म से पूरी ज़िंदगी तक वो फल ही मिलता है। आपको 53 इयर हो गया, अभी तक जो सर्विस मिला वो भी फल था। बॉडी को कितना सुख है, कितना दु:ख है, वो भी फल है। लड़की मिली, औरत मिली, सबकुछ मिला, फादर-मदर मिले, मकान मिला, वो सब फल ही मिलता है।

(पृ.१३)

प्रश्नकर्ता : कर्म का ही फल अगर मिलता है, तो उनमें कुछ भी सुसंगत तो होना चाहिए न?

दादाश्री : हाँ, सुसंगत ही। दिस वर्ल्ड इज़ एवर रेग्युलर!

प्रश्नकर्ता : कर्म यहाँ पर ही भुगतने पड़ते हैं न?

दादाश्री : हाँ, जो स्थूल कर्म हैं, आँखों से देख सके, ऐसे कर्म हैं, वो सब यहाँ ही भुगतने पड़ते हैं और आँखों से नहीं दिखे, वैसे सूक्ष्म कर्म वो अगले जन्म के लिए हैं।

प्रश्नकर्ता : कर्म का उदय आता है तो उसमें तन्मयाकार होने से भुगतना पड़ता है या नहीं तन्मयाकार होने से?

दादाश्री : उदय में जो तन्मयाकार नहीं होता, वो ज्ञानी है। अज्ञानी उदय में तन्मयाकार हुए बगैर नहीं रह सकता, क्योंकि अज्ञानी का इतना बल नहीं है कि उदय में तन्मयाकार नहीं हो। हाँ, अज्ञानी कौन सी जगह पर तन्मयाकार नहीं होता है? जो चीज़ खुद को पसंद नहीं, वहाँ तन्मयाकार नहीं होता और ज़्यादा पसंद है, वहाँ तन्मयाकार हो जाता है। जो पसंद है, उसमें तन्मयाकार नहीं हुआ तो वो पुरुषार्थ है। लेकिन ये अज्ञानी को नहीं हो सकता।

ये सब लोग जो बोलते हैं कि, कर्म बंधते हैं। तो कर्म बंधते हैं, वो क्या है कि कर्म चार्ज होते हैं। चार्ज में कर्ता होता है और डिस्चार्ज में भोक्ता होता है। हम ज्ञान देंगे फिर कर्ता नहीं रहेगा, खाली भोक्ता ही रहेगा। कर्ता नहीं रहा तो सब चार्ज बंद हो जाएगा। खाली डिस्चार्ज ही रहेगा। ये साइन्स है। हमारे पास ये पूरे वर्ल्ड का साइन्स है। ‘आप कौन हैं? मैं कौन हूँ? ये किस तरह चलता है? कौन चलाता है?’ वो सब साइन्स है।

प्रश्नकर्ता : आदमी मर जाता है, तब आत्मा और देह अलग हो जाता है, तो फिर आत्मा दूसरे शरीर में जाता है या परमेश्वर में विलीन हो जाता है? अगर दूसरे शरीर में जाता है तो क्या वह कर्म की वजह से जाता है?

(पृ.१४)

दादाश्री : हाँ, दूसरा कोई नहीं, कर्म ही ले जाने वाला है। वो कर्म से पुद्गल भाव होता है। पुद्गल भाव यानी प्राकृत भाव, वो हल्का हो तो देवगति में, उर्ध्वगति में ले जाता है, वो भारी हो तो अधोगति में ले जाता है, नॉर्मल हो तो इधर ही रहता है, सज्जन में, मनुष्य में रहता है। प्राकृत भाव पूरा हो गया तो मोक्ष में चला जाता है।

प्रश्नकर्ता : कोई आदमी मर गया तो उसकी कोई ख्वाहिश बाकी रह गई हो तो वह ख्वाहिश पूरी करने के लिए वह क्या कोशिश करता  है?

दादाश्री : अपना ये ‘ज्ञान’ मिल गया और उसको इच्छा बाकी रहती है तो उसके लिए आगे का जन्म एज़ फॉर एज़ पॉसिबल तो देवगति का ही रहता है। नहीं तो कभी कोई आदमी बहुत सज्जन आदमी का, योगभ्रष्ट आदमी का अवतार आता है, लेकिन उसकी इच्छा पूरी होती है। इच्छा का सब सरकमस्टेन्शियल एविडेन्स पूरा हो जाता है। मोक्ष में जाने के पहले जैसी इच्छा है, वैसे एक-दो अवतार में सब चीज़ मिल जाती है और सब इच्छा पूरी होने के बाद मोक्ष में चले जाता है। जब सब इच्छा पूरी हो गई कि फिर मनुष्य में आकर मोक्ष में चला जाता है लेकिन मनुष्य जन्म इधर ये क्षेत्र में नहीं आएगा, दूसरे क्षेत्र में आएगा। इस क्षेत्र में कोई तीर्थंकर भगवान नहीं हैं। तीर्थंकर भगवान, पूर्ण केवलज्ञानी होने चाहिए, तो वहाँ जन्म होगा और उनके दर्शन से ही मोक्ष मिलेगा, मात्र दर्शन से ही! सुनने का बाकी नहीं रहा कुछ, खुद को सब समझ में आ गया, और सबकुछ तैयारी है तो मात्र दर्शन, संपूर्ण वीतराग दर्शन हो गए कि मोक्ष हो जाएगा।

प्रश्नकर्ता : मनुष्यों की इच्छा दो तरह की हो सकती हैं, एक आध्यात्मिक और दूसरी आधिभौतिक। आध्यात्मिक प्राप्त होने के बाद अगर आधिभौतिक वासनाएँ कुछ रह गई हों तो उसे इसी जन्म में पूरी कर दे तो अगले जन्म का सवाल ही नहीं रहता न?

दादाश्री : नहीं, वो पूरी हुई तो हुई, नहीं तो अगले जन्म में पूरी होती हैं।

(पृ.१५)

प्रश्नकर्ता : इसी जन्म में पूरी कर ले तो क्या बुरा है?

दादाश्री : वो पूरी हो सके, ऐसा है ही नहीं, ऐसे एविडेन्स मिले ऐसा नहीं है। उसके लिए फुली एविडेन्स चाहिए, हंड्रेड परसेन्ट एविडेन्स चाहिए।

प्रश्नकर्ता : अभी आध्यात्मिक तो कर रहे हैं, लेकिन उसी के साथ-साथ संसार की वासनाएँ भी सब पूरी कर ले तो क्या बुरा है?

दादाश्री : लेकिन वो पूरी नहीं हो सकती न! वो पूरी नहीं होती हैं क्योंकि इधर ऐसा वो टाइम भी नहीं है, हंड्रेड परसेन्ट एविडेन्स मिलता ही नहीं। इसलिए इधर वासना पूरी नहीं होती और एक-दो अवतार तो बाकी रह जाता है। वो सब वासना, फुली सैटिस्फैक्शन से पूरी होती हैं और उसमें फिर वो वासना से ऊब जाता है, तो फिर वो केवल शुद्घात्मा में ही रहता है। वासना तो पूरी होनी चाहिए। वासना पूरी हुए बिना तो कोई एन्ट्रन्स ही नहीं मिलता। इधर से डायरेक्ट मोक्ष नहीं है। एक-दो अवतार हैं। बहुत अच्छा अवतार है, तब सब वासनाएँ पूरी हो जाती हैं। इधर सब वासनाएँ पूरी हो जाएँ, ऐसा टाइमिंग भी नहीं है और क्षेत्र भी नहीं है। इधर सच्चा प्रेम वाला, कम्प्लीट बिल्कुल प्रेम वाला आदमी नहीं मिलता है, तो फिर अपनी वासना कैसे पूरी हो जाएगी। इसके लिए एक-दो अवतार बाकी रहते हैं और शुद्घात्मा का लक्ष्य हो गया, बाद में ऐसी पुण्य बंधती है कि वासना पूरी हो जाएँ, ऐसी 100% की पुण्य बन जाती है।

कर्तापद या आश्रितपद?

कर्म तो मनुष्य एक ही करता है, दूसरा कोई कर्म करता ही नहीं। मनुष्य लोग निराश्रित हैं इसलिए वो कर्म करता है। दूसरे सब गाय, भैंस, पेड़, देव लोग, नर्क वाले, सब आश्रित हैं। वो कोई कर्म करते ही नहीं। क्योंकि वो भगवान के आश्रित हैं और ये मनुष्य लोग निराश्रित हैं। भगवान मनुष्य की ज़िम्मेदारी लेता ही नहीं। दूसरे सब जीवों के लिए भगवान ने ज़िम्मेदारी ली हुई है।

(पृ.१६)

प्रश्नकर्ता : मनुष्य खुद को पहचान जाए, फिर निराश्रित नहीं है।

दादाश्री : फिर तो भगवान ही हो गया। खुद की पहचान करने के लिए तैयारी किया, वहाँ से ही भगवान होने की शुरुआत हो गई। वहाँ से अंश भगवान होता है। दो अंश, तीन अंश, ऐसा फिर सर्वांश भी हो जाता है। वो फिर निराश्रित नहीं। वो खुद ही भगवान है। लेकिन सब मनुष्य लोग निराश्रित हैं। वो खाने के लिए, पैसे के लिए, मौज करने के लिए भगवान को भजते हैं। वो सब निराश्रित हैं।

मनुष्य निराश्रित कैसे हैं, वह एक बात बताऊँ? एक गाँव का बड़ा सेठ, एक साधु महाराज और सेठ का कुत्ता, तीनो बाहर कहीं जाते हैं। रास्ते में चार डाकू मिले। तो सेठ के मन में घबराहट हो गया कि, ‘मेरे पास दस हज़ार रुपये हैं, वह ये लोग ले लेंगे और हम को मारेंगे-पीटेंगे, तो मेरा क्या होगा?’ सेठ तो निराश्रित हो गया। साधु महाराज के पास कुछ नहीं था, खाने का बर्तन ही था। लेकिन इन्हें विचार आ गया कि, ‘ये बर्तन लूट जाएगा तो कोई हरकत नहीं, लेकिन मुझे मारेगा तो मेरा पाँव टूट जाएगा, तो फिर मैं क्या करूँगा? मेरा क्या होगा?’ और जो कुत्ता था, वो तो भौंकने लगा। वो डाकू ने एक दफे लकड़ी से मार दिया तो चिल्लाते-चिल्लाते भाग गया, फिर वापस आ गया और भौंकने लगा। उसको मन में विचार नहीं आता है कि, ‘मेरा क्या होगा?’ क्योंकि वो आश्रित है। वो दोनों, सेठ और साधु महाराज के मन में ऐसा होता है कि, ‘मेरा क्या होगा?’ मनुष्य लोग ही कर्ता है और वो ही कर्म बाँधता है। दूसरा कोई जीव कर्ता नहीं है। वो सब तो कर्म में से छूटता है। और मनुष्य लोग तो कर्म बाँधता भी है और कर्म से छूटता भी है। चार्ज और डिस्चार्ज दोनों होता है। डिस्चार्ज में कोई वरीज़ करने की ज़रूरत नहीं है। चार्ज में वरीज़ करने की ज़रूरत है।

ये फॉरेन वाले सब सहज हैं, वो निराश्रित नहीं हैं। वो आश्रित हैं। वो लोग ‘हम कर्ता हैं’, ऐसा नहीं बोलता और हिन्दुस्तान के लोग तो ‘कर्ता’ हो गए हैं।

(पृ.१७)

निष्काम कर्म से कर्मबंध?

गीता में श्री कृष्ण भगवान ने सब रास्ते बताए हैं। धर्म का ही सब लिखा है। लेकिन मोक्ष में जाने का एक वाक्य ही लिखा है, ज़्यादा लिखा नहीं। धर्म क्या करने का? निष्काम कर्म करने का, इसको धर्म बोला जाता है। लेकिन कर्ता है न? निष्काम है, लेकिन कर्ता तो है न?

प्रश्नकर्ता : तो कर्म ही प्रधान है न?

दादाश्री : लेकिन पहले सकाम कर्म करता है, अभी निष्काम कर्म करता है और इसके फायदे में धर्म मिलेगा, मुक्ति नहीं मिलेगी। सकाम कर्म करो या निष्काम कर्म करो, लेकिन मुक्ति नहीं होगी। कर्म करने से मुक्ति नहीं होती। मुक्ति तो जहाँ भगवान प्रकट हो गए हैं, वहाँ कृपा हो जाए तो मुक्ति होती है।

प्रश्नकर्ता : लेकिन बगैर काम किए भगवान की कृपा हो जाती  है?

दादाश्री : काम करे तो भी भगवान की कृपा नहीं होती और काम नहीं करे तो भी भगवान की कृपा नहीं होती। कृपा तो जो भगवान को मिला, उस पर भगवान की कृपा उतर ही जाती है। काम करते हैं, वो अपने फायदे के लिए करने का। निष्काम कर्म किसलिए करने का? कि इससे अपने को कोई तकलीफ नहीं हो, आगे-आगे धर्म करने को मिले, खाने-पीने का मिले, सबकुछ मिले और भगवान की भक्ति करने में कोई तकलीफ नहीं हो। ये निष्काम कर्म में फायदा है लेकिन यह सब कर्म ही हैं और कर्म हैं, वहाँ तक बंधन है।

कृष्ण भगवान ने बोला है कि स्थितप्रज्ञ हो गया फिर छूटता है और दूसरा भी बोला है, वीतराग और निर्भय हो गया, फिर काम हो गया।

निष्काम कर्म करो लेकिन कर्म का कर्ता तो आप ही हैं न? तो कर्ता है, वहाँ तक मुक्ति नहीं होती। मुक्ति तो ‘मैं कर्ता हूँ’ वो

(पृ.१८)

बात ही छूट जानी चाहिए और ‘कौन कर्ता है’, वो मालूम होना चाहिए। हम सब बता देता है कि, ‘करने वाला कौन है, तुम कौन है, ये सब कौन हैं।’ सब लोग मानते हैं कि ‘हम निष्काम कर्म करता है और हम को भगवान मिल जाएगा।’ अरे, तुम कर्ता हो, वहाँ तक कैसे भगवान मिलेगा? अकर्ता हो जाओगे, तब भगवान मिल जाएँगे।

प्रश्नकर्ता : कृष्ण भगवान ने भी युद्घ किया था, कृष्ण भी तो अर्जुन के सारथी बने थे।

दादाश्री : हाँ, अर्जुन के सारथी बने थे लेकिन क्यों सारथी बने थे? भगवान, अर्जुन को बताते थे कि, ‘देख भाई, तुम तो पाँच घोड़े की लगाम पकड़ते हो, लेकिन रथ चलाना तुम नहीं जानते और लगाम को खींच-खींच करते हो। कब खींचता है? जब चढ़ान होती है, तब खींचता है और उतार पर ढीला छोड़ देता है। लगाम खींच-खींच करने से घोड़े के मुँह से खून निकलता है। इसलिए तुम रथ में बैठ जाओ, मैं तुम्हारा रथ चलाऊँगा।’

और तुम्हारा कौन चलाता है? आप खुद चलाते हैं?

प्रश्नकर्ता : हम क्या चलाएँगे? चलाने वाला एक ही है।

दादाश्री : कौन?

प्रश्नकर्ता : जिसको परमपिता परमेश्वर हम मानते हैं।

दादाश्री : श्रीखंड-पूड़ी तुम खाते हैं और चलाता है वो?!!!

जहाँ तक आदमी कर्मयोग में है, वहाँ तक भगवान को स्वीकार करना पड़ेगा कि हे भगवान, आपकी शक्ति से मैं करता हूँ। नहीं तो ‘मैं कर्ता हूँ’ वो कहाँ तक बोलता है? जब कमाता है तो बोलता है, ‘मैंने कमाया’ लेकिन घाटा होता है, तो ‘भगवान ने घाटा कर दिया’ बोलेगा। ‘मेरे पार्टनर ने किया’, नहीं तो ‘मेरे ग्रह ऐसे हैं, भगवान रूठा है’, ऐसा सब गलत बोलता है। भगवान के लिए, ऐसा नहीं बोलना चाहिए। वो सब भगवान करता है। ऐसा समझकरनिमित्त रूप में काम करना चाहिए।

(पृ.१९)

कर्मयोग क्या है? भगवान कर्ता है, मैं उसका निमित्त हूँ। वो जैसा बताता है ऐसा करने का। उसका अहंकार नहीं करने का। इसका नाम कर्मयोग। कर्मयोग में तो, सब काम अंदर से बताता है, ऐसा ही आपको करने का। बाहर से कोई डर नहीं रहना चाहिए कि लोग क्या बोलेंगे और क्या नहीं। सबकुछ भगवान के नाम से ही करने का। हमें कुछ नहीं करने का। हमें तो निमित्त रूप से करने का। हम तो भगवान के हथियार हैं,ऐसे काम करने का।

कर्म, कर्म चेतना, कर्मफल चेतना!

प्रश्नकर्ता : अपना कर्म कौन लिखता है?

दादाश्री : अपने कर्म को लिखने वाला कोई नहीं है। ये बड़े-बड़े कम्प्यूटर होते हैं, वो जैसा रिज़ल्ट देता है, उसी तरह ऐसे ही तुमको कर्म का फल मिलता है।

कर्म तो क्या चीज़ है? जमीन में बीज डालता है, उसको कर्म बोला जाता है और उसका जो फल आता है, वो कर्मफल है। कर्मफल देने का सब काम कम्प्यूटर की माफिक मशीनरी करती है। कम्प्यूटर में जो भी कुछ डालता है, उसका जवाब मिल जाता है, वो कर्मफल है। इसमें भगवान कुछ नहीं करता।

प्रश्नकर्ता : पिछले जन्मों के कर्म से ऐसा सब होता है?

दादाश्री : हाँ, तो दूसरा क्या है? पिछले जन्म का जो कर्म है, उसका ये जन्म में फल मिलता है। तुमको नहीं चाहिए तो भी फल मिलता है। उसका फल दो प्रकार का रहता है। एक कड़वा रहता है और एक मीठा रहता है। थोड़े दिन कड़वा फल मिलता है तो वो आपको पसंद नहीं आता और मीठा फल आपको पसंद आ जाता है। इससे दूसरा नया कर्म बाँधता है, नए बीज डालता है और पिछला फल खाता है।

प्रश्नकर्ता : इस जन्म में हम जो कर्म करते हैं, वो अगले जन्म में फिर से आएँगे?

(पृ.२०)

दादाश्री : अभी जो फल खाता है, वो पिछले जन्म का है और जिसका बीज डालते हैं, उसका फल अगले जन्म में मिल जाएगा। जब किसी के साथ क्रोध हो जाता है, तब उसका बीज खराब पड़ता है। इसका जब फल आता है, तब अपने को बहुत दु:ख होता है।

प्रश्नकर्ता : पिछला जन्म है या नहीं, वह किस तरह मालूम होता  है?

दादाश्री : स्कूल में तुम पढ़ते हैं, उसमें सभी लड़कों का पहला नंबर आता है या किसी एक का पहला नंबर आता है?

प्रश्नकर्ता : किसी एक का ही आता है।

दादाश्री : कोई दूसरे भी नंबर आते हैं?

प्रश्नकर्ता : हाँ।

दादाश्री : ये चेन्ज क्यों है? सब एक सरीखा क्यों आता नहीं?

प्रश्नकर्ता : जो जितना पढ़ता है, उतने ही उसको माक्र्स मिलते हैं।

दादाश्री : नहीं, कई लोग तो ज़्यादा पढ़ते भी नहीं, तो भी फस्र्ट आता है और कई लोग ज़्यादा पढ़ते हैं तो भी फेल होते हैं।

प्रश्नकर्ता : उन लोगों का दिमाग़ अच्छा होगा।

दादाश्री : इन लोगों का दिमाग़ अलग-अलग क्यों है? वो पिछले जन्म के कर्म के फल के मुताबिक दिमाग़ है सब का।

प्रश्नकर्ता : जो पीछे का होता है, उसका ये जन्म में कहने से क्या फायदा? करनी-भरनी तो इसी जन्म में ही होनी चाहिए। ताकि हम को पता चले कि हमने यह पाप किया तो उसका यह फल भुगत रहे हैं।

(पृ.२१)

दादाश्री : हाँ, हाँ, वो भी है। लेकिन ये कैसे है कि जो कॉज़ेज़ किया है, उसका फल क्या मिलता है? ये छोटा बच्चा होता है, वो किसी को पत्थर मारता है, वो उसकी ज़िम्मेदारी है। लेकिन उसको मालूम नहीं है कि इसकी क्या ज़िम्मेदारी है। वो पत्थर मारता है, वो पिछले कर्म से ये करता है। फिर जिसको पत्थर लग गया, वो आदमी ये बच्चे को मारेगा तो ये पत्थर मार दिया, उसका फल मिलता है।

कोई आदमी किसी के साथ गुस्सा हो गया, फिर वो आदमी बोलता है कि, ‘भाई, मेरे को गुस्सा होने का विचार नहीं था, लेकिन गुस्सा ऐसे ही हो गया।’ तो फिर ये गुस्सा किसने किया? वो आगे के कर्म का परिणाम है। वो क्रोध करता है, वह आगे के कॉज़ेज़ की इफेक्ट है। ये भ्रांति वाले लोग क्या बोलते हैं? ये गुस्सा किया, उसको कर्म बोलते हैं और मार खाया, वो उसके कर्म का फल है, ऐसा बोलते हैं। फिर लोग क्या बोलते हैं कि ‘क्रोध मत करो।’ अरे, लेकिन गुस्सा करना अपने हाथ में नहीं है न? वो आपको नहीं करने का विचार है, तो भी हो जाता है, उसका क्या इलाज? ये तो पिछले जन्म के कर्म का फल है।

कौन चलाता है, वो समझ में आ गया न? पास होने का कि नहीं होने का, वो आपके हाथ में नहीं है। तो वो ‘चंदूभाई के हाथ में है?’ हाँ, थोड़ा ‘चंदूभाई’ के हाथ में है, ओन्ली 2% और 98% दूसरे के हाथ में है। तुम्हारे ऊपर दूसरे की सत्ता है, ऐसा मालूम नहीं होता है? ऐसा एक्सपिरियन्स नहीं हुआ है? तुम्हारा विचार है, आज जल्दी नींद लेना है, तो फिर नींद नहीं आती ऐसा नहीं होता?

प्रश्नकर्ता : होता है।

दादाश्री : तुम्हारी तो मर्ज़ी है, लेकिन तुमको कौन अंतराय करता है? कोई दूसरी शक्ति है, ऐसा लगता है न? कभी गुस्सा आ जाता है या नहीं, तुम्हारी इच्छा गुस्सा नहीं करने का हो तो भी?

प्रश्नकर्ता : फिर भी हो जाता है।

दादाश्री : वो गुस्सा के क्रिएटर कौन?

(पृ.२२)

प्रश्नकर्ता : उसको हम आत्मा कहता है।

दादाश्री : नहीं, आत्मा ऐसा नहीं करता। आत्मा तो भगवान है। वो क्रोध तो तुम्हारी वीकनेस है। कर्म देखा है आपने? ये आदमी कर्म कर रहे हैं, ऐसा देखा है? कोई आदमी कर्म करता है, वो आपने देखा है?

प्रश्नकर्ता : उसके एक्शन से अपने को मालूम पड़ता है।

दादाश्री : कोई आदमी किसी को मारता है तो आप क्या देखता  है?

प्रश्नकर्ता : वह पाप करता है, वह कर्म करता है।

दादाश्री : ये वर्ल्ड में कोई आदमी कर्म देख सकता ही नहीं। कर्म सूक्ष्म है। वो जो देखता है, वह कर्मचेतना देखता है। कर्मचेतना निश्चेतन चेतन है, वो सच्चा चेतन नहीं है। कर्मचेतना आपकी समझ में आया?

प्रश्नकर्ता : कर्म की डेफिनिशन बताइए।

दादाश्री : जो आरोपित भाव है, वो ही कर्म है।

आपका नाम क्या है?

प्रश्नकर्ता : चंदूभाई।

दादाश्री : आप, ‘मैं चंदूभाई हूँ’ ऐसा मानते हैं, इससे आप पूरा दिन कर्म ही बाँधते हैं। रात को भी कर्म बाँधते हैं। क्योंकि आप जो हैं, वो आप जानते नहीं हैं और जो नहीं वो ही मानते हैं। चंदूभाई तो आपका नाम है मात्र और मानते हैं कि, ‘मैं चंदूभाई हूँ’। ये रोंग बिलीफ, ये स्त्री का हज़बेन्ड हूँ, ये दूसरी रोंग बिलीफ है। ये लड़के का फादर हूँ, ये तीसरी रोंग बिलीफ है। ऐसी कितनी सारी रोंग बिलीफ हैं? लेकिन आप आत्मा हो गए, इसका रियलाइज़ हो गया, फिर आपको कर्म नहीं होता है। ‘मैं चंदूभाई हूँ’, ये आरोपित भाव से कर्म

(पृ.२३)

होता है। ऐसा कर्म किया, उसका फल दूसरे जन्म में आता है, वो कर्मचेतना है। कर्मचेतना अपने हाथ में नहीं है, परसत्ता में है। फिर इधर कर्मचेतना का फल आता है, वो कर्मफल चेतना है। आप शेयरबाज़ार में जाते हैं, वो कर्मचेतना का फल है। धंधे में घाटा होता है, मुनाफा होता है, वो भी कर्मचेतना का फल है। उसको बोलता है, ‘मैंने किया, मैंने कमाया’, तो फिर अंदर क्या है कि कर्म चार्ज होता है। ‘मैं चंदूभाई हूँ’ और ‘मैंने ये किया’ उससे ही नया कर्म होता है।

प्रश्नकर्ता : कर्म में भी अच्छा-बुरा है?

दादाश्री : अभी यहाँ सत्संग में आपको पुण्य का कर्म होता है। आपको 24 घंटे कर्म ही होता है और ये हमारे ‘महात्मा’, वो एक मिनट भी नया कर्म नहीं बाँधते और आप तो बहुत पुण्यशाली (!) आदमी हैं कि नींद में भी कर्म बाँधते हैं।

प्रश्नकर्ता : ऐसा क्यों होता है?

दादाश्री : सेल्फ का रियलाइज़ करना चाहिए। सेल्फ का रियलाइज़ हो गया, फिर कर्म नहीं होता।

खुद को पहचान ने का है। खुद को पहचान लिया, तो सब काम पूरा हो गया। चौबीस तीर्थंकरों ने खुद को पहचान लिया था। वो, ये खुद नहीं हैं। जो दिखता है, जो सुनता है, वो सब खुद नहीं हैं। वो सब परसत्ता है। आपको परसत्ता लगती है? चिंता, उपाधि (बाहर से आने वाला दु:ख, परेशानी) कुछ नहीं लगता? वो सब परसत्ता है, अपनी खुद की स्वसत्ता नहीं है। स्वसत्ता में निरुपाधि है। निरंतर परमानंद है!! वो ही मोक्ष है!!! खुद का आत्मा का अनुभव हुआ, वो ही मोक्ष है। मोक्ष दूसरी कोई चीज़ नहीं है।

ये सब पुद्गल की बाज़ी है। नरम-गरम, शाता-अशाता (सुख-परिणाम - दु:ख-परिणाम), जो कुछ होता है, वो पुद्गल को होता है। आत्मा को कुछ नहीं होता। आत्मा तो ऐसे ही रहता है। जो अविनाशी है, वह खुद अपना आत्मा है।

(पृ.२४)

वो विनाशी तत्वों को छोड़ देने का। विनाशी तत्वों का मालिक नहीं होने का, उसका अहंकार नहीं होना चाहिए। ये ‘चंदूभाई’ जो कुछ करता है, उस पर आपको खाली देखना है कि, ‘वह क्या कर रहा है।’ बस, ये ही अपना धर्म है, ‘ज्ञाता-द्रष्टा’, और ‘चंदूभाई’ सब करने वाला है। वो सामायिक करता है, प्रतिक्रमण करता है, स्वाध्याय करता है, सबकुछ करता है, उस पर आप देखने वाला है। निरंतर यही रहना चाहिए, बस। दूसरा कुछ नहीं। वो ‘सामायिक’ ही है। अपना आत्मा शुद्घ है। कभी अशुद्घ होता ही नहीं है। संसार में भी अशुद्घ हुआ नहीं है और ये नाम, रूप सब भ्रांति हैं।

‘चंदूभाई’ क्या कर रहा है। उसकी तबियत कैसी है, वो सब ‘आपको’ देखना है। अशाता हो जाए तो फिर हमें बोलने का कि, ‘चंदूभाई, ‘हम’ तुम्हारे साथ हैं, शांति रखो, शांति रखो’, ऐसा बोलने का। दूसरा कोई काम करने का ही नहीं।

आप ‘खुद’ ही शुद्घात्मा है और ये ‘चंदूभाई’ वो कर्म का फल है, कर्मचेतना है। इसमें से फिर फल मिलता है, वो कर्मफल चेतना है। शुद्घात्मा हो गए फिर कुछ करने की ज़रूरत नहीं है। शुद्घात्मा तो अक्रिय है। ‘हम क्रिया करता है, ये मैंने किया’ वो भ्रांति है। ‘आप’ तो ज्ञाता-द्रष्टा, परमानंदी है और चंदूभाई ‘ज्ञेय’ है और चलाने वाला ‘व्यवस्थित शक्ति’ चलाती है। भगवान नहीं चलाते, आप खुद भी नहीं चलाते हैं। हमें चलाने की लगाम छोड़ देने की और कैसे चल रहा है, ‘चंदूभाई’ क्या कर रहा है, वो ही ‘देखने’ का है। ये ‘चंदूभाई’ है, वो अपना गत अवतार (पूर्व जन्म) का कर्मफल है। वो हमें फल देखने का है कि कर्म क्या हुआ है, कर्म कितने हैं और कर्मफल क्या है? वो कर्मचेतना भी ‘तुम्हारी’ नहीं और कर्मफल चेतना भी तुम्हारी नहीं है। आप तो देखने वाला-जानने वाला है।

जीवन में मरजियात क्या?

प्रश्नकर्ता : आप्तवाणी में फरजियात (कम्पल्सरी) और मरजियात

(पृ.२५)

(वॉलन्टरी) की बात पढ़ी। फरजियात तो समझ में आया लेकिन मरजियात कौन सी चीज़ है, वह समझ में नहीं आया।

दादाश्री : मरजियात कुछ है ही नहीं। मरजियात तो जब ‘पुरुष’ होता है, तब मरजियात होता है। जहाँ तक पुरुष हुआ नहीं, वहाँ तक मरजियात ही नहीं है। आप पुरुष हुए हैं?

प्रश्नकर्ता : यह आपका प्रश्न समझ में नहीं आया।

दादाश्री : आपको कौन चलाता है? आपकी प्रकृति आपको चलाती है। इसलिए आप पुरुष नहीं हुए हैं। प्रकृति और पुरुष, दोनों जुदा हो जाएँ, फिर ये प्रकृति अपनी फरजियात है और पुरुष मरजियात है। जब तुम पुरुष हो गए, तो मरजियात में आ गए, लेकिन प्रकृति का भाग फरजियात रहेगा। भूख लगेगी, प्यास लगेगी, ठंडी भी लगेगी, लेकिन आप खुद मरजियात रहेगा।

प्रश्नकर्ता : यहाँ सत्संग में है, वह फरजियात है या मरजियात?

दादाश्री : वो है तो फरजियात, लेकिन ये मरजियात वाला फरजियात है। जो पुरुष नहीं हुआ है, वो तो मरजियात वाला फरजियात से नहीं आया है। उसको तो फरजियात ही है।

ये वर्ल्ड तो क्या है? फरजियात है। आपका जन्म हुआ वो भी फरजियात है। आपने पूरी ज़िंदगी जो कुछ किया है, वो भी सब फरजियात किया है। आपने शादी किया, वो भी फरजियात किया।

फरजियात को दुनिया क्या बोलती है? मरजियात बोलती है। मरजियात होता तो तो कोई मरने वाला है ही नहीं। लेकिन मरना तो पड़ता है। जो अच्छा होता है, वो भी फरजियात है और बुरा होता है वो भी फरजियात है। लेकिन उसके पीछे अपना भाव क्या है, वो ही तुम्हारा मरजियात है। आपने क्या हेतु से कर दिया, वो ही तुम्हारा मरजियात है। भगवान तो वो ही देखता है कि, ‘तुम्हारा हेतु क्या था।’ समझ गया न?

(पृ.२६)

सब लोग नियति बोलता है कि जो होने वाला है वो होगा, नहीं होने वाला है वो नहीं होगा। लेकिन अकेली नियति कुछ नहीं कर सकती है। वो हर एक चीज़ इकट्ठा हो गई, साइन्टिफिक सरकमस्टेन्शियल एविडेन्स इकट्ठे हो गए तो सब होता है, पार्लियामेन्टरी पद्घति से होता  है।

आप इधर आए तो आपके मन में ऐसा होता है कि इधर आए वह बहुत अच्छा हुआ और दूसरे एक के मन में ऐसा होता है कि इधर नहीं आया होता तो अच्छा था। वो दोनों पुरुषार्थ अलग हैं। तुम्हारे अंदर जो हेतु है, जो भाव हैं, वो ही पुरुषार्थ है। इधर आए वो सब फरजियात है, प्रारब्ध है और प्रारब्ध तो दूसरे के हाथ में है, तुम्हारे हाथ में नहीं है।

आप जो कर सकते हैं, आपको जो भी करने की शक्ति है लेकिन आपको ख्याल नहीं है और जिधर नहीं करने का है, जो परसत्ता में है, उधर आप हाथ डालते हो। सर्जन शक्ति आपके हाथ में है और विसर्जन शक्ति आपके हाथ में नहीं है। जो सर्जन आपने किया है, इसका विसर्जन आपके हाथ में नहीं है। ये पूरी लाइफ विसर्जन ही हो रहा है मात्र। उसमें सर्जन भी हो रहा है, वो आँख से नहीं दिखे ऐसा है।

प्रारब्ध-पुरुषार्थ का डिमार्केशन!

भगवान कुछ देते नहीं हैं। तुम जो करते हो, उसका फल तुमको मिलता है। तुम अच्छा काम करेगा तो अच्छा फल मिलेगा और बुरा काम करेगा तो बुरा फल मिलेगा। तुम ये भाई को गाली दोगे तो वो भी तुमको गाली देगा और तुम गाली नहीं दोगे तो तुमको कोई गाली नहीं देगा।

प्रश्नकर्ता : हम किसी को गाली देता नहीं, फिर भी मुझे गाली देता है, ऐसा क्यों?

दादाश्री : ये जन्म के चोपडे का हिसाब नहीं दिखता है, तो

(पृ.२७)

पिछले जन्म के चोपडे का हिसाब रहता है। लेकिन आपको ही गाली क्यों दिया?

प्रश्नकर्ता : वह ऐसी परिस्थिति है, ऐसे समझना है?

दादाश्री : हाँ, परिस्थिति! हम उसको साइन्टिफिक सरकमस्टेन्शियल एविडेन्स बोलते हैं। परिस्थिति ही ऐसी आ गई तो उसमें कोई खराबी मानने की ज़रूर नहीं है। सच बात क्या है? कोई आदमी किसी को गाली देता ही नहीं। परिस्थिति ही गाली देती है। ओन्ली साइन्टिफिक सरकमस्टेन्शियल एविडेन्स ही गाली देता है। जेब कोई काटता ही नहीं, परिस्थिति ही जेब काटती है। लेकिन आदमी को परिस्थिति का ख्याल नहीं रहेगा। मैं दूसरी बात बता दूँ?

कोई आदमी ने तुम्हारी जेब काट ली और दो सौ रुपया ले गया। तो तुमको, दुनिया वाले को ऐसा लगेगा कि ये बुरे आदमी ने मेरी जेब काट ली, वह गुनहगार ही है। लेकिन वो सच बात नहीं है। सच बात ये है कि तुम्हारा दो सौ रुपया जाने के लिए तैयार हुआ, क्योंकि वह पैसा खोटा था। तो इसके लिए वो आदमी निमित्त मात्र हो गया। वो निमित्त है, तो आप उसे आशीर्वाद देना कि तुमने हमें ये कर्म से छुड़ाया। कोई गाली दे तो भी वो निमित्त है। तुमको कर्म से छुड़वाता है। आपको उसे आशीर्वाद देना चाहिए। कोई पचास गाली दे लेकिन वो इक्यावन नहीं हो जाएगी। पचास हो गई फिर आप बोलोगे कि, ‘भाई, हमें और गाली दो, तो वो नहीं देगा।’ ये मेरी बात समझ में आई? ये वन सेन्टेन्स में सभी पज़ल सॉल्व हो जाते हैं। कोई गाली दे, पत्थर मारे तो भी वो निमित्त है और ज़िम्मेदारी तुम्हारी है। क्योंकि तुमने पहले किया है, इसका आज फल मिला।

जो पीछे भावना की थी, आज ये उसका फल है। तो फल में आप क्या कर सकते हो? रिज़ल्ट में आप कुछ कर सकते हो? आपने शादी की तो वो टाइम टेन्डर निकाला था कि औरत चाहिए? नहीं, वो तो पहले भावना कर दी थी। सब तैयार हो रहा है, फिर रिज़ल्ट आएगा। तो औरत मिले, वो रिज़ल्ट है। बाद में तुम बोलोगे कि हम

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को ये औरत पसंद नहीं। अरे भाई, ये तो तुम्हारा ही रिज़ल्ट है। फिर तुमको पसंद नहीं, ऐसा कैसा बोलते हो? परीक्षा के रिज़ल्ट में नापास हो गए, फिर इसमें पसंद-नापसंद करने की क्या ज़रूरत है?

प्रश्नकर्ता : तो फिर पुरुषार्थ जो है, वो क्या है?

दादाश्री : सच्चा पुरुषार्थ तो पुरुष हुआ उसके बाद होता है। प्रकृति रिलेटिव है, पुरुष रियल है। पुरुष और प्रकृति का डिमार्केशन लाइन हो गया कि ये प्रकृति है और ये पुरुष है, फिर सच्चा पुरुषार्थ होता है। वहाँ तक पुरुषार्थ नहीं है। वहाँ तक भ्रांत पुरुषार्थ है। वो कैसे होता है कि आपने हज़ार रुपये दान दिया और आप इगोइज़म करेंगे कि ‘हमने हज़ार रुपये दान में दे दिया’, फिर ये ही पुरुषार्थ है। ‘मैंने दिया’ बोलता है, उसको भ्रांत पुरुषार्थ बोला जाता है। आपने किसी को गाली दी और आप पश्चात्ताप करो कि ‘ऐसा नहीं होना चाहिए’, तो वो भी भ्रांत पुरुषार्थ हो गया। आपको ठीक लगता है, ऐसा शुभ है तो उसमें बोलो कि, ‘मैंने किया’ तो भ्रांत पुरुषार्थ होता है और जब अशुभ होता है, उसमें मौन रहो और पश्चात्ताप करो तो भी पुरुषार्थ होता है। ‘मैंने किया’ ऐसा सहज रूप से बोले तो इगोइज़म नहीं करता है, वो तो आगे के लिए पुरुषार्थ करता है। लेकिन इगोइज़म नॉर्मेलिटी में रखना चाहिए। अबव नॉर्मल इगोइज़म इज़ पॉइज़न ऐन्ड बिलो नॉर्मल इगोइज़म इज़ पॉइज़न, वो पुरुषार्थ नहीं हो सकता है।

हम को बड़े-बड़े साहित्यकार लोग पूछते हैं कि, ‘दादा भगवान के असीम जय जयकार हो’ बोलते हैं, तो आपको कुछ नहीं होता है? तो मैंने क्या बोला कि मेरे को क्या ज़रूरत है? हमारे अंदर इतना सुख है तो इसकी क्या ज़रूरत है? ये तो तुम्हारे फायदे के लिए बोलने का है। हम तो सारे जगत् के शिष्य हैं और लघुत्तम हैं। बाइ रिलेटिव व्यू पोइन्ट, मैं लघुत्तम हूँ और बाइ रियल व्यू पोइन्ट, मैं गुरुत्तम हूँ! ये बाहर सब लोग हैं, वो रिलेटिव में गुरुत्तम होने गए। लेकिन रिलेटिव में गुरुत्तम नहीं होना है। रिलेटिव में लघुत्तम होने का है, तो रियल में ऑटोमैटिक गुरुत्तम पद मिल जाएगा।

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भगवान की भक्ति करते हैं, वो भी प्रारब्ध है। हर एक चीज़ प्रारब्ध ही हैं और बिना पुरुषार्थ प्रारब्ध हो नहीं सकता। पुरुषार्थ बीज स्वरूप है और उसका जो पेड़ होता है, वो सब प्रारब्ध है। पैसा मिलता है, वो भी प्रारब्ध है लेकिन पैसा दान में देने की भावना है, वो पुरुषार्थ है। आप भगवान की भक्ति करने के लिए बैठे हैं और बाहर कोई आदमी आपको बुलाने आया। तो आपके मन में भक्ति जल्दी पूरा कर देने का विचार हो गया। तो जल्दी पूरा करने का विचार, वो पुरुषार्थ है और भक्ति किया वो सब प्रारब्ध है। अपने अंदर जो भाव हैं, वो ही पुरुषार्थ है। ये मन, बुद्घि, शरीर सब साथ होकर जो होता है, वो सब प्रारब्ध है। ये लाइन ऑफ डिमार्केशन प्रारब्ध और पुरुषार्थ के बीच है, वो आप समझ गया न?!

देर से उठा, वो प्रारब्ध है लेकिन भगवान की भक्ति करने का भाव किया था, वो पुरुषार्थ है। कोई जल्दी उठता है, वो भी प्रारब्ध है। किसी ने आपके ऊपर उपकार किया लेकिन उसको तकलीफ आया तो तुम हेल्प करते हो वो प्रारब्ध है, लेकिन तुमने विचार किया कि, ‘उसको हेल्प करने की ज़रूरत नहीं है’, तो वो तुमने पुरुषार्थ गलत कर दिया। भाव को मत बिगाड़ो। भाव वो तो पुरुषार्थ है। किसी ने आपको पैसा दिया है, तो पैसा देने वाले का भी प्रारब्ध है, आपका भी प्रारब्ध है। लेकिन आपने विचार किया कि, ‘पैसा नहीं देंगे तो क्या करने वाला है’, तो वो उल्टा पुरुषार्थ हो गया। अगर तो उसको पैसा वापस देने का भाव है, तो वो भी पुरुषार्थ है, सीधा पुरुषार्थ है।

चोरी किया वो भी प्रारब्ध है, लेकिन पश्चात्ताप हो गया, तो वो पुरुषार्थ है। चोरी किया फिर उसको आनंद हो गया तो वो भी प्रारब्ध है, लेकिन भाव है कि, ‘ऐसा कभी नहीं करना चाहिए’ तो वो पुरुषार्थ है। चोरी करता है लेकिन हर दफे बोलता है कि, ‘मर जाए तो भी ऐसे चोरी नहीं करना चाहिए’, तो वो पुरुषार्थ है।

प्रश्नकर्ता : गरीबों की घर जाकर सेवा की है, मुफ्त दवाईयाँ दी हैं। खुद आध्यात्मिक विचार के हैं, फिर भी उन्हें एक ऐसा शारीरिक दर्द हुआ है, उससे उन्हें बहुत तकलीफ होती है। वो क्यों? ये समझ में नहीं आता।

दादाश्री : आपने जो देखा, उसने बहुत अच्छे-अच्छे काम किए, उसका फल आगे के जन्म में मिलेगा। ये जन्म में पिछले जन्म का फल मिला है।

प्रश्नकर्ता : आगे की बात नहीं है? आगे क्यों मिलेगा? व्हाइ नॉट नाउ इटसेल्फ? अभी भूख लगती है, तो अभी खाता है। अभी खाया तो उसको संतोष होता है।

दादाश्री : ये दु:ख आता है, वो पिछले जन्म के बुरे कर्म का फल है। अच्छा काम करता है, वो भी पिछले जन्म के अच्छे कर्म का फल है। लेकिन इसमें से अगले जन्म के लिए नया कर्म बाँधता है। कर्म का अर्थ क्या है कि एक लड़का होटल में ही खाता है। आपने बोला कि होटल में मत खाओ, वो लड़का भी समझता है कि ये गलत हो रहा है, फिर भी रोज़ जाकर खाता है। क्यों? वो पीछे का कर्म का फल आया है और अभी खाता है, इसका फल उसको अभी मिल जाएगा। वो शरीर की खराबी हो जाएगी और इधर ही फल मिल जाएगा। लेकिन आंतरिक कर्म है, भावकर्म कि, ‘ये नहीं खाना चाहिए’, तो उसका फल आगे मिल जाएगा। ऐसे दो प्रकार के कर्म हैं। स्थूल कर्म है, उसका फल इधर ही मिलता है। सूक्ष्म कर्म है, उसका फल अगले जन्म में मिलता है।

प्रश्नकर्ता : आइ कान्ट बिलीव दिस!

दादाश्री : हाँ, आप नहीं मानो तो भी कायदे में तो रहना ही पड़ेगा न? मानेगा तो भी कायदे में ही रहना पड़ेगा। इसमें आपका कुछ नहीं चलेगा! किसी का कुछ नहीं चलेगा। द वर्ल्ड इज़ एवर रेग्युलर! यह वर्ल्ड कोई दिन भूलचूक वाला हुआ नहीं है। यह वर्ल्ड एवर रेग्युलर ही है और वो आपके ही कर्म का फल देता है। उसको

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रेग्युलारिटी में कोई हरकत नहीं। वो हमेशा न्यायी ही रहता है। कुदरत न्यायी ही है। वो कुदरत न्याय के बाहर कभी जाती ही नहीं।

प्रत्येक इफेक्ट में कॉज़ेज़ किसका?

दादाश्री : इस शरीर में कितने साल रहना है?

प्रश्नकर्ता : जब तक अपने एक्सपेक्टेशन हैं, फुलफिलमेन्ट है, वो पूरे नहीं होते, वहाँ तक तो रहेंगे न?

दादाश्री : वो हिसाब है, वो तो पूरा हो जाता है। लेकिन नया क्या होता है उसमें से?

प्रश्नकर्ता : एक के बाद एक नई वस्तु तो आती ही है।

दादाश्री : नई वस्तु अच्छी आनी चाहिए या बुरी?

प्रश्नकर्ता : अच्छी ही आनी चाहिए।

दादाश्री : तुमको पसंद नहीं आए ऐसा खराब एक्सपेक्टेशन किया है, पिछले जन्म में?

प्रश्नकर्ता : मालूम नहीं।

दादाश्री : तुमको पसंद नहीं आए ऐसा कभी आता है?

प्रश्कर्ता : आता है।

दादाश्री : जो तुमको पसंद नहीं आए वो क्यों आता है? किसी ने ज़बरदस्ती किया?

प्रश्नकर्ता : नहीं।

दादाश्री : तो फिर किसके हैं? तुम्हारे खुद के हैं या दूसरे के?

प्रश्नकर्ता : एक्सपेक्टेशन जो हैं, वो तो अपने खुद के ही रहते हैं।

दादाश्री : हाँ, लेकिन वह बुरे पसंद नहीं आते न? जो कुछ होता है, वो अपना एक्सपेक्टेशन है, तो बुरे क्यों पसंद नहीं आते हैं?

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प्रश्नकर्ता : अपने जो एक्सपेक्टेशन हैं, वो तो हम चाहते हैं कि अच्छे ही रहने चाहिए, लेकिन ऐसे नहीं होता न?

दादाश्री : क्यों? उसमें तुम ‘खुद’ नहीं हो?

प्रश्नकर्ता : है।

दादाश्री : तो फिर बदलाव क्यों नहीं करता? जिधर सिग्नेचर करता है, वो सब समझकरआता है। तो जो सिग्नेचर किया है, उसका हिसाब से एक्सपेक्टेशन आता है। फिर अभी क्यों गलती निकालता है? अभी गलती क्यों लगती है?

प्रश्नकर्ता : नहीं, गलती नहीं लगती। कुछ एक्सपेक्टेशन ऐसे होते हैं कि अपनी तरफ से पूरा नहीं कर सकते हैं।

दादाश्री : तुम्हारा तो एक्सपेक्टेशन है, वो पूरा नहीं होता?

प्रश्नकर्ता : हाँ।

दादाश्री : एक्सपेक्टेशन दो प्रकार के हैं। पिछले जो एक्सपेक्टेशन हैं, वो पूरे हो जाएँगे और नया एक्सपेक्टेशन है, वो अभी पूरा नहीं हो जाएगा। जो नया है, वो पूरा नहीं होने वाला। वो अगले जन्म में आएगा। जो पुराना है, वो इधर पूरा होता है। पुराना एक्सपेक्टेशन है, वो इफेक्ट के रूप में है, जिसका कॉज़ेज़ पिछले जन्म में किया था। ये जन्म में उसकी इफेक्ट आ गई है, इफेक्ट में कुछ बदल नहीं सकता है। अभी अंदर कॉज़ेज़ हो रहा है, उसकी अगले जन्म में इफेक्ट आएगी। तो कॉज़ेज़ अच्छा करना।

फ्रेन्ड का उसकी औरत के साथ झगड़ा आपने देखा तो आप सोचते हैं कि, ‘शादी करनी ही नहीं चाहिए।’ तो अगले जन्म में आपकी शादी नहीं होगी। ऐसे कॉज़ेज़ नहीं करने का। जैसा देखा है, ऐसा कॉज़ेज़ नहीं करने का। जो अच्छा है, उसका कॉज़ेज़ करो।

अच्छा कॉज़ेज़ कैसा होना चाहिए, उसकी तलाश करो। मेरे को ये भौतिक सुख चाहिए, तो क्या कॉज़ेज़ करने का? उसके लिए हम

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कॉज़ेज़ बताएँगे कि ऐसे कॉज़ेज़ करना कि मन-वचन-काया से किसी भी जीव को मारना नहीं, दु:ख नहीं देना। फिर आपको सुख ही मिलेगा। ऐसे कॉज़ेज़ चाहिए।

तुम्हारी बर्थ से डेथ तक सब इफेक्ट ही है। इसमें से कॉज़ेज़ हो रहे हैं अभी।

प्रश्नकर्ता : यह रीबर्थ का कोई एन्ड (अंत) रहता है क्या?

दादाश्री : वो एन्ड तो होता है। कॉज़ेज़ बंद हो जाता है, फिर एन्ड हो जाता है। जहाँ तक कॉज़ेज़ चालु है, वहाँ तक एन्ड नहीं होता  है।

प्रश्नकर्ता : कॉज़ेज़ बंद हो जाना चाहिए ऐसे कहा तो अच्छे कॉज़ेज़ और बुरे कॉज़ेज़, दोनो बंद होने चाहिए क्या?

दादाश्री : दोनो बंद करने का। कॉज़ेज़ होता है, इगोइज़म से और इफेक्टस से संसार चलता है। इगोइज़म चला गया तो कॉज़ेज़ बंद हो जाएँगे, तो संसार भी बंद हो जाएगा। फिर परमानेन्ट, सनातन सुख मिल जाता है। अभी जो सुख मिलता है, वो कल्पित सुख है, आरोपित सुख है और दु:ख भी आरोपित है। सच्चा दु:ख भी नहीं है, सच्चा सुख भी नहीं है।

‘सूक्ष्म शरीर’ क्या है?

प्रश्नकर्ता : यह पुनर्जन्म सूक्ष्म शरीर लेता है क्या? स्थूल शरीर तो यहीं रह जाता है न?

दादाश्री : हाँ, जो फिज़िकल बॉडी है, वह इधर रह जाती है और सूक्ष्म शरीर साथ में जाता है। जहाँ तक वीकनेस नहीं गई, राग-द्वेष नहीं गए, वहाँ तक पुनर्जन्म है।

प्रश्नकर्ता : ये मन, बुद्घि, चित, अहंकार को ही सूक्ष्म शरीर बोलते हैं क्या?

दादाश्री : नहीं, वो सूक्ष्म शरीर नहीं हैं। सूक्ष्म शरीर तो

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इलेक्ट्रिकल बॉडी को बोलते हैं। मन, बुद्घि, चित, अहंकार, वो तो अंत:करण हैं। इलेक्ट्रिकल बॉडी हर एक देह में होती है, पेड़ में, पशु में, सब में होती है। जो खाना खाता है, उसका पाचन होता है, वे इलेक्ट्रिकल बॉडी से ही होता है। मरते समय आत्मा के साथ कॉज़ल बॉडी और इलेक्ट्रिकल बॉडी जाती है। दूसरे जन्म में कॉज़ल बॉडी वो ही इफेक्टिव बॉडी हो जाती है।

प्रश्नकर्ता : कॉज़ल बॉडी का कारण आत्मा ही है न?

दादाश्री : नहीं, कॉज़ल बॉडी का कारण अज्ञानता है।

प्रश्नकर्ता : ये इलेक्ट्रिकल बॉडी क्या है, वह फिर से ज़रा समझाइए।

दादाश्री : ये खाना खाता है, वो इलेक्ट्रिकल बॉडी से पचता है, उसका ब्लड होता है, यूरिन हो जाता है, ये सेपरेशन उससे होता है, ये बाल होता है, नाखून होते हैं, ये सब इलेक्ट्रिकल बॉडी से होता है। इसमें भगवान कुछ नहीं करता।

ये इलेक्ट्रिकल बॉडी, पीछे जो मेरुदंड है, उसमें से तीन नाड़ियाँ निकलती हैं। इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना। इसमें से इलेक्ट्रिसिटी पूरे बॉडी में जाती है। ये गुस्सा भी उससेहोता है। ये इलेक्ट्रिकल बॉडी जीवमात्र में कॉमन है। इलेक्ट्रिकल बॉडी कहाँ तक रहती है? जहाँ तक मोक्ष नहीं होता है, वहाँ तक रहती है। इलेक्ट्रिकल बॉडी से ये आँख से दिख सकता है। बॉडी की मैग्नेटिक इफेक्ट है, वो भी इलेक्ट्रिकल बॉडी से है। आपका विचार नहीं हो, फिर भी आकर्षण हो जाता है न? ऐसा एक्सपिरियन्स आपको ज़िंदगी में कभी हुआ है या नहीं? एक दफे या दो दफे हुआ है? ये मैग्नेटिक इफेक्ट है और आरोप करता है कि, ‘मेरे को ऐसा होता है।’ ‘अरे भाई, तेरे विचार में तो नहीं था, फिर क्यों सिर पर ले लेता है।’

शरीर का जो नूर, जो तेज होता है, वो चार प्रकार से प्राप्त होता है, 1) कोई बहुत लक्ष्मीवान हो और सुख-चैन में पड़ा रहे तो

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तेज आता है, वो लक्ष्मी का नूर। 2) जो कोई धर्म करे तो उसके आत्मा का प्रभाव पड़ता है, वो धर्म का नूर। 3) कोई बहुत पढ़ता है, रिलेटिव विद्या प्राप्त करता है, उसका तेज आता है, वो पांडित्य का नूर। 4) ब्रह्मचर्य का तेज आता है, वो ब्रह्मचर्य का नूर। ये चारों ही नूर सूक्ष्म शरीर से आते  हैं।

प्रश्नकर्ता : ये इलेक्ट्रिकल बॉडी का संचालन ‘व्यवस्थित शक्ति’ करती है क्या?

दादाश्री : इसका संचालन और व्यवस्थित शक्ति का कोई लेना -देना नहीं है। इलेक्ट्रिकल बॉडी उसके स्वभाव में ही है। बिल्कुल स्वतंत्र है। किसी के भी ताबे में नहीं है।

इन्डेन्ट किया किसने? जाना किसने?

दादाश्री : ये खाना खाता है उसका इन्डेन्ट कौन देता है? ये इन्डेन्ट कौन भरता है? ये इन्डेन्ट किसका है? तुम खुद है इसमें?

प्रश्नकर्ता : वो तो नहीं मालूम।

दादाश्री : वो इन्डेन्ट बॉडी करती है। ये बॉडी के परमाणु हैं, वो इन्डेन्ट करते हैं। इसमें मन की कोई ज़रूरत नहीं। मन की कभी ज़रूरत पड़ती है? मन का एविडेन्स कब होता है, कि जब टेस्ट के लिए खट्टा-मीठा चाहिए, तब वो मन के लिए चाहिए और आउट ऑफ टेस्ट है, तब बॉडी को चाहिए। जो टेस्ट वाला है, वो मन का इन्डेन्ट है और जो टेस्टलेस है, वो बॉडी का इन्डेन्ट है। इसमें आत्मा का इन्डेन्ट नहीं है।

ये पानी पीता है, वो किसको चाहिए? वो भी बॉडी का इन्डेन्ट है। और जो दूसरा कुछ पीता है, कोल्ड ड्रिंक, वो किसका इन्डेन्ट है? उसमें मन का और बॉडी का, दोनों का इन्डेन्ट है।

तो इन्डेन्ट किसका है, वो सब मालूम हो जाए तो फिर उन सब का ऊपरी (बॉस, पूज्य) कौन है, वो मालूम हो जाता है। इन

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सब को जानने वाला है, वो खुद ही भगवान है। सब लोग बोलते हैं, ‘हमने खाया’। वो गलत बात  है।

नींद लेता है वो किसका इन्डेन्ट है?

प्रश्नकर्ता : शरीर का।

दादाश्री : हाँ, शरीर का है। लेकिन इतना सब, पूरा इन्डेन्ट शरीर का नहीं है। जितना टाइम पूरी नींद आती है, सच्ची नींद - गाढ निद्रा आती है, इतना ही इन्डेन्ट बॉडी का है। दूसरा नींद है न, वो सब माइन्ड का है। जिसको ऐशो-आरामी बोलते हैं। बॉडी को प्योर नींद चाहिए, ऐशो-आराम नहीं चाहिए। ऐशो-आराम मन को चाहिए।

ये सुनता कौन है? माइन्ड सुनता है? ये किसका इन्डेन्ट है?

प्रश्नकर्ता : वैसे तो कहते हैं, कान सुनते हैं।

दादाश्री : नहीं, लेकिन इन्डेन्ट किसका है? सुनने की इच्छा किसकी है?

प्रश्नकर्ता : मन की।

दादाश्री : वो इगोइज़म की इच्छा है। जितने फोन आए वो सब इगोइज़म ले लेता है। मन को पकड़ने नहीं देता। वो सेठ ऐसा है कि दूसरे किसी को हाथ नहीं लगाने देता। ‘चुप, तुम बैठ जाओ, हम पकड़ेगा’, ऐसा ही करता है।

प्रश्नकर्ता : तो आँख का इन्डेन्ट कौन करता है?

दादाश्री : आँख का इन्डेन्ट में मन का, अहंकार का और आँख का अलग-अलग टाइम पर अलग-अलग इन्डेन्ट रहता है। लेकिन कान का इन्डेन्ट खास करके अहंकार की आदत है।

ये अंदर सब साइन्स चल रहा है, इसमें सब देखने का है, जानने का है। ये अंदर की लेबोरेटरी में जो प्रयोग होता है, इतना सब प्रयोग को पूरा जान लिया, वो खुद भगवान हो गया। पूरे वर्ल्ड का

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प्रयोग नहीं, इतने प्रयोग में वर्ल्ड का सब प्रयोग आ जाता है और इसमें जैसा प्रयोग है, ऐसा सब जीव के अंदर प्रयोग है। एक अपना खुद का जान लिया कि सब का जान लिया और सब को जो जानता है वो ही भगवान  है।

भगवान खाना भी कभी खाता नहीं, नींद भी नहीं लेता है। ये सब विषय हैं न, वो कोई विषय का भोक्ता भगवान नहीं है। विषय का भोक्ता भगवान हो जाए तो भगवान को मरना पड़ेगा। ये मरण कौन लाता है? विषय ही लाता है। विषय नहीं होता, तो मरना ही नहीं होता।

ये बॉडी में सब साइन्स ही है। लोग बॉडी में तलाश नहीं करता और बाहर ऊपर चाँद पर देखने को जाता है? वहाँ रहेंगे और सोसायटी कर लेंगे और वहाँ शादी भी कर लेंगे। ऐसे लोग हैं!

रियली स्पीकिंग आदमी खाता ही नहीं। तुम्हारे डिनर में खाना कहाँ से आता है? होटल में से आता है? ये खाना कहाँ से आया, उसकी तलाश तो करना चाहिए न?! तब आप कहते हैं, बीवी ने दिया। लेकिन बीवी कहाँ से लाई? बीवी कहेगी, ‘मैं तो व्यापारी के पास से लाई।’ व्यापारी बोलेगा, ‘हम तो किसान के पास से लाया।’ किसान को पूछेगें, ‘तुम कहाँ से लाया?’ तो वो कहेगा, ‘खेत में बीज डालने से पैदा हुआ।’ इसका अंत ही मिले ऐसा नहीं है। इन्डेन्ट वाला इन्डेन्ट करता है, सप्लायर सप्लाय करता है। सप्लायर आप नहीं हो। आप तो देखने वाले हैं कि, क्या खाया और क्या नहीं खाया, वो जानने वाले तुम हो। तुम बोलते हो कि, ‘मैंने खाया।’ अरे, तुम ये सब कहाँ से लाया? ये चावल कहाँ से लाया? ये सब सब्ज़ी कहाँ से लाया? तुमने बनाया? तुम्हारा बगीचा तो है नहीं, खेती तो है नहीं, फिर कहाँ से लाया?! तो कहे, ‘खरीदकर लाया।’ तुमको पटेटो (आलू) खाने का विचार नहीं था, लेकिन आज क्यों खाना पड़ा? आज तुमको दूसरा सब्ज़ी मँगता था लेकिन आलू की सब्ज़ी आई, ऐसा नहीं होता है? तुम्हारी इच्छा के मुताबिक सब खाने का आता

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है? नहीं! अंदर जितना चाहिए इतना ही अंदर जाता है, दूसरा ज़्यादा जाता नहीं। अंदर जितना चाहिए, जितना इन्डेन्ट है, उससे एक परमाणु भी ज़्यादा अंदर जाता नहीं है। वो ज़्यादा खा जाता है, बाद में बोलता है कि, ‘आज तो मैं बहुत खाया।’ वो भी वो खाता नहीं है। ये तो अंदर मँगता है, उतना ही खाता है। खाना खाने की शक्ति खुद की हो जाए तो फिर मरने का रहेगा ही नहीं ने?! लेकिन वो तो मर जाता है न?!

अंदर के परमाणु इन्डेन्ट करते हैं और बाहर सब मिल जाता है। ये बेबी को तो आपको दूध देने का और खाना देने का। बाकी सब नैचुरली मिल जाता है। वैसे ही तुम्हारा सब चलता है, लेकिन तुम इगोइज़म करते हो कि ‘मैंने किया।’ तुमको आम खाने की इच्छा हुई तो बाहर से आम मिल जाएगा। जिस गाँव का होगा वो ही गाँव का आकर मिलेगा।

लोग क्या करते हैं कि अंदर की इच्छाओं को बंद करते हैं, तो सब बिगड़ जाता है। इसलिए ये अंदर जो साइन्स चल रहा है, उसको देखा करो। इसमें कोई कर्ता नहीं है। ये साइन्टिफिक है, सिद्घांत है। सिद्घांत, सिद्घांत ही रहता है।

आपको मेरी बात समझ में आती है न? ऐसा है कि हमारा हिन्दी लैंग्वेज पर काबू नहीं है, खाली समझने के लिए बोलता है। वो 5% हिन्दी है और 95% दूसरा सब मिक्स्चर है। लेकिन टी जब बनेगी, तब टी अच्छी बनेगी!

- जय सच्चिदानंद

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