दादा भगवान कथित
त्रिमंत्र
मूल गुजराती संकलन : डॉ. नीरू बहन अमीन
अनुवाद : महात्मागण
‘दादा भगवान’ कौन ?जून 1958 की एक संध्या का करीब छ: बजे का समय, भीड़ से भरा सूरत शहर का रेल्वे स्टेशन, प्लेटफार्म नं. 3 की बेंच पर बैठे श्री अंबालाल मूलजीभाई पटेल रूपी देहमंदिर में कुदरती रूप से, अक्रम रूप में, कई जन्मों से व्यक्त होने के लिए आतुर ‘दादा भगवान’ पूर्ण रूप से प्रकट हुए और कुदरत ने सर्जित किया अध्यात्म का अद्भुत आश्चर्य। एक घंटे में उन्हें विश्वदर्शन हुआ। ‘मैं कौन? भगवान कौन? जगत् कौन चलाता है? कर्म क्या? मुक्ति क्या?’ इत्यादि जगत् के सारे आध्यात्मिक प्रश्नों के संपूर्ण रहस्य प्रकट हुए। इस तरह कुदरत ने विश्व के सम्मुख एक अद्वितीय पूर्ण दर्शन प्रस्तुत किया और उसके माध्यम बने श्री अंबालाल मूलजी भाई पटेल, गुजरात के चरोतर क्षेत्र के भादरण गाँव के पाटीदार, कॉन्ट्रैक्ट का व्यवसाय करनेवाले, फिर भी पूर्णतया वीतराग पुरुष! ‘व्यापार में धर्म होना चाहिए, धर्म में व्यापार नहीं’, इस सिद्धांत से उन्होंने पूरा जीवन बिताया। जीवन में कभी भी उन्होंने किसीके पास से पैसा नहीं लिया बल्कि अपनी कमाई से भक्तों को यात्रा करवाते थे। उन्हें प्राप्ति हुई, उसी प्रकार केवल दो ही घंटों में अन्य मुमुक्षुजनों को भी वे आत्मज्ञान की प्राप्ति करवाते थे, उनके अद्भुत सिद्ध हुए ज्ञानप्रयोग से। उसे अक्रम मार्ग कहा। अक्रम, अर्थात् बिना क्रम के, और क्रम अर्थात् सीढ़ी दर सीढ़ी, क्रमानुसार ऊपर चढऩा। अक्रम अर्थात् लिफ्ट मार्ग, शॉर्ट कट। वे स्वयं प्रत्येक को ‘दादा भगवान कौन?’ का रहस्य बताते हुए कहते थे कि ‘‘यह जो आपको दिखते हैं वे दादा भगवान नहीं हैं, वे तो ‘ए.एम.पटेल’ हैं। हम ज्ञानीपुरुष हैं और भीतर प्रकट हुए हैं, वे ‘दादा भगवान’ हैं। दादा भगवान तो चौदह लोक के नाथ हैं। वे आप में भी हैं, सभी में हैं। आपमें अव्यक्त रूप में रहे हुए हैं और ‘यहाँ’ हमारे भीतर संपूर्ण रूप से व्यक्त हुए हैं। दादा भगवान को मैं भी नमस्कार करता हूँ।’’ निवेदनज्ञानी पुरुष संपूज्य दादा भगवान के श्रीमुख से अध्यात्म तथा व्यवहारज्ञान से संबंधित जो वाणी निकली, उसको रिकॉर्ड करके, संकलन तथा संपादन करके पुस्तकों के रूप में प्रकाशित किया जाता है। विभिन्न विषयों पर निकली सरस्वती का अद्भुत संकलन इस पुस्तक में हुआ है, जो नए पाठकों के लिए वरदान रूप साबित होगा। प्रस्तुत अनुवाद में यह विशेष ध्यान रखा गया है कि वाचक को दादाजी की ही वाणी सुनी जा रही है, ऐसा अनुभव हो, जिसके कारण शायद कुछ जगहों पर अनुवाद की वाक्य रचना हिन्दी व्याकरण के अनुसार त्रुटिपूर्ण लग सकती है, लेकिन यहाँ पर आशय को समझकर पढ़ा जाए तो अधिक लाभकारी होगा। प्रस्तुत पुस्तक में कई जगहों पर कोष्ठक में दर्शाए गए शब्द या वाक्य परम पूज्य दादाश्री द्वारा बोले गए वाक्यों को अधिक स्पष्टतापूर्वक समझाने के लिए लिखे गए हैं। जबकि कुछ जगहों पर अंग्रेजी शब्दों के हिन्दी अर्थ के रूप में रखे गए हैं। दादाश्री के श्रीमुख से निकले कुछ गुजराती शब्द ज्यों के त्यों इटालिक्स में रखे गए हैं, क्योंकि उन शब्दों के लिए हिन्दी में ऐसा कोई शब्द नहीं है, जो उसका पूर्ण अर्थ दे सके। हालांकि उन शब्दों के समानार्थी शब्द अर्थ के रूप में, कोष्ठक में और पुस्तक के अंत में भी दिए गए हैं। ज्ञानी की वाणी को हिन्दी भाषा में यथार्थ रूप से अनुवादित करने का प्रयत्न किया गया है किन्तु दादाश्री के आत्मज्ञान का सही आशय, ज्यों का त्यों तो, आपको गुजराती भाषा में ही अवगत होगा। जिन्हें ज्ञान की गहराई में जाना हो, ज्ञान का सही मर्म समझना हो, वह इस हेतु गुजराती भाषा सीखें, ऐसा हमारा अनुरोध है। अनुवाद से संबंधित कमियों के लिए आपसे क्षमाप्रार्थी हैं। संपादकीयअनादि काल से प्रत्येक धर्म के मूलपुरुष जब विद्यमान होते हैं, जैसे कि महावीर भगवान, कृष्ण भगवान, राम भगवान आदि; तब वे लोगों को विभिन्न धर्मों के मतमतांतर से बाहर निकालकर आत्मधर्म में स्थिरता करवाते हैं। और कालक्रम अनुसार मूलपुरुष की गैरहाज़िरी होने पर इस दुनिया के लोग धीरे-धीरे मतभेद में पड़कर धर्म-पंथ-संप्रदाय में विभक्त हो जाते हैं। जिसके फल स्वरूप धीरे-धीरे सुख-शांति क्षीण होती जाती है। धर्म में तू-तू मैं-मैं से झगड़े होते हैं। उसे दूर करने के लिए यह निष्पक्षपाती त्रिमंत्र है। यह त्रिमंत्र का मूल अर्थ यदि समझें तो उनका किसी व्यक्ति या संप्रदाय या पंथ से कोई संबंध नहीं है। आत्मज्ञानी से लेकर अंतत: केवलज्ञानी और निर्वाण प्राप्त करके मोक्षगति प्राप्त करनेवाले ऐसे उच्च, जागृत आत्माओं को ही नमस्कार निर्दिष्ट हैं। जिन्हें नमस्कार करने से संसारी विघ्न दूर होते हैं, अड़चनों में शांति रहती है और मोक्ष के ध्येय प्रति लक्ष्य होने लगता है। कृष्ण भगवान ने पूरी ज़िंदगी में कभी नहीं कहा कि ‘मैं वैष्णव हूँ, मेरा वैष्णव धर्म है।’ महावीर भगवान ने पूरी ज़िंदगी में नहीं कहा कि ‘मैं जैन हूँ, मेरा जैन धर्म है।’ भगवान रामचंद्र जी ने कभी नहीं कहा कि ‘मेरा सनातन धर्म है।’ सभी ने आत्मा की पहचान करके मोक्ष में जाने की बात ही कही है। गीता में कृष्ण भगवान ने, आगमों में तीर्थंकरों ने और योगवशिष्ठ में रामचंद्र जी से वशिष्ठ मुनि ने आत्मा पहचान ने की ही बात कही है। जीव यानी अज्ञान दशा। शिव यानी कल्याण स्वरूप। आत्मज्ञान प्राप्ति के पश्चात् उसी जीव में से शिव की प्राप्ति होती है। शिव यानी कोई व्यक्ति की बात नहीं है, जो कल्याण स्वरूप हुए हैं उनकी बात है। आत्मज्ञानी पुरुष परम पूज्य दादा भगवान ने निष्पक्षपाती त्रिमंत्र प्रदान किया। जिसे सुबह-शाम पाँच-पाँच बार उपयोगपूर्वक बोलने को कहा है। जिससे सांसारिक कार्य शांतिपूर्ण रूप से संपन्न होते हैं। ज़्यादा अड़चनों की स्थिति में घंटा-घंटाभर बोलें, तो मुश्किलों में सूली का घाव सूई से टल जाएगा। निष्पक्षपाती त्रिमंत्र का शब्दार्थ, भावार्थ और किस प्रकार यह हितकारी है, इसका सर्वलक्षी समाधान दादाश्री ने प्रश्नोत्तर रूप में दिया है। वे सारी बातें प्रस्तुत पुस्तिका में संकलित हुई हैं। इस त्रिमंत्र की आराधना से प्रत्येक के जीवन के विघ्न दूर होंगे और निष्पक्षपातीपन उत्पन्न होगा। - डॉ. नीरू बहन अमीन (पृ.१)त्रिमंत्ररहस्य, त्रिमंत्र समन्वय काप्रश्नकर्ता : इस त्रिमंत्र में तीन प्रकार के मंत्र हैं, एक जैनों का मंत्र, एक वैष्णवों का मंत्र, एक शैवधर्म का मंत्र, इनके समन्वय का क्या तात्पर्य है? इसका क्या रहस्य है? दादाश्री : भगवान निष्पक्ष होते हैं। भगवान को वैष्णव से, शिव से या जैन से कोई संबंध नहीं है। वीतरागों को पक्षपात नहीं होता। पक्ष वाले ‘यह तुम्हारा और यह हमारा’ ऐसा भेद करते हैं। ‘हमारा’ जो कहता है वह औरों को ‘तुम्हारा’ कहता है। जहाँ ‘हमारा-तुम्हारा’ होता है, वहाँ राग-द्वेष होता ही है। वह वीतरागों का मार्ग नहीं है। जहाँ हमारा-तुम्हारा ऐसा भेद हुआ, वहाँ वीतरागों का मार्ग नहीं होता। वीतराग मार्ग भेदभाव से रहित होता है। यह आपकी समझ में आता है? त्रिमंत्र से प्राप्ति पूर्ण फल कीप्रश्नकर्ता : यह जो त्रिमंत्र है वह सभी के लिए है? और यदि सभी के लिए है तो वैसा किसलिए? दादाश्री : यह तो सभी के लिए है। जिसे पाप धोने हैं उनके लिए अच्छा है और पाप नहीं धोने हों तो उनके लिए नहीं है। प्रश्नकर्ता : इस त्रिमंत्र में नवकार मंत्र, वासुदेव और शिव, इन तीनों मंत्रों को साथ रखने का क्या प्रयोजन है? (पृ.२)दादाश्री : सारा फल खाए और एक टुकड़ा खाए, इसमें फर्क नहीं है? ये त्रिमंत्र पूरे फल के रूप में हैं, पूरा फल! मंत्र-जाप, फिर भी सुख का अभाव...ऋषभदेव भगवान ने एक ही बात कही थीं कि ये जो मंदिर हैं, वे वैष्णव वाले वैष्णव के, शैवधर्म वाले शिव के, जैनधर्मी जैन के, अपने-अपने मंदिर बाँट लेना लेकिन ये जो मंत्र हैं उन्हें मत बाँटना। मंत्र बाँटने पर उनका सत्व चला जाएगा। लेकिन लोगों ने तो मंत्र भी बाँट लिए और एकादशी भी बाँट लीं, ‘यह शैव की और यह वैष्णवों की’। इसलिए एकादशी का माहात्म्य नष्ट हो गया और इन मंत्रों का माहात्म्य भी नहीं रहा है। ये तीनों मंत्र साथ नहीं होने से, न तो जैन सुखी होते हैं, न ही ये दूसरे लोग सुखी होते हैं। इसीलिए यह समन्वय भगवान के कहे अनुसार है। ऋषभदेव भगवान धर्म का मुख कहलाते हैं। धर्म का मुख यानी सारे संसार को धर्म की प्राप्ति कराने वाले वे खुद ही हैं! यह वेदांत मार्ग भी उनका स्थापित किया हुआ है और यह जैनमार्ग की स्थापना भी उनके ही हाथों हुई है। कुछ लोग जिसे आदम कहते हैं न, वह आदम यानी ये आदिम तीर्थंकर ही हैं। वे आदिम के बजाय आदम कहते हैं। अर्थात् यह सब जो है, वह उन्हीं का बताया हुआ मार्ग है। सांसारिक अड़चनों के लिएप्रश्नकर्ता : ऋषभदेव भगवान ने मंदिर बाँटने को कहा लेकिन मंदिरों में सभी देवता तो एक ही हैं न? दादाश्री : नहीं, देवता सारे भिन्न-भिन्न हैं। सभी के शासनदेव भी अलग हैं। संन्यस्त मंत्र के शासनदेव अलग होते हैं, अन्य मंत्रों के शासनदेव अलग होते हैं, सभी देव अलग-अलग होते हैं। (पृ.३)प्रश्नकर्ता : लेकिन तीनों मंत्र एक साथ बोलने से क्या फायदा? दादाश्री : अड़चनें चली जाती हैं न! व्यवहार में अड़चनें आती हों तो कम हो जाती हैं। पुलिस वाले से साधारण पहचान हो तो छूट जाते हैं या नहीं छूट जाते? प्रश्नकर्ता : हाँ, छूट जाते हैं। दादाश्री : तो इस त्रिमंत्र में जैन, वासुदेव और शिव के, तीनों मंत्रों का समन्वय किया है। यदि आप देवों का सहारा चाहते हो तो तीनों मंत्र साथ में बोलना। उनके शासनदेव होते हैं, जो आपकी सहायता करेंगे। इस त्रिमंत्र में जैन का मंत्र है, वह जैनों के शासनदेवों को खुश करने का साधन है। वैष्णव का मंत्र उनके शासनदेवों को खुश करने का साधन है और शिव का जो मंत्र है वह उनके शासनदेवों को खुश करने का साधन है। प्रत्येक धर्म के पीछे हमेशा शासन की रक्षा करने वाले देव होते हैं। ये मंत्रों को बोलने से वे देव खुश हो जाते हैं, इससे हमारी अड़चनें दूर हो जाती हैं। आपको संसार की अड़चनें होंगी न, तो इन तीनों मंत्रों को एक साथ बोलने से अड़चनें हलकी हो जाएँगी। आपके बहुत सारे कर्मों का उदय हुआ हो न, उन उदयों को नरम करने का रस्ता यह है। अर्थात् धीरे-धीरे राह पर चढऩे का रास्ता है। जिस कर्म का उदय सोलह आने है, वह चार आने हो जाएगा। अत: इन तीन मंत्रों को बोलने से आने वाली सारी अड़चनें हलकी हो जाएँगी। जिससे शांति हो जाएगी बेचारे को! बनाए त्रिमंत्र निष्पक्षपातीपरापूर्व से ये तीन मंत्र हैं ही, लेकिन इन लोगों ने लड़ाई-झगड़े करके मंत्र भी बाँट लिए हैं कि, ‘यह हमारा और वह तुम्हारा’। जैनों ने सिर्फ नवकार मंत्र ही रखा और बाकी के निकाल दिए। वैष्णवों ने नवकार मंत्र निकाल दिया और अपना रखा। अर्थात् मंत्र सभी ने बाँट (पृ.४)लिए। अरे, इन लोगों ने भेद करने में कुछ बाकी नहीं छोड़ा है। और इसीलिए हिंदुस्तान की यह दशा हुई है, भेद रखने की वजह से। देखो, इस देश की स्थिति छिन्न-भिन्न हो गई है न? और ये भेद जो किए हैं, वे अज्ञानियों ने अपना मत सही बताने के लिए किए हैं। जब ज्ञानी होते हैं, तब वापस सब एकत्र कर देते हैं, निष्पक्ष बनाते हैं। इसीलिए तो हमने तीनों मंत्र एक साथ लिखे हैं। यदि इन सभी मंत्रों को एक साथ बोलें न, तो मनुष्य का कल्याण ही हो जाए। पक्षपात से ही अकल्याणप्रश्नकर्ता : ये त्रिमंत्र किन संयोगों के कारण बँट गए होंगे? दादाश्री : अपना फ़िरका (संप्रदाय) चलाने के लिए। यह हमारा सही है! और जो खुद को सही बताता है, वह सामने वाले को गलत कहता है। यह बात भगवान को सही लगेगी क्या? भगवान के लिए तो दोनों बराबर हैं न? अर्थात् न तो खुद का कल्याण हुआ और न ही सामने वाले का कल्याण हुआ, सभी का अकल्याण किया इन लोगों ने। फिर भी इन फ़िरकों को तोड़ने की आवश्यकता नहीं है, फ़िरके रखना ज़रूरी है। क्योंकि फस्र्ट स्टैन्डर्ड से लेकर मैट्रिक तक भिन्न-भिन्न धर्म चाहिए, अलग-अलग मास्टर्स चाहिए। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि सेकन्ड स्टैन्डर्ड गलत है, यह नहीं होना चाहिए। मैट्रिक में आने पर कोई आदमी कहे कि ‘सेकन्ड स्टैन्डर्ड गलत है तो वह कितना गैरव्याजबी कहलाएगा! सभी स्टैन्डर्ड सही हैं लेकिन समान नहीं हैं’। त्रिमंत्र, खुद के लिए ही हितकरयह तो ऐसा है कि यदि एक आदमी कहे कि, ‘यह हमारा वैष्णव मत है’। तब दूसरा कहता है कि, ‘हमारा यह मत है’। अर्थात् इन मत वालों ने लोगों को उलझा दिया है। तब यह त्रिमंत्र निष्पक्षपाती मंत्र है। यह हिंदुस्तान के सभी लोगों के लिए है। इसलिए ये त्रिमंत्र (पृ.५)बोलोगे तो बहुत फायदा होगा। क्योंकि इसमें उत्तम मनुष्यों, उच्चत्तम कोटि के जीवों को नमस्कार करना सिखाया गया है। आपको समझ में आया कि क्या सिखाया गया है? प्रश्नकर्ता : नमस्कार करना। दादाश्री : उन्हें नमस्कार करने से हमें फायदा होगा, सिर्फ नमस्कार बोलने से ही फायदा होगा। तब मालूम होगा कि ‘यह तो मेरे अपने हित के लिए है! जो अपने हित का हो, उसे जैन का मंत्र कैसे कहा जाए?!’ लेकिन मतार्थ की बीमारी वाले लोग क्या कहते हैं? ‘यह हमारा नहीं है’। अरे, हमारा क्यों नहीं है? भाषा हमारी है, सभी हमारा ही है न?! क्या हमारा नहीं है? लेकिन यह तो नासमझी की बातें हैं। वह तो जब इसका अर्थ समझाएँ तब समझ में आएगा। यह है त्रिमंत्रइसलिए हम इसे ऊँची आवाज़ से बुलवाते हैं न, नमो अरिहंताणं नमो सिद्धाणं नमो आयरियाणं नमो उवज्झायाणं नमो लोए सव्वसाहूणं एसो पंच नमुक्कारो, सव्व पावप्पणासणो मंगलाणं च सव्वेसिं, पढमं हवई मंगलम् || 1 || ॐ नमो भगवते वासुदेवाय || 2 || ॐ नम: शिवाय || 3 || जय सच्चिदानंद (पृ.६)अभी यदि इस नवकार मंत्र का अर्थ आपको समझाऊँ तो आप ही कहेंगे कि यह तो हमारा मंत्र है! उसका अर्थ समझ जाएँगे तो आप छोड़ेंगे ही नहीं। यह तो आप ऐसा ही मानते हैं कि यह शिव का मंत्र है या यह वैष्णव का मंत्र है, लेकिन उसका अर्थ समझने की ज़रूरत है। मैं उसका अर्थ आपको समझाऊँगा, फिर आप ऐसा कहेंगे ही नहीं। नमो अरिहंताणं...प्रश्नकर्ता : ‘नमो अरिहंताणं’ यानी क्या? इसका अर्थ विस्तार से समझाइए। दादाश्री : ‘नमो अरिहंताणं’, अरि यानी दुश्मन और हंताणं यानी जिन्होंने उनका हनन किया है, ऐसे अरिहंत भगवान को नमस्कार करता हूँ। जिन्होंने क्रोध-मान-माया-लोभ-राग-द्वेष रूपी सारे दुश्मनों का नाश किया है, वे अरिहंत कहलाते हैं। दुश्मनों का नाश करने से लेकर पूर्णाहुति होने तक अरिहंत कहलाते हैं। वे पूर्ण स्वरूप भगवान कहलाते हैं! वे अरिहंत भगवन् फिर चाहे किसी भी धर्म के हों, इस ब्रह्मांड में चाहे कहीं भी हों, उन्हें नमस्कार करता हूँ। प्रश्नकर्ता : अरिहंत देहधारी होते हैं? दादाश्री : हाँ, देहधारी ही होते हैं। देहधारी न हों तो अरिहंत कहलाएँगे ही नहीं। अरिहंत देहधारी और नामधारी, नाम सहित होते हैं। प्रश्नकर्ता : अरिहंत भगवान यानी चौबीस तीर्थंकरों को संबोधित करके प्रयोग किया है क्या? दादाश्री : नहीं, वर्तमान तीर्थंकर ही अरिहंत भगवान कहलाते हैं। महावीर भगवान तो वहाँ पर मोक्ष में बिराजमान हैं। वैसे लोग कहते हैं कि ‘हमारे चौबीस तीर्थंकर (ही अरिहंत है) और एक तरफ (पृ.७)पढ़ते हैं कि ‘नमो अरिहंताणं, नमो सिद्धाणं।’ तब मैं उनसे कहता हूँ कि ‘ये दो हैं?’ तब कहते हैं कि, ‘हाँ, दो हैं’। मैंने कहा, ‘अरिहंत’ के बारे में बताइए ज़रा। तब कहते हैं कि, ‘ये चौबीस तीर्थंकर ही अरिहंत हैं’। अरे, वे तो सिद्ध हो गए हैं। वे तो अभी सिद्धक्षेत्र में हैं। आप सिद्ध को अरिहंत बुलाते हैं? अरिहंत किसे कहते होंगे ये लोग? प्रश्नकर्ता : वे सब चौबीस तीर्थंकर तो सिद्ध हो चुके हैं। दादाश्री : तो फिर आप कहते नहीं हैं लोगों से कि भाई, जो सिद्ध हो चुके हैं, उन्हें अरिहंत क्यों बुलाते हो? ये तो दूसरे पद में सिद्धाणं में आते हैं। अरिहंत का पद खाली रहा, उसी से यह परेशानी है न! इसीलिए हम कहते हैं कि अरिहंत को स्थापित करो, सीमंधर स्वामी को स्थापित करो। ऐसा क्यों कहते हैं आपको समझ में आया? ये चौबीस तीर्थंकर सिद्ध कहलाएँगे या अरिहंत? अभी उनकी दशा सिद्ध है या अरिहंत है? प्रश्नकर्ता : अभी सिद्धगति में हैं। दादाश्री : सिद्ध हैं न? आपको विश्वास है न? शत-प्रतिशत है न? प्रश्नकर्ता : हाँ, शत-प्रतिशत। दादाश्री : इसलिए उन्हें सिद्धाणं में रखा है। सिद्धाणं में पहुँच गए हैं। उसके बाद अब अरिहंताणं में कौन हैं? अरिहंताणं यानी प्रत्यक्ष, हाज़िर होने चाहिए। लेकिन अभी मान्यता उलटी चल रही है। चौबीस तीर्थंकरों को अरिहंत कहा जाता है। लेकिन यदि सोचा जाए तो वे लोग तो सिद्ध हो चुके हैं। इसलिए जब ‘नमो सिद्धाणं’ बोलें तो उसमें वे आ ही जाते हैं, तब अरिहंत का विभाग बाकी रहता है। इसलिए पूरा नमस्कार मंत्र परिपूर्ण नहीं होता और अपूर्ण रहने से उसके फल की प्राप्ति नहीं होती। यानी कि अभी वर्तमान तीर्थंकर होने चाहिए। (पृ.८)अर्थात् वर्तमान तीर्थंकर सीमंधर स्वामी को अरिहंत मानें, तभी नमस्कार मंत्र पूर्ण होगा। चौबीस तीर्थंकर तो सिद्ध हो चुके हैं, वे सभी ‘नमो सिद्धाणं’ में आ जाते हैं। जैसे कोई कलेक्टर हो और उनके गवर्नर होने के पश्चात् हम उन्हें कहें कि, ‘कलेक्टर साहब यहाँ आइए।’ तो कितना बुरा लगेगा, नहीं? प्रश्नकर्ता : लगेगा ही। दादाश्री : उसी प्रकार सिद्ध को यदि अरिहंत मानें तो बड़ा भारी नुकसान होता है। उनका नुकसान नहीं होता, क्योंकि वे तो वीतराग हैं, लेकिन हमारा भारी नुकसान होता है, ज़बरदस्त नुकसान होता है। पहुँचे प्रत्यक्ष तीर्थंकरों को हीमहावीर भगवान आदि सारे तीर्थंकर मोक्ष में जाने के लिए हमारे काम नहीं आने वाले, वे तो मोक्ष में जा चुके हैं और हम यह ‘नमो अरिहंताणं’ बोलते हैं वह उनके संबंध में नहीं है। उनका संबंध तो ‘नमो सिद्धाणं’ से हैं। यह ‘नमो अरिहंताणं’ जो हम बोलते हैं वह किसे पहुँचता है? अन्य क्षेत्रों में जहाँ-जहाँ अरिहंत हैं उन्हें पहुँचता है। महावीर भगवान को नहीं पहुँचता। डाक तो हमेशा उसके पते पर ही पहुँचेगी। जबकि लोग क्या समझते हैं कि यह ‘नमो अरिहंताणं’ बोलकर हम महावीर भगवान को नमस्कार पहुँचाते हैं। वे चौबीस तीर्थंकर तो मोक्ष में जाकर बैठे हैं, वे तो ‘नमो सिद्धाणं’ हो चुके हैं। वे भूतकालीन तीर्थंकर कहलाते हैं। यानी कि आज सिद्ध भगवान कहलाते हैं और जो वर्तमान तीर्थंकर हैं, उन्हें अरिहंत कहा जाता हैं। बुद्धि से भी समझ में आ जाए यह बातप्रश्नकर्ता : अरिहंताणं बोलते तो हैं, लेकिन अरिहंत तो ये सीमंधर स्वामी ही हैं, यह बात आज समझ में आई। (पृ.९)दादाश्री : पूरा कद्दू सब्ज़ी में गया! लौकी की सब्ज़ी काटी और साबुत कद्दू उसमें चला गया! ऐसा ही चलता रहता है... क्या करें फिर? आपको, एक वकील की हैसियत से कैसा लगा? प्रश्नकर्ता : वह बात समझ में आ गई, दादा जी। वकील की हैसियत से तो ठीक है लेकिन मैं जैनधर्म का पक्का अनुयायी हूँ, इसलिए मुझे बात समझ में आ गई। आपने जो बात बताई उस पर से, यदि कोई जैन हो और ठीक से समझता हो, तो उसकी समझ में यह आ जाएगा कि वर्तमान में जो विचरण करते हैं, वे ही तीर्थंकर कहलाते हैं। इसीलिए तो अरिहंतों को सिद्धों से पहले रखा गया है। वे कहीं भी हों, फिर भी प्रत्यक्ष हीप्रश्नकर्ता : वे लोग ऐसा मानते होंगे न कि सीमंधर स्वामी परदेश में हैं? दादाश्री : वह नहीं देखना है कि वर्तमान तीर्थंकर कहाँ हैं? वे चाहे परदेश में हों या कहीं भी हों। यों देखों तो वे पहले बिहार में थे, उससे इन चरोतर वालों (गुजरात) को क्या लेना-देना? गाड़ियाँ नहीं थीं, कुछ भी नहीं था, तो फिर तब क्या लेना-देना? लेकिन नहीं, यहाँ बैठे-बैठे उनका नाम जपते रहें। सिर्फ पता ही चले कि तीर्थंकर हैं। भले ही कितने भी दूर हों लेकिन किसी जगह पर अभी हैं या नहीं? तब कहें, ‘हाँ, हैं’। तो वे वर्तमान तीर्थंकर कहलाएँगे। हमने यदि अरिहंत को नहीं देखा हो, महावीर भगवान के समय में उन्हें नहीं देखा हों, भगवान महावीर उस ओर (बिहार में) हों और हम इस ओर (गुजरात में) हों, लेकिन वे अरिहंत ही कहलाएँगे। हमने नहीं देखा तो उससे कुछ बिगड़ नहीं जाता। अर्थात् अरिहंत को अरिहंत मानेंगे तो बहुत फल प्राप्त होगा वर्ना उसकी (सिद्ध को अरिहंत कहना) (पृ.१०)मेहनत तो बेकार जाती है। विफल हो जाता है, मेहनत बेकार चली जाती है। नवकार मंत्र फलदायी नहीं होता, उसकी वजह यही है। तीर्थंकर किसे कहेंगे?तीर्थंकर भगवान केवलज्ञान सहित होंगे। केवलज्ञान तो दूसरों को भी होता है, केवलियों को भी होता है। लेकिन तीर्थंकर के लिए तीर्थंकर (गोत्र) कर्म का उदय चाहिए। जहाँ उनके पैर पड़ें वह स्थान तीर्थ बन जाता है। जिस काल में तीर्थंकर भगवान होते हैं न, तब सारी दुनिया में उनके जैसा न तो किसी का पुण्य होता है, न ही किसी के वैसे परमाणु होते हैं। उनके शरीर के परमाणु, उनकी वाणी के परमाणु, अरे! स्याद्वाद वाणी! सुनते ही सभी के हृदय तृप्त हो जाए, ऐसे वे तीर्थंकर महाराज! अरिहंत तो बहुत बड़ा रूप है। सारे ब्रह्मांड में उस घड़ी वैसे परमाणु किसी के नहीं होते। सारे उच्चत्तम परमाणु सिर्फ उन्हीं के शरीर में एकत्र हुए होते हैं। तो वह शरीर कैसा? वह वाणी कैसी? वह रूप कैसा? उन सब बातों का क्या कहना! उनकी तो बात ही अलग न! अर्थात् उनकी तुलना तो करना ही नहीं, किसी के साथ! तीर्थंकर की तुलना किसी के साथ नहीं की जा सकती, वे ऐसी ग़ज़ब की मूर्ति कहलाते हैं। चौबीस तीर्थंकर हो गए, लेकिन वे सभी ग़ज़ब की मूर्तियाँ! बंधन रहा, अघाती कर्म काप्रश्नकर्ता : अरिहंत भगवान अर्थात् मोक्ष से पहले की स्थिति? दादाश्री : हाँ, अरिहंत भगवान अर्थात् मोक्ष से पहले की स्थिति। ज्ञान में सिद्ध भगवान के समान ही स्थिति हैं, लेकिन बंधन के रूप में इतना शेष रहा है। जैसे दो मनुष्यों को साठ साल की सज़ा सुनाई थी तब एक मनुष्य को जनवरी की पहली तारीख पर सुनाई थी और दूसरे मनुष्य को जनवरी की तीसरी तारीख को सुनाई थी। पहले के (पृ.११)साठ साल पूरे हो गए और वह रिहा हो गया। दूसरा दो दिन के बाद रिहा होने जा रहा है। लेकिन वह मुक्त ही कहलाएगा न? ऐसी उनकी स्थिति है! नमो सिद्धाणं...फिर दूसरे कौन हैं? प्रश्नकर्ता : ‘नमो सिद्धाणं’। दादाश्री : अब जो यहाँ से सिद्ध हो चुके हैं, जिनका यहाँ पर देह भी छूट गया है और फिर से देह प्राप्त नहीं होने वाला और सिद्धगति में निरंतर सिद्ध भगवान की स्थिति में स्थित हैं, ऐसे सिद्ध भगवान को मैं नमस्कार करता हूँ। अब यहाँ से रामचंद्र जी, ऋषभदेव भगवान, महावीर भगवान आदि सभी जो षड्रिपु को जीतकर सिद्धगति में गए अर्थात् वहाँ निरंतर सिद्धदशा में रहते हैं, उन्हें नमस्कार करता हूँ। इसमें क्या हर्ज है, बोलो! इसमें कुछ हर्ज जैसा है? अब वे पहले वाले ऊँचे या दूसरे, जो अभी बोले वे ऊँचे? ये तो देह त्यागकर सिद्ध हो चुके हैं, पूर्णतया मुक्त हुए हैं। अब इन दोनों में ऊँचा कौन और नीचा कौन? आपको क्या लगता है? बहुत सोचने से नहीं मिलेगा, अपने आप सहज रूप से बता दो न! प्रश्नकर्ता : सभी एक समान, नमस्कार किया इसलिए सभी समान। अब उनमें श्रेष्ठता अथवा न्यूनता हम कैसे तय कर सकते हैं? दादाश्री : लेकिन इन लोगों ने पहला नंबर नमो अरिहंताणं का लिखा और सिद्धाणं का दूसरा नंबर लिखा, उसकी कोई वजह आपकी समझ में आई? वे क्या कहते हैं कि जो सिद्ध हुए वे संपूर्ण हैं। वे वहाँ पर (पृ.१२)सिद्धगति में जा बैठे हैं, लेकिन वे हमारे कुछ काम नहीं आते। हमें तो ‘ये’ (अरिहंत) काम आते हैं, इसलिए उनका पहला नंबर और बाद में सिद्ध भगवान का दूसरा नंबर है। और जहाँ सिद्ध भगवंत हैं, वहाँ पर जाना है। इसीलिए तो वे हमारा लक्ष्य हैं। लेकिन उपकारी कौन हैं? अरिहंत। उन्होंने खुद ने छ: दुश्मनों को जीता हैं और हमें जीतने का रास्ता दिखाते हैं, आशीर्वाद देते हैं। इसलिए उन्हें पहले रखा। उन्हें बहुत उपकारी माना। अर्थात् हमारे लोग प्रकट को उपकारी मानते हैं। अंतर, अरिहंत और सिद्ध मेंप्रश्नकर्ता : सिद्ध भगवान किसी प्रकार मानवजीवन के कल्याण हेतु प्रवृत होते हैं क्या? दादाश्री : नहीं। सिद्ध तो आपका ध्येय है, लेकिन फिर भी वे आपको कुछ हेल्प करने वाले नहीं हैं। वह तो यहाँ पर जब ज्ञानी हों अथवा तीर्थंकर हों तो, वे आपकी हेल्प करेंगे, वे मदद करेंगे, आपकी भूल दिखाएँगे, आपको राह दिखाएँगे, आपका स्वरूप दिखाएँगे। प्रश्नकर्ता : तो ये सिद्ध देहधारी नहीं हैं? दादाश्री : सिद्ध भगवान देहधारी नहीं होते, वे तो परमात्मा कहलाते हैं। और ये जो सिद्ध पुरुष होते हैं न, वे तो मनुष्य ही कहलाते हैं। उन्हें आप गाली देंगे तो वे सिद्ध पुरुष तो घमासान मचा देंगे, नहीं तो आपको श्राप दे देंगे। प्रश्नकर्ता : अरिहंत और सिद्ध में क्या अंतर है? दादाश्री : सिद्ध भगवान को शरीर का बोझ नहीं उठाना पड़ता। अरिहंत को शरीर का बोझ उठाकर चलना पड़ता है। उन्हें खुद को शरीर बोझ रूप लगता है, मानो इतना बड़ा घड़ा सिर पर रखकर इधर- (पृ.१३)उधर घूम रहे हों। कुछ कर्म शेष हैं, उन्हें पूरे किए बगैर वे सिद्धगति में नहीं जा सकते। यानी उतने कर्म भुगतने शेष हैं। नमो आयरियाणं...ये दो हुए, अब? प्रश्नकर्ता : ‘नमो आयरियाणं’। दादाश्री : अरिहंत भगवान के बताए हुए आचार का जो पालन करते हैं और उन आचारों का पालन करवाते हैं, ऐसे आचार्य भगवान को नमस्कार करता हूँ। उन्होंने खुद आत्मा की प्राप्ति की है, आत्मदशा प्रकट हुई है। वे संयम सहित हैं। लेकिन यहाँ आजकल जो आचार्य हैं वे (सच्चे) आचार्य नहीं हैं। ये तो, ज़रा सा अपमान करने पर तुरंत ही क्रोधित हो जाते हैं। अर्थात् ऐसे आचार्य नहीं होने चाहिए। उनकी दृष्टि में परिवर्तन नहीं आया है। दृष्टि परिवर्तन होने के बाद काम होगा। जो मिथ्या दृष्टि वाले हैं, उन्हें आचार्य नहीं कहा जा सकता। समकित (आत्मद्रष्टि) होने के बाद जो आचार्य बनें, वे आचार्य कहलाते हैं। आचार्य भगवान कौन से? ये जो दिखाई देते हैं, लौकिक धर्मों के आचार्य, वे नहीं। सुख की जिन्हें किसी भी प्रकार की इच्छा नहीं है और निज आत्मा के सुख के हेतु ही आचारों का पालन करते हैं। आयरियाणं अर्थात् जिन्हें आत्मा जानने के पश्चात् आचार्यपन (खुद आचारों का पालन करते हैं और दूसरों को पालन करवाते हैं) है, ऐसे आचार्य भगवान को नमस्कार करता हूँ। इसमें हर्ज है क्या? आपको इसमें आपत्ति जैसा लगता है क्या? फिर भले ही कोई भी हो, किसी भी जाति का हो, लेकिन जिन्हें आत्मज्ञान हुआ है, ऐसे आचार्य को नमस्कार करता हूँ। (पृ.१४)अब वर्तमान में ऐसे आचार्य इस जगत् में सभी जगह पर नहीं हैं, लेकिन कुछ जगह पर हैं। ऐसे आचार्य यहाँ नहीं हैं। हमारी भूमि पर नहीं हैं लेकिन दूसरी भूमि पर हैं। इसलिए ये नमस्कार, वे जहाँ हैं वहाँ उन्हें पहुँच जाते हैं और हमें तुरंत उसका फल मिलता है। प्रश्नकर्ता : इन आचार्यों में शक्ति नहीं थी? आचार्य पद कब प्राप्त होगा? दादाश्री : यह आचार्य पद जो है वह महावीर भगवान के पश्चात् हज़ार साल तक ठीक से चला। और उसके बाद के जो आचार्य पद है वह लौकिक आचार्य पद है। बाद में अलौकिक आचार्य हुए ही नहीं। प्रश्नकर्ता : मैं अलौकिक आचार्य की बात करता हूँ। दादाश्री : तो अलौकिक हुए ही नहीं। अलौकिक आचार्य तो भगवान कहलाते हैं। प्रश्नकर्ता : तो कुंदकुंदाचार्य...? दादाश्री : कुंदकुंदाचार्य हो गए लेकिन वे महावीर भगवान के पश्चात् छ: सौ साल बाद हुए थे। कुंदकुंदाचार्य तो पूर्ण पुरुष थे। और यह मैं तो कहता हूँ कि आखिरी पंद्रह सौ साल में आचार्य हुए ही नहीं। प्रश्नकर्ता : लेकिन यह तो आचार्यों की जो कुछ कृतियाँ हैं, वे पिछले महापुरुषों के आगम हों या वेदांत के सूत्र हों, उसकी मुहर जैसे ही हैं। इसीलिए उन्हें आचार्य कहा है। दादाश्री : वे तो कहेंगे, लेकिन सही आचार्य तो आत्मज्ञान होने के बाद ही कहलाते हैं। आचार्य, प्रतापी सिंह जैसेतीर्थंकर हमारे किस काम आते हैं? दर्शन के काम आते हैं और (पृ.१५)सुनने के काम आते हैं! सुनना कब, कि जब देशना दे रहे हों तब सुनने के काम आते हैं, वर्ना दर्शन के काम आते हैं! वह भी, जिसे सिर्फ दर्शन की ही कमी रह गई हो, वह उनके दर्शन करके मोक्ष में चला जाता है। उनके दर्शन से ही पूर्णाहुति हो जाती है। लेकिन जो उस स्टेज तक पहुँचा हो उसके लिए। जिसने आचार्य से सारे आचार जान लिए हैं, यानी उस स्टेज पर आ चुका हो न, उसका वहाँ तीर्थंकर भगवान के दर्शन से काम हो जाता है। अर्थात् अंतिम परिपक्वता आचार्य के पास होती है। आचार्य परिपक्व होते हैं। तीर्थंकर भी उनकी महत्ता को स्वीकार करते हैं। तीर्थंकर भगवान से पूछा जाए कि ‘इन पाँचों में सब से बड़ा कौन?’ तब तीर्थंकर भगवान कहेंगे कि ‘आचार्य भगवान बड़े’। यह तो तीर्थंकर भगवान से अभिप्राय माँगे, इसलिए अभिप्राय तो उनका ही कहलाएगा न! प्रश्नकर्ता : लेकिन ऐसा क्यों कहेंगे? दादाश्री : क्योंकि तीर्थंकर भगवान में एक सौ आठ गुण हैं और आचार्य महाराज में एक हज़ार और आठ गुण होते हैं! अर्थात् वे तो गुणों का धाम कहलाते हैं। और वे तो सिंह समान होते हैं। उनकी दहाड़ से तो सब डोलने लगें। जैसे यदि गीदड़ ने मांस खाया हो, लेकिन यदि शेर को देख ले तो देखते ही मांस की उलटी कर दे! ऐसा ही आचार्य महाराज का प्रताप होता है। हाँ, किसी ने बहुत ज़्यादा पाप किए हों न, वह उनके सामने अपने पापों की उलटी कर देता है। तीर्थंकर भी कहते हैं कि, ‘मैं भी उनकी वजह से ही यहाँ तक पहुँचा हूँ’। यानी आचार्य भगवान तो बहुत बड़ा गुणधाम कहलाते हैं। ये पाँचों नवकार (नमस्कार) सर्वश्रेष्ठ पद हैं। उनमें भी आचार्य महाराज के बखान तो तीर्थंकरों को भी करने पड़ते हैं। क्योंकि तीर्थंकर कैसे हुए? (उनके समय के) आचार्य महाराज के प्रताप से! (पृ.१६)गणधर पार करें बुद्धि के स्तरप्रश्नकर्ता : तब ये जो भगवान के गणधर होते हैं, वे भी आचार्य कक्षा में आते होंगे? दादाश्री : हाँ, आचार्य पद में ही आते हैं। क्योंकि भगवान से नीचा दूसरा कोई पद है ही नहीं। गणधर नाम क्यों पड़ा? क्योंकि उन लोगों ने बुद्धि का पूर्णरूप से भेदन किया है। और आचार्य महाराज वैसे हो भी सकते हैं और नहीं भी हो सकते। लेकिन गणधर तो बुद्धि के सभी स्तर पार कर चुके होते हैं। वह स्तर हमने पार किया है। एक चंद्र का स्तर यानी मन का स्तर और सूर्य का स्तर यानी बुद्धि का स्तर, उन सूर्य-चंद्र का जिसने भेदन किया है ऐसे गणधर भगवान, फिर भी वे तीर्थंकर के आदेश में रहते हैं। हम भी सूर्य-चंद्र का भेदन करके बैठे हैं! हिम जैसा तापआचार्य को पूरा शास्त्र कंठस्थ होता है और उन्होंने सबकुछ धारण किया हुआ होता है। जबकि उपाध्याय खुद पढ़ते और पढ़ाते हैं। अभी अभ्यास कर रहे होते हैं लेकिन उन्होंने आत्मा की प्राप्ति की होती है यानी सम्यक्त्व प्राप्त किया है। ये उपाध्याय थोड़ा आगे पढ़े हुए होते हैं, लेकिन वे आचार्य महाराज के आगे ‘बाप जी, बाप जी’ किया करते हैं। जिसकी दहाड़ से साधु और उपाध्याय भी बिल्ली जैसे हो जाएँ, वे आचार्य! और साधु भले ही कितना भी ज़ोरों से दहाड़ें फिर भी आचार्य महाराज उनसे प्रभावित नहीं होते। आचार्य ऐसे होते हैं कि शिष्य से गलत हुआ तो उनके सामने उलटी हो जाती है। क्योंकि वह भीतर सहन नहीं कर सकता। आचार्य इतने अधिक ताप वाले होते हैं फिर भी वे सख़्त नहीं होते। वे क्रोध नहीं करते। यों ही उनकी सख़्ती बर्तती रहती है, बहुत ताप लगता है। (पृ.१७)जैसे यह हिम गिरता है न, उस हिम का ताप कितना अधिक होता है? वैसे हिमताप कहलाते हैं, फिर भी उनमें क्रोध नहीं होता। क्रोध-मान-माया-लोभ होंगे तो वे आचार्य कहलाएँगे ही नहीं न! वर्ना आचार्य महाराज तो कैसे होते हैं? उनका क्या कहना! उनकी वाणी सुनकर वहाँ से उठने का मन नहीं करता। आचार्य तो भगवान ही कहलाते हैं। वे कुछ ऐसे-वैसे नहीं कहलाते। दादा, खटपटिया वीतरागहमारा यह आचार्य पद कहलाता है, लेकिन संपूर्ण वीतराग पद नहीं कहलाता। यदि हमें वीतराग कहना है तो खटपटिया (कल्याण हेतु खटपट करने वाले) वीतराग कह सकते हैं। ऐसी खटपट कि ‘आना आप, हम सत्संग करेंगे और आपके लिए ऐसा कर देंगे, वैसा कर देंगे’। संपूर्ण वीतराग में ऐसा नहीं होता। दखल भी नहीं और झंझट भी नहीं। आपका हित हो रहा है या अहित हो रहा है, वे यह सब नहीं देखते। वे खुद ही हितकारी हैं। उनकी हवा हितकारी है, उनकी वाणी हितकारी है, उनके दर्शन हितकारी हैं। लेकिन वे आपको ऐसा नहीं कहेंगे कि ‘आप ऐसा करो’। जबकि मैं तो आपसे कहता हूँ कि, ‘मैं आपके साथ में सत्संग करूँगा और आप कुछ मोक्ष की ओर बढ़ो’। तीर्थंकर तो एक ही स्पष्ट वाक्य कहते हैं कि ‘चार गतियाँ भयंकर दु:खदायी हैं। इसलिए हे मनुष्यों, यहाँ से मोक्ष में जाने का साधन प्राप्त हो, ऐसा तुम्हें मनुष्यत्व प्राप्त हुआ है, इसलिए मोक्ष की कामना करो’। इतना ही कहते हैं। तीर्थंकर अपनी देशना में कहते हैं। इस काल में यहाँ पर तीर्थंकर नहीं हैं और सिद्ध भगवान तो अपने देश (सिद्धक्षेत्र) में ही रहते हैं। इसलिए अभी तीर्थंकर के रीप्रेज़ेन्टेटिव (प्रतिनिधि) के तौर पर हम हैं। हाँ, वे नहीं हैं, अत: सारी सत्ता हमारे हाथ में है। उसी का उपयोग करते हैं आराम से, (पृ.१८)किसी से पूछे बगैर! लेकिन हम तीर्थंकरों को अपने सिर पर रखते हैं, उन्हें यहाँ बिठाया है न! उपाध्याय में विचार और उच्चार दो ही होते हैं और आचार्य में विचार, उच्चार और आचार तीनों होते हैं। उनमें इन तीनों की पूर्णाहुति हो चुकी है, इसलिए वे आचार्य भगवान कहलाते हैं। नमो उवज्झायाणं...प्रश्नकर्ता : ‘नमो उवज्झायाणं’ विस्तार से समझाइए। दादाश्री : उपाध्याय भगवान। उसका अर्थ क्या होता है? जिन्हें आत्मा की प्राप्ति हो गई है और जो खुद आत्मा जानने के पश्चात् सभी शास्त्रों का अभ्यास करते हैं और फिर दूसरों को अभ्यास करवाते हैं, ऐसे उपाध्याय भगवान को नमस्कार करता हूँ। उपाध्याय यानी खुद सबकुछ समझते ज़रूर हैं, फिर भी संपूर्ण आचरण में नहीं आए होते। वे वैष्णवों के हों, जैनों के हों या किसी भी धर्म के हों लेकिन आत्मा प्राप्त किया होता है। आज के ये साधु वे सभी इस पद में नहीं आते। क्योंकि उन्होंने आत्मा प्राप्त नहीं किया है। आत्मा प्राप्त करने पर क्रोध-मान-माया-लोभ चले जाते हैं, कमज़ोरियाँ चली जाती हैं। अपमान करने पर फन नहीं फैलाते। ये तो अपमान करने पर फन फैलाते हैं न? वे फन फैलाए वह नहीं चलेगा वहाँ। प्रश्नकर्ता : आपने ऐसा कहा कि उपाध्याय जानते हैं, लेकिन वे क्या जानते हैं? दादाश्री : उपाध्याय यानी जो आत्मा को जानते हैं, कर्तव्य जानते हैं और आचार भी जानते हैं। फिर भी उनमें कुछ आचार होते हैं और कुछ आचार आने शेष हैं। लेकिन संपूर्ण आचार प्राप्त नहीं होने की (पृ.१९)वजह से वे उपाध्याय पद में हैं। यानी खुद अभी पढ़ रहे हैं और औरों को पढ़ा रहे हैं। प्रश्नकर्ता : अर्थात् आचार में पूर्णता नहीं आई होती? दादाश्री : हाँ, उपाध्याय में आचार की पूर्णता नहीं होती। आचार की पूर्णता के बाद तो आचार्य कहलाते हैं। प्रश्नकर्ता : अर्थात् उपाध्याय भी आत्मज्ञानी होने चाहिए? दादाश्री : आत्मज्ञानी नहीं, आत्मप्रतीति वाले। लेकिन प्रतीति की डिग्री ज़रा ऊँची होती है, प्रतीति! और आगे? नमो लोए सव्वसाहूणं...प्रश्नकर्ता : ‘नमो लोए सव्वसाहूणं’। दादाश्री : ‘लोए’ यानी लोक, तो इस लोक में जितने साधु हैं उन सभी साधुओं को मैं नमस्कार करता हूँ। साधु किसे कहेंगे? जो सफेद कपड़े पहने, गेरुआ कपड़े पहने वे साधु नहीं कहलाएँगे। आत्मदशा साधे वे साधु। अर्थात् जिन्हें बिल्कुल देहाध्यास नहीं है, संसार दशा-भौतिक दशा नहीं, लेकिन आत्मदशा साधे उन साधुओं को मैं नमस्कार करता हूँ। अब ऐसे साधु कहाँ मिलेंगे? अब ऐसे साधु होते हैं? लेकिन इस ब्रह्मांड में जहाँ-जहाँ भी ऐसे साधु हैं, उन्हें नमस्कार करता हूँ। संसार दशा में से मुक्त होकर आत्मदशा के लिए प्रयत्न करते हैं और आत्मदशा साधते हैं, उन सभी को नमस्कार करता हूँ। बाकी योग आदि जो सबकुछ करते हैं वे सारी संसार दशाएँ हैं। आत्मदशा, वही असल वस्तु है। कौन-कौन से योग में संसार दशा है? तब कहें, एक तो देहयोग, (पृ.२०)जिसमें आसन आदि करने पड़ें वे सभी देहयोग कहलाते हैं। फिर दूसरा मनोयोग, यहाँ चक्रों के ऊपर स्थिरता करना वह मनोयोग कहलाता है। और जापयोग करना, वह वाणी का योग कहलाता है। ये तीनों स्थूल शब्द हैं और उसका फल, संसार फल मिलता है। अर्थात् यहाँ बंगला मिले, गाड़ियाँ मिलें। और आत्मयोग होने पर मुक्ति मिलती है, सभी प्रकार के सुख प्राप्त होते हैं। वह आखिरी, बड़ा योग कहलाता है। सव्वसाहूणं यानी जो आत्मयोग साधकर बैठे हैं ऐसे सभी साधुओं को मैं नमस्कार करता हूँ। अर्थात् साधु कौन? जिन्हें आत्मा की प्रतीति हुई है, उनकी गिनती हमने साधुओं में की। अर्थात् यह साहूणं को पहली प्रतीति और उपाध्याय को विशेष प्रतीति और आचार्य को आत्मज्ञान होता है। और अरिहंत भगवान, वे पूर्ण भगवान! इस रीति से नमस्कार किए हैं। पाँचों इन्द्रियाँ सुनें तब...प्रश्नकर्ता : भगवंतों ने नवकार के पाँच पदों की जो रचना की है, उनमें पहले चार तो सही हैं लेकिन पाँचवे में नमो लोए सव्वसाहूणं के बजाय सव्वसाहूणं क्यों नहीं रखा? दादाश्री : तो चिट्ठी लिखो न आप! ऐसा है, उन्होंने जो कहा है न वह जैसा है वैसा, मात्रा सहित बोलने को कहा है। क्योंकि उनके श्री मुख से निकली वाणी है। उसका गुजराती अनुवाद करने के लिए मना किया है। भाषा परिवर्तन मत करना। अर्थात् उनके श्री मुख से निकली है, महावीर भगवान के मुख से और जब वे वाणी बोलेंगे न, तो वे परमाणु ही ऐसे संयोजित होते हैं कि लोगों को अद्भुतता लगती है। लेकिन ये तो ऐसे बोलते हैं कि खुद को भी न सुनाई दे, तब फिर फल भी वैसा ही मिलेगा न! खुद को फल का पता नहीं चलेगा। बाकी पाँचों इन्द्रियाँ सुनें ऐसे बोलने पर सच्चा फल प्राप्त होता है। हाँ, आँख भी देखा करे, कान भी सुना करे, नाक सूँघती रहे... (पृ.२१)प्रश्नकर्ता : आप कुछ रहस्यमय वाणी बोले! दादाश्री : हाँ, नवकार यों ही बोलते रहें तो कान सुनते नहीं, कान भूखा रहता है, आँखें भूखी रहती है, सिर्फ जीभ ही अकेली मुँह में घूमती रहती है, तब फिर कैसा फल मिलेगा? अर्थात् पाँचों इन्द्रियाँ जब प्रसन्न होंगी, तब नवकार मंत्र परिणमित हुआ कहलाएगा। मंत्र बोलते तो हैं लेकिन कान सुने, आँखें देखें, नाक सुगंध महसूस करे, उस समय चमड़ी को स्पर्श हो उसका, ऐसा होना चाहिए यह सब। इसीलिए तो हम यह त्रिमंत्र ऊँची आवाज़ में बुलवाते हैं न! सिर्फ साधक, नहीं बाधकलोगों ने जितना निश्चित किया है, ब्रह्मांड उतना ही नहीं है। ब्रह्मांड बहुत बड़ा है, विशाल है। उन सभी साधुओं को नमस्कार करता हूँ। जो आत्मा की दशा साधने के लिए साधना करते हैं, वे साधु। यानी कि जो संसार के स्वाद के लिए साधना करते हैं, वे साधु नहीं हैं। स्वाद के लिए, मान के लिए, कीर्ति के लिए की जाने वाली साधनाएँ अलग है। आत्मा की साधना में वह सब नहीं होता। वैसे सभी साधुओं को नमस्कार करता हूँ। बाकी के सभी, साधु नहीं कहलाते। जो आत्मा की दशा साधे, वे साधु कहलाते हैं। उन सभी को नमस्कार करता हूँ। बाकी के सब साधु नहीं कहलाते। देह दशा, देह के रौब के लिए, देह के सुख की इच्छा रखते हैं, लेकिन वह चलेगा नहीं न! हिंदुस्तान में शायद एकाध ही कोई ऐसा संत होगा। एक भी नहीं होगा। ऐसे साधु दूसरे क्षेत्रों में हैं। वे दूसरी जगहों पर हैं, तो अपना नमस्कार वहाँ पर पहुँचता है और तब हमें फल मिलता है। प्रश्नकर्ता : लोए यानी क्या? (पृ.२२)दादाश्री : नमो लोए सव्वसाहूणं। लोए यानी लोक। इस लोक के अलावा दूसरा, अलोक है; वहाँ कुछ भी नहीं है। अर्थात् लोक में जो सभी साधु हैं, उन्हें नमस्कार करता हूँ। प्रश्नकर्ता : अब, आत्मदशा साधने से आत्मा का ज्ञान होता है? दादाश्री : हाँ। प्रश्नकर्ता : और आत्मदशा साधने से आत्मा का अनुभव होता है? दादाश्री : वह आत्मदशा साधता है मतलब अनुभव की ओर बढऩे लगता है, साधना करता है। साधना का क्या अर्थ है? ‘आतम् भावना भावतां जीव लहे केवळज्ञान रे!’ (आतम् भावना करते जीव लहे केवलज्ञान रे!) लेकिन आत्मभावना उसे प्राप्त होनी चाहिए न? हम यहाँ जो ज्ञान देते हैं, वह आत्मदशा की ही प्राप्ति करवाते हैं और उसे प्राप्त करने के बाद उसे फिर आगे की दशा प्राप्त होती है और उसमें कोई जैसे-जैसे आगे बढ़ता हैं उसे उपाध्याय दशा प्राप्त होती है। यहाँ इस समय आखिरी कौन से पद तक पहुँच सकते हैं? आचार्यपद तक जा सकते हैं। उससे आगे नहीं जा सकते। प्रश्नकर्ता : हम कैसे तय कर सकते हैं कि ये आत्मदशा साध रहे हैं या नहीं? दादाश्री : हाँ, हम उसके बाधक गुण देख लें तो पता चल जाएगा। आत्मदशा साधने वाला मनुष्य सिर्फ साधक ही होगा, बाधक नहीं होगा। साधु हमेशा साधक होते हैं और वर्तमान में ये जो साधु हैं वे इस दूषमकाल की वजह से साधक नहीं हैं, साधक-बाधक हैं। साधक-बाधक यानी बीवी-बच्चों को छोड़कर, तप-त्याग आदि करते हैं। आज सामायिक-प्रतिक्रमण करके सौ रुपए कमाते हैं लेकिन शिष्य के साथ झमेला होने से उसके प्रति उग्र हो जाते हैं, तब डेढ़-सौ रुपए गँवा देते हैं। अर्थात् वह बाधक है। और सच्चा साधु कभी बाधक नहीं बनता, साधक ही होता है। जितने साधक होते हैं न, वे ही सिद्ध दशा प्राप्त कर सकते हैं। (पृ.२३)और ये तो बाधक हैं, इन्हें छेड़ते ही चिढऩे में देर नहीं लगाते न! अर्थात् ये साधु नहीं, त्यागी कहलाते हैं। आजकल के ज़माने के हिसाब से इन्हें साधु कह सकते हैं। बाकी तो साधु-त्यागियों का क्रोध खुल्लम, खुल्ला नज़र आता है न! अरे! सुनाई भी देता है। जो क्रोध सुनाई दे वह क्रोध कैसा होगा? प्रश्नकर्ता : अनंतानुबंधी? दादाश्री : हाँ, जो क्रोध दूसरों को भयभीत करे, हमें सुनाई (दिखाई) दे, वह अनंतानुबंधी कहलाता है। ॐ का स्वरूपप्रश्नकर्ता : ॐ, वह नवकार मंत्र का छोटा रूप है? दादाश्री : हाँ, समझकर ॐ बोलने से धर्मध्यान होता है। प्रश्नकर्ता : नवकार मंत्र के बजाय ॐ, इतना कहें तो चलेगा? दादाश्री : हाँ, लेकिन वह समझकर करें तो! ये लोग बोलते हैं वह अर्थहीन का है। सच्चा नवकार मंत्र बोलने के बाद तो घर में क्लेश होना बंद हो जाए। अभी घर-घर में क्लेश बंद हो गए हैं न? प्रश्नकर्ता : नहीं हुए। दादाश्री : जारी ही हैं? यदि क्लेश बंद नहीं हो जाएँ तो समझना कि अभी तक ये नवकार मंत्र अच्छी तरह से समझकर नहीं बोल रहे हैं। यह नवकार मंत्र जो है, उसे बोलने से ॐ (पंच परमेष्टि) खुश हो जाते हैं, भगवान खुश हो जाते हैं। सिर्फ ॐ बोलने से कभी ॐ (पृ.२४)खुश नहीं होता! अत: यह नवकार मंत्र भी बोलना! यह नवकार मंत्र वही ॐ है! इन सब के संक्षिप्त रूप में ॐ शब्द रखा है। करने वालों ने लोगों के लाभ हेतु ऐसा किया है, लेकिन लोगों में समझ नहीं होने के कारण न जाने उसका क्या से क्या हो गया और बात बिगड़ गई। वह पहुँचे अक्रम के महात्माओं कोभगवान ने ॐ स्वरूप किसे कहा है? जिसे मैं यहाँ ज्ञान देता हूँ न, वह उस दिन से ही ‘मैं शुद्धात्मा हूँ’ बोलने लगता है, तब से वह साधु बन जाता है। शुद्धात्म दशा साधे वह साधु। इसलिए हमारे ये महात्मा, जिन्हें मैंने ज्ञान दिया है न, उनको यह नवकार पहुँचता है। हाँ, लोग नवकार मंत्र बोलते हैं न, उसकी ज़िम्मेदारी आपके सिर पर आती है। क्योंकि आप भी नवकार में आ गए। आत्मदशा साधे वह साधु। उसके बाद आप धीरे-धीरे थोड़ा-थोड़ा खुद समझने लगें और थोड़ा-थोड़ा दूसरों को समझा सकें, ऐसा हुआ अर्थात् आप साधु से आगे पहुँचे। तब से उपाध्याय होने लगे। और आचार्यपद इस काल में जल्दी मिले ऐसा है नहीं, हमारे जाने के बाद निकलेगा वह बात अलग है। नवकार का माहात्म्य‘ऐसो पंच नमुक्कारो’ अर्थात् ये जो ऊपर बताए गए हैं, उन पाँचों को नमस्कार करता हूँ। ‘सव्व पावप्पणासणो’ अर्थात् यह सभी पापों का नाश करने वाला है। इसे बोलने से सारे पाप भस्मीभूत हो जाते हैं। ‘मंगलाणं च सव्वेसिं’ अर्थात् सभी मंगलों में... (पृ.२५)‘पढमं हवई मंगलम्’ अर्थात् यह प्रथम मंगल है। इस दुनिया में जो सारे मंगल हैं, उन सभी में सर्व प्रथम मंगल यह है, सब से बड़ा मंगल यह है, ऐसा कहना चाहते हैं। बोलो अब, हमें इसे छोड़ देना चाहिए क्या? पक्षपात के खातिर छोड़ देना चाहिए? भगवान निष्पक्षपाती होंगे या पक्षपाती होंगे? प्रश्नकर्ता : निष्पक्षपाती। दादाश्री : तब फिर जैसा, भगवान कहते हैं, वैसे उनके निष्पक्षपाती मंत्रों को भजें। त्रिमंत्र से, हल्का हो भोगवटाप्रश्नकर्ता : त्रिमंत्र में सव्व पावप्पणासणो आता है। यह सारे पापों का नाश करने वाला है, तो फिर क्या बिना भोगवटे के वे नष्ट हो जाते हैं? दादाश्री : वह भोगवटा तो आएगा। ऐसा है न, आप यहाँ पर मेरे साथ चार दिन रहो, तो आपको कर्मों का भोगवटा तो रहेगा लेकिन वह भोगवटा मेरी हाज़िरी में हलका हो जाएगा। ऐसे त्रिमंत्र की हाज़िरी से भोगवटे में बहुत फर्क पड़ जाता है। फिर उसका आप पर ज़्यादा असर नहीं होगा। अभी एक आदमी को जिसे ज्ञान नहीं है, उसे चार दिन के लिए जेल में डाला जाए तो उसे कितनी अकुलाहट होगी? और ज्ञान वाले को जेल में डाला जाए, तो? उसका क्या है कि भोगवटा तो वही का वही है लेकिन वह अंदर असर नहीं करता। व्यवस्थित में होगा, तभी जपा जाएगाप्रश्नकर्ता : आप कहते हैं कि त्रिमंत्र हमारी सारी अड़चनें दूर (पृ.२६)कर देता है। आप यह भी कहते हैं कि सब ‘व्यवस्थित’ ही है, तब फिर त्रिमंत्र में शक्ति कहाँ से आई? दादाश्री : व्यवस्थित यानी क्या कि यदि अड़चन दूर नहीं होने वाली हो तो तब तक हम से त्रिमंत्र नहीं बोले जाएँगे, इस प्रकार से ‘व्यवस्थित’ है, ऐसा समझ लेना। प्रश्नकर्ता : लेकिन त्रिमंत्र बोलने पर भी अड़चन दूर नहीं हो तो क्या समझना चाहिए? दादाश्री : वह अड़चन कितनी बड़ी थी और कितनी कम हो गई, वह आपको पता नहीं चलता लेकिन हमें वह पता चलता है। नवकार अर्थात् नमस्कारप्रश्नकर्ता : कुछ लोग ‘नमो लोए सव्वसाहूणं’ तक ही बोलते हैं और कुछ लोग ‘एसो पंच नमुक्कारो’ और आखिर तक बोलते हैं। दोनों में से कौन सा सही है? दादाश्री : ‘एसो पंच नमुक्कारो’ से पीछे के चार वाक्य नहीं बोलें तो हर्ज नहीं। मंत्र तो पाँच ही हैं और पीछे के चार वाक्य तो उसका माहात्म्य समझाने के लिए लिखे गए हैं। प्रश्नकर्ता : नव (नौ) पद के हिसाब से यह नवकार मंत्र कहलाता है? दादाश्री : नहीं, नहीं, ऐसा नहीं। यह नव पद नहीं है। यह नमस्कार मंत्र है, उसके बदले नवकार हो गया। यह मूल शब्द नमस्कार मंत्र है, उसके बदले मागधि भाषा में नवकार बोलते हैं। इसलिए नमस्कार को ही यह नवकार कहते हैं। अर्थात् नव पद से इसका लेना-देना नहीं है। ये पाँच ही नमस्कार हैं। (पृ.२७)ॐ नमो भगवते वासुदेवाय...प्रश्नकर्ता : फिर ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’ समझाइए। दादाश्री : वासुदेव भगवान! अर्थात् जो वासुदेव भगवान नर में से नारायण बने, उन्हें मैं नमस्कार करता हूँ। जब नारायण हो जाते हैं, तब वासुदेव कहलाते हैं। प्रश्नकर्ता : श्री कृष्ण, महावीर स्वामी वे सभी क्या हैं? दादाश्री : वे सभी तो भगवान हैं। वे देहधारी रूप में भगवान कहलाते हैं। वे भगवान क्यों कहलाते हैं कि भीतर संपूर्ण भगवान प्रकट हुए हैं। इसलिए हम उन्हें देह सहित भगवान कहते हैं। और जो महावीर भगवान हुए, ऋषभदेव भगवान हुए वे पूर्ण भगवान कहलाते हैं। कृष्ण भगवान तो वासुदेव भगवान कहलाते हैं, उसमें कोई शक नहीं है न? वासुदेव यानी नारायण। नर में से जो नारायण हुए ऐसे भगवान प्रकट हुए। उन्हें हम भगवान कहते हैं। वासुदेव की गिनती भगवान में होती है। शिव की गिनती भगवान में होती है और सच्चिदानंद, वे भी भगवान में गिने जाते हैं। और ये पाँचों परमेष्टि भी भगवान में ही गिने जाते हैं। क्योंकि ये सच्चे साधक होते हैं ये सब भगवान में गिने जाते हैं। लेकिन ये पंच परमेष्टि कार्य-भगवान कहलाते हैं, जबकि वासुदेव तथा शिव कारण-भगवान कहलाते हैं। वे कार्य-भगवान होने के कारणों का सेवन करते हैं। नर में से नारायणप्रश्नकर्ता : ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’ का ज़रा विशेष रूप से स्पष्टीकरण कीजिए। (पृ.२८)दादाश्री : ये श्री कृष्ण भगवान वासुदेव हैं, ऋषभदेव भगवान के समय से लेकर आज तक वैसे ही नौ वासुदेव हो चुके हैं। वासुदेव यानी जो नर में से नारायण बनें, उस पद को वासुदेव कहते हैं। तप-त्याग कुछ भी नहीं। उनके तो मारधाड़-झगड़े-तूफान सबकुछ उनके प्रतिपक्षी के साथ होते हैं। इसीलिए तो उनके प्रतिपक्षी के रूप में प्रतिवासुदेव जन्म लेते हैं। वे प्रतिनारायण कहलाते हैं। उन दोनों के झगड़े होते रहते हैं। और तब नौ बलदेव भी होते हैं। कृष्ण वासुदेव कहलाते हैं और बलराम (श्री कृष्ण के बड़े भाई) वे, बलदेव कहलाते हैं। भगवान रामचंद्र जी वासुदेव नहीं कहलाते, रामचंद्र जी बलदेव कहलाते हैं। लक्ष्मण वासुदेव कहलाते हैं और रावण प्रतिवासुदेव कहलाते हैं। रावण पूज्य हैं। रावण खास पूजा करने योग्य हैं। लोग उनके पुतले जलाते हैं। भयंकर तरीके से जलाते हैं न! देखो न! ऐसा उल्टा ज्ञान जहाँ फैला हुआ है, उस देश का फिर भला कैसे होगा? रावण के पुतले नहीं जलाने चाहिए। इस काल के वासुदेव यानी कौन? कृष्ण भगवान। इसलिए यह नमस्कार कृष्ण भगवान को पहुँचते हैं। उनके जो शासनदेव होंगे, उन्हें पहुँचते हैं। वासुदेव पद, अलौकिकवासुदेव तो कैसे होते हैं? एक आँख से ही लाखों लोग डर जाएँ ऐसी तो वासुदेव की आँखें होती हैं। उनकी आँखें देखकर ही डर जाएँ। वासुदेव पद का बीज कब पड़ेगा? वासुदेव होने वाले हों तब कई अवतार पहले से ऐसा प्रभाव होता है। वासुदेव जब चलते हैं तो धरती धमधमती है! हाँ, धरती के नीचे से आवाज़ आती है। अर्थात् वह बीज ही अलग तरह का होता है। उनकी हाज़िरी से ही लोग इधर-उधर हो जाते हैं। उनकी बात ही अलग है। वासुदेव तो मूलत: जन्म से ही पहचाने जाते हैं कि वासुदेव होने वाले हैं। कई अवतारों के बाद वासुदेव होने वाले हों, उसका संकेत आज से ही मिलने लगता (पृ.२९)है। तीर्थंकर नहीं पहचाने जाते लेकिन वासुदेव पहचाने जाते हैं। उनके लक्षण ही अलग तरह के होते हैं। प्रतिवासुदेव भी ऐसे ही होते हैं। प्रश्नकर्ता : तो तीर्थंकर पिछले अवतारों में कैसे पहचाने जाते हैं? दादाश्री : तीर्थंकर सीधे-सादे होते हैं। उनकी लाइन ही सीधी होती हैं। उनके दोष होते ही नहीं, उनकी लाइन में दोष आते ही नहीं और दोष आ भी जाएँ तो किसी भी तरह से (ज्ञान से) वापस, वहीं के वहीं आ जाते हैं। वह लाइन ही अलग है। जबकि वासुदेव तथा प्रतिवासुदेव में तो कई अवतार पहले से ही ऐसे गुण होते हैं। वासुदेव होना यानी नर में से नारायण हुए कहलाते हैं। नर से नारायण यानी किस फेज़ से, जैसे कि जब पड़वा होता है तभी से पता चल जाता है न कि अब पूनम होने वाली है। उसी प्रकार कई अवतार पहले से पता चल जाता है कि ये वासुदेव होने वाले हैं। नहीं बोलना उल्टा, कृष्ण या रावण काये जो तिरसठ शलाका पुरुष कहलाते हैं न, उन पर भगवान ने मुहर लगाई कि ये सारे भगवान होने लायक हैं। इसलिए हम अकेले अरिहंत को भजें और इन वासुदेव को नहीं भजें तो वासुदेव भविष्य में अरिहंत होने वाले हैं। यदि वासुदेव का उल्टा बोलेंगे तो फिर अपना क्या होगा? लोग कहते हैं न, ‘कृष्ण को ऐसा हुआ है, वैसा हुआ है...’ अरे, ऐसा नहीं बोलते। उनके बारे में कुछ मत बोलना। उनकी बात अलग है और तू जो सुनकर आया वह बात अलग है। क्यों जोखिमदारी मोल लेता है? जो कृष्ण भगवान अगली चौबीसी में तीर्थंकर होने वाले हैं, जो रावण अगली चौबीसी में तीर्थंकर होने वाले हैं, उनकी बात करके जोखिमदारी क्यों मोल लेते हो? तिरसठ शलाका पुरुषशलाका पुरुष यानी मोक्ष में जाने योग्य श्रेष्ठ पुरुष। मोक्ष में तो (पृ.३०)दूसरे भी जाएँगे लेकिन ये श्रेष्ठ पुरुष कहलाते हैं। इसलिए वे ख्याति के साथ हैं। संपूर्ण ख्यातनाम होकर मोक्ष में जाते हैं। हाँ, उनमें चौबीस तीर्थंकर होते हैं, बारह चक्रवर्ती होते हैं, नौ वासुदेव होते हैं, नौ प्रतिवासुदेव होते हैं और नौ बलदेव होते हैं। बलदेव वासुदेव के बड़े भाई होते हैं। वे हमेशा साथ में ही होते हैं। यह नेचुरल एडजस्टमेन्ट होता है। उसमें फर्क नहीं होता। नेचुरल में कोई परिवर्तन नहीं होता। जैसे कि पानी के लिए 2H और O ही चाहिए, इसके समान यह बात है। यह साइन्टिफिक वस्तु है। वर्ना यह तिरसठ मेरा शब्द नहीं है, तिरसठ के बदले चौसठ भी रखता। लेकिन यह कुदरत की रचना कितनी सुंदर और व्यवस्थित है! बोलते समय उपयोग...हम ॐ नमो भगवते वासुदेवाय बोलें, तब कृष्ण भगवान भी दिखें और शब्द भी बोलें हम। अब कृष्ण भगवान, जो भले ही हमारे दर्शन में आए हुए हों, जो भी चित्र उभरा हो, फिर वे मुरली वाले हों या अन्य रूप में हों लेकिन हमारे इस उच्चारण के साथ ही वे तुरंत दिखाई देने चाहिए, बोलते ही दिखाई दें। बोलें और दिखाई नहीं दें, उसका अर्थ ही क्या? सिर्फ नाम बोलेंगे तो सिर्फ नाम का फल मिलेगा। लेकिन साथ-साथ उनकी मूर्ति देखें, तो दोनों फल मिलेंगे। नाम और स्थापना दो फल मिलें तो बहुत हो गया। प्रश्नकर्ता : ‘नमो अरिहंताणं’ का जाप करते समय मन में किस रंग का चिंतन करना चाहिए? दादाश्री : ‘नमो अरिहंताणं’ का जाप करते समय किसी रंग का चिंतन करने की कोई ज़रूरत नहीं है। और यदि चिंतन करना हो तो (पृ.३१)आँखे मूँदकर न...मो...अ...रि...हं...ता...णं... ऐसे एक-एक शब्द नज़र आना चाहिए। उससे बहुत अच्छा फल प्राप्त होता है। जब आँखें मूँदकर बोलेंगे तो, न...मो...अ...रि...हं...ता...णं... ये अक्षर बोलते समय क्या मन में नहीं पढ़े जा सकते? अभ्यास करना, तो फिर आप पढ़ पाएँगे। फिर ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’ इसे भी आप आँखें मूँदकर बोलेंगे तो हर अक्षर दिखाई देगा। अक्षरों के साथ पढ़ पाएँगे। आप दो दिन अभ्यास करना, तीसरे दिन बहुत ही सुंदर दिखाई देगा। मंत्रों का इस तरह चितन करना है। इसी को ध्यान कहते हैं। यदि इस त्रिमंत्र का ऐसे ध्यान करें न, तो बहुत सुंदर ध्यान हो जाएगा। ॐ नम: शिवाय...प्रश्नकर्ता : ‘ॐ नम: शिवाय’ विस्तार से समझाइए। दादाश्री : इस दुनिया में जो कल्याण स्वरूप हो चुके हों और जो जीवित हों, जिनका अहंकार खत्म हो गया हो, वे सभी शिव कहलाते हैं। शिव नाम का कोई मनुष्य नहीं है। शिव तो खुद कल्याण स्वरूप ही हैं। इसलिए जो खुद कल्याण स्वरूप हुए हैं और दूसरों को कल्याण की राह दिखाते हैं, उन्हें नमस्कार करता हूँ। जो कल्याण स्वरूप होकर बैठे हैं, वे भले ही हिंदुस्तान में हों या कहीं भी हों, उन्हें नमस्कार करता हूँ। कल्याण स्वरूप कौन कहलाते हैं? जिन्हें मोक्षलक्ष्मी माला पहनाने को तैयार हो। मोक्षलक्ष्मी विवाह के लिए तैयार हो, वे कल्याण स्वरूप कहलाते हैं। शंकर नीलकंठ क्यों?हम वहाँ पर महादेव जी के मंदिर में जाकर बोलते हैं न, (पृ.३२)‘त्रिशूळ छतां ये जगत झेर पीनारो, शंकर पण हुं ज ने नीलकंठ हुं ज छुं.’ मैं ही शंकर और मैं ही नीलकंठ, किसलिए कहा? कि इस संसार में जिस-जिसने ज़हर पिलाया वह सारा का सारा पी गए। और अगर आप पी जाएँ तो आप भी शंकर हो जाएँगे। कोई गाली दे, कोई अपमान करे तो भी आशीर्वाद देकर, समभाव से सारा का सारा ज़हर पी जाओगे तो आप शंकर बन जाओगे। वैसे समभाव रह नहीं सकता लेकिन जब आशीर्वाद देते हैं, तब समभाव आ जाता है। यदि अकेला समभाव रखने जाए तो विषमभाव हो जाएगा। महादेव जी ज़हर (सांसारिक कष्ट) के सारे गिलास पी गए थे। जिसने गिलास दिया, उसके प्याले लेकर पी गए। तो हम भी वैसे ही प्याले पीकर महादेव जी बने हैं। आपको भी महादेव जी होना हो तो ऐसा करना। अभी भी समय है। पाँच-दस साल पी सको तो भी बहुत हो गया। तो आप भी महादेव जी बन जाएँगे। लेकिन आप तो, वह गिलास पिलाए उससे पहले उसी को पिला देते हैं! ‘ले, मुझे महादेव जी नहीं बनना, तू महादेव जी बन’, ऐसा कहते हैं। शिवोहम् कब बोल सकते हैं?प्रश्नकर्ता : कुछ लोग ‘शिवोहम्, शिवोहम्’ ऐसा बोलते हैं, वह क्या है? दादाश्री : ऐसा है न, कि इस समय नहीं लेकिन पहले जो शिव स्वरूप हुए हों, पिछले जन्मों में शिव स्वरूप हुए हों, वे ‘शिवोहम्’ बोल सकते हैं। उनकी नकल उनके बाद उनके शिष्यों ने, इन लोगों ने की। और उनकी नकल इन शिष्यों के शिष्यों ने और उनके शिष्यों ने की। इस तरह सब नकल करते हैं। ऐसा करने से थोड़े शिव बन जाएँगे? घर में प्रतिदिन बीवी के साथ झगड़े होते हैं (पृ.३३)और वहाँ ‘शिवोहम्, शिवोहम्’ करते हैं। अरे, शिव को क्यों बदनाम करता है? बीवी के साथ झगडा करे और ‘शिवोहम्’ बोले तो शिव की बदनामी होगी या नहीं होगी? प्रश्नकर्ता : जितना समय ‘शिवोहम्’ बोले उतना समय तो बीवी से नहीं लड़ता न? दादाश्री : नहीं, ‘शिवोहम्’ बोल ही नहीं सकते। फिर तो उसे आगे जाने के लिए मार्गदर्शन की ज़रूरत ही नहीं रही। क्योंकि अंतिम स्टेशन की बात चली, इसलिए फिर अन्य स्टेशनों पर जाने की ज़रूरत ही नहीं रही न! इसलिए ऐसा नहीं बोल सकते। जब तक खुद के पास अंतिम स्टेशन का लाइसेन्स नहीं आ जाता, तब तक ‘शिवोहम्’ नहीं बोल सकते। ‘मैं शुद्धात्मा हूँ’ ऐसा भी नहीं बोल सकते। उसका भान होना चाहिए। जो कुछ बोलते हो, उसका भान होना चाहिए। अभानावस्था (बेहोशी) में तो कई लोग ऐसा बोलते हैं कि, ‘अहम् ब्रह्मास्मि’। अरे, काहे का? ब्रह्म क्या और ब्रह्मास्मि क्या? तू क्या समझा है, जो बार-बार बोलता रहता है? उन लोगों ने ऐसा ही सिखाया था, अहम् ब्रह्मास्मि। लेकिन उसका अनुभव होना चाहिए। आप शुद्धात्मा हो लेकिन खुद को शुद्धात्मा का अनुभव होना चाहिए। यों ही नहीं बोल सकते। शिवोहम् बोल सकते हैं क्या? आपको क्या लगता है? अनुभव हुए बिना नहीं बोल सकते। वह तो हमें समझना है कि आखिर में हमारा स्वरूप शिव का है। लेकिन ऐसा बोल नहीं सकते। वर्ना बोलने से फिर बीच के दूसरे सारे स्टेशन रह जाएँगे। प्रश्नकर्ता : ‘शिवोहम्’ बोलता है लेकिन वह अज्ञानता में ही बोलता है न? समझता नहीं है फिर भी बोलता है। दादाश्री : हाँ, अज्ञानता से बोलता है। लेकिन मन में तो उसे (पृ.३४)ऐसा ही रहता है न कि ‘हमारा शिवोहम्’ यानी ‘मैं ही शिव हूँ’। इसलिए अब कोई प्रगति करनी शेष नहीं रही। ऐसा भीतर में समझता है। और ‘सोहम्, सोहम्’ बोलते हैं वैसा बोल सकते हैं। सोहम् का हिंदी क्या होगा? प्रश्नकर्ता : ‘वह मैं हूँ’। दादाश्री : ‘वह मैं हूँ’ बोल सकते हैं लेकिन शिवोहम् नहीं बोल सकते। ‘वह मैं हूँ’ अर्थात् जो आत्मा है या भगवान है, वही मैं हूँ। ऐसा बोल सकते हैं। ‘तू ही, तू ही’ बोल सकते हैं लेकिन ‘मैं ही, मैं ही’ नहीं बोल सकते। ‘तू ही, तू ही’ बोल सकते हैं, क्योंकि तब अज्ञानता में भी ‘मैं’ और ‘तू’ दो अलग ही हैं पहले से। और ऐसा बोलते हैं इसमें गलत भी क्या है? वे दोनों अलग ही हैं। प्रश्नकर्ता : शिवोहम् यानी क्या? दादाश्री : जिसे ‘मुझे शिव होना है, उस लक्ष्य पर पहुँचना है’ ऐसा रहे वह कहता है कि ‘मैं शिवोहम् हूँ!’ शिव यानी खुद ही कल्याण स्वरूप हो गया, वह खुद ही महादेव जी हो गया! अंतर है शिव और शंकर मेंप्रश्नकर्ता : शिव और शंकर में क्या अंतर है? शिव को कल्याण पुरुष कहा, तो क्या शंकर देवलोक में है? दादाश्री : शंकर तो एक ही नहीं, कई शंकर हैं। जब से समता में आए न, तब से ‘सम् कर’ यानी शंकर कहलाए। अर्थात् कई शंकर हैं लेकिन वे सारे उच्चगति में हैं। जो ‘सम्’ करता है, वह शंकर। ‘ॐ नम: शिवाय’ बोलते ही एक ओर शिव स्वरूप नज़र आए और दूसरी ओर हम बोलते जाए। (पृ.३५)यह है परोक्ष भक्तिआप महादेव जी को भजते हैं। लेकिन महादेव जी आपके भीतर बैठे शुद्धात्मा को खत लिखते हैं, कि लीजिए, यह आपका माल आया है, यह मेरा नहीं है। यह परोक्ष भक्ति कहलाती है। इसी प्रकार कृष्ण को भजे या चाहे किसी और को भजें, वह परोक्ष भक्ति होती है। अत: ये मूर्तियाँ नहीं होती तो क्या होता? उस सच्चे भगवान को भूल जाते और मूर्ति को भी भूल जाते, इसलिए उन लोगों ने जगह-जगह पर मूर्तियाँ रखवाईं। महादेव जी का मंदिर आए कि दर्शन करता है। देखेगा तो दर्शन होंगे न! देखेगा तो याद आएगा या नहीं आएगा? और याद आए तो दर्शन करता है। इसलिए ये मूर्तियाँ रखी हैं। लेकिन कुल मिलाकर यह सब आखिर में तो भीतर वाले को पहचान ने के लिए है। सच्चिदानंद में समाए सभी मंत्रयह त्रिमंत्र है उसमें पहले जैनों का मंत्र है, बाद में वासुदेव का और शिव का मंत्र है। और सच्चिदानंद में तो हिन्दू, मुस्लिम, विदेशी इन सभी लोगों के मंत्र आ गए। इन सभी मंत्रों को साथ बोलें, ये मंत्र निष्पक्षपात रूप से बोलें तब भगवान हम पर खुश होते हैं। एक व्यक्ति का पक्ष लें कि, ‘ॐ नम: शिवाय, ॐ नम: शिवाय’ सिर्फ यही बोला करें तो वे सभी खुश नहीं होंगे। इससे तो सभी देव खुश हो जाते हैं। जो मत में पड़े हुए हों यह उनका काम नहीं है। मत में से बाहर निकलेंगे, तब काम का है। कैसे-कैसे लोग हिंदुस्तान में हैं, अभी भी। पूरा हिंदुस्तान खत्म नहीं हो गया। यह हिंदुस्तान पूरा खत्म नहीं हो सकता। यह तो मूलत: आर्यों (पृ.३६)की भूमि है। और जिस भूमि पर तीर्थंकरों का जन्म हुआ! सिर्फ तीर्थंकर ही नहीं, तिरसठ शलाका पुरुष जिस देश में जन्म लेते हैं, वह देश है यह! बोलो पहाड़ी आवाज़ मेंयह भीतर मन में ‘नमो अरिहंताणं’ और सबकुछ बोले लेकिन भीतर मन में और कुछ चल रहा हो, उल्टा-पुल्टा। तो उससे कोई परिणाम नहीं मिलता। इसलिए कहा था न कि एकांत में जाकर, ऊँची पहाड़ी आवाज़ में बोलो। मैं तो ऊँची आवाज़ में नहीं बोलूँ तो चलेगा लेकिन आपको ऊँची आवाज़ में बोलना चाहिए। हमारा तो मन ही अलग तरह का है न! अब ऐसी एकांत जगह में जाए तो वहाँ पर यह त्रिमंत्र बोलना ऊँचे से। वहाँ नदी-नाले पर घूमने जाए तो वहाँ ज़ोर से बोलना, दिमाग़ में धम-धम हो ऐसे। प्रश्नकर्ता : ज़ोर से बोलने पर जो विस्फोट होता है उसका असर सब जगह पहुँचता है। इसलिए यह ख्याल में आता है कि ज़ोर से बोलने का प्रयोजन क्या है! दादाश्री : ऊँची आवाज़ में बोलने से बहुत फायदा ही है। क्योंकि जब तक ऊँची आवाज़ में नहीं बोलते, तब तक मनुष्य की सारी भीतरी मशीनरी (अंत:करण) बंद नहीं होती। यह बात प्रत्येक मनुष्य के लिए है। हमारी तो भीतरी मशीनरी बंद रहती है। लेकिन ये दूसरे लोग ऊँची आवाज़ में नहीं बोलें न, तो उनकी भीतरी मशीनरी बंद नहीं होगी। तब तक एकत्व प्राप्त नहीं होता। इसलिए हम कहते हैं कि ऊँची आवाज़ में बोलना। क्योंकि ऊँची आवाज़ में बोलें तो फिर मन बंद हो गया, बुद्धि खत्म हो गई और यदि धीरे-धीरे बोलेंगे न, तो मन भीतर चुन-चुन करता है, ऐसा होता है या नहीं होता है? (पृ.३७)प्रश्नकर्ता : होता है। दादाश्री : बुद्धि भी भीतर ऐसे दख़ल देती रहती है, इसलिए हम कहते हैं कि ऊँची आवाज़ में बोलना चाहिए। और एकांत में जाएँ तब उतनी ऊँची आवाज़ में बोलना कि जैसे आकाश उड़ा देना हो, ऐसे बोलना। क्योंकि ऊँची आवाज़ में बोलने से भीतर सब (सारा अंत:करण) बंद हो जाता है। मंत्र से नहीं होता आत्मज्ञानप्रश्नकर्ता : गुरु के दिए मंत्र-जाप करने से क्या आत्मज्ञान जल्दी होता है? दादाश्री : नहीं। संसार में अड़चनें कम होंगी लेकिन ये तीन मंत्र (त्रिमंत्र) साथ में बोलेंगे तो। प्रश्नकर्ता : तो ये मंत्र अज्ञानता दूर करने के लिए ही हैं न? दादाश्री : नहीं, त्रिमंत्र तो आपकी संसार की अड़चनें दूर करने के लिए हैं। अज्ञानता दूर करने के लिए तो मैंने जो आत्मज्ञान आपको दिया है (ज्ञानविधि द्वारा), वह है। त्रिमंत्र से, सूली का घाव सूई जैसा लगेज्ञानीपुरुष बिना बात की मेहनत में नहीं उतारते। कम से कम मेहनत करवाते हैं। इसलिए आपको ये त्रिमंत्र सुबह-शाम पाँच-पाँच बार बोलने को कहा है। ये मंत्र क्यों बोलने लायक हैं, क्योंकि इस ज्ञान के बाद आप तो शुद्धात्मा हुए लेकिन पड़ोसी कौन रहा? चंदू भाई (पाठक चंदू भाई की जगह स्वयं को समझें)। अब चंदू भाई को कोई (पृ.३८)अड़चन आए तब आप कहना कि, ‘चंदू भाई, एकाध बार यह त्रिमंत्र बोलो न, कोई अड़चन होगी तो इससे कम हो जाएगी’। क्योंकि वे हर एक प्रकार के संसार व्यवहार में हैं। उन्हें लक्ष्मी, लेन-देन सबकुछ है। त्रिमंत्र बोलने पर आने वाली अड़चनें कम हो जाएँगी। फिर अड़चनें अपना नैमित्तिक प्रभाव दिखाएँगी लेकिन इतना बड़ा पत्थर लगने वाला हो वह कंकड़ समान लगेगा। इसलिए यह त्रिमंत्र दिया है। कोई विघ्न आने वाला हो तो यह त्रिमंत्र आधे-आधे घंटे, एक-एक घंटे तक बोलना। एक गुणस्थानक (अड़तालीस मिनट) तक करना वर्ना रोज़ाना यह पाँच बार बोलना। लेकिन ये सभी मंत्र एक साथ बोलना और सच्चिदानंद भी बोलना। सच्चिदानंद में सभी लोगों का मंत्र आ जाता है। त्रिमंत्र का रहस्य यह है कि आपकी सारी सांसारिक अड़चनों का नाश होगा। आप रोज़ाना सवेरे बोलेंगे तो संसार की सारी अड़चनों का नाश होगा। आपको बोलने के लिए पुस्तक चाहिए तो एक पुस्तक देता हूँ। उसमें यह त्रिमंत्र लिखा है। वह पुस्तक यहाँ से ले जाना। प्रश्नकर्ता : इन त्रिमंत्रों से चक्र शीघ्रता से चलने लगेंगे? दादाश्री : इन त्रिमंत्रों को बोलने से दूसरे नए पाप नहीं बँधते, इधर-उधर उल्टे रास्ते पर भटक नहीं जाते और पुराने कर्म पूरे होते जाते हैं। यह त्रिमंत्र तो ऐसा है न कि नासमझ बोले तो भी फायदा होगा और समझदार बोले तो भी फायदा होगा। लेकिन समझदार को अधिक फायदा होगा और नासमझ को मुँह से बोला उतना ही फायदा होगा। एक सिर्फ यह टेपरिकॉर्ड (मशीन) बोलता है न, उसे फायदा नहीं होगा। लेकिन जिसमें आत्मा है, वह बोलेगा तो उसे फायदा होगा ही। (पृ.३९)यह जगत् शब्द से ही उत्पन्न हुआ है। अच्छे व्यक्ति का शब्द बोलने पर आपका कल्याण हो जाएगा और बुरे व्यक्ति का शब्द बोलने पर उल्टा हो जाएगा। इसीलिए यह सब समझना है। लक्ष्य तो चाहिए मोक्ष का हीकुछ पूछना हो तो पूछना, हं। यहाँ सबकुछ पूछ सकते हो मोक्ष में जाना है न? यहाँ पर मोक्ष में जा पाएँ ऐसा सबकुछ पूछ सकते हैं, यदि पूछना चाहें तो। मन का समाधान होगा, तो मोक्ष में जा पाएँगे न? वर्ना मोक्ष में कैसे जा पाएँगे? भगवान के शास्त्र तो हैं सारे, लेकिन शास्त्र समझ में आने चाहिए न? अनुभवी ज्ञानीपुरुष के बिना वे समझ में आएँगे ही नहीं और बल्कि गलत मार्ग पर चला जाएगा। प्रश्नकर्ता : नवकार मंत्र का जाप किस लक्ष्य से करना चाहिए? दादाश्री : वह तो केवल मोक्ष के लक्ष्य से ही करना चाहिए। अन्य कोई लक्ष्य नहीं होना चाहिए। ‘मेरे मोक्ष के लिए करता हूँ’ ऐसे मोक्ष के हेतु से करोगे तो सब प्राप्त होगा। और सुख के हेतु से करोगे तो सिर्फ सुख प्राप्त होगा, मोक्ष की प्राप्ति नहीं होगी। नवकार मंत्र तो मददगार है, मोक्ष के लिए। नवकार मंत्र व्यवहार से है, निश्चय से नहीं है। यह नवकार मंत्र किसलिए भजना है? ये पंच परमेष्टि भगवंत ही मोक्ष का साधन हैं। ये पाँचों सर्वश्रेष्ठ पद हैं। यही अपना ध्येय रखना। इन लोगों के पास भजना करना, इन लोगों के पास बैठे रहना और मरना हो तो भी वहीं मरना। हाँ, दूसरी जगह पर मत मरना। सिर पर आ पड़ना है तो इनके सिर पर आ पड़ना। अकर्मी के सिर पर पड़े, तो क्या से क्या हो जाएगा? (पृ.४०)मंत्र देने वाले की योग्यताप्रश्नकर्ता : आज के युग में मंत्र साधना शीध्र फल क्यों नहीं देती? मंत्र में क्षति है या साधक में कमी है? दादाश्री : मंत्र में क्षति नहीं है लेकिन मंत्रों की व्यवस्था में क्षति है। मंत्र सारे निष्पक्षपाती होने चाहिए। पक्षपात वाले मंत्र फल नहीं देंगे। निष्पक्षपाती मंत्र साथ होने चाहिए। क्योंकि मन खुद ही निष्पक्षता को खोज रहा है। तभी उसे शांति होगी। भगवान निष्पक्षपाती होते हैं। अत: मंत्र साधना तभी फल देगी यदि वह मंत्र देने वाला शीलवान होगा। मंत्र देने वाला ऐसा-वैसा नहीं होना चाहिए, लोकपूज्य होने चाहिए। लोगों के हृदय में बिराजमान हुए होने चाहिए। तो मंत्र से आत्मशुद्धि संभव है?प्रश्नकर्ता : संसार में नवकार मंत्र साथ देता है या नहीं? दादाश्री : नवकार मंत्र साथ देगा ही न! वह तो अच्छी चीज़ है। प्रश्नकर्ता : वह बोलने से धीरे-धीरे क्या आत्मा की शुद्धि करता है? दादाश्री : लेकिन हमें आत्मा की शुद्धि नहीं करनी है, क्योंकि आत्मा शुद्ध ही है। नवकार मंत्र तो आपको अच्छे लोगों को नमस्कार करने से, दर्शन करने से ऊपर उठाता है। लेकिन यदि समझकर बोलें तो! अत: नवकार मंत्र का अर्थ समझना पड़ेगा। यह तो तोता ‘राम राम’ बोले, इससे वह ‘राम’ को समझ पाएगा क्या? क्या तोता ‘राम राम’ नहीं बोलता? इसी तरह ये लोग नवकार मंत्र बोलते हैं। इसका क्या अर्थ? नवकार मंत्र तो ज्ञानीपुरुष से समझना चाहिए। किस समझ से नवकार भजें?नवकार मंत्र क्या है, इसे समझने वाले कितने होंगे? वर्ना यह (पृ.४१)नवकार मंत्र तो ऐसा मंत्र है कि एक ही बार नवकार बोला हो तो उसका फल कई दिनों तक मिलता रहे। अर्थात् जो रक्षण दे, ऐसा नवकार मंत्र का फल है। लेकिन किसी ने एक भी नवकार सच्चे रूप में समझकर नहीं बोला। यह तो जाप जपते रहते हैं लेकिन सही जाप किसी ने जपा ही नहीं न! नवकार मंत्र तो आपको बोलना ही कहाँ आता है? ऐसे ही बोलते हो। नवकार मंत्र बोलने वाले को चिंता नहीं होती। नवकार मंत्र इतना सुंदर है कि सिर्फ चिंता ही नहीं, लेकिन क्लेश भी चला जाए उसके घर में से। लेकिन बोलना आता ही नहीं है न! अगर बोलना आया होता तो ऐसा नहीं होता। किसी ने भी नवकार मंत्र दे दिया और हम बोलने लगे उसका अर्थ नहीं है। प्रश्नकर्ता : वह तो आपके पास से लेंगे। दादाश्री : लाइसेन्स वाली दुकान हो और वहाँ से लिया हो तो चलेगा। यदि बिना लाइसेन्स वाले के यहाँ से लोगे तो क्या होगा? वह खोटा, नकली माल पकड़ा देगा। शब्द वही के वही होंगे पर माल नकली होगा। आपको नकली माल पसंद है या असली पसंद है? नवकार मंत्र समझकर बोलना चाहिए। समझकर बोलने पर सभी भगवंतों को पहुँचेगा और हमारा नमस्कार तुरंत स्वीकार हो जाएगा। इस ‘दादा भगवान’ थ्रू (द्वारा) बोले कि पहुँच ही जाता है और फल प्राप्त होता है। यह तो पहले साल व्यापार किया और इतना फल प्राप्त हुआ, तो दस साल तक व्यापार चलता रहे तो? वह दुकान कैसी जम जाएगी? ‘नमो अरिहंताणं’ कहते ही सीमंधर स्वामी नज़र आने चाहिए। (पृ.४२)फिर ‘नमो सिद्धाणं’ वह नज़र नहीं आए लेकिन लक्ष्य में रहना चाहिए कि मैं अनंत ज्ञान वाला हूँ, मैं अनंत दर्शन वाला हूँ। (केवलज्ञान, केवलदर्शन वही परम ज्योतिस्वरूप भगवान हैं।) वे गुण लक्ष्य में होने चाहिए। ‘नमो आयरियाणं’ वे आचार्य भगवान जो खुद आचार का पालन करें और दूसरों को पालन करवाएँ। ये सब लक्ष्य में रहना चाहिए। प्राप्त करवाए यथार्थ फलये सभी नवकार मंत्र भजते हैं, उसका एक तो प्राकृतिक फल आएगा, भौतिक में सुंदर फल आएगा। लेकिन मैं तो इन सभी को ये जो ‘प्रत्यक्ष दादा भगवान की साक्षी में, वर्तमान में महाविदेह क्षेत्र में विचरते...’ बुलवाता हूँ न, वे नमस्कार इसी नवकार मंत्र में से यहाँ लिए गए हैं। ये जो नमस्कार बुलवाता हूँ, वे एक्ज़ेक्ट उन्हें पहुँचते हैं और उसका तुरंत एक्ज़ेक्ट (यथार्थ) फल मिलता है, और नवकार मंत्र का फल तो जब आए तब सही। लाखों लोग यह नवकार मंत्र बोलते हैं, वह किसे पहुँचता है? कुदरत का नियम ऐसा है कि जिसका है उसे पहुँचता है, लेकिन यदि सच्चे भाव से बोलें तो। तब किसका निदिध्यासन करना?प्रश्नकर्ता : त्रिमंत्र बोलते समय प्रत्येक पंक्ति पर किसका निदिध्यासन करना चाहिए, यह विस्तार से बताइए। दादाश्री : अध्यात्म को लेकर आपको किसी पर प्रेम आया है? आपको प्रेम का उछाल आया है किसी पर? किसके ऊपर आया है? प्रश्नकर्ता : आपके प्रति, दादा जी। (पृ.४३)दादाश्री : तो उसी का ही ध्यान करना। जिसके प्रति प्रेम का उछाल आए न, उसका ध्यान करना। उपयोगपूर्वक करने पर संपूर्ण फललोग तो नवकार मंत्र अपनी भाषा में ले गए। महावीर भगवान ने ऐसा कहा था कि इसे किसी प्राकृत भाषा में मत ले जाना, अर्धमागधी भाषा में रहने देना। उसका इन लोगों ने क्या अर्थ किया कि प्रतिक्रमण अर्धमागधी भाषा में ही रहने दिया और इस मंत्र के शब्दों के अर्थ निकालते रहे! प्रतिक्रमण उसमें तो ‘क्रमण’ है और यह तो मंत्र है। यदि प्रतिक्रमण सही तरीके से नहीं समझा जाए तो वे (एक ओर) गालियाँ देते रहते हैं और (दूसरी ओर) उसके प्रतिक्रमण करते रहते हैं! बात को समझे नहीं और कैसे-कैसे दुराग्रह लेकर बोलते हैं। यह त्रिमंत्र है, उसे कैसा भी पागल आदमी बोलेगा तो भी इसका फल पाएगा। फिर भी उसका अर्थ समझकर पढ़ें तो अच्छा है। यह नवकार मंत्र भी भगवान के समय से है और बिल्कुल सही है, लेकिन नवकार मंत्र समझ में आए तब न? उसका अर्थ समझे नहीं और गाते रहते हैं। इसलिए उसका जैसा लाभ मिलना चाहिए वैसा नहीं मिलता। लेकिन फिर भी फिसल नहीं पड़े, उतना अच्छा है। वर्ना नवकार मंत्र तो वह कहलाता है कि जहाँ नवकार मंत्र हो वहाँ चिंता क्यों हो? लेकिन अब बेचारा नवकार मंत्र क्या करे, जब आराधक ही टेढ़ा हो! कहावत है न कि ‘माला बेचारी क्या करे, जपने वाला कपूत!’ ऐसा है न? यह मंत्र सभी बोलते हैं, उनमें से कितने उपयोगपूर्वक बोलते हैं, ज़रा पूछ आओ? माला फेरते हैं, तब कितने लोग उपयोगपूर्वक (पृ.४४)माला फेरते हैं? तब फिर जल्दी निपटाने के लिए ‘भाग मोती, मोती आया; भाग मोती, मोती आया’ करते हैं। और इसीलिए थैलियाँ बनाई। खुले आम तो घोटाला नहीं कर सकते न? भगवान ने क्या कहा है कि, ‘तू जो-जो करेगा, माला फिराएगा, नवकार मंत्र बोलेगा, वह उपयोगपूर्वक करेगा तो उसका फल प्राप्त होगा। वर्ना नासमझी से करने पर तो ‘काँच’ लेकर ही घर जाएगा और असली हीरा तेरे हाथ नहीं लगेगा। उपयोग वाले को हीरा और उपयोग नहीं उसे काँच। और आज उपयोग वाले कितने हैं, वह आप पता लगा लेना। द्रव्यपूजा और भावपूजा वालों के लिएये साधु-आचार्य पूछते हैं कि, यह नवकार मंत्र और अन्य मंत्र साथ में बोलने का कारण क्या है? सिर्फ नवकार बोलने में क्या हर्ज है? मैंने कहा, ‘जैन सिर्फ नवकार मंत्र नहीं बोल सकते। सिर्फ नवकार मंत्र कौन बोल सकता है? जो त्यागी है, जिसे संसार से कुछ लेना-देना नहीं है, लड़कियों की शादी नहीं करनी हैं, लड़कों की शादी नहीं करनी हैं, ऐसे लोग सिर्फ नवकार मंत्र बोल सकते हैं’। लोग दो हेतुओं से मंत्र बोलते हैं। जो भावपूजा वाले हैं वे प्रगति के लिए बोलते हैं और दूसरे इस संसार की जो अड़चनें हैं उन्हें कम करने के लिए बोलते हैं। अर्थात् जो सांसारिक अड़चनों वाले हैं उन सभी को देवलोगों की कृपा चाहिए। इसलिए जो सिर्फ भावपूजा करते हैं, द्रव्यपूजा नहीं करते हैं, वे यह एक ही मंत्र बोल सकते हैं। और जो द्रव्यपूजा और भावपूजा दोनों ही करते हैं, उन्हें सारे मंत्र साथ में बोलने चाहिए। मूर्ति के भगवान द्रव्य भगवान हैं, द्रव्य महावीर हैं और यह भीतर भाव महावीर हैं। उन्हें तो हम भी नमस्कार करते हैं। (पृ.४५)मन को तर करे मंत्रजब तक मन है, तब तक मंत्र की ज़रूरत है और मन अंत तक रहने वाला है। जब तक शरीर है, तब तक मन है। मंत्र इटसेल्फ (स्वयं) कहता है कि मन को तर करना हो तो मंत्र बोलो। मन को खुश करने के लिए यह सुंदर रास्ता है। अर्थात् उसकी रचना ही इतनी अच्छी है कि आप मंत्र बोलो तो उसका फल प्राप्त हुए बिना रहेगा नहीं। त्रिमंत्र की भजना कहीं भीप्रश्नकर्ता : त्रिमंत्र मानसिक तौर पर किसी भी समय और किसी भी जगह किया जा सकता है या नहीं? दादाश्री : अवश्य। किसी भी समय किया जा सकता है। त्रिमंत्र तो संडास में भी बोल सकते हैं। लेकिन ऐसा कहने पर लोग दुरुपयोग करेंगे और फिर वे संडास में ही करते रहेंगे। ऐसा नहीं समझेंगे कि किसी दिन अड़चन हो और समय नहीं मिला, तो संडास में करे तो वह बात अलग है। यानी लोग इस बात को उल्टा पकड़ लेंगे। इसलिए इन लोगों के लिए नियम रखने पड़ते हैं, फिर भी हम कोई नियम नहीं रखते हैं। नवकार मंत्र के सर्जक कौन?प्रश्नकर्ता : नवकार मंत्र का सर्जक कौन है? दादाश्री : यह कुछ आज का प्रोजेक्ट नहीं है। यह तो पहले से ही है, लेकिन अन्य रूप में था। अन्य रूप में यानी भाषा में सिर्फ बदलाव होगा, लेकिन अर्थ वही का वही चला आ रहा है। त्रिमंत्र में कोई मॉनिटर नहींप्रश्नकर्ता : इन सभी मंत्रों में कोई अगुआ, मॉनिटर तो होगा न? (पृ.४६)दादाश्री : कोई मॉनिटर नहीं है। मंत्रों में मॉनिटर नहीं होते। मॉनिटर तो, लोग अपना-अपना मॉनिटर आगे बताते हैं कि यह ‘मेरा मॉनिटर’। प्रश्नकर्ता : लेकिन मैं सब से कहूँ कि ‘आप मेरा काम करना’ फिर दूसरे से कहूँ कि ‘आप मेरा काम करना’ तो मेरा काम कौैन करेगा? दादाश्री : जहाँ निष्पक्षपाती स्वभाव होता है वहाँ सभी काम करने के लिए तैयार रहते हैं, सभी के सभी! एक पक्ष का हुआ कि दूसरे तुरंत विरोधी हो जाते हैं। लेकिन यदि निष्पक्षता हो तो सभी काम करने के लिए तैयार हो जाते हैं। क्योंकि वे बहुत नोबल होते हैं। यह तो हम अपनी संकुचितता की वजह से उन्हें संकुचित बनाते हैं। निष्पक्षता से सभी काम होते हैं। यहाँ पर कभी परेशानी नहीं आई। हमारे यहाँ चालीस हज़ार लोग यह त्रिमंत्र बोलते हैं, किसी को कोई परेशानी नहीं आई। ज़रा-सी भी परेशानी नहीं आती। काम करे ऐसी दवा यहप्रश्नकर्ता : तीनों मंत्र साथ में बोलें तो अच्छा है। वह धर्म के समभाव और सद्भाव के लिए अच्छी बात है। दादाश्री : उसमें दवाई निहित होती है, काम करे ऐसी। जिन्हें लड़कियों की शादी करनी है, लड़कों की शादी करनी है, सांसारिक ज़िम्मेदारी और फर्ज अदा करने हैं, उन्हें सभी मंत्र बोलने पड़ेंगे। अरे, निष्पक्षपाती मंत्र बोल न! कहाँ पक्षपात में पड़ा है? यह नवकार मंत्र किसी की मालिकी भाव वाला है क्या? यह तो जो नवकार मंत्र भजेगा उसी का है। जो मनुष्य पुनर्जन्म समझने लगा है उसके लिए काम का है। जो पुनर्जन्म नहीं समझते, ऐसे लोगों (पृ.४७)के लिए यह किसी काम का नहीं। हिंदुस्तान के लोगों के लिए यह बात काम की है। सभी मंत्र क्रमिक में हैंप्रश्नकर्ता : जो नवकार मंत्र है, वह क्रमिक का मंत्र है न? दादाश्री : हाँ, सभी क्रमिक हैं। प्रश्नकर्ता : तो फिर यहाँ अक्रम मार्ग में उसे इतना स्थान क्यों दिया गया है? दादाश्री : उसका स्थान तो व्यवहारिक तरीके से है। अभी आप व्यवहार में जीते हैं न? और व्यवहार शुद्ध करना है न? तो यह मंत्र आपको व्यवहार में अड़चन नहीं आने देगा। यदि आपको व्यवहारिक अड़चने आती हों तो इन मंत्रों से कम हो जाएगी। इसलिए आपको इस त्रिमंत्र का रहस्य समझाया। इससे आगे विशेष कुछ जानने की ज़रूरत नहीं रहती?! जय सच्चिदानंद |